फसल अवशेषों को स्थायी समाधानों में बदलना | 11 Nov 2023
यह एडिटोरियल 07/11/2023 को ‘हिंदू बिजनेसलाइन’ में प्रकाशित “Don’t waste crop residue” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में वायु प्रदूषण के एक प्रमुख स्रोत के रूप में फसल अवशेष या पराली दहन (crop residue burning/stubble burning) की भूमिका के बारे में चर्चा की गई है और पराली को जैव ईंधन, खाद या पशु चारे में परिवर्तित करने जैसे वैकल्पिक तरीके सुझाये गए हैं।
प्रिलिम्स के लिये:वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (NMVOC), ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम (GCP), संपीड़ित जैव-गैस (CBG),अपशिष्ट से ऊर्जा (WTE) कार्यक्रम, गोबरधन योजना। मेन्स के लिये:फसल अवशेष जलाने के कारण, फसल अवशेष जलाने से उत्पन्न समस्याएँ, फसल अवशेष जलाने को कम करने के उपाय। |
विगत साठ वर्षों से भारतीय कृषि मुख्यतः फसल उत्पादन बढ़ाने पर केंद्रित रही है और कटाई के बाद फसलों के प्रबंधन पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप कृषि उत्पादों के लिये प्रभावी मूल्य शृंखलाओं का विकास सीमित हो गया है जबकि उप-उत्पादों और फसल अवशेषों के लिये मूल्य शृंखलाओं का लगभग कोई विकास नहीं हुआ है।
इसके अतिरिक्त, एक फसल वर्ष में अधिक फसल पैदा करने की बढ़ती मांग के कारण फसल अवशेषों को अपशिष्ट मानकर त्वरित निपटान के लिये जला देना आम बात हो गई है।
इसका परिणाम यह है कि पराली दहन वर्तमान नीतिगत चर्चाओं में एक महत्त्वपूर्ण एवं दबावपूर्ण मामला बन गया है। फसल अवशेष जलाने से न केवल मूल्यवान बायोमास का नुकसान होता है बल्कि यह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (GHG) और प्रदूषण की वृद्धि में भी उल्लेखनीय योगदान देता है।
जुलाई 2023 में नीति आयोग द्वारा प्रकाशित एक वर्किंग पेपर के अनुसार, भारत प्रति वर्ष औसतन लगभग 650 मिलियन टन फसल अवशेष उत्पन्न करता है।
फसल अवशेष दहन के पीछे के प्राथमिक कारण कौन-से हैं?
- धान की कटाई और गेहूँ की बुआई के बीच संक्षिप्त समय अंतराल: धान की कटाई और गेहूँ की बुआई के बीच की सीमित समय सीमा किसानों को फसल अवशेष निपटान के वैकल्पिक तरीकों की खोज से अवरुद्ध करती है। शीघ्रातिशीघ्र बुआई करने की विवशता उन्हें पर्यावरण के लिये हानिकारक होते हुए भी पराली दहन जैसे त्वरित समाधान चुनने के लिये प्रेरित कर सकती है।
- कंबाइन हार्वेस्टर का बढ़ता उपयोग: कंबाइन हार्वेस्टर का व्यापक प्रयोग पराली प्रबंधन (stubble management) की चुनौती में योगदान करता है। ये मशीनें बड़ी मात्रा में पराली छोड़ती हैं, जिसे मैन्युअल या यंत्रवत तरीके से हटाना कठिन साबित होता है। यह बचा हुआ अवशेष किसानों को त्वरित समाधान के रूप में इनके दहन के लिये प्रोत्साहित करता है।
- फसल अवशेष प्रबंधन के लिये पर्याप्त विकल्पों का अभाव: कम्पोस्टिंग, मल्चिंग, निगमन (incorporation) या जैव ऊर्जा में रूपांतरण जैसे किफायती और व्यवहार्य विकल्पों की अनुपस्थिति समस्या को और बढ़ा देती है। सुलभ विकल्पों के अभाव में किसान पराली को जलाने के रूप में एक सुविधाजनक प्रतीत होने वाली विधि का सहारा लेने के लिये विवश हो सकते हैं।
- चावल के भूसे की पोषण संबंधी अपर्याप्तता और इसका स्वादिष्ट नहीं होना: चावल के भूसे की पोषण संबंधी अपर्याप्तता और इसका स्वादिष्ट नहीं होना, इसे पशु आहार के लिये अनुपयुक्त विकल्प बनाता है। यह सीमा फसल अवशेषों के लाभकारी उपयोग के अवसरों को कम कर देती है और संबंधित पर्यावरणीय दुष्परिणामों के बावजूद किसानों को पराली दहन जैसा उपाय चुनना पड़ता है।
- आर्थिक और सामाजिक कारक: विभिन्न आर्थिक और सामाजिक कारक फसल अवशेष जलाने की व्यापकता में योगदान करते हैं। श्रम की कमी, संसाधन की कमी और सहकर्मी दबाव एक ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं जहाँ किसान दीर्घकालिक संवहनीय अभ्यासों के बजाय तात्कालिक एवं लागत प्रभावी समाधानों को प्राथमिकता दे सकते हैं। इसके अतिरिक्त, पराली दहन के हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरूकता की कमी भी इस दुश्चक्र को बनाए रखती है।
फसल अवशेष दहन से कौन-सी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं?
- पर्यावरणीय क्षरण: फसल अवशेष जलाने से हवा, मृदा और जल में हानिकारक प्रदूषक का उत्सर्जन होता है जो पर्यावरणीय क्षरण में योगदान करते हैं।
- फसल अवशेषों को जलाने से वायुमंडल में बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और अन्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान करते हैं।
- इससे खेतों से पौधों के लिये आवश्यक पोषक तत्त्वों की, जैविक कार्बन की और मृदा की सतह पर मृदा कटाव से रक्षा के लिये आवश्यक पौध अवशेषों की हानि होती है।
- खाद्य और कृषि संगठन के कॉर्पोरेट स्टैटिस्टिकल डेटाबेस (FAOSTAT) के अनुसार, भारत में फसल अवशेष दहन से वर्ष 2020 में लगभग 23 मिलियन टन CO2 समतुल्य उत्सर्जन हुआ।
- जैव विविधता का क्षरण: यह लाभकारी सूक्ष्मजीवों, कीड़ों और पादपों को नष्ट कर कृषि भूमि की जैव विविधता को कम करता है। यह पारिस्थितिकी तंत्र के प्राकृतिक संतुलन को प्रभावित कर सकता है और फसलों को कीटों एवं बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील बना सकता है।
- मृदा क्षरण: फसल अवशेष दहन से मृदा की उर्वरता कम हो सकती है और लाभकारी सूक्ष्मजीव नष्ट हो सकते हैं।
- वायु प्रदूषण में योगदान: फसल अवशेष दहन से वायुमंडल में बड़ी मात्रा में कणिका पदार्थ (PM), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O), अमोनिया (NH3) और नॉन-मीथेन वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (NMVOC) का उत्सर्जन होता है।
- ये प्रदूषक संपर्क में आने वाले लोगों के लिये श्वसन संबंधी समस्याएँ, हृदय रोग, कैंसर और समयपूर्व मृत्यु का कारण बन सकते हैं।
फसल अवशेष दहन को कम करने के लिये क्या किया जाना चाहिये?
- स्वच्छ ऊर्जा के लिये फसल अवशेष का उपयोग: फसल अवशेषों को जलाकर बर्बाद करने के बजाय स्वच्छ नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन के लिये इनका कुशलतापूर्वक उपयोग किया जा सकता है।
- ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 10 किलोग्राम कृषि अवशेष 1 किलोग्राम संपीडित बायोगैस उत्पन्न कर सकते हैं।
- इस क्रम में चक्रीय कृषि को बढ़ावा देने के लिये आवश्यक नीतिगत उपायों की तत्काल आवश्यकता है, जो न केवल उत्सर्जन को कम करने में मदद कर सकते हैं, बल्कि फसल अवशेषों के लिये एक मूल्य शृंखला का निर्माण कर किसानों को अतिरिक्त आय भी दिला सकते हैं।
- चक्रीय कृषि को बढ़ावा देना: भारतीय कृषि परंपरागत रूप से मृदा के जैविक पोषक तत्त्वों की पुनर्स्थापना के लिये फसल अवशेषों के कुशल ऑन-फार्म प्रबंधन और इसे चारे, छप्पर निर्माण, मल्चिंग, जैविक खाद आदि के लिये उपयोग करने के रूप में ऑफ-फार्म प्रबंधन के साथ चक्रीय रही है।
- हालाँकि, गहन फसल उत्पादन अभ्यासों में वृद्धि के साथ, किसान ऑन-फार्म अवशेष प्रबंधन को एक किफायती विकल्प के रूप में नहीं देख पा रहे हैं और अवशेषों को जलाने का विकल्प चुन रहे हैं।
- ऐसे परिदृश्य में, उचित प्रोत्साहन के साथ चक्रीय कृषि को दो तरीकों से बढ़ावा दिया जा सकता है:
- ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम (GCP) जैसी योजनाओं के साथ किसानों को व्यक्तिगत रूप से प्रोत्साहित कर फसल अवशेषों का ऑन-फार्म प्रबंधन;
- बायोगैस उत्पादन के लिये फीडस्टॉक के रूप में फसल अवशेषों के लिये एक मूल्य शृंखला का निर्माण कर सहकारी समितियों के माध्यम से किसान या ग्राम स्तर पर अथवा वाणिज्यिक स्तर पर ऑफ-फार्म प्रबंधन।
- जैव-सीएनजी (Bio-CNG) उत्पादन को बढ़ावा देना: वैश्विक स्तर पर ऊर्जा के लिये स्वच्छ एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में से एक के रूप में जैव-सीएनजी या संपीडित बायोगैस (Compressed BioGas- CBG) का व्यावसायिक उत्पादन बढ़ रहा है। भारत में पिछले 40 वर्षों में बायोगैस उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये कई योजनाओं की घोषणा की गई है, लेकिन प्रगति धीमी रही है।
- गोबरधन (GOBARdhan) योजना के तहत 500 नए बायो-सीएनजी संयंत्र स्थापित करने के लिये बजट 2023-24 में 10,000 करोड़ रुपए आवंटित करने की नवीनतम पहल फीडस्टॉक के रूप में फसल अवशेषों के लिये एक व्यवहार्य मूल्य शृंखला निर्माण की दिशा में एक संभावनाशील कदम सिद्ध हो सकती है।
- ‘अपशिष्ट से ऊर्जा’ कार्यक्रम का प्रभावी कार्यान्वयन: भारत में अपशिष्ट से ऊर्जा (Waste to Energy- WTE) कार्यक्रम भी क्रियान्वित किया जा रहा है जहाँ मार्च 2023 तक लगभग 90 WTE परियोजनाओं पर कार्य चल रहा था। ऐसी पहलों के सफल होने के लिये प्रभावी कार्यान्वयन, व्यापक जागरूकता पैदा करने और पर्याप्त वित्त प्रवाह की सुविधा प्रदान करने की आवश्यकता है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में बायोगैस संयंत्र: ग्रामीण क्षेत्रों में बायोगैस संयंत्रों की स्थापना पर बल दिया जाए। यह न केवल नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन में योगदान करता है बल्कि आर्थिक पहलुओं को संबोधित करते हुए उल्लेखनीय गैर-कृषि ग्रामीण रोज़गार के अवसर भी पैदा करता है।
निष्कर्ष
उत्सर्जन को कम करने और नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाने की दिशा में फसल अवशेषों के कुशल उपयोग के लिये चक्रीय कृषि को बढ़ावा देने की तत्काल आवश्यकता है। इसके साथ ही आर्थिक रूप से लाभदायक विकल्प प्रदान करने से किसानों को अतिरिक्त आय प्राप्त हो सकती है।
अभ्यास प्रश्न: भारतीय कृषि में फसल अवशेष दहन से जुड़ी चुनौतियों की चर्चा कीजिये और चक्रीय कृषि, जैव-सीएनजी उत्पादन एवं सतत ग्रामीण विकास की भूमिका पर बल देते हुए इस मुद्दे के समाधान के लिये व्यापक रणनीतियों का प्रस्ताव कीजिये।