निवारक निरोध | 08 Apr 2024
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय,निवारक निरोध,अनुच्छेद 22 , उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, दंडात्मक हिरासत, 'सार्वजनिक व्यवस्था' , कानून और व्यवस्था, राम मनोहर लोहिया बनाम बिहार राज्य मामले, 1965 मेन्स के लिये:निवारक निरोध और कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने में इसका महत्त्व। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि निवारक निरोध कानूनों के तहत सलाहकार बोर्डों को सरकार के लिये केवल "रबर-स्टांपिंग प्राधिकारी" की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिये।
- उन्हें एक ऐसे सुरक्षा वाल्व के रूप में कार्य करना चाहिये जो राज्य द्वारा शक्ति के अनियंत्रित उपयोग के साथ ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के बीच खड़ा हो।
निवारक निरोध क्या है?
- पृष्ठभूमि:
- निवारक निरोध को अधिकृत करने वाले कानून वर्ष 1818 से भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन में अस्तित्व में थे।
- प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने पर वर्ष 1915 का भारत रक्षा अधिनियम पारित किया गया था, और साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बनाए गए आपातकालीन नियमों के संबंध में भी इसे दोहराया गया था।
- दोनों में निवारक निरोध के प्रावधान हैं, यानी किसी व्यक्ति को विचारण और दोषसिद्धि के बिना हिरासत में रखना।
- परिचय:
- निवारक निरोध का अर्थ है किसी व्यक्ति को न्यायालय द्वारा विचारण एवं दोषसिद्धि के बिना हिरासत में लेना। इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति को पूर्व अपराध के लिये दंडित करना नहीं है बल्कि उसे निकट भविष्य में अपराध करने से रोकना है।
- किसी व्यक्ति की हिरासत तीन महीने से अधिक नहीं हो सकती जब तक कि सलाहकार बोर्ड विस्तारित हिरासत हेतु पर्याप्त कारण के लिये रिपोर्ट जारी नहीं करता है।
- निवारक निरोध के लिये आधार:
- राज्य की सुरक्षा
- लोक व्यवस्था
- विदेशी मामले, आदि।
- हिरासत के दो प्रकार:
- निवारक निरोध तब होता है जब किसी व्यक्ति को केवल इस संदेह के आधार पर पुलिस हिरासत में रखा जाता है कि वे कोई आपराधिक कार्य कर सकते हैं या समाज को हानि पहुँचा सकते हैं।
- पुलिस के पास किसी भी व्यक्ति पर अपराध करने का संदेह होने पर उसे हिरासत में लेने और कुछ मामलों में वारंट अथवा मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना गिरफ्तारी करने का भी अधिकार है।
- दंडात्मक हिरासत जिसका अर्थ है किसी दाण्डिक अपराध के लिये सज़ा के रूप में हिरासत में रखना। यह तब होता है जब कोई अपराध वास्तव में किया गया हो, या उस अपराध को करने का प्रयास किया गया हो।
- निवारक निरोध तब होता है जब किसी व्यक्ति को केवल इस संदेह के आधार पर पुलिस हिरासत में रखा जाता है कि वे कोई आपराधिक कार्य कर सकते हैं या समाज को हानि पहुँचा सकते हैं।
- सुरक्षा:
- अनुच्छेद 22 गिरफ्तार या हिरासत में लिये गए व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान करता है।
- दो प्रकार के हिरासत - पहला भाग सामान्य कानूनी मामलों से संबंधित है और दूसरा भाग निवारक निरोध के मामलों से संबंधित है।
- यह अनुच्छेद निवारक निरोध कानूनों के लिये सलाहकार बोर्ड के निर्माण को अनिवार्य करता है, जिसमें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने के लिये योग्य व्यक्ति शामिल होते हैं।
- विभिन्न कानूनों के तहत, समीक्षा बोर्डों को प्रत्येक तीन माह में हिरासत के आदेशों का आकलन करना चाहिये, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि निवारक निरोध के लिये पर्याप्त कारण हैं या नहीं। वे साक्ष्यों की जाँच करते हैं, यदि आवश्यक हो तो अधिक जानकारी का अनुरोध करते हैं, हिरासत में लिये गए व्यक्ति की बात सुनते हैं और फिर रिपोर्ट करते हैं कि हिरासत उचित थी या नहीं।
- हिरासत में लिये गए व्यक्ति को उपलब्ध सुरक्षा उपाय:
- किसी व्यक्ति को केवल 3 माह के लिये निवारक हिरासत में लिया जा सकता है।
- सलाहकार बोर्ड की स्वीकृति के बाद ही हिरासत की अवधि को 3 माह से अधिक के लिये बढ़ाया जा सकता है।
- बंदी को अपनी हिरासत के कारणों को जानने का अधिकार है।
- हालाँकि, यदि लोकहित में ऐसा करना आवश्यक हो तो राज्य आधार बताने से इनकार कर सकता है।
- बंदी को उसकी हिरासत को चुनौती देने का अवसर प्रदान किया जाता है।
- किसी व्यक्ति को केवल 3 माह के लिये निवारक हिरासत में लिया जा सकता है।
- अनुच्छेद 22 गिरफ्तार या हिरासत में लिये गए व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान करता है।
- सापेक्ष निवारक कानून:
- लोकसुरक्षा अधिनियम (PSA)।
- स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम (NDPS), 1985।
- राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम: NCRB डेटा से पता चला है कि राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत हिरासत में लिये गए लोगों की संख्या वर्ष 2020 की तुलना में काफी कम हो गई है।
- NSA के तहत निवारक हिरासत की संख्या वर्ष 2020 में 741 पर पहुँच गई। जबकि वर्ष 2021 में यह संख्या घटकर 483 हो गई।
- निवारक हिरासत से संबंधित मुद्दे:
- लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न: विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश ने निवारक हिरासत को संविधान का अभिन्न अंग नहीं बनाया है जैसा कि भारत में किया गया है।
- अतिरिक्त न्यायिक प्राधिकरण: सरकारें कभी-कभी ऐसे कानूनों का उपयोग अतिरिक्त न्यायिक अधिकार का प्रयोग करने के लिये करती हैं, जिससे निवारक हिरासत को लेकर चिंताएँ बढ़ जाती हैं।
- अन्य अधिनियमों का दुरुपयोग: गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 जैसे कई कानून हैं जिनका दुरुपयोग निवारक हिरासत के लिये किये जाने की संभावना है।
- सरकारी अधिकारियों द्वारा हेरफेर: ज़िला मजिस्ट्रेट तथा पुलिस भी अक्सर उभरती सांप्रदायिक झड़पों या किन्हीं दो समुदायों के बीच हुई झड़पों के दौरान कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिये संबंधित व्यक्तियों को नियंत्रित करने के लिये उन्हें निवारक हिरासत में लेते हैं, भले ही इससे हमेशा सार्वजनिक अव्यवस्था न हुई हो।
निवारक निरोध पर सर्वोच्च न्यायालय:
- अमीना बेगम केस, 2023: सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि निवारक हिरासत आपातकालीन स्थितियों के लिये एक असाधारण उपाय है और इसे नियमित रूप से इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये।
- निवारक हिरासत का उद्देश्य सज़ा देना नहीं है बल्कि राज्य की सुरक्षा के लिये हानिकारक किसी भी चीज़ को रोकना है।
- अंकुल चंद्र प्रधान केस, 1997: इस मामले में इस बात पर बल दिया गया कि निवारक हिरासत का उद्देश्य सज़ा देने के बजाय राज्य की सुरक्षा को नुकसान से बचाना है।
सार्वजनिक व्यवस्था एवं कानून व्यवस्था क्या है?
- परिचय:
- सार्वजनिक व्यवस्था का तात्पर्य समाज के भीतर शांति, स्थिरता और सद्भाव बनाए रखना है, यह सुनिश्चित करना कि गतिविधियाँ और व्यवहार समुदाय की समग्र कल्याण या सुरक्षा को बाधित न करें।
- सार्वजनिक व्यवस्था भी स्वतंत्र भाषण और अन्य मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करने का एक आधार है।
- सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने की शक्ति:
- सूची I (संघ सूची) की प्रविष्टि 9 के तहत, भारत का संविधान संसद को भारत की रक्षा, विदेशी मामलों या सुरक्षा से जुड़े कारणों के लिये निवारक हिरासत के लिये कानून बनाने की विशेष शक्ति प्रदान करता है।
- सूची III (समवर्ती सूची) की प्रविष्टि 3 के तहत, संसद और राज्य विधानमंडल दोनों के पास सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव या समुदाय के लिये आवश्यक आपूर्ति या सेवाओं के रखरखाव से संबंधित कारणों से ऐसे कानून बनाने की शक्तियाँ हैं।
- संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची (सूची 2) के अनुसार, सार्वजनिक व्यवस्था के पहलुओं पर कानून बनाने की शक्ति राज्यों के पास है।
- सार्वजनिक व्यवस्था और कानून एवं व्यवस्था के बीच अंतर:
- सर्वोच्च न्यायालय ने 'सार्वजनिक व्यवस्था' और 'कानून और व्यवस्था' के बीच अंतर किया।
- राम मनोहर लोहिया बनाम बिहार राज्य मामले, 1965 में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि 'कानून और व्यवस्था' की समस्या केवल कुछ व्यक्तियों को प्रभावित करती है, लेकिन सार्वजनिक व्यवस्था के मुद्दे ने समुदाय या जनता को बड़े पैमाने पर या यहाँ तक कि देश को भी प्रभावित किया है।
- 'कानून और व्यवस्था' और 'सार्वजनिक व्यवस्था' के बीच अंतर उनके दायरे की डिग्री एवं सीमा में निहित है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी व्यक्ति की गतिविधियों को "सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिये हानिकारक किसी भी तरीके से कार्य करने" की अभिव्यक्ति के अंतर्गत लाने के लिये गतिविधियाँ ऐसी प्रकृति की होनी चाहिये कि सामान्य कानून उनसे निपट न सकें या समाज को प्रभावित करने वाली विध्वंसक गतिविधियों को रोक न सकें।
आगे की राह
- संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिये राष्ट्रीय आयोग (NCRWC): निवारक निरोध प्रावधानों की समीक्षा के बाद वर्ष 2002 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें दो सिफारिशें दी गईं:
- अनुच्छेद 22 के तहत हिरासत की अधिकतम अवधि छह महीने होनी चाहिये।
- सलाहकार बोर्ड की संरचना में एक अध्यक्ष और दो अन्य सदस्य शामिल होने चाहिये जो उच्च न्यायालय के सेवारत न्यायाधीश हों।
- सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण: जुलाई, 2022 में, तेलंगाना में एक चेन-स्नैचर के लिये जारी निवारक निरोध आदेश को रद्द करते हुए, यह देखा गया कि राज्य को दी गई ये शक्तियाँ "असाधारण" थीं और चूँकि वे किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित करते हैं, इसलिये उनका उपयोग कम-से-कम किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने यह भी कहा था कि इन शक्तियों का उपयोग सामान्य कानून और व्यवस्था की समस्याओं को नियंत्रित करने के लिये नहीं किया जाना चाहिये।
Drishti Mains Question प्रश्न. सार्वजनिक व्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा बनाए रखने में निवारक निरोध तथा इसकी प्रभावशीलता पर चर्चा कीजिये। |
विधिक अंतर्दृष्टि: निवारक निरोध की वैधता