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भारतीय राजव्यवस्था

निजी संपत्ति के अधिग्रहण पर सीमा

  • 08 Nov 2024
  • 16 min read

प्रिलिम्स के लिये:

अनुच्छेद 39(b) और 31C, अनुच्छेद 300A, आर्थिक लोकतंत्र, समाजवाद, मूल अधिकार, जमींदारी प्रथा, संपत्ति का अधिकार, नौवीं अनुसूची, अनुच्छेद 31A और 31B, रैयतवाड़ी, नीति निर्देशक सिद्धांत, अनुच्छेद 14 और 19, प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951, अनुच्छेद 368, संविधान संशोधन, संसद। 

मेन्स के लिये:

स्वतंत्रता के बाद से संपत्ति के अधिकार का विकास। संपत्ति के अधिकार को आकार देने में न्यायपालिका की भूमिका।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में प्रॉपर्टी ऑनर्स एसोसिएशन बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले, 2024 में सर्वोच्च न्यायालय ने सार्वजनिक वितरण हेतु निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को अपने अधीन लेने की सरकार की शक्ति पर सीमाएँ निर्धारित की हैं।  

  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 39(b) और 31C की संवैधानिक योजनाओं को आधार बनाकर राज्य द्वारा निजी संपत्तियों पर कब्जा नहीं किया जा सकता है।

नोट:

  • अनुच्छेद 39(b) में प्रावधान है कि राज्य का लक्ष्य सभी के हित में भौतिक संसाधनों का वितरण सुनिश्चित करना होना चाहिये।
  • अनुच्छेद 31C के अनुसार, अनुच्छेद 39(b) और 39(C) को समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14) या अनुच्छेद 19 के तहत अधिकारों (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्वक एकत्र होने का अधिकार आदि) का हवाला देकर चुनौती नहीं दी जा सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?

  • निजी संसाधनों का अधिग्रहण: जो संसाधन दुर्लभ हैं या सामुदायिक कल्याण के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, उन्हें राज्य अधिग्रहण के लिये योग्य माना जाना चाहिये, न कि सभी निजी संपत्तियों को।
    • "सार्वजनिक ट्रस्ट सिद्धांत" (जहाँ राज्य द्वारा जनता के लिये कुछ संसाधनों को ट्रस्ट में रखा जाता है) से इस निर्धारण का मार्गदर्शन हो सकता है। 
  • संसाधन योग्यता के लिये परीक्षण: न्यायालय ने दो प्रमुख परीक्षण निर्धारित किये हैं अर्थात संसाधन “भौतिक” और “समुदाय से संबंधित या उसका कल्याण करने वाले या दोनों होने चाहिये। 
    • निजी स्वामित्व वाले संसाधन और उसके सामुदायिक तत्त्व की भौतिकता का मूल्यांकन विषयगत आधार पर किया जाना चाहिये।
      • भौतिकता से तात्पर्य भूमि, खनिज या जल जैसी परिसंपत्तियों के आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय गतिशीलता पर पड़ने वाले प्रभाव से है।
  • रंगनाथ रेड्डी मामले,1977 के विपरीत निर्णय: बहुमत द्वारा संजीव कोक फैसले, 1982 को  पलट दिया गया, जिसमें रंगनाथ रेड्डी मामले, 1977 में दिए गए तर्क को बरकरार रखा गया था कि सभी निजी संपत्तियों को पुनर्वितरण हेतु "समुदाय के भौतिक संसाधन" माना जा सकता है। 
    • एकमात्र असहमति जताने वाले न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने समुदाय के "भौतिक संसाधनों" को परिभाषित करने में व्यापक विधायी विवेकाधिकार की वकालत की।
  • अनुच्छेद 39(b) पर प्रतिबंध: न्यायालय ने अनुच्छेद 39(b) की व्यापक व्याख्या के प्रति सचेत किया, जिससे अनुच्छेद 300A के तहत संपत्ति के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव होगा।
    • अनुच्छेद 300A: किसी भी व्यक्ति को कानून के प्राधिकार के बिना उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
  • निजी संसाधनों को सामुदायिक संसाधनों में बदलना: सर्वोच्च न्यायालय ने निजी संसाधनों को सामुदायिक भौतिक संसाधनों में बदलने के पाँच तरीके बताए हैं:
    • राष्ट्रीयकरण, अधिग्रहण, विधि का क्रियान्वयन, राज्य द्वारा खरीद और संपत्ति के मालिक द्वारा दान।

संपत्ति के अधिकार से संबंधित संवैधानिक प्रावधान क्या हैं?

  • अनुच्छेद 31: अनुच्छेद 31 (एक मूल अधिकार) संपत्ति के अधिकार से संबंधित था, लेकिन इसे निरस्त कर दिया गया (44वें संशोधन अधिनियम, 1978) और अनुच्छेद 300A (संवैधानिक अधिकार) द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।
    • प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951: प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा संविधान में अनुच्छेद 31A और 31B के साथ -साथ नौवीं अनुसूची भी शामिल की गई।
    • अनुच्छेद 31A: इसने राज्य को मूल अधिकारों के साथ असंगति के आधार पर चुनौती दिये बिना संपत्ति अर्जित करने या संपत्ति में अधिकार में परिवर्तन की शक्ति प्रदान की।
    • अनुच्छेद 31B: यह सुनिश्चित करता है कि नौवीं अनुसूची में शामिल कानूनों को रद्द नहीं किया जा सकेगा,भले ही वे मूल अधिकारों के विरुद्ध हों।
    • नौवीं अनुसूची: इसमें केंद्रीय और राज्य कानूनों की सूची शामिल है जिन्हें न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती। जैसे,भूमि सुधार कानून
  • 25वाँ संशोधन अधिनियम, 1971: इसने अनुच्छेद 39(B) एवं (C) के तहत संसाधन वितरण के उद्देश्य से राज्य के कानूनों को संवैधानिक चुनौतियों से बचाने के लिये अनुच्छेद 31C जोड़ा गया।
    • संशोधन ने अदालतों को राज्य के कार्यों की समीक्षा करने से रोक दिया, भले ही वे मनमाने या तर्कहीन हों।
  • 42वाँ संशोधन अधिनियम, 1976: इसने सभी निदेशक तत्त्वों को शामिल करने के लिये अनुच्छेद 31C के दायरे का  विस्तार किया।
    • यह प्रावधान योग्य कानूनों को अनुच्छेद 14 एवं 19 के तहत निरस्त होने से बचाता है यदि वे वास्तव में संसाधन पुनर्वितरण के माध्यम से सार्वजनिक कल्याण सुनिश्चित करते हैं।
  • 44वाँ संशोधन अधिनियम, 1978: अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31, जो संपत्ति अर्जित एवं धारण करने के साथ-साथ निपटान करने के अधिकार की रक्षा करते थे, को निरस्त कर दिया गया, जिसका अर्थ है कि इसने संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की सूची से हटा दिया।
    • भाग XII के अध्याय IV में अनुच्छेद 300A के अंतर्गत संपत्ति एक संवैधानिक अधिकार के रूप में स्थापित हुआ।

संपत्ति के अधिकार से संबंधित न्यायिक व्याख्या क्या है?

  • शंकरी प्रसाद मामला, 1951: सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 को बरकरार रखा, जिसमें अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करने के लिये संसदीय विशेषाधिकार की पुष्टि की गई और साथ ही यह निर्णय दिया गया कि मौलिक अधिकारों को प्रभावित करने वाले संशोधन अनुच्छेद 13(2) द्वारा प्रतिबंधित नहीं हैं।
    • अनुच्छेद 13(2) न्यायिक समीक्षा का प्रावधान करता है जो मौलिक अधिकारों के साथ टकराव करने वाले कानूनों को अमान्य घोषित करने में सहायता प्रदान करता है।
  • बेला बनर्जी मामला, 1954: सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनिवार्य संपत्ति अधिग्रहण के मामलों में सरकार को उचित मुआवज़ा प्रदान करना आवश्यक है।
  • केशवानंद भारती मामला, 1973: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संवैधानिक संशोधन अनुच्छेद 13(2) के प्रतिबंधों के अधीन नहीं हैं, जिसका अर्थ है कि संसद,संविधान में संशोधन कर सकती है, जिसमें संपत्ति के अधिकार से संबंधित प्रावधानों में परिवर्तन करना या समाप्त करना शामिल है।
  • मिनर्वा मिल्स मामला, 1980: सभी निदेशक सिद्धांतों को शामिल करने के लिये अनुच्छेद 31C के दायरे का विस्तार करने को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया गया।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 31C की न्यायिक जाँच को रोकने वाले प्रावधानों को भी निरस्त कर दिया, परिणामस्वरूप संवैधानिक जाँच और संतुलन के सिद्धांत को बल मिला।
  • वामन राव मामला, 1981: यह माना गया कि केशवानंद भारती मामले से पहले नौवीं अनुसूची में संवैधानिक संशोधन और कानून न्यायिक चुनौती से संरक्षित हैं।
    • हालाँकि, इन मामलों के बाद जोड़े गए संशोधन मूल संरचना सिद्धांत के आधार पर न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं। 
  • विद्या देवी मामला, 2020: सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि बिना उचित प्रक्रिया के किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति को जबरन बेदखल करना मानवाधिकारों और अनुच्छेद 300A के तहत संवैधानिक अधिकार दोनों का उल्लंघन है।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का महत्त्व क्या है?

  • राज्य एवं व्यक्तिगत अधिकार: यह राज्य के हस्तक्षेप की संभावना को संरक्षित करता है, जबकि यह स्वीकार करता है कि निजी संसाधनों का अंधाधुंध अधिग्रहण स्वीकार्य नहीं है।
  • आर्थिक लोकतंत्र: यह निर्णय डॉ.बी.आर.अंबेडकर के "आर्थिक लोकतंत्र" के दृष्टिकोण के अनुरूप है, जो यह सुनिश्चित करता है कि संविधान एक कठोर आर्थिक संरचना को निर्देशित नहीं करता है, इस प्रकार लोगों की अपने सामाजिक एवं आर्थिक संगठन का निर्णय लेने की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है।
  • लचीली/नम्य व्याख्या: इसमें इस बात पर बल दिया गया है कि अनुच्छेद 39(B) जैसे निर्देशक सिद्धांतों को इस तरह से क्रियान्वित किया जाना चाहिये जो विकासशील सामाजिक और आर्थिक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करे, न कि किसी एक कठोर आर्थिक सिद्धांत को।
  • विधायी ढाँचा: यह निर्णय आर्थिक और कल्याणकारी नीतियों को आकार देने में निर्वाचित सरकारों और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की भूमिका को पुष्ट करता है।
  • कल्याण: भविष्य की कल्याणकारी नीतियाँ संभवतः सार्वजनिक कल्याण के लिये आवश्यक दुर्लभ, महत्त्वपूर्ण संसाधनों पर केंद्रित होंगी। राज्य प्रगतिशील कराधान और सार्वजनिक योजनाओं जैसी अधिक लक्षित कल्याणकारी रणनीतियाँ अपना सकता है।

संपत्ति पर राज्य के नियंत्रण का प्रभाव क्या है?

  • सकारात्मक प्रभाव:
    • न्यायसंगत पुनर्वितरण: हाशिए पर पड़े समूहों में संसाधनों का पुनर्वितरण करके सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है तथा धन असमानता को कम करता है।
    • संसाधन प्रबंधन: यह सुनिश्चित करता है कि भूमि, जल और खनिज जैसे संसाधनों का उपयोग स्थायी रूप से और सार्वजनिक लाभ के लिये किया जाए।
    • लोक कल्याण संबंधी परियोजनाएँ: सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये भूमि या संपत्ति का अधिग्रहण करके बुनियादी ढाँचे के विकास, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा की सुविधा प्रदान करती हैं।
    • कमज़ोर समूहों की सुरक्षा: वंचित समुदायों को शोषण से सुरक्षा प्रदान करता है।
  • नकारात्मक प्रभाव: 
    • निजी स्वामित्व पर सीमाएँ: व्यक्तिगत संपत्ति अधिकारों को कम करती है, जिससे निजी निवेश एवं उद्यमशीलता को हतोत्साहित होने की संभावना होती है।
    • प्रोत्साहन में कमी: राज्य के प्रतिबंधों के कारण निजी मालिकों में संपत्ति में सुधार या निवेश करने हेतु प्रोत्साहन में कमी हो सकती है।
    • आर्थिक स्थिरता: अत्यधिक विनियमन या अत्यधिक नियंत्रण बाज़ार-संचालित विकास एवं नवाचार को बाधित कर सकता है।

निष्कर्ष 

प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2024) में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने निजी संपत्ति के अधिग्रहण के लिये राज्य की शक्ति के बारे में महत्त्वपूर्ण मिसाल कायम की है। यह सार्वजनिक उद्देश्य, मुआवज़ा और मामले-दर-मामले आकलन की आवश्यकता पर बल प्रदान करता है, और साथ ही व्यक्तिगत संपत्ति अधिकारों को सामान्य हित के साथ संतुलित भी करता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: विभिन्न ऐतिहासिक मामलों में संपत्ति के अधिकार की न्यायिक व्याख्या पर चर्चा कीजिये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रारंभिक

प्र. भारत में संपत्ति के अधिकार की क्या स्थिति है? (2021)

(a) केवल नागरिकों के लिये उपलब्ध विधिक अधिकार
(b) किसी भी व्यक्ति के लिये उपलब्ध विधिक अधिकार
(c) केवल नागरिकों के लिये उपलब्ध मौलिक अधिकार
(d) न तो मौलिक अधिकार और न ही कानूनी अधिकार

उत्तर: (b)


मेन्स: 

प्रश्न. कोहिलो केस में क्या अभिनिर्धारित किया गया था? इस संदर्भ में क्या आप कह सकते हैं कि न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के बुनियादी अभिलक्षणों में प्रमुख महत्त्व का है? (2016) 

प्रश्न: कृषि विकास में भूमि सुधारों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। भारत में भूमि सुधारों की सफलता के लिये उत्तरदायी कारकों की पहचान कीजिये। (2016)

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