ग्रेटर टिपरालैंड की मांग: त्रिपुरा
प्रिलिम्स के लिये:त्रिपुरा, केंद्र राज्य संबंध, अलग राज्य की मांग मेन्स के लिये:अलग राज्य के लिये संवैधानिक प्रावधान, त्रिपुरा में अलग राज्य की मांग |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में त्रिपुरा के इंडिजनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) राजनितिक दल के प्रमुख सचिव ने पूरी तरह से अलग राज्य "ग्रेटर टिपरालैंड" की मांग को उठाने के लिये जंतर मंतर, नई दिल्ली में दो दिवसीय धरने का नेतृत्त्व करने का निर्णय लिया है।
- इसका उद्देश्य राज्य में स्थानीय समुदायों के अधिकारों को सुरक्षित करना है।
प्रमुख बिंदु
- मांग:
- यह पार्टी पूर्वोत्तर राज्य के मूल समुदायों के लिये 'ग्रेटर तिपरालैंड' के रूप में एक अलग राज्य की मांग कर रही है।
- उनकी मांग हैं कि केंद्र संविधान के अनुच्छेद 2 और 3 के तहत अलग राज्य बनाए।
- त्रिपुरा में 19 अधिसूचित अनुसूचित जनजातियों में त्रिपुरी (तिप्रा और टिपरास) सबसे बड़ी है।
- 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में कम-से-कम 5.92 लाख त्रिपुरी हैं, इसके बाद ब्रू या रियांग (1.88 लाख) और जमातिया (83,000) हैं।
- वह न केवल मूल निवासियों के लिये बल्कि त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त ज़िला परिषद (The Tripura Tribal Areas Autonomous District Council- TTAADC) क्षेत्र में रहने वाले सभी समुदायों के लिये भी एक अलग राज्य की मांग कर रहे हैं।
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
- त्रिपुरा 13 वीं शताब्दी के अंत से वर्ष 1949 में भारत सरकार के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने तक माणिक्य वंश द्वारा शासित एक राज्य था।
- यह मांग राज्य की जनसांख्यिकी में बदलाव के संबंध में स्थानीय समुदायों की चिंता से उपजी है जिसने उन्हें अल्पसंख्यक बना दिया है।
- यह वर्ष 1947 से वर्ष 1971 के मध्य तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से बंगालियों के विस्थापन के कारण हुआ।
- त्रिपुरा में आदिवासियों की जनसंख्या वर्ष 1881 के 63.77% से घटकर वर्ष 2011 तक 31.80% हो गई थी।
- बीच के दशकों में जातीय संघर्ष और उग्रवाद ने राज्य को जकड़ लिया जो बांग्लादेश के साथ लगभग 860 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करता है।
- संयुक्त मंच ने यह भी बताया है कि स्थानीय लोगों को न केवल अल्पसंख्यक में बदल दिया गया है, बल्कि माणिक्य वंश के अंतिम राजा बीर बिक्रम किशोर देबबर्मन द्वारा उनके लिये आरक्षित भूमि से भी उन्हें बेदखल कर दिया गया है।
पूर्वोत्तर की अन्य मांगें:
- ग्रेटर नगालिम (अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, असम और म्याँमार के हिस्से)
- बोडोलैंड (असम)
- जनजातीय स्वायत्तता मेघालय
संसद के पास एक नया राज्य बनाने की शक्तियाँ:
- संसद को भारत के संविधान के अनुच्छेद 2 और अनुच्छेद 3 से एक नया राज्य बनाने की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।
- अनुच्छेद 2:
- संसद कानून बनाकर नए राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की स्थापना ऐसे नियमों और शर्तों पर कर सकती है, जो वह ठीक समझे।
- हालाँकि संसद कानून पारित करके एक नया केंद्रशासित प्रदेश नहीं बना सकती है, यह कार्य केवल संवैधानिक संशोधन के माध्यम से ही किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 2 के तहत सिक्किम को भारत का हिस्सा बनाया गया।
- अनुच्छेद 3:
- इसके तहत संसद को नए राज्यों के गठन और मौजूदा राज्यों के परिवर्तन से संबंधित कानून बनाने का अधिकार दिया गया है।
इस मुद्दे के समाधान के लिये पहल:
- त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त ज़िला परिषद:
- त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त ज़िला परिषद (The Tripura Tribal Areas Autonomous District Council- TTAADC) का गठन वर्ष 1985 में संविधान की छठी अनुसूची के तहत आदिवासी समुदायों के अधिकारों एवं सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने और विकास सुनिश्चित करने के लिये किया गया था।
- 'ग्रेटर टिपरालैंड' एक ऐसी स्थिति की परिकल्पना करता है जिसमें संपूर्ण TTAADC क्षेत्र एक अलग राज्य होगा। यह त्रिपुरा के बाहर रहने वाले लोगों और अन्य आदिवासी समुदायों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिये समर्पित निकायों का भी प्रस्ताव करता है।
- TTAADC, जिसके पास विधायी और कार्यकारी शक्तियाँ हैं, राज्य के भौगोलिक क्षेत्र के लगभग दो-तिहाई हिस्से को कवर करता है।
- परिषद में 30 सदस्य होते हैं जिनमें से 28 निर्वाचित होते हैं जबकि दो राज्यपाल द्वारा मनोनीत होते हैं।
- त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त ज़िला परिषद (The Tripura Tribal Areas Autonomous District Council- TTAADC) का गठन वर्ष 1985 में संविधान की छठी अनुसूची के तहत आदिवासी समुदायों के अधिकारों एवं सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने और विकास सुनिश्चित करने के लिये किया गया था।
- आरक्षण:
- साथ ही राज्य की 60 विधानसभा सीटों में से 20 अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षित हैं।
आगे की राह
- राजनीतिक विचारों के बजाय आर्थिक और सामाजिक व्यवहार्यता को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- निरंकुश मांगों की जाँच के लिये कुछ स्पष्ट मानदंड और सुरक्षा उपाय होने चाहिये।
- धर्म, जाति, भाषा या बोली के बजाय विकास, विकेंद्रीकरण और शासन जैसी लोकतांत्रिक चिंताओं को नए राज्य की मांगों को स्वीकार करने के लिये वैध आधार देना बेहतर है।
- इसके अलावा विकास और शासन की कमी जैसी मूलभूत समस्याओं जैसे- सत्ता का संकेंद्रण, भ्रष्टाचार, प्रशासनिक अक्षमता आदि का समाधान किया जाना चाहिये।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
पीएम स्वनिधि योजना की अवधि बढ़ाई गई
प्रिलिम्स के लिये:पीएम स्वनिधि योजना, स्वनिधि से समृद्धि, आत्मनिर्भर भारत अभियान, आर्थिक प्रोत्साहन-II मेन्स के लिये:सूक्ष्म वित्त, इसका महत्त्व और संबंधित पहल। |
चर्चा में क्यों?
प्रधानमंत्री स्ट्रीट वेंडर आत्मनिर्भर निधि (पीएम स्वनिधि) योजना की अवधि को मार्च, 2022 से आगे बढ़ाया गया है।
विस्तारित योजना के लिये प्रावधान:
- दिसंबर 2024 तक ऋण अवधि का विस्तार।
- क्रमशः ₹10,000 और ₹20,000 के पहले और दूसरे ऋण के अलावा ₹50,000 तक के तीसरे ऋण की शुरुआत।
- देश भर में पीएम स्वनिधि योजना के सभी लाभार्थियों के लिये 'स्वनिधि से समृद्धि' घटक का विस्तार।
- स्वनिधि से समृद्धि' को जनवरी, 2021 में ‘पीएम स्वनिधि’ लाभार्थियों और उनके परिवारों के सामाजिक-आर्थिक प्रोफाइल को चिह्णित करने हेतु लॉन्च किया गया था।
पीएम स्वनिधि योजना:
- परिचय:
- प्रधानमंत्री स्ट्रीट वेंडर आत्मनिर्भर निधि (पीएम स्वनिधि) को आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत आर्थिक प्रोत्साहन-II के एक हिस्से के रूप में घोषित किया गया था।
- इसे 1 जून, 2020 से लागू किया गया था, ताकि उन स्ट्रीट वेंडरों को उनकी आजीविका को फिर से शुरू करने के लिये किफायती कार्यशील पूंजी ऋण प्रदान किया जा सके, जो कोविड-19 लॉकडाउन के कारण प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुए हैं।
- अब तक कुल 13,403 वेंडिंग ज़ोन की पहचान की जा चुकी है।
- दिसंबर, 2024 तक 42 लाख स्ट्रीट वेंडर्स को पीएम स्वनिधि योजना के तहत लाभ प्रदान किया जाना है।
- वित्तपोषण:
- यह एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है अर्थात यह आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय द्वारा पूरी तरह से वित्त पोषित योजना है, इसके निम्नलिखित उद्देश्य हैं :
- कार्यशील पूंजी ऋण की सुविधा उपलब्ध कराना
- नियमित पुनर्भुगतान को प्रोत्साहित करना तथा
- डिजिटल लेनदेन हेतु पुरस्कृत करना
- यह एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है अर्थात यह आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय द्वारा पूरी तरह से वित्त पोषित योजना है, इसके निम्नलिखित उद्देश्य हैं :
- महत्त्व:
- यह योजना स्ट्रीट वेंडर्स के लिये आर्थिक विकास के नए अवसर प्रदान करेगी।
- पात्रता:
- राज्य और केंद्र शासित प्रदेश:
- यह योजना केवल उन्हीं राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के लाभार्थियों के लिये उपलब्ध है, जिन्होंने स्ट्रीट वेंडर्स (आजीविका का संरक्षण और स्ट्रीट वेंडिंग का विनियमन) अधिनियम, 2014 के तहत नियम और योजना अधिसूचित की है।
- हालाँकि मेघालय के लाभार्थी जिसका अपना स्टेट स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट है, भाग ले सकता है।
- यह योजना केवल उन्हीं राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के लाभार्थियों के लिये उपलब्ध है, जिन्होंने स्ट्रीट वेंडर्स (आजीविका का संरक्षण और स्ट्रीट वेंडिंग का विनियमन) अधिनियम, 2014 के तहत नियम और योजना अधिसूचित की है।
- राज्य और केंद्र शासित प्रदेश:
- स्ट्रीट वेंडर्स:
- यह योजना शहरी क्षेत्रों में वेंडिंग में लगे सभी स्ट्रीट वेंडर्स (पथ में वस्तु और सेवा के विक्रेताओं) के लिये उपलब्ध है।
- इससे पहले यह योजना 24 मार्च, 2020 को या उससे पहले वेंडिंग में लगे सभी स्ट्रीट वेंडर्स के लिये उपलब्ध थी।
- यह योजना शहरी क्षेत्रों में वेंडिंग में लगे सभी स्ट्रीट वेंडर्स (पथ में वस्तु और सेवा के विक्रेताओं) के लिये उपलब्ध है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ):प्रश्न: क्या लैंगिक असमानता, गरीबी और कुपोषण के दुश्चक्र को महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को सूक्ष्म वित्त (माइक्रोफाइनेंस) प्रदान करके तोड़ा जा सकता है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2021) |
स्रोत: पी.आई.बी.
ज़िला कलेक्टर की भूमिका के पुनर्निर्धारण की आवश्यकता
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय कानूनी प्रणाली, द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की 15वीं रिपोर्ट , पंचायती राज, अखिल भारतीय सेवाएँ। मेन्स के लिये:ज़िला कलेक्टरों की भूमिका और ज़िम्मेदारी के पुनर्निर्धारण की आवश्यकता |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी (दिल्ली स्थित स्वतंत्र थिंक-टैंक) ने अपनी पुस्तक "फ्रॉम रूल बाई लॉ टू द रूल ऑफ लॉ" में ज़िला कलेक्टर/ज़िला मजिस्ट्रेट की भूमिका में सुधार संबंधी सुझाव दिया।
ज़िला कलेक्टर/ज़िला मजिस्ट्रेट का क्षेत्राधिकार:
- भूमि और राजस्व प्रशासन का प्रमुख।
- ज़िला स्तर पर कार्यकारी प्रमुख के रूप में कानून और व्यवस्था, सुरक्षा और पुलिस संबंधी मामले लाइसेंसिंग और नियामक प्राधिकरण (जैसे शस्त्र अधिनियम), चुनाव के संचालन, आपदा प्रबंधन, सार्वजनिक सेवा वितरण का समग्र पर्यवेक्षण करने के साथ और मुख्य सूचना एवं शिकायत निवारण अधिकारी।
- जिलाधिकारी आपातकाल के समय में ज़िले में सशस्त्र बलों को तैनात व मार्गदर्शन करते हैं।
- इसके अंतर्गत ज़िले में शस्त्र, विस्फोटक, सिनेमैटोग्राफी अधिनियम आदि से संबंधित विभिन्न प्रकार के लाइसेंस जारी करता है।
- कई राज्यों में, कलेक्टर ही ज़िले में जेलों और किशोर गृहों के उचित प्रबंधन के लिये ज़िम्मेदार समग्र पर्यवेक्षी प्राधिकरण है।
- उन्हें विशेष सुरक्षा/अपराध विरोधी कानूनों के तहत हिरासत आदेश/हिरासत वारंट जारी करने का अधिकार भी है।
ज़िला कलेक्टर की भूमिका के पुनर्गठन की आवश्यकत:
- आधुनिक संविधान होने के बावजूद भारतीय कानूनी प्रणाली में अभी भी औपनिवेशिक सत्ता के अवशेष हैं।
- ज़िला कलेक्टर के पदों का नाम देश में अलग-अलग स्थानों पर भिन्न होता है जो इसकी भूमिका और ज़िम्मेदारियों से संबंधित भ्रम पैदा करता है।
- ज़िला कलेक्टर का पद अखिल भारतीय सेवाओं के दायरे में आता है इसलिये नाम पूरे भारत में एक समान होना चाहिये।
- विभिन्न नामकरण ब्रिटिश-प्रशासित भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विविध प्रशासनिक विकास का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- स्थानीय शासी निकायों को शक्तियों और ज़िम्मेदारियों के हस्तांतरण की कमी शासन को अस्थिर करने में निहित हित का संकेत है।
- संविधान के अनुच्छेद 50 में कहा गया है कि "राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिये राज्य कदम उठाएगा।"
निष्कर्ष:
- द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (Second Administrative Reforms Commission- ARC) की 15वीं रिपोर्ट में ज़िला प्रशासन को शामिल किया गया था।
- पंचायती राज संस्थाओं और नगर निकायों की संवैधानिक रूप से अनिवार्य स्थापना के बाद ज़िला प्रशासन के कार्य का पुनर्मूल्यांकन और पुन: परिभाषित करना अब महत्त्वपूर्ण हो गया है।
- हालाँकि इस बात पर बल दिया गया है कि कई राज्यों में पंचायती राज संस्थानों (जिन्हें "पीआरआई" के रूप में भी जाना जाता है) की शुरुआत ने ज़िला कलेक्टरों की भूमिका को मार्गदर्शन और सहायता प्रदान करने तक सीमित कर दिया है।
- स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने के हस्तांतरण के रास्ते में आने वाली किसी भी बाधा को दूर करने के लिये 15वीं ARC रिपोर्ट द्वारा इस व्यवस्था पर ज़ोर दिया गया है। इन सबके लिये ज़िला स्तर पर प्रशासनिक तंत्र के संपूर्ण पुनर्गठन की आवश्यकता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
जैव विविधता ढाँचा और आदिवासी समुदाय
प्रिलिम्स के लिये:जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, आदिवासी, 2020 के बाद वैश्विक जैव विविधता फ्रेमवर्क, जैव विविधता पर अंतर्राष्ट्रीय स्वदेशी मंच मेन्स के लिये:आदिवासी और उनकी कठिनाइयाँ 2020 के बाद वैश्विक जैव विविधता फ्रेमवर्क, जैव विविधता पर अंतर्राष्ट्रीय स्वदेशी मंच |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में जैविक विविधता पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (CBD) के पक्षकारों के 15वें सम्मेलन (COP-15) में आदिवासी लोगों का प्रतिनिधित्त्व करने वाले एक समूह ने ज़ोर देकर कहा कि वर्ष 2020 के बाद ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क (GBF) को आदिवासी लोगों और स्थानीय समुदायों (IPCL) के अधिकारों का सम्मान, संवर्द्धन और समर्थन करने पर काम करना चाहिये।
- जैव विविधता पर अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी मंच (IIFB) के सदस्यों ने भी आदिवासी समुदायों के अधिकारों के लिये बल दिया गया है।
आदिवासी लोगों द्वारा तनावग्रस्त प्रमुख क्षेत्र:
- आदिवासी समुदाय, जो हमेशा जैव विविधता के प्रमुख संरक्षक रहे हैं, उनके अधिकारों को भी पहचानने और संरक्षित करने की आवश्यकता है।
- GBF को आदिवासी समुदायों के लिये, "मानवाधिकार-आधारित दृष्टिकोण अपनाते हुए, विशेष रूप से आदिवासियों के सामूहिक अधिकारों, लैंगिक समानता, सुरक्षा और पूर्ति व इसके अतिरिक्त उनके अधिकारों की रक्षा के लिये नवीन तरीकों की तलाश करनी चाहिये।
- 2020 के बाद GBF के कार्यान्वयन में स्वतंत्रता, पूर्व और सूचित सहमति के सिद्धांतों का सम्मान करते हुए पारंपरिक ज्ञान, प्रथाओं और तकनीकों को शामिल किया जाना चाहिये।
जैव विविधता संरक्षण में आदिवासी समुदायों की क्या भूमिका है?
- प्राकृतिक वनस्पतियों का संरक्षण:
- आदिवासी समुदायों द्वारा पेड़ों को देवी-देवताओं के निवास स्थान के रूप में देखे जाने से जुड़ा धार्मिक विश्वास वनस्पतियों के प्राकृतिक संरक्षण को बढ़ावा देता है।
- इसके अलावा, कई फसलों, जंगली फलों, बीज, कंद-मूल आदि विभिन्न प्रकार के पौधों का जनजातीय और आदिवासी लोगों द्वारा संरक्षण किया जाता है क्योंकि वे अपनी खाद्य ज़रूरतों के लिये इन स्रोतों पर निर्भर हैं।
- पारंपरिक ज्ञान का अनुप्रयोग:
- आदिवासी लोग और जैव विविधता एक-दूसरे के पूरक हैं।
- समय के साथ ग्रामीण समुदायों ने औषधीय पौधों की खेती और उनके प्रचार के लिये आदिवासी लोगों के स्वदेशी ज्ञान का उपयोग किया है।
- इन संरक्षित पौधों में कई साँप और बिच्छू के काटने या टूटी हड्डियों व आर्थोपेडिक उपचार के लिये प्रयोग में लाए जाने पौधे भी शामिल हैं।
आदिवासी समुदाय की चुनौतियाँ:
- प्रकृति और स्थानीय लोगों के बीच व्यवधान: जैव विविधता की रक्षा हेतु स्थानीय लोगों को उनके प्राकृतिक आवास से अलग करने से जुड़ा दृष्टिकोण ही उनके और संरक्षणवादियों के बीच संघर्ष का मूल कारण है।
- किसी भी प्राकृतिक आवास को एक विश्व धरोहर स्थल (World Heritage Site) के रूप में चिह्नित किये जाने के साथ ही यूनेस्को (United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization- UNESCO) उस क्षेत्र के संरक्षण का प्रभार ले लेता है।
- यह संबंधित क्षेत्रों में बाहरी लोगों और तकनीकी उपकरणों के प्रवेश (संरक्षण के उद्देश्य से) को बढ़ावा देता है, जो स्थानीय लोगों के जीव को बाधित करता है।
- वन अधिकार अधिनियम का शिथिल कार्यान्वयन: वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act- FRA) को लागू करने में भारत के कई राज्यों का प्रदर्शन बहुत ही निराशाजनक रहा है।
- इसके अलावा विभिन्न संरक्षण संगठनों द्वारा FRA की संवैधानिकता को कई बार सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गई है।
- एक याचिकाकर्त्ता द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में यह तर्क दिया गया कि क्योंकि संविधान के अनुच्छेद-246 के तहत भूमि को राज्य सूची का विषय माना गया है, ऐसे में FRA को लागू करना संसद के अधिकार क्षेत्र के बाहर है।
- इसके अलावा विभिन्न संरक्षण संगठनों द्वारा FRA की संवैधानिकता को कई बार सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गई है।
- विकास बनाम संरक्षण: अधिकांशतः ऐसा देखा गया है कि सरकार द्वारा विकास के नाम पर बाँध, रेलवे लाइन, सड़क विद्युत संयंत्र आदि के निर्माण के लिये आदिवासी समुदाय के पारंपरिक प्रवास क्षेत्र की भूमि का अधिग्रहण कर लिया जाता है।
- इसके अलावा इस प्रकार के विकास कार्यों के लिये आदिवासी लोगों को उनकी भूमि से ज़बरन हटाने से पर्यावरण को क्षति होने के साथ-साथ मानव अधिकारों का उल्लंघन होता है।
पोस्ट-2020 ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क
- परिचय:
- पोस्ट-2020 ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क जैव विविधता के लिये रणनीतिक योजना 2011-2020 पर आधारित है।
- जैसा कि जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र दशक 2011-2020 समाप्त हो रहा है, प्रकृति के संरक्षण के लिये अंतर्राष्ट्रीय संघ (International Union for Conservation of Nature- IUCN) एक महत्त्वाकांक्षी नए वैश्विक जैव विविधता ढाँचे के विकास के लिये सक्रिय रूप से समर्थन करता है।
- पोस्ट-2020 ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क जैव विविधता के लिये रणनीतिक योजना 2011-2020 पर आधारित है।
- लक्ष्य और उद्देश्य:
- वर्ष 2050 तक नए फ्रेमवर्क के निम्नलिखित चार लक्ष्यों को प्राप्त किया जाना है:
- जैव विविधता के विलुप्त होने तथा उसमें गिरावट को रोकना।
- संरक्षण द्वारा मनुष्यों के लिये प्रकृति की सेवाओं को बढ़ाने और उन्हें बनाए रखना।
- आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से सभी के लिये उचित और समान लाभ सुनिश्चित करना।
- वर्ष 2050 के विज़न को प्राप्त करने हेतु उपलब्ध वित्तीय और कार्यान्वयन के अन्य आवश्यक साधनों के मध्य अंतर को कम करना।
- 2030 कार्य-उन्मुख लक्ष्य: 2030 के दशक में तत्काल कार्रवाई के लिये इस फ्रेमवर्क में 21 कार्य-उन्मुख लक्ष्य हैं।
- उनमें से एक है संरक्षित क्षेत्रों के तहत विश्व के कम- से-कम 30% भूमि और समुद्र क्षेत्र को लाना।
- आक्रामक विदेशी प्रजातियों की शुरूआत की दर में 50% से अधिक कमी और उनके प्रभावों को खत्म करने या कम करने के लिये ऐसी प्रजातियों का नियंत्रण या उन्मूलन।
- पर्यावरण के लिये नुकसानदेह पोषक तत्वों को कम से कम आधा और कीटनाशकों को कम से कम दो तिहाई कम करना, और प्लास्टिक कचरे के निर्वहन को समाप्त करना।
- प्रति वर्ष कम से कम 10 GtCO2e (गीगाटन समतुल्य कार्बन डाइऑक्साइड) के वैश्विक जलवायु परिवर्तन शमन प्रयासों में प्रकृति-आधारित योगदान और सभी शमन तथा अनुकूलन प्रयास जैवविविधता पर नकारात्मक प्रभावों से बचाते हैं।
- वर्ष 2050 तक नए फ्रेमवर्क के निम्नलिखित चार लक्ष्यों को प्राप्त किया जाना है:
जैव विविधता पर अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी मंच (IIFB):
- IIFB आदिवासी सरकारों, आदिवासी गैर-सरकारी संगठनों, आदिवासी विद्वानों और कार्यकर्त्ताओं के प्रतिनिधियों का एक समूह है जो CBD और अन्य महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय बैठकों में संगठित होते हैं।
- इसका उद्देश्य बैठकों में आदिवासी रणनीतियों के समन्वय में मदद करना, सरकारी दलों को सलाह प्रदान करना और ज्ञान तथा संसाधनों के आदिवासी अधिकारों को पहचानने एवं सम्मान करने के लिये सरकारी दायित्त्वों को प्रभावित करना है।।
- IIFB का गठन नवंबर 1996 में अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (CoP III) के पक्षकारों के तीसरे सम्मेलन के दौरान किया गया था।
आगे की राह:
- स्वदेशी लोगों के अधिकारों को मान्यता देना:
- संबद्ध क्षेत्र की समृद्ध जैव विविधता को संरक्षित करने के लिये, वनों पर निर्भर रहने वाले वनवासियों के अधिकारों की मान्यता उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि विश्व विरासत स्थल के रूप में प्राकृतिक आवास की घोषणा।
- FRA का प्रभावी कार्यान्वयन:
- देश के अन्य सभी लोगों की तरह समान नागरिक जैसा व्यवहार करते हुए सरकार को इस क्षेत्र में अपनी एजेंसियों और वनों पर निर्भर रहने वाले उन लोगों के बीच विश्वासपूर्ण संबंध स्थापित करने का प्रयास करना चाहिये।
- संरक्षण के लिये जनजातीय लोगों से संबद्ध पारंपरिक ज्ञान:
- जैव विविधता अधिनियम, 2002 स्थानीय समुदायों के साथ जैविक संसाधनों के उपयोग और ज्ञान से उत्पन्न होने वाले लाभों के न्यायसंगत साझाकरण का उल्लेख करता है।
- अतः सभी हितधारकों को यह समझना चाहिये कि स्वदेशी लोगों का पारंपरिक ज्ञान जैव विविधता के अधिक प्रभावी संरक्षण हेतु बहुत महत्त्वपूर्ण है।
- जैव विविधता अधिनियम, 2002 स्थानीय समुदायों के साथ जैविक संसाधनों के उपयोग और ज्ञान से उत्पन्न होने वाले लाभों के न्यायसंगत साझाकरण का उल्लेख करता है।
- आदिवासी, वन वैज्ञानिक:
- आदिवासी आमतौर पर सर्वश्रेष्ठ संरक्षणवादी माने जाते हैं क्योंकि वे प्रकृति से आध्यात्मिक रूप से जुड़े होते हैं।
- उच्च जैव विविधता वाले क्षेत्रों के संरक्षण का सबसे सस्ता और तेज़ तरीका जनजातीय लोगों के अधिकारों का सम्मान करना है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न:प्रश्न. मुख्यधारा के ज्ञान और सांस्कृतिक प्रणालियों की तुलना में आदिवासी ज्ञान प्रणाली की विशिष्टता की जाँच कीजिये। (2021) |
वन्य जीव (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2022
प्रिलिम्स के लिये:वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972, वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2022, UNEP, CITES। मेन्स के लिये:जैव विविधता और वन्यजीव का महत्त्व, वन्यजीव का (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2022 का महत्त्व। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राज्यसभा ने वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2022 पारित किया, जो वन्यजीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सम्मेलन (Convention on International Trade on Endangered Species of Wild Fauna and Flora- CITES) के तहत भारत के दायित्वों को प्रभावी बनाने का प्रयास करता है।
विधेयक का उद्देश्य:
- लुप्तप्राय प्रजातियों का संरक्षण: विधेयक अवैध वन्यजीव व्यापार के लिये सजा बढ़ाने का प्रयास करता है।
- संरक्षित क्षेत्रों का बेहतर प्रबंधन: यह स्थानीय समुदायों द्वारा पशुओं के चरने या आवाजाही और पीने एवं घरेलू जल के वास्तविक उपयोग जैसी कुछ अनुमत गतिविधियों के लिये अनुमति प्रदान करता है।
- वन भूमि का संरक्षण: संबद्ध वनक्षेत्र में सदियों से रह रहे लोगों के अधिकारों की सुरक्षा को समान रूप से शामिल करना।
प्रस्तावित संशोधन
- इस संशोधन ने CITES के तहत परिशिष्ट में सूचीबद्ध प्रजातियों के लिये एक नया कार्यक्रम प्रस्तावित किया।
- ऐसी शक्तियों और कर्तव्यों का प्रयोग करने एवं स्थायी समिति का गठन करने के लिये धारा 6 में संशोधन किया गया है जो इसे राज्य वन्यजीव बोर्ड द्वारा प्रत्यायोजित किया जा सकता है।
- अधिनियम की धारा 43 में संशोधन किया गया जिसमें 'धार्मिक या किसी अन्य उद्देश्य' के लिये हाथियों के उपयोग की अनुमति दी गई है ।
- केंद्र सरकार को एक प्रबंधन प्राधिकरण नियुक्त करने में सक्षम बनाने के लिये धारा 49E को जोड़ा गया है।
- केंद्र सरकार को एक वैज्ञानिक प्राधिकरण नियुक्त करने की अनुमति देना जो व्यापार किये जाने वाले नमूनों के अस्तित्त्व पर पड़ने वाले प्रभाव से संबंधित मामलों पर मार्गदर्शन प्रदान करे।
- विधेयक केंद्र सरकार को विदेशी प्रजातियों के आक्रामक पौधे या पशु के आयात, व्यापार या नियंत्रण को विनियमित करने और रोकने का भी अधिकार देता है।
- विधेयक अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन के लिये निर्धारित दंड को भी बढ़ाता है।
- 'सामान्य उल्लंघन' के लिये अधिकतम ज़ुर्माना 25,000 रूपए से बढ़ाकर 1 लाख रूपए कर दिया गया है।
- विशेष रूप से संरक्षित पशुओं के मामले में न्यूनतम ज़ुर्माना 10,000 रूपए से बढ़ाकर 25,000 रूपए कर दिया गया है।
विधेयक से जुड़ी चिंताएँ:
- वाक्यांश "कोई अन्य उद्देश्य" अस्पष्ट है और हाथियों के वाणिज्यिक व्यापार को प्रोत्साहित करने की क्षमता रखता है।
- मानव-वन्यजीव संघर्ष, पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र नियम आदि से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया गया है।
- संसदीय स्थायी समिति द्वारा प्रदान की गई रिपोर्ट के अनुसार विधेयक की तीनों अनुसूचियों में सूचीबद्ध प्रजातियाँ अधूरी हैं।
- वैज्ञानिक, वनस्पतिशास्त्री, जीवविज्ञानी संख्या में कम हैं और वन्यजीवों की सभी मौजूदा प्रजातियों को सूचीबद्ध करने की प्रक्रिया में तेज़ी लाने के लिये उन्हें अधिक से अधिक शामिल करने की आवश्यकता है।
वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972:
- वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 जंगली जानवरों और पौधों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण, उनके आवासों के प्रबंधन एवं विनियमन तथा जंगली जानवरों, पौधों व उनसे बने उत्पादों के व्यापार पर नियंत्रण के लिये एक कानूनी ढाँचा प्रदान करता है।
- यह अधिनियम सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की सुरक्षा और निगरानी प्राप्त उन पौधों और पशुओं की अनुसूची को भी सूचीबद्ध करता हैै।
CITES:
- CITES एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जिसका राष्ट्र और क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण संगठन स्वेच्छा से पालन करते हैं।
- वर्ष 1963 में अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature- IUCN) के सदस्य देशों की बैठक में अपनाए गए एक प्रस्ताव के परिणामस्वरूप CITES का मसौदा तैयार किया गया था।
- CITES जुलाई 1975 में लागू हुआ था।
- CITES सचिवालय जिनेवा, स्विट्जरलैंड में स्थित है और यह संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा प्रशासित है।
- भारत CITES का एक हस्ताक्षरकर्त्ता है।
वन्यजीव संरक्षण के लिये संवैधानिक प्रावधान
- 42वाँ संशोधन अधिनियम, 1976, द्वारा वन और जंगली पशुओं और पक्षियों के संरक्षण को राज्य से समवर्ती सूची में स्थानांतरित किया गया था।
- संविधान के अनुच्छेद 51A(जी) में कहा गया है कि वनों और वन्यजीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार करना प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य होगा।
- राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों में अनुच्छेद 48 ए, के तहत राज्य पर्यावरण की रक्षा और विकसित करने तथा देश के वनों और वन्य जीव की रक्षा करने का प्रयास करेगा।
आगे की राह:
- वन्य जीवों के संरक्षण हेतु कानून का सख्ती से पालन आवश्यक है।
- अचल संपत्ति में शामिल व्यवसायों और निगमों को अपनी धन और बल शक्ति को संतुलित करने के लिये कानून का सख्ती से पालन करना चाहिये।
- कुछ निगमों के लाभ के लिये निकोबार के जंगलों को पूरी तरह से उजाड़ा व नष्ट किया जा रहा है।
- अतः मुख्य रूप से, वन्यजीवों पर वास्तव में मनुष्यों द्वारा नहीं बल्कि निगमों द्वारा हमला किया जा रहा है।
- केवल नियमों और तकनीकी की समझ ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि आदिवासी समुदायों को भी अपने अधिकारों का ज्ञान होना आवश्यक है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. यदि किसी विशेष पादप प्रजाति को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची VI के अंतर्गत रखा जाता है, तो इसका अर्थ क्या है? (2020) (a) उस पौधे को उगाने के लिये लाइसेंस की जरूरत होती है। उत्तर: (a) |