भारत में जल प्रबंधन को प्रभावी बनाना | 06 Dec 2024
यह संपादकीय 05/12/2024 को द हिंदू बिज़नेस लाइन में प्रकाशित “A holistic approach to water conservation” पर आधारित है। इस लेख में भारत के जल संसाधनों की गंभीर कमी और असमान वितरण का उल्लेख किया गया है तथा उन असंधारणीय प्रथाओं पर प्रकाश डाला गया है जो वर्ष 2050 तक गंभीर जल कमी का कारण बन सकती हैं। यह सतत् विकास सुनिश्चित करने के लिये संरक्षण, कुशल उपयोग और सूक्ष्म सिंचाई एवं जल पुनर्चक्रण जैसी परिवर्तनकारी रणनीतियों में तत्काल सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
प्रिलिम्स के लिये:भारत के जल संसाधन, संविधान का अनुच्छेद 21, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986, अंतर-राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956, राष्ट्रीय जल नीति, जल जीवन मिशन, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, भूजल स्तर, कावेरी जल विवाद, जल गुणवत्ता सूचकांक मेन्स के लिये:भारत में जल प्रबंधन की वर्तमान रूपरेखा, भारत में जल प्रबंधन से संबंधित प्रमुख मुद्दे। |
भारत के जल संसाधन गंभीर दबाव में हैं, सीमित आपूर्ति और असमान वितरण भविष्य की आर्थिक एवं पारिस्थितिक स्थिरता को खतरे में डाल रहा है। वर्तमान जल प्रबंधन रणनीतियाँ, जो भूजल निष्कर्षण और बड़े बांध निर्माण पर बहुत अधिक निर्भर हैं, अस्थिर सिद्ध हो रही हैं, 54% भू-जल कूपों में कमी आ रही है और 78% मानसून वर्षा जल बिना उपयोग के समुद्र में व्यर्थ प्रवाहित हो रहा है। देश को वर्ष 2050 तक जल की भारी कमी का सामना करना पड़ेगा, जहाँ कुल जल खपत उपलब्ध आपूर्ति से अधिक होने का अनुमान है, जिससे व्यापक मांग-पक्ष प्रबंधन और जल संरक्षण की दिशा में तत्काल बदलाव की आवश्यकता है।
भारत में जल प्रबंधन के लिये वर्तमान रूपरेखा क्या है?
- संवैधानिक प्रावधान
- राज्य सूची: जल मुख्य रूप से राज्य का विषय है (सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 17), जो राज्यों को जल आपूर्ति, सिंचाई, नहरों और जल निकासी पर कानून बनाने की अनुमति देता है।
- संघ सूची: केंद्र का अंतर-राज्यीय नदियों और नदी घाटियों पर अधिकार क्षेत्र है (प्रविष्टि 56, सूची I)।
- संविधान का अनुच्छेद 21 अप्रत्यक्ष रूप से जल के अधिकार को जीवन के अधिकार के एक भाग के रूप में मान्यता देता है।
- विधायी संरचना
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986: जल प्रदूषण को नियंत्रित करता है और जल-गहन परियोजनाओं के लिये पर्यावरणीय मंज़ूरी अनिवार्य करता है।
- जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974: जल गुणवत्ता मानक स्थापित करता है और प्रदूषण पर दंड का प्रावधान करता है।
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (SPCB) की स्थापना का प्रावधान करता है।
- अंतर-राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956: यह न्यायाधिकरणों के माध्यम से अंतर-राज्यीय नदी जल साझाकरण से संबंधित विवादों के समाधान की सुविधा प्रदान करता है।
- संस्थागत तंत्र
- जल शक्ति मंत्रालय: जल संसाधन और पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालयों को मिलाकर बनाया गया है। यह जल संसाधन कार्यक्रमों की योजना और कार्यान्वयन की देखरेख करता है।
- केंद्रीय जल आयोग (CWC): जल संसाधन विकास और बाढ़ पूर्वानुमान का प्रबंधन करता है।
- केंद्रीय भू-जल बोर्ड (CGWB): भूजल संसाधनों की निगरानी और विनियमन करता है।
- प्रमुख नीतियां और कार्यक्रम
- राष्ट्रीय जल नीति (2012): इसके तहत संधारणीय और एकीकृत जल संसाधन का प्रबंधन किया।
- मांग प्रबंधन, जल मूल्य निर्धारण और सामुदायिक भागीदारी पर बल दिया गया।
- जल शक्ति अभियान: वर्षा जल संचयन, जल संरक्षण और जल निकायों के पुनरुद्धार पर केंद्रित।
- तीव्र जल संकट से जूझ रहे ज़िलों को लक्ष्य बनाया गया है।
- जल जीवन मिशन: इसका उद्देश्य सभी ग्रामीण परिवारों को कार्यात्मक घरेलू नल कनेक्शन उपलब्ध कराना है।
- अटल भूजल योजना: सामुदायिक भागीदारी और मांग-पक्ष हस्तक्षेप के माध्यम से भू-जल प्रबंधन पर केंद्रित।
- प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY): "प्रति बूंद अधिक फसल" के नारे के साथ कृषि में जल के कुशल उपयोग को बढ़ावा देती है।
- राष्ट्रीय जल नीति (2012): इसके तहत संधारणीय और एकीकृत जल संसाधन का प्रबंधन किया।
भारत में जल प्रबंधन से संबंधित प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
- भूजल का अत्यधिक दोहन: मुख्यतः सिंचाई और घरेलू आवश्यकताओं के लिये के कारण भारत के भूजल संसाधनों का अनियंत्रित दोहन हो रहा है।
- किसानों को निशुल्क विद्युत उपलब्ध कराने तथा सतही जल संचयन प्रणालियों की अपर्याप्तता के कारण यह अति-निर्भरता और भी बढ़ जाती है, जिसके कारण जलभृतों में गंभीर गिरावट आती है।
- निगरानी किये गये 70% कूपों में भूजल स्तर में उल्लेखनीय कमी देखी गयी है तथा पंजाब में यह गिरावट प्रतिवर्ष 0.49 मीटर की खतरनाक दर से हो रही है।
- यह देखते हुए कि भूजल 62% सिंचाई और 85% ग्रामीण पेयजल की पूर्ति करता है, इसका क्षरण जल सुरक्षा के लिये एक भयावह खतरा उत्पन्न करता है।
- कृषि में जल का अकुशल उपयोग: भारत में लगभग 80% जल का उपभोग कृषि में किया जाता है, बाढ़ सिंचाई जैसी अकुशल सिंचाई पद्धतियाँ तथा गन्ना और धान जैसी अधिक जल खपत वाली फसलों की खेती जल संकट को बढ़ाती है।
- महाराष्ट्र और पंजाब जैसे राज्य सूखाग्रस्त होने के बावजूद, पर्याप्त विविधीकरण के बिना इन फसलों की खेती जारी रखे हुए हैं।
- उदाहरण के लिये, महाराष्ट्र में लगभग 4% कृषि भूमि पर गन्ना उगाया जाता है, लेकिन इसमें कूपों सहित 71.5% सिंचित जल का उपयोग होता है।
- शहरी जल कुप्रबंधन: तीव्र शहरीकरण ने जल अवसंरचना को पीछे छोड़ दिया है, जिसके परिणामस्वरूप आपूर्ति-मांग में असंतुलन उत्पन्न हो गया है और टैंकर के जल पर निर्भरता बढ़ गई है।
- निम्न स्तरीय शहरी नियोजन के कारण भूजल पुनर्भरण में कमी आई है, जबकि अनुपचारित मलजल शहरी जल निकायों को और अधिक प्रदूषित कर रहा है।
- बंगलुरू 30-40 वर्षों के सबसे गंभीरतम अनावृष्टि के कारण गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है, IISc के एक अध्ययन के अनुसार शहर के जल विस्तार क्षेत्र में 70% की गिरावट आई है, जिससे शहर कावेरी के जल पर बहुत अधिक निर्भर हो गया है।
- जल प्रदूषण: औद्योगिक अपशिष्टों, अनुपचारित सीवेज और कृषि अपवाह के कारण भारत की नदियाँ एवं झीलें विषाक्त जलाशयों में तब्दील हो रही हैं। प्रदूषण नियंत्रण कानूनों के कमज़ोर क्रियान्वयन से समस्या और भी गंभीर हो गई है।
- व्यापक सफाई प्रयासों के बावजूद, अधिकांश अंतर-राज्यीय सीमाओं पर गंगा नदी का फेकल कोलीफॉर्म स्तर स्वीकार्य स्तर से 3 से 12 गुना अधिक पाया जाता है।
- CPCB ने 351 प्रदूषित नदी खंडों की पहचान की है, जिनमें यमुना सबसे अधिक प्रभावित है, जहाँ दिल्ली का 80% से अधिक अनुपचारित सीवेज जल प्रवाहित होता है।
- जलवायु परिवर्तन और परिवर्तनशीलता: जलवायु परिवर्तन बाढ़ और सूखे जैसी जल-संबंधी आपदाओं को तीव्र कर रहा है, जिससे जल की उपलब्धता अस्थिर हो रही है।
- हिमालय में अनियमित मानसून पैटर्न और बढ़ती हिमनद पिघलन से मौसमी जल संकट बढ़ता है।
- वर्ष 1997 के बाद से भारत के सूखाग्रस्त क्षेत्र में 57% की वृद्धि हुई है, जबकि वर्ष 2012 के बाद से भारी वर्षा की घटनाओं में लगभग 85% की वृद्धि हुई है।
- ISRO के अध्ययन से पता चलता है कि हिमालय के लगभग 75% ग्लेशियर खतरनाक दर से पीछे हट रहे हैं।
- अंतर-राज्यीय जल विवाद: नदी जल आवंटन पर संघर्ष सहकारी जल प्रबंधन को बाधित करते हैं और क्षेत्रीय तनाव को बढ़ाते हैं।
- ये विवाद प्रायः पारदर्शी डेटा-साझाकरण और प्रभावी संस्थागत तंत्र की कमी के कारण उत्पन्न होते हैं।
- कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल विवाद बढ़ सकता है।
- अपशिष्ट जल पुनर्चक्रण पर अपर्याप्त ध्यान: भारत के अपशिष्ट जल पुनर्चक्रण प्रयास अपर्याप्त हैं, जिसके कारण एक मूल्यवान संसाधन की बर्बादी हो रही है, जिसका कृषि या उद्योग के लिये पुनः उपयोग किया जा सकता है।
- उदाहरण के लिये, इज़रायल अपने 90% अपशिष्ट जल का पुनः उपयोग करता है, जबकि भारत में यह आँकड़ा 30% से भी कम है।
- जबकि शहरी भारत में प्रतिदिन 72,368 मिलियन लीटर (MLD) सीवेज अपशिष्ट उत्पन्न होता है, केवल 28% का ही उपचार और पुनः उपयोग किया जाता है।
- अप्रभावी जल प्रशासन: खंडित संस्थागत संरचना और अतिव्यापी अधिकार क्षेत्र समन्वित जल प्रबंधन में बाधा डालते हैं।
- नीतियाँ प्रायः अल्पकालिक चुनावी लाभ को प्राथमिकता देती हैं, चावल और गन्ना जैसी अधिक जल की खपत वाली फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रोत्साहन, निशुल्क या सब्सिडी वाली बिजली व्यवस्था के साथ मिलकर जल की कमी की चुनौतियों को बढ़ाते हैं।
- जल नीतियों के अपर्याप्त कार्यान्वयन और निम्न स्तरीय प्रशासन के कारण भारत जल गुणवत्ता सूचकांक में 120वें स्थान पर है।
- मानसून पर अत्यधिक निर्भरता: कृषि और पेयजल आपूर्ति के लिये मानसूनी वर्षा पर भारत की निर्भरता, इसे अनियमित वर्षा पैटर्न के प्रति संवेदनशील बनाती है, जो जलवायु परिवर्तन के कारण और भी बदतर होती जा रही है।
- वर्षा जल संचयन की निम्न स्तरीय अवसंरचना इस निर्भरता को और बढ़ा देती है।
- भारत के लगभग 61% किसान वर्षा आधारित कृषि पर निर्भर हैं और कुल फसल क्षेत्र का 55% भाग वर्षा आधारित कृषि के अंतर्गत है।
- जल का निजीकरण और व्यावसायीकरण: जल संसाधनों के बढ़ते निजीकरण ने असमान पहुँच उत्पन्न कर दी है, जिसके कारण गरीब समुदायों को प्रायः अधिक कीमत चुकानी पड़ती है।
- कई दूरदराज़ के क्षेत्रों में निजी जल टैंकर आपूर्ति पर हावी हैं तथा अत्यधिक दरें वसूल रहे हैं।
- उदाहरण के लिये, टैंकर माफिया मुंबई में जल के कारोबार से सालाना 8,000-10,000 करोड़ रुपए कमाता है, जिससे लोगों पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
- आर्द्रभूमि और उनकी जल धारण क्षमता का ह्रास: भारत की आर्द्रभूमियों, जो भूजल पुनर्भरण और बाढ़ शमन के लिये आवश्यक है, का शहरीकरण, कृषि एवं औद्योगिक गतिविधियों के कारण ह्रास हो रहा है।
- पिछले 30 वर्षों में भारत में लगभग प्रत्येक पाँच में से दो आर्द्रभूमियों ने अपना प्राकृतिक अस्तित्व खो दिया है, जबकि 40% जल निकायों ने जलीय जीवों के अस्तित्व के लिये गुणवत्ता खो दी है।
- उदाहरण के लिये, मणिपुर में लोकटक झील, जो एक रामसर स्थल है, के अस्तित्व में कमी आने का खतरा है।
- जल पारिस्थितिकी तंत्र पर रेत खनन का प्रभाव: नदी तल से अवैध रेत खनन प्राकृतिक जल प्रवाह को बाधित करता है, जलभृतों को नष्ट करता है, जलीय आवासों को नष्ट करता है, जिससे जल की कमी और पारिस्थितिक असंतुलन बढ़ता है।
- भारत में प्रतिवर्ष 500 मिलियन टन रेत निकाली जाती है। अत्यधिक रेत खनन के कारण यमुना नदी की जल धारण क्षमता कम हो गई है, जिससे गैर-मानसून महीनों में प्रवाह में कमी आ रही है।
उन्नत जल प्रबंधन के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं?
- भूजल विनियमन लागू करना: भारत को भूजल निष्कर्षण पर विनियमन को सुदृढ़ करना चाहिये विशेष रूप से अतिदोहित क्षेत्रों में, तथा भूजल पुनर्भरण प्रणालियों को अपनाने को बढ़ावा देना चाहिये।
- प्रभावी कार्यान्वयन समुदाय-नेतृत्व वाली पहलों और उद्योगों व कृषि के लिये अनिवार्य जल लेखापरीक्षा/ऑडिट के माध्यम से किया जा सकता है।
- पारंपरिक जल संचयन प्रणालियों को पुनर्जीवित करना: पारंपरिक जल प्रणालियों, जैसे कि बावड़ियों, टैंकों और जोहड़ों का पुनर्भरण, विशेष रूप से शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में स्थायी जल उपलब्धता सुनिश्चित करता है।
- राजस्थान के तरुण भारत संघ NGO ने राजस्थान राज्य में 11 नदियों का कायाकल्प और पुनरुद्धार किया है, जिससे भूजल पुनर्भरण में सुधार हुआ है, जो एक मॉडल के रूप में कार्य कर सकता है।
- ड्रिप और सूक्ष्म सिंचाई को बढ़ावा देना: ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणालियों को अपनाने से कृषि में जल उपयोग दक्षता 70% तक बढ़ सकती है, जिससे जल की बर्बादी कम होगी और जल संरक्षण होगा।
- गन्ने की खेती में ड्रिप सिंचाई के लिये महाराष्ट्र का अधिदेश एक आदर्श के रूप में काम कर सकता है।
- शहरी जल अवसंरचना को सुदृढ़ बनाना: शहरी जल पाइपलाइनों, रिसाव पहचान प्रणालियों और स्मार्ट मीटरिंग का आधुनिकीकरण करके गैर-राजस्व जल (NRW) ह्रास को बहुत हद तक कम किया जा सकता है।
- शहरी परियोजनाओं के लिये वर्षा जल संचयन और अपशिष्ट जल पुनर्चक्रण को अनिवार्य बनाने से जल संसाधनों में वृद्धि हो सकती है।
- उदाहरण के लिये,बंगलुरु जैसे शहर, जहाँ जलापूर्ति का एक बड़ा हिस्सा NRW के कारण नष्ट हो जाता है, सिंगापुर के स्मार्ट जल प्रबंधन मॉडल से लाभान्वित हो सकते हैं।
- जल प्रशासन को बढ़ावा देना: भारत को एक एकीकृत जल प्रशासन ढाँचे की आवश्यकता है जो जवाबदेही सुनिश्चित करने और नौकरशाही विलंब को कम करने के लिये केंद्रीय एवं राज्य नीतियों को एकीकृत करे।
- NITI आयोग का समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (CWMI) प्रदर्शन-आधारित प्रोत्साहनों के लिये एक रोडमैप प्रस्तुत करता है।
- शहरों को स्पंज शहरों में रूपांतरित करना अमृत मिशन का एक प्रमुख लक्ष्य है और इसे ईमानदारी से क्रियान्वित किया जाना चाहिये, न कि कागज़ी रूप तक ही सीमित कर छोड़ दिया जाना चाहिये।
- राष्ट्रीय जल नीति (वर्ष 2012) शासन और वित्तपोषण संबंधी समस्याओं के कारण अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर पाई है। पर्याप्त वित्तपोषण के साथ विकेंद्रीकृत जल प्रबंधन महत्त्वपूर्ण है।
- फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित करना: किसानों को धान और गन्ना जैसी अधिक जल खपत वाली फसलों के स्थान पर कदन्न, दलहन एवं तिलहन की खेती करने के लिये प्रोत्साहित करने से कृषि में जल की मांग कम हो सकती है तथा उत्पादकता में सुधार हो सकता है।
- इस बदलाव के लिये वित्तीय प्रोत्साहन और सुदृढ़ बाज़ार संबंध महत्त्वपूर्ण हैं।
- हरियाणा की ‘मेरा जल, मेरी विरासत’ योजना वैकल्पिक फसलों को बढ़ावा देती है, एक मॉडल के रूप में काम कर सकती है।
- अंतर्राष्ट्रीय कदन्न वर्ष (2023) के दौरान कदन्न को बढ़ावा देने में भारत के नेतृत्व ने इन जल-कुशल फसलों की क्षमता पर प्रकाश डाला।
- अपशिष्ट जल उपचार और पुनः उपयोग को बढ़ावा देना: अपशिष्ट जल उपचार के बुनियादी अवसंरचना में निवेश करके शहरी सीवेज को कृषि, उद्योग एवं भूनिर्माण के लिये उपयोगी जल में परिवर्तित किया जा सकता है, जो कि सर्वोच्च न्यायालय के एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ के निर्णय पर आधारित है।
- चेन्नई अपने उपचारित अपशिष्ट जल का 20% औद्योगिक अनुप्रयोगों के लिये पुनः उपयोग करता है और यह एक आदर्श के रूप में काम कर सकता है।
- जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटना: बाढ़ के मैदानों, तटबंधों और भंडारण जलाशयों जैसे जलवायु-अनुकूल बुनियादी अवसंरचना का निर्माण करके बाढ़ एवं सूखे जैसे चरम मौसमी प्रभावों को कम किया जा सकता है।
- जलग्रहण क्षेत्रों में वनरोपण से जल चक्र स्थिर होता है। असम की जलवायु अनुकूल ब्रह्मपुत्र एकीकृत बाढ़ और नदी तट अपरदन जोखिम प्रबंधन परियोजना एक मॉडल के रूप में काम कर सकती है।
- डिजिटल जल प्रबंधन का विस्तार: IoT सेंसर, सैटेलाइट इमेजरी व AI जैसी डिजिटल तकनीकें जल निगरानी को बेहतर बना सकती हैं, सिंचाई दक्षता में सुधार ला सकती हैं और रिसाव को कम कर सकती हैं। इन साधनों के माध्यम से ससमय निर्णय लेने से पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ती है।
- इज़रायल की राष्ट्रीय जल कंपनी मेकोरोट (Mekorot), AI-संचालित जल गुणवत्ता निगरानी स्थापित कर रही है, जो एक मानक स्थापित कर रही है।
- आर्द्रभूमियों का संरक्षण और पुनर्स्थापन: आर्द्रभूमियाँ प्राकृतिक जल शोधक और भंडारण प्रणालियों के रूप में कार्य करती हैं, लेकिन शहरीकरण एवं अतिक्रमण के कारण इनकी संख्या में तेज़ी कमी आ रही है।
- क्षीण हो चुकी आर्द्रभूमि का पुनर्भरण करने से जल की गुणवत्ता में सुधार हो सकता है और जलभृतों को पुन:पूरित किया जा सकता है, यह मिर्ज़ा आबिद बेग बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर आधारित है, जहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि राज्य का संवैधानिक कर्त्तव्य है कि वह न केवल राज्य के भीतर जल निकायों की रक्षा करे, बल्कि उन जल निकायों का पुनर्भरण भी करे।
- एरोबिक अपशिष्ट जल उपचार के लिये बेसिन उपलब्ध कराकर, ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स प्रतिदिन शहर के 910 मिलियन लीटर अनुपचारित सीवेज को प्राकृतिक रूप से पुनर्चक्रित करता है।
- निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करना: जल अवसंरचना में निजी क्षेत्र का निवेश, जैसे विलवणीकरण संयंत्र, अपशिष्ट जल उपचार और स्मार्ट जल प्रबंधन, सार्वजनिक प्रयासों का पूरक हो सकता है।
- स्पष्ट विनियमन और सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) सफलता की कुंजी हैं।
- गुजरात में PPP मॉडल के तहत विकसित नर्मदा विलवणीकरण संयंत्र एक आदर्श के रूप में काम कर सकता है।
- अंतर-राज्यीय जल संधि की रूपरेखा विकसित करना: भारत को अंतर-राज्यीय जल विवादों के प्रबंधन और साझा संसाधनों के न्यायसंगत वितरण को सुनिश्चित करने के लिये सुदृढ़ कानूनी एवं संस्थागत तंत्र स्थापित करना चाहिये।
- मध्यस्थता, डेटा पारदर्शिता और सहयोगात्मक समझौते आवश्यक हैं।
- कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण (CWMA) ने मिश्रित परिणाम दर्शाए हैं, लेकिन पारदर्शी डेटा-साझाकरण तंत्र इसकी प्रभावशीलता में सुधार कर सकता है।
- सिंधु जल संधि मॉडल कृष्णा और गोदावरी जैसी अंतर-राज्यीय नदियों के लिये समान ढाँचे को प्रेरित कर सकता है।
- विभेदक जल मूल्य निर्धारण की शुरूआत: कृषि, औद्योगिक और घरेलू उपभोक्ताओं के लिये स्तरीकृत जल मूल्य निर्धारण से अपव्ययी प्रथाओं को हतोत्साहित किया जा सकता है, जबकि कमज़ोर आबादी के लिये पहुँच को सब्सिडी दी जा सकती है।
- चीन के जल मूल्य निर्धारण सुधारों से पता चलता है कि नीति सुधार से अल्पावधि में वार्षिक आवासीय जल मांग में 3-4% तथा दीर्घावधि में 5% की कमी आई है।
निष्कर्ष:
भारत के जल संकट के लिये एक तत्काल, बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो पारंपरिक प्रबंधन रणनीतियों से परे हो। नवीन तकनीकों, नीति सुधारों और समुदाय-संचालित समाधानों को एकीकृत करके, देश अपनी महत्त्वपूर्ण जल चुनौतियों का समाधान कर सकता है। सूक्ष्म सिंचाई, अपशिष्ट जल पुनर्चक्रण और पारंपरिक जल संचयन तकनीकों जैसी संधारणीय प्रथाओं को अपनाना जल संसाधनों को सुरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा।
दृष्ट मेन्स प्रश्न: प्रश्न. "भारत में जल कुप्रबंधन इसकी सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय स्थिरता के लिये एक बड़ा खतरा बन गया है।" इसके परिणामों और इस चुनौती से निपटने के लिये आवश्यक उपायों पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा प्राचीन नगर अपने उन्नत जल संचयन और प्रबंधन प्रणाली के लिये सुप्रसिद्ध है, जहाँ बाँधों की शृंखला का निर्माण किया गया था और संबद्ध जलाशयों में नहर के माध्यम से जल को प्रवाहित किया जाता था? (2021) (a) धौलावीरा उत्तर: (a) प्रश्न. 'वॉटरक्रेडिट' के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये : (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (c) मेन्सप्रश्न. जल संरक्षण एवं जल सुरक्षा हेतु भारत सरकार द्वारा प्रवर्तित जल शक्ति अभियान की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? (2020) प्रश्न. रिक्तीकरण परिदृश्य में विवेकी जल उपयोग के लिये जल भंडारण और सिंचाई प्रणाली में सुधार के उपायों को सुझाइये। (2020) |