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एडिटोरियल

  • 29 Dec, 2023
  • 19 min read
कृषि

खेत से थाली तक: प्राकृतिक कृषि का प्रसार

यह एडिटोरियल 27/12/2023 को ‘हिंदू बिज़नेसलाइन’ में प्रकाशित “Natural farming needs better prices, markets” लेख पर आधारित है। इसमें प्राकृतिक खेती के समक्ष विद्यमान चुनौतियों और प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिये वैकल्पिक बाज़ारों की खोज की आवश्यकता के बारे में चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

प्राकृतिक कृषि, जैविक कृषि, हरित क्रांति, ड्रिप सिंचाई, जैव-कीटनाशक, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS), किसान उत्पादक संगठन (FPOs), भागीदारी गारंटी प्रणाली (PGS-भारत), भारतीय मानक ब्यूरो, मध्याह्न भोजन कार्यक्रम

मेन्स के लिये:

प्राकृतिक कृषि: लाभ, चुनौतियाँ और आगे की राह; जैविक बनाम प्राकृतिक कृषि

हरित क्रांति (Green Revolution) के कारण आज हम कृषि उपज में आत्मनिर्भर बन गए हैं। लेकिन हरित क्रांति के क्षेत्रों में मृदा के क्षरण, जैव विविधता की हानि, प्राकृतिक संसाधनों की कमी आदि के रूप में नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव भी बहुत अधिक दिखाई दे रहे हैं। सतत/संवहनीय कृषि पद्धतियों में से एक जो हाल के समय में गति पकड़ रही है, वह है प्राकृतिक कृषि (Natural Farming- NF)। यह ‘स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुसार की जाने वाली कृषि है और इसलिये इसे कृषि पारिस्थितिकी (agroecology) भी कहा जाता है।’ 

प्राकृतिक कृषि: 

अवधारणा: प्राकृतिक खेती एक रसायन-मुक्त कृषि पद्धति है जो स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों और पारंपरिक पद्धतियों का उपयोग करती है। यह कृषि पारिस्थितिकी पर आधारित है और फसलों, पेड़ों एवं पशुधन को एकीकृत करती है। 

प्राकृतिक खेती मृदा की गुणवत्ता एवं स्वास्थ्य में सुधार के लिये लाभकारी सूक्ष्मजीवों का भी उपयोग करती है। 

प्राकृतिक खेती बनाम जैविक खेती 

जैविक खेती/कृषि: जैविक खेती (Organic Farming) ऐसी कृषि प्रणाली है जो बिना किसी सिंथेटिक इनपुट के फसल उत्पादन एवं पशुपालन के लिये पारंपरिक विधियों का उपयोग करती है। इसमें सिंथेटिक उर्वरकों, कीटनाशकों, एंटीबायोटिक्स, आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों और वृद्धि हार्मोन से परहेज करना शामिल है। 

यह प्राकृतिक खेती से किस प्रकार भिन्न है? 

  • प्राकृतिक खेती/कृषि न्यूनतम मानवीय हस्तक्षेप और पारिस्थितिकी अनुकरण (ecosystem mimicry) पर बल देती है, जबकि जैविक खेती जैविक आदानों या इनपुट के उपयोग पर ध्यान केंद्रित करती है और विशिष्ट मानकों का पालन करती है। 
  • प्राकृतिक खेती किसी भी आयातित उर्वरक या मृदा संशोधन के उपयोग को निषिद्ध करती है, जबकि जैविक खेती खाद, खनिज चट्टानों और पादप या पशु स्रोतों से प्राप्त उर्वरकों के उपयोग की अनुमति देती है। 
  • प्राकृतिक खेती जैव विविधता को बढ़ावा देने, मृदा स्वास्थ्य को संरक्षित करने, पादपों एवं पशुओं के स्वास्थ्य का समर्थन करने और फसल की पैदावार में सुधार लाने के लिये पारिस्थितिक सिद्धांतों पर निर्भर करती है, जबकि जैविक खेती कृषि पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता एवं पारिस्थितिक जीवन शक्ति को इष्टतम करने के लिये जैविक सामग्री एवं तकनीकों का उपयोग करती है। 
  • प्राकृतिक खेती किसी भी रसायन के उपयोग को हतोत्साहित करती है, जबकि जैविक खेती में मनुष्यों एवं पर्यावरण के लिये सुरक्षित माने जाने वाले अनुमोदित रसायनों की अनुमति है। 
  • प्राकृतिक खेती एक दार्शनिक दृष्टिकोण पर आधारित है जो प्रकृति के स्वयं के ज्ञान को प्रतिबिंबित करती है, जबकि जैविक खेती एक समग्र कृषि प्रणाली है जिसे सावधानीपूर्वक अभिकल्पित एवं विनियमित किया जाता है। 

प्राकृतिक खेती के क्या लाभ हैं? 

  • पर्यावरणीय लाभ: 
    • स्वस्थ मृदा: कम्पोस्टिंग एवं मल्चिंग जैसी प्राकृतिक खेती की तकनीकें लाभकारी सूक्ष्मजीवों और कार्बनिक पदार्थों को बढ़ावा देकर मृदा की उर्वरता को बढ़ाती हैं। इससे बेहतर जलधारण, पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि और बेहतर फसल पैदावार सुनिश्चित होती है। 
    • जल संरक्षण: मल्चिंग और ड्रिप सिंचाई जैसी प्राकृतिक विधियाँ मृदा में नमी बनाए रखने में मदद करती हैं, जिससे जल के अत्यधिक उपयोग की आवश्यकता कम हो जाती है। यह सतत जल प्रबंधन और सूखे की स्थिति से निपटने के लिये महत्त्वपूर्ण है। 
    • प्रदूषण की कमी: उर्वरकों और कीटनाशकों को प्राकृतिक विकल्पों के साथ प्रतिस्थापित कर, प्राकृतिक खेती मृदा, जल निकायों और वातावरण के प्रदूषण को पर्याप्त कम कर देती है। यह पारिस्थितिक तंत्र और मानव स्वास्थ्य की हानिकारक रसायनों से रक्षा करती है। 
    • जलवायु परिवर्तन शमन: पारंपरिक कृषि की तुलना में प्राकृतिक खेती पद्धतियों में आम तौर पर निम्न ‘कार्बन फुटप्रिंट’ पाया जाता है। इसके अतिरिक्त, स्वस्थ मृदा कार्बन सिंक के रूप में कार्य करती है, ग्रीनहाउस गैसों को जब्त या ग्रहण करती है और जलवायु परिवर्तन शमन में योगदान देती है। 
  • किसानों को लाभ: 
    • लागत में कमी: प्राकृतिक खेती स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों और कम्पोस्ट एवं जैव-कीटनाशकों जैसे ऑन-फार्म कृषि इनपुट पर निर्भर करती है, जिससे रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों जैसे महंगे बाहरी इनपुट पर निर्भरता कम हो जाती है। इससे उत्पादन की कुल लागत में कमी आती है और किसानों की लाभप्रदता में सुधार होता है। 
    • बेहतर कृषि प्रत्यास्थता: प्राकृतिक खेती की तकनीकें मृदा स्वास्थ्य और जैव विविधता को बढ़ावा देकर सूखे और बाढ़ जैसी चरम मौसमी घटनाओं के प्रति खेतों को अधिक प्रत्यास्थी बनाती हैं। इससे अधिक स्थिरता आती है और किसानों के लिये जोखिम कम हो जाता है। 
    • किसानों के स्वास्थ्य में सुधार: प्राकृतिक खेती हानिकारक रसायनों से संपर्क का उन्मूलन कर किसानों के स्वास्थ्य एवं सेहत की रक्षा करती है। 
  • उपभोक्ताओं को लाभ: 
    • सुरक्षित खाद्य: प्राकृतिक खेती हानिकारक रासायनिक अवशेषों से मुक्त खाद्य का उत्पादन करती है, जिससे उपभोक्ताओं के लिये सुरक्षित एवं स्वस्थ उपभोग की स्थिति बनती है। 
    • खाद्य की गुणवत्ता में सुधार: अध्ययनों से पता चलता है कि प्राकृतिक रूप से उगाए गए खाद्य में उच्च स्तर के ‘एंटीऑक्सिडेंट’ एवं अन्य लाभकारी पोषक तत्व मौजूद हो सकते हैं, जिससे उपभोक्ताओं के लिये बेहतर स्वास्थ्य परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। 
    • सतत कृषि के लिये समर्थन: जो उपभोक्ता प्राकृतिक खाद्य उत्पादों का चयन करते हैं, वे अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण एवं किसानों को लाभ पहुँचाने वाली अधिक सतत एवं नैतिक कृषि प्रणाली का समर्थन करते हैं। 

प्राकृतिक खेती से संबद्ध प्रमुख चुनौतियाँ कौन-सी हैं? 

  • सीमित बाज़ार: प्राकृतिक खेती से संलग्न किसानों को अपने उत्पादों के लिये प्रीमियम मूल्य प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि विभेदित बाज़ार, मानक एवं प्रोटोकॉल पर्याप्त रूप से मौजूद नहीं हैं। कई किसान स्वीकार करते हैं कि NF उत्पाद मुख्यतः घरेलू उपभोग के लिये हैं। 
    • इसके साथ ही, प्राकृतिक खेती के लिये प्रमाणन एवं मानकीकरण की कमी है, जिससे इन्हें जैविक या पारंपरिक खेती से पृथक रूप से देखना कठिन हो जाता है। 
  • निम्न आरंभिक पैदावार: प्राकृतिक खेती स्वस्थ मृदा पारितंत्र के निर्माण पर निर्भर करती है, जिसमें समय लगता है। इससे प्रायः पारंपरिक कृषि पद्धतियों—जो त्वरित वृद्धि के लिये रासायनिक इनपुट पर निर्भर होते हैं, की तुलना में आरंभिक वर्षों में कम पैदावार प्राप्त होती है। 
    • ‘सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर’ द्वारा आंध्र प्रदेश में किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि प्राकृतिक खेती से संबद्ध खेतों में धान की पैदावार पहले वर्ष पारंपरिक खेतों की तुलना में 20% कम थी और धीरे-धीरे सुधार के साथ यह तीन वर्षों की अवधि में पारंपरिक पैदावार के स्तर पर पहुँची। 
  • जागरूकता और प्रशिक्षण की कमी: कई किसान प्राकृतिक खेती तकनीकों के संबंध में ज्ञान एवं व्यावहारिक कौशल की कमी रखते हैं, जिससे वे इसे अपनाने के प्रति झिझक रखते हैं। प्रशिक्षण कार्यक्रमों और विस्तार सेवाओं तक सीमित पहुँच इस समस्या को और बढ़ा देती है। 
    • हिमाचल प्रदेश में, प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की सरकारी पहल के बावजूद, कई किसान विशिष्ट अभ्यासों और लाभों से अनभिज्ञ हैं, जिससे व्यापक रूप से इसे अपनाने में बाधा आ रही है। 
  • जैविक इनपुट की उपलब्धता एवं वहनीयता: मृदा स्वास्थ्य और बाज़ार मांग के संबंध में दीर्घकालिक लाभों के बावजूद, जैविक कपास के बीजों की उच्च लागत किसानों को प्राकृतिक कपास की खेती करने से हतोत्साहित करती है। 
  • कीट और रोग प्रबंधन: प्राकृतिक खेती कीट और रोग नियंत्रण के लिये पारिस्थितिक तरीकों पर निर्भर करती है, जो अल्पावधि में रासायनिक कीटनाशकों से कम प्रभावी सिद्ध हो सकती है। इससे किसानों के अधिक सतर्क रहने और निवारक उपाय अपनाने की आवश्यकता उत्पन्न होती है। 
    • उदाहरण के लिये, जम्मू-कश्मीर में सेब उत्पादकों को प्राकृतिक तरीकों का उपयोग कर कोडलिंग मॉथ (codling moth) संक्रमण का प्रबंधन करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण कुछ किसान रासायनिक कीटनाशकों की ओर वापस लौट रहे हैं। 

प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिये क्या उपाय किये जाने चाहिये? 

  • वैकल्पिक और विभेदित बाज़ारों का विकास करना: यदि देश को प्राकृतिक खेती की ओर आगे बढ़ना है तो सरकार को वैकल्पिक बाज़ारों का पता लगाना चाहिये। प्राकृतिक खेती के लिये वैकल्पिक बाज़ारों के विस्तार के संबंध में यहाँ कुछ विचार प्रस्तुत किये गए हैं: 
    • सार्वजनिक वितरण प्रणाली (Public Distribution System- PDS): 
      • PDS में प्राकृतिक खेती के उत्पादों को एकीकृत करने से न केवल किसानों के लिये एक स्थिर बाज़ार उपलब्ध हो सकता है, बल्कि इससे वृहत आबादी के लिये स्वस्थ एवं रसायन-मुक्त खाद्य की उपलब्धता भी सुनिश्चित हो सकती है। 
    • मौजूदा तंत्र का उपयोग करना: 
    • मध्याह्न भोजन कार्यक्रम (Mid-day Meal Programme): 
      • मध्याह्न भोजन कार्यक्रम खाद्य के आयात के बदले स्थानीय विकेंद्रीकृत प्रणालियों का उपयोग करने के रूप में एक नया बाज़ार बन सकता है। इसमें FPOs की भागीदारी के साथ आस-पास के क्षेत्रों से प्राप्त उपज का उपयोग करते हुए स्थानीय उत्पादन, खरीद, भंडारण और वितरण करना शामिल है। 
      • स्थानीय आवश्यकताओं के लिये स्थानीय फसल का मूल मंत्र होना चाहिये। 
    • समर्पित हाट: 
      • आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में किसानों के बाज़ारों की एक शृंखला के रूप में लगभग 43,000 ग्रामीण हाट मौजूद हैं। 
      • उनमें से कुछ को प्रमाणित NF उपज को समर्पित किया जा सकता है और ‘बैकवर्ड इंटीग्रेशन’ विकसित किया जा सकता है। 
    • उपभोक्ता सहकारी समितियाँ स्थापित करना: 
      • उपभोक्ता सहकारी समितियों (Consumer Cooperatives) को प्रमुख शहरों के शहरी/परि-शहरी क्षेत्रों में भी स्थापित किया जा सकता है जहाँ कृषि भूमि 100 किमी के दायरे में हो। 
      • तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (TTD) ने वर्ष 2022 में देवताओं के प्रसाद (लड्डू प्रसादम, अन्न प्रसादम)) के लिये कीटनाशक मुक्त उपज प्राप्त करने के लिये 5000 स्वयं सहायता समूहों के साथ एक व्यवस्था का निर्माण किया है।  
  • प्रमाणीकरण का प्रभावी कार्यान्वयन: हितधारकों के बीच एक आम समझ स्थापित करने के लिये केंद्र सरकार ने भागीदारीपूर्ण गारंटी प्रणाली (Participatory Guarantee System- PGS-India) की शुरुआत की है और हिमाचल प्रदेश राज्य ने तीसरे पक्ष के प्रमाणीकरण के बिना गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिये प्राकृतिक खेती हेतु एक स्व-प्रमाणन उपकरण (CETARA-NF) विकसित किया है। भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) ने प्राकृतिक खेती और उसके उत्पादों को लेबल करने के लिये शर्तों का एक मसौदा तैयार किया है जहाँ इसे जैविक खेती अलग रूप में चिह्नित किया गया है। 
    • मानकों का पालन करने के लिये प्रोत्साहन एवं मान्यता, हितधारक सहयोग और नीति समर्थन क्षेत्र एवं बाज़ार स्तर पर प्रभावी कार्यान्वयन के लिये आवश्यक हैं। 
  • जागरूकता बढ़ाना: किसानों और उपभोक्ताओं के बीच जागरूकता बढ़ाना आवश्यक है। ये दोनों कार्य आसान नहीं हैं, क्योंकि खाद्य/कृषि यदि संस्कृति नहीं भी हो तो एक प्रभावशाली आदत अवश्य है। 
    • कुछ अनुमानों से संकेत मिलता है कि यह विशिष्ट बाज़ार लगभग 20-25% की दर से बढ़ रहा है, बावजूद इसके कि उपभोक्ताओं को यह पता नहीं है कि लेबल/उत्पाद कितना वास्तविक है! 
      • यदि हम विश्वसनीयता ला सकें तो हमारी खाद्य प्रणालियाँ धीरे-धीरे बेहतरी की ओर आगे बढ़ सकती हैं। 

अभ्यास प्रश्न: भारत के कृषि क्षेत्र के संदर्भ में प्राकृतिक कृषि की अवधारणा और लाभों की चर्चा कीजिये। प्राकृतिक कृषि को किस प्रकार बढ़ावा दिया जा सकता है और कैसे इसके पैमाने को बढ़ाया जा सकता है? 

https://www.youtube.com/watch?v=reJUwpM3LqU


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