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सामाजिक न्याय

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में उत्तराधिकार मानदंड

  • 08 Nov 2024
  • 14 min read

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, उत्तराधिकार कानून, विधि आयोग,  राष्ट्रीय महिला आयोग, वीरशैव, लिंगायत, ब्रह्म सभा, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, अनुसूचित जनजाति, अनुच्छेद 366, मिताक्षरा और दयाभागा शाखा।

मुख्य परीक्षा के लिये:

लैंगिक समानता और महिलाओं से संबंधित मुद्दे

स्रोत: हिदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (HSA) के तहत उत्तराधिकार प्रावधानों को बनाए रखा, जिसमें उत्तराधिकार को लैंगिक असमानता के मामले के रूप में देखने के स्थान पर सांस्कृतिक मानदंडों के साथ-साथ विधायी निरंतरता पर बल दिया गया।

  • कई याचिकाओं में इन प्रावधानों की वैधता को चुनौती दी गई, और साथ ही उत्तराधिकार के मामलों में पुरुषों और महिलाओं के साथ समान व्यवहार की मांग की गई।

उत्तराधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या हैं?

  • लैंगिक न्याय के संदर्भ में नहीं: सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि विवाह के बाद, एक महिला अपने पति के परिवार का हिस्सा बन जाती है, तथा उस परिवार में उत्तराधिकार के संबंध में उसके अधिकार भी समान हो जाते हैं।
    • न्यायायलय ने स्पष्ट किया कि उत्तराधिकार कानून को केवल लैंगिक समानता के मुद्दे के रूप में निर्मित नहीं किया जाना चाहिये। 
  • सांस्कृतिक संदर्भ: न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि हिंदू उत्तराधिकार संबंधी प्रथाएँ गहराई से निहित सांस्कृतिक मूल्यों को प्रतिबिंबित करती हैं। 
    • पारंपरिक भावनाएँ प्राय: एक विवाहित महिला के माता-पिता को उसके उत्तराधिकार से प्राप्त संपत्तियों में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं देती हैं।
  • वैज्ञानिक और तर्कसंगत वंशावली: न्यायालय ने अधिनियम के "वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत" ढाँचे को बनाए रखा, जिसमें महिला द्वारा अपने माता-पिता या ससुराल वालों से अर्जित संपत्ति प्रत्यक्ष उत्तराधिकारियों की अनुपस्थिति में मूल परिवार को वापस कर दी जाती है, जिसमें पैतृक वंशावली-आधारित दृष्टिकोण को बनाए रखा जाता है।
  • विधायी परिवर्तन की आवश्यकता: न्यायालय ने दोहराया कि उत्तराधिकार कानूनों में संशोधन न्यायिक निर्णयों के स्थान पर विधायी निकाय संसद द्वारा प्रस्तावित एवं अधिनियमित किये जाने चाहिये।
    • ऐसा इसलिये है क्योंकि उत्तराधिकार कानून संपूर्ण समाज को प्रभावित करते हैं, और किसी भी परिवर्तन को कुछ व्यक्तियों या विशिष्ट विवाद संबंधी चिंताओं से प्रभावित होने के स्थान पर व्यापक सामाजिक सहमति और सामूहिक मूल्यों को प्रतिबिंबित करना चाहिये।
  •  उत्तराधिकार की भूमिका: न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि एक महिला  उत्तराधिकार के माध्यम से अपनी संपत्ति को अपनी इच्छानुसार वितरित करने के लिये स्वतंत्र है, तथा मौजूदा कानूनी मानदंडों के अंतर्गत व्यक्तिगत स्वायत्तता पर भी बल दिया गया।
  • विगत अनुशंसाएँ: हालाँकि, 174वें विधि आयोग (2000) तथा  राष्ट्रीय महिला आयोग सहित कुछ निकायों द्वारा पुरुषों और महिलाओं के लिये समान उत्तराधिकार अधिकारों की सिफारिश की है, ये सुधार राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के विचारों पर निर्भर करते हैं।

HSA, 1956 के अंतर्गत बिना वसीयत के उत्तराधिकार हेतु मुख्य प्रावधान क्या हैं?

  • हिंदू महिलाओं के लिये: यदि किसी हिंदू महिला की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाती है तो उसकी संपत्ति (जिसमें स्वयं अर्जित संपत्ति भी शामिल है) प्राथमिक रूप से उसके बच्चों और पति को विरासत में मिलती है।
  • यदि पति या बच्चे मौजूद नहीं हैं तो संपत्ति पति के उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित हो जाती है। केवल उन मामलों में जहाँ पति का कोई उत्तराधिकारी नहीं हैं, संपत्ति महिला के माता-पिता या उनके उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित होती है।
  • जब संपत्ति किसी स्रोत (जैसे माता-पिता, ससुराल वाले) से विरासत में मिलती है तो यदि महिला की मृत्यु बिना किसी प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी के हो जाती है, तो वह उस मूल परिवार को वापस मिल जाती है।
  • हिंदू पुरुषों के लिये: जब किसी हिंदू पुरुष की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाती है तो उसकी संपत्ति उसकी पत्नी, बच्चों और माँ के बीच बराबर-बराबर बाँट दी जाती है। अगर इनमें से कोई भी उत्तराधिकारी मौजूद नहीं है, तो संपत्ति पिता को मिल जाती है।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 क्या है?

  • परिचय: यह किसी हिंदू व्यक्ति की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाने पर संपत्ति के वितरण हेतु विधिक ढाँचा है। 
    • इस अधिनियम के तहत मृतक के साथ व्यक्ति के संबंधों के आधार पर उत्तराधिकारियों, उनके अधिकारों एवं संपत्ति के विभाजन के निर्धारण के लिये नियम निर्धारित किये गए हैं।
  • अधिनियम की प्रयोज्यता:
    • हिंदू धर्म के अनुसार वीरशैव, लिंगायत, ब्रह्मोस, प्रार्थना समाज और आर्य समाज के अनुयायी शामिल हैं।
    • यह अधिनियम बौद्ध, सिख और जैन धर्म पर लागू होगा
    • वे व्यक्ति जो मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं हैं, जब तक कि यह साबित न हो जाए कि हिंदू कानून या रीति-रिवाज़ उन पर लागू नहीं होते हैं, तब तक यह अधिनियम लागू होगा।
    • यह अधिनियम संपूर्ण भारत में लागू होगा लेकिन संविधान के अनुच्छेद 366 के अनुसार यह अनुसूचित जनजातियों पर स्वतः लागू नहीं होता है, जब तक कि केंद्र सरकार द्वारा इसे अधिसूचित न कर दिया जाए।
  • हिंदू विधि की शाखाएँ: इससे संपत्ति के उत्तराधिकार एवं अंतरण की एक समान प्रणाली का निर्धारण होता है जो मिताक्षरा और दायभाग शाखाओं पर समान रूप से लागू होती है।
    • मिताक्षरा विधि पश्चिम बंगाल और असम को छोड़कर पूरे भारत में लागू होती है जबकि दायभाग विधि पश्चिम बंगाल और असम पर लागू होती है।
      • दायभाग विधि के तहत उत्तराधिकार का अधिकार पूर्वजों की मृत्यु के बाद ही प्राप्त होता है जबकि मिताक्षरा विधि में जन्म से ही संपत्ति का अधिकार प्रदान किया गया है।
    • दायभाग प्रणाली में पुरुष और महिला, परिवार के दोनों ही सदस्य सहदायिक हो सकते हैं जबकि मिताक्षरा प्रणाली में सहदायिक अधिकार केवल पुरुष सदस्यों तक ही सीमित है।
      • सहदायिक वह व्यक्ति होता है जो जन्म से ही पैतृक संपत्ति पर अधिकार का दावा कर सकता है।
  • संपत्ति का वितरण: 
    • श्रेणी I के उत्तराधिकारी: विधवा को संपत्ति का एक हिस्सा मिलता है।
      • पुत्र, पुत्री और माँ सभी को बराबर हिस्सा मिलता है।  
    • श्रेणी II के उत्तराधिकारी: यदि कोई श्रेणी I का उत्तराधिकारी मौजूद नहीं है, तो संपत्ति को समान रूप से विभाजित किया जाता है।
    • सगोत्रीय और सजातीय: यदि कोई श्रेणी I या II का उत्तराधिकारी नहीं है, तो संपत्ति पैतृक रिश्तेदारों (सगोत्रीय) और अन्य रिश्तेदारों (सगोत्रीय) को हस्तांतरित हो जाती है।
  • हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005: अधिनियम की धारा 6 में वर्ष 2005 में संशोधित किया गया था और महिलाओं को वर्ष 2005 से संपत्ति के विभाजन के लिये सहदायिक के रूप में मान्यता दी गई थी।

नोट: 

  • श्रेणी I के उत्तराधिकारियों में पुत्र, पुत्री, विधवा, माँ, पूर्व मृत बेटे का बेटा और पूर्व मृत बेटे की बेटी आदि शामिल हैं।
  • श्रेणी II के उत्तराधिकारियों में पिता, पुत्र की पुत्री का पुत्र, पुत्र की पुत्री की पुत्री, भाई, बहन आदि शामिल हैं। 

अन्य समुदायों में उत्तराधिकार कानून

निष्कर्ष

HSA के तहत उत्तराधिकार प्रावधानों पर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ सांस्कृतिक परंपराओं और वंश-आधारित उत्तराधिकार पर ज़ोर देने वाले विधायी ढाँचे के बीच परस्पर क्रिया को उजागर करती हैं। न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार कानूनों में लैंगिक न्याय और सामाजिक मूल्यों के महत्त्व पर ज़ोर दिया, साथ ही व्यक्तिगत स्वायत्तता का सम्मान करने और संभावित विधायी सुधारों पर विचार करने की आवश्यकता को स्वीकार किया। यह अच्छी तरह से स्थापित है कि किसी कानून के उद्देश्य को केवल उस कठिनाई के कारण कम नहीं किया जा सकता है जो इससे हो सकती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत उत्तराधिकार अधिकारों की जाँच कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न:  प्राचीन भारत के इतिहास के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2021)

  1. मिताक्षरा ऊँची जाति की सिविल विधि थी और दायभाग निम्न जाति की सिविल विधि थी। 
  2. मिताक्षरा व्यवस्था में, पुत्र अपने पिता के जीवनकाल में ही संपत्ति पर अधिकार का दावा कर सकते थे, जबकि दायभाग व्यवस्था में पिता की मृत्यु के उपरांत ही पुत्र संपत्ति पर अधिकार का दावा कर सकते थे। 
  3. मिताक्षरा व्यवस्था किसी परिवार के केवल पुरुष सदस्यों के संपत्ति-संबंधी मामलों पर विचार करती है, जबकि दायभाग व्यवस्था किसी परिवार के पुरुष एवं महिला सदस्यों, दोनों के संपत्ति-संबंधी मामलों पर विचार करती है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये-

(a) केवल 1 और 2  
(b) केवल 2
(c) केवल 1 और 3  
(d) केवल 3

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न: भारत में एक मध्यम-वर्गीय कामकाजी महिला की अवस्थिति को पितृतंत्र (पेट्रिआर्की) किस प्रकार प्रभावित करता है? (2014)

प्रश्न: "यद्यपि स्वातंत्र्योत्तर भारत में महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्टता हासिल की है, इसके बावजूद महिलाओं और

प्रश्न: नारीवादी आंदोलन के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण पितृसत्तात्मक रहा है।" महिला शिक्षा और महिला सशक्तीकरण की

प्रश्न: योजनाओं के अतिरिक्त कौन-से हस्तक्षेप इस परिवेश के परिवर्तन में सहायक हो सकते हैं?  (2021)

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