विकास अर्थशास्त्र | 11 Nov 2024
प्रिलिम्स के लिये:विकास अर्थशास्त्र, आर्थिक विकास, निर्धनता, GDP, सतत् विकास। मेन्स के लिये:विकास अर्थशास्त्र, विकास अर्थशास्त्र का दृष्टिकोण, भारत में आर्थिक विकास को बढ़ावा देने वाले प्रमुख कारक, विकास अर्थशास्त्र से संबंधित वर्तमान चुनौतियाँ। |
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स
चर्चा में क्यों?
आईएमएफ विश्व आर्थिक परिदृश्य के हालिया अक्टूबर 2024 संस्करण ने राजनीतिक और आर्थिक वास्तविकताओं को संरेखित करने के लिये विकास अर्थशास्त्र की आवश्यकता पर चर्चा को बढ़ावा दिया है।
- रिपोर्ट में वैश्विक आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिये एकीकृत दृष्टिकोण पर जोर दिया गया है, तथा प्रभावी शासन के लिये आर्थिक नीतियों और राजनीतिक निहितार्थों के बीच अंतर्सम्बन्ध को समझने के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।
विश्व आर्थिक परिदृश्य रिपोर्ट
- WEO के बारे में: WEO अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा तैयार की जाने वाली एक प्रमुख रिपोर्ट है, जो अप्रैल और अक्टूबर में द्विवार्षिक रूप से प्रकाशित होती है।
- फोकस: वैश्विक अर्थव्यवस्था और अलग-अलग देशों के लिये विश्लेषण और अनुमान प्रदान करता है।
- उद्देश्य: आर्थिक विकास का आकलन करना, प्रवृत्तियों की पहचान करना और नीतिगत सिफारिशें प्रस्तुत करना।
- अवयव:
- आर्थिक विकास अनुमान: वैश्विक और क्षेत्रीय आर्थिक प्रदर्शन के लिये पूर्वानुमान।
- मुद्रास्फीति के रुझान: मुद्रास्फीति दरों और उनके निहितार्थों पर अंतर्दृष्टि।
- वित्तीय स्थिरता मूल्यांकन: वित्तीय प्रणालियों और बाजारों के लिये जोखिमों का मूल्यांकन करता है।
- महत्त्व:
- यह नीति निर्माताओं, शोधकर्ताओं और निवेशकों के लिये आर्थिक परिदृश्य को समझने और उसमें मार्गदर्शन करने के लिये एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में कार्य करता है।
विकास अर्थशास्त्र क्या है?
- परिचय:
- यह अर्थशास्त्र की एक शाखा है जो इस अध्ययन पर केंद्रित है कि देश किस प्रकार सतत् आर्थिक विकास प्राप्त करने एवं निर्धनता को कम करने के साथ अपनी जनसंख्या के जीवन स्तर में सुधार कर सकते हैं।
- इसमें आर्थिक विकास की प्रक्रियाओं, इसमें योगदान देने वाले कारकों तथा इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में विकासशील देशों के समक्ष आने वाली चुनौतियों का परीक्षण किया जाता है।
- इसका विकास द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुआ (विशेष रूप से नव स्वतंत्र राष्ट्रों के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों के प्रत्युत्तर में)।
- प्रमुख लक्षित क्षेत्र:
- आर्थिक विकास: इसमें इस बात पर ध्यान केंद्रित किया जाता है कि अर्थव्यवस्थाएँ किस प्रकार विस्तारित होती हैं इसके साथ ही दीर्घकालिक विकास को बढ़ावा देने के लिये निवेश, प्रौद्योगिकी, मानव पूंजी, बुनियादी ढाँचे और संस्थानों जैसे कारकों पर बल दिया जाता है।
- निर्धनता में कमी: इसका उद्देश्य जीवन स्तर में सुधार के क्रम में धन पुनर्वितरण, सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों एवं समावेशी आर्थिक नीतियों जैसी रणनीतियों के माध्यम से निर्धनता को कम करना है।
- असमानता: इसके तहत राष्ट्रों के भीतर और उनके बीच आय एवं धन असमानताओं का पता लगाने के साथ यह पता लगाया जाता है कि असमानता सामाजिक सामंजस्य और आर्थिक स्थिरता को किस प्रकार प्रभावित करती है। इसके साथ ही इसके समाधान हेतु सिफारिशें दी जाती हैं।
- सतत् विकास: इसके तहत यह सुनिश्चित किया जाता है कि आर्थिक विकास से पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे, साथ ही यह जलवायु परिवर्तन और संसाधनों की कमी जैसी चुनौतियों का समाधान करने पर केंद्रित है।
- वैश्वीकरण और व्यापार: इसके तहत विकासशील देशों पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) एवं वैश्विक वित्तीय बाज़ारों के प्रभाव का विश्लेषण किया जाता है तथा व्यापार असंतुलन एवं बाज़ार पहुँच जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
- संस्थागत विकास: इसके तहत आर्थिक विकास के लिये मज़बूत संस्थाओं (विधिक प्रणाली, लोकतांत्रिक शासन, लोक प्रशासन) के महत्त्व पर बल देता है तथा इस बात की जाँच की जाती है कि संस्थाओं में सुधार कैसे किया जा सकता है।
- सैद्धांतिक दृष्टिकोण: विकास अर्थशास्त्र में कई विचारधाराएँ शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक आर्थिक विकास को प्राप्त करने के संबंध में अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं।
- नवशास्त्रीय सिद्धांत: इसके तहत आर्थिक विकास के चालकों के रूप में मुक्त बाज़ार, निजी संपत्ति अधिकार और प्रतिस्पर्द्धा पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तथा न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप को बल दिया जाता है।
- संरचनावादी सिद्धांत: इसके तहत खराब बुनियादी ढाँचे, प्राथमिक क्षेत्रों पर अत्यधिक निर्भरता और कमज़ोर औद्योगिकीकरण जैसे संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता पर बल दिया जाता है तथा राज्य के नेतृत्व वाले विकास की वकालत की जाती है।
- क्षमता दृष्टिकोण: इसे अमर्त्य सेन द्वारा प्रस्तुत किया गया था। यह दृष्टिकोण सकल घरेलू उत्पाद से ध्यान हटाकर मानव कल्याण पर केंद्रित है तथा विकास में व्यक्तियों की स्वतंत्रता एवं विकल्पों के विस्तार के महत्त्व पर प्रकाश डाला जाता है।
- संस्थागत अर्थशास्त्र: इसके तहत आर्थिक परिणामों को आकार देने में संस्थाओं (औपचारिक और अनौपचारिक दोनों) की भूमिका पर बल दिया जाता है तथा तर्क दिया जाता है कि विकास, शासन की गुणवत्ता एवं सामाजिक मानदंडों से प्रभावित होता है।
विकास अर्थशास्त्र के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता क्यों है?
- वृहद-स्तरीय चुनौतियाँ: वर्तमान विकास अर्थशास्त्र के तहत अक्सर सूक्ष्म-स्तरीय हस्तक्षेपों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तथा राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा, राजकोषीय बाधाओं एवं वैश्विक व्यापार असंतुलन जैसी बड़े पैमाने की वृहद-आर्थिक चुनौतियों की अनदेखी की जाती है।
- इन व्यापक आर्थिक मुद्दों के समाधान के लिये अधिक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
- राजनीतिक वास्तविकताएँ: भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में लोकलुभावन नीतियों जैसी राजनीतिक वास्तविकताएँ अक्सर दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधारों को कमज़ोर करती हैं।
- विकास अर्थशास्त्र को राजनीतिक व्यवहार्यता के साथ संरेखित करने के साथ यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रस्तावित समाधान मौजूदा राजनीतिक ढाँचे के तहत व्यावहारिक रूप से कार्यान्वयन योग्य हों।
- वैश्विक गतिशीलता एवं तकनीकी बदलाव: तीव्र तकनीकी प्रगति और वैश्विक बाज़ार में उथल-पुथल के साथ विकास अर्थशास्त्र को बदलती वैश्विक गतिशीलता के अनुकूल होना चाहिये। इसमें प्रतिस्पर्द्धात्मकता, नवाचार और राष्ट्रीय विकास पर नई प्रौद्योगिकियों के प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है।
- IMF की विश्व आर्थिक परिदृश्य (WEO) रिपोर्ट में श्रम उत्पादकता के कारण चीन में इलेक्ट्रिक वाहन उत्पादन में वृद्धि पर प्रकाश डाला गया है, जिससे वैश्विक बाज़ारों में उथल-पुथल हुई है। इसके साथ ही इसमें वैश्विक बदलावों के अनुकूल विकास अर्थशास्त्र की आवश्यकता को दर्शाया गया है।
- सतत् एवं समावेशी विकास: यह सुनिश्चित करने के लिये पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है कि विकास अर्थशास्त्र से समावेशी विकास, निर्धनता उन्मूलन एवं सतत् विकास को बढ़ावा मिलने के साथ असमानता एवं तीव्र औद्योगिकीकरण तथा शहरीकरण से उत्पन्न पर्यावरणीय चुनौतियों का समाधान हो सके।
- अंतःविषयक दृष्टिकोण: विकास अर्थशास्त्र के तहत राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र और पर्यावरण विज्ञान जैसे अन्य क्षेत्रों को एकीकृत करने की आवश्यकता है जिससे एक अधिक समग्र रूपरेखा तैयार हो सके ताकि आर्थिक नीतियों, राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक कल्याण के बीच जटिल अंतर-निर्भरताओं पर विचार किया जा सके।
भारत का आर्थिक प्रदर्शन वैश्विक विकास अर्थशास्त्र के साथ किस प्रकार संरेखित है?
- उच्च विकास दर: भारत की GDP वृद्धि लगातार वैश्विक औसत से आगे रह रही है और वर्ष 2024-25 में 7% की पूर्वानुमानित विकास दर (IMF) संभावित है। इससे भारत उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में स्थापित हुआ है।
- वैश्विक मंदी के बावजूद भारत की संवृद्धि दर मज़बूत बनी हुई है, जो वैश्विक मंच पर इसकी आर्थिक क्षमता को दर्शाती है।
- विकास चालक के रूप में घरेलू मांग: भारत की आर्थिक संवृद्धि का एक प्रमुख हिस्सा मज़बूत घरेलू मांग से प्रेरित है, जिसमें उपभोक्ता खर्च सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 60% है (विश्व बैंक, 2023)।
- विशेष रूप से बुनियादी अवसरंचना और सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों में सरकारी निवेश भी वैश्विक आर्थिक मंदी जैसे बाह्य असंतुलन को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- जनसांख्यिकीय लाभांश: भारत की जनसंख्या मुख्य रूप से युवा है, जिसकी वर्ष 2024 में औसत आयु 28.4 वर्ष होगी (संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग), जो पर्याप्त कार्यबल और दीर्घकालिक आर्थिक विकास की क्षमता प्रदान करेगी।
- अनुमान है कि वर्ष 2030 तक भारत के पास विश्व का सबसे बड़ा कार्यबल होगा, जिसका यदि प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाए तो उत्पादकता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हो सकती है।
- सेवा क्षेत्र का प्रभुत्व: सेवा क्षेत्र, विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी (IT) और बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (BPO) भारत के आर्थिक प्रदर्शन के लिये केंद्रीय है। वित्त वर्ष 2022-2023 में भारत का IT निर्यात लगभग 194 बिलियन अमेरिकी डॉलर रहा (नैसकॉम) जिससे यह इस क्षेत्र में वैश्विक अभिकर्त्ता बन गया।
- यह क्षेत्र न केवल निर्यात में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है, बल्कि रोज़गार सृजन भी करता है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) भी आकर्षित करता है।
- अवसंरचना विकास: भारत ने अवसंरचना में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाया है, सरकार ने अवसंरचना विकास के लिये 1.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर (राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन 2020-2025) आवंटित किया है।
- भारतमाला परियोजना (सड़क अवसंरचना) और उड़ान (क्षेत्रीय हवाई संपर्क) जैसी प्रमुख पहलों से नए आर्थिक अवसर उत्पन्न करने और प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ने की उम्मीद है।
- डिजिटल परिवर्तन और वित्तीय समावेशन: भारत ने डिजिटल परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है, विशेषकर UPI जैसी डिजिटल भुगतान प्रणाली की शुरुआत के साथ। UPI लेनदेन का मूल्य वर्ष-दर-वर्ष 40% बढ़कर जून 2024 में 20.07 ट्रिलियन रुपए हो गया, जो जनवरी 2023 में 12.98 ट्रिलियन रुपए था।
- अक्तूबर 2024 में 23.5 ट्रिलियन रुपए मूल्य के 16.58 बिलियन यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI) लेनदेन हुए, जो अप्रैल 2016 में इसकी शुरुआत के बाद से डिजिटल सिस्टम के लिये सबसे अधिक संख्या है।
- जन धन खातों और आधार-आधारित पहचान प्रणालियों जैसी डिजिटल पहलों ने वित्तीय समावेशन में सुधार किया है, जिससे पहले वंचित रहे लाखों व्यक्तियों को लाभ हुआ है।
भारत के लिये विकास अर्थशास्त्र में चुनौतियाँ क्या हैं?
- राजनीतिक आर्थिक बाधाएँ: भारत का विकास राजनीतिक गतिशीलता से प्रभावित होता है, जहाँ चुनावी चक्र अक्सर श्रम, कर तथा उद्योग में दीर्घकालिक सुधारों की तुलना में नकद हस्तांतरण और सब्सिडी जैसी लोकलुभावन नीतियों को प्राथमिकता देते हैं।
- यह अल्पकालिक फोकस उन आवश्यक सुधारों को सीमित करता है जो स्थाई आर्थिक विकास को समर्थन देंगे।
- श्रम बाज़ार की कठोरता: भारत को कौशल अंतराल, कम उत्पादकता और कठोर श्रम कानूनों का सामना करना पड़ रहा है, जो भर्ती में लचीलेपन को प्रतिबंधित करते हैं।
- कौशल विकास में सुधार और अधिक श्रम लचीलेपन के बिना, भारत अपने कार्यबल को उच्च विकास वाले क्षेत्रों और वैश्विक मानकों के अनुरूप बनाने में संघर्ष करता है।
- सामाजिक अशांति और विरोध: श्रम-व्यवसाय तनाव, विशेष रूप से विनिर्माण क्षेत्रों में, श्रमिक सुरक्षा और व्यावसायिक आवश्यकताओं के बीच संतुलन स्थापित करने में सामाजिक चुनौतियों को उजागर करता है।
- यदि इन तनावों को प्रबंधित नहीं किया गया तो ये निवेश को बाधित कर सकते हैं और विनिर्माण प्रतिस्पर्द्धा को कमज़ोर कर सकते हैं।
- भू-राजनीतिक अनिश्चितताएँ: विशेष रूप से अमेरिका और चीन के बीच व्यापार तनाव, भारत के लिये अवसर एवं जोखिम दोनों प्रस्तुत करते हैं।
- जबकि भारत चीन से विविध निवेश आकर्षित कर सकता है, उसे पारंपरिक बाज़ारों पर निर्भरता कम करनी होगी तथा बदलती वैश्विक अर्थव्यवस्था में लचीला बने रहने के लिये विविध व्यापार साझेदारियाँ बनानी होंगी।
आगे की राह
- विकास और समानता में संतुलन: यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि सुधार न केवल विकास को बढ़ावा दें बल्कि आय असमानता और सामाजिक न्याय को भी संबोधित करें। इसके लिये ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो समावेशी विकास, उचित वेतन और शिक्षा में निवेश को बढ़ावा दें।
- प्रौद्योगिकी को अपनाना: वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिये भारत को कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), स्वचालन और हरित प्रौद्योगिकियों सहित तकनीकी नवाचार को अपनाना होगा।
- इसके लिये सहायक नीतिगत वातावरण, बुनियादी अवसरंचना में निवेश और कौशल विकास पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
- श्रम-प्रधान क्षेत्रों को बढ़ावा देना: भारत को वस्त्र और परिधान जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये, जहाँ सस्ते श्रम और बुनियादी अवसरंचना के मामले में उसे प्रतिस्पर्द्धात्मक लाभ प्राप्त है।
- तकनीकी नवाचार को बढ़ावा देना: भारत को इलेक्ट्रॉनिक्स, माइक्रोचिप्स और नवीकरणीय ऊर्जा जैसे अत्याधुनिक उद्योगों में निवेश करना चाहिये। इसे मूल्य शृंखला को आगे बढ़ाने और अनुसंधान एवं विकास तथा उद्यम पूंजी के माध्यम से नवाचार को बढ़ावा देने के लिये STEM शिक्षा को भी मज़बूत करना चाहिये।
- इसके लिये अनुसंधान एवं विकास हेतु अधिक अनुकूल वातावरण, पूंजी तक बेहतर पहुँच और एक मज़बूत शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता होगी जो उच्च तकनीक क्षेत्रों के लिये प्रशिक्षित कार्यबल तैयार कर सके।
- श्रम कानूनों और विनियामक ढाँचों में सुधार: भारत को IMF की विश्व आर्थिक परिदृश्य (WEO) रिपोर्ट के अनुसार अधिक व्यापार-अनुकूल वातावरण बनाने के लिये अपने श्रम कानूनों को सरल और आधुनिक बनाना चाहिये।
- विनियामक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना, अनुपालन बोझ को कम करना तथा "मेक इन इंडिया" और "ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस" सुधारों जैसी पहलों के माध्यम से कारोबार में आसानी सुनिश्चित करना विदेशी निवेश को आकर्षित करने तथा प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- मानव पूंजी में निवेश को लक्षित करना: श्रम उत्पादकता को बढ़ावा देने और दीर्घकालिक विकास को समर्थन देने के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल एवं कौशल विकास को प्राथमिकता देना।
- नकद हस्तांतरण से हटकर उच्च मूल्य वाले क्षेत्रों से जुड़े कुशल कार्यबल के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना।
- शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर सार्वजनिक व्यय में वृद्धि से भारत का कार्यबल प्रतिस्पर्धी वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिये तैयार होगा।
- अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ सहभागिता: भारत को व्यापार की अनुकूल शर्तें सुनिश्चित करने तथा वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं और व्यापार समझौतों की जटिलताओं से निपटने के लिये IMF, विश्व बैंक एवं WTO जैसी वैश्विक आर्थिक संस्थाओं के साथ अपने सहयोग को मज़बूत करना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. विकास अर्थशास्त्र क्या है? विकास अर्थशास्त्र के वर्तमान दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता क्यों है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न.'आठ मूल उद्योगों के सूचकांक (इंडेक्स ऑफ एट कोर इंडस्ट्रीज़)' में निम्नलिखित में से किसको सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है? (2015) (a) कोयला उत्पादन उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. "सुधारोत्तर अवधि में सकल-घरेलू-उत्पाद (जी.डी.पी.) की समग्र संवृद्धि में औद्योगिक संवृद्धि दर पिछड़ती गई है।" कारण बताइए। औद्योगिक-नीति में हाल में किये गए परिवर्तन औद्योगिक संवृद्धि दर को बढ़ाने में कहां तक सक्षम हैं ? (2017) प्रश्न: सामान्यतः देश कृषि से उद्योग और बाद में सेवाओं को अन्तरित होते हैं पर भारत सीधे ही कृषि से सेवाओं को अन्तरित हो गया है। देश में उद्योग के मुकाबले सेवाओं की विशाल संवृद्धि के क्या कारण हैं? क्या भारत सशक्त औद्योगिक आधार के बिना एक विकसित देश बन सकता है? (2014) |
प्रिलिम्स के लिये:विकास अर्थशास्त्र, आर्थिक विकास, निर्धनता, GDP, सतत् विकास। मेन्स के लिये:विकास अर्थशास्त्र, विकास अर्थशास्त्र का दृष्टिकोण, भारत में आर्थिक विकास को बढ़ावा देने वाले प्रमुख कारक, विकास अर्थशास्त्र से संबंधित वर्तमान चुनौतियाँ। |
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स
चर्चा में क्यों?
आईएमएफ विश्व आर्थिक परिदृश्य के हालिया अक्टूबर 2024 संस्करण ने राजनीतिक और आर्थिक वास्तविकताओं को संरेखित करने के लिये विकास अर्थशास्त्र की आवश्यकता पर चर्चा को बढ़ावा दिया है।
- रिपोर्ट में वैश्विक आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिये एकीकृत दृष्टिकोण पर जोर दिया गया है, तथा प्रभावी शासन के लिये आर्थिक नीतियों और राजनीतिक निहितार्थों के बीच अंतर्सम्बन्ध को समझने के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।
विश्व आर्थिक परिदृश्य रिपोर्ट
- WEO के बारे में: WEO अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा तैयार की जाने वाली एक प्रमुख रिपोर्ट है, जो अप्रैल और अक्टूबर में द्विवार्षिक रूप से प्रकाशित होती है।
- फोकस: वैश्विक अर्थव्यवस्था और अलग-अलग देशों के लिये विश्लेषण और अनुमान प्रदान करता है।
- उद्देश्य: आर्थिक विकास का आकलन करना, प्रवृत्तियों की पहचान करना और नीतिगत सिफारिशें प्रस्तुत करना।
- अवयव:
- आर्थिक विकास अनुमान: वैश्विक और क्षेत्रीय आर्थिक प्रदर्शन के लिये पूर्वानुमान।
- मुद्रास्फीति के रुझान: मुद्रास्फीति दरों और उनके निहितार्थों पर अंतर्दृष्टि।
- वित्तीय स्थिरता मूल्यांकन: वित्तीय प्रणालियों और बाजारों के लिये जोखिमों का मूल्यांकन करता है।
- महत्त्व:
- यह नीति निर्माताओं, शोधकर्ताओं और निवेशकों के लिये आर्थिक परिदृश्य को समझने और उसमें मार्गदर्शन करने के लिये एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में कार्य करता है।
विकास अर्थशास्त्र क्या है?
- परिचय:
- यह अर्थशास्त्र की एक शाखा है जो इस अध्ययन पर केंद्रित है कि देश किस प्रकार सतत् आर्थिक विकास प्राप्त करने एवं निर्धनता को कम करने के साथ अपनी जनसंख्या के जीवन स्तर में सुधार कर सकते हैं।
- इसमें आर्थिक विकास की प्रक्रियाओं, इसमें योगदान देने वाले कारकों तथा इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में विकासशील देशों के समक्ष आने वाली चुनौतियों का परीक्षण किया जाता है।
- इसका विकास द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुआ (विशेष रूप से नव स्वतंत्र राष्ट्रों के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों के प्रत्युत्तर में)।
- प्रमुख लक्षित क्षेत्र:
- आर्थिक विकास: इसमें इस बात पर ध्यान केंद्रित किया जाता है कि अर्थव्यवस्थाएँ किस प्रकार विस्तारित होती हैं इसके साथ ही दीर्घकालिक विकास को बढ़ावा देने के लिये निवेश, प्रौद्योगिकी, मानव पूंजी, बुनियादी ढाँचे और संस्थानों जैसे कारकों पर बल दिया जाता है।
- निर्धनता में कमी: इसका उद्देश्य जीवन स्तर में सुधार के क्रम में धन पुनर्वितरण, सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों एवं समावेशी आर्थिक नीतियों जैसी रणनीतियों के माध्यम से निर्धनता को कम करना है।
- असमानता: इसके तहत राष्ट्रों के भीतर और उनके बीच आय एवं धन असमानताओं का पता लगाने के साथ यह पता लगाया जाता है कि असमानता सामाजिक सामंजस्य और आर्थिक स्थिरता को किस प्रकार प्रभावित करती है। इसके साथ ही इसके समाधान हेतु सिफारिशें दी जाती हैं।
- सतत् विकास: इसके तहत यह सुनिश्चित किया जाता है कि आर्थिक विकास से पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे, साथ ही यह जलवायु परिवर्तन और संसाधनों की कमी जैसी चुनौतियों का समाधान करने पर केंद्रित है।
- वैश्वीकरण और व्यापार: इसके तहत विकासशील देशों पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) एवं वैश्विक वित्तीय बाज़ारों के प्रभाव का विश्लेषण किया जाता है तथा व्यापार असंतुलन एवं बाज़ार पहुँच जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
- संस्थागत विकास: इसके तहत आर्थिक विकास के लिये मज़बूत संस्थाओं (विधिक प्रणाली, लोकतांत्रिक शासन, लोक प्रशासन) के महत्त्व पर बल देता है तथा इस बात की जाँच की जाती है कि संस्थाओं में सुधार कैसे किया जा सकता है।
- सैद्धांतिक दृष्टिकोण: विकास अर्थशास्त्र में कई विचारधाराएँ शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक आर्थिक विकास को प्राप्त करने के संबंध में अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं।
- नवशास्त्रीय सिद्धांत: इसके तहत आर्थिक विकास के चालकों के रूप में मुक्त बाज़ार, निजी संपत्ति अधिकार और प्रतिस्पर्द्धा पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तथा न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप को बल दिया जाता है।
- संरचनावादी सिद्धांत: इसके तहत खराब बुनियादी ढाँचे, प्राथमिक क्षेत्रों पर अत्यधिक निर्भरता और कमज़ोर औद्योगिकीकरण जैसे संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता पर बल दिया जाता है तथा राज्य के नेतृत्व वाले विकास की वकालत की जाती है।
- क्षमता दृष्टिकोण: इसे अमर्त्य सेन द्वारा प्रस्तुत किया गया था। यह दृष्टिकोण सकल घरेलू उत्पाद से ध्यान हटाकर मानव कल्याण पर केंद्रित है तथा विकास में व्यक्तियों की स्वतंत्रता एवं विकल्पों के विस्तार के महत्त्व पर प्रकाश डाला जाता है।
- संस्थागत अर्थशास्त्र: इसके तहत आर्थिक परिणामों को आकार देने में संस्थाओं (औपचारिक और अनौपचारिक दोनों) की भूमिका पर बल दिया जाता है तथा तर्क दिया जाता है कि विकास, शासन की गुणवत्ता एवं सामाजिक मानदंडों से प्रभावित होता है।
विकास अर्थशास्त्र के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता क्यों है?
- वृहद-स्तरीय चुनौतियाँ: वर्तमान विकास अर्थशास्त्र के तहत अक्सर सूक्ष्म-स्तरीय हस्तक्षेपों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तथा राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा, राजकोषीय बाधाओं एवं वैश्विक व्यापार असंतुलन जैसी बड़े पैमाने की वृहद-आर्थिक चुनौतियों की अनदेखी की जाती है।
- इन व्यापक आर्थिक मुद्दों के समाधान के लिये अधिक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
- राजनीतिक वास्तविकताएँ: भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में लोकलुभावन नीतियों जैसी राजनीतिक वास्तविकताएँ अक्सर दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधारों को कमज़ोर करती हैं।
- विकास अर्थशास्त्र को राजनीतिक व्यवहार्यता के साथ संरेखित करने के साथ यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रस्तावित समाधान मौजूदा राजनीतिक ढाँचे के तहत व्यावहारिक रूप से कार्यान्वयन योग्य हों।
- वैश्विक गतिशीलता एवं तकनीकी बदलाव: तीव्र तकनीकी प्रगति और वैश्विक बाज़ार में उथल-पुथल के साथ विकास अर्थशास्त्र को बदलती वैश्विक गतिशीलता के अनुकूल होना चाहिये। इसमें प्रतिस्पर्द्धात्मकता, नवाचार और राष्ट्रीय विकास पर नई प्रौद्योगिकियों के प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है।
- IMF की विश्व आर्थिक परिदृश्य (WEO) रिपोर्ट में श्रम उत्पादकता के कारण चीन में इलेक्ट्रिक वाहन उत्पादन में वृद्धि पर प्रकाश डाला गया है, जिससे वैश्विक बाज़ारों में उथल-पुथल हुई है। इसके साथ ही इसमें वैश्विक बदलावों के अनुकूल विकास अर्थशास्त्र की आवश्यकता को दर्शाया गया है।
- सतत् एवं समावेशी विकास: यह सुनिश्चित करने के लिये पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है कि विकास अर्थशास्त्र से समावेशी विकास, निर्धनता उन्मूलन एवं सतत् विकास को बढ़ावा मिलने के साथ असमानता एवं तीव्र औद्योगिकीकरण तथा शहरीकरण से उत्पन्न पर्यावरणीय चुनौतियों का समाधान हो सके।
- अंतःविषयक दृष्टिकोण: विकास अर्थशास्त्र के तहत राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र और पर्यावरण विज्ञान जैसे अन्य क्षेत्रों को एकीकृत करने की आवश्यकता है जिससे एक अधिक समग्र रूपरेखा तैयार हो सके ताकि आर्थिक नीतियों, राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक कल्याण के बीच जटिल अंतर-निर्भरताओं पर विचार किया जा सके।
भारत का आर्थिक प्रदर्शन वैश्विक विकास अर्थशास्त्र के साथ किस प्रकार संरेखित है?
- उच्च विकास दर: भारत की GDP वृद्धि लगातार वैश्विक औसत से आगे रह रही है और वर्ष 2024-25 में 7% की पूर्वानुमानित विकास दर (IMF) संभावित है। इससे भारत उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में स्थापित हुआ है।
- वैश्विक मंदी के बावजूद भारत की संवृद्धि दर मज़बूत बनी हुई है, जो वैश्विक मंच पर इसकी आर्थिक क्षमता को दर्शाती है।
- विकास चालक के रूप में घरेलू मांग: भारत की आर्थिक संवृद्धि का एक प्रमुख हिस्सा मज़बूत घरेलू मांग से प्रेरित है, जिसमें उपभोक्ता खर्च सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 60% है (विश्व बैंक, 2023)।
- विशेष रूप से बुनियादी अवसरंचना और सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों में सरकारी निवेश भी वैश्विक आर्थिक मंदी जैसे बाह्य असंतुलन को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- जनसांख्यिकीय लाभांश: भारत की जनसंख्या मुख्य रूप से युवा है, जिसकी वर्ष 2024 में औसत आयु 28.4 वर्ष होगी (संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग), जो पर्याप्त कार्यबल और दीर्घकालिक आर्थिक विकास की क्षमता प्रदान करेगी।
- अनुमान है कि वर्ष 2030 तक भारत के पास विश्व का सबसे बड़ा कार्यबल होगा, जिसका यदि प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाए तो उत्पादकता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हो सकती है।
- सेवा क्षेत्र का प्रभुत्व: सेवा क्षेत्र, विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी (IT) और बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (BPO) भारत के आर्थिक प्रदर्शन के लिये केंद्रीय है। वित्त वर्ष 2022-2023 में भारत का IT निर्यात लगभग 194 बिलियन अमेरिकी डॉलर रहा (नैसकॉम) जिससे यह इस क्षेत्र में वैश्विक अभिकर्त्ता बन गया।
- यह क्षेत्र न केवल निर्यात में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है, बल्कि रोज़गार सृजन भी करता है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) भी आकर्षित करता है।
- अवसंरचना विकास: भारत ने अवसंरचना में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाया है, सरकार ने अवसंरचना विकास के लिये 1.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर (राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन 2020-2025) आवंटित किया है।
- भारतमाला परियोजना (सड़क अवसंरचना) और उड़ान (क्षेत्रीय हवाई संपर्क) जैसी प्रमुख पहलों से नए आर्थिक अवसर उत्पन्न करने और प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ने की उम्मीद है।
- डिजिटल परिवर्तन और वित्तीय समावेशन: भारत ने डिजिटल परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है, विशेषकर UPI जैसी डिजिटल भुगतान प्रणाली की शुरुआत के साथ। UPI लेनदेन का मूल्य वर्ष-दर-वर्ष 40% बढ़कर जून 2024 में 20.07 ट्रिलियन रुपए हो गया, जो जनवरी 2023 में 12.98 ट्रिलियन रुपए था।
- अक्तूबर 2024 में 23.5 ट्रिलियन रुपए मूल्य के 16.58 बिलियन यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI) लेनदेन हुए, जो अप्रैल 2016 में इसकी शुरुआत के बाद से डिजिटल सिस्टम के लिये सबसे अधिक संख्या है।
- जन धन खातों और आधार-आधारित पहचान प्रणालियों जैसी डिजिटल पहलों ने वित्तीय समावेशन में सुधार किया है, जिससे पहले वंचित रहे लाखों व्यक्तियों को लाभ हुआ है।
भारत के लिये विकास अर्थशास्त्र में चुनौतियाँ क्या हैं?
- राजनीतिक आर्थिक बाधाएँ: भारत का विकास राजनीतिक गतिशीलता से प्रभावित होता है, जहाँ चुनावी चक्र अक्सर श्रम, कर तथा उद्योग में दीर्घकालिक सुधारों की तुलना में नकद हस्तांतरण और सब्सिडी जैसी लोकलुभावन नीतियों को प्राथमिकता देते हैं।
- यह अल्पकालिक फोकस उन आवश्यक सुधारों को सीमित करता है जो स्थाई आर्थिक विकास को समर्थन देंगे।
- श्रम बाज़ार की कठोरता: भारत को कौशल अंतराल, कम उत्पादकता और कठोर श्रम कानूनों का सामना करना पड़ रहा है, जो भर्ती में लचीलेपन को प्रतिबंधित करते हैं।
- कौशल विकास में सुधार और अधिक श्रम लचीलेपन के बिना, भारत अपने कार्यबल को उच्च विकास वाले क्षेत्रों और वैश्विक मानकों के अनुरूप बनाने में संघर्ष करता है।
- सामाजिक अशांति और विरोध: श्रम-व्यवसाय तनाव, विशेष रूप से विनिर्माण क्षेत्रों में, श्रमिक सुरक्षा और व्यावसायिक आवश्यकताओं के बीच संतुलन स्थापित करने में सामाजिक चुनौतियों को उजागर करता है।
- यदि इन तनावों को प्रबंधित नहीं किया गया तो ये निवेश को बाधित कर सकते हैं और विनिर्माण प्रतिस्पर्द्धा को कमज़ोर कर सकते हैं।
- भू-राजनीतिक अनिश्चितताएँ: विशेष रूप से अमेरिका और चीन के बीच व्यापार तनाव, भारत के लिये अवसर एवं जोखिम दोनों प्रस्तुत करते हैं।
- जबकि भारत चीन से विविध निवेश आकर्षित कर सकता है, उसे पारंपरिक बाज़ारों पर निर्भरता कम करनी होगी तथा बदलती वैश्विक अर्थव्यवस्था में लचीला बने रहने के लिये विविध व्यापार साझेदारियाँ बनानी होंगी।
आगे की राह
- विकास और समानता में संतुलन: यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि सुधार न केवल विकास को बढ़ावा दें बल्कि आय असमानता और सामाजिक न्याय को भी संबोधित करें। इसके लिये ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो समावेशी विकास, उचित वेतन और शिक्षा में निवेश को बढ़ावा दें।
- प्रौद्योगिकी को अपनाना: वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिये भारत को कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), स्वचालन और हरित प्रौद्योगिकियों सहित तकनीकी नवाचार को अपनाना होगा।
- इसके लिये सहायक नीतिगत वातावरण, बुनियादी अवसरंचना में निवेश और कौशल विकास पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
- श्रम-प्रधान क्षेत्रों को बढ़ावा देना: भारत को वस्त्र और परिधान जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये, जहाँ सस्ते श्रम और बुनियादी अवसरंचना के मामले में उसे प्रतिस्पर्द्धात्मक लाभ प्राप्त है।
- तकनीकी नवाचार को बढ़ावा देना: भारत को इलेक्ट्रॉनिक्स, माइक्रोचिप्स और नवीकरणीय ऊर्जा जैसे अत्याधुनिक उद्योगों में निवेश करना चाहिये। इसे मूल्य शृंखला को आगे बढ़ाने और अनुसंधान एवं विकास तथा उद्यम पूंजी के माध्यम से नवाचार को बढ़ावा देने के लिये STEM शिक्षा को भी मज़बूत करना चाहिये।
- इसके लिये अनुसंधान एवं विकास हेतु अधिक अनुकूल वातावरण, पूंजी तक बेहतर पहुँच और एक मज़बूत शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता होगी जो उच्च तकनीक क्षेत्रों के लिये प्रशिक्षित कार्यबल तैयार कर सके।
- श्रम कानूनों और विनियामक ढाँचों में सुधार: भारत को IMF की विश्व आर्थिक परिदृश्य (WEO) रिपोर्ट के अनुसार अधिक व्यापार-अनुकूल वातावरण बनाने के लिये अपने श्रम कानूनों को सरल और आधुनिक बनाना चाहिये।
- विनियामक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना, अनुपालन बोझ को कम करना तथा "मेक इन इंडिया" और "ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस" सुधारों जैसी पहलों के माध्यम से कारोबार में आसानी सुनिश्चित करना विदेशी निवेश को आकर्षित करने तथा प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- मानव पूंजी में निवेश को लक्षित करना: श्रम उत्पादकता को बढ़ावा देने और दीर्घकालिक विकास को समर्थन देने के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल एवं कौशल विकास को प्राथमिकता देना।
- नकद हस्तांतरण से हटकर उच्च मूल्य वाले क्षेत्रों से जुड़े कुशल कार्यबल के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना।
- शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर सार्वजनिक व्यय में वृद्धि से भारत का कार्यबल प्रतिस्पर्धी वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिये तैयार होगा।
- अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ सहभागिता: भारत को व्यापार की अनुकूल शर्तें सुनिश्चित करने तथा वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं और व्यापार समझौतों की जटिलताओं से निपटने के लिये IMF, विश्व बैंक एवं WTO जैसी वैश्विक आर्थिक संस्थाओं के साथ अपने सहयोग को मज़बूत करना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. विकास अर्थशास्त्र क्या है? विकास अर्थशास्त्र के वर्तमान दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता क्यों है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न.'आठ मूल उद्योगों के सूचकांक (इंडेक्स ऑफ एट कोर इंडस्ट्रीज़)' में निम्नलिखित में से किसको सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है? (2015) (a) कोयला उत्पादन उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. "सुधारोत्तर अवधि में सकल-घरेलू-उत्पाद (जी.डी.पी.) की समग्र संवृद्धि में औद्योगिक संवृद्धि दर पिछड़ती गई है।" कारण बताइए। औद्योगिक-नीति में हाल में किये गए परिवर्तन औद्योगिक संवृद्धि दर को बढ़ाने में कहां तक सक्षम हैं ? (2017) प्रश्न: सामान्यतः देश कृषि से उद्योग और बाद में सेवाओं को अन्तरित होते हैं पर भारत सीधे ही कृषि से सेवाओं को अन्तरित हो गया है। देश में उद्योग के मुकाबले सेवाओं की विशाल संवृद्धि के क्या कारण हैं? क्या भारत सशक्त औद्योगिक आधार के बिना एक विकसित देश बन सकता है? (2014) |