भारतीय अर्थव्यवस्था
गरीबी से मुक्ति: एक बहुआयामी चुनौती
यह एडिटोरियल 28/11/2024 को हिंदुस्तान टाइम्स में “The good, the bad, and the ugly in poverty alleviation” पर आधारित है। इस एडिटोरियल के माध्यम से गरीबी उन्मूलन के लिये ‘क्रमिक दृष्टिकोण’ को सामने लाया गया है, जिसमें सामाजिक सुरक्षा, आरक्षण, वित्तीय समावेशन और आजीविका संवर्धन को एकीकृत किया गया है। अपने वादे के बावजूद, भारत को व्यापक गरीबी को दूर करने में लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
प्रिलिम्स के लिये:गरीबी उन्मूलन, सुभाष चंद्र बोस, अलघ समिति, लकड़ावाला समिति, रंगराजन समिति, आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण, विश्व असमानता रिपोर्ट 2022, PM-किसान, आयुष्मान भारत, नई शिक्षा नीति 2020, स्टार्ट-अप ग्राम उद्यमिता कार्यक्रम, प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना, प्रधानमंत्री जन धन योजना, एक ज़िला, एक उत्पाद मेन्स के लिये:भारत में गरीबी रेखा का इतिहास, गरीबी से संबंधित मुद्दे। |
भारत एक अभिनव गरीबी उन्मूलन रणनीति को अपना रहा है जिसे ‘ग्रेजुएशन दृष्टिकोण’ के रूप में जाना जाता है, जिसका नेतृत्व बांग्लादेश ग्रामीण उन्नति समिति (BRAC) ने किया और इसे 50 देशों में सफलतापूर्वक लागू किया गया। यह विधि पारंपरिक नकद सहायता से परे है, जो सामाजिक सुरक्षा, सशक्तीकरण, वित्तीय समावेशन और आजीविका संवर्द्धन के माध्यम से अति-निर्धन परिवारों के लिये व्यापक सहायता पर ध्यान केंद्रित करती है। हालाँकि, इन आशाजनक पहलों के बावजूद, भारत को अपनी व्यापक गरीबी चुनौतियों का प्रभावी ढंग से समाधान करने के लिये अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है।
भारत में गरीबी आकलन का इतिहास क्या है?
- स्वतंत्रता-पूर्व काल:
- दादाभाई नौरोजी की गरीबी रेखा (वर्ष 1867): दादाभाई नौरोजी ने अपनी मौलिक कृति "Poverty and the Un-British Rule in India" में भारत में गरीबी का सबसे प्रारंभिक अनुमान लगाया।
- उन्होंने न्यूनतम निर्वाह आवश्यकताओं के आधार पर गरीबी रेखा तैयार की, जिसका अनुमान सत्र 1867-68 के मूल्यों पर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 16 रुपए से 35 रुपए के बीच लगाया गया।
- उनकी कार्यप्रणाली मुख्य रूप से जीवन निर्वहन के लिये बुनियादी आवश्यकताओं भोजन, कपड़े और आश्रय की लागत पर केंद्रित थी।
- राष्ट्रीय योजना समिति (वर्ष 1938): सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित।
- न्यूनतम जीवन स्तर की सिफारिश की गई।
- वर्ष 1944 में बम्बई योजना के अनुसार प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 75 रुपए की आय गरीबी रेखा का सूचक थी।
- दादाभाई नौरोजी की गरीबी रेखा (वर्ष 1867): दादाभाई नौरोजी ने अपनी मौलिक कृति "Poverty and the Un-British Rule in India" में भारत में गरीबी का सबसे प्रारंभिक अनुमान लगाया।
- स्वतंत्रता-पश्चात अवधि:
- पहला आधिकारिक प्रयास (वर्ष 1962): योजना आयोग के कार्य समूह ने उपभोग व्यय के संदर्भ में गरीबी को परिभाषित किया।
- कार्य समूह ने सत्र 1960-61 के मूल्यों के आधार पर प्रति परिवार (5 व्यक्ति या 4 वयस्क इकाई) 100 रुपए या प्रति व्यक्ति 20 रुपए का न्यूनतम मासिक उपभोग व्यय सुझाया।
- दांडेकर और रथ समिति (वर्ष 1971): यह भारत में गरीबी का व्यवस्थित आकलन करने वाली पहली समिति थी। वी.एम. दांडेकर और एन. रथ के नेतृत्व में गठित इस समिति ने अपने विश्लेषण के लिये राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (NSS) के आँकड़ों का उपयोग किया।
- इसका एक प्रमुख निष्कर्ष यह था कि गरीबी रेखा को ऐसे व्यय के आधार पर परिभाषित किया जाना चाहिये जो ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में 2,250 कैलोरी का दैनिक सेवन सुनिश्चित करता हो।
- ग्रामीण क्षेत्रों के लिये बुनियादी पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये आवश्यक न्यूनतम राशि 17 रुपए निर्धारित की गई।
- अलघ समिति (वर्ष 1979): इस समिति ने पोषण संबंधी आवश्यकताओं और संबंधित उपभोग व्यय के आधार पर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिये गरीबी रेखाएँ निर्धारित कीं।
- इसमें मुद्रास्फीति को समायोजित करके गरीबी के आकलन को अद्यतन करने का प्रस्ताव रखा गया, जिससे भविष्य की कार्यप्रणालियों के लिये आधार तैयार हो गया।
- लकड़ावाला समिति (वर्ष 1993): समिति ने कैलोरी-आधारित गरीबी आकलन का उपयोग जारी रखा और राज्य-विशिष्ट गरीबी रेखाएँ विकसित कीं, जिन्हें CPI-IW (शहरी) और CPI-AL (ग्रामीण) का उपयोग करके अद्यतन किया गया।
- इसने राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी का उपयोग करके गरीबी का आकलन करने की प्रथा को बंद कर दिया।
- तेंदुलकर समिति (वर्ष 2009): इस समिति ने कैलोरी-आधारित आकलन से हटकर स्वास्थ्य और शिक्षा व्यय सहित व्यापक उपभोग की ओर रुख किया।
- इसने MRP-आधारित अनुमानों का उपयोग करते हुए ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के लिये एक समान गरीबी रेखाएँ पेश कीं, और सत्र 2004-2005 की गरीबी रेखा ₹446.68 (ग्रामीण) एवं ₹578.80 (शहरी) निर्धारित की, जो PPP शर्तों में ₹33/दिन के बराबर थी।
- रंगराजन समिति (वर्ष 2014): समिति ने बड़े घरेलू सर्वेक्षणों का उपयोग किया और मानक पोषण एवं व्यवहार मानकों के आधार पर गरीबी की सीमा ₹32/दिन (ग्रामीण) एवं ₹47/दिन (शहरी) निर्धारित की।
- हालाँकि, सरकार ने इस समिति की सिफारिशों को खारिज़ कर दिया और तेंदुलकर समिति की सिफारिशें आज भी मानक के रूप में कार्य करती हैं।
- पहला आधिकारिक प्रयास (वर्ष 1962): योजना आयोग के कार्य समूह ने उपभोग व्यय के संदर्भ में गरीबी को परिभाषित किया।
- आधुनिक विकास:
- बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI): ऑक्सफोर्ड निर्धनता और मानव विकास पहल (OPHI) एवं संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा संयुक्त रूप से वर्ष 2010 में प्रस्तुत किया गया।
- भारत ने शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर जैसे गैर-आय आधारित निर्धनता आयामों के आकलन के लिये MPI को अपनाया है।
- आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS): आय और रोज़गार पर ध्यान केंद्रित करते हुए अद्यतन निर्धनता आकलन के लिये डेटा प्रदान करते हैं।
- बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI): ऑक्सफोर्ड निर्धनता और मानव विकास पहल (OPHI) एवं संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा संयुक्त रूप से वर्ष 2010 में प्रस्तुत किया गया।
भारत में गरीबी की वर्तमान स्थिति क्या है?
- स्थिति: भारत में बहुआयामी गरीबी में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है, जो सत्र 2013-14 में 29.17% से घटकर सत्र 2022-23 में 11.28% हो गई है, अर्थात 17.89 प्रतिशत अंकों की कमी आई है।
- फिर भी, वर्ष 2024 में लगभग 129 मिलियन भारतीय प्रतिदिन 2.15 डॉलर (लगभग 181 रुपए) से भी कम आय पर अतिनिर्धनता में रह रहे होंगे।
- ग्रामीण बनाम शहरी असमानता: ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी दर का अनुपात उल्लेखनीय रूप से कम होकर 32.59% से 19.28% हो गया, जबकि शहरी क्षेत्रों में 8.65% से 5.27% तक की गिरावट दर्ज की गई।
- यह कमी गरीबी के प्रति पूर्वाग्रह को दर्शाती है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी के स्तर में तीव्र गिरावट देखी जा रही है।
- प्रगति को प्रेरित करने वाले प्रमुख संकेतक: पोषण, स्कूली शिक्षा, स्वच्छता और भोजन पकाने हेतु ईंधन तक अभिगम में सुधार ने बहुआयामी गरीबी में कमी लाने में सबसे अधिक योगदान दिया।
- स्वच्छता और भोजन पकाने के ईंधन में कमी क्रमशः 21.8% और 14.6% कम हुई।
- राज्य-स्तरीय उपलब्धियाँ: बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान जैसे राज्यों में गरीबी में सर्वाधिक कमी दर्ज की गई।
- अकेले उत्तर प्रदेश में 3.43 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर हुए हैं, जो सभी राज्यों में सर्वाधिक है।
प्रगति के बावजूद भारत में गरीबी एक गंभीर चिंता का विषय क्यों है?
- विकास के बीच बढ़ती असमानता: भारत के आर्थिक विकास ने धनी वर्ग को अनुपातहीन रूप से लाभ पहुँचाया है, जिससे असमानता लगातार बनी हुई है।
- विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भारत विश्व के सबसे अधिक असमानता वाले देशों में से एक है, जहाँ शीर्ष 10% और शीर्ष 1% आबादी के पास कुल राष्ट्रीय आय का क्रमशः 57% और 22% हिस्सा है। निचले 50% का हिस्सा घटकर 13% रह गया है।
- रोज़गार संकट और अनौपचारिक क्षेत्र की भेद्यता: बेरोज़गारी और अल्परोज़गार, विशेष रूप से अनौपचारिक क्षेत्र में, गरीबी में महत्त्वपूर्ण योगदानकर्त्ता बने हुए हैं।
- कोविड-19 के बाद GDP में वृद्धो के बावजूद, CMIE डेटा (वर्ष 2023) से पता चलता है कि भारत की बेरोज़गारी दर 7-8% के आसपास थी, शहरी क्षेत्रों की स्थिति और भी खराब रही।
- इसके अतिरिक्त, अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत 80% कार्यबल के पास नौकरी की सुरक्षा, सामाजिक लाभ और उचित वेतन का अभाव है, जिससे गरीबी का चक्र जारी रहता है।
- ग्रामीण गरीबी और कृषि पर निर्भरता: भारत के 46% कार्यबल को कृषि क्षेत्र में रोज़गार प्राप्त है, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान केवल 18% है, जो कम उत्पादकता और प्रछन्न बेरोज़गारी को दर्शाता है।
- PM-किसान जैसी पहल के बावजूद, मूल्य अस्थिरता और जलवायु जोखिमों के कारण किसानों की आय में कोई बदलाव नहीं आया है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में 70 प्रतिशत परिवार अभी भी अपनी आजीविका के लिये मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं, जिनमें से 82 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत हैं।
- शहरी गरीबी और झुग्गी बस्तियों का प्रसार: तीव्र शहरीकरण ने शहरी गरीबी केंद्रों का निर्माण किया है, जहाँ आवास, स्वच्छता और रोज़गार के अवसरों तक पहुँच की बहुत कमी है।
- जनगणना- 2011 के अनुसार 17% शहरी आबादी झुग्गी-झोपड़ियों में रहती है, और तब से यह आँकड़ा बढ़ता ही गया है।
- विश्व बैंक (2023) ने चेतावनी दी है कि शहरी गरीब मुद्रास्फीति एवं पर्यावरणीय आपदाओं से असमान रूप से प्रभावित होते हैं, जिससे उनकी कमजोरियाँ और बढ़ जाती हैं।
- स्वास्थ्य असमानताएँ और वित्तीय तनाव: स्वास्थ्य संबंधी गरीबी एक गंभीर मुद्दा है, जिसमें स्वास्थ्य देखभाल पर होने वाले खर्च का 58.7% हिस्सा स्वयं की जेब से किया जाता है।
- आयुष्मान भारत के बावजूद, लाखों लोगों को गुणवत्तापूर्ण देखभाल सुविधा नहीं मिल पा रही है, तथा स्वास्थ्य संबंधी अत्यधिक व्यय के कारण परिवार गरीबी की ओर जा रहे हैं।
- ग्रामीण क्षेत्रों और सीमांत समूहों पर इसका सबसे अधिक बोझ है, जहाँ मातृ मृत्यु दर और कुपोषण अभी भी चिंताजनक रूप से उच्च स्तर पर बना हुआ है।
- शिक्षा और कौशल अंतराल: शैक्षिक असमानताएँ गरीबी की स्थिति को और भी गंभीर करती हैं क्योंकि लाखों लोग औपचारिक स्कूली शिक्षा प्रणाली से वंचित रह जाते हैं।
- विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, महामारी से पहले भारत की अधिगम की दर 56.1% थी। वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट- 2022 के अनुसार, ग्रामीण भारत के स्कूलों में कक्षा 3 के 80% छात्र कक्षा 2 की किताब नहीं पढ़ सकते थे।
- उद्योग की मांग के साथ कौशल संरेखण की कमी बेरोज़गारी को बढ़ाती है और आर्थिक गतिशीलता को कम करती है, जिससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी तक गरीबी का चक्र चलता रहता है।
- जलवायु संबंधी कमजोरियाँ गरीबी को बढ़ाती हैं: जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर गरीबों पर पड़ता है, जो कृषि और मात्स्यिकी जैसे जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों पर अधिक निर्भर हैं।
- चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति में वृद्धि हुई है, भारत में लगभग 51% बच्चे गरीबी और जलवायु आपातकाल के दोहरे प्रभाव में रह रहे हैं।
- चक्रवात अम्फान (वर्ष 2020) ने 2.4 मिलियन से अधिक लोगों को विस्थापित कर दिया, जिनमें से अधिकांश पश्चिम बंगाल में थे, जो भारत की कमज़ोर आबादी की अनिश्चित स्थिति को दर्शाता है।
- विकास में क्षेत्रीय असमानताएँ: राज्यों में आर्थिक विकास में भी असमानता है, जिससे पिछड़े क्षेत्रों में गरीबी बढ़ रही है।
- केरल जैसे राज्यों में गरीबी दर काफी कम है (5% से नीचे), जबकि बिहार जैसे राज्य अभी भी संघर्ष कर रहे हैं, जहाँ 25% से अधिक आबादी गरीबी में रह रही है।
गरीबी को अधिक प्रभावी ढंग से दूर करने के लिये कौन-सी रणनीतियाँ क्रियान्वित की जा सकती हैं?
- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच बढ़ाना: गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुँच, विशेष रूप से सीमांत समूहों के लिये, अंतर-पीढ़ीगत गरीबी के कुचक्र को तोड़ सकती है।
- डिजिटल बुनियादी अवसंरचना और शिक्षक प्रशिक्षण पर ध्यान केंद्रित करते हुए समग्र शिक्षा अभियान जैसी मौजूदा योजनाओं को सुदृढ़ करना महत्त्वपूर्ण है।
- उदाहरण के लिये किफायती इंटरनेट और उपकरणों के माध्यम से डिजिटल डिवाइड को कम करने से कोविड-19 महामारी के दौरान सामने आई कमियों को दूर किया जा सकता है।
- नई शिक्षा नीति- 2020 कौशल आधारित शिक्षा पर बल देती है, लेकिन इसके कार्यान्वयन में ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका विविधीकरण को बढ़ावा देना: ग्रामीण आजीविका में विविधता लाकर कृषि पर निर्भरता कम की जानी चाहिये।
- कौशल आधारित परियोजनाओं के साथ मनरेगा को सुदृढ़ करना तथा इसे ग्रामीण उद्यमिता योजनाओं के साथ एकीकृत करना स्थायी आय सृजित कर सकता है।
- DAY-NRLM के अंतर्गत स्टार्ट-अप ग्राम उद्यमिता कार्यक्रम (SVEP) जैसे कार्यक्रम छोटे पैमाने के ग्रामीण व्यवसायों को सहायता प्रदान कर सकते हैं।
- कृषि मूल्य शृंखलाओं का विस्तार तथा डेयरी व मात्स्यिकी जैसे संबद्ध क्षेत्रों को बढ़ावा देने से ग्रामीण आय में और वृद्धि हो सकती है।
- सामाजिक सुरक्षा तंत्र को सुदृढ़ करना: गरीबों को आर्थिक झटकों से बचाने के लिये प्रभावी सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों की आवश्यकता है।
- PM-किसान और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं के तहत प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) तंत्र के दायरे और दक्षता का विस्तार करना महत्त्वपूर्ण है। अनौपचारिक श्रमिकों के लिये बेरोज़गारी बीमा शुरू करना और बेहतर लक्ष्यीकरण के साथ PDS तक पहुँच को सार्वभौमिक बनाना कमज़ोरियों को कम कर सकता है।
- वित्तीय समावेशन का सार्वभौमिकरण: किफायती ऋण, बीमा और बैंकिंग सेवाओं तक पहुँच में सुधार करके गरीबों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाया जा सकता है।
- वित्तीय साक्षरता अभियान के साथ प्रधानमंत्री जन धन योजना का विस्तार करना तथा इसे माइक्रोफाइनेंस संस्थाओं (MFI) से जोड़ना छोटे व्यवसायों को सहायता प्रदान कर सकता है।
- ग्रामीण परिवारों को कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने के लिये NABARD की पहल को सुदृढ़ करने से अनौपचारिक साहूकारों पर निर्भरता कम हो सकती है। वित्तीय डिजिटलीकरण पर RBI के हालिया फोकस में समान विकास सुनिश्चित करने के लिये ग्रामीण एवं वंचित क्षेत्रों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- कौशल विकास और रोज़गार सृजन: बाज़ार की मांग के अनुरूप कौशल विकास बेरोज़गारी और अल्परोज़गार को कम करने की कुंजी है।
- स्थानीयकृत, उद्योग-विशिष्ट प्रशिक्षण कार्यक्रमों के साथ प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (PMKVY) को नया रूप देने से रोज़गार क्षमता बढ़ सकती है, शिक्षा के क्षेत्र में केरल की प्रगति एक आदर्श है।
- मेक इन इंडिया के तहत वस्त्र, निर्माण और विनिर्माण जैसे श्रम-प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देने से कम कुशल कार्यबल के लिये रोज़गार सृजित हो सकते हैं।
- कौशल विकास के लिये प्रशिक्षुता मॉडल और सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने से परिणाम बेहतर हो सकते हैं।
- भूख और कुपोषण से निपटना: भुखमरी से निपटने के लिये पौष्टिक भोजन की उपलब्धता और सामर्थ्य सुनिश्चित करना आवश्यक है।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) को फोर्टीफाइड खाद्यान्नों के साथ सुदृढ़ करना तथा आधार से जुड़ी आपूर्ति को सुव्यवस्थित करना परिणामों में सुधार ला सकता है।
- पोषण अभियान जैसी पहलों को उच्च मांग वाले ज़िलों के लिये लक्षित हस्तक्षेप पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- ओडिशा का पोषण कार्यक्रम आदर्श बन सकता है।
- सामुदायिक रसोई और मध्याह्न भोजन कार्यक्रमों को बढ़ावा देने से बच्चों एवं गर्भवती महिलाओं के बीच पोषण संबंधी अंतर को तत्काल दूर किया जा सकता है।
- महिलाओं और सीमांत समूहों को सशक्त बनाना: आर्थिक और सामाजिक पहलों के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाने से गरीबी उन्मूलन पर कई गुना अधिक प्रभाव पड़ सकता है।
- स्टैंड अप इंडिया जैसी योजनाओं के तहत ऋण अभिगम का विस्तार और DAY-NRLM के तहत SHG नेटवर्क को बढ़ाने से महिलाएँ व्यवसाय शुरू करने में सक्षम हो सकती हैं।
- श्रम बल भागीदारी में लैंगिक अंतर को समाप्त करना समान विकास के लिये महत्त्वपूर्ण है। राज्यों में अनिवार्य लैंगिक बजटिंग लागू करने से महिला-केंद्रित कार्यक्रमों में निरंतर निवेश सुनिश्चित हो सकता है।
- जलवायु-अनुकूल विकास: जलवायु-अनुकूल आजीविका को बढ़ावा देने से गरीबों पर, विशेष रूप से कृषि में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
- बेहतर कवरेज और समय पर भुगतान के साथ प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत फसल बीमा का विस्तार करके किसानों की आय को सुरक्षित किया जा सकता है।
- प्रोत्साहनों के माध्यम से सौर ऊर्जा और कृषि वानिकी को प्रोत्साहित करने से पर्यावरण को संरक्षित करते हुए ग्रामीण आय में विविधता लाई जा सकती है।
- जल शक्ति अभियान जैसी जल संरक्षण को बढ़ावा देने वाली नीतियों को सूखा प्रभावित क्षेत्रों में बढ़ाया जाना चाहिये।
- सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों (MSME) को बढ़ावा देना: MSME रोज़गार सृजन और आर्थिक समावेशिता के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, विशेष रूप से कम कुशल श्रमिकों के लिये।
- आपातकालीन क्रेडिट लाइन गारंटी योजना (ECLGS) जैसी योजनाओं के माध्यम से MSME ऋण अभिगम को सुदृढ़ करना और ग्रामीण क्षेत्रों में स्टार्टअप को प्रोत्साहित करना रोज़गार को बढ़ावा दे सकता है।
- MSME को वैश्विक बाज़ारों से जोड़ने के लिये डिजिटल प्लेटफॉर्म को बढ़ावा देने से लाभप्रदता एवं समुत्थानशीलता बढ़ सकती है।
- MSME क्षेत्र केंद्रित नीति समर्थन के साथ सीमांत समुदायों का महत्त्वपूर्ण उत्थान कर सकता है।
- एकीकृत शहरी-ग्रामीण विकास नीतियाँ: संतुलित विकास नीतियाँ शहरी झुग्गी बस्तियों के मुद्दों का समाधान करते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में अवसरों का सृजन करके पलायन-जनित गरीबी को कम कर सकती हैं।
- एकीकृत ग्रामीण उद्यम क्षेत्रों के साथ एक ज़िला, एक उत्पाद (ODOP) पहल का विस्तार करने से स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजित हो सकते हैं।
- किफायती आवास और औद्योगिक केंद्रों के साथ सैटेलाइट टाउन्स का विकास करने से शहरी क्षेत्रों में भीड़भाड़ कम हो सकती है, साथ ही प्रवासियों को रोज़गार भी मिल सकता है।
- शहरी और ग्रामीण विकास मंत्रालयों के बीच प्रभावी समन्वय से यह संभव हो सकता है।
- डिजिटल साक्षरता और अभिगम को बढ़ाना: डिजिटल अपवर्जन गरीबों के आर्थिक अवसरों को सीमित करता है, विशेष रूप से ग्रामीण और दूरदराज़ के क्षेत्रों में।
- सभी ग्राम पंचायतों को हाई-स्पीड इंटरनेट उपलब्ध कराने के लिये BharatNet का विस्तार करना तथा बड़े पैमाने पर डिजिटल साक्षरता अभियान शुरू करना इस अंतर को कम कर सकता है।
- ग्रामीण उद्यमियों और श्रमिकों को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से जोड़ने से बाज़ार तक पहुँच, वित्तीय सेवाएँ तथा ई-लर्निंग उपलब्ध हो सकती है। डिजिटल उपकरण किस प्रकार निर्धन वर्ग को अर्थव्यवस्था से जोड़ने में मदद कर सकते हैं, इसके उदाहरणों में अनौपचारिक श्रमिकों के लिये ई-श्रम पोर्टल शामिल है।
- गरीबों के लिये नवीकरणीय ऊर्जा तक पहुँच को बढ़ावा देना: सस्ती और विश्वसनीय ऊर्जा तक पहुँच से गरीबों के जीवन की गुणवत्ता एवं उत्पादकता में उल्लेखनीय सुधार हो सकता है।
- छोटे किसानों के लिये सौर ऊर्जा समाधान उपलब्ध कराने हेतु PM कुसुम योजना जैसे कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने से लागत कम हो सकती है तथा सिंचाई में सुधार हो सकता है।
- सब्सिडी के माध्यम से निम्न आय वाले शहरी आवासों में रूफटॉप सोलर परियोजनाओं को बढ़ावा देने से सस्ती बिजली सुनिश्चित हो सकती है।
- क्षेत्र-विशिष्ट गरीबी रणनीतियाँ विकसित करना: भारत की गरीबी संबंधी चुनौतियाँ क्षेत्र-विशिष्ट हैं, जिनके लिये तदनुरूप हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
- उदाहरण के लिये, असम जैसे बाढ़-प्रवण राज्यों को सुदृढ़ बाढ़-रोधी बुनियादी अवसंरचनाओं की आवश्यकता है, जबकि राजस्थान के सूखा-प्रवण क्षेत्रों को जल शक्ति अभियान के तहत जल संरक्षण कार्यक्रमों को बढ़ाने की आवश्यकता है।
- जनजातीय बहुल क्षेत्रों में भूमि अधिकार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
- नीति आयोग के आकांक्षी ज़िला कार्यक्रम को अधिकतम प्रभाव के लिये अति-स्थानीय चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) को प्रोत्साहित करना: PPP निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता का लाभ उठाकर कल्याणकारी कार्यक्रमों की दक्षता और पहुँच को बढ़ा सकते हैं।
- निजी संस्थाएं CSR कार्यक्रमों के माध्यम से शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और कौशल विकास में सरकारी पहलों को पूरक बना सकती हैं।
- यह कल्याणकारी वितरण में AI, DBT पारदर्शिता के लिये ब्लॉकचेन जैसे नवीन दृष्टिकोणों को भी आगे बढ़ा सकता है।
- अक्षय पात्र मिड-डे मील कार्यक्रम जैसे सफल PPP मॉडल दर्शाते हैं कि किस तरह निजी भागीदारी से परिणामों में सुधार हो सकता है। कम आय वाले आवास और स्वच्छता परियोजनाओं में PPP का विस्तार गरीबी में कमी लाने के प्रयासों को त्वरित कर सकता है।
निष्कर्ष:
भारत ने गरीबी कम करने में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है, खास तौर पर बहुआयामी गरीबी (SDG 1) को कम करने में। हालाँकि, असमानता, बेरोज़गारी और बुनियादी सेवाओं तक पहुँच की कमी जैसी लगातार चुनौतियाँ बनी हुई हैं। गरीबी के मूल कारणों को दूर करने के लिये बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें सामाजिक सुरक्षा को सुदृढ़ करना, समावेशी विकास को बढ़ावा देना और मानव पूंजी में निवेश करना शामिल है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति के बावजूद, भारत में गरीबी एक गंभीर चुनौती के रूप में बनी हुई है। इसकी निरंतरता के कारणों का विश्लेषण करते हुए इस मुद्दे को व्यापक रूप से हल करने के लिये प्रभावी उपाय सुझाइये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. UNDP के समर्थन से 'ऑक्सफोर्ड निर्धनता एवं मानव विकास नेतृत्व' द्वारा विकसित 'बहु-आयामी निर्धनता सूचकांक' में निम्नलिखित में से कौन-सा/से सम्मिलित है/हैं? (2012)
निम्नलिखित कूटों के आधार पर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (a) मेन्सप्रश्न. उच्च संवृद्धि के लगातार अनुभव के बावजूद, भारत के मानव विकास के निम्नतम संकेतक चल रहे हैं। उन मुद्दों का परीक्षण कीजिये, जो संतुलित और समावेशी विकास को पकड़ में आने नहीं दे रहे हैं। (2016) प्रश्न. प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने प्राथमिक शिक्षा तथा प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्रें में महत्त्वपूर्ण सुधारों की वकालत की है। उनकी स्थिति और कार्य-निष्पादन में सुधार हेतु आपके क्या सुझाव हैं? (2016) |