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जैव विविधता और पर्यावरण

वन संरक्षण के प्रयासों पर पुनर्विचार

  • 20 Jul 2024
  • 28 min read

यह एडिटोरियल 19/07/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The issue with India’s tree planting schemes” लेख पर आधारित है। इसमें असंवहनीय अभ्यासों के कारण वन भूदृश्यों के क्षरण पर प्रकाश डाला गया है और प्रभावी वृक्षारोपण एवं पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली रणनीतियों की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है। इसके लिये सामुदायिक भागीदारी, वृक्षारोपण के बाद के उपायों और सतत् पर्यावरण संरक्षण के लिये तकनीकी विचारों के महत्त्व पर बल दिया गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

पारिस्थितिकी तंत्र बहाली का दशक, नमदाफा उड़ने वाली गिलहरी, ग्रीन इंडिया मिशन, वन अधिकार अधिनियम, वन धन योजना, जैविक विविधता अधिनियम, नीलगिरी बायोस्फीयर रिज़र्व, केन-बेतवा नदी जोड़ने की परियोजना, टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद मामला, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान, प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण, भारतीय वन सर्वेक्षण। 

मेन्स के लिये:

भारत में वनों के समुख प्रमुख चुनौतियाँ, भारत में वन संरक्षण को बढ़ाने के उपाय

संयुक्त राष्ट्र (UN) द्वारा वर्ष 2021-2030 को पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली का दशक (Decade of Ecosystem Restoration) घोषित किया गया है, जिससे वनों की कटाई और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये वैश्विक प्रयासों को बढ़ावा मिला है, जबकि वृक्षारोपण एक लोकप्रिय रणनीति के रूप में उभर कर सामने आया है। दुनिया भर में विभिन्न व्यापक पहलें की गई हैं, जिन्होंने मीडिया का ध्यान और सार्वजनिक भागीदारी को आकर्षित किया है। हालाँकि, इन वृहत वृक्षारोपण अभियानों को सीमित सामुदायिक भागीदारी, अपर्याप्त वृक्षारोपण पश्चात देखभाल (post-planting care) और ‘मोनोकल्चर’ (monocultures) की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के कारण पर्यावरणविदों एवं वैज्ञानिकों की ओर से आलोचना का सामना करना पड़ा है। विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि इस तरह के अति-सरलीकृत दृष्टिकोण कार्बन पृथक्करण (carbon sequestration) और जैव विविधता विकास के लिये इच्छित से कम प्रभावी सिद्ध हो सकते हैं।

भारत, विशेष रूप से, वन संरक्षण के मामले में गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिसमें व्यापक अतिक्रमण, आजीविका के लिये लाखों लोगों की वनों पर अत्यधिक निर्भरता और गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिये वन भूमि की भारी क्षति जैसी चुनौतियाँ शामिल हैं। जबकि देश ने क्षरित वनों को पुनर्बहाल करने और वन क्षेत्र का विस्तार करने के प्रति प्रतिबद्धता जताई है, इस बात का स्वीकरण बढ़ रहा है कि इस दिशा में अधिक सूक्ष्म और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील रणनीतियों की आवश्यकता है।

भारत के लिये वनों का क्या महत्त्व है?

  • जैव विविधता संरक्षण: भारत सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय (2000) के अनुसार भारत में वनस्पतियों की 47,000 प्रजातियाँ और जंतुओं की 81000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
    • यह वैश्विक वनस्पतियों और जंतुओं का क्रमशः लगभग 7% और 6.5% है, जो इन्हें महत्त्वपूर्ण जैव विविधता हॉटस्पॉट बनाता है।
    • वर्ष 2022 में अरुणाचल प्रदेश में नमदाफा उड़ने वाली गिलहरी (Namdapha flying squirrel) जैसी नई प्रजातियों की खोज अभी तक अज्ञात रहे प्राणियों के भंडार के रूप में वनों के निरंतर महत्त्व को उजागर करती है।
  • जलवायु परिवर्तन शमन: वन महत्त्वपूर्ण कार्बन सिंक के रूप में कार्य करते हैं, जहाँ भारत के वन और वृक्ष इसके कुल CO2 उत्सर्जन का 15% अवशोषित करते हैं (वर्ष 2016)।
    • वर्ष 2030 तक 2.5 से 3 बिलियन टन CO2 समतुल्य अतिरिक्त कार्बन सिंक का सृजन करने का देश का संकल्प वन संरक्षण एवं विस्तार पर व्यापक रूप से निर्भर करता है।
    • हाल ही में ‘ग्रीन इंडिया मिशन’ जैसे प्रयास, जिसका लक्ष्य वन आवरण को 5 मिलियन हेक्टेयर तक बढ़ाना है, जलवायु कार्रवाई के लिये वनों का लाभ उठाने के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं।
  • आजीविका सहायता: भारत में 250 मिलियन से अधिक लोग अपनी आजीविका के लिये वनों पर निर्भर हैं, जिनमें जनजातीय या आदिवासी समुदाय भी शामिल हैं।
    • वन अधिकार अधिनियम का कार्यान्वयन और वन धन योजना जैसी हाल की पहलें वन-आधारित आजीविका को संवहनीय रूप से बढ़ाने का लक्ष्य रखती हैं।
    • मध्य प्रदेश राज्य के तेंदू पत्ता संग्रहण जैसे कार्यक्रमों की सफलता, जिससे जनजातीय लोगों को लाभ मिला है, कुशलता से प्रबंधित वनों की आर्थिक क्षमता को परिलक्षित करती है।
  • पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ: वन आवश्यक पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ (Ecosystem Services) प्रदान करते हैं (जिनका मूल्य कई खरब रुपए वार्षिक है), जिनमें वायु शोधन, मृदा संरक्षण एवं परागण जैसी सेवाएँ शामिल हैं।
    • जैसा कि ‘द इकोनॉमिक्स ऑफ इकोसिस्टम्स एंड बायोडाइवर्सिटी’ (The Economics of Ecosystems and Biodiversity- TEEB) पहल में देखा गया है, इन सेवाओं के महत्त्व पर हाल ही में दिया गया बल वन प्रबंधन नीतियों को नया रूप प्रदान कर रहा है।
  • सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व: भारत में कई समुदायों के लिये वनों का गहरा सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक महत्त्व है, जो पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों और प्रथाओं को समर्थन प्रदान करते हैं।
    • जैविक विविधता अधिनियम (Biological Diversity Act) के तहत पवित्र उपवनों को मान्यता दिये जाने से सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इन वन क्षेत्रों की सुरक्षा सुदृढ़ हुई है।
    • नीलगिरी बायोस्फीयर रिज़र्व में पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान के दस्तावेज़ीकरण जैसी पहलों ने सांस्कृतिक संरक्षण और वन संरक्षण के अंतर्संबंध को रेखांकित किया है।

भारत में वन क्षेत्रों के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियाँ:

  • निर्वनीकरण और वन क्षरण: संरक्षण प्रयासों के बावजूद, भारत में विकास परियोजनाओं, खनन गतिविधियों और कृषि विस्तार के कारण वन क्षेत्र में लगातार कमी आ रही है।
    • भारतीय वन सर्वेक्षण रिपोर्ट 2021 से पता चला है कि भारत का मध्यम सघन वन क्षेत्र 1,582 वर्ग किमी कम हो गया है।
    • मुंबई मेट्रो के लिये आरे में वन की कटाई और मध्य प्रदेश के बक्सवाहा वन में हीरा खनन जैसे हाल के विवाद विकास एवं संरक्षण के बीच जारी संघर्ष को उजागर करते हैं।
    • विवादास्पद केन-बेतवा नदी जोड़ने परियोजना, जिसके कारण पन्ना बाघ अभ्यारण्य के एक भाग सहित 6,017 हेक्टेयर वन भूमि जलमग्न हो जाएगी, इसी संघर्ष का प्रतीक है।
  • मानव-वन्यजीव संघर्ष: जैसे-जैसे वन पर्यावास संकुचित और खंडित होते जा रहे हैं, मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाओं में व्यापक वृद्धि हुई है।
    • उदाहरण के लिये, भारत में मानव-वन्यजीव संघर्ष के कारण हर वर्ष 500 से अधिक लोग और 100 से अधिक हाथी मारे जाते हैं।
    • महाराष्ट्र जैसे राज्यों की स्थिति इस समस्या की पुष्टि करती है, जहाँ मानव बस्तियों में तेंदुए का सामना होना आम बात हो गई है।
  • वृक्षारोपण बनाम संरक्षण: वृक्षारोपण अभियान प्रायः एकल वृक्ष प्रजाति के रोपण या मोनोकल्चर को बढ़ावा देते हैं, जो जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को क्षति पहुँचा सकता है।
    • मोनोकल्चर में विभिन्न प्रकार की वनस्पति एवं जंतु प्रजातियों के पोषण के लिये आवश्यक पारिस्थितिक विविधता का अभाव होता है, जिसके परिणामस्वरूप निम्न प्रत्यास्थी पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण होता है।
    • इसके अलावा, ये अभियान प्रायः स्थानीय पर्यावरण की विशिष्ट पारिस्थितिक आवश्यकताओं की उपेक्षा करते हैं। कभी-कभी घास के मैदानों जैसे अनुपयुक्त क्षेत्रों में वृक्षारोपण किया जाता है, जो मौजूदा पर्यावासों को बाधित कर सकते हैं और वनाग्नि जैसी समस्याओं को बढ़ा सकते हैं।
    • इसके अतिरिक्त, अनेक वृक्षारोपण पहलों में रोपण के बाद पर्याप्त देखभाल एवं निगरानी का अभाव होता है, जिसके परिणामस्वरूप रोपे गए वृक्षों के बचे रहने की दर निम्न होती है।
  • विधायी खामियाँ और न्यायिक हस्तक्षेप: वन अधिकार अधिनियम, 1980 में हाल के संशोधनों ने भारत के वन संरक्षण ढाँचे के संबंध में एक जटिल कानूनी लड़ाई को जन्म दे दिया है।
    • प्रस्तावित परिवर्तनों का उद्देश्य वर्ष 1980 से पहले दर्ज कुछ वन भूमियों को संरक्षण से मुक्त करना है, जिससे संभावित रूप से एक विशाल क्षेत्र निर्वनीकरण के लिये उपलब्ध हो जाएगा।
    • यह कदम टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद मामला (1996) में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विपरीत है, जिसने सरकारी अभिलेखों में दर्ज सभी वनों के लिये कानूनी संरक्षण सुनिश्चित किया था।
    • आलोचकों का तर्क है कि संशोधनों में ‘प्रस्तावित’, ‘पारिस्थितिकी पर्यटन सुविधाएँ’ और ‘किसी अन्य उद्देश्य’ जैसे अस्पष्ट शब्दों का उपयोग वन पारिस्थितिकी तंत्र के प्रति दोहनकारी गतिविधियों के लिये किया जा सकता है।
    • फ़रवरी 2024 में एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया कि वह ‘वन’ (Forest) की इस व्यापक व्याख्या को तब तक बनाए रखे, जब तक कि संशोधित वन संरक्षण अधिनियम 2023 को चुनौती देने वाली याचिका पर अंतिम निर्णय नहीं दे दिया जाता।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रभाव: भारतीय वन जलवायु परिवर्तन के प्रभावों—जिनमें वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन, वनाग्नि की घटनाओं में वृद्धि और कीटों का प्रकोप शामिल है, के प्रति तेज़ी से संवेदनशील होते जा रहे हैं।
    • उत्तराखंड में वर्ष 2024 में सामने आई वनाग्नि की घटना इस बढ़ते खतरे का उदाहरण है।
    • यद्यपि भारत ने अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions- NDCs) के अंतर्गत वनों के माध्यम से अतिरिक्त कार्बन सिंक का निर्माण करने की प्रतिबद्धता जताई है, लेकिन बदलती जलवायु परिस्थितियों के बीच इसे प्राप्त करना एक बड़ी चुनौती है।
    • वनाग्नि पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (2018) जैसी हालिया पहलों का उद्देश्य इन मुद्दों का समाधान करना है, लेकिन इसका कार्यान्वयन एक चुनौती बनी हुई है।
  • आक्रामक प्रजातियाँ और जैव विविधता की हानि: आक्रामक प्रजातियों के प्रसार से कई भारतीय वनों में मूल जैव विविधता को खतरा पहुँच रहा है।
    • उदाहरण के लिये, पश्चिमी घाटों में लैंटाना घास (Lantana camara) और मुदुमलाई टाइगर रिज़र्व में सेन्ना स्पेक्टेबिलिस (Senna spectabilis) के तीव्र प्रसार के कारण पारिस्थितिकी तंत्र की गतिशीलता में परिवर्तन आ रहा है।
    • हाल के अध्ययनों से पता चला है कि आक्रामक प्रजातियों के कारण देशी घास के मैदानों में कमी आई है, जो इस मुद्दे की गंभीरता को प्रकट करती है।
  • वित्तपोषण एवं संसाधन आवंटन का मुद्दा: वनों के अत्यंत महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद वन संरक्षण एवं प्रबंधन के लिये प्रायः वित्तपोषण की कमी पाई जाती है।
    • वनरोपण के लिये प्रतिपूरक वनरोपण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (CAMPA) की निधियों को कम उपयोग और गलत आवंटन के मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है।
  • सिकुड़ते वन गलियारे: वन्यजीवों की आवाजाही और आनुवंशिक विविधता के लिये महत्त्वपूर्ण वन्यजीव गलियारे तेज़ी से लुप्त हो रहे हैं।
    • असम में काज़ीरंगा-कार्बी आंगलोंग गलियारा, जो हाथियों के प्रवास के लिये महत्त्वपूर्ण है, अतिक्रमण और अवसंरचनात्मक विकास के कारण सिकुड़ रहा है।
    • इसी प्रकार, मध्य भारत में कान्हा-पेंच गलियारा विखंडन का सामना कर रहा है, जिससे बाघों की आबादी खतरे में है।
    • ये लुप्त हो रहे संपर्क गलियारे न केवल जंतु आबादी को अलग-थलग कर रहे हैं, बल्कि मानव-वन्यजीव संघर्ष को भी तीव्र कर रहे हैं।

भारत में वन संरक्षण को बढ़ाने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?

  • एकीकृत भूदृश्य प्रबंधन दृष्टिकोण: एक समग्र भूदृश्य-स्तरीय संरक्षण रणनीति लागू किया जाए जो संरक्षित क्षेत्र की सीमाओं तक ही सीमित न हो।
    • इस दृष्टिकोण में वन संरक्षण को आसपास के क्षेत्रों में सतत भूमि उपयोग अभ्यासों के साथ एकीकृत किया जाना चाहिए।
    • उदाहरण के लिये, भारत और नेपाल में विस्तृत तराई आर्क लैंडस्केप (Terai Arc Landscape- TAL) पहल ने स्थानीय आजीविका आवश्यकताओं को संबोधित करते हुए विखंडित पर्यावासों को जोड़ने में सफलता दिखाई है।
    • पूरे भारत में ऐसे मॉडलों को बढ़ावा देने से पारिस्थितिकी संपर्क बनाए रखने और मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने में मदद मिल सकती है।
  • वन निगरानी में तकनीकी एकीकरण: रियल-टाइम वन निगरानी और प्रबंधन के लिये उन्नत तकनीकों का लाभ उठाया जाए। वनाग्नि, अवैध कटाई और अतिक्रमण का शीघ्र पता लगाने के लिये रिमोट सेंसिंग, ड्रोन और AI-संचालित प्रणालियों का एक राष्ट्रव्यापी नेटवर्क विकसित किया जाए।
    • भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा वन क्षेत्र आकलन के लिये हाई-रिजोल्यूशन उपग्रह चित्रों का उपयोग करना सही दिशा में उठाया गया कदम है।
      • वन्यजीव ट्रैकिंग और पर्यावास स्वास्थ्य निगरानी के लिये IoT सेंसर को भी शामिल कर लेने से संरक्षण प्रयासों में व्यापक वृद्धि हो सकती है।
  • समुदाय-केंद्रित संरक्षण मॉडल: उत्तराखंड में वन पंचायतों और वन अधिकार अधिनियम के तहत सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों जैसे सफल सामुदायिक वन प्रबंधन मॉडल को सुदृढ़ किया जाए तथा उनका विस्तार किया जाए।
    • इन मॉडलों ने वन पुनर्जनन और जैव विविधता संरक्षण में उल्लेखनीय सफलता दिखाई है।
    • उदाहरण के लिये, महाराष्ट्र के मेंधा लेखा गाँव ने 1,800 हेक्टेयर वन क्षेत्र का प्रभावी प्रबंधन किया है, जिससे वन क्षेत्र और स्थानीय आय में वृद्धि हुई है।
      • उचित नीति समर्थन के साथ ऐसे मॉडलों को दोहराने से अधिक प्रभावी एवं सतत वन संरक्षण किया जा सकता है।
  • हरित वित्त और बाज़ार-आधारित संरक्षण तंत्र: वन संरक्षण को समर्थन देने के लिये नवोन्मेषी वित्तपोषण तंत्र विकसित किया जाए।
    • पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिये भुगतान (PES) योजनाओं को बड़े पैमाने पर लागू किया जाए, जहाँ वन सेवाओं के लाभार्थी इसके रखरखाव के लिये भुगतान करते हैं।
    • इसके अतिरिक्त, वन संरक्षण और पुनर्स्थापन परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिये कार्बन क्रेडिट बाज़ार और ग्रीन बॉण्ड की संभावना पर विचार किया जाए।
  • शहरी वानिकी और हरित अवसंरचना: व्यापक शहरी वानिकी कार्यक्रम विकसित किये जाएँ जो वृक्षारोपण तक सीमित नहीं रहते हुए कार्यात्मक शहरी पारिस्थितिकी तंत्र के सृजन में योगदान करें।
    • इसमें शहरी जैव विविधता पार्कों, हरित गलियारों आदि का निर्माण करना तथा शहरी योजना-निर्माण में प्रकृति-आधारित समाधानों का एकीकरण करना शामिल होना चाहिए।
    • पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और जैव विविधता को बहाल करने में दिल्ली के यमुना जैव विविधता पार्क की सफलता एक मॉडल के रूप में कार्य कर सकती है।
  • वन प्रशासन को सुदृढ़ करना और क्षमता निर्माण: व्यापक क्षमता निर्माण कार्यक्रमों के माध्यम से वन विभागों का आधुनिकीकरण किया जाए।
    • यह वन कर्मचारियों को नई प्रौद्योगिकियों में प्रशिक्षित करने, सामुदायिक सहभागिता कौशल और संरक्षण के लिये अंतःविषयक दृष्टिकोण पर केंद्रित होना चाहिए।
  • संवहनीय वन-आधारित आजीविका: वनों के विनाशकारी उपयोग पर निर्भरता को कम करने के लिये संवहनीय एवं वन-आधारित आजीविका विकल्पों का विकास और संवर्द्धन किया जाए।
    • इसमें वन धन योजना जैसे सफल मॉडलों को गैर-लकड़ी वनोपज के लिये विस्तारित करना और स्थानीय समुदायों द्वारा प्रबंधित पारिस्थितिकी पर्यटन पहल को बढ़ावा देना शामिल हो सकता है।
    • पेरियार टाइगर रिज़र्व की पारिस्थितिकी विकास समितियाँ, जिन्होंने वन संरक्षण को सामुदायिक आजीविका के साथ सफलतापूर्वक एकीकृत किया है, अनुकरण के लिये एक मॉडल के रूप में कार्य कर सकती हैं।
  • क्षरित वनों और पारिस्थितिकी गलियारों की पुनर्बहाली: क्षरित वनों और महत्त्वपूर्ण वन्यजीव गलियारों की पारिस्थितिकी पुनर्बहाली के लिये एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम शुरू किया जाए। इसमें पारंपरिक वृक्षारोपण से आगे बढ़कर सहायता-प्राप्त प्राकृतिक पुनर्जनन और पारिस्थितिकी तंत्र-आधारित दृष्टिकोण शामिल होने चाहिए।
    • गुरुग्राम में अरावली जैव विविधता पार्क, जिसे एक खनन बंजर भूमि से एक समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र में सफलतापूर्वक पुनर्स्थापित किया गया है, ऐसे उपायों की क्षमता को दर्शाता है।
    • प्रमुख गलियारों की पहचान और उनकी पुनर्बहाली से भूदृश्य-स्तर के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हो सकती है।
  • संरक्षण बढ़ाने के लिये कानूनी और नीतिगत सुधार: मौजूदा कानूनों की खामियों को दूर कर और सख्त कार्यान्वयन सुनिश्चित कर वन संरक्षण के लिये कानूनी ढाँचे को सुदृढ़ किया जाए।
    • इसमें वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन कर वन भूमि की स्पष्ट परिभाषा प्रदान करना तथा पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने की प्रक्रिया को सरल बनाना शामिल है।
    • इसके अतिरिक्त, वन्यजीव गलियारों पर एक व्यापक राष्ट्रीय नीति विकसित की जाए, ताकि संरक्षित वनों के बाहर के उन क्षेत्रों को भी कानूनी संरक्षण प्रदान किया जा सके जो वन्यजीवों की आवाजाही के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
  • वनों की पुनर्बहाली के लिये स्वदेशी बीज बैंक: स्थानीय जैव विविधता को संरक्षित करने और वन पुनर्बहाली प्रयासों को समर्थन देने के लिये समुदाय-प्रबंधित स्वदेशी बीज बैंकों का एक नेटवर्क स्थापित किया जाए।
    • ये बैंक स्थानीय प्रजातियों के बीजों को एकत्रित, संग्रहित और वितरित कर सकते हैं, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि पुनर्वनीकरण प्रयासों में स्थानीय आनुवंशिक विविधता बनी रहे।
    • महाराष्ट्र के ‘वृक्षमित्र’ जैसे सफल मॉडल को भारत में विभिन्न प्रकार के वनों में अपनाया जा सकता है।
  • दुर्गम क्षेत्रों के लिये ड्रोन-सीडिंग: दुर्गम या क्षीण वन क्षेत्रों में बीज प्रसरण के लिये ड्रोन प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाए।
    • यह विधि विशेष रूप से मैंग्रोव वनों की पुनर्बहाली या खड़ी ढाल वाली पहाड़ियों पर पुनः वनस्पति उगाने के लिये प्रभावी सिद्ध हो सकती है।
  • वनाग्नि से निपटना: वनाग्नि से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाया जाना आवश्यक है। खर-पतवार का नियंत्रित दहन, संवेदनशील क्षेत्रों के आसपास अग्नि-रोध का निर्माण और समुदायों को वन के उत्तरदायी उपयोग के बारे में शिक्षित करना आवश्यक है।
    • वनाग्नि का शीघ्र पता लगाने के लिये निगरानी टावरों और उन्नत प्रौद्योगिकी के उपयोग से इन घटनाओं को रोकने में मदद मिल सकती है।
    • इसके अतिरिक्त, त्वरित प्रतिक्रिया क्षमताओं और विशेष प्रशिक्षण के साथ सुसज्जित अग्निशमन दलों में निवेश करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • इसके साथ ही, वृहतस्तरीय वनाग्नि की घटना के दौरान ज्ञान साझेदारी और संसाधनों की तैनाती के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने से इस पर्यावरणीय खतरे के प्रति हमारी सामूहिक प्रतिक्रिया में उल्लेखनीय सुधार हो सकता है।

अभ्यास प्रश्न: भारत में वन संरक्षण की एक रणनीति के रूप में वृहत-स्तरीय वृक्षारोपण अभियानों से संबद्ध चुनौतियों और इसकी सीमाओं की चर्चा कीजिये। उन वैकल्पिक दृष्टिकोणों के सुझाव दीजिये जो सतत वन प्रबंधन और जैव विविधता संरक्षण सुनिश्चित करते हुए इन चुनौतियों का प्रभावी ढंग से समाधान कर सकें।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये कौन-सा मंत्रालय नोडल एजेंसी है?

(a) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय
(b) पंचायती राज मंत्रालय
(c) ग्रामीण विकास मंत्रालय
(d) जनजातीय मामलों का मंत्रालय

उत्तर: (d)


प्रश्न. भारत में एक विशेष राज्य में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं: (वर्ष 2012)

  1. यह उसी अक्षांश पर स्थित है जो उत्तरी राजस्थान से होकर गुज़रती है।
  2.  इसका 80% से अधिक क्षेत्र वन आच्छादित है।  
  3. इस राज्य में 12% से अधिक वन क्षेत्र संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क का गठन करता है।

निम्नलिखित में से किस राज्य में उपरोक्त सभी विशेषताएँ हैं? 

 (A) अरुणाचल प्रदेश
 (B) असम
 (C) हिमाचल प्रदेश
 (D) उत्तराखंड

 उत्तर: (A)


मेन्स: 

प्रश्न. "भारत में आधुनिक कानून की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पर्यावरणीय समस्याओं का संविधानीकरण है।" सुसंगत वाद विधियों की सहायता से इस कथन की विवेचना कीजिये। (150 शब्दों में उत्तर दीजिये)

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