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पश्चिम एशिया: अत्यधिक सैन्यीकृत क्षेत्र

  • 27 Apr 2024
  • 31 min read

यह एडिटोरियल 25/04/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Tensions grows in west asia, a heavily militiarised region” लेख पर आधारित है। इसमें स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के बारे में चर्चा की गई है, जिसमें कहा गया है कि पश्चिम एशिया वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्रों में से एक है, जहाँ विश्व के शीर्ष 10 हथियार आयातक देशों में से चार अवस्थित हैं। 

प्रिलिम्स के लिये:

स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट, ईरान, इज़राइल, मध्य पूर्व, इस्लामी क्रांति,1979, गाजा पट्टी, लाल सागर संकट, इजरायली वायु रक्षा प्रणाली, 'टू स्टेट सॉल्यूशन', खाड़ी सहयोग परिषद, यूरोपीय संघ, संयुक्त राष्ट्र, संयुक्त व्यापक कार्य योजना (JCPOA)

मेन्स के लिये:

पश्चिम एशिया में हाल के संघर्ष का विश्व के अन्य क्षेत्रों पर प्रभाव।

पश्चिम एशिया में तनाव बढ़ रहा है। यह वह क्षेत्र है जो सैन्यीकरण पर अत्यधिक निर्भर है और वैश्विक हथियारों के आयात में 30% हिस्सेदारी रखता है। वैश्विक ऊर्जा उपभोग के लिये निष्कर्षण संसाधनों का एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता होने के बावजूद, पश्चिम एशिया विभिन्न संघर्षों के कारण बढ़ती अस्थिरता का सामना कर रहा है। 

इज़राइल-गाज़ा संघर्ष, ईरान एवं इज़राइल के बीच शत्रुता और लेबनान एवं यमन के ईरान समर्थित मिलिशिया द्वारा जारी हमले तनाव बढ़ा रहे हैं। 

‘स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार, पश्चिम एशिया वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्रों में से एक है और विश्व के शीर्ष 10 हथियार आयातकों में से चार यहीं स्थित हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका इस क्षेत्र का प्रमुख हथियार आपूर्तिकर्ता है। इस सैन्यीकरण ने पश्चिम एशिया को संभावित ‘बारूद के ढेर’ पर बिठा रखा है। 

पश्चिम एशिया में हाल की अशांति के पीछे के कारण:

  • इज़राइल ने गाज़ा के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया, जबकि ईरान समर्थित लेबनानी शिया समूह हिजबुल्लाह ने फिलिस्तीनियों के साथ एकजुटता दिखाते हुए शीबा फार्म्स (Shebaa Farms) में इज़राइली सैन्य बलों पर रॉकेट दागे। शीबा फार्म्स एक इज़राइल-नियंत्रित क्षेत्र है, जिस पर लेबनान अपना दावा करता है। 
  • इज़रायल की अंधाधुंध बमबारी से असंतुष्ट अरब देशों ने यहूदी राज्य पर दबाव बनाने के लिये कूटनीति के रास्ते आजमाए। 
    • ईरान समर्थित मिलिशिया ने भी इज़राइल के खिलाफ नए मोर्चे खोल दिए। 
  • यमन की शिया मिलिशिया हूती (Houthis) ने फिलिस्तीनियों के साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए नवंबर माह के मध्य में लाल सागर में वाणिज्यिक जहाज़ों पर हमला करना शुरू कर दिया। 
    • उन्होंने कई शिपिंग दिग्गजों को लाल सागर में अपना परिचालन निलंबित करने के लिये विवश किया। लाल सागर स्वेज नहर और बाब अल-मंडेब जलडमरूमध्य के माध्यम से भूमध्य सागर को अरब सागर (और हिंद महासागर) से जोड़ता है। 
  • इज़राइल ने सीरिया और लेबनान के अंदर कई हमले किये हैं, जिसमें हमास, हिजबुल्लाह और ईरान के सैन्य कमांडर मारे गए हैं। 
  • ईरान ने 16 जनवरी को इराक़ के कुर्दिस्तान, सीरिया और पाकिस्तान में हमले किये, जिसमें मोसाद ऑपरेशनल सेंटर और सुन्नी इस्लामी आतंकवादियों को निशाना बनाने का दावा किया गया। 
  • सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से के रूप में पश्चिम एशिया का सैन्य परिव्यय उच्च बना हुआ है, जहाँ सऊदी अरब, कतर, जॉर्डन, ओमान, कुवैत और इज़राइल जैसे देश लगातार अपने सकल घरेलू उत्पाद का एक महत्त्वपूर्ण भाग रक्षा क्षेत्र को आवंटित कर रहे हैं। 
  • इसके अतिरिक्त, इस क्षेत्र में अन्य क्षेत्रों की तुलना में सैन्य क्षेत्र में नियोजित श्रम शक्ति का अनुपात सबसे अधिक है। 

पश्चिम एशियाई संघर्ष के पीछे की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि  

  • ऑटोमन साम्राज्य का प्रभाव: पश्चिमी एशिया वृहत रूप से 14वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी के आरंभ तक ऑटोमन साम्राज्य के नियंत्रण में रहा था। 
    • इस साम्राज्य ने एक सफल प्रशासनिक प्रणाली के माध्यम से विभिन्न जातियों, धर्मों और संस्कृतियों वाली विविध आबादी पर शासन किया। 
  • प्रथम विश्व युद्ध के बाद की प्रगति: प्रथम विश्व युद्ध और ऑटोमन साम्राज्य की हार के बाद, इस भूभाग में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। विजयी मित्र राष्ट्रों (मुख्य रूप से ब्रिटेन और फ्राँस) ने स्थानीय अरब आबादी की इच्छाओं की प्रायः उपेक्षा करते हुए पूर्व ऑटोमन क्षेत्रों को आपस में बाँट लिया। 
    • इससे, विशेष रूप से युद्ध के दौरान अरब समर्थन के बदले में किये गए वादों को तोड़ने के कारण, विश्वासघात और आक्रोश की भावनाएँ पैदा हुईं। 
  • साइक्स-पिकॉट समझौता (Sykes-Picot Agreement): यह वर्ष 1916 में यूनाइटेड किंगडम और फ्राँस के बीच संपन्न एक अनौपचारिक संधि थी, जिसमें रूसी साम्राज्य और इटली की सहमति भी शामिल थी, ताकि ऑटोमन साम्राज्य के अंतिम विभाजन में प्रभाव एवं नियंत्रण के उनके पारस्परिक रूप से सहमत क्षेत्रों को परिभाषित किया जा सके। 
    • इस समझौते ने प्रभावी रूप से अरब प्रायद्वीप के बाहर के ऑटोमन प्रांतों को ब्रिटिश और फ्राँसीसी नियंत्रण एवं प्रभाव के क्षेत्रों में विभाजित कर दिया। 
  • बाल्फोर घोषणा (Balfour Declaration): यह वर्ष 1917 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा जारी एक सार्वजनिक वक्तव्य था, जिसमें फिलिस्तीन में ‘यहूदी लोगों के लिये राष्ट्रीय गृहक्षेत्र’ (national home for the Jewish people) की स्थापना के लिये समर्थन की घोषणा की गई थी। फिलिस्तीन उस समय एक ऑटोमन क्षेत्र था जहाँ एक छोटी अल्पसंख्यक यहूदी आबादी पाई जाती थी। इस घोषणा के कई दीर्घकालिक परिणाम सामने आए। 
  • इज़राइल का निर्माण: 
    • वर्ष 1917 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने फिलिस्तीन में ‘यहूदी लोगों के लिये राष्ट्रीय गृहक्षेत्र’ की स्थापना के लिये समर्थन व्यक्त करते हुए बाल्फोर घोषणा जारी की। 
    • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, वर्ष 1947 में संयुक्त राष्ट्र (UN) ने एक विभाजन योजना का प्रस्ताव रखा जहाँ फिलिस्तीन को अलग-अलग यहूदी और अरब राज्यों में विभाजित किया जाना था और यरूशलेम को एक अंतर्राष्ट्रीय नगर की स्थिति प्रदान की जानी थी। 
    • वर्ष 1948 में इज़राइल ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी, जिससे पड़ोसी अरब राज्यों के साथ उसका युद्ध शुरू हो गया । 
  • अरब-इज़राइल युद्ध (1948): 
    • वर्ष 1948 में इज़राइल की स्वतंत्रता की यहूदी घोषणा ने आसपास के अरब राज्यों को उस पर हमले के लिये प्रेरित किया। 
    • युद्ध के अंत में इज़राइल ने संयुक्त राष्ट्र विभाजन योजना की मूल कल्पना से लगभग 50% अधिक क्षेत्र पर नियंत्रण कर लिया था। 
  • वर्ष 1979 की इस्लामी क्रांति: 
    • वर्ष 1979 की इस्लामी क्रांति में शाह को उखाड़ फेंकने के बाद ईरान में एक धार्मिक राज्य की स्थापना हुई। इसके साथ ही इज़राइल के प्रति ईरान का दृष्टिकोण बदल गया और उसे फिलिस्तीनी भूमि पर कब्ज़ा करने वाले या ‘ओक्यूपायर’ (occupier) के रूप में देखा जाने लगा। 
    • ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खुमैनी (Ayatollah Khomeini) ने इज़राइल और संयुक्त राज्य अमेरिका को क्षेत्र में हस्तक्षेप करने वाले पक्षों के रूप में चिह्नित करते हुए इन्हें क्रमशः ‘छोटा शैतान’ और ‘बड़ा शैतान’ पुकारा।  
  • वर्ष 1979 के बाद एक ‘छाया युद्ध’ (Shadow War): 
    • इसके परिणामस्वरूप देशों के संबंध और बिगड़ गए। उल्लेखनीय है कि इज़राइल और ईरान कभी भी प्रत्यक्ष सैन्य टकराव में संलग्न नहीं हुए हैं, लेकिन दोनों ने छद्म आभिकर्ताओं (proxies) और सीमित रणनीतिक हमलों के माध्यम से एक दूसरे को क्षति पहुँचाने का प्रयास किया है। 
    • वर्ष 2010 के दशक की शुरुआत में इज़राइल ने ईरान को परमाणु हथियार विकसित करने से रोकने के लिये उसके कई प्रतिष्ठानों और परमाणु वैज्ञानिकों को निशाना बनाया। 
    • माना जाता है कि वर्ष 2010 में अमेरिका और इज़राइल द्वारा एक दुर्भावनापूर्ण कंप्यूटर वायरस ‘स्टक्सनेट’ (Stuxnet) विकसित किया था। इसका उद्देश्य ईरान के नैटान्ज़ (Natanz) परमाणु स्थल पर अवस्थित यूरेनियम संवर्द्धन प्रतिष्ठान पर हमला करना था। इसे किसी औद्योगिक मशीनरी पर पहले सार्वजनिक रूप से ज्ञात साइबर हमले के रूप में देखा गया। 
    • दूसरी ओर, ईरान को इस क्षेत्र में कई आतंकवादी समूहों—जैसे लेबनान में हिजबुल्लाह और गाज़ा पट्टी में हमास, के वित्तपोषण और समर्थन के लिये ज़िम्मेदार माना जाता है जो इज़राइल और अमेरिका विरोधी समूह हैं। 
  • हाल के घटनाक्रम: 
    • इज़राइल पर ईरान का पूर्ण पैमाने का सैन्य हमला तथा गाज़ा में इज़राइल की निरंतर कार्रवाई ने इस क्षेत्र की अस्थिरता को और बढ़ाया है। 
    • यमन के गृहयुद्ध, लेबनान के राजनीतिक संकट, सीरिया के गृहयुद्ध और तुर्की-साइप्रस संघर्ष सहित विभिन्न संघर्षों की निरंतरता अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की चिंताओं को बढ़ा रही है। 

प्रमुख हितधारक कौन हैं और उनके भिन्न उद्देश्य क्या हैं? 

  • इज़राइल: उसके उद्देश्यों में हमास का अंत करना, बंधकों को रिहा कराना और अपनी सुरक्षा के लिये खतरों को बेअसर करना शामिल हैं। 
    • गाज़ा में इसकी सैन्य कार्रवाई और अन्य क्षेत्रों में हमले इसी उद्देश्य को परिलक्षित करते हैं। 
  • हमास: गाज़ा एवं वेस्ट बैंक में इज़राइल की नीतियों और कार्यों को चुनौती देने की इच्छा रखता है। 
    • एक फिलिस्तीनी इस्लामी राजनीतिक संगठन और आतंकी समूह के रूप में यह इज़राइल के साथ लंबे समय से संघर्ष में शामिल रहा है। 
  • ईरान: यह पश्चिम एशिया में विभिन्न इज़राइल विरोधी गैर-राज्य अभिकर्ताओं (जैसे हमास, इस्लामिक जिहाद, हिजबुल्लाह, हूती या इराक एवं सीरिया के शिया मिलिशिया) का समर्थन करता है। 
    • ईरान का लक्ष्य भूभाग में अपना प्रभाव बढ़ाना है, जहाँ वह प्रायः अमेरिकी और इज़राइली हितों का विरोध करता है। 
  • हिजबुल्लाह और अन्य मिलिशिया: प्रायः ईरान द्वारा समर्थित ये समूह मुख्य रूप से इज़राइल के विरोध में और फिलिस्तीनी हितों के समर्थन में संघर्ष में शामिल रहे हैं। 
  • संयुक्त राज्य अमेरिका: वह इज़राइल का समर्थन करता है तथा क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखने और अपने हितों की रक्षा करने की इच्छा रखता है। 
    • इस भूभाग में व्यापक सैन्य उपस्थिति और कूटनीतिक पकड़ रखने वाले अमेरिका के तीन उद्देश्य हैं- 
      • इज़राइल की सुरक्षा सुनिश्चित करना 
      • क्षेत्र में तैनात अमेरिकी सैनिकों और परिसंपत्तियों की सुरक्षा 
      • क्षेत्र में अमेरिकी नेतृत्व वाली व्यवस्था को सुदृढ़ बनाए रखना 
  • अन्य क्षेत्रीय अभिकर्ता: पाकिस्तान जैसे देशों के इस संघर्ष में अपने रणनीतिक हित हैं, जो प्रायः धार्मिक, राजनीतिक और क्षेत्रीय समीकरण से प्रभावित होते हैं। 

पश्चिम एशिया में संघर्षों का भू-राजनीतिक प्रभाव:  

  • मानवीय संकट: निरंतर सैन्य कार्रवाइयों से, विशेष रूप से गाज़ा में, भारी संख्या में लोगों के हताहत होने और मानवीय स्थितियों के बिगड़ने का खतरा है। 
  • क्षेत्रीय अस्थिरता: दीर्घावधिक संघर्ष पहले से ही अस्थिर पश्चिम एशियाई क्षेत्र को और अस्थिर कर सकते हैं जिससे पड़ोसी देश प्रभावित हो सकते हैं। गाज़ा में इज़राइल की कार्रवाइयों के कम होने के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं, जिससे हिजबुल्लाह और हूती के हमले भी लगातार जारी हैं। 
  • वैश्विक आर्थिक प्रभाव: प्रमुख शिपिंग मार्गों (जैसे लाल सागर) और तेल आपूर्ति में व्यवधान के वैश्विक आर्थिक परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। 
  • चरमपंथ का प्रसार: जारी संघर्ष कट्टरपंथ को बढ़ावा दे सकते हैं तथा चरमपंथी समूहों के उदय का कारण बन सकते हैं, जिससे क्षेत्र और अस्थिर हो सकता है। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संबंध: यह संघर्ष वैश्विक शक्तियों और क्षेत्रीय राज्यों के बीच राजनयिक संबंधों को तनावपूर्ण बना रहा है, जिससे शांति एवं स्थिरता के लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रयास जटिल सिद्ध हो सकते हैं। 
  • सुरक्षा विफलता: पश्चिम एशिया में पिछले संघर्षों (जहाँ प्रायः राष्ट्र-राज्य या राज्य और गैर-राज्य अभिकर्ता शामिल थे) के विपरीत वर्तमान संकट व्यापक सुरक्षा विफलता से चिह्नित हो रहा है। 

भारत पर इसके संभावित प्रभाव

  • ऊर्जा सुरक्षा पर प्रभाव: पश्चिम एशिया से आयातित तेल पर भारत की निर्भरता, मूल्य अस्थिरता और आपूर्ति व्यवधानों के प्रति उसे संवेदनशील बनाती है। 
    • पश्चिम एशिया में ऊर्जा संसाधनों के लिये बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा के कारण कीमतें बढ़ सकती हैं तथा आपूर्ति के लिये प्रतिस्पर्द्धा बढ़ सकती है, जिससे भारत के लिये आवश्यक ऊर्जा प्राप्त करना अधिक कठिन हो जाएगा। 
    • भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता और आयातक देश है। भारत का 40% से अधिक तेल पश्चिम एशिया से आता है। 
  • भारतीय प्रवासी: पश्चिम एशिया में भारतीय प्रवासियों की एक बड़ी संख्या मौजूद है जिनके आय अर्जन पर पर इस उथल-पुथल का गंभीर असर पड़ सकता है। 
    • धन-प्रेषण (Remittances): पश्चिमी एशिया के अनिवासी भारतीय प्रति वर्ष लगभग 40 बिलियन अमेरिकी डॉलर घर भेजते हैं जो देश के कुल धन-प्रेषण प्रवाह में 55% से अधिक की हिस्सेदारी रखता है। 
      • भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के अनुसार, भारत को प्राप्त कुल प्रेषण का 82% संयुक्त अरब अमीरात (UAE), सऊदी अरब, कतर, कुवैत और ओमान जैसे पश्चिम एशियाई देशों तथा यहाँ व्यापक रूप से संलग्न एवं सक्रिय संयुक्त राज्य अमेरिका एवं यूनाइटेड किंगडम से प्राप्त होता है। 
  • व्यापार और निवेश: यूएन कॉमट्रेड डेटाबेस के अनुसार वर्ष 2017 से 2021 के बीच भारत के संचयी दो-तरफ़ा माल व्यापार में ईरान और GCC सदस्य देशों की हिस्सेदारी 15.3% थी। 

पश्चिम एशिया के प्रति भारत का दृष्टिकोण 

  • मध्य-पूर्व क्वाड (I2U2) पहल: I2U2 (India, Israel, the U.S. and the UAE) के पीछे का विचार यह है कि आर्थिक, प्रौद्योगिकीय एवं राजनयिक सहयोग के लिये दक्षिण एशिया, मध्य-पूर्व और संयुक्त राज्य अमेरिका को परस्पर संबद्ध किया जाए। 
  • ‘मेडिकल डिप्लोमेसी’: ‘वैक्सीन मैत्री’ भारत सरकार द्वारा पश्चिम एशियाई देशों को COVID-19 टीके उपलब्ध कराने के लिये शुरू की गई एक मानवीय पहल थी। 
    • विशेष रूप से सऊदी अरब और बहरीन इस पहल के लाभार्थी बने। 
  • डाउनस्ट्रीम परियोजनाएँ: भारत ने पश्चिम एशिया के देशों को भारत के हाइड्रोकार्बन क्षेत्र में डाउनस्ट्रीम परियोजनाओं में निवेश करने के लिये आमंत्रित किया है। 
    • अबू धाबी नेशनल ऑयल कंपनी और इंडियन स्ट्रैटेजिक पेट्रोलियम रिज़र्व्स लिमिटेड (ISPRL) के बीच जनवरी 2017 में तेल भंडारण एवं प्रबंधन समझौते पर हस्ताक्षर किये गए। 
    • यह रेखांकित करता है कि मैंगलोर कैवर्न के लिये संयुक्त अरब अमीरात से कच्चे तेल की आपूर्ति ऊर्जा क्षेत्र में रणनीतिक साझेदारी के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तनकारी कदम सिद्ध होगी। 
  • ऊर्जा क्षेत्र में रणनीतिक भागीदारी: अबू धाबी ने लोअर ज़कुम (Lower Zakum) में भारत के ONGC के नेतृत्व वाले संघ को एक बड़ी तेल रियायत प्रदान की है। 
    • विभिन्न उच्च-स्तरीय वादों और समझौतों पर नज़र रखने के लिये एक उच्च-स्तरीय मंत्रिस्तरीय कार्यबल का गठन किया गया है। 
  • टेक कूटनीति: भारत पश्चिम एशियाई देशों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करने के लिये प्रौद्योगिकीय मार्ग अपना रहा है। 
    • उदाहरण के लिये, डिजिटल भुगतान प्रणाली में भारत की एक प्रमुख पहल RuPay कार्ड को अबू धाबी में लॉन्च किया गया है। 
  • सांस्कृतिक कूटनीति: भारत ने संयुक्त अरब अमीरात द्वारा भारतीय समुदाय को एक विशेष उपहार के रूप में दुबई में पहले हिंदू मंदिर का उद्घाटन किया। योग, बॉलीवुड और संगीत भारत के सॉफ्ट पावर के अन्य कुछ आयाम हैं। 

संघर्ष को संबोधित करने के लिये कौन-से दृष्टिकोण प्रस्तावित किये गए हैं? 

  • वार्ता और ‘टू स्टेट सॉल्यूशन’: विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय अभिकर्ताओं ने वार्ता के माध्यम से प्राप्त टू स्टेट सॉल्यूशन की वकालत की है, जहाँ इज़राइल और फिलिस्तीन दो स्वतंत्र राज्यों के रूप में सह-अस्तित्व में रहेंगे। 
    • समझौता वार्ता स्पष्ट सीमाएँ स्थापित करने, यरूशलेम की स्थिति जैसे मुद्दों का समाधान करने और दोनों पक्षों के लिये सुरक्षा गारंटी प्रदान करने पर लक्षित होगी। 
    • ओस्लो समझौता (Oslo Accords): इज़राइल और फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (PLO) के बीच पूर्व की वार्ताएँ टू स्टेट सॉल्यूशन की प्राप्ति पर लक्षित रही थीं। 
    • संयुक्त राज्य अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र और अरब लीग जैसे अंतर्राष्ट्रीय अभिकर्ताओं द्वारा प्रस्तावित विभिन्न शांति योजनाएँ। 

  • युद्धविराम और मानवीय सहायता: तत्काल युद्धविराम समझौते और संघर्ष से प्रभावित लोगों को मानवीय सहायता से पीड़ा को कम करने और राजनयिक समाधान के लिये माहौल बनाने में मदद मिल सकती है। 
    • तीव्र संघर्ष की अवधि के दौरान शत्रुता को रोकने के लिये मिस्र, कतर और अन्य क्षेत्रीय अभिकर्ताओं की मध्यस्थता से अस्थायी युद्धविराम लागू किया गया था। 
    • अंतर्राष्ट्रीय मानवीय संगठन गाज़ा और वेस्ट बैंक में प्रभावित आबादी को सहायता एवं समर्थन प्रदान करते हैं। 
  • अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता: समझौता वार्ता और शांति वार्ता को सुविधाजनक बनाने के लिये तटस्थ अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थों या संगठनों (जैसे संयुक्त राष्ट्र) की भागीदारी। 
  • मुख्य मुद्दों को संबोधित करना: संघर्ष के मूल कारणों—जैसे भूमि विवाद, संसाधनों तक पहुँच और शरणार्थियों के अधिकारों को संबोधित करना दीर्घकालिक स्थिरता में योगदान दे सकता है। 
  • लोगों के परस्पर संपर्क संबंधी पहल: विश्वास और समझ के निर्माण के लिये ज़मीनी स्तर पर इज़राइलियों और फिलिस्तीनियों के बीच संवाद एवं सहयोग को प्रोत्साहित करना। 
    • ‘सीड्स ऑफ पीस’ (Seeds of Peace) और ‘वनवॉइस’ (OneVoice) जैसे संगठन इज़राइल और फिलिस्तीन के युवाओं के बीच संवाद एवं सहयोग को बढ़ावा दे रहे हैं। 
    • व्यापार, शिक्षा और संस्कृति जैसे क्षेत्रों में इज़राइल-फिलिस्तीन संयुक्त उद्यम की स्थापना करना जो सहयोग को बढ़ावा देंगे। 
  • मानवाधिकार और अंतर्राष्ट्रीय कानून: यह सुनिश्चित करना कि दोनों पक्ष अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून और मानवाधिकार मानकों का सम्मान करें तथा उल्लंघन करने वालों को जवाबदेह ठहराएँ। 
    • अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय (ICC) द्वारा क्षेत्र में कथित युद्ध अपराधों और मानवाधिकार हनन की जाँच की जा रही है। 
    • संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों में अवैध बस्तियों की निंदा की गई तथा अंतर्राष्ट्रीय कानून का सम्मान करने का आह्वान किया गया। 
  • क्षेत्रीय सहयोग: एक अधिक स्थिर वातावरण के निर्माण के लिये शांति प्रयासों में क्षेत्रीय हितधारकों और पड़ोसी देशों को शामिल किया जाना चाहिये। 
    • अरब शांति पहल (Arab Peace Initiative), जो फिलिस्तीनियों के साथ एक व्यापक शांति समझौते के बदले में इज़राइल और अरब राज्यों के बीच संबंधों को सामान्य बनाने की पेशकश करती है। 
    • मध्य-पूर्व में शांति एवं स्थिरता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से क्षेत्रीय शिखर सम्मेलनों और पहलों का आयोजन करना। 
  • आर्थिक विकास: इज़राइल और फिलिस्तीन दोनों के लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने और अवसर पैदा करने के लिये क्षेत्र में आर्थिक विकास का समर्थन करना। 
    • फिलिस्तीन इंवेस्टमेंट प्रमोशन एजेंसी (PIPA) और अन्य संगठन वेस्ट बैंक एवं गाज़ा में आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिये कार्य कर रहे हैं। 
    • आधारभूत संरचना और आर्थिक विकास परियोजनाओं के लिये धन जुटाने हेतु अंतर्राष्ट्रीय दाता सम्मेलनों का आयोजन। 
  • सुरक्षा उपाय: इज़राइल और फिलिस्तीन दोनों के लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के उपायों को लागू करना, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय शांति सेनाओं की तैनाती शामिल हो सकती है। 
    • संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र ट्रूस सुपरविज़न ऑर्गेनाइज़ेशन (UNTSO), युद्धविराम की निगरानी के लिये क्षेत्र में तैनात किये गए हैं। 
    • हिंसा को कम करने के लिये सीमा सुरक्षा व्यवस्था और विश्वास-निर्माण के उपाय। 
  • शैक्षिक पहल: समझ और सहिष्णुता को बढ़ावा देने के लिये दोनों पक्षों के इतिहास एवं संस्कृति के बारे में शिक्षा और जागरूकता को बढ़ावा देना। 
    • ऐसे शैक्षिक कार्यक्रम जो समझ और सहिष्णुता को बढ़ावा देते हैं, जैसे कि इज़राइल में हैंड इन हैंड बाई-लिंगुअल स्कूल। 
    • सांस्कृतिक आदान-प्रदान पहल और संयुक्त कला-संबंधी परियोजनाएँ। 

निष्कर्ष 

इस बात की संभावना नहीं दिखती कि सीरिया, यमन और मध्य-पूर्व के अन्य हिस्सों में जारी संघर्ष आसानी से समाप्त हो जाएँगे। सभी पक्षों को वार्ता की मेज पर लाने के लिये श्रमशील राजनीतिक कुशलता की आवश्यकता होगी। यहाँ तक कि पश्चिम एशिया शांति योजना जैसी पहले भी अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में स्व-हितकारी ही हैं, क्योंकि वे दूसरे पक्ष की पूरी तरह से उपेक्षा कर केवल एक पक्ष को लाभ पहुँचाती हैं। 

अभ्यास प्रश्न: पश्चिम एशियाई संघर्ष के पीछे की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की चर्चा कीजिये। वे कौन-से दृष्टिकोण हैं जिनके माध्यम से इस संघर्ष को हल किया जा सकता है?

 यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. दक्षिण-पश्चिम एशिया का निम्नलिखित में से कौन-सा एक देश भूमध्यसागर तक नहीं फैला है? (2015)

(a) सीरिया
(b) जॉर्डन
(c) लेबनान
(d) इज़रायल

उत्तर: (b)


प्रश्न. कभी-कभी समाचारों में "टू स्टेट सॉल्यूशन" शब्द का उल्लेख किस संदर्भ में किया जाता है? (2018)

(a) चीन
(b) इज़राइल
(c) इराक
(d) यमन

उत्तर: (b)


मेन्स

प्रश्न. “भारत के इज़रायल के साथ संबंधों ने हाल ही में एक ऐसी गहराई और विविधता हासिल की है, जिसकी पुनर्वापसी नहीं की जा सकती है।” विवेचना कीजिये। (2018)

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