भारत-ताजिकिस्तान द्विपक्षीय संबंध
प्रिलिम्स के लिये:UNSC, SCO, ECOSOC, अजंता फार्मा, ICCR, भारत-मध्य एशिया संवाद मेन्स के लिये:भारत-ताजिकिस्तान संबंध, पूर्व-पश्चिम ट्रांस-यूरेशियन ट्रांज़िट आर्थिक गलियारे, भारतीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग कार्यक्रम (आईटीईसी), आईसीसीआर, भारत-मध्य एशिया संबंध। |
चर्चा में क्यों?
भारत के विज्ञान, प्रौद्योगिकी और पृथ्वी विज्ञान मंत्री ने ताजिकिस्तान गणराज्य के ऊर्जा एवं जल संसाधन मंत्री के साथ द्विपक्षीय बैठक की।
- सतत् विकास के लिये जल पर वैश्विक जल कार्रवाई और जलवायु प्रतिरोध का समर्थन करने हेतु जल संसाधन अनुसंधान, विशेष रूप से ग्लेशियर निगरानी, गैर-पारंपरिक ऊर्जा, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के शांतिपूर्ण उपयोग और आपदा प्रबंधन जैसे मुद्दों पर चर्चा की गई।
ताजिकिस्तान के साथ भारत के संबंध:
- सलाहकारी तंत्र:
- विदेशी कार्यालय परामर्श।
- आतंकवाद के निरोध पर संयुक्त कार्यसमूह।
- व्यापार, आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग पर संयुक्त आयोग।
- रक्षा सहयोग पर JWG।
- विकास हेतु अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के शांतिपूर्ण उपयोग पर JWG।
- अंतर्राष्ट्रीय मंचों में सहयोग:
- 2020 में ताजिकिस्तान ने 2021-22 की अवधि के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अस्थायी सीट के लिये भारत की उम्मीदवारी का समर्थन किया।
- ताजिकिस्तान ने भारत के लिये शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के सदस्य के दर्जे का पुरज़ोर समर्थन किया।
- भारत ने जल संबंधी मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र में ताजिकिस्तान के प्रस्तावों का लगातार समर्थन किया है।
- भारत ने मार्च 2013 में संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक परिषद (ECOSOC) में ताजिकिस्तान की उम्मीदवारी एवं विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने का भी समर्थन किया।
- विकास और सहायता साझेदारी:
- विकास सहायता:
- 0.6 मिलियन अमेरिकी डाॅलर के अनुदान के साथ 2006 में एक सूचना और प्रौद्योगिकी केंद्र (बेदिल केंद्र) शुरू किया गया था।
- यह परियोजना 6 वर्षों के पूर्ण हार्डवेयरचक्र (Full Hardware Cycle) के लिये संचालित की गई जिसके तहत ताजिकिस्तान में सरकारी क्षेत्र में पहली पीढ़ी के लगभग सभी आईटी विशेषज्ञों को प्रशिक्षित किया गया।
- ताजिकिस्तान में 37 स्कूलों में कंप्यूटर लैब स्थापित करने की एक परियोजना पूरी हुई जिसे अगस्त 2016 में शुरू किया गया था।
- 0.6 मिलियन अमेरिकी डाॅलर के अनुदान के साथ 2006 में एक सूचना और प्रौद्योगिकी केंद्र (बेदिल केंद्र) शुरू किया गया था।
- मानवीय सहायता:
- जून 2009 में ताजिकिस्तान में बाढ़ से हुए नुकसान में मदद करने के लिये भारत द्वारा 200,000 अमेरीकी डाॅलर की नकद सहायता दी गई थी।
- दक्षिण-पश्चिम ताजिकिस्तान में पोलियो के फैलने के बाद भारत ने नवंबर 2010 में यूनिसेफ के माध्यम से ओरल पोलियो वैक्सीन की 2 मिलियन खुराक प्रदान की।
- विकास सहायता:
- मानव क्षमता निर्माण:
- वर्ष 1994 में दुशांबे में भारतीय दूतावास की स्थापना के बाद से ताजिकिस्तान भारतीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग कार्यक्रम (Indian Technical & Economic Cooperation Programme- ITEC) का लाभार्थी रहा है।
- वर्ष 2019 में भारत-मध्य एशिया संवाद प्रक्रिया के तहत कुछ ताजिकिस्तानी राजनयिकों को विदेश सेवा संस्थान, दिल्ली में प्रशिक्षण प्रदान किया गया था।
- व्यापार और आर्थिक संबंध:
- भारत द्वारा ताजिकिस्तान को निर्यात में शामिल मुख्य वस्तुओं में फार्मास्यूटिकल्स, चिकित्सा सामग्री, गन्ना या चुकंदर की चीनी, चाय, हस्तशिल्प और मशीनरी शामिल हैं।
- ताजिकिस्तान के बाज़ार में भारतीय फार्मास्यूटिकल् उत्पाद की लगभग 25%की हिस्सेदारी है।
- ताजिकिस्तान द्वारा विभिन्न प्रकार के अयस्क, स्लैग और राख, एल्युमीनियम, कार्बनिक रसायन, हर्बल तेल, सूखे मेवे और कपास भारत को निर्यात किये जाते हैं।
- वर्ष 2018 में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, आपदा प्रबंधन, नवीकरणीय ऊर्जा व कृषि अनुसंधान और शिक्षा के शांतिपूर्ण उपयोग के क्षेत्रों में आठ समझौता ज्ञापनों पर दोनों देशों के मध्य हस्ताक्षर किये गए।
- भारत द्वारा ताजिकिस्तान को निर्यात में शामिल मुख्य वस्तुओं में फार्मास्यूटिकल्स, चिकित्सा सामग्री, गन्ना या चुकंदर की चीनी, चाय, हस्तशिल्प और मशीनरी शामिल हैं।
- सांस्कृतिक लगाव और लोगों के मध्य संबंध:
- गहरे मज़बूत ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों ने दोनों देशों के मध्य संबंधों को नए स्तर पर विस्तारित करने में मदद की है।
- दोनों देशों के बीच सहयोग में सैन्य और रक्षा संबंधों पर विशेष ध्यान देने के साथ मानव प्रयास के सभी पहलू शामिल हैं।
- दुशांबे में स्वामी विवेकानंद सांस्कृतिक केंद्र भारत से भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा नियुक्त शिक्षकों के माध्यम से कथक और तबला पाठ्यक्रम प्रदान करता है। केंद्र संस्कृत और हिंदी भाषा की कक्षाएंँ भी प्रदान करता है।
- वर्ष 2020 में 'माई लाइफ माई योगा' वीडियो ब्लॉगिंग प्रतियोगिता में ताजिकिस्तान के लोगों द्वारा उत्साह के साथ योग में भागीदारी की गई।
- गहरे मज़बूत ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों ने दोनों देशों के मध्य संबंधों को नए स्तर पर विस्तारित करने में मदद की है।
भारत-मध्य एशिया संबंध:
- परिचय:
- तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से ही भारत का मध्य एशिया के साथ संबंध रहा है क्योंकि ये देश पौराणिक रेशम मार्ग पर स्थित थे।
- बौद्ध धर्म ने मध्य एशियाई शहरों जैसे- मर्व, खलाचायन, तिर्मिज़ व बोखरा आदि में स्तूपों और मठों के रूप में प्रवेश किया।
- मध्य एशिया, एशिया और यूरोप के बीच एक भू-सेतु के रूप में कार्य करता है, जो इसे भारत के लिये भू-राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण बनाता है।
- यह क्षेत्र पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, सुरमा, एल्युमीनियम, सोना, चांँदी, कोयला और यूरेनियम जैसे प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है, जिनका भारतीय ऊर्जा आवश्यकताओं के लिये सर्वोत्तम उपयोग किया जा सकता है।
- मध्य एशियाई क्षेत्र तेज़ी से उत्पादन, कच्चे माल की आपूर्ति और सेवाओं के लिये वैश्विक बाज़ार से जुड़ रहे हैं।
- वे पूर्व-पश्चिम ट्रांस-यूरेशियन ट्रांँज़िटआर्थिक गलियारों में भी तेज़ी से एकीकृत हो रहे हैं।
- भारत-मध्य एशिया संवाद:
- यह भारत और मध्य एशियाई देशों जैसे- कज़ाखस्तान, किर्गिज़स्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान व उज़्बेकिस्तान के बीच एक मंत्री स्तरीय संवाद है।
- शीत युद्ध के पश्चात् वर्ष 1991 में USSR के पतन के बाद सभी पाँच राष्ट्र स्वतंत्र राज्य बन गए।
- तुर्कमेनिस्तान को छोड़कर वार्ता में भाग लेने वाले सभी देश शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य हैं।
- बातचीत कई मुद्दों पर केंद्रित है जिसमें कनेक्टिविटी में सुधार और युद्ध से तबाह अफगानिस्तान में स्थिरता संबंधी उपाय शामिल हैं।
- भारत और मध्य एशिया संबंधों के बीच हाल के विकास:
- मध्य एशिया में परियोजनाओं के लिये भारत की 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर की लाइन ऑफ क्रेडिट, चाबहार बंदरगाह और तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत (TAPI) गैस पाइपलाइन के बीच व्यापार बढ़ाने के लिये चाबहार बंदरगाह का उपयोग करके कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने में मदद कर सकती है।
- ‘अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन कॉरिडोर’ (INSTC), अंतर्राष्ट्रीय परिवहन और पारगमन गलियारे (ITTC) पर अश्गाबात समझौते के संयोजन के साथ भारत व मध्य एशियाई देशों के बीच संपर्क बढ़ा रहा है।
- पाँच मध्य एशियाई देशों के विदेश मंत्रियों ने तीसरी भारत-मध्य एशिया वार्ता में भाग लेने के लिये दिसंबर 2021 में नई दिल्ली का दौरा किया।
- कोविड-19 से निपटने के दौरान मध्य एशियाई देशों ने महामारी के अपने प्रारंभिक चरण के दौरान कोविड-19 टीकों और आवश्यक दवाओं की आपूर्ति हेतु भारत द्वारा की गई सहायता की सराहना की।
- जनवरी 2022 में भारत के प्रधानमंत्री ने आभासी प्रारूप में पहले भारत-मध्य एशिया शिखर सम्मेलन की मेज़बानी की।
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न:प्रश्न. निम्नलिखित देशों पर विचार कीजिये: (2022)
उपर्युक्त में से किन देशों की सीमाएँ अफगानिस्तान से लगती हैं? (a) केवल 1, 2 और 5 उत्तर: C |
स्रोत: पी.आई.बी.
स्वयं सहायता समूह
प्रिलिम्स के लिये:एसएचजी, माइक्रोफाइनेंस, ग्रामीण बैंक, नाबार्ड, आरबीआई. मेन्स के लिये:एसएचजी का महत्त्व तथा संबंधित मुद्दे, इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और विकास |
चर्चा में क्यों?
सरकार स्वयं सहायता समूहों (Self-Help Groups- SHGs) में प्रत्येक महिला की वार्षिक आय को वर्ष 2024 तक 1 लाख रुपए तक बढ़ाने का लक्ष्य लेकर चल रही है।
SHGs के बारे में:
- परिचय:
- स्वयं सहायता समूह (SHG) कुछ ऐसे लोगों का एक अनौपचारिक संघ होता है जो अपने रहन-सहन की परिस्थितियों में सुधार करने के लिये स्वेछा से एक साथ आते हैं।
- सामान्यतः एक ही सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों का ऐसा स्वैच्छिक संगठन स्वयं सहायता समूह (SHG) कहलाता है, जिसके सदस्य एक-दूसरे के सहयोग के माध्यम से अपनी साझा समस्याओं का समाधान करते हैं।
- SHG स्वरोज़गार और गरीबी उन्मूलन को प्रोत्साहित करने के लिये "स्वयं सहायता" (Self-Employment) की धारणा पर भरोसा करता है।
- उद्देश्य:
- रोज़गार और आय सृजन गतिविधियों के क्षेत्र में गरीबों तथा हाशिए पर पड़े लोगों की कार्यात्मक क्षमता का निर्माण करना।
- सामूहिक नेतृत्व और आपसी चर्चा के माध्यम से संघर्षों को हल करना।
- बाज़ार संचालित दरों पर समूह द्वारा तय की गई शर्तों के साथ संपार्श्विक मुक्त ऋण (Collateral Free Loans) प्रदान करना।
- संगठित स्रोतों से उधार लेने का प्रस्ताव रखने वाले सदस्यों के लिये सामूहिक गारंटी प्रणाली के रूप में कार्य करना।
- गरीब लोग अपनी बचत जमा कर उसे बैंकों में जमा करते हैं। बदले में उन्हें अपनी सूक्ष्म इकाई उद्यम शुरू करने हेतु कम ब्याज दर के साथ ऋण तक आसान पहुंँच प्राप्त होती है।
SHGs की आवश्यकता:
- हमारे देश में ग्रामीण निर्धनता का एक कारण ऋण और वित्तीय सेवाओं तक उचित पहुँच का अभाव है।
- 'देश में वित्तीय समावेशन' पर एक व्यापक रिपोर्ट तैयार करने हेतु डॉ. सी. रंगराजन की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने वित्तीय समावेशन की कमी के चार प्रमुख कारणों की पहचान की, जो इस प्रकार हैं:
- संपार्श्विक सुरक्षा प्रदान करने में असमर्थता
- खराब ऋण शोधन क्षमता
- संस्थानों की अपर्याप्त पहुंँच
- कमज़ोर सामुदायिक नेटवर्क
- ग्रामीण क्षेत्रों में मज़बूत सामुदायिक नेटवर्क के अस्तित्व को क्रेडिट लिंकेज के सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्वों में से एक के रूप में तेज़ी से पहचान मिली है।
- वे गरीबों को ऋण प्राप्त करने में मदद करते हैं, इस प्रकार गरीबी उन्मूलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- वे गरीबों, विशेषकर महिलाओं के बीच सामाजिक पूंजी के निर्माण में भी मदद करते हैं। यह महिलाओं को सशक्त बनाता है।
- स्वरोज़गार के माध्यम से वित्तीय स्वतंत्रता में कई बाहरी पहलू भी शामिल हैं जैसे कि साक्षरता स्तर में सुधार, बेहतर स्वास्थ्य देखभाल और यहांँ तक कि बेहतर परिवार नियोजन।
SHGs का महत्त्व:
- सामाजिक समग्रता:
- SHGs दहेज, शराब आदि जैसी प्रथाओं का मुकाबला करने के लिये सामूहिक प्रयासों को प्रोत्साहित करते हैं।
- लिंग समानता:
- SHGs महिलाओं को सशक्त बनाते हैं और उनमें नेतृत्व कौशल विकसित करते हैं। अधिकार प्राप्त महिलाएंँ ग्राम सभा व अन्य चुनावों में अधिक सक्रिय रूप से भाग लेती हैं।
- इस देश के साथ-साथ अन्यत्र भी इस बात के प्रमाण हैं कि स्वयं सहायता समूहों के गठन से समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार के साथ परिवार में उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार होता है और उनके आत्म-सम्मान में भी वृद्धि होती है।
- हाशिये पर पड़े वर्ग के लिये आवाज़:
- सरकारी योजनाओं के अधिकांश लाभार्थी कमज़ोर और हाशिए पर स्थित समुदायों से हैं, इसलिये SHGs के माध्यम से उनकी भागीदारी सामाजिक न्याय सुनिश्चित करती है।
- वित्तीय समावेशन:
- प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को ऋण देने के मानदंड और रिटर्न का आश्वासन बैंकों को SHGs को ऋण देने के लिये प्रोत्साहित करता है। नाबार्ड द्वारा अग्रणी SHG-बैंक लिंकेज कार्यक्रम ने ऋण तक पहुंँच को आसान बना दिया है तथा पारंपरिक साहूकारों एवं अन्य गैर-संस्थागत स्रोतों पर निर्भरता कम कर दी है।
- रोज़गार के वैकल्पिक स्रोत:
- यह सूक्ष्म-उद्यमों की स्थापना में सहायता प्रदान करके कृषि पर निर्भरता को आसान बनाता है, उदाहरण के लिये व्यक्तिगत व्यावसायिक उद्यम जैसे- सिलाई, किराना और उपकरण मरम्मत की दुकानें आदि।
संबंधित मुद्दे:
- कौशल के उन्नयन का अभाव:
- अधिकांश SHGs नए तकनीकी नवाचारों और कौशल का उपयोग करने में असमर्थ हैं। क्योंकि नई प्रौद्योगिकियों से संबंधित सीमित ज़ागरूकता है, साथ ही उनके पास इसका उपयोग करने के लिये आवश्यक कौशल नहीं हैं। इसके अलावा प्रभावी तंत्र की कमी भी है।
- कमज़ोर वित्तीय प्रबंधन:
- यह भी पाया गया है कि कतिपय इकाइयों में व्यवसाय से प्राप्त होने वाले प्रतिफल को इकाइयों में उचित रूप से निवेश नहीं किया जाता है, बल्कि धन को अन्य व्यक्तिगत और घरेलू उद्देश्यों जैसे विवाह, घर के निर्माण आदि के लिये उपयोग कर लिया जाता है।
- अपर्याप्त प्रशिक्षण सुविधाएँ:
- उत्पाद चयन, उत्पादों की गुणवत्ता, उत्पादन तकनीक, प्रबंधकीय क्षमता, पैकिंग, अन्य तकनीकी ज्ञान के विशिष्ट क्षेत्रों में एसएचजी के सदस्यों को दी गई प्रशिक्षण सुविधाएँ मज़बूत इकाइयों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं।
- विशेष रूप से महिला SHGs के बीच स्थिरता और एकता की कमी:
- महिलाओं के वर्चस्व वाले SHGs के मामले में यह पाया गया है कि इकाइयों में कोई स्थिरता नहीं है क्योंकि कई विवाहित महिलाएँ अपने निवास स्थान में बदलाव के कारण समूह के साथ जुड़ने की स्थिति में नहीं हैं।
- इसके अलावा व्यक्तिगत कारणों से महिला सदस्यों के बीच कोई एकता नहीं है।
- अपर्याप्त वित्तीय सहायता:
- यह पाया गया है कि अधिकांश स्वयं सहायता समूहों में संबंधित एजेंसियों द्वारा उन्हें प्रदान की गई वित्तीय सहायता उनकी वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। वित्तीय अधिकारी श्रम लागत की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये भी पर्याप्त सब्सिडी नहीं दे रहे हैं।
महिला सशक्तीकरण में स्वयं सहायता समूहों की भूमिका:
- स्वयं सहायता समूह (SHG) आंदोलन ग्रामीण क्षेत्रों में महिला लचीलापन और उद्यमिता के सबसे शक्तिशाली इन्क्यूबेटरों में से एक है। यह गांँवों में लैंगिक सामाजिक निर्माण को बदलने के लिये एक शक्तिशाली चैनल है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएंँ अब आय के स्वतंत्र स्रोत बनाने में सक्षम हैं, जबकि कई युवा अर्द्ध-साक्षर महिलाएंँ थीं जिनके पास घरेलू कौशल है, पूंजी और प्रतिगामी सामाजिक मानदंडों की अनुपस्थिति उन्हें किसी भी निर्णय लेने की भूमिका में पूरी तरह से शामिल होने तथा अपना स्वतंत्र व्यवसाय स्थापित करने से रोकती है।
- महिलाएंँ कई क्षेत्रों में बिज़नेस कॉरेस्पोंडेंट (BC), बैंक सखियों, किसान सखियों और पाशु सखियों के रूप में काम कर रही हैं।
आगे की राह
- उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के इस युग में महिलाएंँ अपनी स्वाधीनता, अधिकारों और स्वतंत्रता, सुरक्षा, सामाजिक स्थिति आदि के लिये अधिक जागरूक हैं, लेकिन आज तक वे इससे वंचित हैं, इसलिये उन्हें सम्मान के साथ उनके योग्य अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान की जानी चाहिये।
- SHG समाज के ग्रामीण तबके की महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक उन्नति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- इसके अलावा सरकारी कार्यक्रमों को विभिन्न SHG के माध्यम से लागू किया जा सकता है। यह न केवल पारदर्शिता और दक्षता में सुधार करेगा बल्कि हमारे समाज को महात्मा गांधी की कल्पना के अनुसार 'स्व-शासन' के करीब लाएगा।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
PACS का डिजिटलीकरण
प्रिलिम्स के लिये:PACS का डिजिटलीकरण, इसका महत्त्व। मेन्स के लिये:PACS का महत्त्व और मुद्दे। |
चर्चा में क्यों?
आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (CCEA) ने लगभग 63,000 प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (Primary Agricultural Credit Societies-PACS) के डिजिटलीकरण की मंज़ूरी दी।
- 2,516 करोड़ रुपए की लागत से PACS का डिजिटलीकरण किया जाएगा, जिससे लगभग 13 करोड़ छोटे और सीमांत किसानों को लाभ होगा। प्रत्येक प्राथमिक कृषि ऋण समिति को अपनी क्षमता को उन्नत करने के लिये लगभग 4 लाख रुपए मिलेंगे और यहांँ तक कि पुराने लेखा रिकॉर्ड को भी डिजिटल किया जाएगा और क्लाउड आधारित सॉफ्टवेयर से जोड़ा जाएगा।
पहल का महत्त्व:
- PACS के कम्प्यूटरीकरण से उनकी पारदर्शिता, विश्वसनीयता और दक्षता में वृद्धि होगी एवं बहुउद्देशीय PACS के लेखांकन में भी सुविधा होगी।
- यह PACS को प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT), ब्याज़ सहायता योजना (ISS), फसल बीमा योजना (PMFBY) और उर्वरक एवं बीज के आदानों जैसी विभिन्न सेवाएंँ प्रदान करने के लिये एक नोडल केंद्र बनने में भी मदद करेगा।
- इस पहल से प्रत्येक केंद्र में लगभग 10 नौकरियों के अवसर उत्पन्न करने में मदद मिलेगी और इसका उद्देश्य अगले पांँच वर्षों में PACS की संख्या को बढ़ाकर 3 लाख करना है।
प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ:
- परिचय:
- PACS ज़मीनी स्तर की सहकारी ऋण संस्थाएँ हैं जो किसानों को विभिन्न कृषि और कृषि गतिविधियों के लिये अल्पकालिक एवं मध्यम अवधि के कृषि ऋण प्रदान करती हैं।
- यह ज़मीनी स्तर पर ग्राम पंचायत और ग्राम स्तर पर काम करती हैं।
- पहली प्राथमिक कृषि ऋण समिति (PACS) का गठन वर्ष 1904 में किया गया था।
- सहकारी बैंकिंग प्रणाली के आधार पर कार्यरत PACS ग्रामीण क्षेत्र को लघु अवधि और मध्यम अवधि के ऋण के प्रमुख खुदरा बिक्री केंद्रों का गठन करती हैं।
- उद्देश्य:
- ऋण लेने और सदस्यों की आवश्यक गतिविधियों का समर्थन करने के उद्देश्य से पूंजी जुटाना।
- सदस्यों की बचत की आदत में सुधार लाने के उद्देश्य से जमा राशि एकत्र करना।
- सदस्यों को उचित मूल्य पर कृषि आदानों और सेवाओं की आपूर्ति करना।
- सदस्यों के लिये पशुधन की उन्नत नस्लों की आपूर्ति एवं विकास की व्यवस्था करना।
- सदस्यों के लिये पशुधन की उन्नत नस्लों की आपूर्ति एवं उनके विकास की व्यवस्था करना।
- आवश्यक आदानों और सेवाओं की आपूर्ति के माध्यम से विभिन्न आय-सृजन गतिविधियों को प्रोत्साहित करना।
PACS का महत्त्व:
- ये बहुआयामी संगठन हैं जो बैंकिंग, साइट पर आपूर्ति, विपणन, उत्पाद और उपभोक्ता वस्तुओं के व्यापार जैसी विभिन्न सेवाएंँ प्रदान करते हैं।
- ये वित्त प्रदान करने के लिये मिनी-बैंकों के साथ-साथ कृषि इनपुट और उपभोक्ता सामान प्रदान करने हेतु काउंटर के रूप में कार्य करते हैं।
- ये समितियांँ किसानों को अपने खाद्यान्नों के संरक्षण और भंडारण हेतु भंडारण सेवाएंँ भी प्रदान करती हैं।
- देश में सभी संस्थाओं द्वारा दिये गए किसान क्रेडिट कार्ड (Kisan Credit Card- KCC) ऋणों में PACS का 41% (3.01 करोड़ किसान) हिस्सा है तथा PACS के माध्यम से इन KCC ऋणों में से 95% (2.95 करोड़ किसान) छोटे और सीमांत किसानों के हैं।
PACS से संबंधित मुद्दे:
- अपर्याप्त कवरेज:
- हालांँकि भौगोलिक रूप से सक्रिय PACS, 5.8 गांँवों में से लगभग 90% को कवर करता है, देश के कुछ हिस्से खासकर उत्तर-पूर्व में यह कवरेज बहुत कम है।
- इसके अलावा सदस्यों के रूप में शामिल की गई आबादी सभी ग्रामीण परिवारों का केवल 50% है।
- अपर्याप्त संसाधन:
- PACS के संसाधन ई-ग्रामीण अर्थव्यवस्था की लघु और मध्यम अवधि की ऋण आवश्यकताओं के संबंध में बहुत अधिक अपर्याप्त हैं।
- यहांँ तक कि इन अपर्याप्त निधियों का बड़ा हिस्सा उच्च वित्तपोषण एजेंसियों से आता है, न कि 'समाजों के स्वामित्व वाले धन या उनके द्वारा जमा जुटाने' के माध्यम से।
- सीमित क्रेडिट:
- PACS कुल ग्रामीण आबादी के केवल एक छोटे से हिस्से को ही ऋण प्रदान करती हैं।
- दिया गया ऋण मुख्य रूप से फसल वित्त (मौसमी कृषि कार्यों) और मध्यम अवधि ऋण के रूप में पहचाने जाने योग्य उद्देश्यों जैसे कि कुओं की खुदाई, पंप सेटों की स्थापना आदि तक सीमित है।
- बकाया:
- PACS के लिये अधिक बकाया एक बड़ी समस्या बन गई है।
- वे ऋण योग्य निधियों के संचलन पर अंकुश लगाती हैं, उधार लेने के साथ-साथ समाजों की उधार शक्ति को कम करती हैं तथा डिफाल्टर लेनदारों की समाज में छवि खराब करती हैं।
- बड़े ज़मींदार सस्ते सहकारी ऋणों को हथियाने और समय पर अपने ऋणों का भुगतान न करने में गाँवों में अपनी अपेक्षाकृत मज़बूत स्थिति का अनुचित लाभ उठाते हैं।
आगे की राह
- इन एक सदी से भी अधिक पुराने संस्थानों को एक और नीतिगत प्रोत्साहन की आवश्यकता है, ताकि भारत सरकार के आत्मनिर्भर भारत के साथ-साथ वोकल फॉर लोकल के दृष्टिकोण में एक प्रमुख स्थान बना सकें, उनमें आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के निर्माण की क्षमता है।
- यदि पुनर्गठन और संबंधित उपायों के माध्यम से उन्हें मज़बूत और व्यवहार्य इकाइयों में परिवर्तित किया जाता है तो संसाधन-जुटाने में PACS की क्षमता में काफी सुधार होगा। फिर वे उच्च वित्तपोषण एजेंसियों की तुलना में जमा और ऋण दोनों को आकर्षित करने में अधिक सक्षम होंगी।