भारतीय अर्थव्यवस्था
खाद्य प्रसंस्करण उद्योग हेतु PLI योजना
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 10900 करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ केंद्रीय क्षेत्र की एक योजना "खाद्य प्रसंस्करण उद्योग हेतु उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन योजना" (PLISFPI) को मंज़ूरी दी है।
प्रमुख बिंदु:
PLI योजना:
- घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने और आयात बिलों में कटौती करने के लिये केंद्र सरकार ने मार्च 2020 में एक PLI योजना पेश की जिसका उद्देश्य घरेलू इकाइयों में निर्मित उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिये कंपनियों को प्रोत्साहन देना है।
- भारत में वाणिज्यिक प्रतिष्ठान स्थापित करने के लिये विदेशी कंपनियों को आमंत्रित करने के अलावा इस योजना का उद्देश्य स्थानीय कंपनियों को विनिर्माण इकाई स्थापना या विस्तार के लिये प्रोत्साहित करना है।
- PLI योजना को ऑटोमोबाइल, फार्मास्यूटिकल्स, IT हार्डवेयर जैसे-लैपटॉप, मोबाइल फोन और दूरसंचार उपकरण, बड़े घरेलू उपकरण, रासायनिक सेल और वस्त्र इत्यादि जैसे क्षेत्रों में भी मंज़ूरी दी गई है।
PLISFPI का उद्देश्य:
- वैश्विक खाद्य विनिर्माण की सर्वोत्तम इकाइयों के निर्माण का समर्थन।
- वैश्विक परिदृश्य और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में व्यापक स्वीकृति हेतु चुनिंदा खाद्य उत्पादों के भारतीय ब्रांड को मज़बूती प्रदान करना।
- गैर-कृषि रोज़गार के अवसर बढ़ाना।
- कृषि उपज का लाभकारी मूल्य और किसानों की अधिक आय सुनिश्चित करना।
PLISFPI की विशेषताएँ:
- कवरेज:
- उन खाद्य विनिर्माण संस्थाओ को प्रोत्साहन देना जो निर्धारित न्यूनतम बिक्री के साथ मज़बूत भारतीय ब्रांडों को प्रोत्साहित करने के लिये प्रसंस्करण क्षमता के विस्तार और विदेशों में ब्रांडिंग हेतु निवेश करने के इच्छुक हैं।
- पहला घटक चार प्रमुख खाद्य उत्पाद खंडों के विनिर्माण को प्रोत्साहित करने से संबंधित है-
- रेडी टू कुक/रेडी टू ईट (RTC/RTE) खाद्य पदार्थ,
- प्रसंस्कृत फल और सब्जियाँ,
- समुद्री उत्पाद,
- मौजेरेला चीज़।
- दूसरा घटक ब्रांडिंग और विपणन के लिये विदेशों से समर्थन प्राप्त करने से संबंधित है।
- अवधि: यह योजना वर्ष 2021-22 से 2026-27 तक छह वर्ष की अवधि के लिये लागू की जाएगी।
अनुमानित लाभ:
- 33,494 करोड़ रुपए का प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादन करने के लिये प्रसंस्करण क्षमता का विस्तार।
- वर्ष 2026-27 तक लगभग 2.5 लाख व्यक्तियों हेतु रोज़गार का सृजन करना।
खाद्य प्रसंस्करण उद्योग से संबंधित अन्य योजना:
- प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना (PMKSY)
स्रोत- पीआईबी
भारतीय अर्थव्यवस्था
विदेशी मुद्रा भंडार में कमी
चर्चा में क्यों?
भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के हालिया आँकड़ों की मानें तो 26 मार्च, 2021 को समाप्त हुए सप्ताह में भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में 2.986 बिलियन डॉलर की कटौती देखने को मिली है और वह घटकर 579.285 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया है।
- विदेशी मुद्रा भंडार के स्वर्ण आरक्षित घटक में बढ़ोतरी देखने को मिली है, जबकि अन्य घटकों जैसे- विशेष आहरण अधिकार (SDR), विदेशी परिसंपत्तियों और IMF के पास रिज़र्व ट्रेंच आदि में गिरावट दर्ज की गई है।
प्रमुख बिंदु
परिचय
- विदेशी मुद्रा भंडार का आशय केंद्रीय बैंक द्वारा विदेशी मुद्रा में आरक्षित संपत्ति से होता है, जिसमें बाॅण्ड, ट्रेज़री बिल और अन्य सरकारी प्रतिभूतियाँ शामिल होती हैं।
- गौरतलब है कि अधिकांश विदेशी मुद्रा भंडार अमेरिकी डॉलर में आरक्षित किये जाते हैं।
विदेशी मुद्रा भंडार का उद्देश्य
- मौद्रिक और विनिमय दर प्रबंधन हेतु निर्मित नीतियों के प्रति समर्थन और विश्वास बनाए रखना।
- केंद्रीय बैंक को राष्ट्रीय या संघ मुद्रा के समर्थन में यथासंभव हस्तक्षेप करने की क्षमता प्रदान करना।
- संकट के समय या जब उधार लेने की क्षमता कमज़ोर हो जाती है, तो संकट के समाधान के लिये विदेशी मुद्रा तरलता को बनाए रखते हुए बाहरी प्रभाव को सीमित करता है।
भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में निम्नलिखित को शामिल किया जाता है:
- विदेशी परिसंपत्तियाँ (विदेशी कंपनियों के शेयर, डिबेंचर, बाॅण्ड इत्यादि विदेशी मुद्रा में)
- स्वर्ण भंडार
- IMF के पास रिज़र्व ट्रेंच
- विशेष आहरण अधिकार (SDR)
विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियाँ
- विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियाँ वे हैं जिनका मूल्यांकन उस देश की अपनी मुद्रा के बजाय किसी अन्य देश की मुद्रा में किया जाता है।
- FCA विदेशी मुद्रा भंडार का सबसे बड़ा घटक है। इसे डॉलर के संदर्भ में व्यक्त किया जाता है।
- गैर-अमेरिकी मुद्रा जैसे- यूरो, पाउंड और येन की कीमतों में उतार-चढ़ाव को FCA में शामिल किया जाता है।
स्वर्ण भंडार
- केंद्रीय बैंकों के विदेशी भंडार में सोना एक विशेष स्थान रखता है, क्योंकि इसे मुख्य तौर पर विविधीकरण के उद्देश्य से आरक्षित किया जाता है।
- इसके अलावा स्वर्ण के भंडार को किसी देश की विश्वसनीयता का प्रतीक माना जाता है।
- उच्च गुणवत्ता और तरलता के साथ स्वर्ण अन्य पारंपरिक आरक्षित परिसंपत्तियों की तुलना में बेहद अनुकूल होता है, जो केंद्रीय बैंकों को मध्यम और दीर्घकाल में पूंजी संरक्षण, पोर्टफोलियो में विविधता लाने और जोखिमों को कम करने में मदद करता है।
- स्वर्ण ने अन्य वैकल्पिक वित्तीय परिसंपत्तियों की तुलना में लगातार बेहतर औसत रिटर्न दिया है।
विशेष आहरण अधिकार (SDR)
- विशेष आहरण अधिकार को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) द्वारा 1969 में अपने सदस्य देशों के लिये अंतर्राष्ट्रीय आरक्षित संपत्ति के रूप में बनाया गया था।
- SDR न तो एक मुद्रा है और न ही IMF पर इसका दावा किया जा सकता है। बल्कि यह IMF के सदस्यों का स्वतंत्र रूप से प्रयोग करने योग्य मुद्राओं पर एक संभावित दावा है। इन मुद्राओं के लिये SDR का आदान-प्रदान किया जा सकता है।
- SDR के मूल्य की गणना, ‘बास्केट ऑफ करेंसी’ में शामिल मुद्राओं के औसत भार के आधार पर की जाती है। इस बास्केट में पाँच देशों की मुद्राएँ शामिल हैं- अमेरिकी डॉलर, यूरोप का यूरो, चीन की मुद्रा रॅन्मिन्बी, जापानी येन और ब्रिटेन का पाउंड।
- विशेष आहरण अधिकार ब्याज (SDRi) सदस्य देशों को उनके द्वारा धारण किये जाने वाले SDR पर मिलने वाला ब्याज है।
IMF के पास रिज़र्व ट्रेंच
- रिज़र्व ट्रेंच वह मुद्रा होती है जिसे प्रत्येक सदस्य देश द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) को प्रदान किया जाता है और जिसका उपयोग वे देश अपने स्वयं के प्रयोजनों के लिये कर सकते हैं।
- रिज़र्व ट्रेंच मूलतः एक आपातकालीन कोष होता है जिसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के सदस्य देशों द्वारा बिना किसी शर्त पर सहमत हुए अथवा सेवा शुल्क का भुगतान किये किसी भी समय प्राप्त किया जा सकता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
सामाजिक न्याय
राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति, 2021
चर्चा में क्यों?
हाल ही में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (Ministry of Health and Family Welfare) ने राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति (National Rare Disease Policy), 2021 को मंज़ूरी दी है।
- इससे पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र को एक दुर्लभ रोग समिति और निधि की स्थापना करने तथा 31 मार्च, 2021 तक या उससे पहले इसके लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को अंतिम रूप देने एवं अधिसूचित करने का निर्देश दिया था।
प्रमुख बिंदु
लक्ष्य:
- दवाओं के स्वदेशी अनुसंधान और स्थानीय उत्पादन पर ध्यान बढ़ाना।
- दुर्लभ रोगों के उपचार की लागत को कम करना।
- शुरुआती चरणों में दुर्लभ रोगों की स्क्रीनिंग और पता लगाना।
नीति के प्रमुख प्रावधान:
- वर्गीकरण:
- इस नीति ने दुर्लभ रोगों को तीन समूहों में वर्गीकृत किया है:
समूह 1: एक बार उपचार की आवश्यकता वाले विकार।
समूह 2: दीर्घकालिक या आजीवन उपचार की आवश्यकता वाले विकार।
समूह 3: ऐसे रोग जिनके लिये निश्चित उपचार उपलब्ध है, लेकिन इनके उपचार की लागत बहुत अधिक है।
- इस नीति ने दुर्लभ रोगों को तीन समूहों में वर्गीकृत किया है:
- वित्तीय सहायता:
- जो लोग समूह 1 के तहत सूचीबद्ध दुर्लभ रोगों से पीड़ित हैं, उन्हें राष्ट्रीय आरोग्य निधि (Rashtriya Arogya Nidhi) योजना के अंतर्गत 20 लाख रुपए तक की वित्तीय सहायता दी जाएगी।
- राष्ट्रीय आरोग्य निधि: इसका उद्देश्य गरीबी रेखा से नीचे (BPL) जीवनयापन करने वाले ऐसे रोगियों को वित्तीय सहायता प्रदान करना है जो गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं, ताकि वे सरकारी अस्पतालों में उपचार की सुविधा प्राप्त कर सकें। इसके अंतर्गत गंभीर रोगों से ग्रस्त लोगों को सुपर स्पेशिलिटी अस्पतालों/संस्थानों और सरकारी अस्पतालों में उपचार की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है।
- ऐसी वित्तीय सहायता प्राप्त करने के लिये लाभार्थी बीपीएल परिवारों तक ही सीमित नहीं होंगे, बल्कि इसे लगभग 40% ऐसी आबादी तक बढ़ाया जाएगा जो केवल सरकारी तृतीयक अस्पतालों में इलाज के लिये प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (Pradhan Mantri Jan Arogya Yojana) के मानदंडों के अनुसार पात्र हैं।
- जो लोग समूह 1 के तहत सूचीबद्ध दुर्लभ रोगों से पीड़ित हैं, उन्हें राष्ट्रीय आरोग्य निधि (Rashtriya Arogya Nidhi) योजना के अंतर्गत 20 लाख रुपए तक की वित्तीय सहायता दी जाएगी।
वैकल्पिक निधि:
- इसमें स्वैच्छिक क्राउडफंडिंग (Crowdfunding) उपचार शामिल है, जिसके अंतर्गत व्यक्तिगत योगदान के लिये ऑनलाइन प्लेटफॉर्म जैसे- सोशल मीडिया और क्राउडफंडिंग प्लेटफॉर्म आदि का उपयोग किया जाता है।
उत्कृष्टता केंद्र:
- इस नीति का उद्देश्य 'उत्कृष्टता केंद्र' (Centres of Excellence) के रूप में वर्णित 8 स्वास्थ्य सुविधाओं के माध्यम से दुर्लभ रोगों की रोकथाम और उपचार के लिये तृतीयक स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं को मज़बूत बनाना है तथा निदान सुविधाओं में सुधार हेतु 5 करोड़ रुपए तक की एकमुश्त वित्तीय सहायता भी प्रदान की जाएगी।
राष्ट्रीय रजिस्ट्री:
- अनुसंधान और विकास में रुचि रखने वालों के लिये पर्याप्त डेटा सुनिश्चित करने हेतु दुर्लभ रोगों की एक राष्ट्रीय अस्पताल आधारित रजिस्ट्री बनाई जाएगी।
चिंताएँ:
- स्थायी निधि का अभाव:
- समूह 1 और समूह 2 के विपरीत समूह 3 वाले रोगियों को स्थायी उपचार सहायता की आवश्यकता होती है।
- समूह 3 के रोगियों के लिये एक स्थायी वित्तपोषण सहायता की कमी के कारण सभी रोगी जिनमें ज़्यादातर बच्चे शामिल हैं, का जीवन जोखिम में है और क्राउडफंडिंग पर निर्भर है।
- औषधि निर्माण का अभाव:
- दवाओं की कम उपलब्धता के कारण इनका मूल्य अपेक्षाकृत अधिक है।
- वर्तमान में कुछ दवा कंपनियाँ विश्व स्तर पर दुर्लभ बीमारियों उपचार के लिये दवाओं का निर्माण कर रही हैं और भारत में कोई भी घरेलू निर्माता नहीं है सिवाय उन लोगों के जो चयापचय विकार वाले लोगों हेतु चिकित्सा-ग्रेड भोजन बनाते हैं।
दुर्लभ रोग
- लगभग 6,000-8,000 वर्गीकृत दुर्लभ बीमारियाँ हैं, लेकिन सिर्फ 5% से भी कम का उपचार उपलब्ध है।
- उदाहरण: लाइसोसोमल स्टोरेज डिसऑर्डर (Lysosomal Storage Disorder), पोम्पे डिज़ीज़, साइस्टिक फाइब्रोसिस (Cystic Fibrosis) हीमोफिलिया आदि।
- लगभग 95% दुर्लभ बीमारियों का कोई प्रमाणित उपचार उपलब्ध नहीं है और इनसे प्रभावित सिर्फ 10 में से 1 रोगी का ही रोग-विशिष्ट उपचार हो पाता है।
- इन बीमारियों को विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है और ये प्रति 10,000 आबादी में 1 से 6 लोगों में पाई जाती हैं।
- हालाँकि सामान्य बीमारियों की तुलना में इनसे बहुत कम लोग प्रभावित होते हैं। फिर भी इनके कई मामले गंभीर, पुराने और जानलेवा हो सकते हैं।
- भारत में दुर्लभ बीमारियों से प्रभावित करीब 50-100 मिलियन लोग हैं। इस नीति रिपोर्ट में कहा गया है कि इन रोगियों में से लगभग 80% बच्चे हैं, जिनमें से अधिकांश उच्च रुग्णता और मृत्यु दर के कारण वयस्कता तक नहीं पहुँच पाते हैं।
स्रोत: द हिंदू
आंतरिक सुरक्षा
सुकमा में माओवादी हमला
चर्चा में क्यों?
हाल ही में छत्तीसगढ़ के सुकमा-बीजापुर ज़िले की सीमा के पास टेरम क्षेत्र में सुरक्षा बलों के एक दल पर पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (People’s Liberation Guerilla Army- PLGA) की एक टुकड़ी द्वारा हमला किया गया, इसमें कई सुरक्षाकर्मी मारे गए और कुछ घायल हुए हैं।
- PLGA की स्थापना वर्ष 2000 में हुई थी। इसे आतंकवादी संगठन घोषित किया गया है और गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम,1967 के तहत प्रतिबंधित है।
प्रमुख बिंदु
सुकमा ज़िले के विषय में:
- यह ज़िला छत्तीसगढ़ राज्य के दक्षिणी सिरे पर स्थित है जिसे वर्ष 2012 में दंतेवाड़ा से अलग करके बनाया गया है।
- यह ज़िला अर्द्ध-उष्णकटिबंधीय वन से आच्छादित है और जनजातीय समुदाय गोंड (Gond) की मुख्य भूमि है।
- इस ज़िले से होकर बहने वाली एक प्रमुख नदी सबरी (Sabari- गोदावरी नदी की सहायक नदी) है।
- कुछ दशकों से यह क्षेत्र वामपंथी अतिवाद (Left Wing Extremism- LWE) गतिविधियों का मुख्य क्षेत्र बन गया है।
- इस क्षेत्र को ऊबड़-खाबड़ और मुश्किल भौगोलिक स्थानों ने LWE कार्यकर्ताओं के लिये एक सुरक्षित ठिकाना बना दिया।
भारत में वामपंथी अतिवाद:
- वामपंथी अतिवादियों को विश्व के अन्य देशों में माओवादियों के रूप में और भारत में नक्सलियों के रूप में जाना जाता है।
- भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत वर्ष 1967 में पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग ज़िले के नक्सलबाड़ी नामक गाँव से हुई और इसीलिये इस उग्रपंथी आंदोलन को ‘नक्सलवाद’ के नाम से जाना जाता है।
- ज़मींदारों द्वारा छोटे किसानों के उत्पीड़न पर अंकुश लगाने के लिये सत्ता के खिलाफ चारू मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी द्वारा शुरू किये गए इस सशस्त्र आंदोलन को नक्सलवाद का नाम दिया गया।
- यह आंदोलन छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश जैसे कम विकसित पूर्वी भारत के राज्यों में फैल गया है।
- यह माना जाता है कि नक्सली माओवादी राजनीतिक भावनाओं और विचारधारा का समर्थन करते हैं।
- माओवाद, साम्यवाद का एक रूप है जो माओ त्से तुंग द्वारा विकसित किया गया है। इस सिद्धांत के समर्थक सशस्त्र विद्रोह, जनसमूह और रणनीतिक गठजोड़ के संयोजन से राज्य की सत्ता पर कब्ज़ा करने में विश्वास रखते हैं।
वामपंथी अतिवाद का कारण:
- आदिवासी असंतोष:
- वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 का उपयोग आदिवासियों को लक्षित करने के लिये किया गया है, जो अपने जीवन यापन हेतु वनोपज पर निर्भर हैं।
- विकास परियोजनाओं, खनन कार्यों और अन्य कारणों की वजह से नक्सलवाद प्रभावित राज्यों में व्यापक स्तर पर जनजातीय आबादी का विस्थापन हुआ है।
- माओवादियों के लिये आसान लक्ष्य: ऐसे लोग जिनके पास जीवन जीने का कोई स्रोत नहीं है, उन्हें माओवादियों द्वारा आसानी से अपने साथ कर लिया जाता है।
- माओवादी ऐसे लोगों को हथियार, गोला-बारूद और पैसा मुहैया कराते हैं।
- देश की सामाजिक-आर्थिक प्रणाली में अंतराल:
- सरकार नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में किये गए विकास के बजाय हिंसक हमलों की संख्या के आधार पर अपनी सफलता को मापती है।
- नक्सलियों से लड़ने के लिये मज़बूत तकनीकी बुद्धिमत्ता का अभाव है।
- उदाहरण के लिये ढाँचागत समस्याएँ, कुछ गाँव अभी तक किसी भी संचार नेटवर्क से ठीक से जुड़ नहीं पाए हैं।
- प्रशासन से कोई अनुवर्ती कार्रवाई नहीं: यह देखा जाता है कि पुलिस द्वारा किसी क्षेत्र पर नियंत्रण किये जाने के बाद भी प्रशासन उस क्षेत्र के लोगों को आवश्यक सेवाएँ प्रदान करने में विफल रहता है।
- नक्सलवाद से एक सामाजिक मुद्दे के रूप में निपटा जाए या सुरक्षा के खतरे के रूप में, इस पर अभी भी भ्रम बना हुआ है।
LWE से लड़ने की सरकारी पहल:
- ग्रेहाउंड: इसे वर्ष 1989 में एक विशिष्ट नक्सल विरोधी शक्ति के रूप में अपनाया गया था।
- ऑपरेशन ग्रीन हंट: यह वर्ष 2009-10 में शुरू किया गया था और इसके अंतर्गत नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षाबलों की भारी तैनाती की गई थी।
- LWE मोबाइल टॉवर परियोजना: LWE क्षेत्रों में मोबाइल कनेक्टिविटी को बेहतर बनाने के लिये वर्ष 2014 में सरकार ने LWE प्रभावित राज्यों में मोबाइल टॉवरों की स्थापना को मंज़ूरी दी।
- आकांक्षी ज़िला कार्यक्रम: इस कार्यक्रम को वर्ष 2018 में लॉन्च किया गया था, जिसका उद्देश्य उन ज़िलों में तेज़ी से बदलाव लाना है जिन्होंने प्रमुख सामाजिक क्षेत्रों में अपेक्षाकृत कम प्रगति की है।
- समाधान (SAMADHAN) का अर्थ है-
S- स्मार्ट लीडरशिप,
A- आक्रामक रणनीति,
M- प्रेरणा और प्रशिक्षण,
A- एक्शनेबल इंटेलिजेंस,
D- डैशबोर्ड आधारित KPI (मुख्य प्रदर्शन संकेतक) और KRA (मुख्य परिणाम क्षेत्र),
H- हार्नेसिंग टेक्नोलॉजी,
A- प्रत्येक रंगमंच के लिये कार्ययोजना,
N- फाइनेंसिंग तक कोई पहुँच नहीं। - यह सिद्धांत LWE समस्या के लिये वन-स्टॉप समाधान है। इसमें विभिन्न स्तरों पर तैयार की गई अल्पकालिक नीति से लेकर दीर्घकालिक नीति तक सरकार की पूरी रणनीति शामिल है।
आगे की राह
- हालाँकि हाल के दिनों में LWE हिंसा की घटनाओं में कमी आई है, लेकिन ऐसे समूहों को खत्म करने के लिये निरंतर ध्यान देने और प्रयास करने की आवश्यकता है।
- सरकार को दो चीज़ सुनिश्चित करने की ज़रूरत है; शांतिप्रिय लोगों की सुरक्षा और नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों का विकास।
- केंद्र और राज्य सरकारों को विकास तथा सुरक्षा के मामले में अपने समन्वित प्रयासों को जरी रखना चाहिये, जहाँ केंद्र को राज्य पुलिस बलों के साथ एक सहायक भूमिका निभानी चाहिये।
- सरकार को सुरक्षाकर्मियों के जीवन के नुकसान को कम करने के लिये ड्रोन के उपयोग जैसे तकनीकी समाधान पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
स्रोत: द हिंदू
भूगोल
गोदावरी नदी
चर्चा में क्यों?
गोदावरी नदी के जल को पोलावरम सिंचाई परियोजना (Polavaram Irrigation Project) स्थल से पूर्व और पश्चिमी गोदावरी ज़िलों की सिंचाई नहरों में छोड़ने की 31 मार्च, 2021 तक की पिछली समयसीमा को 15 अप्रैल, 2021 बढ़ा दिया गया है।
- अप्रैल माह में ही कॉफरडैम (Cofferdam) पर काम शुरू होने की संभावना है।
प्रमुख बिंदु:
गोदावरी नदी:
- गोदावरी नदी तंत्र प्रायद्वीपीय भारत का सबसे बड़ा नदी तंत्र है। इसे दक्षिण की गंगा भी कहा जाता है।
- उद्भव: गोदावरी नदी महाराष्ट्र में नासिक के पास त्र्यंबकेश्वर से निकलती है और बंगाल की खाड़ी में गिरने से पहले लगभग 1465 किलोमीटर की दूरी तय करती है।
- अपवाह तंत्र: गोदावरी बेसिन महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा राज्यों के अलावा मध्य प्रदेश, कर्नाटक तथा पुद्दुचेरी के मध्य क्षेत्र के छोटे हिस्सों में फैला हुआ है।
- सहायक नदियाँ: प्रवरा, पूर्णा, मंजरा, पेनगंगा, वर्धा, वेनगंगा, प्राणहिता (वेनगंगा, पेनगंगा, वर्धा का संयुक्त प्रवाह), इंद्रावती, मनेर और सबरी।
- सांस्कृतिक महत्त्व: नासिक में गोदावरी नदी के तट पर कुंभ मेला (Kumbh Mela) लगता है।
- कुंभ का आयोजन उज्जैन में क्षिप्रा नदी, हरिद्वार में गंगा और प्रयाग में गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती नदी के संगम पर भी होता है।
- गोदावरी नदी जल विवाद: गोदावरी नदी के जल का बंँटवारा आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और कर्नाटक के बीच विवाद का प्रमुख कारण है।
- गोदावरी नदी पर महत्त्वपूर्ण परियोजनाएँ:
- पोलावरम सिंचाई परियोजना।
- कालेश्वरम।
- गोदावरी नदी पर स्थित सदरमट एनीकट नामक दो सिंचाई परियोजनाओं को सिंचाई एवं जल निकासी पर अंतर्राष्ट्रीय आयोग’ (WHIS) द्वारा धरोहर सिंचाई संरचना (Heritage Irrigation Structures) स्थल के रूप में मान्यता दी गई है।
- इंचमपल्ली: इंचमपल्ली परियोजना गोदावरी नदी पर प्रस्तावित है, यह परियोजना आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी तथा इंद्रावती के संगम के पास 12 किमी. अनुप्रवाह पर स्थित है।
- यह महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश राज्यों की एक संयुक्त परियोजना है।
- श्रीराम सागर परियोजना: श्रीराम सागर परियोजना एक बहुउद्देशीय परियोजना है, जो तेलंगाना के निज़ामाबाद ज़िले में पोचमपाद के पास गोदावरी नदी पर स्थित है।
पोलावरम सिंचाई परियोजना:
- पोलावरम परियोजना आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी पर पोलावरम गाँव के पास स्थित है।
- यह एक बहुउद्देश्यीय सिंचाई परियोजना है क्योंकि एक बार पूर्ण होने के बाद यह परियोजना सिंचाई संबंधी लाभ प्रदान करेगी तथा जल विद्युत उत्पन्न करेगी।
- इसके अलावा यह परियोजना पेयजल की आपूर्ति भी करेगी।
- इस परियोजना के दाईं ओर स्थित नहर से कृष्णा नदी बेसिन हेतु अंतर-बेसिन हस्तांतरण (Inter-Basin Transfer) की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी।
- इस परियोजना के परोक्ष लाभ भी होंगे जैसे- मत्स्य पालन (मछली का प्रजनन और पालन), पर्यटन और शहरीकरण।
- वर्ष 2014 में आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2014 की धारा-90 के तहत केंद्र सरकार द्वारा परियोजना को राष्ट्रीय परियोजना का दर्जा दिया गया है।
कॉफरडैम (Cofferdam):
- कॉफरडैम को जलस्रोत या उसके आसपास अस्थायी अवरोधक के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसके द्वारा किसी सीमित/बंद क्षेत्र में जल के निष्कासन, डायवर्ज़न या जल क्षति की प्रक्रिया संपन्न की जाती है।
- किसी भी कॉफरडैम प्रकार का प्रमुख उद्देश्य अत्यधिक या असुविधाजनक जल को पीछे हटाकर निर्माण कार्य करने हेतु एक शुष्क (जल मुक्त) परिस्थिति उपलब्ध कराना है।
- यह किसी भी परियोजना के लिये न्यूनतम प्रतिरोध और यथासंभव अधिक सुरक्षा के साथ आगे बढ़ने में सहायक होता है।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय राजव्यवस्था
संदेह के लाभ पर आधारित दोषमुक्ति
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने स्वीकार किया है कि कोई भी सार्वजनिक नियोक्ता किसी अभ्यर्थी, जो अतीत में “संदेह का लाभ” (Benefit of Doubt) प्राप्त करते हुए गंभीर अपराध से बरी हुआ है, को नौकरी पर रखने से मना कर सकता है।
- किसी अभियुक्त को संदेह का लाभ तब दिया जाता है जब या तो सबूत समग्र तौर पर अनुपस्थिति हों अथवा कानून के मुताबिक, उस विशिष्ट अपराध के लिये मात्र संदेह के आधार पर सज़ा नहीं दी जा सकती हो और सबूतों के आधार पर अपराध सिद्ध करना आवश्यक हो।
प्रमुख बिंदु
पृष्ठभूमि
- याचिकाकर्त्ता ने राजस्थान पुलिस सेवा में कांस्टेबल पद संबंधी भर्ती परीक्षा पास की थी, हालाँकि आपराधिक मामले में मुकदमे के मद्देनज़र उसे नियुक्त नहीं किया गया।
- यह पाया गया कि यद्यपि उस व्यक्ति को बरी कर दिया गया था, किंतु मामले में अपराध की प्रकृति सामान्य नहीं थी, बल्कि वह गंभीर अपराध था और अभियुक्त को ‘संदेह के लाभ’ के आधार पर बरी किया गया था।
- उसे न्यायालय द्वारा सम्मानपूर्वक बरी (Honourable Acquittal) नहीं किया गया था।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी:
- किसी व्यक्ति का बरी होना ही पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वह पूर्णरूप से बरी किया गया है।
- नियोक्ता के पास यह अधिकार होगा कि वह अभ्यर्थी को उसके पूर्व के क्रियाकलापों की अच्छी तरह से जाँच कर भर्ती करे।
- इस संदर्भ में नियोक्ता अभ्यर्थी की जॉब प्रोफाइल को ध्यान में रखकर चयन कर सकता है और अभ्यर्थी के खिलाफ लगाए गए आरोप की गंभीरता तथा उसके बरी होने की प्रकृति (सम्मानजनक या केवल संदेह के लाभ के आधार बरी) पर विचार कर सकता है ।
- केवल संदेह के लाभ के आधार पर बरी होना एक सम्मानजनक बरी होने से काफी अलग है।
- किसी जघन्य अपराध के आरोप में सम्मान के साथ बरी एक व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से रोज़गार के लिये योग्य माना जाना चाहिये।
- हालाँकि न्यायालय ने कहा कि अस्वीकृति विवेक रहित नहीं होनी चाहिये क्योंकि देश में रोज़गार के अवसर सीमित हैं।
"सम्मान के साथ बरी” और “संदेह के लाभ पर बरी”
ट्रायल कोर्ट रिकॉर्ड पर रखे गए सबूतों और गवाह की उचित जाँच करने के बाद निम्नलिखित में से कोई भी फैसला सुना सकती है:
- व्यक्ति को अपराधी घोषित करना।
- व्यक्ति को बिना शर्त बरी करना, दूसरे शब्दों में सम्मान के साथ बरी करना।
- भारतीय कानूनों के अंतर्गत "सम्मान के साथ बरी" शब्द को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। यह भारतीय न्यायपालिका की देन है।
- यह न्यायालय द्वारा अभियोजन पक्ष के साक्ष्यों के पूर्ण विवेचना के बाद अभियुक्त के खिलाफ लगाए गए आरोपों को पूरी तरह से गलत पाए जाने की स्थिति को संदर्भित करता है।
- जब अभियोजन पक्ष संदेह से परे उचित या पर्याप्त सबूतों के माध्यम से अभियुक्त को दोषी ठहराने में असफल हो जाता है तो उस अभियुक्त को "संदेह का लाभ" के आधार पर दोषमुक्त कर दिया जाता है।
स्रोत: द हिंदू
भूगोल
मानसून पर धूल का प्रभाव
चर्चा में क्यों?
हाल ही में एक शोध से पता चला है कि मध्य-पूर्व के रेगिस्तानी इलाकों (एशियाई रेगिस्तान) से चलने वाली हवाओं और उनके साथ आने वाले वायुमंडलीय धूल कणों से भारतीय मानसून कैसे प्रभावित होता है।
प्रमुख बिंदु:
धूल-कण:
- पृथ्वी या रेत के बहुत छोटे शुष्क कणों को धूल कहते हैं।
- PM10 और PM2.5 आकार वाले कणों को धूल के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
- धूल के प्रमुख स्रोतों में मृदा, रेत और चट्टानों का प्राकृतिक रूप से अपरदित होना शामिल है।
- शहरी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर उद्योगों के संचालन आदि कार्य धूल उत्सर्जन के प्रमुख कारक हैं।
- धूल कणों को मानसून और तूफान को प्रभावित करने के साथ-साथ वर्षावनों को निषेचित करने के लिये भी जाना जाता है।
- धूल उत्सर्जन योजना जलवायु परिवर्तन के प्रति बेहद संवेदनशील है तथा इन तंत्रों और धूल के प्रभावों को समझने से हमारे मानसून प्रणालियों को वैश्विक जलवायु परिवर्तन का सामना करने में मदद मिलेगी।
मानसून पर धूल का प्रभाव:
- परिचय:
- तेज़ हवाएँ रेगिस्तान से उठने वाले धूल के तूफान सौर विकिरण को अवशोषित कर सकती हैं और इससे धूलकण बहुत अधिक गर्म हो सकते हैं।
- ये गर्म धूल कण वायुमंडल को इतना अधिक गर्म कर देते हैं कि उससे हवा का दबाव बदल जाता है, हवा का संचार पैटर्न बदल सकता है और समुद्र से आने वाली नमी की मात्रा भी बढ़ जाएगी, जिसके कारण वहाँ भारी बारिश हो सकती है। इस घटना को 'एलिवेटेड हीट पंप' कहा जाता है।
- भारतीय मानसून पर प्रभाव:
- मध्य-पूर्व (पश्चिम एशिया) से और ईरान के पठार से निकलने वाली धूल भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून (दक्षिण पश्चिम मानसून ) को भी प्रभावित करती है।
- गर्म हवा ईरानी पठार के वातावरण को गर्म कर सकती है और अरब प्रायद्वीप के रेगिस्तानों में परिसंचरण वृद्धि मध्य-पूर्व से धूल उत्सर्जन को बढ़ा सकती है।
- मध्य-पूर्व (पश्चिम एशिया) से और ईरान के पठार से निकलने वाली धूल भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून (दक्षिण पश्चिम मानसून ) को भी प्रभावित करती है।
- विपरीत प्रभाव :
- भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून का विपरीत प्रभाव पश्चिम एशिया में हवाओं को अधिक प्रभावी बनाकर धूल उत्सर्जन में वृद्धि कर सकता है।
- एक मज़बूत मानसून पश्चिम एशिया में भी परिसंचरण कर सकता है और धूल की मात्रा को बढ़ा सकता है।
मानव-जनित धूल का प्रभाव:
- विभिन्न मतों के अनुसार, कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि भारतीय उपमहाद्वीप द्वारा उत्सर्जित मानव-जनित एरोसोल गर्मियों में मानसूनी वर्षा को कम कर सकता है, जबकि अन्य ने पाया है कि धूल जैसे शोषक एरोसोल मानसून परिसंचरण को मज़बूत कर सकते हैं।
- सूक्ष्म ठोस कणों अथवा तरल बूँदों के हवा या किसी अन्य गैस में मौजूदगी को एरोसोल (Aerosol) कहा जाता है। एरोसोल प्राकृतिक या मानव जनित हो सकते हैं। हवा में उपस्थित एरोसोल को वायुमंडलीय एरोसोल कहा जाता है। धुंध, धूल, वायुमंडलीय प्रदूषक कण तथा धुआँ एरोसोल के उदाहरण हैं।
- एंथ्रोपोज़ेनिक एरोसोल मानव-जनित एयरोसोल के उदाहरण हैं। इनका निर्माण धुंध कण, प्रदूषक और धुएँ से होता है।
- एंथ्रोपोज़ेनिक एरोसोल में सल्फेट, नाइट्रेट और कार्बोनेसस एरोसोल शामिल हैं तथा यह मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन दहन स्रोतों से उत्पन्न होते हैं।
- हालाँकि हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि इसकी वजह से भारत में गर्मियों में मानसूनी वर्षा की मजबूत स्थिति देखी जा सकती हैं।
- एरोसोल कण, जैसे- धूल, वर्षा प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मानसून में रेगिस्तान की भूमिका:
- दुनिया भर में रेगिस्तान मानसून की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- “पश्चिमी चीन में तक्लामाकन मरुस्थल से तथा पूर्वी एशिया में गोबी मरुस्थल से धूल एरोसोल का परिवहन पूर्वी चीन में होने पर यह पूर्वी एशिया में ग्रीष्मकालीन मानसून को प्रभावित कर सकता है।
- दक्षिण-पश्चिमी संयुक्त राज्य में कुछ छोटे रेगिस्तान हैं जो उत्तरी अफ्रीकी मानसून को प्रभावित करते हैं।
विश्व के प्रमुख रेगिस्तान:
मानसून:
परिचय:
- एक मानसून अक्सर तूफान या आंधी के समान मूसलाधार बारिश करता है। लेकिन इसमें एक अंतर यह है कि मानसून एक तूफान नहीं है बल्कि यह एक क्षेत्र विशेष में हुए मौसमी पवन में बदलाव है।
- यह मौसमी परिवर्तन गर्मियों में भारी बारिश का कारण बन सकता है, लेकिन अन्य समय यह एक शुष्क अवस्था में रहता है।
मानसून की उत्पत्ति:
- मानसून (अरबी भाषा के मौसिम जिसका अर्थ "मौसम" होता है) की उत्पत्ति भूमि द्रव्यमान और आसन्न महासागर के बीच तापमान में अंतर के कारण होती है।
- जल की अपेक्षा स्थल तीव्रता से गर्म और ठंडा होता है, अतः सूर्यास्त के पश्चात् ताप विकिरण द्वारा धरातल शीतल होने लगता है तथा स्थल पर अधिक वायुदाब तथा जल पर न्यून वायुदाब का क्षेत्र निर्मित हो जाता है जिससे हवाओं की दिशा बदल जाती है।
- मानसून के मौसम के अंतिम चरण में हवाएँ फिर से विपरीत दिशा का अनुसरण करती हैं।
प्रकार:
- नम या आर्द्र मानसून:
- एक आर्द्र मानसून आमतौर पर गर्मियों के महीनों (अप्रैल से सितंबर तक) के दौरान भारी बारिश करता है।
- औसतन भारत की वार्षिक वर्षा का लगभग 75% और उत्तरी अमेरिकी मानसून क्षेत्र की लगभग 50% वर्षा ग्रीष्मकालीन मानसून के दौरान होती है।
- आर्द्र मानसून की शुरुआत तब होती है जब हवाएँ समुद्र के ऊपर से स्थल तक ठंडी, आर्द्र हवाओं का परिसंचरण करती हैं।
- शुष्क मानसून:
- शुष्क मानसून की स्थिति आमतौर पर अक्तूबर से अप्रैल के मध्य होती है ।
- महासागरों से आने वाली शुष्क हवाएँ, गर्म जलवायु क्षेत्रों जैसे कि मंगोलिया और उत्तर-पश्चिमी चीन से भारत के दक्षिण में प्रवेश करती हैं।
- ग्रीष्म मानसून या समकक्ष की तुलना में शुष्क मानसून कम शक्तिशाली होता है।
- शीतकालीन मानसून की स्थिति तब देखी जाती है जब जल की तुलना में स्थल तेज़ी से ठंडा हो जाता है और स्थल पर एक उच्च दाब विकसित होता है, जो किसी भी समुद्री हवा ( शुष्क अवधि के दौरान) को स्थल की ओर आने से रोकता है।
अवस्थिति:
- उष्णकटिबंधीय मानसून 0 और 23.5 डिग्री उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांश के मध्य तथा उपोष्णकटिबंधीय मानसून 23.5 डिग्री और 35 डिग्री उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांश के मध्य बनता है।
- सबसे शक्तिशाली मानसून की अवस्थिति उत्तर में भारत एवं दक्षिण एशिया तथा दक्षिण में ऑस्ट्रेलिया और मलेशिया में होती है।
- मानसून की उपस्थिति मुख्य रूप से उत्तरी अमेरिका के दक्षिणी हिस्सों, मध्य अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका के उत्तरी क्षेत्रों तथा पश्चिमी अफ्रीका में भी पाई जाती है।