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कृषि

भूजल पुनः प्राप्ति के लिये सतत् कृषि

  • 12 Oct 2024
  • 10 min read

प्रिलिम्स के लिये:

भूजल, चावल की खेती, फसल पैटर्न, जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC), ग्लोबल वार्मिंग, सतत् भूजल प्रबंधन, तिलहन, उत्तर पूर्वी क्षेत्र के लिये मिशन ऑर्गेनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट (MOCDNER), राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन, परम्परागत कृषि विकास योजना (PKVY), कृषि वानिकी पर उप-मिशन (SMAF), राष्ट्रीय कृषि विकास योजना

मेन्स के लिये:

भारत में सतत् कृषि से संबंधित चुनौतियाँ, सतत् कृषि से संबंधित सरकारी पहल।

स्रोत: इकॉनोमिक टाइम्स

चर्चा में क्यों?

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर, गुजरात के अनुसार वर्तमान में चावल की खेती वाले लगभग 40% क्षेत्र के स्थान पर अन्य फसलें लगाने से  उत्तर भारत में वर्ष 2000 से अब तक नष्ट हुए 60-100 क्यूबिक किलोमीटर भूजल को पुनः प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।

अध्ययन के मुख्य बिंदु क्या हैं?

  • मुख्य बिंदु: 
    • प्रचलित कृषि पद्धतियाँ, विशेषकर चावल की खेती से संबंधित पद्धतियाँ, सिंचाई के लिये भूजल संसाधनों पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं।
    • वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि के कारण भूजल भंडार में कमी आई है, अनुमान है कि इसमें 13 से 43 क्यूबिक किलोमीटर तक की संभावित हानि हो सकती है।
      • यदि इस तरह के असंवहनीय फसल पैटर्न पर अंकुश नहीं लगाया गया तो पहले से ही अत्यधिक दोहन किये जा रहे भूजल संसाधनों पर और अधिक दबाव पड़ेगा, जिससे जल सुरक्षा की चुनौतियाँ और भी अधिक बढ़ जाएँगी।
    • कृषि पद्धतियों और भूजल की कमी के बीच संबंध, आसन्न पारिस्थितिक संकट को कम करने के लिये फसल पैटर्न में अनुकूल रनीतियों की तत्काल आवश्यकताओं को रेखांकित करता है।
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव:
    • इसकी तुलना में, 1.5 से 3 डिग्री सेल्सियस के वैश्विक तापमान परिदृश्य के तहत मौजूदा फसल पैटर्न को बनाए रखने से भूजल की प्राप्ति बहुत कम होगी, जो अनुमानित 13 से 43 क्यूबिक किलोमीटर के बीच है।
  • अनुशंसाएँ: 
    • रिपोर्ट में विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में फसल पैटर्न में बदलाव की तत्काल आवश्यकताओं पर बल दिया गया है, ताकि किसानों की लाभप्रदता को बनाए रखते हुए भूजल स्थिरता को बढ़ाया जा सके। 
      • इसमें चावल की खेती के विकल्प के रूप में उत्तर प्रदेश में अनाज और पश्चिम बंगाल में तिलहन की खेती की सिफारिश की गई है।
    • इन निष्कर्षों में महत्त्वपूर्ण नीतिगत निहितार्थ हैं, जो यह सुझाव देते हैं कि किसानों की आजीविका की सुरक्षा करते हुए उत्तर भारत के सिंचित क्षेत्रों में स्थायी भूजल प्रबंधन के लिये इष्टतम फसल पैटर्न की पहचान की जानी चाहिये।

नोट:

  • अधिक निर्भरता: सिंचाई के लिये भूजल का योगदान 62%, ग्रामीण जल आपूर्ति के लिये 85% और शहरी जल खपत के लिये 45% है।
  • निम्न दर: भारत की भूजल कमी दर वर्ष 2080 तक तीन गुनी हो सकती है, जिसका मुख्य कारण जलवायु-प्रेरित अति-निष्कर्षण है।
  • अत्यधिक निष्कर्षण: राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली सहित कई क्षेत्रों में भूजल का दोहन उसकी पूर्ति से अधिक तथा निष्कर्षण दर उपलब्ध संसाधनों के 100% से अधिक है।
  • भौगोलिक असमानताएँ: सिंधु-गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानों में भारत के 60% भूजल संसाधन मौजूद हैं, लेकिन ये देश के केवल 20% क्षेत्र को कवर करते हैं। 
  • कृषि पर निर्भरता: 60% से अधिक सिंचित कृषि भूजल पर निर्भर है, जिससे संसाधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है, विशेष रूप से कृषि केंद्र पर।

भारत में सतत् कृषि से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • जल की कमी: अधिक जल की आवश्यकता वाली फसलों पर अत्यधिक निर्भरता और अकुशल सिंचाई विधियों के परिणामस्वरूप भूजल में कमी आई है।
  • जलवायु परिवर्तन: अप्रत्याशित मौसम पैटर्न, बढ़ता तापमान,और बाढ़ और सूखे जैसी चरम घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति फसल की पैदावार तथा कृषि स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
  • खंडित भूमि जोत: छोटे और खंडित खेतों के कारण सतत् कृषि पद्धतियों, मशीनीकरण तथा कुशल संसाधन उपयोग को अपनाना मुश्किल हो जाता है।
  • रासायनिक पदार्थों का अत्यधिक उपयोग: रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और शाकनाशियों के अत्यधिक उपयोग से मृदा एवं जल प्रदूषण में वृद्धि हुई है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र व दीर्घकालिक कृषि उत्पादकता को नुकसान पहुँचा है।
  • अपर्याप्त नीतिगत समर्थन: सतत् कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने वाली अपर्याप्त सरकारी नीतियों और प्रोत्साहनों के कारण पर्यावरण अनुकूल कृषि में परिवर्तन सीमित हो गया है।

आगे की राह

  • जल-कुशल प्रथाओं को बढ़ावा देना: जल की कमी की समस्या से निपटने के लिये ड्रिप सिंचाई और वर्षा जल संचयन जैसी जल-कुशल प्रौद्योगिकियों को अपनाना, साथ ही कम पानी की खपत वाली फसलों की ओर फसल विविधीकरण करना।
  • किसान प्रशिक्षण और जागरूकता: जैविक खेती, कृषि वानिकी, फसल चक्र और एकीकृत कीट प्रबंधन जैसे सतत् कृषि प्रथाओं पर किसानों को शिक्षित करने के लिये व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम और कार्यशालाएँ आयोजित करना।
  • नीति और प्रोत्साहन समर्थन को मज़बूत बनाना: पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिये सब्सिडी, अनुदान और कर छूट के माध्यम से सतत् कृषि प्रथाओं को प्रोत्साहित करने वाली मज़बूत नीतियों को तैयार करना तथा उन्हें लागू करना।
  • प्रौद्योगिकी और बाज़ारों तक पहुँच में सुधार: आधुनिक सतत् कृषि प्रौद्योगिकियों तक पहुँच को सुगम बनाना और किसानों के लिये उचित मूल्य पर जैविक और सतत् तरीके से उगाए गए उत्पाद बेचने के लिये कुशल आपूर्ति शृंखला तथा बाज़ार संपर्क स्थापित करना।
  • अनुसंधान और नवाचार को प्रोत्साहित करना: सतत् कृषि पद्धतियों, जलवायु-अनुकूल फसलों और किफायती पर्यावरण-अनुकूल आदानों पर केंद्रित अनुसंधान और विकास में निवेश करना, साथ ही सरकारी संस्थानों, अनुसंधान निकायों तथा किसानों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में भूजल संकट से निपटने में सतत् कृषि पद्धतियों के महत्त्व पर चर्चा कीजिये?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स:

Q. भारत के संदर्भ में, निम्नलिखित में से किस/कि पद्धति/यों को पारितंत्र-अनुकूली कृषि माना जाता है ?

  1. फ़सल विविधरूपण
  2. शिंब आधिक्य (Legume intensification)
  3. टेंसियोमीटर का प्रयोग
  4. ऊर्ध्वाधर कृषि (Vertical farming)

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1,2 और 3
(b) केवल 3
(c) केवल 4
(d) 1,2,3 और 4

उत्तर: (A)


मेन्स:

प्रश्न. भारत ताज़े जल संसाधनों से संपन्न है। समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये कि यह अभी भी पानी की कमी से क्यों जूझ रहा है। (2015)

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