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सामाजिक न्याय

भारतीय कारागार व्यवस्था में परिवर्तन

  • 21 Nov 2024
  • 25 min read

यह संपादकीय 21/11/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The long fight for accessibility, dignity in Indian prisons” पर आधारित है। यह लेख भारत में दिव्यांग कैदियों द्वारा झेली जाने वाली व्यवस्थागत उपेक्षा और दुर्व्यवहार को उजागर किया गया है। न्यायिक निर्देशों और अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों के बावजूद, कारागार/जेल की स्थिति भयावह बनी हुई है, विशेषकर कमज़ोर कैदियों के लिये।

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय कारागार व्यवस्था, अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 39A, कारागार अधिनियम, 1894, आदर्श कारागार अधिनियम, 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, दिव्यांग व्यक्तियों का अधिकार अधिनियम, 2016, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, न्यायमूर्ति अमिताभ रॉय समिति, कृष्णा अय्यर समिति 

मेन्स के लिये:

भारत में कारागार विनियमन, भारत में कारागारों से संबंधित प्रमुख मुद्दे।

भारतीय कारागार व्यवस्था प्रणालीगत विफलताओं का एक स्पष्ट प्रमाण है, जिसमें लगातार भीड़भाड़, मानवाधिकारों का उल्लंघन और मौलिक कैदी कल्याण की निरंतर उपेक्षा शामिल है। 1980 के दशक से कई न्यायिक हस्तक्षेपों और नीतिगत सिफारिशों के बावजूद, कारागारों/जेल की स्थिति भयावह बनी हुई है, जहाँ सुविधाएँ अपनी इच्छित क्षमता से कहीं अधिक संचालित हो रही हैं। प्रणालीगत विफलता विशेष रूप से कमज़ोर आबादी (जैसे कि दिव्यांग कैदी, जिन्हें अत्यधिक हाशिये पर रखा जाता है और बुनियादी मानवीय सम्मान से वंचित किया जाता है) के साथ होने वाले व्यवहार में स्पष्ट है जिसपर सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।

भारत में कारागारों का विनियमन किस प्रकार किया जाता है? 

  • संवैधानिक प्रावधान:
    • अनुच्छेद 21: यह कैदियों को यातना और अमानवीय व्यवहार से बचाता है। यह कैदियों के लिये समय पर सुनवाई भी सुनिश्चित करता है।
    • अनुच्छेद 22: गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में तुरंत सूचित किया जाना चाहिये और उसे अपनी पसंद के वकील से परामर्श करने तथा बचाव कराने का अधिकार है।
    • अनुच्छेद 39A: कानूनी प्रतिनिधित्व का खर्च वहन करने में असमर्थ लोगों को न्याय सुनिश्चित करने के लिये निशुल्क कानूनी सहायता सुनिश्चित करता है।
  • कानूनी ढाँचा:
    • कारागार अधिनियम, 1894: ब्रिटिश शासन के दौरान अधिनियमित कारागार अधिनियम, भारत में जेल प्रबंधन के लिये आधारभूत कानूनी ढाँचे के रूप में कार्य करता है। 
      • यह कैदियों की हिरासत और अनुशासन पर केंद्रित है, लेकिन इसमें पुनर्वास तथा सुधार के प्रावधानों का अभाव है।
    • कैदियों की पहचान अधिनियम, 1920: यह कानून कैदियों की पहचान प्रक्रिया और बायोमेट्रिक डेटा के संग्रह को नियंत्रित करता है।
    • कैदियों का स्थानांतरण अधिनियम, 1950: यह विभिन्न राज्यों और अधिकार क्षेत्रों के बीच कैदियों के स्थानांतरण के लिये दिशा-निर्देश प्रदान करता है।
  • निरीक्षण तंत्र:
    • न्यायिक निगरानी: भारतीय न्यायपालिका जनहित याचिकाओं (PIL) और कैदियों के अधिकारों से संबंधित विशिष्ट मामलों के माध्यम से जेल की स्थितियों की निगरानी करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 
      • उदाहरण के लिये, डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी और हिरासत के लिये सख्त प्रोटोकॉल का निर्देश दिया था।
      • सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्देशों में राज्यों द्वारा मानवाधिकार मानकों का अनुपालन सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
    • संबंधित अंतर्राष्ट्रीय ढाँचे: कई अंतर्राष्ट्रीय समझौते और सम्मेलन कैदियों के उपचार तथा यातना की रोकथाम के लिये वैश्विक मानक निर्धारित करते हैं, जिनमें शामिल हैं:
      • मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR) (1948), यातना से सुरक्षा पर घोषणा (1975), यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार के खिलाफ कन्वेंशन (1984)।

भारत में जेल सुधार का इतिहास क्या है? 

  • स्वतंत्रता-पूर्व काल: ब्रिटिश शासन के तहत, भारतीय जेलें अपनी कठोर परिस्थितियों के लिये कुख्यात थीं, क्योंकि ब्रिटिश अधिकारी कठोर दंड के माध्यम से कारावास को निवारण के रूप में प्रयोग करते थे। 
    • भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस ने वर्ष 1920 में अपनी मांगों में जेल सुधार को भारतीय दंड संहिता के एक भाग के रूप में शामिल किया।
  • स्वतंत्रता उपरांत युग: वर्ष 1952 में अखिल भारतीय जेल मैनुअल समिति की स्थापना की गई, जिसने कैदियों के वर्गीकरण, चिकित्सा देखभाल के प्रावधान और व्यावसायिक प्रशिक्षण की सिफारिश की। 
    • इसने कैदियों के पुनर्वास में सहायता के लिये सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और मनोवैज्ञानिकों की नियुक्ति का भी सुझाव दिया।
    • वर्ष 1980 में, सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन मामले में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले ने भारतीय कारागारों की दयनीय स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित किया तथा कैदियों के लिये मानवीय व्यवहार, चिकित्सा देखभाल और कानूनी सहायता तक पहुँच के लिये दिशा-निर्देश निर्धारित किये।
  • हाल के वर्ष: 21वीं सदी में, सरकार ने जेल सुधार में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है। 
    • वर्ष 2016 मॉडल जेल मैनुअल को जेल प्रबंधन को मानकीकृत करने के लिये पेश किया गया था, जिसमें कैदियों के वर्गीकरण, चिकित्सा देखभाल और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर ध्यान केंद्रित किया गया था। 
    • वर्ष 2018 में, जेल के बुनियादी ढाँचे को आधुनिक बनाने और राज्य-स्तरीय सुधारों का समर्थन करने के लिये जेल विकास निधि शुरू की गई थी।
    • आदर्श कारागार अधिनियम, 2023 में उच्च सुरक्षा और खुली जेलों के प्रबंधन, कानूनी सहायता, पैरोल व अच्छे आचरण प्रोत्साहन के माध्यम से कैदियों का कल्याण सुनिश्चित करने तथा पारदर्शी जेल प्रशासन एवं सुरक्षा के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग करने के प्रावधान शामिल हैं।

भारत में जेलों से संबंधित प्रमुख मुद्दे क्या हैं? 

  • भीड़भाड़ और क्षमता संकट: भारतीय कारागार व्यवस्था उल्लेखनीय जनसंख्या वृद्धि के कारण संकट में है, आधिकारिक आँकड़ों से पता चलता है कि देश भर में कई सुविधाओं में 131% अधिभोग दर (दिसंबर 2022) है। 
    • वर्ष 2021 में यह संकट उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में सबसे अधिक तीव्र था, जहाँ कैदियों की संख्या 180% को पार कर गई, जिससे स्वास्थ्य जोखिम बढ़ गया, बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच सीमित हो गई तथा कैदियों के बीच संघर्ष की संभावना बढ़ गई।
  • विचाराधीन कारावास और न्यायिक विलंब: विचाराधीन संकट भारत की न्यायिक प्रणाली की मूलभूत विफलता को दर्शाता है।
    • जेल सांख्यिकी भारत रिपोर्ट- 2022 के अनुसार, भारत के 75.8% कैदी विचाराधीन हैं।
    • जैसा कि हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों में उजागर किया गया है, नौकरशाही की अक्षमताओं के कारण भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 479 जैसे प्रावधानों के तहत रिहाई के पात्र होने के बावजूद कई विचाराधीन कैदी जेल में बंद हैं।
    • यह व्यवस्थित विफलता जेलों को दीर्घकालिक नज़रबंदी केंद्रों में बदल देती है, जहाँ कानूनी सज़ा से पहले ही व्यक्तियों को दंडित कर दिया जाता है तथा कुछ विचाराधीन कैदियों को औपचारिक सज़ा के बिना ही वर्षों तक जेल में रहना पड़ता है। 
  • कैदियों का पुनर्वास और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे: भारत की जेल प्रणाली पुनर्वासात्मक के बजाय मूलतः दंडात्मक बनी हुई है, जिसमें मनोवैज्ञानिक सहायता, कौशल विकास या सामाजिक पुनः एकीकरण के लिये बुनियादी अवसंरचना अपर्याप्त है। 
    • व्यापक मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव संस्थागत आघात का एक चक्र बनाता है, जिसमें कैदियों में अवसाद, चिंता और संभावित पुनरावृत्ति की दर बढ़ जाती है। 
    • विभिन्न भारतीय अध्ययनों से पता चला है कि कैदियों में मानसिक बीमारियों की वर्तमान व्यापकता 21% से 33% तक है।
  • दिव्यांग कैदी और पहुँच: विकलांग कैदियों की प्रणालीगत उपेक्षा भारत की सुधार व्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण मानवाधिकार विफलता का प्रतिनिधित्व करती है।
    • निपमैन फाउंडेशन द्वारा दिल्ली की प्रमुख जेलों के वर्ष 2018 के ऑडिट में अभिगम संबंधी गंभीर खामियाँ उजागर हुईं, जिनमें गैर-कार्यात्मक व्हीलचेयर, दुर्गम कोठरियाँ और शौचालय शामिल हैं, जो बुनियादी तौर पर मानवीय गरिमा से समझौता करते हैं। 
    • दिव्यांग व्यक्तियों का अधिकार अधिनियम, 2016 और नेल्सन मंडेला नियम (2015) में उचित व्यवस्था का प्रावधान है, फिर भी क्रियान्वयन लगभग न के बराबर है। 
  • हिरासत में हिंसा और मानवाधिकार उल्लंघन: हिरासत में हिंसा भारतीय जेलों में एक सतत् और प्रणालीगत मुद्दा बनी हुई है तथा जवाबदेही के लिये संस्थागत तंत्र गंभीर रूप से कमज़ोर बना हुआ है। 
    • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सत्र 2020-21 में बंदीगृह में 1,850 से अधिक मौतों की सूचना दी, जो संस्थागत दंड-मुक्ति की संस्कृति को उजागर करती है। 
    • तमिलनाडु के सथानकुलम में बंदीगृह में हुई मौतों और अनेक मुठभेड़ों जैसे हाल के चर्चित मामलों ने संस्थागत हिंसा की गहरी जड़ें जमाए बैठी संस्कृति को उजागर कर दिया है।
  • जाति-आधारित भेदभाव: जेलों के भीतर जाति-आधारित भेदभाव एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है, जो सीमांत समुदायों के कैदियों के उपचार और पुनर्वास को प्रभावित करता है। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में भारतीय जेलों में जाति-आधारित पृथक्करण प्रथाओं के खिलाफ फैसला सुनाया तथा उन्हें असंवैधानिक घोषित किया।
    • इस ऐतिहासिक निर्णय के बावजूद, कार्यान्वयन एक चुनौती बनी हुई है जो इन कैदियों की गरिमा और अधिकारों को कमज़ोर करती है।
  • लिंग-विशिष्ट मुद्दे: महिला कैदियों को विशिष्ट चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिन्हें जेल सुधार के बारे में चर्चाओं में प्रायः नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। 
    • जेलों में बंद 23,772 महिलाओं में से 18,146 (76.33%) विचाराधीन हैं।
    • रिपोर्टों से पता चलता है कि महिला कैदी विशेष रूप से कारागार कर्मचारियों और पुरुष कैदियों दोनों से यौन दुर्व्यवहार एवं उत्पीड़न का शिकार होती हैं।
    • कई बंदीगृहों में महिला गार्डों की अनुपस्थिति इस समस्या को और बढ़ा देती है, जिससे महिलाओं को दुर्व्यवहार के विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा या सहारा नहीं मिल पाता है।
    • इसके अतिरिक्त, जेलों में गर्भवती महिलाओं को प्रायः उचित प्रसवपूर्व देखभाल और सहायता सेवाओं का अभाव रहता है, जो महिला कैदियों की आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रणालीगत विफलता को उजागर करता है। 

जेल सुधार से संबंधित प्रमुख न्यायिक घोषणाएँ क्या हैं? 

  • हुसैनआरा खातून बनाम गृह सचिव (बिहार): सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि निर्धन आरोपी व्यक्तियों को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार सुनिश्चित करने के लिये निशुल्क कानूनी सहायता प्रदान की जानी चाहिये।
  • चार्ल्स शोभराज बनाम सेंट्रल जेल अधीक्षक: सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि किसी के जेल में बंद होने मात्र से उसके मौलिक अधिकारों को नहीं छीना जा सकता।
    • जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों को रखना मानवाधिकारों का उल्लंघन घोषित किया गया।
  • सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (वर्ष 1978): इस मामले में यह पुष्टि की गई कि कैदियों को उनके मौलिक अधिकार तब तक प्राप्त हैं जब तक कि वे कारावास के साथ संघर्ष नहीं करते हैं, जिसमें क्रूर और अमानवीय व्यवहार से सुरक्षा भी शामिल है।
  • राममूर्ति बनाम कर्नाटक राज्य (वर्ष 1997): न्यायालय ने जेलों में भीड़भाड़, विलंबित सुनवाई, स्वास्थ्य की उपेक्षा और दुर्व्यवहार जैसे गंभीर मुद्दों पर ध्यान दिया तथा सरकार से सुधार लागू करने का आग्रह किया।

भारत की जेल प्रणाली में सुधार के लिये कौन-सी रणनीति अपनाई जा सकती है?

  • बुनियादी अवसंरचना और सुगम्यता सुधार: जुलाई 2024 के गृह मंत्रालय के सुगम्यता दिशा-निर्देशों को लागू किया जा सकता है, जिससे जेल के बुनियादी अवसंरचनाओं के लिये सार्वभौमिक डिज़ाइन सिद्धांतों का निर्माण हो सके जो दिव्यांग कैदियों के लिये उपयुक्त हों। 
    • मॉड्यूलर जेल डिज़ाइन विकसित किये जाने चाहिये जिससे कुशल स्थान उपयोग के माध्यम से भीड़भाड़ को कम किया जा सके और विभिन्न कैदी श्रेणियों के लिये अलग-अलग क्षेत्र बनाए जा सकें।
    • संधारणीय जेल अवसंरचना में निवेश किया जाना चाहिये जिसमें नवीकरणीय ऊर्जा, अपशिष्ट प्रबंधन और पारिस्थितिक पुनर्वास कार्यक्रम शामिल हों। 
    • महिलाओं, वृद्ध जनों और दिव्यांग कैदियों सहित कमज़ोर आबादी के लिये विशेष आवास इकाइयाँ बनाए जाने चाहिये।
    • बहुउद्देश्यीय स्थान विकसित किये जाने चाहिये जो शिक्षा, कौशल विकास और मनोवैज्ञानिक परामर्श की सुविधा प्रदान कर सकें।
  • न्यायिक प्रक्रिया में तेज़ी और कानूनी सहायता: प्रौद्योगिकी-सक्षम मामला प्रबंधन प्रणालियों और विशेषीकृत फास्ट-ट्रैक अदालतों के माध्यम से मुकदमों में तेज़ी लाने पर ध्यान केंद्रित करते हुए एक व्यापक न्यायिक सुधार रणनीति को लागू किया जाना चाहिये।
    • प्रत्येक 30 कैदियों के लिये एक वकील की न्यायमूर्ति अमिताभ रॉय समिति की सिफारिश को अपनाया जाना चाहिये, जिससे एक सुदृढ़ कानूनी सहायता तंत्र तैयार हो सके जो विचाराधीन कैदियों के लिये सार्थक कानूनी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर सके। 
    • बाबू सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1978) के सिद्धांतों से प्रेरणा लेते हुए अग्रिम ज़मानत तंत्र का विस्तार किया जाना चाहिये, ताकि आनुपातिक सज़ा विकल्प प्रदान करते हुए न्यायिक लंबित मामलों को कम किया जा सके। 
  • व्यापक पुनर्वास और कौशल विकास: अनिवार्य व्यावसायिक प्रशिक्षण, शैक्षिक कार्यक्रम और मनोवैज्ञानिक परामर्श को लागू करके जेलों को दंडात्मक संस्थानों से पुनर्वास केंद्रों में बदलने की आवश्यकता है।
    • उद्योगों के साथ सार्वजनिक-निजी साझेदारी विकसित किया जाना चाहिये ताकि जेल-आधारित कौशल विकास कार्यक्रम बनाए जा सकें जो रिहाई के बाद रोज़गार के अवसरों की गारंटी दे सकें। 
    • एक विशेष भारतीय कारागार एवं सुधार सेवा बनाने के लिये मुल्ला समिति की सिफारिशों को लागू किया जाना चाहिये, जो जेल कर्मचारियों के लिये पुनर्वास-उन्मुख प्रशिक्षण पर ज़ोर देती है। 
    • संस्थागत आघात से निपटने और पुनरावृत्ति को कम करने के लिये अनिवार्य मानसिक स्वास्थ्य जाँच, परामर्श तथा निरंतर मनोवैज्ञानिक सहायता कार्यक्रम शुरू किये जाने चाहिये।
  • प्रौद्योगिकी-सक्षम जेल प्रबंधन: एक व्यापक जेल प्रबंधन सूचना प्रणाली (PMIS) बनाया जाना चाहिये।
    • पारदर्शी संस्थागत रिकॉर्ड बनाए रखते हुए कैदियों की गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिये  ब्लॉकचेन-आधारित सुरक्षित डेटा प्रबंधन प्रणाली को लागू किया जाना चाहिये।
    • एक राष्ट्रव्यापी डिजिटल केस ट्रैकिंग प्रणाली विकसित किया जाना चाहिये जो विचाराधीन अवधि पर नज़र रखे तथा उचित समय-सीमा से अधिक समय तक लंबित मामलों के लिये स्वचालित रूप से समीक्षा तंत्र सक्रिय करे। 
    • मामले की जटिलताओं का पूर्वानुमान लगाने और न्यायिक संसाधन आवंटन को अनुकूलित करने के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता तथा मशीन लर्निंग का लाभ उठाए जाने की आवश्यकता है।
    • विशेष स्वास्थ्य देखभाल सुविधा उपलब्ध कराने के लिये टेलीमेडिसिन अवसंरचना का विकास किया जाना चाहिये, विशेष रूप से दूर-दराज़ के स्थानों पर या सीमित चिकित्सा सुविधाओं वाले कैदियों के लिये।
  • पारदर्शी संस्थागत निगरानी: एक स्वतंत्र जेल लोकपाल की स्थापना की जानी चाहिये, जिसके पास अघोषित निरीक्षण करने, मानवाधिकार उल्लंघनों की जाँच करने और प्रणालीगत सुधारों की सिफारिश करने की शक्तियाँ हों। 
    • जेल की स्थिति, पुनर्वास के आँकड़े और संस्थागत चुनौतियों का विवरण देने वाली त्रैमासिक सार्वजनिक रिपोर्ट अनिवार्य की जानी चाहिये।
    • संस्थागत कदाचारों की रिपोर्ट करने के लिये जेल कर्मचारियों और कैदियों के लिये एक व्यापक मुखबिर सुरक्षा तंत्र विकसित किया जाना चाहिये।
  • विशिष्ट कैदी प्रबंधन दृष्टिकोण: विभिन्न कैदी श्रेणियों के लिये लक्षित हस्तक्षेप रणनीति विकसित किया जाना चाहिये, जिसमें पहली बार अपराध करने वालों, दीर्घकालिक कैदियों और संभावित कट्टरपंथीकरण जोखिम वाले लोगों के लिये विशेष कार्यक्रम शामिल हैं। 
    • महिलाओं और बाल अपराधियों के लिये विशेष सहायता हेतु कृष्णा अय्यर समिति की सिफारिशों को लागू किया जाना चाहिये, जिसमें लिंग-संवेदनशील बुनियादी अवसंरचना तथा पुनर्वास दृष्टिकोण शामिल हों। 

निष्कर्ष: 

समय की सबसे बड़ी मांग है कि हम अपनी आपराधिक न्याय प्रणाली (CJS) को अधिक कुशल और प्रभावी तंत्र में बदलें। इसके लिये जेल सुधारों से परे व्यापक बदलाव की आवश्यकता है। पुनर्वास को प्राथमिकता देकर, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश करके और सभी कैदियों के अधिकारों की रक्षा करके, हम एक ऐसी न्याय व्यवस्था स्थापित कर सकते हैं जो न्यायपूर्ण एवं मानवीय दोनों हो। हमारे समाज का भविष्य आपराधिक न्याय के पूरे स्पेक्ट्रम में सार्थक सुधारों को लागू करने की हमारी क्षमता पर निर्भर करता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. भारतीय कारागार व्यवस्था के समक्ष आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये तथा इसके प्रभावी सुधार के लिये उपाय प्रस्तावित कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न 1. मृत्यु दंडादेशों के लघूकरण में राष्ट्रपति के विलंब के उदाहरण न्याय प्रत्याख्यान (डिनायल) के रूप में लोक वाद-विवाद के अधीन आए हैं। क्या राष्ट्रपति द्वारा ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने/अस्वीकार करने के लिये एक समय-सीमा का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये? विश्लेषण कीजिये। (2014)

प्रश्न 2. भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) सर्वाधिक प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाले अन्य यांत्रिकत्वों (मकैनिज़्म) का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। उपरोक्त टिप्पणी के प्रकाश में, मानव अधिकार मानकों की प्रोन्नति करने और उनकी रक्षा करने में, न्यायपालिका एवं अन्य संस्थाओं के प्रभावी पूरक के तौर पर, एन.एच.आर.सी. की भूमिका का आकलन कीजिये। (2014)

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