ऋण स्थिरता और विनिमय दर प्रबंधन | 10 Jan 2024
प्रिलिम्स के लिये:अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विनिमय दर गतिशीलता, क्रेडिट रेटिंग, भारत के बढ़ते ऋण स्तर से संबंधित परस्पर जुड़े कारक, कर चोरी, राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003, आईएमएफ का स्थिर व्यवस्था का वर्गीकरण। मेन्स के लिये:भारत के आर्थिक आउटलुक से संबंधित आईएमएफ के अनुमान, सतत ऋण प्रबंधन के लिये भारत जो उपाय कर सकता है। |
स्रोत:द हिंदू
चर्चा में क्यों?
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund - IMF) ने हाल ही में भारत पर अपनी वार्षिक अनुच्छेद IV परामर्श रिपोर्ट जारी की, जिसमें देश की ऋण स्थिरता और विनिमय दर प्रबंधन से संबंधित महत्त्वपूर्ण मुद्दों का अवलोकन किया गया है।
भारत के आर्थिक आउटलुक से संबंधित IMF के अनुमान क्या हैं?
- ऋण स्थिरता: IMF ने भारत की दीर्घकालिक ऋण स्थिरता के बारे में चिंता व्यक्त की।
- इसने अनुमान लगाया कि भारत का सामान्य सरकारी ऋण, जिसमें केंद्र और राज्य दोनों शामिल हैं, संभावित रूप से वित्तीय वर्ष 2028 तक विशेष रूप से प्रतिकूल परिस्थितियों में सकल घरेलू उत्पाद के 100% तक बढ़ सकता है।
- ऋण प्रबंधन की चुनौतियाँ: रिपोर्ट में अधिक विवेकपूर्ण ऋण प्रबंधन प्रथाओं की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें जलवायु परिवर्तन शमन लक्ष्यों को प्राप्त करने और प्राकृतिक आपदाओं के खिलाफ लचीलापन बढ़ाने के लिये वित्तपोषण की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता पर बल दिया गया है।
- भारतीय वित्त मंत्रालय ने IMF के ऋण अनुमानों का विरोध किया और उन्हें आसन्न वास्तविकता के बजाय सबसे खराब स्थिति के रूप में खारिज कर दिया।
- विनिमय दर गतिशीलता: IMF ने दिसंबर 2022 से अक्टूबर 2023 के लिये भारत की वास्तविक विनिमय दर व्यवस्था को "फ्लोटिंग" से "स्थिर व्यवस्था (stabilized arrangement)" में पुनर्वर्गीकृत किया।
- यह पुनर्वर्गीकरण RBI के हस्तक्षेप के कारण रुपए के मूल्य में नियंत्रित उतार-चढ़ाव के बारे में निष्कर्ष शामिल हैं।
- स्थिर क्रेडिट रेटिंग: सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में सराहना पाने के बावजूद भारत की सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग काफी समय से स्थिर बनी हुई है।
- फिच रेटिंग्स और एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स जैसी एजेंसियों ने कमज़ोर राजकोषीय प्रदर्शन, बोझिल कर्ज़ और कम प्रति व्यक्ति आय के बारे में चिंताओं का हवाला देते हुए वर्ष 2006 से भारत की क्रेडिट रेटिंग को 'बीबीबी-स्थिर दृष्टिकोण के साथ' पर बनाए रखा है।
वैश्विक ऋण परिदृश्य क्या है?
- बढ़ता वैश्विक ऋण: वैश्विक स्तर पर, सार्वजनिक ऋण में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है, जो वर्ष 2022 में 92 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर को पार कर गया है, जो कि वर्ष 2000 के बाद से चार गुना से अधिक की वृद्धि है, जो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि को पार कर गया है।
- संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, वर्ष 2022 में 3.3 अरब लोग ऐसे देशों में रहते हैं जो शिक्षा या स्वास्थ्य की तुलना में ब्याज भुगतान पर अधिक व्यय करते हैं।
- विकासशील देशों की कुल हिस्सेदारी लगभग 30% है, जिनमें से लगभग 70% चीन, भारत और ब्राज़ील के लिये ज़िम्मेदार है, जो बड़े पैमाने पर महामारी, जीवन-यापन संकट और जलवायु परिवर्तन जैसे विविध कारकों से प्रेरित है।
- विकसित और विकासशील देशों के बीच ऋण विषमता: अफ्रीका सहित विकासशील देश, विकसित देशों की तुलना में काफी अधिक उधार लेने की लागत का सामना करते हैं।
- उधार दरों में यह असमानता विकासशील देशों के लिये ऋण स्थिरता से समझौता करती है, जिससे सार्वजनिक राजस्व के सापेक्ष ब्याज खर्च में वृद्धि होती है।
भारत का वर्तमान ऋण परिदृश्य क्या है?
- सरकार का वर्तमान ऋण स्तर: मार्च 2023 तक केंद्र सरकार का ऋण ₹155.6 ट्रिलियन था, जो सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 57.1% था। इस बीच, राज्य सरकारों पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 28% ऋण था।
- वित्त मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2022-23 में भारत का सार्वजनिक ऋण-से-GDP (debt-to-GDP) अनुपात 81% है। यह, FRBM लक्ष्य द्वारा निर्दिष्ट स्तरों से कहीं अधिक है।
- FRBM अधिनियम में वर्ष 2018 के संशोधन ने केंद्र, राज्यों और उनके संयुक्त खातों के लिये क्रमशः 40%, 20% तथा 60% पर ऋण-GDP लक्ष्य निर्दिष्ट किये।
- वित्त मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2022-23 में भारत का सार्वजनिक ऋण-से-GDP (debt-to-GDP) अनुपात 81% है। यह, FRBM लक्ष्य द्वारा निर्दिष्ट स्तरों से कहीं अधिक है।
- भारत के बढ़ते ऋण स्तर से संबंधित परस्पर जुड़े कारक:
- उच्च राजकोषीय घाटा: सरकार लगातार अपनी आय से अधिक व्यय करती है, जिसके कारण घाटे को उधार के माध्यम से पूरा किया जाता है। यह घाटा निम्न कारणों से उत्पन्न हो सकता है:
- उच्च व्यय प्रतिबद्धताएँ: सामाजिक कल्याण कार्यक्रम, सब्सिडी और रक्षा व्यय सरकारी परिव्यय में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
- धीमी राजस्व वृद्धि: कर सुधारों से राजस्व संग्रह में पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई है, जिससे राजस्व-व्यय में अंतर उत्पन्न हो गया है।
- वैश्विक भू-राजनीतिक घटनाएँ: रूस-यूक्रेन युद्ध और बढ़ती कमोडिटी कीमतों जैसी घटनाओं से आर्थिक व्यवधान एवं उच्च आयात लागत हो सकती है, जिससे सरकार को स्थिरता बनाए रखने के लिये उधार लेने हेतु मजबूर होना पड़ सकता है।
- अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और कर रिसाव: भारत की बड़ी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था कुशल कर संग्रह के लिये चुनौतियाँ पेश करती है।
- कृषि और छोटे व्यवसायों जैसे क्षेत्रों में कर चोरी तथा औपचारिकता की कमी राजस्व सृजन को सीमित करती है, जिससे संभावित रूप से सरकार को ऋण वित्तपोषण पर निर्भर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
- गारंटी और आकस्मिकताएँ: सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं द्वारा लिये गए ऋण या आकस्मिक देनदारियों हेतु सरकार की गारंटी, जैसे सार्वजनिक-निजी भागीदारी से संभावित नुकसान, अप्रत्यक्ष रूप से ऋण में काफी वृद्धि करते हैं।
- विनिमय दर में उतार-चढ़ाव: विनिमय दरों में उतार-चढ़ाव विदेशी मुद्रा-मूल्य वाले ऋण की सेवा की लागत को प्रभावित करते हैं, जिससे संभावित रूप से समग्र ऋण बोझ बढ़ जाता है।
- उच्च राजकोषीय घाटा: सरकार लगातार अपनी आय से अधिक व्यय करती है, जिसके कारण घाटे को उधार के माध्यम से पूरा किया जाता है। यह घाटा निम्न कारणों से उत्पन्न हो सकता है:
- भारत में ऋण प्रबंधन हेतु विधान:
- राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003 (FRBM अधिनियम): FRBM अधिनियम एक भारतीय कानून है जो सरकार के राजकोषीय संचालन में वित्तीय अनुशासन लाने और देश के राजकोषीय घाटे को कम करने के लिये बनाया गया है।
- FRBM का लक्ष्य केंद्र और राज्यों के लिये विशिष्ट ऋण-GDP लक्ष्य निर्धारित करना है।
- हालाँकि महामारी से उत्पन्न व्यवधान ने निर्दिष्ट सीमा को पार करते हुए ऋण-GDP अनुपात को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
- इसके अलावा इसके अधिनियमन के कई वर्षों के बावजूद, भारत सरकार FRBM अधिनियम के लक्ष्यों को पूरा करने के लिये संघर्ष कर रही है।
- FRBM का लक्ष्य केंद्र और राज्यों के लिये विशिष्ट ऋण-GDP लक्ष्य निर्धारित करना है।
- राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003 (FRBM अधिनियम): FRBM अधिनियम एक भारतीय कानून है जो सरकार के राजकोषीय संचालन में वित्तीय अनुशासन लाने और देश के राजकोषीय घाटे को कम करने के लिये बनाया गया है।
अस्थाई विनिमय दर गतिशीलता को स्थिर व्यवस्था से क्या अलग करता है?
- अस्थायी विनिमय दर:
- बाज़ार-संचालित: मुद्रा का मूल्य न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप के साथ, विदेशी मुद्रा बाज़ार में पूरी तरह से आपूर्ति और मांग से निर्धारित होता है।
- उच्च अस्थिरता: आर्थिक समाचारों, घटनाओं या बाज़ार की धारणा के जवाब में विनिमय दर में काफी उतार-चढ़ाव हो सकता है।
- लचीलेपन में वृद्धि: व्यवसाय और व्यक्ति बाज़ार-निर्धारित विनिमय दरों के माध्यम से बदलती आर्थिक स्थितियों के साथ तालमेल बैठा सकते हैं।
- स्थिर व्यवस्था:
- विशुद्ध रूप से अस्थाई से अधिक प्रबंधित: अत्यधिक अस्थिरता को दूर करने या मुद्रा के लिये लक्ष्य सीमा बनाए रखने हेतु सरकार या केंद्रीय बैंक कभी-कभी विदेशी मुद्रा बाज़ार में हस्तक्षेप कर सकता है।
- मध्यम अस्थिरता: शुद्ध फ्लोट की तुलना में अधिक स्थिरता का लक्ष्य, लेकिन फिर भी कुछ हद तक उतार-चढ़ाव स्वीकार करना।
- पूर्वानुमान की पेशकश: व्यवसाय और व्यक्ति अधिक स्थिर विनिमय दर वातावरण के साथ योजना बना सकते हैं।
- स्थिर व्यवस्था का IMF का वर्गीकरण:
- IMF एक विनिमय दर व्यवस्था को एक स्थिर व्यवस्था के रूप में वर्गीकृत करता है जब यह निर्धारित करता है कि विनिमय दर 6 महीनों में 2% बैंड से आगे नहीं बढ़ी है और यह स्थिरता बाज़ार की स्थितियों के बजाय बाज़ार के हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप हुई है।
सतत् ऋण प्रबंधन के लिये भारत क्या उपाय कर सकता है?
- अल्पकालिक: राजकोषीय समेकन:
- लक्षित सुधार: सब्सिडी को सुव्यवस्थित करना, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में सुधार करना तथा प्रशासनिक अक्षमताओं को कम करना एवं FRBM अधिनियम के लक्ष्यों का सख्ती से अनुपालन करना ऋण चुकौती व लाभकारी निवेश के लिये संसाधनों की बचत कर सकता है।
- बेहतर कर दक्षता: कर प्रशासन को सुदृढ़ करने तथा कर चोरी की रोकथाम से अत्यधिक उधार लिये बिना राजस्व में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।
- दीर्घकालिक: विकासोन्मुख रणनीतियाँ:
- कौशल विकास और शिक्षा: शिक्षा तथा कौशल विकास कार्यक्रमों के माध्यम से मानव पूंजी में निवेश करने से उत्पादकता एवं प्रतिस्पर्द्धात्मकता में वृद्धि होती है जिससे उच्च आर्थिक विकास होता है तथा कराधान में सुधार होता है।
- निर्यात संवर्द्धन: निर्यात बाज़ारों में विविधता लाने, उच्च मूल्य वाले निर्यात को प्रोत्साहित करने तथा प्रतिस्पर्द्धात्मक चुनौतियों का समाधान करने से विदेशी मुद्रा आय को बढ़ावा मिल सकता है जिससे संभावित रूप से बाह्य ऋण की आवश्यकता कम हो सकती है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजये: (2018)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: C मेन्स:प्रश्न1. उत्तर-उदारीकरण अवधि के दौरान, बजट निर्माण के संदर्भ में, लोक व्यय प्रबंधन भारत सरकार के समक्ष एक चुनौती है। स्पष्ट कीजिये। (2019) |