राजनीति का अपराधीकरण | 15 May 2024
प्रिलिम्स के लिये:राजनीति का अपराधीकरण, आंतरिक लोकतांत्रिक संरचनाएँ, भ्रष्टाचार, जन अधिनियम 1951, राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC), विधि आयोग मेन्स के लिये:राजनीति का अपराधीकरण, इसके कारण और इसमें शामिल प्रमुख मुद्दे। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
विभिन्न सांसदों, विधायकों और सरकारी कर्मचारियों पर महिलाओं के कथित यौन उत्पीड़न के हालिया मामले, राजनीति के अपराधीकरण के एक चिंताजनक पहलू तथा नैतिक ज़िम्मेदारी, पेशेवर नैतिकता को बनाए रखने में विफलता आदि जैसे नैतिक मुद्दों पर प्रकाश डालते हैं।
राजनीति के अपराधीकरण का क्या अर्थ है?
- परिचय:
- राजनीति का अपराधीकरण तब होता है जब आपराधिक आरोपों या पृष्ठभूमि वाले लोग राजनेता बन जाते हैं और विभिन्न महत्त्वपूर्ण पदों एवं दायित्वों के लिये चुने जाते हैं।
- यह लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों, जैसे चुनावों में निष्पक्षता, जवाबदेही और कानून का पालन, को प्रभावित कर सकता है।
- यह बढ़ता खतरा हमारे समाज के लिये एक बड़ी समस्या बन गया है, जो लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों, जैसे चुनावों में निष्पक्षता, कानून का पालन और जवाबदेह होने को प्रभावित कर रहा है।
- आँकड़े:
- एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के आँकड़ों के मुताबिक, भारत में संसद के लिये चुने जाने वाले आपराधिक आरोपों वाले उम्मीदवारों की संख्या वर्ष 2004 से बढ़ रही है।
- वर्ष 2009 की लोकसभा में 30% सांसदों पर आपराधिक मामले लंबित थे, जो वर्ष 2014 की लोकसभा में बढ़कर 34% हो गए।
- वर्ष 2019 लोकसभा में, 543 लोकसभा सदस्यों में से 233 (43%) को आपराधिक आरोपों का सामना करना पड़ा।
- वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में 112 सांसदों (21%) को उनके विरुद्ध गंभीर आपराधिक मामलों का सामना करना पड़ा, जिनमें बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध शामिल थे।
राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण के क्या कारण हैं?
- राजनेताओं और अपराधियों के मध्य संबंध:
- भारत में कई राजनेताओं ने आपराधिक आधारों के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित किये हैं, जो अक्सर चुनाव जीतने के लिये अपने धन और बाहुबल का उपयोग करते हैं।
- कमज़ोर कानून प्रवर्तन और न्यायिक प्रणाली:
- भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में अक्सर धीमी, अकुशल और भ्रष्ट प्रक्रियाओं की विशेषता होती है, जिससे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं पर प्रभावी ढंग से मुकदमा चलाना तथा उन्हें दोषी ठहराना कठिन हो जाता है।
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट से पता चला है कि संसद और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा किये गए अपराधों के लिये सज़ा की दर वर्ष 2019 में केवल 6% थी।
- भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में अक्सर धीमी, अकुशल और भ्रष्ट प्रक्रियाओं की विशेषता होती है, जिससे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं पर प्रभावी ढंग से मुकदमा चलाना तथा उन्हें दोषी ठहराना कठिन हो जाता है।
- आंतरिक दलीय लोकतंत्र का अभाव:
- भारत में कई राजनीतिक दलों में कमज़ोर आंतरिक लोकतांत्रिक संरचनाएँ हैं, जिससे पार्टी नेताओं को उनकी ईमानदारी के आधार पर नहीं, बल्कि चुनाव जीतने की उनकी क्षमता के आधार पर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को चुनने की अनुमति देती है।
- आंतरिक दलीय लोकतंत्र का यह अभाव नागरिकों की अपने प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराने की क्षमता को कमज़ोर करता है।
- मतदाता उदासीनता और राजनीतिक जागरूकता का अभाव:
- कुछ मतदाता, विशेष रूप से ग्रामीण और निर्धन क्षेत्रों में, सुशासन एवं कानून के शासन के दीर्घकालिक विचारों पर आपराधिक समर्थित उम्मीदवारों द्वारा प्रदान किये गए तात्कालिक लाभों को प्राथमिकता दे सकते हैं।
राजनीति के अपराधीकरण से जुड़े नैतिक मुद्दे क्या हैं?
- गैर-पक्षपात तथा जवाबदेही का अभाव:
- राजनीतिक वर्ग में कदाचार को संबोधित करने में विफलता, जवाबदेही तथा नैतिक मानकों की कमी को रेखांकित करती है।
- गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना करने वाले सांसदों के उदाहरणों में महिलाओं से संबंधित गंभीर अपराधों के आरोपी व्यक्तियों का बचाव करने का एक समान पैटर्न सामने आता है, जो पार्टी लाइनों से परे नैतिक मानदंडों से अलगाव का संकेत देता है।
- यह अलगाव प्राय: अत्यधिक पक्षपात तथा नैतिक आचरण पर सत्ता को प्राथमिकता देने से उत्पन्न होता है।
- सार्वजनिक आक्रोश के माध्यम से लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व का अभाव:
- सार्वजनिक आक्रोश प्राय: राजनीतिक दलों में कार्रवाई के लिये उत्प्रेरक के रूप में कार्य करता है, जैसा कि प्रज्जवल रेवन्ना के मामले में देखा गया है।
- हालाँकि, घोटालों पर राजनीतिक प्रतिक्रियाओं की प्रतिक्रियाशील प्रकृति लोकतांत्रिक प्रणालियों में उत्तरदायित्व के एक व्यापक मुद्दे पर प्रकाश डालती है।
- कदाचार के ज्ञान के बावज़ूद, पार्टियाँ प्राय: तब तक निष्क्रिय रहती हैं, जब तक कि उन्हें जनता के आक्रोश को संबोधित करने के लिये मजबूर नहीं किया जाता है, जनता के दबाव से परे जवाबदेही के अधिक मज़बूत तंत्र की आवश्यकता पर बल दिया जाता है।
- सार्वजनिक आक्रोश प्राय: राजनीतिक दलों में कार्रवाई के लिये उत्प्रेरक के रूप में कार्य करता है, जैसा कि प्रज्जवल रेवन्ना के मामले में देखा गया है।
- दण्ड से मुक्ति और व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की संस्कृति:
- दण्ड से मुक्ति की संस्कृति राजनीतिक क्षेत्र में प्रसारित होती है, जहाँ मानदंडों और नियमों को असंगत रूप से लागू किया जाता है, जिससे व्यक्तिगत रूप से महिलाओं पर उत्तरदायित्व का बोझ डाला जाता है।
- प्रणालीगत विफलताओं के बावज़ूद, रेवन्ना की शिकायतकर्त्ता अथवा उन्नाव बलात्कार पीड़िता जैसी साहसी महिलाओं ने अपराधियों को दोषी ठहराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- हालाँकि, न्याय प्राप्त करने की उच्च व्यक्तिगत लागत दण्ड से मुक्ति को संबोधित करने और राजनीतिक क्षेत्र में वास्तविक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के लिये प्रणालीगत सुधारों की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है।
- महिला सशक्तीकरण एक भ्रम के रूप में:
- महिला सशक्तीकरण पर व्यापक एजेंडे के बावज़ूद, सम्मान, समानता और सुरक्षा जैसे महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर ठोस प्रगति नहीं हुई है।
- जबकि महिलाओं को मतदाता एवं कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों के रूप में संगठित किया जाता है, उनकी सामूहिक चिंताएँ प्राय: राजनीतिक एजेंडे की परिधि पर रहती हैं।
- किये गए वादों और कार्रवाई के बीच का अंतर राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के मुद्दों पर सार्थक प्रगति की संभावना को कमज़ोर करता है।
- महिला सशक्तीकरण पर व्यापक एजेंडे के बावज़ूद, सम्मान, समानता और सुरक्षा जैसे महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर ठोस प्रगति नहीं हुई है।
- प्रतिनिधित्व बनाम सशक्तीकरण:
- महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण के लिये केवल न्यायसंगत प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है। सच्चे सशक्तीकरण के लिये नैतिक मानकों को स्थापित करने और लागू करने की क्षमता की आवश्यकता होती है।
- राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) आदि जैसे निकायों के सीमित प्रभाव में प्रतिनिधित्व और सशक्तीकरण के बीच का अंतर स्पष्ट है।
- महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण के लिये केवल न्यायसंगत प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है। सच्चे सशक्तीकरण के लिये नैतिक मानकों को स्थापित करने और लागू करने की क्षमता की आवश्यकता होती है।
- गैर-पक्षपात से तात्पर्य किसी विशेष राजनीतिक दल या विचारधारा से संबद्ध न होने अथवा उसके प्रति पक्षपाती न होने की स्थिति से है। यह राजनीतिक मामलों में तटस्थ एवं निष्पक्ष रहने तथा एक पार्टी या दूसरी पार्टी का पक्ष न लेने का विचार है।
राजनीति के अपराधीकरण के नैतिक प्रभाव क्या हैं?
- सामाजिक दृष्टिकोण:
- नैतिक ताने-बाने का क्षरण: जब आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग सत्ता पर काबिज़ होते हैं, तो इससे यह संदेश प्रसारित होता है कि कानून तोड़ना स्वीकार्य है, जिससे संभावित रूप से सामाजिक नैतिकता और कानून के प्रति सम्मान कम होता है।
- नागरिक सहभागिता में कमी: लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास कम होने की प्रबल संभावना है। यदि नागरिकों को लगता है कि व्यवस्था भ्रष्ट और अनुत्तरदायी है, तो उनके वोट देने अथवा नागरिक जीवन में भाग लेने की संभावना कम होगी।
- असमानता एवं बहिष्करण: अपराधीकरण हाशिये पर रहने वाले समुदायों को असंगत रूप से प्रभावित कर सकता है, उनके प्रतिनिधित्व को सीमित कर सकता है, साथ ही उनके लिये प्रासंगिक मुद्दों पर प्रगति में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
- अल्पकालिक लाभ पर ध्यान देंना: आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेता दीर्घकालिक सामाजिक विकास पर व्यक्तिगत लाभ या त्वरित सुधार को प्राथमिकता दे सकते हैं।
- लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य:
- लोकतांत्रिक सिद्धांतों का कमज़ोर होना: लोकतंत्र का एक मुख्य सिद्धांत ऐसे प्रतिनिधियों का चुनाव करना है जो विधि के शासन को बनाए रख सकें। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं में सत्यनिष्ठा तथा ईमानदारी जैसे आवश्यक नैतिक गुणों का अभाव होता है, जिसके कारण पक्षपात होने के साथ अनुचित विधि-निर्माण हो सकता है।
- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव: अपराधीकरण से धन शोधन, बाहुबल एवं धमकी जैसे कृत्यों के माध्यम से चुनावी प्रक्रियाओं को विकृत किया जा सकता है, जिससे ईमानदार उम्मीदवारों के लिये समान एवं उचित अवसरों में बाधा आ सकती है।
- जवाबदेहिता और पारदर्शिता: जब आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोग पद पर आसीन होते हैं, तो यह अपने कार्यों के लिये जवाबदेह नहीं रहते हैं, जिससे शासन की पारदर्शिता में कमी आती है।
- भारत में विकास से संबंधित चुनौतियाँ: अपराधीकरण से संसाधनों को व्यक्तिगत लाभ में लगाकर या निहित स्वार्थों को महत्त्व देने से भारत के विकास में बाधा आ सकती है।
आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों की अयोग्यता के विधायी पहलू:
- परिचय:
- इस संबंध में भारतीय संविधान यह निर्दिष्ट नहीं करता है कि संसद, विधानसभा या किसी अन्य विधानमंडल के लिये चुनाव लड़ने से किसी व्यक्ति को किन आधारों पर अयोग्य ठहराया जा सकता है?
- जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 में विधायिका का चुनाव लड़ने के लिये किसी व्यक्ति को अयोग्य घोषित करने के मानदंड का उल्लेख है।
- अधिनियम की धारा 8 कुछ अपराधों के लिये दोषी ठहराए जाने पर चुनाव लड़ने हेतु अयोग्यता प्रदान करती है, जिसके अनुसार दो वर्ष से अधिक सज़ायाफ्ता (जिनकी न्यायालय द्वारा सज़ा तय कर दी गई है) व्यक्ति कारावास की अवधि समाप्त होने के बाद छह वर्ष तक चुनाव में खड़ा नहीं हो सकता है।
- हालाँकि कानून उन व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से नहीं रोकता है जिनके खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं, इसलिये आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवारों की अयोग्यता इन मामलों में उनकी सज़ा पर निर्भर करती है।
- राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ पहल/सिफारिशें:
- वर्ष 1983 में राजनीति के अपराधीकरण पर वोहरा समिति का गठन राजनीतिक-आपराधिक गठजोड़ की सीमा की पहचान करने और राजनीति के अपराधीकरण से प्रभावी ढंग से निपटने के तरीकों की सिफारिश करने के उद्देश्य से किया गया था।
- विधि आयोग द्वारा प्रस्तुत 244वीं रिपोर्ट (2014) में विधायिका में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के लिये गंभीर परिणाम उत्पन्न करने वाले आपराधिक राजनेताओं की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की आवश्यकता पर विचार किया गया है।
- विधि आयोग ने उन लोगों की अयोग्यता की सिफारिश की जिनके खिलाफ पाँच वर्ष या उससे अधिक की सज़ा के साथ दंडनीय अपराध के लिये नामांकन की जाँच की तारीख से कम-से-कम एक वर्ष पहले आरोप तय किये गए हैं।
- वर्ष 2017 में केंद्र सरकार ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों के मुकदमे को तेज़ी से ट्रैक करने हेतु एक वर्ष के लिये 12 विशेष न्यायालय स्थापित करने की योजना शुरू की।
- राजनीति के अपराधीकरण के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय:
- एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स बनाम भारत संघ, (2002):
- वर्ष 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक उम्मीदवार को शैक्षिक योग्यता के साथ उसे अपने आपराधिक और वित्तीय रिकॉर्ड की घोषणा भी करनी होगी।
- PUCL बनाम भारत संघ (2004):
- सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि चुनावी उम्मीदवारों के लिये अपने आपराधिक रिकॉर्ड को प्रदर्शित करने की आवश्यकता को समाप्त करने वाला कानून असंवैधानिक है। न्यायालय ने कहा कि निष्पक्ष चुनाव के लिये मतदाताओं को उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि के बारे में जानने का अधिकार है।
- रमेश दलाल बनाम भारत संघ (2005):
- वर्ष 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि दोषी ठहराए जाने पर मौजूदा सांसद या विधायक को चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा और न्यायालय द्वारा दो वर्ष या उससे अधिक के लिये कारावास की सज़ा सुनाई जाएगी।
- लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2013):
- सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की है कि संसद या राज्य विधानसभा का कोई भी सदस्य जो किसी अपराध के लिये दोषी ठहराया जाता है और दो साल या उससे अधिक की जेल की सज़ा भुगतता है, उसे पद धारण करने से अयोग्य घोषित किया जाएगा।
- मनोज नरूला बनाम भारत संघ (2014):
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि एक व्यक्ति को केवल इसलिये चुनाव लड़ने से अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि उस पर आपराधिक आरोप लगाया गया है।
- हालाँकि न्यायालय ने यह भी कहा कि राजनीतिक दलों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को मैदान में नहीं उतारना चाहिये।
- पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन बनाम भारत संघ (2019):
- सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड को अपनी वेबसाइट, सोशल मीडिया हैंडल और समाचार पत्रों पर प्रकाशित करने का आदेश दिया है।
- न्यायालय ने भारत निर्वाचन आयोग (ECI) को यह सुनिश्चित करने के लिये एक ढाँचा तैयार करने का भी निर्देश दिया ताकि उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी प्रभावी ढंग से प्रसारित की जा सके।
- एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स बनाम भारत संघ, (2002):
आगे की राह
- जवाबदेही के लिये संस्थागत तंत्र को सुदृढ़ बनाना:
- राजनीतिक भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग की प्रभावी ढंग से जाँच करने तथा मुकदमा चलाने के लिये भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसियों एवं न्यायपालिका को सशक्त बनाना।
- पार्टी की मज़बूत आंतरिक अनुशासनात्मक प्रक्रियाएँ स्थापित करना जो पारदर्शी और निष्पक्ष हों।
- ECI, NRHC और राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission for Women) जैसे निरीक्षण निकायों की स्वतंत्रता एवं प्रभावशीलता सुनिश्चित करना।
- नैतिक आचरण की संस्कृति को बढ़ावा देना:
- निर्वाचित प्रतिनिधियों और राजनीतिक दल के पदाधिकारियों के लिये एक व्यापक आचार संहिता विकसित करना।
- राजनीतिक वर्ग के सभी सदस्यों के लिये नैतिक प्रशिक्षण और संवेदीकरण कार्यक्रम अनिवार्य करना।
- नैतिक मानदंडों के उल्लंघन के लिये अयोग्यता सहित कठोर दंड लगाना।
- नागरिकों और नागरिक समाज को सशक्त बनाना:
- मतदाताओं के बीच राजनीतिक जागरूकता और आलोचनात्मक सोच बढ़ाने के लिये नागरिक शिक्षा में सुधार करना।
- ज़मीनी स्तर के आंदोलनों और वकालत अभियानों सहित राजनीतिक प्रक्रिया में अधिक से अधिक नागरिक भागीदारी को प्रोत्साहित करना।
- राजनीतिक कदाचार के मुद्दों की जाँच करने और उन्हें उजागर करने में स्वतंत्र मीडिया, निगरानी संगठनों एवं कार्यकर्त्ताओं की भूमिका का समर्थन करना।
निष्कर्ष:
भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में जवाबदेही और नैतिक मानकों को बहाल करना एक जटिल एवं दीर्घकालिक प्रयास होगा। हालाँकि, एक बहुआयामी दृष्टिकोण जो संस्थागत, सांस्कृतिक और सामाजिक आयामों का समाधान करता है, अपराधीकरण एवं पक्षपातपूर्ण संरक्षण से संबंधित प्रवृत्तियों का मुकाबला करने में सहायता कर सकता है जिसने लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अखंडता को कमज़ोर किया है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: उदाहरणों की सहायता से राजनीति के अपराधीकरण पर चर्चा कीजिये। साथ ही, इससे जुड़े प्रमुख नैतिक मुद्दों का भी उल्लेख कीजिये। प्रश्न: राजनीति के अपराधीकरण से जुड़े नैतिक मुद्दों की गणना कीजिये। साथ ही, इसके नैतिक निहितार्थ भी सुझाइए? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये- (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अंतर्गत संसद अथवा राज्य विधायिका के सदस्यों के चुनाव से उभरे विवादों के निर्णय की प्रक्रिया का विवेचन कीजिये। किन आधारों पर किसी निर्वाचित घोषित प्रत्याशी के निर्वाचन को शून्य घोषित किया जा सकता है? इस निर्णय के विरुद्ध पीड़ित पक्ष को कौन-सा उपचार उपलब्ध है? वाद विधियों का संदर्भ दीजिये। (2022) प्रश्न.2 अक्सर कहा जाता है कि 'राजनीति' और 'नैतिकता' एक साथ नहीं चलते हैं। इस संबंध में आपकी क्या राय है? दृष्टांतों के साथ अपने उत्तर की पुष्टि कीजिये। (2013) |