डेली न्यूज़ (04 May, 2022)



बसव जयंती

प्रिलिम्स के लिये:

बसवन्ना, अनुभव मंतपा 

मेन्स के लिये:

दक्षिण भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलन।

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में प्रधानमंत्री ने बसव जयंती (Basava Jayanti) के पावन अवसर पर जगद्गुरु बसवेश्वर (बसवन्ना) को श्रद्धांजलि दी। 

  • हिंदू कैलेंडर के अनुसार, बसवन्ना का जन्म वैशाख महीने के तीसरे दिन शुक्ल पक्ष में हुआ। यह आमतौर पर अंग्रेज़ी कैलेंडर के मई-अप्रैल माह के मध्य में पड़ता है। 

Basavanna

बसव के बारे में: 

  • परिचय: बसवेश्वर का जन्म 1131 ई. में बागेवाड़ी (कर्नाटक का अविभाजित बीजापुर ज़िला) में हुआ था।
    • ये 12वीं सदी के एक कवि और दार्शनिक थे जिन्हें विशेष रूप से लिंगायत समुदाय में विशेष  महत्त्व एवं सम्मान प्राप्त है, क्योंकि वे लिंगायतवाद के संस्थापक थे।
      • लिंगायत शब्द का आशय एक ऐसे व्यक्ति से है जो दीक्षा समारोह के दौरान प्राप्त लिंग को शरीर पर व्यक्तिगत रूप से धारण करता है जिसे भगवान शिव के एक प्रतिष्ठित रूप मानते हुए धारण किया जाता है।
    • कल्याण में कलचुर्य राजा बिज्जल (1157-1167 ई.) ने अपने दरबार में बसवेश्वर को प्रारंभिक चरण में एक कर्णिका (लेखाकार) के रूप में और बाद में प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया।
  • मुख्य शिक्षाएँ: उनका आध्यात्मिक अनुशासन अरिवु (सच्चा ज्ञान), आचार (सही आचरण) और अनुभव (दिव्य अनुभव) के सिद्धांतों पर आधारित था जिसने 12वीं शताब्दी में एक सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक क्रांति को जन्म दिया।
    • यह मार्ग लिंगनगयोग (ईश्वर के साथ मिलन) के लिये एक समग्र दृष्टिकोण की वकालत करता है।
    • यह व्यापक अनुशासन भक्ति, ज्ञान, और क्रिया को अच्छी तरह व संतुलित तरीके से शामिल करता है।
  • सामाजिक सुधार: बसवेश्वर को कई सामाजिक सुधारों के लिये जाना जाता है।
    • वह जाति व्यवस्था से मुक्त समाज में सभी के लिये समान अवसर की बात करते थे और शारीरिक परिश्रम का उपदेश देते थे।
    • उन्होंने अनुभव मंडप की भी स्थापना की, जिसका अनुवाद अनुभव के मंच के रूप में किया गया, यह एक तरह की अकादमी थी जिसमें लिंगायत मनीषियों, संतों और दार्शनिकों को शामिल किया गया था।
  • सामाजिक-आर्थिक सिद्धांत: बसवेश्वर ने दो बहुत महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक सिद्धांत दिये।
    • कायाक (ईश्वरीय कार्य):  
      • इसके अनुसार समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पसंद के कार्य को पूरी ईमानदारी के साथ करना चाहिये। 
    • दसोहा (समान वितरण): 
      • समान काम के लिये समान आय होनी चाहिये।
      • कार्यकर्त्ता (कायाकजीवी) अपनी मेहनत की कमाई से अपना दैनिक जीवन व्यतीत कर सकता है लेकिन उसे धन या संपत्ति को भविष्य के लिये सुरक्षित नहीं रखना चाहिये और अधिशेष धन का उपयोग समाज और गरीबों के हित में करना चाहिये।

अनुभव मंडप:

  • बसवेश्वर ने अनुभव मंडप की स्थापना की, जो व्यक्तिगत समस्याओं के साथ-साथ धार्मिक और आध्यात्मिक सिद्धांतों सहित सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्तर की मौजूदा समस्याओं पर चर्चा करने हेतु सभी के लिये एक सामान्य मंच था।
  • इस प्रकार यह भारत की पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण संसद थी, जहांँ शरणों (कल्याणकारी समाज के नागरिक) के साथ एक लोकतांँत्रिक व्यवस्था के समाजवादी सिद्धांतों पर चर्चा की।
  • शरणों की वे सभी चर्चाएँ वचनों के रूप में लिखी गई थीं।
    • वचन सरल कन्नड़ भाषा में लिखे गए एक अभिनव साहित्यिक रूप थे।
    • उनके व्यावहारिक दृष्टिकोण और 'कल्याणकारी राज्य' (कल्याण राज्य) की स्थापना के कार्य ने वर्ग, जाति, पंथ एवं लिंग के बावजूद समाज के सभी नागरिकों को एक नई स्थिति और परिस्तिथि प्रदान की।
  • हाल ही में कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने बसव कल्याण में 'नए अनुभव मंडप' की आधारशिला रखी है।

विगत वर्ष के प्रश्न:

प्रश्न. मध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)

  1. तमिल क्षेत्र के सिद्ध (सितार) एकेश्वरवादी थे और उन्होंने मूर्तिपूजा की निंदा की।
  2. कन्नड़ क्षेत्र के लिंगायतों ने पुनर्जन्म के सिद्धांत पर सवाल उठाया और जाति पदानुक्रम को खारिज कर दिया।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों 
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (C)

  • सिद्ध का अर्थ है एक व्यक्ति जिसने सिद्धि, पूर्णता या अलौकिक क्षमता प्राप्त कर ली है। दक्षिण भारत में सिद्धों की परंपरा सितार परंपरा के रूप में उभरी जो 7वीं शताब्दी की है जिसका अपना एक साहित्य है। सिद्ध शिव और शक्ति की उनके सौम्य, तपस्वी एवं उग्र रूपों में पूजा करते हैं। वे एकेश्वरवादी थे तथा उन्होंने मूर्तिपूजा की निंदा की। अत: कथन 1 सही है।
  • लिंगायतों ने पुनर्जन्म के सिद्धांत पर सवाल उठाया और जाति पदानुक्रम को खारिज कर दिया। अत: कथन 2 सही है।

स्रोत: पी.आई.बी.


विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2022

प्रिलिम्स के लिये:

विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस, विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2022  

मेन्स के लिये:

भारत में प्रेस की स्वतंत्रता और संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों? 

3 मई, 2022 को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस (WPFD) के अवसर पर ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ (RSF) द्वारा विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक का 20वाँ संस्करण प्रकाशित किया गया।

  • 180 देशों में भारत 150वें स्थान पर है।

विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस: 

  • परिचय: 
    • वर्ष 1991 में यूनेस्को की जनरल काॅन्फ्रेंस की सिफारिश के बाद वर्ष 1993 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस की घोषणा की थी। 
    • यह दिवस वर्ष 1991 में यूनेस्को द्वारा अपनाई गई 'विंडहोक' (Windhoek) उद्घोषणा को भी चिह्नित करता है।
    • वर्ष 1991 की ‘विंडहोक घोषणा’ एक मुक्त, स्वतंत्र और बहुलवादी प्रेस के विकास से संबंधित है।  
  • विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस 2022 की थीम: 
    • जर्नलिज़्म अंडर डिजिटल सीज (Journalism under digital siege)। 

विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक: 

  • परिचय: 
    • यह वर्ष 2002 से ‘रिपोर्टर्स सेन्स फ्रंटियर्स’ (RSF) या ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ द्वारा प्रत्येक वर्ष प्रकाशित किया जाता है। 
      • पेरिस में स्थित RSF संयुक्त राष्ट्र, यूनेस्को, यूरोपीय परिषद् और फ्रैंकोफोनी के अंतर्राष्ट्रीय संगठन (OIF) के परामर्शी स्थिति के साथ एक स्वतंत्र गैर-सरकारी संगठन है।
        • OIF, 54 फ्रेंच भाषी राष्ट्रों का एक समूह है।
    • पत्रकारों के लिये उपलब्ध स्वतंत्रता के स्तर के अनुसार यह  सूचकांक देशों और क्षेत्रों को रैंक प्रदान करता है। हालाँकि यह पत्रकारिता की गुणवत्ता का संकेतक नहीं है।
  • स्कोरिंग मानदंड:
    • सूचकांक की रैंकिंग 0 से 100 तक के स्कोर पर आधारित होती है जो प्रत्येक देश या क्षेत्र को प्रदान की जाती है, जिसमें 100 सर्वश्रेष्ठ संभव स्कोर (प्रेस स्वतंत्रता का उच्चतम संभव स्तर) और 0 सबसे खराब स्तर को प्रदर्शित करता है। 
  • मूल्यांकन मानदंड:
    • प्रत्येक देश या क्षेत्र के स्कोर का मूल्यांकन पाँच प्रासंगिक संकेतकों का उपयोग करके किया जाता है, जिनमें राजनीतिक संदर्भ, कानूनी ढँचा, आर्थिक संदर्भ, सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ और सुरक्षा शामिल हैं।

विश्व के प्रदर्शन की मुख्य विशेषताएँ:

  • परिचय: 
    • रिपोर्ट से पता चलता है कि "ध्रुवीकरण" में दोगुना वृद्धि हुई है, जो सूचना की अराजकता के कारण बढ़ी है, अर्थात् मीडिया ध्रुवीकरण देशों के भीतर व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों के विभाजन को बढ़ावा देता है।
  • देशों की रैंकिंग:
    • शीर्ष और सबसे खराब प्रदर्शनकर्त्ता: 
      • नॉर्वे (प्रथम) डेनमार्क (दूसरा), स्वीडन (तीसरा), एस्टोनिया (चौथा) और फिनलैंड (पाँचवाँ) ने शीर्ष स्थान हासिल किया है।
      • उत्तर कोरिया 180 देशों की सूची में सबसे नीचे रहा।
      • रूस को 155वें स्थान पर रखा गया है। 
    • भारत के पड़ोसी: 
      • नेपाल वैश्विक रैंकिंग में 30 अंकों की बढ़त के साथ 76वें स्थान पर पहुंँच गया है।
      • सूचकांक ने पाकिस्तान को 157वें, श्रीलंका को 146वें, बांग्लादेश को 162वें और म्यांमार को 176वें स्थान पर रखा है। 
      • चीन 175वें स्थान पर है। 

Neighbours-fare

भारत का प्रदर्शन:

  • परिचय: 
    • भारत 2022 में 180 देशों में 142वें में से आठ पायदान गिरकर 150वें स्थान पर आ गया है।
    • भारत 2016 के सूचकांक में 133वें स्थान पर था इसके बाद से उसकी रैंकिंग में लगातार गिरावट आ रही है।
    • रैंकिंग में गिरावट के पीछे का कारण "पत्रकारों के खिलाफ हिंसा" और "राजनीतिक रूप से पक्षपातपूर्ण मीडिया" में वृद्धि होना है।
  • भारत की रैंकिंग में गिरावट के कारण: 
    • सरकार का दबाव :
      • सूचकांक के अनुसार, भारत में मीडिया लोकतांत्रिक रूप से प्रतिष्ठित राष्ट्रों की तुलना में "तेज़ी से सत्तावादी और/या राष्ट्रवादी सरकारों" के दबाव का सामना कर रहा है।
    • नीतिगत ढांँचे में दोष:
      • यद्यपि नीतिगत ढांँचा सैद्धांतिक रूप से सुरक्षात्मक है, यह मानहानि, राजद्रोह, न्यायालय की अवमानना और सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने का आरोप लगाते हुए उन्हें "राष्ट्र-विरोधी" करार देता है।
    • मीडियाकर्मियों के लिये भारत दुनिया का सबसे खतरनाक देश:
      • रिपोर्ट के मुताबिक, भारत मीडियाकर्मियों के लिये भी दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में से एक है।
        • पत्रकारों को पुलिस हिंसा, राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं द्वारा घात लगाकर हमला करने और आपराधिक समूहों या भ्रष्ट स्थानीय अधिकारियों द्वारा घातक प्रतिशोध सहित सभी प्रकार की शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है।
    • कश्मीर मुद्दा:
      • कश्मीर में स्थिति "चिंताजनक" बनी हुई है और पत्रकारों को अक्सर पुलिस तथा अर्द्धसैनिक बलों द्वारा परेशान किया जाता है। 

भारत में प्रेस की स्वतंत्रता: 

  • संविधान देश का सर्वोच्च कानून है, जो अनुच्छेद 19 के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जो 'भाषण की स्वतंत्रता आदि के संबंध में कुछ अधिकारों के संरक्षण' से संबंधित है।
  • प्रेस की स्वतंत्रता भारतीय कानूनी प्रणाली द्वारा स्पष्ट रूप से संरक्षित नहीं है, लेकिन यह संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (A) के तहत संरक्षित है, जिसके अनुसार "सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा"।
  •  रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य,1950 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा गया कि प्रेस की स्वतंत्रता सभी लोकतांत्रिक संगठनों की नींव है।
  • हालाँकि प्रेस की स्वतंत्रता भी अपने आप में पूर्ण नहीं है। अनुच्छेद 19(2) के तहत इस पर कुछ प्रतिबंधों को आरोपित किया गया है, जो इस प्रकार हैं-
    • भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता या न्यायालय की अवमानना, मानहानि,किसी अपराध के लिये उकसाना।

स्रोत: द हिंदू 


रूस-यूक्रेन युद्ध में ट्रांसनिस्ट्रिया

प्रिलिम्स के लिये:

रूस-यूक्रेन युद्ध, यूरोपीय संघ, उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) में ट्रांसनिस्ट्रिया और मोल्दोवा का स्थान।

मेन्स के लिये:

रूस-यूक्रेन युद्ध, द्विपक्षीय समूह और समझौते, भारत के हितों पर देशों की नीतियों और राजनीति का प्रभाव।

चर्चा में क्यों?

जैसा कि रूस-यूक्रेन युद्ध को दो महीने होने वाले हैं, इस दौरान मोल्दोवा से टूटने वाले छोटे से क्षेत्र ट्रांसनिस्ट्रिया को भी संघर्ष में घसीटे जाने का जोखिम उत्पन्न हो गया है।

  • ट्रांसनिस्ट्रिया वास्तव में एक राज्य है जो मोल्दोवा के पश्चिम में और यूक्रेन के पूर्व में स्थित है।

Tension-in-Transistria

ट्रांसनिस्ट्रिया का इतिहास:

  • ट्रांसनिस्ट्रिया को "सोवियत संघ के अवशेष" के रूप में वर्णित किया गया है, ट्रांसनिस्ट्रिया ने स्वतंत्रता की घोषणा उसी प्रकार की जैसे कि मोल्दोवा ने सोवियत संघ के टूटने के तुरंत बाद की थी। 
  • जब मोल्दोवा के सैनिकों ने 1990-1992 में इस क्षेत्र पर कब्ज़ा करने का प्रयास किया तो ट्रांसनिस्ट्रिया में स्थित रूसी सैनिकों की उपस्थिति के कारण ट्रांसनिस्ट्रिया उनका विरोध करने में सक्षम हुआ।
    • तब से यह मोल्दोवा के नियंत्रण से मुक्त रहा है।  
  • हालाँकि अधिकांश देश ट्रांसनिस्ट्रिया को मोल्दोवा के हिस्से के रूप में मानते हैं। इसे रूस द्वारा भी स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता नहीं दी गई है।  
  • अधिकांश ट्रांसनिस्ट्रियन नागरिको  के पास रूस और ट्रांसनिस्ट्रिया की दोहरी नागरिकता के साथ मोल्दोवा, ट्रांसनिस्ट्रिया और रूस की ट्रिपल नागरिकता भी है।
  • इसकी अर्थव्यवस्था रूस की सब्सिडी और मुफ्त गैस पर निर्भर है।
  • इसकी अपनी सरकार (जो रूसी समर्थक है), संसद, सशस्त्र बल, संविधान, ध्वज, राष्ट्रगान आदि हैं। 
    • क्रीमिया के विलय के बाद सरकार ने रूस में समाहित करने हेतु 2006 में एक जनमत संग्रह आयोजित किया जिसमें 97% से अधिक ट्रांसनिस्ट्रियन नागरिकों ने रूस के साथ भविष्य में एकीकरण के लिये मतदान किया।

रूस के लिये ट्रांसनिस्ट्रिया का सामरिक महत्त्व: 

  • यूक्रेन पर रूस के युद्ध के अगले चरण में ट्रांसनिस्ट्रिया का रणनीतिक स्थान महत्वपूर्ण है।
  • पश्चिम और यूक्रेन को आशंका है कि रूस एवं यूक्रेन के बीच संघर्ष में ट्रांसनिस्ट्रिया को एक मंच के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • रूस, यूक्रेन के दक्षिण-पश्चिमी कोने को अलग करने के लिये ट्रांसनिस्ट्रिया का उपयोग कर सकता है, जिससे मोल्दोवा के अंदर सीधे रूसी हस्तक्षेप हो सकता है। 
    • यदि ट्रांसनिस्ट्रिया रूसी नियंत्रण में आता है, तो यह रूस को यूक्रेन के काला सागर तट के साथ रूस-नियंत्रित गलियारा बनाने में सक्षम बनाएगा।
    • यदि रूस ओडेसा के काला सागर बंदरगाह को ट्रांसनिस्ट्रिया से जोड़ने में सफल हो जाता है, तो शेष यूक्रेन पूरी तरह से भू-आबद्ध हो जाएगा।
  • मोल्दोवा को भय है कि रूस उस पर हमला करने के लिये ट्रांसनिस्ट्रिया का उपयोग करेगा क्योंकि रूस लंबे समय से चाहता है कि मोल्दोवा उसके प्रभाव क्षेत्र में रहे।
    • मोल्दोवा यूरोपीय संघ और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) का सदस्य नहीं है।
    • इसलिये नाटो के बचाव में आने की बहुत कम संभावना है, खासकर नाटो उन देशों को सदस्यता नहीं दे सकता है जिनका अन्य देशों के साथ सीमा विवाद है।

स्रोत: द हिंदू


लाभ का पद

प्रिलिम्स के लिये:

लाभ का पद, चुनाव आयोग, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, सुप्रीम कोर्ट, अनुच्छेद 102 (1), अनुच्छेद 191 (1), अनुच्छेद 164 (4), उच्च न्यायालय।

मेन्स के लिये:

लाभ का पद और संबंधित संवैधानिक प्रावधान।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में चुनाव आयोग ने झारखंड के मुख्यमंत्री को इस संदर्भ में नोटिस जारी किया कि उन्होंने 2021 में खुद को खनन पट्टा देकर "लाभ का पद" धारण किया था।

  • मुख्यमंत्री के ऊपर जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने का आरोप है।

'लाभ के पद' की अवधारणा:

  • विधायिका के सदस्य के रूप में सांसद और विधायक सरकार को उसके काम के लिये जवाबदेह ठहराते हैं।
  • लाभ के पद का कानून के तहत अयोग्यता का अर्थ है कि यदि विधायक सरकार के तहत 'लाभ का पद' धारण करते हैं, तो वे सरकारी प्रभाव के लिये अतिसंवेदनशील हो सकते हैं और अपने संवैधानिक जनादेश का निष्पक्ष रूप से निर्वहन नहीं कर सकते हैं। 
  • जिसका आशय यह है कि निर्वाचित सदस्य के कर्तव्यों और हितों के बीच कोई टकराव नहीं होना चाहिये। 
  • इसलिये लाभ का पद कानून केवल संविधान की बुनियादी विशेषता को लागू करने का प्रयास करता है-
    • विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति के पृथक्करण का सिद्धांत।

लाभ का पद:

  • परिचय: 
    • संविधान में लाभ का पद स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन विभिन्न न्यायालयी फैसलों में की गई व्याख्याओं द्वारा इसका अर्थ अवश्य स्पष्ट हुआ है।
    • लाभ के पद की व्याख्या के अनुसार, पद-धारक को कुछ वित्तीय लाभ या बढ़त या हितलाभ प्राप्त होते हैं।
      • ऐसे मामलों में इस तरह के लाभ की राशि महत्त्वहीन है।
    • सुप्रीम कोर्ट ने 1964 में फैसला सुनाया कि कोई व्यक्ति लाभ का पद रखता है या नहीं, इसका निर्धारण उसकी नियुक्ति की जाँच द्वारा होगी।
  • निर्धारक कारक:
    • क्या सरकार नियुक्ति प्राधिकारी है
    • क्या सरकार के पास नियुक्ति समाप्त करने का अधिकार है
    • क्या सरकार पारिश्रमिक निर्धारित करती है
    • पारिश्रमिक का स्रोत क्या है 
    • शक्ति जो पद के साथ प्राप्त होती है

'लाभ का पद' धारण करने के संबंध में संवैधानिक प्रावधान:

  • भारत के संविधान में अनुच्छेद 102(1)(a) तथा अनुच्छेद 191(1)(a) में लाभ के पद का उल्लेख किया गया हैअनुच्छेद 102(1)(a) के अंतर्गत संसद सदस्यों के लिये तथा अनुच्छेद 191(1)(a) के तहत राज्य विधानसभा के सदस्यों के लिये ऐसे किसी अन्य लाभ के पद को धारण करने की मनाही है 
    • अनुच्छेद स्पष्ट करते हैं कि "किसी व्यक्ति को केवल इस कारण से भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं माना जाएगा कि वह एक मंत्री है"।
  • संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 भी किसी सांसद या विधायक को सरकारी पद को ग्रहण करने की अनुमति देते हैं यदि कानून के माध्यम से उन पदों को लाभ के पद से उन्मुक्ति दी गई है। 
  •  संसद ने भी संसद (अयोग्यता निवारण) अधिनियम, 1959 अधिनियमित किया है। जिसमें उन पदों की सूची दी गई है जिन्हें लाभ के पद से बाहर रखा गया है। संसद ने समय-समय पर इस सूची में विस्तार भी किया है।

सर्वोच्च न्यायालय के संबंधित फैसले: 

  • सर्वोच्च न्यायालय के तीन निर्णयों के मद्देनज़र जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 9ए के तहत मुख्यमंत्री को अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
    • इस धारा के तहत माल की आपूर्ति या सरकार द्वारा किये गए किसी भी कार्य के निष्पादन के लिये अनुबंध करना होता है। 
  • 1964 में सीवीके राव बनाम दंतु भास्कर राव के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने माना है कि एक खनन पट्टा माल की आपूर्ति के अनुबंध की राशि नहीं है। 
  • 2001 में करतार सिंह भड़ाना बनाम हरि सिंह नलवा और अन्य के मामले में शीर्ष न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि खनन पट्टा सरकार द्वारा किये गए कार्य के निष्पादन की राशि नहीं है।
  • यदि मुख्यमंत्री को किसी प्राधिकारी द्वारा अयोग्य घोषित किया जाता है, तो भी वह इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दे सकता है और यह निर्णय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार  चार  महीने के भीतर पूरा किया जाना चाहिये।
    • अनुच्छेद 164(4) के तहत एक व्यक्ति बिना सदस्य बने छह महीने तक मंत्री रह सकता है।

विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs):

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

  1. संसद (निरर्हता निवारण) अधिनियम, 1959 'लाभ के पद' के आधार पर कई पदों को अयोग्यता से छूट देता है।
  2. उपर्युक्त अधिनियम में पाँच बार संशोधन किया गया है।
  3. ‘लाभ का पद' शब्द भारत के संविधान में अच्छी तरह से परिभाषित है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (A)

  • संसद (निरर्हता निवारण) अधिनियम, 1959 कई पदों को अयोग्यता से मुक्त करता है, जैसे: „राज्य मंत्री और उप मंत्री „ संसदीय सचिव और संसदीय अवर सचिव„ संसद में उप मुख्य सचेतक „विश्वविद्यालयों के कुलपति „राष्ट्रीय कैडेट कोर एवं प्रादेशिक सेना में अधिकारी और„ सरकार द्वारा गठित सलाहकार समितियों के अध्यक्ष व सदस्य जब वे प्रतिपूरक के अलावा किसी भी शुल्क या पारिश्रमिक आदि के हकदार नहीं होते हैं। अतः कथन 1 सही है।
  • इस अधिनियम को इसके निर्माण के बाद से 5 बार- वर्ष 1960, 1992, 1993, 2006 और 2013 में  संशोधित किया गया है। अतः कथन 2 सही है।
  • भारत का संविधान लाभ के पद को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं करता है, लेकिन विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों में की गई व्याख्याओं के साथ इसकी परिभाषा वर्षों में विकसित हुई है। अत: कथन 3 सही नहीं है
  •  अतः  विकल्प (A) सही उत्तर है।

स्रोत: द हिंदू


राजद्रोह कानून

प्रिलिम्स के लिये:

राजद्रोह कानून, धारा 124A, भारतीय दंड संहिता।

मेन्स के लिये:

राजद्रोह कानून और संबंधित मुद्दों का महत्त्व।

चर्चा में क्यों?

सरकार ने राजद्रोह के अपराध से निपटने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 124A की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना लिखित जवाब देने के लिये और समय मांगा है।

  • वर्ष 2021 में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने सवाल किया था कि महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ इस्तेमाल किया गया एक औपनिवेशिक कानून आज़ादी के 75 साल बाद भी कानून की किताब में क्यों बना रहा।
  • मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि सरकार द्वारा देशद्रोह या भारतीय दंड संहिता की धारा 124A का दुरुपयोग किया जा सकता है। 

राजद्रोह कानून:

  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: 
    • राजद्रोह कानून को 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड में अधिनियमित किया गया था, उस समय विधि निर्माताओं का मानना था कि सरकार के प्रति अच्छी राय रखने वाले विचारों को ही केवल अस्तित्व में या सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होना चाहिये, क्योंकि गलत राय सरकार और राजशाही दोनों के लिये नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकती थी।
    • इस कानून का मसौदा मूल रूप से वर्ष 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, लेकिन वर्ष 1860 में भारतीय दंड सहिता (IPC) लागू करने के दौरान इस कानून को IPC में शामिल नहीं किया गया।
    • वर्तमान में राजद्रोह कानून की स्थिति: भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के तहत राजद्रोह एक अपराध है।
  • IPC की धारा 124A : 
    • यह कानून राजद्रोह को एक ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करता है जिसमें ‘किसी व्यक्ति द्वारा भारत में कानूनी तौर पर स्थापित सरकार के प्रति मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में घृणा या अवमानना या उत्तेजना पैदा करने का प्रयत्न किया जाता है।
    • विद्रोह में वैमनस्य और शत्रुता की सभी भावनाएँ शामिल होती हैं। हालाँकि इस खंड के तहत घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किये बिना की गई टिप्पणियों को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है।
  • राजद्रोह के अपराध हेतु दंड:
    • राजद्रोह गैर-जमानती अपराध है। राजद्रोह के अपराध में तीन वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा हो सकती है और इसके साथ ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
    • इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी प्राप्त करने से रोका जा सकता है।
      • आरोपित व्यक्ति को पासपोर्ट के बिना रहना होता है, साथ ही आवश्यकता पड़ने पर उसे न्यायालय में पेश होना ज़रूरी है।

राजद्रोह कानून का महत्त्व:

  • उचित प्रतिबंध
    • भारत का संविधान उचित प्रतिबंध (अनुच्छेद 19(2) के तहत) निर्धारित करता है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के प्रति ज़िम्मेदार अभ्यास को सुनिश्चित करता है, साथ ही यह भी सुनिश्चित करता है कि यह सभी नागरिकों के लिये समान रूप से उपलब्ध है।
  • एकता और अखंडता बनाए रखना: 
    • राजद्रोह कानून सरकार को राष्ट्र-विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों का मुकाबला करने में मदद करता है।
  • राज्य की स्थिरता को बनाए रखना: 
    • यह चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाने में मदद करता है। कानून द्वारा स्थापित सरकार का निरंतर अस्तित्व राज्य की स्थिरता के लिये एक अनिवार्य शर्त है।
  • राजद्रोह कानून से संबंधित मुद्दे: 
    • औपनिवेशिक युग का अवशेष: 
      • औपनिवेशिक प्रशासकों ने ब्रिटिश नीतियों की आलोचना करने वाले लोगों को रोकने के लिये राजद्रोह कानून का इस्तेमाल किया।
      • लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भगत सिंह आदि स्वतंत्रता आंदोलन के दिग्गजों को ब्रिटिश शासन के तहत उनके "राजद्रोही" भाषणों, लेखन और गतिविधियों के लिये दोषी ठहराया गया था।
      • इस प्रकार राजद्रोह कानून का इतना व्यापक उपयोग औपनिवेशिक युग की याद दिलाता है।
    • संविधान सभा का रूख: 
      • संविधान सभा संविधान में राजद्रोह को शामिल करने के लिये सहमत नहीं थी। सदस्यों का तर्क था कि यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करेगा।
      • उन्होंने तर्क दिया कि लोगों के विरोध के वैध और संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकार को दबाने के लिये राजद्रोह कानून को एक हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है
    • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों की अवहेलना: 
      • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1962 में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में धारा 124A की संवैधानिकता पर अपना निर्णय दिया। इसने देशद्रोह की संवैधानिकता को बरकरार रखा लेकिन इसे अव्यवस्था पैदा करने का इरादा, कानून एवं  व्यवस्था की गड़बड़ी तथा हिंसा के लिये उकसाने की गतिविधियों तक सीमित कर दिया।
      • इस प्रकार शिक्षाविदों, वकीलों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं और छात्रों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाना सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना है।
    • लोकतांत्रिक मूल्यों का दमन:
      •  भारत को तेज़ी से उभरते एक निर्वाचित निरंकुश राज्य के रूप में वर्णित किया जा रहा है, मुख्य रूप से राजद्रोह कानून के कठोर और गणनात्मक उपयोग के कारण।
  • हालिया विकास:
    • फरवरी 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक राजनीतिक नेता और छह वरिष्ठ पत्रकारों को उनके खिलाफ दर्ज राजद्रोह के कई मामलो में गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान किया है। 
    • जून 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा दो तेलुगू (भाषा) समाचार चैनलों को ज़बरदस्ती कार्रवाई से संरक्षण प्रदान करते हुए राजद्रोह की सीमा को परिभाषित करने पर ज़ोर दिया।
    • जुलाई 2021 में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें देशद्रोह कानून पर फिर से विचार करने की मांग की गई थी।
      • न्यायालय ने कहा, "सरकार के प्रति असंतोष” की असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट परिभाषाओं के आधार पर स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अपराधीकरण करने वाला कोई भी कानून अनुच्छेद 19 (1) (अ) के तहत गारंटीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर अनुचित प्रतिबंध है और संवैधानिक रूप से अनुमेय भाषण पर 'द्रुतशीतन प्रभाव' (Chilling Effect) का कारण बनता है। 

आगे की राह 

  •  IPC की धारा 124A की उपयोगिता राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों से निपटने में है। हालांँकि सरकार के निर्णयों से असहमति और आलोचना एक जीवंत लोकतंत्र में मज़बूत सार्वजनिक बहस के आवश्यक तत्त्व हैं। इन्हें देशद्रोह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये।
  • उच्च न्यायपालिका को अपनी पर्यवेक्षी शक्तियों का उपयोग मजिस्ट्रेट और पुलिस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के प्रति संवेदनशील बनाने हेतु करना चाहिये। 
  • राजद्रोह की परिभाषा को केवल भारत की क्षेत्रीय अखंडता के साथ-साथ देश की संप्रभुता से संबंधित मुद्दों को शामिल करने के संदर्भ में संकुचित किया जाना चाहिये। 
  • देशद्रोह कानून के मनमाने इस्तेमाल के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिये नागरिक समाज को पहल करनी चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस