शासन व्यवस्था
संवैधानिक आयोग की रिपोर्ट प्रस्तुत करने विलंब
- 28 Apr 2025
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प्रिलिम्स के लिये:अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), संयुक्त राष्ट्र सार्वभौमिक आवधिक समीक्षा मेन्स के लिये:हाशिये पर पड़े समुदायों के लिये कल्याणकारी नीतियों पर विलंबित रिपोर्ट का प्रभाव, भारत की सांख्यिकीय प्रणालियाँ |
स्रोत:द हिंदू
चर्चा में क्यों?
भारत के अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के राष्ट्रीय आयोगों की एक दर्जन से अधिक वार्षिक रिपोर्टें कई वर्षों से सार्वजनिक नहीं की गई हैं।
- इसके अलावा, संसद में कई रिपोर्टें प्रस्तुत नहीं की गईं, जिनमें जवाबदेही और कल्याणकारी उपायों के समय पर क्रियान्वयन के बारे में चिंताएँ जताई गईं।
संवैधानिक आयोग की रिपोर्ट को समय पर प्रस्तुत करने और सदन में पेश करने का क्या महत्त्व है?
- अधिदेशित उत्तरदायित्व: संविधान के अनुच्छेद 338, 338A और 338B के अनुसार NCSC, NCST और NCBC को हाशिये पर पड़े समुदायों के लिये सुरक्षा उपायों के कार्यान्वयन की समीक्षा करते हुए राष्ट्रपति को वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी।
- ये रिपोर्ट सुरक्षा उपायों की समीक्षा करती हैं तथा हाशिये पर पड़े समुदायों के सामाजिक-आर्थिक विकास और संरक्षण के लिये उपाय सुझाती हैं।
- नीतिगत प्रभाव: सिफारिशें आरक्षण, क्रीमी लेयर मानदंड, सामुदायिक वर्गीकरण और कल्याणकारी हस्तक्षेपों के संबंध में सरकारी नीतियों को आकार देती हैं।
- रिपोर्टें भेदभाव, अधिकारों तक पहुँच और सामाजिक-आर्थिक संकेतकों जैसे उभरते मुद्दों पर प्रकाश डालकर प्रासंगिक नीति निर्माण सुनिश्चित करती हैं।
- उदाहरण के लिये, जनजातीय विकास के लिये सुशासन पर NCST की विशेष रिपोर्ट ने विस्थापन और पुनर्वास के मुद्दों पर प्रकाश डाला, जिससे भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 में उचित मुआवज़ा और पारदर्शिता का अधिकार लागू करने में मदद मिली, जिसमें जनजातीय विस्थापन संबंधी चिंताओं का समाधान किया गया।
- जवाबदेही तंत्र: वार्षिक रिपोर्ट, कार्यवाही रिपोर्ट के साथ, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के उपचार और उत्थान के संबंध में संसद के प्रति सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करती है।
- सुधारात्मक कार्यवाही को सक्षम बनाना: अत्याचारों या नीतिगत कमियों जैसे मुद्दों की शीघ्र पहचान से त्वरित सुधारात्मक उपाय संभव हो पाते हैं।
- उदाहरण के लिये, NCST की छठी वार्षिक रिपोर्ट (2010-2011) ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के प्रवर्तन संबंधी खामियों को उज़ागर किया, जिसके परिणामस्वरूप अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 2015 में कड़े संशोधन किये गए।
- पारदर्शिता और विश्वास को बढ़ावा: रिपोर्टों को समय पर प्रस्तुत करने से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों को यह आश्वासन मिलता है कि उनकी चिंताओं पर ध्यान दिया जा रहा है, जो पारदर्शिता, दक्षता और उत्तरदायी शासन को दर्शाता है।
- भारत की वैश्विक छवि को बढ़ावा: यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समावेशी विकास और मानवाधिकारों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र सार्वभौमिक आवधिक समीक्षा (UPR) तंत्र के तहत इसकी आवधिक समीक्षाओं में परिलक्षित होता है।
रिपोर्ट समय पर प्रस्तुत करने में आयोगों को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?
- संसाधन की कमी: संसाधन की कमी, अधिकांश आयोगों के लिये एक बड़ी चुनौती है। व्यापक रिपोर्ट संकलित करने और समीक्षा करने के लिये पर्याप्त संसाधनों और विशेषज्ञों की कमी से प्रक्रिया में देरी होती है।
- विस्तृत रिपोर्ट तैयार करना (विशेष रूप से कई राज्यों के लिये सिफारिशें करना) समय लेने वाला कार्य है जिससे समस्या और बढ़ती है।
- मंत्रालयों की प्राथमिकता: देरी की वजह, नोडल मंत्रालयों द्वारा रिपोर्ट पेश करने को दी जाने वाली प्राथमिकता भी है। कुछ मामलों में रिपोर्ट तब तक विलंबित रहती है जब तक राजनीतिक और प्रशासनिक ध्यान केंद्रित नहीं हो जाता है।
- पुरानी पद्धतियाँ और तकनीकी खामियाँ: मैन्युअल, कागज-आधारित सर्वेक्षणों पर निरंतर निर्भरता से डेटा संग्रहण धीमा हो जाता है और गिग अर्थव्यवस्था जैसी नई आर्थिक वास्तविकताओं को समझने में समस्या आती है।
- डिजिटल और प्रशासनिक डेटा स्रोतों के सीमित एकीकरण से दक्षता और व्यापकता में कमी आती है।
- स्पष्ट समय-सीमा का अभाव: अनुच्छेद 338(5)(d) के तहत सुरक्षा उपायों पर वार्षिक रिपोर्ट को अनिवार्य किया गया है लेकिन अतिरिक्त रिपोर्टों के लिये समय-सीमा आयोग के विवेक पर निर्भर है।
- निश्चित समय-सीमा के अभाव के कारण देरी और विसंगतियाँ हो सकती हैं जिससे समय पर जवाबदेहिता और सुरक्षा उपायों की समीक्षा प्रभावित हो सकती है।
- आयोगों की पुरानी रिपोर्टें, उनकी प्रासंगिकता को कम करती हैं जिससे अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों का अपने हितों की रक्षा करने वाली संस्थाओं से विश्वास उठ जाता है।
- अद्यतन नीतिगत सलाह के अभाव में उभरते मुद्दे (जैसे कि भेदभाव के नए रूप, शिक्षा तक पहुँच या आर्थिक बहिष्कार) अनसुलझे रह सकते हैं।
- अपर्याप्त सार्वजनिक और संसदीय दबाव: हालाँकि आयोगों की रिपोर्ट राष्ट्रपति को प्रस्तुत करना और संसद में प्रस्तुत करना अनिवार्य है लेकिन सीमित सार्वजनिक और संसदीय दबाव के कारण रिपोर्ट प्रस्तुत करने में देरी होती है।
- कठोर निगरानी के अभाव के कारण अधिक देरी होती है।
रिपोर्ट में देरी का शासन पर प्रभाव
- साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण का कमज़ोर होना: जनगणना के आँकड़ों में देरी से साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण कमज़ोर होता है।
- पुराने आँकड़े सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) जैसी प्रमुख कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावित करते हैं जिसके अंतर्गत वर्ष 2020 तक 92 करोड़ लोगों को शामिल किया जाना था लेकिन यह सीमित है, जिससे 10 करोड़ से अधिक लोग लाभ से वंचित हैं क्योंकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के 67% कवरेज अनुपात (जो वर्ष 2011 की जनगणना के आँकड़ों पर आधारित है) में जनसंख्या वृद्धि को ध्यान में नहीं रखा गया है।
- इसी प्रकार, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (NSAP) पुराने सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना (SECC) आँकड़ों पर आधारित है जिससे इसका सीमित विस्तार हो रहा है।
- इसके अतिरिक्त, प्रवासन डेटा (जो रुझानों का आकलन करने और राहत की योजना बनाने के लिये महत्त्वपूर्ण है) पुराना हो गया है क्योंकि वर्ष 2011 का डेटा ही वर्ष 2019 में जारी किया गया था और वर्ष 2021 की जनगणना में देरी हो रही है।
- शहरी और ग्रामीण नियोजन में कठिनाइयाँ: शहरी नियोजन (बुनियादी ढाँचा, आवास, परिवहन) और ग्रामीण विकास (कृषि, जल प्रबंधन) डेटा अंतराल के कारण अप्रभावी हो जाते हैं।
- जल जीवन मिशन जैसी योजनाओं के समक्ष ग्रामीण क्षेत्रों के अद्यतित घरेलू आँकड़ों के अभाव के कारण सटीक लक्ष्य निर्धारण संबंधी चुनौतियों हैं।
- संस्थागत विश्वसनीयता पर नकारात्मक प्रभाव: प्रतिकूल आँकड़ों को छिपाने, जैसे कि वर्ष 2017-18 के राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय उपभोग व्यय सर्वेक्षण को विधारित किया जाना, से पारदर्शिता और सांख्यिकीय संस्थानों की विश्वसनीयता को लेकर चिंताएँ बढ़ गई हैं।
रिपोर्टों की यथासमय प्रस्तुतीकरण हेतु किन सुधारों की आवश्यकता है?
- जवाबदेही तंत्र के साथ समय-सीमा: रिपोर्ट तैयार करने और प्रस्तुत करने के लिये कड़ी सांविधिक समय-सीमाएँ (जैसे, वित्तीय वर्ष के पश्चात् छह माह के भीतर) को अनिवार्य करने वाले नियम तैयार किये जाने चाहिये, जो भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) लेखा परीक्षा मानक 2017 में उल्लिखित लेखा परीक्षा परिपाटी के समान हो।
- संस्थागत स्वायत्तता का सुदृढ़ीकरण: NCSC, NCST और NCBC जैसे आयोगों को निर्वाचन आयोग जैसे संवैधानिक निकायों के समान कार्यात्मक स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिये।
- वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित करने, रिपोर्टिंग अधिकारियों के लिये सुरक्षित पदावधि और राजनीतिक हस्तक्षेप से सुरक्षा सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है। रिपोर्ट लेखन, प्रभाव आकलन और डेटा व्याख्या में नियमित प्रशिक्षण को संस्थागत बनाया जाना चाहिये।
- सांख्यिकीय सुधारों पर रंगराजन समिति (2001) ने भारत में प्रमुख सांख्यिकीय गतिविधियों की देखरेख के लिये एक सशक्त राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (NSC) के गठन की अनुशंसा की थी।
- इसमें अनुशंसा की गई, NSC की भूमिका सांख्यिकीय मानकों का निर्धारण करना, उनकी निगरानी करना और उनका क्रियान्वन करना तथा विभिन्न सांख्यिकीय एजेंसियों के बीच समन्वय सुनिश्चित करना होगा।
- तकनीकी सुधार: विभिन्न मंत्रालयों में रिपोर्ट तैयार करने, उनकी समीक्षा करने और प्रस्तुत करने के चरणों पर नज़र रखने के लिये ऑनलाइन डैशबोर्ड का उपयोग किया जाना चाहिये।
- सुरक्षित दस्तावेज़ प्रमाणीकरण और टाइमस्टैम्पिंग के लिये ब्लॉकचेन को एकीकृत किया जाना चाहिये। रिपोर्ट तैयार करने को स्वचालित करने और मैन्युअल त्रुटियों और होने वाले विलंब को कम करने के लिये ई-श्रम जैसे प्लेटफॉर्म पर AI-संचालित एनालिटिक्स को उपयोग में लाया जाना चाहिये।
- सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) की निगरानी के साथ संरेखण: रिपोर्टों, विशेष रूप से उत्तरदायी, समावेशी, भागीदारी और प्रतिनिधि निर्णय लेने से संबंधित संकेतक, का समय पर प्रस्तुतीकरण भारत की SDG 16 प्रतिबद्धताओं में एकीकृत किया जाना चाहिये।
- संयुक्त राष्ट्र उच्च स्तरीय राजनीतिक मंच (HLPF) में भारत की स्वैच्छिक राष्ट्रीय समीक्षा (VNR) में घरेलू रिपोर्टिंग संरचनाओं में सुधार को स्पष्ट रूप से उजागर किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिये राष्ट्रीय आयोगों की वार्षिक रिपोर्ट जारी करने में विलंब होना गंभीर प्रणालीगत मुद्दों को दर्शाती है। यह सुनिश्चित करने के लिये की जाने वाली अनुशंसाएँ इन समुदायों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान संबंधी नीतियों में प्रभावी रूप से शामिल की जाएँ, समय पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना महत्त्वपूर्ण है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. सरकारी नीतियों को रूपित करने में सांविधानिक आयोगों की भूमिका का परीक्षण कीजिये। इनके द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत करने में होने वाले विलंब से कल्याणकारी योजनाओं पर क्या प्रभाव पड़ता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत के निम्नलिखित संगठनों/निकायों पर विचार कीजिये: (2023)
उपर्युक्त में से कितने सांविधानिक निकाय हैं? (a) केवल एक उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के प्रति भेदभाव को दूर करने के लिये राज्य द्वारा की गई दो प्रमुख विधिक पहलें क्या हैं? (2017) |