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कृषि

कुपोषण और महामारी

  • 25 Nov 2020
  • 14 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में देश में COVID-19 महामारी के कारण देश में उत्पन्न हुई खाद्य असुरक्षा की चुनौती व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ: 

हाल के वर्षों में जब भारत पहले से ही भुखमरी और कुपोषण की चुनौती से निपटने का प्रयास कर रहा है, ऐसे समय में COVID-19 महामारी तथा इसके नियंत्रण हेतु लागू देशव्यापी लॉकडाउन ने इस संकट को और अधिक बढ़ा दिया है। इस महामारी के कारण उत्पन्न हुई चुनौतियों ने समाज में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को सबसे अधिक प्रभावित किया है। इस महामारी के दुष्प्रभावों से निपटने के लिये केंद्र सरकार द्वारा प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना और आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत कुछ राहत पैकेज की घोषणा की गई। हालाँकि कई अध्ययनों में लोगों की चुनौतियों को कम करने में सरकार के इन प्रयासों को अपर्याप्त बताया गया है, साथ ही एक बड़ी समस्या यह भी है कि प्रधानमंत्री गरीब गरीब कल्याण योजना की अवधि 30 नवंबर, 2020 को समाप्त हो जाएगी परंतु अभी तक इस योजना को आगे भी जारी रखने के संदर्भ में कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गई है। गौरतलब है कि वर्तमान परिस्थिति से बाहर निकलने के लिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) का सार्वभौमीकरण एक उपयुक्त विकल्प हो सकता है। 

खाद्यान्न असुरक्षा: 

  • खाद्यान्न असुरक्षा से आशय धन अथवा अन्य संसाधनों के अभाव में पौष्टिक एवं पर्याप्त भोजन तक अनियमित पहुँच से है। खाद्य संकट के दौरान लोगों को भुखमरी का सामना करना पड़ता है।
  • खाद्यान्न संकट या असुरक्षा को सामान्यतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
  1. मध्यम स्तरीय खाद्य असुरक्षा (Moderate Food Insecurity): इसका अभिप्राय उस स्थिति से है जिसमें लोगों को कभी-कभी खाद्य की अनियमित उपलब्धता का सामना करना पड़ता है और उन्हें भोजन की मात्रा एवं गुणवत्ता के साथ भी समझौता करना पड़ता है।
  2. गंभीर खाद्य असुरक्षा (Severe Food Insecurity): इसका अभिप्राय उस स्थिति से है जिसमें लोग कई दिनों तक भोजन से वंचित रहते हैं और उन्हें पौष्टिक एवं पर्याप्त आहार उपलब्ध नहीं हो पाता है।
  • खाद्य असुरक्षा की समीक्षा दो मानकों के आधार पर की जाती है। 
  1. अल्पपोषण की व्यापकता (Prevalence of Undernourishment- PoU)  
  2. मध्यम और गंभीर खाद्य असुरक्षा की व्यापकता (Prevalence of Moderate and Severe Food Insecurity- PMSFI) 
  • गौरतलब है कि PoU के तहत किसी देश की आबादी में लंबे समय से पोषक तत्त्वों की कमी पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, वहीं PMSFI पर्याप्त और पौष्टिक भोजन की पहुँच की कमी को मापने का एक व्यापक माध्यम है। 

भारत में खाद्यान्न संकट और कुपोषण की स्थिति:

  • खाद्य और कृषि संगठन के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2014-16 के बीच भारत की लगभग 27.6% आबादी को मध्यम अथवा गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना करना बड़ा, जबकि वर्ष 2017-19 के बीच ऐसे लोगों का अनुपात बढ़कर 31.6% तक पहुँच गया।  
  • वर्ष 2014-16 के बीच भारत में खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे 42.65 करोड़ लोगों की संख्या वर्ष 2017-19 के बीच बढ़कर 48.86 करोड़ तक पहुँच गई।  
  • वर्ष 2017-19 के बीच खाद्य असुरक्षा का सामना कर रही कुल वैश्विक आबादी में से 22% लोग भारत से थे।

COVID-19 महामारी और भुखमरी:

  • हालाँकि वर्तमान में देश में खाद्य संकट की स्थिति में काफी सुधार हुआ है परंतु अभी भी यह लॉकडाउन से पहले की तुलना में काफी खराब है। भुखमरी की समस्या आय स्तर के अंतर के बावजूद समाज में व्यापक स्तर पर जारी है। 
  • लॉकडाउन के दौरान जिन लोगों के पास आय का कोई स्रोत नहीं था, उनमें से लगभग 87% लोगों अभी भी बेरोज़गारी का सामना कर रहे हैं।     
    • आय में कमी और खाद्यान्न अनुपलब्धता के कारण लोगों की खाद्य सुरक्षा (विशेषकर आर्थिक रूप से कमज़ोर और समाज के निचले तबके के लोग) प्रभावित हुई है। 
  • वर्ष 2011 के राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के आधार पर हाल ही ‘फूड पॉलिसी’ नामक पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, ग्रामीण भारत में 63-76% लोग पौष्टिक आहार नहीं ले पाते हैं।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS):

  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली, केंद्रीय उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के तहत स्थापित एक भारतीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली है, यह प्रणाली सस्ती दरों पर खाद्यान्न वितरण के माध्यम से खाद्य सुरक्षा के प्रबंधन के लिये उत्तरदायी है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुड़ी चुनौतियाँ:

  • पुराना जनसांख्यिकीय डेटाबेस: वर्तमान में सार्वजनिक खाद्य वितरण प्रणाली के तहत खाद्यान्न प्राप्त करने के लिये लोगों की पात्रता के निर्धारण के लिये वर्ष 2011 की जनगणना के आँकड़ों को आधार के रूप में प्रयोग किया जाता है, जो कि लगभग 9 वर्ष पुराना है।   
    • वर्ष 2011 के बाद से भारत के जनसांख्यिकीय परिदृश्य में काफी बदलाव हुआ है, वर्ष 2011 की जनगणना के दौरान रही जनसंख्या वृद्धि की दर के आधार पर वर्ष 2020 में देश की आबादी 1.35 बिलियन होनी चाहिये।
  • सीमित पहुँच: हाल के वर्ष कई राज्य सरकारों द्वारा लोगों को नए राशनकार्ड जारी करने के प्रति अनिच्छा व्यक्त की गई है। इसका एक कारण यह है कि ऐसे अधिकांश राज्य पहले ही अपना कोटा पहले ही समाप्त कर चुके हैं, जिसे खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लागू होने के बाद से अब तक बढ़ाया नहीं गया है। उदाहरण के लिये झारखंड सरकार द्वारा कई वर्षों पहले ही नए राशन कार्डों को जारी करना बंद कर दिया गया था। 
  • समावेशन और बहिष्करण त्रुटियाँ: सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत पात्र परिवारों की पहचान में होने वाली त्रुटियाँ इस प्रणाली की सफलता में एक बड़ी बाधा है, कई अध्ययनों के अनुसार, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में परिवारों के बहिष्करण की 61% त्रुटियाँ और समावेशन के मामले में 25% त्रुटियाँ देखी गई हैं।
  • अकुशल वितरण प्रणाली: वितरण प्रक्रिया के लिये खाद्यान्न की खरीद से लेकर पात्र लोगों तक पहुँचने के दौरान (जैसे-भंडारण, परिवहन आदि) में होने वाले नुकसान के साथ भ्रष्टाचार के कारण खाद्यान्न की चोरी को रोक पाना भी एक बड़ी चुनौती रही है।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013:

  • ‘राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013’ को 5 जुलाई, 2013 को अधिसूचित किया गया था।
  • इसके तहत ‘लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (Targeted Public Distribution System- TPDS) के अंतर्गत सब्सिडी युक्त खाद्यान्न प्राप्त करने के लिये 75%ग्रामीण आबादी और 50% शहरी आबादी के कवरेज़ का प्रावधान है।
  • इस अधिनियम के तहत राशन कार्ड जारी करने के लिये किसी परिवार की 18 वर्ष से अधिक सबसे वरिष्ठ महिला को परिवार के मुखिया के रूप में माना जाता है। 

आगे की राह: 

  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सार्वभौमीकरण:  आबादी के सिर्फ कुछ ही प्रतिशत लोगों के बजाय सभी परिवारों को पीडीएस के तहत एक लाभार्थी बनाकर अधिक-से-अधिक लोगों के लिये खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सकता है।
    • सार्वभौमीकरण के माध्यम खाद्य वितरण प्रणाली में अंडर कवरेज़, समावेशन और बहिष्करण की त्रुटियों जैसी चुनौतियों से निपटने में सहायता प्राप्त होगी।
  • सामुदायिक रसोइयाँ या कम्युनिटी किचन: खाद्य वितरण प्रणाली के सार्वभौमीकरण के साथ सरकार द्वारा शहरी क्षेत्रों में कम्युनिटी किचन की स्थापना का प्रयास किया जाना चाहिये। गौरतलब है कि शहरी क्षेत्रों में ऐसे बहुत से लोग है जो संसाधनों की कमी या अन्य कारणों से भोजन पकाने में असमर्थ हैं।
    • इस प्रयास के माध्यम से प्रवासी या असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों,  बेघर और निराश्रित आबादी के लिये पोषक तत्त्वों से युक्त पके हुए भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकेगी।
  • कार्यक्रमों का प्रभावी कार्यान्वयन: एक अध्ययन के अनुसार, उच्चतम न्यायालय द्वारा COVID-19 महामारी के दौरान स्कूली भोजन जारी रखने के आदेश के 6 माह बाद भी देश में आंगनबाड़ी में पंजीकृत आधे से भी कम (47%) बच्चों तथा केवल दो-तिहाई (लगभग 63%) स्कूली बच्चों को भोजन के बदले सूखा अनाज और/या नकद सहायता उपलब्ध हो सका है।
  • एक राष्ट्र एक राशनकार्ड योजना (ONORC):  एक राष्ट्र एक राशनकार्ड योजना के माध्यम से लाभार्थी देश के किसी भी हिस्से में रहते हुए सब्सिडीयुक्त खाद्यान्न प्राप्त करने में सक्षम होंगे, जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सार्वभौमीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली की कार्यप्रणाली को अधिक प्रभावी बनाने के लिये इसमें सुधार से संबंधित शांता कुमार समिति की सिफारिश को लागू करने पर विचार किया जाना चाहिये।

निष्कर्ष:

COVID-19 महामारी के कारण आर्थिक क्षेत्र में आई गिरावट से उबरने और अर्थव्यवस्था को पुन गति प्रदान करने में काफी समय लग सकता है, परंतु इस दौरान देश में खाद्यान्न की कमी तथा भुखमरी जैसी चुनौतियों से निपटने के लिये अतिरिक्त सहयोग की आवश्यकता होगी ऐसे में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सार्वभौमीकरण को लागू करने का इससे बेहतर मौका नहीं हो सकता इसके साथ ही बाज़ार में मांग की कमी को दूर करने के लिये शहरी रोज़गार कार्यक्रमों के साथ महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को मज़बूत किया जाना बहुत ही आवश्यक है।

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अभ्यास प्रश्न: सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सार्वभौमीकरणदेश में खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने का एक विकल्प हो सकता है। तर्क सहित इस कथन की समीक्षा कीजिये।

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