मृत्युदंड और दया याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश | 10 Dec 2024

प्रिलिम्स के लिये:

मृत्युदंड से संबंधित प्रमुख मामले, मृत्युदंड संबंधी प्रावधान, अनुच्छेद 21।

मेन्स के लिये:

मृत्युदंड और दया याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश, मृत्युदंड एवं संबंधित तर्क।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने मृत्युदंड तथा दया याचिकाओं के संदर्भ में व्यापक दिशा-निर्देश जारी किये हैं।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने पुरुषोत्तम दशरथ बोराटे बनाम भारत संघ, 2019 मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा, जिसमें वर्ष 2007 के पुणे BPO सामूहिक बलात्कार तथा हत्या के मामले में दो दोषियों की मौत की सजा को अत्यधिक देरी के कारण 35 साल के आजीवन कारावास में बदल दिया गया था।

मृत्युदंड और दया याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश क्या हैं?

  • समर्पित केंद्रों की स्थापना:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे दया याचिकाओं को कुशलतापूर्वक एवं निर्धारित समय सीमा के अंदर निपटाने के लिये अपने गृह या जेल विभागों में समर्पित केंद्रों की स्थापना करें।
    • इन केंद्रों का प्रबंधन एक नामित अधिकारी द्वारा किया जाना चाहिये जिनके संपर्क विवरण सभी जेलों के साथ साझा हों तथा विधि या न्याय विभाग के एक अधिकारी द्वारा विधिक अनुपालन सुनिश्चित किया जाए।
  • जानकारी साझा करना:
    • जेल प्राधिकारियों को दया याचिकाओं एवं इससे संबंधित विवरण (जैसे कि दोषी की पृष्ठभूमि, कारावास का इतिहास एवं कानूनी दस्तावेज़) को समर्पित केंद्रों को भेजना चाहिये। 
    • इनके द्वारा पुलिस रिपोर्ट, FIR, सुनवाई संबंधी साक्ष्य एवं न्यायालय के फैसले भी समर्पित केंद्रों के अधिकारी और गृह विभाग के सचिव को भेजने चाहिये।
    • दया याचिकाओं को अनावश्यक विलंब के बिना आगे की कार्रवाई हेतु तुरंत राज्यपाल या राष्ट्रपति सचिवालय भेजा जाना चाहिये।
  • इलेक्ट्रॉनिक संचार:
    • कार्यकुशलता बढ़ाने के क्रम में गोपनीयता की आवश्यकता वाले मामलों को छोड़कर, सभी संचार इलेक्ट्रॉनिक रूप से (ईमेल के माध्यम से) किये जाने चाहिये।
  • मृत्युदण्ड से संबंधित मामलों का रिकाॅर्ड रखना:
    • सत्र न्यायालयों द्वारा मृत्युदंड से संबंधित मामलों का रिकाॅर्ड रखना चाहिये तथा उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय से आदेश प्राप्त होने पर उन्हें शीघ्रता से वाद सूची में सूचीबद्ध करना चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त अपील, समीक्षा याचिका या दया याचिका सहित किसी भी लंबित विधिक उपचार की स्थिति का पता लगाने के लिये राज्य लोक अभियोजकों या जाँच एजेंसियों को नोटिस जारी किया जाना चाहिये।
  • निष्पादन वारंट प्रोटोकॉल:
    • निष्पादन वारंट जारी करने एवं उसके कार्यान्वयन के बीच अनिवार्य रूप से 15 दिन का अंतराल होना चाहिये।
    • दोषियों को विधिक प्रतिनिधित्व के उनके अधिकार के बारे में सूचित किये जाने के साथ वारंट एवं इसे जारी करने के आदेश की प्रतियाँ तुरंत उपलब्ध कराई जानी चाहिये। 
    • यदि दोषी द्वारा वारंट को चुनौती देने का अनुरोध किया जाता है तो उसे शीघ्र ही विधिक सहायता प्रदान की जानी चाहिये।
  • राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी:
    • मृत्युदंड अंतिम एवं प्रवर्तनीय हो जाने के बाद राज्य सरकार को निष्पादन वारंट हेतु आवेदन करना चाहिये।

मृत्युदंड और दया याचिका क्या है?

  • परिचय: इसे प्राणदंड भी कहा जाता है और यह भारतीय न्यायपालिका का सबसे गुरुतर दंड है।
    • इसमें किसी व्यक्ति को उके द्वारा कारित गंभीर अपराधों के दंड के रूप में राज्य द्वारा मृत्युदंड दिया जाता है।
  • मृत्युदंड का विधिक ढाँचा:
  • भारतीय संविधान:
    • भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से मृत्युदंड को असंवैधानिक घोषित नहीं किया गया है।
    • हालाँकि, जैसा कि बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) में रेखांकित किया गया है, सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे मामलों के लिये 5 श्रेणियाँ निर्धारित की हैं, जिनमें क्रूर हत्या, दुराचारी आशय और बड़े पैमाने के अपराध शामिल हैं, जिनमें मृत्युदंड दिया जाता है।
  • दया याचिका: यह मृत्युदंड या कारावास की सज़ा पाए किसी व्यक्ति द्वारा राष्ट्रपति या राज्यपाल, जैसा भी मामला हो, से दया की मांग करते हुए किया गया औपचारिक अनुरोध है।
  • संवैधानिक ढाँचा:
    • भारत में संवैधानिक ढाँचे के अनुसार, राष्ट्रपति के पास दया याचिका एक दोषी का अंतिम संवैधानिक उपाय है, जिसका अनुरोध वह (दोषी) तब कर सकता है जब उसे किसी न्यायालय द्वारा दंड दिया जाता है। एक दोषी भारत के संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत भारत के राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका प्रस्तुत कर सकता है।
    • इसी प्रकार, भारत के संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत क्षमादान देने की शक्ति राज्यों के राज्यपालों को प्रदान की गई है।

अनुच्छेद 72

अनुच्छेद 161

  • राष्ट्रपति को, किसी अपराध के लिये सिद्धदोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति होगी:
  • उन सभी मामलों में, जिनमें दंड या दंडादेश सेना न्यायालय ने दिया है,
  • उन सभी मामलों में, जिनमें दंड या दंडादेश ऐसे विषय संबंधी किसी विधि के विरुद्ध अपराध के लिये दिया गया है जिस विषय तक संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है,
  • उन सभी मामलों में, जिनमें दंडादेश, मृत्यु दंडादेश है।
  • इसमें प्रावधान है कि किसी राज्य के राज्यपाल को उस विषय संबंधी, जिस विषय पर उस राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, किसी विधि के विरुद्ध किसी अपराध के लिये सिद्धदोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश में निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति होगी।
  • वर्ष 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि किसी राज्य का राज्यपाल मृत्युदंड की सज़ा पाए कैदियों सहित अन्य कैदियों को न्यूनतम 14 वर्ष के कारावास की सज़ा पूरी करने से पहले भी क्षमा कर सकता है।

मृत्युदंड और दया याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के क्या निहितार्थ हैं?

  • देरी में कमी: दया याचिकाओं पर कार्रवाई के लिये समर्पित प्रकोष्ठों की स्थापना और एक संरचित दृष्टिकोण से देरी कम होगी, जिससे समय पर समाधान सुनिश्चित होगा। सत्र न्यायालयों द्वारा मामलों की नियमित निगरानी तथा शीघ्र सूचीबद्धता से प्रक्रिया में तेज़ी आएगी।
    • उदाहरण : मुकेश सिंह बनाम NCT ऑफ दिल्ली (2017) मामले (जिसे निर्भया बलात्कार मामले के रूप में भी जाना जाता है) में निर्भया के दोषियों की फाँसी में कई दया याचिकाओं और कानूनी चुनौतियों के कारण देरी हुई थी।
  • बढ़ी हुई जवाबदेही: विभिन्न विभागों के लिये नामित अधिकारी और स्पष्ट जिम्मेदारियाँ पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करेंगी, जिससे मामलों तथा याचिकाओं की प्रगति पर नज़र रखना आसान हो जाएगा।
    • उदाहरण: शत्रुघन चौहान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2014) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि दया याचिकाओं पर निर्णय लेने में अत्यधिक विलंब के कारण न्यायालय मौत की सज़ा को कम कर सकते हैं।
  • कानूनी सहायता और मानवाधिकार:
    • दिशा-निर्देश यह सुनिश्चित करते हैं कि दोषियों को उनके अधिकारों के बारे में जानकारी दी जाए और उन्हें कानूनी सहायता प्रदान की जाए तथा अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्षता और संवैधानिक सुरक्षा को बनाए रखा जाए। वे मृत्युदंड पर विकसित हो रहे न्यायशास्त्र के अनुरूप हैं, और "दुर्लभतम" मामलों और दंड को कम करने वाले कारकों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
  • मज़बूत न्यायिक निगरानी: सत्र न्यायालयों को रिकॉर्ड बनाए रखना चाहिये और मृत्युदंड के मामलों को समय पर सूचीबद्ध करना सुनिश्चित करना चाहिये। नियमित न्यायिक समीक्षा तथा राज्यपाल/राष्ट्रपति के साथ समन्वय न्याय की विफलताओं के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है।

मृत्युदंड पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले

  • बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1980 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केवल "दुर्लभतम" मामलों में ही मृत्युदंड देने का सिद्धांत स्थापित किया था। 
    • इस कथन का तात्पर्य यह है कि मृत्युदंड केवल तभी दिया जाना चाहिये जब अपराध की गंभीर प्रकृति के कारण आजीवन कारावास की वैकल्पिक सजा अपर्याप्त समझी जाए।
  • जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1973 मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 21 के अनुसार जीवन से वंचित करना संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है, यदि ऐसा कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किया जाता है।
  • जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद (1973) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद-21 के अनुसार, जीवन से वंचित करना संवैधानिक रूप से अनुमेय है यदि यह कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किया जाता है।
    • इस प्रकार CrPC और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के तहत कानूनी रूप से स्थापित प्रक्रियाओं के अनुसार, मुकदमे के बाद सुनाई गई मौत की सज़ा अनुच्छेद-21 के तहत असंवैधानिक नहीं है।
  • राजेंद्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद (1973) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि एक व्यक्ति का आपराधिक कृत्य योजनाबद्ध एवं खतरनाक तरीके से सामाजिक सुरक्षा को खतरे में डालता है, तो उसके मौलिक अधिकारों को समाप्त किया जा सकता है।
  • माछी सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद (1983) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने किसी भी मामले को ‘दुर्लभतम मामले’ की श्रेणी में शामिल करने अथवा न करने हेतु अपने विचार प्रस्तुत किये।

निष्कर्ष

मृत्युदंड और दया याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का उद्देश्य प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना, समय पर न्याय सुनिश्चित करना और संवैधानिक सुरक्षा उपायों को बनाए रखना है। ये उपाय पारदर्शिता, कुशल संचार और निष्पक्ष निष्पादन पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो मृत्युदंड की गंभीरता को निष्पक्षता और मानवाधिकारों की आवश्यकता के साथ संतुलित करते हैं।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: मृत्यु दंड के निष्पादन और दया याचिकाओं पर कार्यवाही के बारे में सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों पर चर्चा कीजिये। इन दिशा-निर्देशों का उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया में देरी को कैसे दूर करना है और मृत्यु दंड के मामलों में निष्पक्षता सुनिश्चित करना है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रश्न: मृत्यु दंडादेशों के लघूकरण में राष्ट्रपति के विलंब के उदाहरण न्याय प्रत्याख्यान (डिनायल) के रूप में लोक वाद-विवाद के अधीन आए हैं। क्या राष्ट्रपति द्वारा ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने/अस्वीकार करने के लिये एक समय सीमा का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये? विश्लेषण कीजिये। (2014)