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सामाजिक न्याय

जेल मैनुअल में 'जाति-आधारित' प्रावधान

  • 12 Oct 2024
  • 15 min read

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, मौलिक अधिकार, आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871, विमुक्त जनजातियाँ, पश्चिम बंगाल जेल का नियम 404, अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (SC), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), अस्पृश्यता, नुच्छेद 17, मॉडल प्रिज़न मैनुअल, 2016, आदर्श कारागार और सुधार सेवा अधिनियम, 2023    

मेन्स के लिये:

कैदियों के मौलिक अधिकार, जेल मैनुअल में संशोधन, जाति आधारित भेदभाव और अस्पृश्यता का मुद्दा।

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि जेलों में जाति-आधारित श्रम विभाजन "असंवैधानिक "है, जो भारत की सुधार प्रणाली में औपनिवेशिक युग की पुरानी मान्यताओं और पूर्वाग्रहों को समाप्त करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य जेल नियमावली के कई जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देने वाले प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया, जिनसे कैदियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।

जेल मैनुअल औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों को किस प्रकार बढ़ावा देते हैं?

  • जेलों में औपनिवेशिक पूर्वाग्रह:
    • औपनिवेशिक विरासत: अब निरस्त आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को कुछ हाशिये पर रह रहे समुदायों को "आपराधिक जनजाति" के रूप में चिह्नित करने की अनुमति दी, जो कि इस गलत धारणा पर आधारित थी कि वे "आदतन अपराधी" हैं।
    • विमुक्त जनजातियाँ: आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 के निरस्त होने के बाद, इन समुदायों को "विमुक्त जनजातियों (Denotified Tribes)" के रूप में पुनः वर्गीकृत किया गया। हालाँकि जेल मैनुअल द्वारा उन्हें बिना किसी दोषसिद्धि के भी "आदतन अपराधी" के रूप में वर्गीकृत करना जारी रखा गया। 
    • उदाहरण:
      • पश्चिम बंगाल जेल संहिता: न्यायालय ने पश्चिम बंगाल जेल संहिता के नियम, 404 पर प्रकाश डाला, जिसमें कहा गया है कि किसी दोषी पर्यवेक्षक को रात्रि प्रहरी के रूप में तभी नियुक्त किया जा सकता है, जब वह उन जनजातियों से संबंधित न हो, जिन्हें "भागने की प्रबल स्वाभाविक प्रवृत्ति" वाला माना जाता है, जैसे कि घुमंतू जनजातियाँ।
      • आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल जेल मैनुअल: इन मैनुअलों में "आदतन अपराधियों" को उन लोगों के रूप में परिभाषित किया गया है जो "आदत" के कारण डकैती, सेंधमारी, चोरी, जालसाजी या ज़बरन वसूली जैसे अपराधों में लिप्त रहते हैं - भले ही उन पर पहले से कोई दोष सिद्ध न हुआ हो।
      • श्रम पर प्रतिबंध: आंध्र प्रदेश के "आवारागर्द या अपराधी जनजातियों" के सदस्यों को "बुरे या खतरनाक चरित्र" वाले व्यक्तियों या हिरासत से भागे हुए लोगों के बराबर माना जाता है। परिणामस्वरूप उन्हें जेल की दीवारों के बाहर श्रम में नियोजित होने से रोक दिया जाता है।
    • भेदभाव की निरंतरता: न्यायालय ने कहा कि यह निरंतर वर्गीकरण औपनिवेशिक युग के जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देता है, जिससे इन समूहों का सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर होना और भी बदतर हो जाता है।
  • जेलों में जाति-आधारित भेदभाव के उदाहरण:
    • तमिलनाडु जेल: तमिलनाडु के पलायमकोट्टई सेंट्रल जेल में थेवर, नादर और पल्लार को अलग-अलग वर्गों में रखा गया था, जो बैरकों का जाति-आधारित पृथक्करण था।
    • राजस्थान कारागार: राजस्थान कारागार नियम, 1951 के अनुसार शौचालय का कार्य अनुसूचित जाति समुदाय "मेहतर" को सौंपा गया, जबकि ब्राह्मणों या उच्च जाति के हिंदू कैदियों को रसोईघर का कार्य सौंपा गया।

विमुक्त, खानाबदोश और अर्द्ध-खानाबदोश जनजातियाँ

  • इन्हें 'विमुक्त जाति' के नाम से भी जाना जाता है। ये समुदाय सबसे कमज़ोर और वंचित हैं।
  • विमुक्त समुदाय, जिन्हें कभी ब्रिटिश शासन के दौरान आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 जैसे कानूनों के तहत 'जन्मजात या आदतन अपराधी' करार दिया गया था।
    • वर्ष 1952 में भारत सरकार द्वारा इन्हें आधिकारिक तौर पर विमुक्त जाति के रूप में घोषित कर दिया गया।
  • इनमें से कुछ समुदाय, जिन्हें विमुक्त घोषित किया गया था, उसमें खानाबदोश जनजातियाँ भी शामिल हैं
    • खानाबदोश और अर्द्ध-खानाबदोश समुदायों को उन लोगों के रूप में परिभाषित किया जाता है, यह प्रत्येक समय एक स्थान पर रहने के बजाय एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं।
  • ऐतिहासिक रूप से खानाबदोश जनजातियों और विमुक्त जनजातियों को कभी भी निजी भूमि या घर का स्वामित्त्व प्राप्त नहीं था।
  • जबकि अधिकांश DNT अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) श्रेणियों में फैले हुए हैं, कुछ DNT किसी भी SC , ST या OBC श्रेणी में शामिल नहीं हैं।

कैदियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कैसे किया जाता है?

  • जाति-आधारित वर्गीकरण सीमा: सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि जाति को वर्गीकरण मानदंड के रूप में तभी इस्तेमाल किया जा सकता है जब इससे जाति-आधारित भेदभाव के पीड़ितों को लाभ हो। उदाहरण के लिये जाति-आधारित सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण)।
    • जाति के आधार पर कैदियों को अलग करने से जातिगत मतभेद बढ़ता है, इसे समाप्त किया जाना चाहिये।
    • जेल मैनुअल इस उद्देश्य की पूर्ति में विफल रहा तथा संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन किया।
  • प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भेदभाव: सर्वोच्च न्यायालय ने हाशिये पर पड़े समुदायों के विरुद्ध प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के भेदभाव पर प्रकाश डाला। 
    • निम्न जातियों को सफाई और झाड़ू लगाने का कार्य सौंपना, जबकि उच्च जातियों को खाना पकाने जैसे कार्य करने की अनुमति देना, अनुच्छेद 15(1) के तहत प्रत्यक्ष भेदभाव का स्पष्ट उदाहरण है।
    • इन समुदायों को अधिक कुशल या सम्मानजनक कार्य प्रदान करने के बजाय पारंपरिक भूमिकाओं के आधार पर कुछ कार्य आवंटित करने से अप्रत्यक्ष भेदभाव उत्पन्न होता है।
  • समानता का उल्लंघन: "आदतन", "रीति-रिवाज़", "जीवन जीने के बेहतर तरीके" या "भागने की स्वाभाविक प्रवृत्ति" के आधार पर कैदियों में अंतर करना, वास्तविक समानता के सिद्धांतों को कमज़ोर करता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने जेल नियमों पर प्रकाश डाला, जो भोजन को “उपयुक्त जाति” द्वारा पकाने या कुछ समुदायों को “तुच्छ कार्य (Menial Duties)” सौंपने को अनिवार्य बनाते हैं, इन प्रथाओं को अस्पृश्यता के रूप में वर्गीकृत करते हैं, जो अनुच्छेद 17 के तहत निषिद्ध है।
  • जीवन और सम्मान का अधिकार: न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि हाशिये पर पड़े कैदियों के सुधार पर प्रतिबंध लगाने वाले जेल नियम उनके जीवन के अधिकार का उल्लंघन करते हैं तथा उन्हें सम्मान एवं समान व्यवहार से वंचित करते हैं, जिससे वे और अधिक हाशिये पर चले जाते हैं।

भेदभाव के विरुद्ध संवैधानिक और कानूनी प्रावधान

  • संवैधानिक प्रावधान:
    • विधि के समक्ष समानता: अनुच्छेद 14 के अनुसार, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा।
    • भेदभाव का निषेध: भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
    • अस्पृश्यता का उन्मूलन: संविधान का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है।
  • कानूनी प्रावधान: 
    • नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955: यह अधिनियम भारत के संविधान के अनुच्छेद 17 को लागू करने के लिये बनाया गया था, जिसने अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त कर दिया।
    • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989: यह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को जाति-आधारित भेदभाव तथा हिंसा से बचाने के लिये अधिनियमित किया गया था।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी निर्देश क्या थे?

  • जेल मैनुअल में संशोधन: सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को भेदभावपूर्ण प्रथाओं को समाप्त करने के लिये तीन महीने के भीतर अपने जेल मैनुअल एवं नियमों में संशोधन करने का आदेश दिया गया।
  • जाति संबंधी संदर्भों को हटाना: न्यायालय ने जेलों में रखे गए विचाराधीन कैदियों और दोषियों के रजिस्टरों से “जाति कॉलम” एवं जाति संबंधी किसी भी संदर्भ को हटाने का आदेश दिया।
  • मॉडल प्रिज़न मैनुअल और अधिनियम में मुद्दे: केंद्र सरकार के मॉडल प्रिज़न मैनुअल, 2016 तथा आदर्श कारावास और सुधार सेवा अधिनियम, 2023 में जातिगत भेदभाव जैसी कमियों को चिह्नित किया गया था।
    • वर्ष 2016 के मैनुअल की विशेष रूप से “आदतन अपराधी” की अस्पष्ट परिभाषा के लिये आलोचना की गई थी, जिससे राज्यों को विमुक्त जनजातियों के खिलाफ रूढ़िवादिता को कायम रखने की अनुमति मिल गई।
    • न्यायालय ने आदेश दिया कि वर्ष 2016 और 2023 दोनों अधिनियमों में तीन महीने के भीतर सुधार किये जाएँ।
  • अनुपालन निगरानी: ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरणों और आगंतुकों के बोर्डों को इन निर्देशों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये नियमित निरीक्षण करने का कार्य सौंपा गया।
  • पुलिस निर्देश: पुलिस प्राधिकारियों को निर्देश दिया गया कि वे विमुक्त जनजातियों के सदस्यों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार न करें तथा सर्वोच्च न्यायालय के पिछले निर्णयों में निर्धारित दिशा-निर्देशों का पालन सुनिश्चित करें।

निष्कर्ष:

इन भेदभावपूर्ण पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिये सार्वोच्च न्यायालय का हालिया फैसला ज़ेलों में वास्तविक समानता हासिल करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। जाति संदर्भों को हटाने, पुरानी परिभाषाओं को संशोधित करने तथा हाशिये के समुदायों के खिलाफ पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिये अनिवार्य करके, न्यायालय ने सभी कैदियों के लिये सम्मान, निष्पक्षता तथा सुधार के महत्त्व को मज़बूत किया है। यह निर्णय भारत में अधिक न्यायपूर्ण एवं समावेशी सुधारात्मक ढाँचे का मार्ग प्रशस्त करता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: जेलों में जाति-आधारित श्रम विभाजन पर सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय भारत की सुधार प्रणाली में संस्थागत पूर्वाग्रहों को दूर करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम कैसे दर्शाता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न 2. मौलिक अधिकारों की निम्नलिखित श्रेणियों में से कौन-सी एक भेदभाव के रूप में अस्पृश्यता के विरुद्ध सुरक्षा को शामिल करती है? (2020)

(a) शोषण के विरुद्ध अधिकार
(b) स्वतंत्रता का अधिकार
(c) संवैधानिक उपचार का अधिकार
(d) समानता का अधिकार

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न: आप वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की संकल्पना से क्या समझते हैं? क्या इसकी परिधि में घृणा वाक् भी आता है? भारत में फिल्में अभिव्यक्ति के अन्य रूपों से तनिक भिन्न स्तर पर क्यों हैं? चर्चा कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2014)

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