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डेली न्यूज़

  • 14 Jul, 2022
  • 66 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

RBI ने रुपए में व्यापार निपटान की अनुमति दी

प्रिलिम्स के लिये:

विदेश व्यापार, मुद्रा मूल्यह्रास और अधिमूल्यन, वैश्विक अनुमोदन, भुगतान संतुलन

मेन्स के लिये:

भारत की अर्थव्यवस्था पर वैश्विक अनुमोदनों का प्रभाव, रुपये में व्यापार को निपटाने के लाभ और चुनौतियाँ, अर्थव्यवस्था में सरकार का हस्तक्षेप

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने तत्काल प्रभाव से रुपए (INR) में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की सुविधा के लिये एक तंत्र स्थापित किया है।

  • हालाँकि ऐसे लेन-देन के लिये डीलर के रूप में कार्य करने वाले अधिकृत बैंकों को इसका उपयोग कर इसे सुविधाजनक बनाने के लिये नियामक से पूर्वानुमति लेनी होगी।
  • RBI द्वारा प्रस्तावित संशोधित फ्रेमवर्क के अनुसार, विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (FEMA), 1999 के तहत कवर किये गए क्रॉस-बॉर्डर निर्यात और आयात को भारतीय रुपए में डिनॉमिनेट और इनवॉइस किया जा सकता है. हालाँकि RBI ने निर्धारित किया है कि दोनों व्यापार भागीदार देशों की मुद्राओं के बीच विनिमय दर बाज़ार के अनुसार निर्धारित की जाएगी

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रुपया भुगतान तंत्र:

  • भारत में अधिकृत डीलर बैंकों को रुपया वोस्ट्रो खाते खोलने की अनुमति दी गई है (एक खाता जो एक अधिकृत बैंक दूसरे बैंक की ओर से रखता है)।
    • इस तंत्र के माध्यम से आयात करने वाले भारतीय आयातक भारतीय रुपए में भुगतान करेंगे जो विदेशी विक्रेता से माल या सेवाओं की आपूर्ति के लिये चालान भागीदार देश के अधिकृत बैंक के विशेष वोस्ट्रो खाते में जमा किया जाएगा।
    • तंत्र का उपयोग करने वाले भारतीय निर्यातकों को भागीदार देश के अधिकृत बैंक के नामित विशेष वोस्ट्रो खाते में जमा शेष राशि से भारतीय रुपए में निर्यात का भुगतान किया जाएगा।
  • भारतीय निर्यातक उपर्युक्त रुपए भुगतान तंत्र के माध्यम से विदेशी आयातकों से भारतीय रुपए में निर्यात के लिये अग्रिम भुगतान प्राप्त कर सकते हैं।
    • निर्यात के लिये अग्रिम भुगतान की ऐसी किसी भी प्राप्ति की अनुमति देने से पहले भारतीय बैंकों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि इन खातों में उपलब्ध धनराशि का उपयोग पहले से ही निष्पादित निर्यात आदेशों/पाइपलाइन में निर्यात भुगतान से उत्पन्न भुगतान दायित्वों के लिये किया जाता है।
    • विशेष वोस्ट्रो अकाउंट में शेष राशि का उपयोग निम्नलिखित के लिये किया जा सकता है: परियोजनाओं और निवेशों के लिये भुगतान, निर्यात/आयात अग्रिम प्रवाह प्रबंधन, सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश आदि।

मौजूदा तंत्र:

  • यदि कोई कंपनी निर्यात या आयात करती है, तो लेन-देन (नेपाल और भूटान जैसे देशों को छोड़कर) हमेशा एक विदेशी मुद्रा में होता है।
  • इसलिये आयात के मामले में भारतीय कंपनी को विदेशी मुद्रा में भुगतान करना पड़ता है (मुख्य रूप से डॉलर में और इसमें पाउंड, यूरो, येन आदि मुद्राएँ भी शामिल हो सकती हैं)।
  • निर्यात के मामले में भारतीय कंपनी को विदेशी मुद्रा में भुगतान किया जाता है और कंपनी उस विदेशी मुद्रा को रुपए में परिवर्तित कर देती है क्योंकिसे ज़्यादातर मामलों में अपनी ज़रूरतों के लिये रुपए की आवश्यकता होती है।

मौजूदा तंत्र के लाभ:

  • विकास को बढ़ावा:
    • यह वैश्विक व्यापार को बढ़ावा देगा और भारतीय रुपए के प्रति वैश्विक व्यापारिक समुदाय की बढ़ती रुचि का समर्थन करेगा।
  • स्वीकृत देशों के साथ व्यापार:
    • जब से रूस पर प्रतिबंध लगाए गए हैं, भुगतान की समस्या के कारण रूस के साथ व्यापार लगभग ठप है।
      • RBI द्वारा शुरू किये गए व्यापार सुविधा तंत्र के परिणामस्वरूप रूस के साथ भुगतान संबंधी मुद्दे को हल करना आसान हो गया है।
  • विदेशी मुद्रा में उतार-चढ़ाव:
  • रुपए की गिरावट पर नियंत्रण:
    • इस तंत्र का उद्देश्य रुपए में लगातार गिरावट के दौरान व्यापार प्रवाह हेतु रुपए में निपटान को बढ़ावा देकर विदेशी मुद्रा की मांग को कम करना है।

 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार हेतु भारत की पहल:

  • रुपया-रूबल समझौता:
    • रुपया-रूबल व्यापार व्यवस्था डॉलर या यूरो के बजाय देय राशि का निपटान रुपए में करने के लिये वैकल्पिक भुगतान तंत्र है।
      • रूस का स्टेट बैंक भारत में एक या एक से अधिक वाणिज्यिक बैंकों, जो कि विदेशी मुद्रा में व्यापार करने के लिये अधिकृत हैं, के साथ खातों का रखरखाव करेगा। इसके अलावा यदि बैंक आवश्यक समझता है तो भारतीय रिज़र्व बैंक के साथ स्टेट बैंक ऑफ रूस एक और खाता बनाए रखेगा।
        • भारत और रूस के निवासियों द्वारा भुगतान को केवल उन्हीं निर्दिष्ट खातों में डेबिट//क्रेडिट किया जाएगा।
  • मुक्त व्यापार समझौता (FTA):
    • भारत ने हाल ही में ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त अरब अमीरात के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं।
      • FTA दो या दो से अधिक देशों के बीच आयात और निर्यात की बाधाओं को कम करने के लिये एक समझौता है।
      • मुक्त व्यापार नीति के तहत वस्तुओं और सेवाओं का व्यापार अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के पार किया जा सकता है, जिसमें उनके विनिमय को बाधित करने के लिये बहुत कम या कोई सरकारी शुल्क, कोटा, सब्सिडी या निषेध नहीं है।
      • मुक्त व्यापार की अवधारणा व्यापार संरक्षणवाद या आर्थिक अलगाववाद (Economic Isolationism) के विपरीत है।
  • हिंद-प्रशांत आर्थिक ढाँचा:
    • भारत एक हिंद-प्रशांत आर्थिक ढाँचा (IPEF) स्थापित करने के लिये अमेरिका के नेतृत्व वाली पहल में शामिल हो गया है, इस कदम से आर्थिक संबंधों को और बढ़ावा देने में मदद मिलेगी।
    • सेवाओं के निर्यात के लिये अमेरिका लगातार भारत का सबसे बड़ा बाज़ार रहा है, हाल ही में अमेरिका को सामान की बिक्री के मामले में भी इसने चीन को पीछे छोड़ दिया, जिससे यह भारत का सबसे बड़ा द्विपक्षीय व्यापारिक भागीदार बन गया।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न (PYQs)

प्रश्न. भुगतान संतुलन के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन चालू खाते का गठन करता है? (2014)

  1. व्यापार संतुलन
  2. विदेशी संपत्ति
  3. अदृश्य का संतुलन
  4. विशेष आहरण अधिकार

नीचे दिये गए कूट का उपयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a)  केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) केवल 1, 2 और 4

उत्तर: C

व्याख्या:

  • भुगतान संतुलन (BoP) में दो मुख्य पहलू- चालू खाता और पूंजी खाता शामिल होते हैं।
  • BoP का चालू खाता माल, सेवाओं, निवेश आय और हस्तांतरण भुगतानों के प्रवाह एवं बहिर्वाह को मापता है। सेवाओं में व्यापार (अदृश्य), माल में व्यापार (दृश्यमान), विदेश से एकतरफा हस्तांतरण, प्रेषण तथा अंतर्राष्ट्रीय सहायता चालू खाते के कुछ मुख्य घटक हैं। सभी वस्तुओं और सेवाओं का संयोजन एक देश के व्यापार संतुलन (BoT) को दर्शाता है। अतः 1 और 3 सही हैं।
  • भुगतान संतुलन (Balance Of Payment-BoP) का अभिप्राय ऐसे सांख्यिकी विवरण से होता है, जो एक निश्चित अवधि के दौरान किसी देश के निवासियों के विश्व के साथ हुए मौद्रिक लेन-देनों के लेखांकन को रिकॉर्ड करता है।
  • निजी या सार्वजनिक क्षेत्रों द्वारा ऋण और उधार, निवेश और विदेशी मुद्रा भंडार में परिवर्तन पूंजी खाते के घटकों के कुछ उदाहरण हैं। अत: 2 और 4 सही नहीं हैं।

अतः विकल्प (c) सही उत्तर है।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

जमानत कानून में सुधार

प्रिलिम्स के लिये:

अपराधों के प्रकार, जमानत देने की शक्ति, CrPC, IPC, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले।

मेन्स के लिये:

मनमानी गिरफ्तारी का समाज पर प्रभाव, शासन के समक्ष भीड़भाड़ वाली जेलों की चुनौतियाँ, पुलिसिंग में सुधार और संबंधित निर्णय, संवैधानिक संरक्षण

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को रेखांकित किया कि जमानत से संबंधित कानून में सुधार किया जाना अति आवश्यक है और सरकार से यूनाइटेड किंगडम के कानून की तर्ज पर एक विशेष कानून बनाने पर विचार करने का आह्वान किया।

न्यायालय के निर्णय के बारे में:

  • दो न्यायाधीशों की बेंच ने जुलाई 2021 में जमानत कानून में सुधार (Bail Reform), (सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम CBI) पर दिये गए एक पुराने फैसले को लेकर कुछ स्पष्टीकरण जारी किये हैं।
    • निर्णय अनिवार्य रूप से आपराधिक प्रक्रिया के कई महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों की पुनरावृत्ति है।
  • देश में जेलों की स्थिति, जहाँ दो-तिहाई से अधिक विचाराधीन कैदी हैं, का उल्लेख करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने रेखांकित किया कि गिरफ्तारी एक कठोर उपाय है जिसका संयम से प्रयोग किये जाने की आवश्यकता है।
  • सैद्धांतिक रूप से न्यायालय ने मनमानी गिरफ्तारी के विचार को "जेल नही, जमानत" के नियम की अनदेखी करने वाले न्यायाधीशो की औपनिवेशिक मानसिकता से जोड़ा है।
    • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) पहली बार 1882 में तैयार की गई थी और समय-समय पर संशोधनों के साथ इसका उपयोग जारी है।

जमानत के संबंध में भारत का कानून:

  • CrPC जमानत शब्द को परिभाषित नहीं करता है, लेकिन केवल भारतीय दंड संहिता के तहत अपराधों को 'जमानती' और 'गैर-जमानती' के रूप में वर्गीकृत करता है।
  • CrPC जमानती अपराधों के लिये न्यायाधीशो को जमानत देने का अधिकार देता है।
    • इसमें जमानतनामा या जमानत बॉण्ड प्रस्तुत न करने पर भी रिहाई होगी।
  • गैर-जमानती अपराध के मामले में एक न्यायाधीश ही यह निर्धारित करेगा कि आरोपी जमानत पर रिहा होने के योग्य है या नहीं।
    • गैर-जमानती अपराध संज्ञेय हैं जो पुलिस अधिकारी को बिना वारंट के गिरफ्तार करने में सक्षम बनाता है।
    • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 436 में कहा गया है कि P.C के तहत एक जमानती अपराध के आरोपी व्यक्ति को जमानत दी जा सकती है। दूसरी ओर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 437 में कहा गया है कि गैर-जमानती अपराधों में आरोपी को जमानत का अधिकार नहीं है। गैर-जमानती अपराधों के मामले में जमानत देना अदालत का विवेकाधिकार है।

यूनाइटेड किंगडम में जमानत कानून:

  • यूनाइटेड किंगडम का जमानत अधिनियम, 1976 जमानत देने की प्रक्रिया निर्धारित करता है। 
  • इसका एक प्रमुख विशेषता यह है कि कानून का एक उद्देश्य "कैदियों की आबादी के आकार को कम करना" है।
  • कानून में प्रतिवादियों के लिये कानूनी सहायता सुनिश्चित करने के प्रावधान भी हैं।
  • अधिनियम जमानत दिये जाने के लिये एक "सामान्य अधिकार" को मान्यता देता है।
    • इसकी धारा 4 (1) के अनुसार, यह कानून उस व्यक्ति पर लागू होता है जिसे अधिनियम की अनुसूची 1 में दिये गए प्रावधान में जमानत दी जाएगी।
  • जमानत खारिज करने के लिये अभियोजन पक्ष को यह दिखाना होगा कि जमानत हेतु प्रतिवादी पर विश्वास करने के लिये आधार मौजूद हैं कि वह हिरासत में आत्मसमर्पण नहीं करेगा, न ही जमानत पर रहते हुए अपराध करेगा या गवाहों के साथ हस्तक्षेप करेगा और न ही न्याय के मार्ग में बाधा डालेगा, तब तक प्रतिवादी को अपने कल्याण या सुरक्षा के लिये या अन्य परिस्थितियों में हिरासत में नहीं लिया जाना चाहिये।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुधारों हेतु बनाए गए नियम:

  • जमानत हेतु अलग कानून:
    • न्यायालय ने रेखांकित किया कि CrPC में स्वतंत्रता के बाद किये गए संशोधनों के बावजूद यह बड़े पैमाने पर अपने मूल ढाँचे को बरकरार रखता है, जैसा कि अपने विषयों पर औपनिवेशिक शक्ति द्वारा तैयार किया गया था।
    • न्यायालय ने कहा कि फैसलों के बावजूद संरचनात्मक रूप से संहिता अपने आप में मौलिक स्वतंत्रता के मुद्दे के रूप में गिरफ्तारी के लिये ज़िम्मेदार नहीं है।
    • इसने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि यह ज़रूरी नहीं कि जिस्ट्रेट अपनी विवेकाधीन शक्तियों का समान रूप से प्रयोग करें।
    • न्यायालय के निर्णयों में एकरूपता और निश्चितता न्यायिक व्यवस्था की नींव है।
    • एक ही तरह के अपराध के आरोपी व्यक्तियों के साथ एक ही न्यायालय या अलग-अलग न्यायालय द्वारा कभी भी भिन्न व्यवहार नहीं किया जाएगा।
    • इस तरह की कार्रवाई भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का गंभीर उल्लंघन होगी।
    • न्यायालय एक अलग कानून बनाने की वकालत करता है जो जमानत देने से संबंधित है।
  • विवेकहीन गिरफ्तारियाँ:  
    • न्यायालय ने कहा कि बहुत अधिक एवं विवेकहीनगिरफ्तारियों की प्रवृत्ति, विशेष रूप से गैर-संज्ञेय अपराधों के लिये अनुचित है।
      • इसने इस बात पर ज़ोर दिया कि संज्ञेय अपराधों के लिये भी गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है और इसे "आवश्यक" होना चाहिये।
        • इस तरह की आवश्यक गिरफ्तारी भविष्य में किसी भी अपराध को रोकने के लिये उचित जाँच और सबूत के गायब करने या सबूत के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिये की जाती है।
        • ऐसे व्यक्ति को तथ्यों या सबूतों के संदर्भ में किसी भी व्यक्ति को कोई प्रलोभन, धमकी या वादा करने से रोकने के लिये उसे गिरफ्तार भी किया जा सकता है, ताकि उसे उक्त तथ्यों को न्यायालय या पुलिस अधिकारी के सामने प्रकट करने से रोका जा सके।
        • एक और आधार जिस पर गिरफ्तारी आवश्यक हो सकती है, वह यह है कि जब न्यायालय के समक्ष उसकी उपस्थिति आवश्यक हो और वह उपस्थित न हो
    • निचली न्यायालय का इस बात से संतुष्ट होना आवश्यक है कि शर्तों को पूरा किया गया है, इसी आधार "कोई गैर-अनुपालन आरोपी को जमानत लेने का हकदार होगा"।
  • जमानत आवेदन:  
    • संहिता की धारा 88, 170, 204 और 209 के तहत आवेदन पर विचार करते समय जमानत आवेदन पर ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं है।
      • ये धाराएँ मुकदमे के विभिन्न चरणों से संबंधित हैं जिनके आधार पर मजिस्ट्रेट आरोपी की रिहाई पर फैसला कर सकता है।
      • ये मजिस्ट्रेट की पेशी के लिये बॉण्ड लेने की शक्ति (धारा 88) से लेकर समन जारी करने की शक्ति (धारा 204) तक हैं।
      • सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने कहा कि इन परिस्थितियों में मजिस्ट्रेट को नियमित रूप से एक अलग जमानत आवेदन पर ज़ोर दिये बिना जमानत देने पर विचार करना चाहिये।
  • राज्यों के लिये निर्देश:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों को आदेशों का पालन करने और विवेकहीन गिरफ्तारी से बचने के लिये स्थायी आदेशों की सुविधा प्रदान करने का भी निर्देश दिया।
    • यह निश्चित रूप से न केवल अनुचित गिरफ्तारी को रोकेगा बल्कि विभिन्न न्यायालयों के समक्ष जमानत आवेदनों को भी रोकेगा क्योंकि सात साल तक के अपराधों के लिये इनकी आवश्यकता भी नहीं हो सकती है।

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली हेतु कानूनी ढाँचा:

  • भारतीय दंड संहिता (IPC) भारत की आधिकारिक आपराधिक सहिंता है जिसे वर्ष 1834 में स्थापित भारत के पहले विधि आयोग की सिफारिशों पर चार्टर अधिनियम, 1833 के तहत वर्ष 1860 में लॉर्ड थॉमस बबिंगटन मैकाले की अध्यक्षता में तैयार किया गया था।
  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) भारत में वास्तविक आपराधिक कानून के प्रशासन के लिये मुख्य कानून है। यह वर्ष 1973 में अधिनियमित किया गया था और 1 अप्रैल, 1974 को लागू हुआ था।

मनमानी गिरफ्तारी के खिलाफ संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 20:
    • अनुच्छेद 20 यह कहते हुए मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है कि "कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिये तब तक दोषी नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करते समय, जिसमें वह अपराधी के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक सज़ा का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किये जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी।"
  • अनुच्छेद 21:
    • अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रदान करता है।
    • किसी व्यक्ति की नरबंदी भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।
  • अनुच्छेद 22:
    • अनुच्छेद 22 गिरफ्तारी और नज़रबंदी के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है।
    • अनुच्छेद 22 का पहला भाग सामान्य कानून से संबंधित है और इसमें शामिल हैं:
      • गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित करने का अधिकार।
      • एक विधि व्यवसायी से परामर्श करने और बचाव करने का अधिकार।
      • यात्रा के समय को छोड़कर 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश होने का अधिकार।
      • 24 घंटे के बाद रिहा होने का अधिकार जब तक कि मजिस्ट्रेट आगे की हिरासत के लिये अधिकृत नहीं करता

आगे की राह

  • पुलिस कर्मियों के बीच कानूनों के बारे में जागरूकता बढ़ाना, एक क्षेत्र में शिकायतों की संख्या के अनुपात में पुलिस कर्मियों और स्टेशनों की संख्या में वृद्धि करना तथा आपराधिक न्याय प्रणाली में सामाजिक कार्यकर्त्ताओं एवं मनोवैज्ञानिकों को शामिल करना।
  • पीड़ित के अधिकारों और स्मार्ट पुलिसिंग पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। पुलिस अधिकारियों की दोषसिद्धि की दर और उनके द्वारा कानून का पालन न करने की दर का अध्ययन करने की आवश्यकता है।
  • जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने रेखांकित किया है, देश में विचाराधीन मामलों के प्रभावी प्रबंधन के लिये जमानत पर एक अलग कानून का मसौदा तैयार किया जाना चाहिये।
  • समाज के विभिन्न वर्गों से पुलिस बल में समावेशन बढ़ाना, ताकि किसी भी जाति/वर्ग/समुदाय के खिलाफ मनमानी गिरफ्तारी से बचने के लिये संतुलित मानसिकता प्रदान की जा सके।

यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न

प्रश्न. भारत के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:

  1. न्यायिक हिरासत का अर्थ है कि एक आरोपी संबंधित मजिस्ट्रेट की हिरासत में है और ऐसे आरोपी को पुलिस थाने में बंद कर दिया गया है, जेल में नहीं।
  2. न्यायिक हिरासत के दौरान मामले के प्रभारी पुलिस अधिकारी को अदालत की मंज़ूरी के बिना संदिग्ध से पूछताछ करने की अनुमति नहीं है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: B

व्याख्या:

  • न्यायिक हिरासत में एक आरोपी संबंधित मजिस्ट्रेट की हिरासत में होता है और जेल में बंद होता है, जबकि पुलिस हिरासत के मामले में एक आरोपी को थाने में बंद किया जाता है। अतः कथन 1 सही नहीं है।
  • न्यायिक हिरासत के दौरान मामले का प्रभारी पुलिस अधिकारी संदिग्ध से पूछताछ कर सकता है लेकिन मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति से। पुलिस हिरासत के मामले में पुलिस अधिकारी संदिग्ध से पूछताछ कर सकता है लेकिन उसे 24 घंटे के भीतर आरोपी को अदालत में पेश करना होगा। अत: कथन 2 सही है

अतः विकल्प (B) सही उत्तर है।

स्रोत: इंडियन एक्स्प्रेस


सामाजिक न्याय

वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक, 2022

प्रिलिम्स के लिये:

विश्व आर्थिक मंच, वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक, 2022

मेन्स के लिये:

वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक, 2022, लिंग, महिलाओं से संबंधित मुद्दे।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में विश्व आर्थिक मंच (WEF) ने वर्ष 2022 के लिये अपने वैश्विक लैंगिक अंतराल (Global Gender Gap-GGG) सूचकांक में भारत को 146 देशों में से 135वें स्थान पर रखा है।

  • भारत का समग्र स्कोर 0.625 (वर्ष 2021 में) से बढ़कर 0.629 हो गया है, जो पिछले 16 वर्षों में सातवाँ उच्चतम स्कोर है।
    • वर्ष 2021 में भारत 156 देशों में 140वें स्थान पर था।
  • लैंगिक अंतराल महिलाओं और पुरुषों के बीच का अंतर है जो सामाजिक, राजनीतिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक या आर्थिक उपलब्धियों या दृष्टिकोण में परिलक्षित होता है।

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वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक: 

  • परिचय:
    • यह उप-मैट्रिक्स के साथ चार प्रमुख आयामों में लैंगिक समानता की दिशा में उनकी प्रगति पर देशों का मूल्यांकन करता है।
      • आर्थिक भागीदारी और अवसर
      • शिक्षा का अवसर।
      • स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता।
      • राजनीतिक सशक्तीकरण।
    • चार उप-सूचकांकों में से प्रत्येक पर और साथ ही समग्र सूचकांक पर GGG सूचकांक 0 और 1 के बीच स्कोर प्रदान करता है, जहाँ 1 पूर्ण लैंगिक समानता दिखाता है और 0 पूर्ण असमानता की स्थिति को दर्शाता है।
    • यह सबसे लंबे समय तक चलने वाला सूचकांक है, जो वर्ष 2006 में स्थापना के बाद से समय के साथ लैंगिक अंतरालों को समाप्त करने की दिशा में प्रगति को ट्रैक करता है।
  • उद्देश्य:
    • स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और राजनीति पर महिलाओं व पुरुषों के बीच सापेक्ष अंतराल पर प्रगति को ट्रैक करने के लिये दिशासूचक के रूप में कार्य करना।
    • इस वार्षिक मानदंड के माध्यम से प्रत्येक देश के हितधारक प्रत्येक विशिष्ट आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संदर्भ में प्रासंगिक प्राथमिकताएँ निर्धारित करने में सक्षम होते हैं।

भारत की चार प्रमुख आयामों पर स्थिति:

  • राजनीतिक आधिकारिता (संसद में और मंत्री पदों पर महिलाओं का प्रतिशत):
    • भारत का सर्वोच्च स्थान (146 में से 48वाँ) है।
    • अपनी रैंक के बावजूद इसका स्कोर 0.267 पर काफी कम है।
      • इस श्रेणी में कुछ सर्वश्रेष्ठ रैंकिंग वाले देश बहुत बेहतर स्कोर करते हैं। 
      • उदाहरण के लिये आइसलैंड 0.874 के स्कोर के साथ प्रथम स्थान पर है और बांग्लादेश 0.546 के स्कोर के साथ 9वें स्थान पर है।
  • आर्थिक भागीदारी और अवसर (श्रम बल में महिलाओं का प्रतिशत, समान कार्य के लिये वेतन समानता, अर्जित आय):
    • रिपोर्ट में भारत 146 देशों में से 143वें स्थान पर है, भले ही इसका स्कोर वर्ष 2021 में 0.326 से 0.350 तक सुधरा है। 
      • वर्ष 2021 में भारत 156 देशों में से 151वें स्थान पर था। 
    • भारत का स्कोर वैश्विक औसत से काफी कम है और इस मापविधि पर भारत से केवल ईरान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान ही पीछे हैं। 
  • शिक्षा प्राप्ति (प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक शिक्षा में साक्षरता दर नामांकन दर):
    • भारत 146 में से 107वें स्थान पर है और पिछले वर्ष से इसका स्कोर थोड़ा खराब रहा है।
      • वर्ष 2021 में भारत 156 में से 114वें स्थान पर था।
  • स्वास्थ्य और उत्तरजीविता (जन्म के समय लिंगानुपात तथा स्वस्थ जीवन प्रत्याशा):
  • भारत सभी देशों में अंतिम (146वें) स्थान पर है।
  • इसका स्कोर वर्ष 2021 से नहीं बदला है जब यह 156 देशों में से 155वें स्थान पर था।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में लैंगिक अंतर को कम करने के लिये भारतीय पहलें

आर्थिक भागीदारी और स्वास्थ्य तथा उत्तरजीविता:

  • बेटी बचाओ बेटी पढाओ: यह बालिकाओं की सुरक्षा, अस्तित्व और शिक्षा सुनिश्चित करता है।
  • महिला शक्ति केंद्र: इसका उद्देश्य ग्रामीण महिलाओं को कौशल विकास और रोजगार के अवसरों के साथ सशक्त बनाना है।
  • महिला पुलिस स्वयंसेवक: इसमें राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में महिला पुलिस स्वयंसेवकों को शामिल करने की परिकल्पना की गई है जो पुलिस एवं समुदाय के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करते हैं तथा संकट में महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करते हैं।
  • राष्ट्रीय महिला कोष: यह एक शीर्ष सूक्ष्म वित्त संगठन है जो गरीब महिलाओं को विभिन्न आजीविका और आय सृजन गतिविधियों के लिये रियायती शर्तों पर सूक्ष्म ऋण प्रदान करता है।
  • सुकन्या समृद्धि योजना:  इस योजना के तहत बैंक खाते खोलकर लड़कियों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाया गया है।
  • महिला उद्यमिता: महिला उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिये सरकार ने स्टैंडअप इंडिया और महिला ई-हाट (महिला उद्यमियों / SHGs / गैर सरकारी संगठनों का समर्थन करने के लिये ऑनलाइन विपणन मंच), उद्यमिता व कौशल विकास कार्यक्रम (ईएसएसडीपी) जैसे कार्यक्रम शुरू किये हैं।
  • कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय: इन्हें शैक्षिक रूप से पिछड़े ब्लॉक (ईबीबी) में खोला गया है।
  • राजनीतिक आरक्षण: सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की हैं।

वैश्विक निष्कर्ष:

  • रैंकिंग:
    • 146 देशों में आइसलैंड ने दुनिया के सबसे अधिक लैंगिक समानता  (Gender-Equal) वाले देश के रूप में अपना स्थान बरकरार रखा है।
    • फिनलैंड, नॉर्वे, न्यूज़ीलैंड और स्वीडन क्रमशः सूची में शीर्ष पाँच देश हैं। 
    • रिपोर्ट में अफगानिस्तान सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला देश है।
  • परिदृश्य:
    • कुल मिलाकर GGG 68.1% की गिरावट के साथ बंद हुआ है। प्रगति की वर्तमान दर पर इसे पूर्ण समता तक पहुँचने में 132 वर्ष लगेंगे।
    • यद्यपि किसी भी देश ने पूर्ण लैंगिक समानता हासिल नहीं की लेकिन शीर्ष 3 अर्थव्यवस्थाओं ऐसी हैं जिन्होंने लैंगिक अंतराल को 80% तक कम किया है:
      • आइसलैंड (90.8%)
      • फिनलैंड (86%),
      • नॉर्वे (84.5%)
    • दक्षिण एशिया को लैंगिक समानता तक पहुँचने में सबसे अधिक समय (अनुमानतः 197 वर्ष) लगेगा।
  • कोविड-19 का प्रभाव:
    • कोविड-19 महामारी के कारण लैंगिक समानता की दिशा में होने वा प्रगति अवरुद्ध हुई है यहाँ तक कि कुछ मामलों में यह पूर्व स्थिति में भी पहुँची है।
    • महिलाओं पर मंदी का अधिक प्रभाव पड़ा है, जिसे व्यापक रूप से 'शीसेशन' (shecession) नाम दिया गया है, क्योंकि महिलाएँ कोविड से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों जैसे- रिटेल और आतिथ्य (hospitality) में कार्यरत थीं।
    • महामारी के कारण आई मंदी ने महिलाओं को वर्ष 2009 के वित्तीय संकट की तुलना में अधिक प्रभावित किया है।

विश्व आर्थिक मंच :

Global-Gender-Gap-Index-2022

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

मध्यस्थता विधेयक, 2021 पर संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट

प्रिलिम्स के लिये:

मध्यस्थता विधेयक, स्थायी समिति, मध्यस्थता परिषद।

मेन्स के लिये:

नए मध्यस्थता विधेयक का महत्त्व, विवाद निवारण तंत्र, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप

चर्चा में क्यों

हाल ही में कानून और न्याय संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने मध्यस्थता विधेयक, 2021 में पर्याप्त बदलाव की अनुशंसा की है।

  • न्यायालयों में लंबित मामलों को कम करने के उद्देश्य से यह विधेयक दिसंबर, 2021 में राज्यसभा में पेश किया गया था।
  • जैसे ही विधेयक को राज्यसभा में पेश किया गया, राज्यसभा के सभापति ने इसे जाँच के लिये भेज दिया।

 पैनल द्वारा उठा गए मुद्द: 

  • पूर्व मुकदमेबाज़ी:
    • पैनल ने पूर्व-मुकदमेबाज़ी मध्यस्थता की अनिवार्यता की प्रकृति सहित कई प्रमुख मुद्दों पर प्रकाश डाला।
    • मुकदमे-पूर्व मध्यस्थता को आवश्यक बनाने के परिणामस्वरूप मामले में देरी हो सकती है क्योंकि यह मामले के निपटान में विलंब करने के लिये यह एक और साधन प्रदान कर सकता है।
  • खंड 26:
    • पैनल मसौदे के 26 वें खंड के खिलाफ था जो सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय को उनके अनुसार पूर्व-मुकदमे के कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है।
  • गैर-व्यावसायिक विवादों के संदर्भ में इसका लागू न होना:
    • सदस्यों ने सरकार और उसकी एजेंसियों से जुड़े गैर-व्यावसायिक प्रकृति के विवादों/मामलों पर विधेयक के प्रावधानों के लागू न होने पर सवाल उठाया।
  • नियुक्तियाँ:
    • पैनल ने प्रस्तावित मध्यस्थता परिषद के अध्यक्ष और सदस्यों की योग्यता व नियुक्ति के संबंध में भी चर्चा की।

सिफारिशें:

  • पूर्व मुकदमेबाज़ी:
    • इसने पूर्व-मुकदमा मध्यस्थता को वैकल्पिक बनाने की सिफारिश की और सभी नागरिक तथा वाणिज्यिक विवादों के लिये इसे तत्काल प्रभाव से शुरू करने के बजाय चरणबद्ध तरीके से पेश किया।
    • वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 के तहत पूर्व-मुकदमा मध्यस्थता को लागू करते समय अन्य मामलों की श्रेणियों में इसे अनिवार्य करने से पहले अध्ययन किया जाना चाहिये।
  • अध्यक्ष की नियुक्ति:
    • पैनल ने सिफारिश की कि केंद्र सरकार एक चयन समिति के माध्यम से भारतीय मध्यस्थता परिषद के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति कर सकती है।
      • विधेयक में यह कहा गया था कि 'वैकल्पिक विवाद समाधान' से संबंधित समस्याओं से निपटने वाले लोग मध्यस्थता में 'क्षमता', 'ज्ञान और अनुभव' के आधार पर परिषद के सदस्य व अध्यक्ष बन सकते हैं।
  • प्रत्येक राज्य में चिकित्सा परिषद की स्थापना:  
    • भारतीय मध्यस्थता परिषद को आवंटित कर्तव्यों और दायित्वों की विशाल शृंखला को देखते हुए प्रत्येक राज्य में मध्यस्थता परिषदों की स्थापना की जानी चाहिये।
    • इन राज्य मध्यस्थता परिषदों को भारतीय मध्यस्थता परिषद के सामान्य पर्यवेक्षण, निर्देशन और नियंत्रण के तहत ऐसे कार्यों को करना चाहिये जो वह निर्दिष्ट कर सकते हैं।
  • विशिष्ट पंजीकरण संख्या
    • मध्यस्थता परिषद को प्रत्येक मध्यस्थ के लिये एक अद्वितीय पंजीकरण संख्या जारी करना चाहिये और उन प्रावधानों को बिल में शामिल करना चाहिये ताकि मध्यस्थता परिषद को नियमित रूप से प्रशिक्षण सत्र आयोजित करके मध्यस्थ का लगातार मूल्यांकन करने की अनुमति मिल सके तथा वार्षिक आधार पर मध्यस्थता का संचालन करने के लिये पात्र बनने हेतु मध्यस्थ एक न्यूनतम संख्या में क्रेडिट अंक अर्जित कर सकें।
    • मध्यस्थों को पंजीकृत करने वाले कई निकायों के बजाय, प्रस्तावित मध्यस्थता परिषद को मध्यस्थों के पंजीकरण और मान्यता के लिये नोडल प्राधिकरण बनाया जाना चाहिये।
  • समय-सीमा को कम करना: 
    • पैनल ने समय-सीमा को 180 दिनों से घटाकर 90 दिन करने और 180 दिनों के बजाय 60 दिनों की विस्तार अवधि की सिफारिश की।
  • फिर से परिभाषित करना: 
    • उन्होंने मध्यस्थता की नई परिभाषा को फिर से तैयार करने की भी सिफारिश की और इसे खंड 4 के तहत अलग से नहीं रखा क्योंकि यह पहले से ही खंड 3 में दी गई है। 

मध्यस्थता विधेयक, 2021 की मुख्य विशेषता:  

  • विधेयक का उद्देश्य न्यायालय या ट्रिब्यूनल के हस्तक्षेप की मांग करने से पहले मध्यस्थता के माध्यम से किसी भी नागरिक या वाणिज्यिक विवाद को निपटाना है।
  • दो मध्यस्थता सत्रों के बाद एक पक्ष मध्यस्थता से हट सकता है।
  • मध्यस्थता प्रक्रिया को 180 दिनों के भीतर पूरा किया जाना चाहिये, जिसे 180 दिनों के लिये और बढ़ा सकते हैं। 
  • पूरी प्रक्रिया को विनियमित करने के लिये भारत मध्यस्थता परिषद की स्थापना की जाएगी।
    • इसके कार्यों में मध्यस्थों को पंजीकृत करना और मध्यस्थता सेवा प्रदाताओं और मध्यस्थता संस्थानों को मान्यता देना शामिल है।
  • इसके अलावा मध्यस्थता के परिणामस्वरूप होने वाले समझौते बाध्यकारी और न्यायालय के निर्णयों के समान ही लागू करने योग्य होंगे।

मध्यस्थता:

  • मध्यस्थता एक स्वैच्छिक, बाध्यकारी प्रक्रिया है जिसमें एक निष्पक्ष और तटस्थ मध्यस्थ विवादित पक्षों के बीच समझौता कराने में मदद करता है।
  • मध्यस्थ विवाद का कोई समाधान प्रदान नहीं करता है बल्कि एक अनुकूल वातावरण बनाता है जिसमें विवादित पक्ष अपने सभी विवादों को हल कर सकते हैं। 
  • मध्यस्थता विवाद समाधान का एक आजमाया हुआ और परखा हुआ वैकल्पिक तरीका है। यह दिल्ली, रांची, जमशेदपुर, नागपुर, चंडीगढ़ एवं औरंगाबाद शहरों में सफल साबित हुआ है।
  • मध्यस्थता एक संरचित प्रक्रिया है जहाँ एक तटस्थ व्यक्ति विशेष संचार और बातचीत तकनीकों का उपयोग करता है तथा मध्यस्थता प्रक्रिया में भाग लेने वाले पक्षों द्वारा स्पष्ट रूप से इसका समर्थन किया जाता है।
  • मध्यस्थता के अलावा कुछ अन्य विवाद समाधान विधियाँ जैसे- विवाचन (Arbitration), बातचीत (Negotiation) और सुलह (Conciliation) हैं ।
  • मध्यस्थता एक प्रकार का वैकल्पिक विवाद समाधान है क्योंकि वे मुकदमेबाजी का विकल्प प्रदान करते हैं।
    • ADR कार्यवाही पार्टियों द्वारा शुरू की जा सकती है या कानून, न्यायालय या संविदात्मक प्रावधानों द्वारा अनिवार्य है।

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स्रोत: द हिंदू


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

जीनोमिक्स लोकतंत्र

प्रिलिम्स के लिये:

जीनोम, जीनोमिक्स, बायोटेक्नोलॉजी, डब्ल्यूएचओ, साइंस काउंसिल, एप्लीकेशन ऑफ जीनोमिक्स, डीएनए, आरएनए

मेन्स के लिये:

जीनोम के पीछे का विज्ञान, जीनोमिक्स का विकास, मानव जीवन में जीनोमिक्स का अनुप्रयोग, जीनोमिक्स में वैश्विक सहयोग के उपाय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की विज्ञान परिषद ने विकासशील देशों को जीनोमिक प्रौद्योगिकियों को पारित करने की वकालत करते हुए एक रिपोर्ट "वैश्विक स्वास्थ्य के लिये जीनोमिक्स तक पहुंँच में तेज़ी” जारी की है।

  • रिपोर्ट ने रोगजनकों की जीनोमिक निगरानी के लिये WHO की 10 साल की रणनीति का पालन किया।
    • वैश्विक कोविड-19 प्रतिक्रिया में जीनोमिक निगरानी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, दक्षिण अफ्रीका जैसे देश इस क्षेत्र में अपनी क्षमताओं के कारण वेरिएंट का पता लगाने में आवश्यक योगदान देने में सक्षम हैं।

WHO विज्ञान परिषद:

  • WHO के निदेशक द्वारा अप्रैल 2021 में स्थापित इसमें दुनिया भर के 9 प्रमुख वैज्ञानिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञोसे बना है।
  • परिषद उच्च प्राथमिकता वाले मुद्दों और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्रगति पर निदेशक को सलाह देती है जो सीधे वैश्विक स्वास्थ्य में सुधार कर सकती है।
  • इसने सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये महत्त्वपूर्ण प्रभावों को देखते हुए जीनोमिक्स को अपने पहले अध्ययन के मुख्य केंद्र के रूप में पहचाना।

WHO की रिपोर्ट:

  • विशेष रूप से निम्न और मध्यम आय वाले देशों (LMIC) के लिये जीनोमिक प्रौद्योगिकियों तक पहुंँच का विस्तार करने की आवश्यकता है।
  • कम संसाधनों वाले देशों के लिये ऐसी तकनीकों तक देर से पहुँच प्राप्त करना नैतिक या वैज्ञानिक रूप से उचित नहीं है।
  • जीनोमिक प्रौद्योगिकियों तक पहुंँच का विस्तार करने के लिये वित्तपोषण, प्रयोगशाला के बुनियादी ढाँचे, सामग्री और उच्च प्रशिक्षित कर्मियों की कमी को दूर करने की आवश्यकता है।
  • जब तक उन्हें दुनिया भर में तैनात नहीं किया जाता है, तब तक पूरी तरह से लाभ प्राप्त नहीं होंगे।
    • केवल समानता के माध्यम से ही विज्ञान अपने पूर्ण संभावित प्रभाव तक पहुँच सकता है और हर जगह, हर किसी के स्वास्थ्य में सुधार किया जा सकता है।
  • रिपोर्ट ने चार विषयों को संबोधित करने की सिफारिश की:
    • वकालत, कार्यान्वयन, सहयोग और संबद्ध नैतिक, कानूनी और सामाजिक मुद्दे।
  • रिपोर्ट में यह भी सिफारिश की गई है कि WHO सिफारिशों को आगे बढ़ाने और उनके अनुप्रयोगों की निगरानी के लिये जीनोमिक्स समिति बनाए।

जीनोमिक्स:

Genomics

  • परिचय:
    • जीनोमिक्स का क्षेत्र डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (DNA) और राइबोन्यूक्लिक एसिड (आरएनए) में जैविक जानकारी को समझने तथा उपयोग करने हेतु जैव रसायन, आनुवंशिकी एवं आणविक जीव विज्ञान विधियों का उपयोग किया जाता है।
    • जीनोमिक विज्ञान में उपयोग की जाने वाली अनेक तकनीक प्रचलित हैं और उनका विस्तार आज भी जारी है।
      • इस क्षेत्र में सबसे मौलिक घटक सभी जानवरों, पौधों और रोगाणुओं में आनुवंशिक जानकारी की समग्रता, जिसमें वायरस भी शामिल हैं, के जैविक सूचनाओं को चित्रित करने के लिये डिज़ाइन करना है जो जीनोम्स में संग्रहीत होते हैं जैसे- DNA के न्यूक्लियोटाइड अनुक्रम (या कभी-कभी RNA)।
  • जीनोमिक्स के अनुप्रयोग:
    • संक्रामक रोगों को नियंत्रित करना:
      • संक्रामक घटकों के विकास का अध्ययन।
      • विशिष्ट जीनों को फेनोटाइपिक, जैसे कि संक्रामकता और रोगजनकता प्रदान करना।
      • एक संक्रामक घटक की संवेदनशीलता या दवाओं के प्रतिरोध का मूल्यांकन करना।
    • आनुवंशिक स्थितियों का निवारण और प्रबंधन:
      • आनुवंशिक विकार के लिये ज़िम्मेदार वाहक स्थिति का मूल्यांकन करना।
      • एकल जीन विकारों की जाँच और उनका निदान।
      • कई पुरानी बीमारियों के लिये रोग की संवेदनशीलता या प्रवृत्ति का आकलन करना।
      • विषाक्तता को कम करने के लिये क्रिया तंत्र या चयापचय के आनुवंशिक निर्धारकों के आधार पर दवाओं का चयन करना।
    • कृषि:
      • जंगली प्रजातियों में आनुवंशिक विविधता की सूची तैयार करना।
      • स्वास्थ्य और व्यावसायिक लक्षणों के लिये आनुवंशिक रूप-रेखा का आकलन करना।
      • पर्यावरणीय तनाव के प्रति संवेदनशीलता और प्रतिक्रियाओं की भविष्यवाणी करना।
  • जीनोमिक्स के लाभ:
    • आर्थिक:
      • यह वाणिज्यिक लाभ के लिये प्रत्यक्ष प्रोत्साहन सेवाएँ प्रदान करता है , जो मशीनों और अभिकर्मकों का उत्पादन करता है।
      • यह जनसंख्या स्वास्थ्य में सुधार (बेहतर चिकित्सा देखभाल, जीवन की गुणवत्ता, संभावित रूप से कम स्वास्थ्य देखभाल उपयोग) और बौद्धिक संपदा अधिकारों के निर्माण के माध्यम से अप्रत्यक्ष प्रोत्साहन प्रदान करता है।
      • शैक्षणिक, चिकित्सा और व्यावसायिक पदों पर रोज़गार का सृजन करता है।
    • सामाजिक और पर्यावरण:
      • यह संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्यों, विशेष रूप से गरीबी, भूख को   और स्वास्थ्य से संबंधित प्रगति में भूमिका अदा करता है।
      • यह संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्यों; विशेष रूप से  सतत् विकास लक्ष्य 1 से 3  क्रमशः  गरीबी, भूख और स्वास्थ्य से संबंधित प्रगति में भूमिका प्रदान करता है।
      • इसके अलावा यह समुद्री और भूमि संसाधनों (लक्ष्य 14 और 15) के संरक्षण के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों में सहायता करता है।
    • स्वास्थ्य :
      • जीनोमिक्स संक्रामक घटकों के लिये आबादी के सर्वेक्षण से मानव स्वास्थ्य में भारी योगदान दे सकता है, जैसे कि यह कोविड -19  एवं कैंसर जैसे  विभिन्न प्रकार की बीमारियों का उपचार करने में योगदान प्रदान कर सकता है।
  • जीनोमिक्स में व्याप्त चुनौतियाँ :
    • इससे मानव विषयों से प्राप्त जीनोमिक जानकारी के माध्यम से गोपनीयता का उल्लंघन करने, रोज़गार और बीमा में भेदभाव की संभावना पैदा करने, अनुचित वित्तीय लाभ प्रदान करने या सांस्कृतिक अनादर करने की आशंका विद्यमान है।
    • प्रतिभागियों और उनके द्वारा प्रदान किये गए आँकड़े की अपर्याप्त सुरक्षा, जीनोमिक जानकारी के दुरुपयोग को जोखिम में डालती है, जबकि जीनोमिक जानकारी के संग्रहण, साझाकरण और उपयोग के बारे में अनुचित प्रतिबंधात्मक नियम, ऐसी जानकारी प्रदान करने वाले लाभों को सीमित करते हैं।

WHO रिपोर्ट की सिफारिशें

  • समर्थन द्वारा जीनोमिक्स को बढ़ावा: विभिन्न पक्षकारों द्वारा समर्थन के माध्यम से सभी सदस्य राज्यों में जीनोमिक्स को अपनाने या इसके विस्तारित उपयोग को बढ़ावा देना।
    • WHO को अपने सदस्य राज्यों में जीनोमिक्स के विस्तारित उपयोग का समर्थन करने के लिये वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका का उपयोग करना चाहिये।
    • WHO को वैश्विक स्तर पर जीनोमिक तकनीक तक सस्ती पहुँच को बढ़ावा देना चाहिये ताकि सभी सदस्य राज्य, विशेष रूप से निम्न और मध्यम आय वाले देश (LMICs), बेहतर स्वास्थ्य एवं अन्य लाभों के लिये जीनोमिक्स के उपयोग को अपना सकें तथा इसका विस्तार कर सकें।
  • जीनोमिक कार्यप्रणाली का कार्यान्वयन:
    • स्थानीय नियोजन, वित्तपोषण, आवश्यक कर्मियों के प्रशिक्षण और उपकरणों, सामग्रियों एवं कम्प्यूटेशनल बुनियादी ढाँचे के प्रावधान के माध्यम से जीनोमिक्स के कार्यान्वयन में बाधा डालने वाले व्यावहारिक मुद्दों की पहचान कर उन्हें दूर किया जाना चाहिये।
      • WHO को सदस्य राज्यों को राष्ट्रीय या क्षेत्रीय जीनोमिक कार्यक्रमों के कार्यान्वयन हेतु सर्वोत्तम प्रथाओं के संबंध में मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिये।
      • सदस्य राज्यों को जीनोमिक क्षमताओं के निर्माण या विस्तार के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम स्थापित करने चाहिये या एक क्षेत्रीय कार्यक्रम में शामिल होना चाहिये।
  • जीनोमिक्स में संलग्न संस्थाओं के बीच सहयोग:
    • सदस्य राज्यों में जीनोमिक्स को बढ़ावा देने वाले राष्ट्रीय और क्षेत्रीय कार्यक्रमों के सभी पहलुओं के संवर्द्धन हेतु सहयोगी गतिविधियों के लिये प्रतिबद्धताओं को बढ़ावा देना।
      • WHO को प्रभावी मौजूदा सहयोगी व्यवस्थाओं को मज़बूत करके और विशिष्ट ज़रूरतों के लिये नई व्यवस्थाओं के निर्माण में मदद कर जीनोमिक्स पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना चाहये।
      • उद्योग, शिक्षा और नागरिक समाज को महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य समस्याओं, विशेष रूप से LMICs में प्रचलित समस्याओं को हल करने में मदद करने के लिये जीनोमिक्स के उपयोग पर सहयोग करना चाहिये।
  • जीनोमिक्स द्वारा उत्पन्न नैतिक, कानूनी और सामाजिक मुद्दों (ELSIs) पर ध्यान देना:
    • जीनोमिक्स के अभ्यास में प्रभावी निरीक्षण और राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय नियमों और मानकों के माध्यम से जीनोमिक विधियों के साथ प्राप्त जानकारी के नैतिक, कानूनी तथा न्यायसंगत उपयोग व ज़िम्मेदारीपूर्ण साझाकरण को बढ़ावा देना।
      • WHO की जीनोमिक्स समिति को जीनोमिक्स के नैतिक एवं सामाजिक प्रभावों से निपटने के लिये मार्गदर्शन के संरक्षक के रूप में कार्य करना चाहिये, जिसमें जीनोमिक से संबंधित जानकारी का वैश्विक शासन भी शामिल है।
      • सदस्य राज्यों में स्थित संगठनों, विशेष रूप से वित्तपोषण एजेंसियों, शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी इकाइयों को ELSIs व WHO तथाअन्य अंतर्राष्ट्रीय निकायों द्वारा जीनोमिक ELSIs से संबंधित शेष मुद्दों के समाधान विकसित करने के प्रयासों के प्रति तत्पर रहना चाहिये।

यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न:

प्रश्न. भारत में कृषि के संदर्भ में प्रायः समाचारों में आने वाले ‘जीनोम अनुक्रमण (जीनोम सीक्वेंसिंग)’ की तकनीक का भविष्य में किस प्रकार उपयोग किया जा सकता है? (2017)

  1. विभिन्न फसली पौधों में रोग प्रतिरोध और सूखा सहिष्णुता के लिये आनुवंशिक सूचकाें का अभिज्ञान करने के लिये जीनोम अनुक्रमण का उपयोग किया जा सकता है।
  2. यह तकनीक फसली पौधों की नई किस्मों को विकसित करने में लगने वाले आवश्यक समय को कम करने में मदद करती है।
  3. इसका प्रयोग फसलों में पोषी-रोगाणु संबंधों को समझने के लिये किया जा सकता है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)

व्याख्या:

  • चीनी वैज्ञानिकों ने वर्ष वर्ष 2002 में चावल के जीनोम को डिकोड किया। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) के वैज्ञानिकों ने चावल की बेहतर किस्मों जैसे- पूसा बासमती-1 और पूसा बासमती -1121 को विकसित करने के लिये जीनोम अनुक्रमण का उपयोग किया, जिसने वर्तमान में भारत के चावल निर्यात में काफी हद तक वृद्धि की है।
  • जीनोम अनुक्रमण में कम समय लगता है।
  • जीनोम अनुक्रमण एक फसल के संपूर्ण डीएनए अनुक्रम का अध्ययन करने में सक्षम बनाता है, इस प्रकार यह रोगजनकों के अस्तित्व या प्रजनन क्षेत्र को समझने में सहायता प्रदान करता है, अतः विकल्प (d) सही उत्तर है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


भारतीय राजनीति

चुनाव चिह्न को लेकर विवाद

प्रिलिम्स के लिये :

चुनाव चिह्न, निर्वाचन आयोग, ईवीएम, चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968।

मेन्स के लिये:

चुनाव और संकल्प पर विवाद।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में एक राजनीतिक दल ने पार्टी के चुनाव चिह्न पर दावा करने के लिये भारत के निर्वाचन आयोग (ECI) से संपर्क किया है।

 चुनाव चिह्न:

  • चुनाव चिह्न किसी राजनीतिक दल को आवंटित एक मानकीकृत प्रतीक है।
  • इस चिह्न का उपयोग पार्टियों द्वारा अपने प्रचार अभियान के दौरान किया जाता है और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) पर इसे दर्शाया जाता है, जहाँ मतदाता संबंधित पार्टी के चिह्न के आधार पर अपना प्रतिनिधि चुनता है।
  • इसका प्रावधान मुख्यतः निरक्षर लोगों द्वारा मतदान की सुविधा के लिये पेश किया गया था, जो वोट डालते समय पार्टी का नाम पढ़ने में अक्षम होते हैं ।
  • 1960 के दशक में यह प्रस्तावित किया गया था कि चुनावी प्रतीकों का विनियमन, आरक्षण और आवंटन संसद के एक कानून यानी प्रतीक आदेश के माध्यम से किया जाना चाहिये।

ऐसे विवादों में चुनाव आयोग की शक्तियाँ:

  • चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों को मान्यता देने और चुनाव चिह्न आवंटित करने का अधिकार देता है।
    • आदेश के पैरा 15 के तहत यह प्रतिद्वंद्वी समूहों या किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के वर्गों के बीच विवादों को अपने नाम और प्रतीक पर दावा करने का फैसला कर सकता है।
  • प्रतिद्वंद्वी समूहों के बीच प्रतिनियुक्ति पर प्रतीक आदेश कहता है कि चुनाव आयोग को मामले के सभी उपलब्ध तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद निर्णय लेने का अधिकार है कि एक प्रतिद्वंद्वी वर्ग या समूह या ऐसा कोई भी प्रतिद्वंद्वी वर्ग या समूह मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल नहीं है।
  • आयोग का निर्णय ऐसे सभी प्रतिद्वंद्वी वर्गों/समूहों पर बाध्यकारी होगा।
    • यह मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्य दलों के बीच विवादों पर लागू होता है।
  • पंजीकृत लेकिन गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियों में विभाजन के लिये चुनाव आयोग आमतौर पर युद्धरत गुटों को अपने मतभेदों को आंतरिक रूप से हल करने या अदालत जाने की सलाह देता है।

चुनाव आयोग द्वारा निर्धारण:

  • ECI मुख्य रूप से एक राजनीतिक दल के भीतर अपने संगठनात्मक इकाई और उसके विधायी इकाई में दावेदार द्वारा प्राप्त समर्थन का पता लगाता है।
  • संगठनात्मक संभाग के मामले में आयोग पार्टी के एकजुट होने की स्थिति में पार्टी के संविधान और इसके पदाधिकारियों की प्रस्तूत सूची की जाँच करता है।
    • भारत निर्वाचन आयोग संगठन में शीर्ष समिति (समितियों) की पहचान करता है और पता लगाता है कि कितने पदाधिकारी, सदस्य या प्रतिनिधि प्रतिद्वंद्वी दावेदारों का समर्थन करते हैं।
  • विधायी संभाग के मामले में पार्टी/दल प्रतिद्वंद्वी शिविरों में सांसदों (संसद सदस्य) और विधायकों (विधानसभा सदस्य) की संख्या का आकलन करती है। निर्वाचन आयोग इन सदस्यों द्वारा दायर किये गए हलफनामों पर विचार कर सकता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि वे किसका समर्थन करते हैं।
  • ECI एक गुट के पक्ष में विवाद का फैसला कर सकता है कि यह मान्यता प्राप्त पार्टी के नाम और प्रतीक के हकदार होने के लिये अपने संगठनात्मक तथा विधायी विंग में पर्याप्त समर्थन प्राप्त करता है।
  • यह दूसरे समूह को स्वयं को एक अलग राजनीतिक दल के रूप में पंजीकृत करने की अनुमति दे सकता है।

क्या होता है जब कोई निश्चितता नहीं होती है?

  • जब भी कोई राजनितिक दल या तो उर्ध्वाधर रूप से विभाजित होता है निश्चित रूप से यह कहना संभव नहीं होता है कि किस समूह के पास बहुमत है, तो ऐसी स्थिति में निर्वाचन आयोग राजनितिक दल के प्रतीक चिह्न को फ्रीज कर सकता है और समूहों को नए नामों के साथ स्वयं को पंजीकृत करने या पार्टी के मौजूदा नामों में उपसर्ग या प्रत्यय जोड़ने की अनुमति दे सकता है।

क्या होता है जब भविष्य में प्रतिद्वंद्वी गुट फिर से एकजुट हो जाते हैं?

  • यदि वे फिर से एकजुट हो जाते हैं, तो दावेदार पुनः निर्वाचन आयोग से संपर्क कर सकते हैं और एक एकीकृत पार्टी के रूप में मान्यता प्राप्त करने की मांग कर सकते हैं।
  • निर्वाचन आयोग के पास दलों के विलय को एक इकाई दल के रूप में मान्यता देने का भी अधिकार है। यह मूल पार्टी के प्रतीक और नाम को पुनर्स्थापित कर सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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