सामाजिक न्याय
मानवाधिकार रिपोर्ट 2020: अमेरिका
चर्चा में क्यों?
अमेरिकी विदेश विभाग ने अपनी वर्ष 2020 की मानवाधिकार रिपोर्ट में भारत में कई मानवाधिकार मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
- प्रत्येक वर्ष अमेरिकी काॅन्ग्रेस को प्रस्तुत की जाने वाली इस रिपोर्ट में मानव अधिकारों के विषय में देशवार चर्चा की जाती है।
- इससे पहले मार्च 2021 में ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2021’ रिपोर्ट में भारत की स्थिति को ‘स्वतंत्र’ से 'आंशिक रूप से स्वतंत्र' कर दिया गया था।
- स्वीडन के ‘वैरायटीज़ ऑफ डेमोक्रेसी’ संस्थान ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में भारत को ‘चुनावी निरंकुशता’ के रूप वर्गीकृत किया गया था।
प्रमुख बिंदु
पत्रकारों का उत्पीड़न
- सोशल मीडिया पर रिपोर्टिंग के माध्यम से सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों का उत्पीड़न और उनकी नज़रबंदी अभी भी जारी है, जबकि सरकार सामान्य तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्मान की बात करती है।
- इस रिपोर्ट में प्रेस पर प्रतिबंध, हिंसा, हिंसा की धमकी, या पत्रकारों की अनुचित गिरफ्तारी या उन पर मुकदमा चलाए जाने का उल्लेख किया गया है।
निजी डेटा तक पहुँचना
- इंटरनेट कंपनियों द्वारा उपयोगकर्त्ताओं के डेटा के लिये सरकार से किये गए अनुरोधों में नाटकीय रूप से वृद्धि दर्ज की गई है।
- सरकार द्वारा वर्ष 2019 में फेसबुक से 49,382 उपयोगकर्त्ताओं से संबंधित डेटा का अनुरोध किया गया, जो कि वर्ष 2018 की तुलना में 32 प्रतिशत अधिक है। इसी अवधि में गूगल और ट्विटर से किये गए अनुरोधों में क्रमशः 69 प्रतिशत और 68 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।
मनमानी के आधार पर जीवन की क्षति
- इस रिपोर्ट में तमिलनाडु में हिरासत में हुई मौतों के मामले को भी रेखांकित किया गया।
अनुचित नज़रबंदी
- रिपोर्ट में अप्रैल 2020 में गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत नागरिकता कानून का विरोध कर रहे लोगों और अन्य प्रदर्शनों में शामिल लोगों को हिरासत में लिये जाने के मामलों का भी उल्लेख किया गया है।
- इसके अलावा रिपोर्ट में जम्मू और कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 के तहत राजनेताओं को नज़रबंद करने की भी बात की गई है।
जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकार स्थिति में सुधार
- रिपोर्ट की मानें तो सरकार ने सुरक्षा और संचार प्रतिबंधों को धीरे-धीरे समाप्त कर जम्मू और कश्मीर में सामान्य स्थिति बहाल करने हेतु कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
- सरकार ने इंटरनेट को आंशिक रूप से बहाल कर दिया है, हालाँकि जम्मू और कश्मीर के अधिकांश हिस्सों में वर्ष 2020 तक उच्च गति का 4G मोबाइल इंटरनेट प्रतिबंधित था।
प्रतिबंधात्मक नियम और जाँच का अभाव
- रिपोर्ट में भारत के संदर्भ में गैर-सरकारी संगठनों पर अत्यधिक प्रतिबंधात्मक नियम, राजनीतिक भागीदारी पर प्रतिबंध, सरकार में सभी स्तरों पर व्यापक भ्रष्टाचार, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की उपयुक्त जाँच और जवाबदेही का अभाव तथा अनिवार्य बाल श्रम आदि बिंदुओं पर भी चर्चा की गई।
धार्मिक स्वतंत्रता
- रिपोर्ट में धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन और धार्मिक संबद्धता या सामाजिक स्थिति के आधार पर महिलाओं सहित तमाम अल्पसंख्यक समूहों के सदस्यों के साथ हिंसा और भेदभाव आदि की भी बात की गई है।
भारत में मानव अधिकारों का प्रावधान
संविधान में शामिल प्रावधान
- मौलिक अधिकार: संविधान के अनुच्छेद 12 से 35 में मौलिक अधिकारों से संबंधित प्रावधान किये गए हैं। इनमें समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार, कुछ विशिष्ट कानूनों से सुरक्षा का अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार आदि शामिल हैं।
- राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत: इससे संबंधित प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 में किये गए हैं। इनमें सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, काम करने का अधिकार, स्वतंत्र रोज़गार चयन का अधिकार, बेरोज़गारी के विरुद्ध सुरक्षा का अधिकार, समान कार्य के लिये समान वेतन का अधिकार, मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार, समान न्याय एवं निशुल्क कानूनी सहायता का अधिकार आदि शामिल हैं।
सांविधिक प्रावधान
- मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 (जिसे वर्ष 2019 में संशोधित किया गया था) मानव अधिकारों के संरक्षण हेतु राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राज्य मानवाधिकार आयोग और मानवाधिकार न्यायालयों के गठन की व्यवस्था करता है।
- अधिनियम की धारा 2(1)(d) मानवाधिकार को जीवन, स्वतंत्रता, व्यक्ति की गरिमा और समानता से संबंधित अधिकारों के रूप में परिभाषित करता है, जिनकी गारंटी भारतीय संविधान द्वारा दी गई है अथवा जो अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन्स में सन्निहित है, साथ ही ये न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय होते हैं।
- भारत ने मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (UDHR) के प्रारूपण में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था।
- इन 30 अधिकारों और स्वतंत्रता में नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार जैसे- जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता, स्वतंत्र भाषण और गोपनीयता का अधिकार तथा आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार जैसे- सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा का अधिकार आदि शामिल हैं।
स्रोत: द हिंदू
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
द हार्ट ऑफ एशिया-इस्तांबुल प्रक्रिया
चर्चा में क्यों?
भारत के विदेश मंत्री ने ताज़िकिस्तान के दुशांबे में आयोजित 9वीं हार्ट ऑफ एशिया-इस्तांबुल प्रक्रिया में भाग लिया।
- उन्होंने दोहरी शांति प्रक्रिया को अपनाने की बात कही है जिसका अभिप्राय अफगानिस्तान के भीतर और अफगानिस्तान के आसपास के पड़ोसी देशों में शांति से है, साथ ही यह भी कहा कि भारत इंट्रा-अफगान वार्ता (IAN) का समर्थन करता है।
प्रमुख बिंदु:
द हार्ट ऑफ एशिया-इस्तांबुल प्रक्रिया (HoA-IP):
- इसकी स्थापना नवंबर 2011 में तुर्की के इस्तांबुल में हुई थी।
- यह अफगानिस्तान को केंद्र में रखकर ईमानदार और परिणामोन्मुखी क्षेत्रीय सहयोग के लिये एक मंच प्रदान करता है, क्योंकि एक सुरक्षित और स्थिर अफगानिस्तान के लिये हार्ट ऑफ एशिया क्षेत्र की समृद्धि महत्त्वपूर्ण है।
- इस मंच की स्थापना अफगानिस्तान और इसके पड़ोसियों तथा क्षेत्रीय भागीदारों की साझा चुनौतियों और हितों को संबोधित करने के लिये की गई थी।
- हार्ट ऑफ एशिया में 15 सहभागी देश, 17 सहायक देश और 12 सहायक क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगठन शामिल हैं।
- भारत एक सहभागी देश है।
- हार्ट ऑफ एशिया- इस्तांबुल प्रक्रिया का उद्देश्य समन्वय और क्षेत्रीय सहयोग के माध्यम से अफगानिस्तान सहित 15 क्षेत्रीय देशों के बीच शांति, सुरक्षा, स्थिरता और समृद्धि को बढ़ावा देकर उन्हें मजबूत करना है। अपनी स्थापना के बाद से यह प्रक्रिया क्षेत्रीय सहयोग का एक प्रमुख तत्त्व बन गई है और इसने अफगानिस्तान के निकट एवं दूरस्थ पड़ोसियों, अंतर्राष्ट्रीय समर्थकों तथा संगठनों के लिये एक मंच बनाया है जो अफगानिस्तान व क्षेत्रीय सहयोग के माध्यम से मौजूदा और उभरती हुई क्षेत्रीय चुनौतियों का समाधान करने के लिये रचनात्मक बातचीत में संलग्न है। इस प्रक्रिया के तीन मुख्य स्तंभ हैं: राजनीतिक परामर्श, आत्मविश्वास बढ़ाना, क्षेत्रीय संगठनों के साथ सहयोग।
इंट्रा-अफगान वार्ता (IAN):
- यह वार्ता अफगान सरकार और तालिबान विद्रोहियों के बीच लगभग दो दशकों के संघर्ष को (इसमें देश के सार्वभौमिक नुकसान के साथ हज़ारों योद्धाओं और नागरिकों की मृत्यु हुई) समाप्त करने के लक्ष्य को संदर्भित करती है।
- अफगान वार्ता के भागीदार अफगानिस्तान के भविष्य के न्यायसंगत राजनीतिक रोडमैप पर समझौते सहित एक स्थायी और व्यापक युद्ध विराम की दिशा एवं तौर तरीकों पर चर्चा करेंगे।
- वार्ता में अनेक मुद्दों (जैसे-महिलाओं के अधिकार, वाक स्वतंत्रता और देश के संविधान में बदलाव) को शामिल किया जाएगा।
- वार्ता में वर्ष 2001 में तालिबान के सत्ता से बेदखल होने के बाद से तालिबान के हज़ारों योद्धाओं के साथ-साथ भारी हथियारों से संपन्न अफगानिस्तान की सैन्य शक्ति के भाग्य का भी पता चलेगा।
क्षेत्रीय-कनेक्टिविटी पहल:
- सम्मेलन के दौरान अफगानिस्तान के राष्ट्रपति ने हवाई माल ढुलाई गलियारा (एयर कार्गो कॉरिडोर) और चाबहार बंदरगाह परियोजना के साथ-साथ
- तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत (TAPI) पाइपलाइन सहित कई क्षेत्रीय कनेक्टिविटी पहलों की सराहना की।
भारत का रुख:
- भारत ऐसी समग्र वार्ता और सामंजस्य प्रक्रिया का समर्थन करता है जो अफगान नेतृत्व, स्वामित्व और नियंत्रित हो, उसे अफगानिस्तान की राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना होगा और अफगानिस्तान में एक लोकतांत्रिक इस्लामी गणराज्य की स्थापना में हुई प्रगति को संरक्षित करना होगा।
- अल्पसंख्यकों, महिलाओं और समाज के कमज़ोर वर्गों के हितों का संरक्षण किया जाना चाहिये और देश तथा उसके पड़ोस में हिंसा के मुद्दे को प्रभावी ढंग से संबोधित किया जाना चाहिये।
तापी पाइपलाइन
- TAPI पाइपलाइन 1,814 किमी. की प्राकृतिक गैस पाइपलाइन है जो तुर्कमेनिस्तान से शुरू होकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान होते हुए भारत तक पहुँचती है। इसे ‘पीस पाइपलाइन‘ परियोजना भी कहा जाता है।
- इसका उद्देश्य तुर्कमेनिस्तान के गैस आपूर्ति एवं भंडार का मुद्रीकरण करना तथा पड़ोसी देशों में प्राकृतिक गैस के उपयोग को बढ़ावा देना और ऊर्जा सुरक्षा को सुदृढ़ करना है।
- इस परियोजना को TAPI पाइपलाइन कंपनी (TPCL) द्वारा विकसित किया जा रहा है, जो चार अलग-अलग राज्यों के स्वामित्व वाली गैस कंपनियों [ तुर्कमेन्गज (तुर्कमेनिस्तान), अफगान गैस (अफगानिस्तान), अंतर-राज्यीय गैस सेवा (पाकिस्तान) और गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया तथा इंडियन ऑयल (भारत)] का एक संघ है।
- पाइपलाइन के विकास के लिये चार देशों ने दिसंबर 2010 में अंतर-सरकारी समझौते (IGA) और गैस पाइपलाइन फ्रेमवर्क समझौते (GPFA) पर हस्ताक्षर किये।
स्रोत: द हिंदू
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
चीन-ईरान सामरिक सहयोग समझौता
चर्चा में क्यों?
हाल ही में चीन और ईरान ने 25 वर्षों के ‘रणनीतिक सहयोग समझौते’ (Strategic Cooperation Pact) पर हस्ताक्षर किये हैं। इस समझौते में ‘राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक घटक’ (Political, Economic and Strategic Components) शामिल हैं।
- यह समझौता ऐसे समय में हुआ है, जब ईरान को परमाणु समझौते से हटने के बाद अमेरिका द्वारा लागू किये गए प्रतिबंधों के चलते भारी दबाव का सामना करना पड़ रहा है और चीन द्वारा ऐसी स्थिति में ईरान का समर्थन किया जा रहा है।
प्रमुख बिंदु:
समझौते के बारे में:
- यह ईरान और चीन के मध्य संबंधों को बेहतर करेगा तथा परिवहन, बंदरगाहों, ऊर्जा, उद्योग और सेवाओं के क्षेत्र में दोनों देशों के मध्य पारस्परिक निवेश हेतु एक खाका तैयार करेगा।
- यह चीन के ट्रिलियन-डॉलर की बेल्ट और रोड इनिशिएटिव (Belt and Road Initiative- BRI) के एक हिस्से का निर्माण करता है, जो बुनियादी ढांँचा परियोजनाओं को ऋण देने और विदेशों में प्रभाव बढ़ाने की योजना है।
मध्य-पूर्व में चीन की बढ़ती भूमिका:
- ईरान अपने सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार के रूप में चीन पर निर्भर है।
- चीनी विदेश मंत्री ने पश्चिम एशियाई देशों की अपनी हालिया यात्रा के दौरान मध्य-पूर्व में सुरक्षा और स्थिरता स्थापित करने हेतु पांँच-सूत्री पहल का प्रस्ताव रखा है, जिसमें "पारस्परिक सम्मान, समानता और न्याय बनाए रखना, एक दूसरे के क्षेत्रों का अधिग्रहण न करने, संयुक्त रूप से सामूहिक सुरक्षा को बढ़ावा देना और विकास सहयोग में तेज़ी लाना शामिल है।
- इससे पहले चीन और रूस द्वारा संयुक्त रूप से अमेरिका से बिना किसी शर्त के ईरान को संयुक्त व्यापक कार्ययोजना (JCPOA) में शामिल करने और उस पर लगे एकतरफा प्रतिबंधों को हटाने का आह्वान किया गया था।
- इस संदर्भ में देशों की सुरक्षा चिंताओं के समाधान हेतु सहमति बनाने के लिये एक क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद मंच स्थापित करने का प्रस्ताव रखा गया।
भारत की चिंताएँ:
- सैन्य भागीदारी: चीन ईरान के साथ सुरक्षा और सैन्य साझेदारी में भी सहयोग कर रहा है।
- चीन द्वारा आतंकवाद, नशीली दवाओं और मानव तस्करी तथा सीमा पार अपराधों से लड़ने हेतु संयुक्त प्रशिक्षण और अभ्यास, संयुक्त अनुसंधान और हथियारों का विकास एवं खुफिया जानकारी साझा करने का आह्वान किया गया है।
- ईरानी बंदरगाहों के विकास में बड़े पैमाने पर चीनी निवेश के कारण ईरान के साथ चीन का संबंध स्थायी सैन्य पहुंँच समझौते (Permanent Military Access Arrangements) में परिवर्तित हो सकता है।
- चाबहार बंदरगाह के आसपास सामरिक परिदृश्य: ईरान में बढ़ती चीन की उपस्थिति के साथ भारत चाबहार बंदरगाह परियोजना के आसपास अपने रणनीतिक दांँव के बारे में चिंतित है जिसका विकास भारत के सहयोग से किया जा रहा है।
- यह बंदरगाह पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह के करीब है, जिसे चीन द्वारा अपने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के हिस्से के रूप में विकसित किया जा रहा है तथा जो इसे BRI के माध्यम से हिंद महासागर से जोड़ता है।
- भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता: भारत ईरान को लेकर अमेरिका और चीन के मध्य भू- राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में फंँसा हुआ है।
- भारत की दुविधा यह है कि सीमा पर चीन के साथ गतिरोध की स्थिति में भारत को अमेरिका के मज़बूत समर्थन की आवश्यकता है।
- अन्य देशों के साथ संबंधों पर प्रभाव: ईरान में चीन का प्रभाव बढ़ने से भारत के संबंध न केवल ईरान के साथ बल्कि अफगानिस्तान और मध्य एशियाई देशों के साथ भी लंबे समय तक प्रभावित होंगे।
संयुक्त कार्रवाई व्यापक योजना:
- वियना में 14 जुलाई, 2015 को ईरान तथा P5 (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य- अमेरिका, चीन, फ्रांँस, रूस तथा ब्रिटेन) देशों के साथ-साथ जर्मनी एवं यूरोपीय संघ द्वारा इस परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे।
- इस सौदे को संयुक्त व्यापक कार्ययोजना (JCPOA) और आम बोलचाल की भाषा में ईरान परमाणु समझौते के रूप में नामित किया गया था।
- इस समझौते के तहत ईरान से प्रतिबंध हटाने और वैश्विक व्यापार तक पहुँच सुनिश्चित करने के बदले ईरान की परमाणु गतिविधि पर अंकुश लगाने के संबंध में सहमति बनी।
- इस समझौते द्वारा ईरान को अनुसंधान हेतु थोड़ी मात्रा में यूरेनियम जमा करने की अनुमति दी गई है लेकिन उसके यूरेनियम संवर्द्धन पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसका उपयोग रिएक्टर ईंधन और परमाणु हथियार बनाने के लिये किया जाता है।
- ईरान को एक विशाल जल-रिएक्टर का निर्माण करने की भी आवश्यकता थी, जिसके प्रयुक्त किये गए ईंधन में एक बम के लिये उपयुक्त प्लूटोनियम और अंतर्राष्ट्रीय निरीक्षण की अनुमति की आवश्यकता हो सकती है।
- वर्ष 2018 में अमेरिका द्वारा स्वयं को JCPOA से अलग करने की घोषणा की गई और ईरान पर एकतरफा प्रतिबंध आरोपित किये गए।
- ईरान ने अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते हो रहे नुकसान की भरपाई के लिये नए आर्थिक प्रोत्साहन हेतु अन्य हस्ताक्षरकर्त्ताओं- जर्मनी, फ्रांँस, ब्रिटेन, रूस और चीन आदि पर दबाव डालने के लिये स्वयं को इस सौदे से अलग कर लिया था।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय अर्थव्यवस्था
मुद्रास्फीति का लक्ष्य
चर्चा में क्यों?
भारत सरकार ने आगामी पाँच वर्षों के लिये भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की मौद्रिक नीति समिति के लिये +/- 2 प्रतिशत अंक के सहिष्णुता बैंड के साथ 4% के मुद्रास्फीति लक्ष्य को बनाए रखने का निर्णय लिया है ।
- इससे पहले भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपनी मुद्रा और वित्त (RCF) संबंधी वर्ष 2020-21 की रिपोर्ट में कहा है कि मौजूदा मुद्रास्फीति लक्ष्य बैंड (4% +/- 2%) अगले 5 वर्षों के लिये उपयुक्त है।
प्रमुख बिंदु:
परिचय:
- मूल्य वृद्धि को नियंत्रित करने के लिये केंद्र सरकार ने 2016 में आरबीआई को 31 मार्च, 2021 को समाप्त हुए पाँच साल की अवधि के लिये खुदरा मुद्रास्फीति को 2 प्रतिशत के मार्जिन के साथ 4 प्रतिशत पर रखने का आदेश दिया।
- उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) के तहत भारतीय उपभोक्ताओं द्वारा दैनिक उपभोग के लिये खरीदी जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं जैसे- खाद्य, चिकित्सा देखभाल, शिक्षा, इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पाद आदि की कीमतों में परिवर्तन की गणना की जाती है।
- मुद्रास्फीति के लक्ष्य को भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 के तहत 1 अप्रैल, 2021 से 31 मार्च, 2026 की अवधि के लिये पिछले 5 वर्षों के समान स्तर पर रखा गया है।
पृष्ठभूमि:
- वर्ष 2015 में केंद्रीय बैंक अर्थात् रिज़र्व बैंक और सरकार के मध्य एक नीतिगत ढाँचे पर सहमति बनी जिसमें विकास को ध्यान में रखते हुए मूल्य स्थिरता सुनिश्चित करने हेतु प्राथमिक उद्देश्य निर्धारित किये गए।
- इसके पश्चात् लचीली मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण (FIT) को वर्ष 2016 में अपनाया गया।
- भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 में एक FIT ढाँचे को वैधानिक आधार प्रदान करने हेतु संशोधन किया गया।
- संशोधित अधिनियम के तहत सरकार द्वारा RBI के परामर्श से प्रत्येक पाँच वर्षों में एक बार मुद्रास्फीति लक्ष्य निर्धारित किया जाता है।
मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण:
- यह केंद्रीय बैंकिंग की एक नीति है जो मुद्रास्फीति की एक निर्दिष्ट वार्षिक दर प्राप्त करने हेतु मौद्रिक नीति के संयोजन पर आधारित है।
- मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण को मौद्रिक नीति निर्धारण में अधिक स्थिरता, पूर्वानुमान प्रदान करने और पारदर्शिता लाने हेतु जाना जाता है।
- कठोर मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण:
- कठोर मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण (Strict Inflation Targeting) को तब अपनाया जाता है जब केंद्रीय बैंक केवल किसी दिये गए मुद्रास्फीति लक्ष्य के आस-पास मुद्रास्फीति को रखना चाहता है।
- लचीली मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण:
- लचीली मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण (Flexible Inflation Targeting) को तब अपनाया जाता है जब केंद्रीय बैंक कुछ अन्य कारकों जैसे- ब्याज दरों में स्थिरता, विनिमय दर, उत्पादन और रोज़गार आदि को लेकर चिंतित होता है।
मौद्रिक नीति:
- यह केंद्रीय बैंक द्वारा निर्धारित व्यापक आर्थिक नीति है। इसमें मुद्रा आपूर्ति और ब्याज दर का प्रबंधन शामिल है, यह मुद्रास्फीति, खपत, वृद्धि और तरलता जैसे व्यापक आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली मांग पक्ष आधारित आर्थिक नीति है।
- भारतीय रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति का उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की आवश्यकताओं को पूरा करने और आर्थिक विकास की गति बढ़ाने के लिये धन का प्रबंधन करना है।
- RBI खुले बाज़ार की क्रियाओं, बैंक दर नीति, आरक्षित प्रणाली, ऋण नियंत्रण नीति, नैतिक प्रभाव और कई अन्य उपकरणों के माध्यम से मौद्रिक नीति को लागू करता है।
मौद्रिक नीति समिति:
- RBI की ‘मौद्रिक नीति समिति (MPC)’ ‘भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934’ के तहत स्थापित एक वैधानिक एवं संस्थागत निकाय है। यह आर्थिक विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए मुद्रा स्थिरता को बनाए रखने हेतु कार्य करती है।
- रिज़र्व बैंक का गवर्नर इस समिति का पदेन अध्यक्ष होता है।
- MPC मुद्रास्फीति दर के 4% के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ब्याज दर (रेपो रेट) के निर्धारण का कार्य करती है।
- वर्ष 2014 में तत्कालीन डिप्टी गवर्नर उर्जित पटेल की अध्यक्षता वाली रिज़र्व बैंक की समिति ने मौद्रिक नीति समिति की स्थापना की सिफारिश की थी।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय अर्थव्यवस्था
एशिया एवं प्रशांत का आर्थिक व सामाजिक सर्वेक्षण, 2021: UNESCAP
चर्चा में क्यों?
हाल ही में एशिया एवं प्रशांत के लिये संयुक्त राष्ट्र आर्थिक व सामाजिक आयोग (United Nations Economic and Social Commission for Asia and the Pacific – UNESCAP) ने एशिया एवं प्रशांत का आर्थिक व सामाजिक सर्वेक्षण (Economic and Social Survey of Asia and the Pacific), 2021 शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है।
- इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत की आर्थिक वृद्धि दर वर्ष 2021-22 में 7% रहने का अनुमान है, जबकि सामान्य व्यावसायिक गतिविधियों (Normal Business Activity) पर महामारी के प्रभाव के कारण पिछले वित्त वर्ष (2020-21) में 7.7% का संकुचन देखा गया था।
प्रमुख बिंदु
भारत के संबंध में अन्य अवलोकन:
- हालाँकि कोविड-19 मामलों में कमी तथा टीकाकरण शुरू होने के बावजूद वर्ष 2021 में भारत का आर्थिक उत्पादन वर्ष 2019 के स्तर से नीचे रहने का अनुमान है.
- महामारी का प्रकोप शुरू होने से पहले ही भारत में सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product) का विकास और निवेश धीमा पड़ चुका था।
- कोरोनावायरस महामारी की रोकथाम के लिये भारत में लगाया गया लॉकडाउन विश्व के सबसे कड़े लॉकडाउन में से एक था तथा वर्ष 2020 में देश में गंभीर आर्थिक बाधाएँ अपने चरम पर थीं।
- लॉकडाउन नीतियों में बदलाव और संक्रमण दर (Infection Rates) में कमी की वजह से वर्ष 2020 के अंतिम महीनों में एक प्रभावशाली आर्थिक बदलाव देखा गया।
चुनौतियाँ: रिपोर्ट में भारत में हो रही तीव्र रिकवरी हेतु निम्नलिखित दो बड़ी चुनौतियों का उल्लेख किया गया है।
- कम उधारी लागत को बनाए रखना।
- नॉन-परफॉर्मिंग लोन को रोक कर रखना।
एशिया-प्रशांत देशों के संदर्भ में अवलोकन:
- लोगों और ग्रह के संदर्भ में अनुकूलन तथा निवेश की कमी के कारण कोविड-19 महामारी के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव में वृद्धि हुई है।
- चीन ने कोविड-19 से निपटने के लिये तुरंत और प्रभावी कदम उठाए हैं। वह विश्व में एकमात्र बड़ी अर्थव्यवस्था वाला ऐसा देश है जिसने वर्ष 2020 में सकारात्मक वृद्धि दर हासिल करने में सफलता प्राप्त की।
- विकासशील एशिया-प्रशांत अर्थव्यवस्थाओं की वृद्धि दर औसतन वर्ष 2021 में 5.9% और वर्ष 2022 में 5% रहने की उम्मीद है।
- K- शेप्ड रिकवरी जो कि महामारी के बाद देशों में असमान रिकवरी तथा देशों के भीतर असमानता में वृद्धि को दर्शाती है, को एक प्रमुख नीति चुनौती के रूप में प्रदर्शित किया गया है।
K- शेप्ड रिकवरी
- जब मंदी के बाद अर्थव्यवस्था के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग दर, समय या परिमाण में ‘रिकवरी’ होती है तो उसे K-शेप्ड इकोनॉमिक रिकवरी कहते हैं । यह विभिन्न क्षेत्रों, उद्योगों या लोगों के समूहों में समान ‘रिकवरी’ के सिद्धांत के विपरीत है।
- के-शेप्ड इकोनॉमिक रिकवरी से अर्थव्यवस्था की संरचना में व्यापक परिवर्तन होता है और आर्थिक परिणाम मंदी के पहले तथा बाद में मौलिक रूप से बदल जाते हैं।
- इस प्रकार की रिकवरी को ‘K-शेप्ड इकोनॉमिक रिकवरी’ इसलिये कहा जाता है क्योंकि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र जब एक मार्ग पर साथ चलते हैं तो डायवर्ज़न के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जो रोमन अक्षर ‘K’ की दो भुजाओं से मिलती-जुलती है।
सुझाव:
- रिपोर्ट में अर्थव्यवस्था में मज़बूती और समावेशी पुनरुद्धार के लिये विभिन्न देशों द्वारा कोविड-19 टीकाकरण में अधिक समन्वय तथा क्षेत्रीय सहयोग की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
- इसमें सिफारिश की गई है कि अर्थव्यस्थाओं को राजकोषीय और मौद्रिक समर्थन जारी रखा जाना चाहिये क्योंकि यदि समय से पहले इस प्रकार के समर्थन को वापस ले लिया जाता है तो दीर्घकालीन समस्याएँ बढ़ सकती हैं।
- नीति समर्थन में निरंतरता बहुत जरूरी है और रिकवरी पॉलिसी पैकेजों में सतत् विकास हेतु एजेंडा 2030 (2030 Agenda for Sustainable Development) को लचीलापन बनाकर निवेश करने पर ध्यान देना चाहिये।
- विभिन्न आर्थिक और गैर-आर्थिक नुकसानों से बचने हेतु योजना बनाने एवं नीति निर्धारण के लिये एक अधिक एकीकृत जोखिम प्रबंधन दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
एशिया एवं प्रशांत का आर्थिक और सामाजिक सर्वेक्षण
- एशिया और प्रशांत क्षेत्र के आर्थिक एवं सामाजिक सर्वेक्षण की प्रगति पर वर्ष 1947 से प्रतिवर्ष प्रस्तुत की जाने वाली यह संयुक्त राष्ट्र की सबसे पुरानी रिपोर्ट है।
- यह सर्वेक्षण क्षेत्रीय प्रगति के बारे में जानकारी देने के साथ वर्तमान व उभरते सामाजिक-आर्थिक मुद्दों तथा नीतिगत चुनौतियों पर अत्याधुनिक विश्लेषण एवं चर्चा के लिये मार्गदर्शन प्रदान करता है और क्षेत्र में समावेशी एवं सतत् विकास का समर्थन करता है।
- इस सर्वेक्षण में वर्ष 1957 में एशिया-प्रशांत क्षेत्र की अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण पहलू और चुनौती से संबंधित अध्ययन शामिल किये जाते हैं।
- वर्ष 2021 का सर्वेक्षण कोविड-19 महामारी के प्रभाव का अध्ययन करता है और कोविड-19 के चलते अर्थव्यवस्थाओं के लचीलेपन हेतु अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।
एशिया और प्रशांत के लिए संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक आयोग
- एशिया और प्रशांत के लिये संयुक्त राष्ट्र का आर्थिक और सामाजिक आयोग (Economic and Social Commission for Asia and the Pacific- ESCAP) एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लिये संयुक्त राष्ट्र की एक क्षेत्रीय विकास शाखा है।
- यह 53 सदस्य देशों और 9 एसोसिएट सदस्यों से बना एक आयोग है।
- इसकी स्थापना 1947 में की गई थी।
- इसका मुख्यालय थाईलैंड के बैंकॉक शहर में है।
- उद्देश्य: यह सदस्य राज्यों हेतु परिणामोन्मुखी परियोजनाओं के विकास, तकनीकी सहायता प्रदान करने और क्षमता निर्माण जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य करता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
सामाजिक न्याय
वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट, 2021
चर्चा में क्यों?
विश्व आर्थिक मंच ( World Economic Forum’s- WEF) द्वारा जारी वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट, 2021 में भारत 28 पायदान नीचे आ गया है।
- बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, वन स्टॉप सेंटर (OSC) योजना, उज्ज्वला योजना लैंगिक असमानता से संबंधित मुद्दे को संबोधित करने हेतु सरकार द्वारा शुरू की गई कुछ पहलें हैं।
- इसके अलावा लैंगिक समानता के सिद्धांत को भारतीय संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्य तथा नीति निर्देशक सिद्धांतों में भी जोड़ा गया है।
प्रमुख बिंदु:
वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट:
- वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट के बारे में:
- इसे पहली बार वर्ष 2006 में WEF द्वारा प्रकाशित किया गया था।
- इसमें निम्नलिखित चार आयामों के मद्देनज़र 156 देशों द्वारा लैंगिक समानता की दिशा में की गई प्रगति का मूल्यांकन किया जाता है:
- आर्थिक भागीदारी और अवसर।
- शिक्षा का अवसर।
- स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता।
- राजनीतिक सशक्तीकरण।
- इंडेक्स में 1 उच्चतम स्कोर होता है जो समानता की स्थिति तथा 0 निम्नतम स्कोर होता है जो असमानता की स्थिति को दर्शाता है।
- उद्देश्य:
- स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं और पुरुषों के मध्य सापेक्ष अंतराल में हुई प्रगति का आकलन करने हेतु एक सीमा का निर्धारण करना। वार्षिक मानदंड के माध्यम से प्रत्येक देश के हितधारकों द्वारा विशिष्ट आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भ में अपनी प्राथमिकताओं को निर्धारित किया जा सकता है।
भारत की स्थिति:
- ओवरऑल रैंकिंग:
- दक्षिण एशियाई देशों में भारत का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है, भारत रैंकिंग में 156 देशों में 140वें स्थान पर है।
- दक्षिण एशिया के देशों में बांग्लादेश 65वें, नेपाल 106वें, पाकिस्तान 153वें, अफगानिस्तान 156वें, भूटान 130वें और श्रीलंका 116वें स्थान पर है।
- वैश्विक लैंगिक अंतराल इंडेक्स, 2020 में भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर था।
- दक्षिण एशियाई देशों में भारत का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है, भारत रैंकिंग में 156 देशों में 140वें स्थान पर है।
- राजनीतिक सशक्तीकरण:
- भारत के राजनीतिक सशक्तीकरण सूचकांक में 13.5 प्रतिशत की गिरावट आई है। महिला मंत्रियों की संख्या वर्ष 2019 में 23.1% थी जो वर्ष 2021 में घटकर 9.1% रह गई है।
- हालांँकि अन्य देशों की तुलना में भारत द्वारा अच्छा प्रदर्शन किया गया है और राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में यह 51वें स्थान पर है।
- शिक्षा तक पहुँच:
- शिक्षा प्राप्ति सूचकांक में भारत को 114वें स्थान पर रखा गया है।
- आर्थिक भागीदारी:
- रिपोर्ट के अनुसार, भारत में इस वर्ष आर्थिक भागीदारी में अंतर 3% बढ़ा है।
- पेशेवर और तकनीकी भूमिकाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी 29.2% तक घट गई है।
- उच्च और प्रबंधकीय पदों पर भी महिलाओं की हिस्सेदारी 14.6% है तथा देश में केवल 8.9% फर्मों में ही शीर्ष पर महिला प्रबंधक हैं।
- भारत में महिलाओं की अनुमानित आय पुरुषों की केवल 1/5 है, जो इस संकेतक पर देश को वैश्विक स्तर पर 10 पायदान नीचे रखता है।
- पाकिस्तान और अफगानिस्तान में एक महिला की औसत आय पुरुष की औसत आय से 16% से भी कम है, जबकि भारत में यह 20.7% है।
- स्वास्थ्य और उत्तरजीविता सूचकांक:
- इस पर भारत द्वारा खराब प्रदर्शन किया गया तथा भारत रैंकिंग में 155वें स्थान पर रहा है।
- इस सूचकांक में सबसे खराब प्रदर्शन चीन का रहा है।
- रिपोर्ट प्रमुख कारक के रूप में एक विषम लिंग अनुपात (Skewed Sex Ratio) की ओर इशारा करती है।
- लड़कों की चाह में प्रसव पूर्व पक्षपातपूर्ण तरीके से लिंग चयन को इसके लिये ज़िम्मेदार ठहराया गया है।
- प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण जैसी प्रथाओं के चलते प्रतिवर्ष गायब होने वाली बालिकाओं के 1.2 से 1.5 मिलियन मामलों में से 90-95% मामले केवल भारत और चीन में देखने को मिलते हैं।
- इस पर भारत द्वारा खराब प्रदर्शन किया गया तथा भारत रैंकिंग में 155वें स्थान पर रहा है।
वैश्विक परिदृश्य:
- क्षेत्रवार रैंक:
- दक्षिण एशिया सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले क्षेत्रों में से एक है, जिसके बाद मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका का स्थान है।
- राजनीतिक सशक्तीकरण में सर्वाधिक लैंगिक अंतराल:
- राजनीतिक सशक्तीकरण में लैंगिक अंतराल सबसे अधिक है, वैश्विक स्तर पर संसद की कुल 35,500 सीटों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 26.1 प्रतिशत है, कुल 3,400 से अधिक मंत्रियों में से केवल 22.6 प्रतिशत ही महिलाएँ हैं।
- 15 जनवरी, 2021 तक 81 देशों में से किसी में भी महिला प्रमुख की नियुक्ति नहीं हुई है।
- बांग्लादेश एकमात्र ऐसा देश है जहांँ पिछले 50 वर्षों में पुरुषों की तुलना में ऐसी महिलाओं की संख्या अधिक है जो राज्य के प्रमुख पदों पर नियुक्त हुईं।
- आर्थिक भागीदारी:
- आर्थिक भागीदारी के मामले में सर्वाधिक लैंगिक अंतराल वाले देशों में ईरान, भारत, पाकिस्तान, सीरिया, यमन, इराक और अफगानिस्तान शामिल हैं।
- अंतराल को भरने हेतु समयसीमा:
- लैंगिक अंतराल को समाप्त करने में दक्षिण एशिया में 195.4 वर्ष तथा पश्चिमी यूरोप में 52.1 वर्ष का समय लगेगा।
विश्व आर्थिक मंच:
- विश्व आर्थिक मंच सार्वजनिक-निजी सहयोग हेतु एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था है।
- इसकी स्थापना 1971 में गैर-लाभकारी संगठन के रूप में हुई। इसका मुख्यालय स्विट्ज़रलैंड के जिनेवा में स्थिति है। यह एक स्वतंत्र और निष्पक्ष संगठन है।
- फोरम अपने सभी प्रयासों में शासन के उच्चतम मानकों को कायम रखते हुए जनहित में वैश्विक उद्यमिता का प्रदर्शन करने का प्रयास करता है।
WEF द्वारा प्रकाशित कुछ प्रमुख रिपोर्ट:
- ऊर्जा संक्रमण सूचकांक।
- वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता सूचकांक।
- वैश्विक सूचना प्रौद्योगिकी रिपोर्ट।
- इस रिपोर्ट का प्रकाशन WEF द्वारा INSEAD और कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर किया जाता है।
- वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट।
- वैश्विक जोखिम रिपोर्ट।
- यात्रा और पर्यटन प्रतिस्पर्द्धात्मकता रिपोर्ट।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारतीय राजव्यवस्था
समान नागरिक संहिता (UCC)
चर्चा में क्यों?
हाल ही में तलाक और गुजारा भत्ता पर समान नागरिक संहिता (UCC) के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई है।
प्रमुख बिंदु
परिचय
- समान नागरिक संहिता पूरे देश के लिये एक समान कानून के साथ ही सभी धार्मिक समुदायों के लिये विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि कानूनों में भी एकरूपता प्रदान करने का प्रावधान करती है।
- संविधान के अनुच्छेद 44 में वर्णित है कि राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
- अनुच्छेद-44, संविधान में वर्णित राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों में से एक है।
- अनुच्छेद-37 में परिभाषित है कि राज्य के नीति निदेशक तत्त्व संबंधी प्रावधानों को किसी भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तित नहीं किया जा सकता है लेकिन इसमें निहित सिद्धांत शासन व्यवस्था में मौलिक प्रकृति के होंगे।
भारत में समान नागरिक संहिता की स्थिति
- वर्तमान में अधिकांश भारतीय कानून, सिविल मामलों में एक समान नागरिक संहिता का पालन करते हैं, जैसे- भारतीय अनुबंध अधिनियम, नागरिक प्रक्रिया संहिता, माल बिक्री अधिनियम, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, भागीदारी अधिनियम, साक्ष्य अधिनियम आदि।
- हालाँकि राज्यों ने कई कानूनों में कई संशोधन किये हैं परंतु धर्मनिरपेक्षता संबंधी कानूनों में अभी भी विविधता है।
- हाल ही में कई राज्यों ने एक समान रूप से मोटर वाहन अधिनियम, 2019 को लागू करने से इनकार कर दिया था।
पृष्ठभूमि
- समान नागरिक संहिता (UCC) की अवधारणा का विकास औपनिवेशिक भारत में तब हुआ, जब ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1835 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, जिसमें अपराधों, सबूतों और अनुबंधों जैसे विभिन्न विषयों पर भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता लाने की आवश्यकता पर बल दिया गया, हालाँकि रिपोर्ट में हिंदू और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस एकरूपता से बाहर रखने की सिफारिश की गई।
- ब्रिटिश शासन के अंत में व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानूनों की संख्या में वृद्धि ने सरकार को वर्ष 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिये बी.एन. राव समिति गठित करने के लिये मजबूर किया।
- इन सिफारिशों के आधार पर हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के लिये निर्वसीयत उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित और संहिताबद्ध करने हेतु वर्ष 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में एक विधेयक को अपनाया गया।
- हालाँकि मुस्लिम, इसाई और पारसी लोगों के लिये अलग-अलग व्यक्तिगत कानून थे।
- कानून में समरूपता लाने के लिये विभिन्न न्यायालयों ने अक्सर अपने निर्णयों में कहा है कि सरकार को एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिये।
- शाह बानो मामले (1985) में दिया गया निर्णय सर्वविदित है।
- सरला मुद्गल वाद (1995) भी इस संबंध में काफी चर्चित है, जो कि बहुविवाह के मामलों और इससे संबंधित कानूनों के बीच विवाद से जुड़ा हुआ था।
- प्रायः यह तर्क दिया जाता है ‘ट्रिपल तलाक’ और बहुविवाह जैसी प्रथाएँ एक महिला के सम्मान और उसके गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, केंद्र ने सवाल उठाया है कि क्या धार्मिक प्रथाओं को दी गई संवैधानिक सुरक्षा उन प्रथाओं तक भी विस्तारित होनी चाहिये जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं।
व्यक्तिगत कानूनों पर समान नागरिक संहिता के निहितार्थ
- समाज के संवेदनशील वर्ग को संरक्षण
- समान नागरिक संहिता का उद्देश्य महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है, जबकि एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को भी बल मिलेगा।
- कानूनों का सरलीकरण
- समान संहिता विवाह, विरासत और उत्तराधिकार समेत विभिन्न मुद्दों से संबंधित जटिल कानूनों को सरल बनाएगी। परिणामस्वरूप समान नागरिक कानून सभी नागरिकों पर लागू होंगे, चाहे वे किसी भी धर्म में विश्वास रखते हों।
- धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को बल:
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द सन्निहित है और एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य को धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभेदित नियमों के बजाय सभी नागरिकों के लिये एक समान कानून बनाना चाहिये।
- लैंगिक न्याय
- यदि समान नागरिक संहिता को लागू किया जाता है, तो वर्तमान में मौजूद सभी व्यक्तिगत कानून समाप्त हो जाएंगे, जिससे उन कानूनों में मौजूद लैंगिक पक्षपात की समस्या से भी निपटा जा सकेगा।
चुनौतियाँ
- केंद्र सरकार के पारिवारिक कानूनों में मौजूद अपवाद
- स्वतंत्रता के बाद से संसद द्वारा अधिनियमित सभी केंद्रीय पारिवारिक कानूनों में प्रारंभिक खंड में यह घोषणा की गई है कि वे ‘जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर पूरे भारत में लागू होंगे।’
- इन सभी अधिनियमों में 1968 में एक दूसरा अपवाद जोड़ा गया था, जिसके मुताबिक ‘अधिनियम में शामिल कोई भी प्रावधान केंद्रशासित प्रदेश पुद्दुचेरी पर लागू होगा।’
- एक तीसरे अपवाद के मुताबिक, इन अधिनियमों में से कोई भी गोवा और दमन एवं दीव में लागू नहीं होगा।
- नगालैंड और मिज़ोरम से संबंधित एक चौथा अपवाद, संविधान के अनुच्छेद 371A और 371G में शामिल किया गया है, जिसके मुताबिक कोई भी संसदीय कानून इन राज्यों के प्रथागत कानूनों और धर्म-आधारित प्रणाली का स्थान नहीं लेगा।
- सांप्रदायिक राजनीति
- कई विश्लेषकों का मत है कि समान नागरिक संहिता की मांग केवल सांप्रदायिक राजनीति के संदर्भ में की जाती है।
- समाज का एक बड़ा वर्ग सामाजिक सुधार की आड़ में इसे बहुसंख्यकवाद के रूप में देखता है।
- संवैधानिक बाधा
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25, जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा के विरुद्ध है।
आगे की राह
- परस्पर विश्वास निर्माण के लिये सरकार और समाज को कड़ी मेहनत करनी होगी, किंतु इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि धार्मिक रूढ़िवादियों के बजाय इसे लोकहित के रूप में स्थापित किया जाए।
- एक सर्वव्यापी दृष्टिकोण के बजाय सरकार विवाह, गोद लेने और उत्तराधिकार जैसे अलग-अलग पहलुओं को चरणबद्ध तरीके से समान नागरिक संहिता में शामिल कर सकती है।
- सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना काफी महत्त्वपूर्ण है, ताकि उनमें से प्रत्येक में पूर्वाग्रह और रुढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परिक्षण किया जा सके।