बिना किसी विपक्ष के चुनाव जीतना
यह एडिटोरियल 26/04/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Questioning the polls ‘rain washes out play’ moments” लेख पर आधारित है। इसमें गुजरात के सूरत लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचन लड़ रहे एक उम्मीदवार के निर्विरोध निर्वाचित हो जाने और देश भर में चुनावी एवं लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर इसके प्रभावों के संबंध में चर्चा की गई है।
प्रिलिम्स के लिये:निर्वाचन आयोग, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें, 61वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1984, बूथ कैप्चरिंग, आदर्श आचार संहिता, वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT), मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें एवं कार्यालय की अवधि) अधिनियम, 2023, लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाएँ। मेन्स के लिये:'निर्विरोध निर्वाचित होने' के परिणाम तथा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर इसके प्रभाव। |
गुजरात के सूरत लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से सत्तारूढ़ दल (भाजपा) के उम्मीदवार या अभ्यर्थी को निर्विरोध निर्वाचित घोषित किया गया है। यह निर्विरोध निर्वाचन की स्थिति तब बनती है जब किसी निर्वाचन क्षेत्र में अन्य सभी उम्मीदवार अपना नामांकन वापस ले लें या अयोग्य घोषित कर दिए जाएँ, जिससे मैदान में केवल एक उम्मीदवार रह जाए। जब ऐसा परिदृश्य उत्पन्न होता है तब औपचारिक रूप से निर्वाचन कराने की आवश्यकता के बिना ही उस उम्मीदवार को विजयी घोषित कर दिया जाता है। यहाँ एक विजेता तो होता है लेकिन कोई ‘पराजित’ पक्ष नहीं होता। यहाँ केवल वे ही होते हैं जिन्हें नियमों के तहत मैदान से बाहर कर दिया गया और जिन्होंने ‘स्वेच्छया’ अपना नाम वापस लेने का निर्णय लिया।
निर्वाचन संबंधी कानूनों और व्यवहार के मौजूदा प्रावधानों में निर्विरोध निर्वाचित होना पूर्णतः वैध है। कोई व्यक्ति लोगों द्वारा उसे निर्वाचित किये जाने के बिना ही सबसे बेहतर प्रतिनिधि के रूप में उभरता है, क्योंकि मतपत्र पर वही एकमात्र विकल्प होता है। यह अपेक्षित प्रयास के बिना ही कुछ हासिल कर लेने जैसा है। अब तक कम से कम 35 उम्मीदवार ऐसे रहे हैं जो लोकसभा के लिये निर्विरोध निर्वाचित हुए। इनमें से अधिकांश मामले स्वतंत्रता के बाद आरंभिक दो दशकों में सामने आए, जबकि निर्विरोध निर्वाचित होने का पिछला मामला वर्ष 2012 में सामने आया था।
निर्वाचनों के संचालन नियम 1961 के नियम 11 में कहा गया है कि: “(1) रिटर्निंग ऑफिसर (RO) निर्वाचन लड़ने वाले अभ्यर्थियों की सूची की तैयारी के पश्चात् तुरंत उस सूची की एक प्रति अपने कार्यालय में किसी सहजदृश्य स्थान में लगवाएगा और जहाँ निर्वाचन लड़ने वाले अभ्यर्थियों की संख्या भरे जाने वाले स्थानों की संख्या के बराबर या उससे कम हो, वहाँ वह सूची लगवाने के ठीक पश्चात धारा 53 की, यथास्थिति, उपधारा (2) या उपधारा (3) के अधीन निर्वाचन का परिणाम, प्ररूप 21 से 21B तक में से किसी ऐसे एक प्ररूप में, जो समुचित हो, घोषित करेगा...”
नोट
निर्वाचनों का संचालन नियम 1961 (Conduct of Election Rules 1961):
- आशयित निर्वाचन की लोक सूचना: आशयित निर्वाचन की लोक सूचना, जो धारा 31 में निर्दिष्ट है, प्ररूप 1 में होगी और निर्वाचन आयोग के किन्हीं निदेशों अध्यधीन रहते हुए ऐसी रीति से प्रकाशित की जाएगी जैसी रिटर्निंग ऑफिसर ठीक समझता हो।
- नामांकन पत्र या नामनिर्देशन पत्र: हर नामनिर्देशन पत्र, जो धारा 33 की उप-धारा (1) के अधीन उपस्थित किया गया है, 2A से 2E तक के प्ररूपों में से ऐसे प्ररूप में पूरा किया जाएगा, जैसा समुचित हो:
- परंतु प्ररूप 2A या प्ररूप 2B में नामनिर्देशन-पत्र में प्रतीकों के बारे में घोषणा को पूरी करने में असफलता या पूरी करने की त्रुटि की बाबत यह नहीं समझा जाएगा कि वह धारा 36 की उपधारा (4) के अर्थ के भीतर सारवान स्वरूप की त्रुटि है।
- नामांकन पत्र देते समय फाइल किये जाने वाले शपथ पत्र का प्रारूप: यथास्थिति, अभ्यर्थी या उसका प्रस्तावकर्ता, जैसा भी मामला हो, धारा 33 की उपधारा (1) के अधीन रिटर्निंग ऑफिसर को नामांकन पत्र सौंपते समय उसे, प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट या किसी नोटरी के समक्ष प्ररूप 26 में अभ्यर्थी द्वारा ली गई शपथ का एक शपथ पत्र भी देगा।
- संसदीय और सभा निर्वाचन क्षेत्रों में निर्वाचनों के लिये प्रतीक: निर्वाचन आयोग भारत के राजपत्र में और प्रत्येक राज्य के शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा उन प्रतीकों का, जिन्हें संसदीय या सभा निर्वाचन क्षेत्रों में निर्वाचनों में के अभ्यर्थी चुन सकेंगे और उन निर्बंधनों का, जिनके अध्यधीन उनका चुनाव होगा, विनिर्देश करेगा।
वर्तमान मुद्दा:
- विरोधी दल के उम्मीदवार के नामांकन का विरोध:
- इस मामले में, सूरत निर्वाचन क्षेत्र के विपक्षी दल के उम्मीदवार ने नामांकन पत्रों के तीन सेट फाइल किये थे। इन तीनों नामांकन पत्रों के प्रस्तावकों में उसका बहनोई, भतीजा और कारोबारी साझेदार शामिल थे। सत्तारूढ़ दल के एक कार्यकर्ता ने विपक्षी उम्मीदवार के नामांकन पर आपत्ति जताते हुए आरोप लगाया कि उसके प्रस्तावकों के हस्ताक्षर जाली थे।
- नामांकन पत्रों की अस्वीकृति:
- RO को उन प्रस्तावकों से भी हलफनामे प्राप्त हुए, जहाँ दावा किया गया कि उन्होंने उम्मीदवार के नामांकन पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। जताई गई आपत्तियों पर उम्मीदवार से एक दिन के भीतर जवाब/स्पष्टीकरण की मांग की गई। चूँकि निर्धारित समयसीमा के भीतर प्रस्तावकों को संवीक्षा के लिये RO के समक्ष पेश नहीं किया जा सका, इसलिये उसके नामांकन पत्रों के तीनों सेट खारिज कर दिए गए।
नोट
रिटर्निंग ऑफिसर:
- रिटर्निंग ऑफिसर (ROs) किसी निर्वाचन क्षेत्र विशेष में निर्वाचन के संचालन की निगरानी के लिये ज़िम्मेदार होते हैं। वे भारत निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा नियुक्त किये जाते हैं और चुनावी प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- उनके कर्तव्यों में उम्मीदवारों से नामांकन स्वीकार करना, नामांकन पत्रों की जाँच करना, उम्मीदवारों को प्रतीक आवंटित करना, मतदान प्रक्रिया का संचालन करना और मतों की गिनती कराना शामिल है। ROs यह सुनिश्चित करते हैं कि निर्वाचन उचित एवं निष्पक्ष तरीके से और विधि के अनुरूप आयोजित किये जाएँ।
- अन्य उम्मीदवारों के नामांकन पत्र भी खारिज:
- निर्वाचन नियम किसी राजनीतिक दल द्वारा स्थानापन्न उम्मीदवार (substitute candidate) खड़ा करने की अनुमति देते हैं। यदि मूल उम्मीदवार का नामांकन खारिज हो जाता है तो इस स्थानापन्न उम्मीदवार का नामांकन स्वीकार किया जा सकता है। इस मामले में विपक्षी दल ने अपना स्थानापन्न उम्मीदवार खड़ा किया था।
- हालाँकि, इस स्थानापन्न उम्मीदवार का नामांकन पत्र भी इस कारण से खारिज कर दिया गया कि प्रस्तावक के हस्ताक्षर असली नहीं थे। शेष अन्य उम्मीदवारों के नामांकन या तो खारिज कर दिए गए या वे वापस ले लिये गए, जिससे सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवार को विजेता घोषित करने का रास्ता साफ हो गया।
- निर्वाचन नियम किसी राजनीतिक दल द्वारा स्थानापन्न उम्मीदवार (substitute candidate) खड़ा करने की अनुमति देते हैं। यदि मूल उम्मीदवार का नामांकन खारिज हो जाता है तो इस स्थानापन्न उम्मीदवार का नामांकन स्वीकार किया जा सकता है। इस मामले में विपक्षी दल ने अपना स्थानापन्न उम्मीदवार खड़ा किया था।
भारत में नामांकन संबंधी कानून
- RPA 1951 की धारा 33:
- जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (RP Act) की धारा 33 में विधिमान्य नामनिर्देशन या नामांकन की शर्तें शामिल हैं। अधिनियम के अनुसार 25 वर्ष से अधिक आयु का कोई निर्वाचक भारत में किसी भी निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव लड़ सकता है।
- मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के प्रस्तावक:
- हालाँकि, उम्मीदवार के प्रस्तावक/प्रस्तावकों को उस संबंधित निर्वाचन क्षेत्र का निर्वाचक होना चाहिये जहाँ नामांकन दाखिल किया जा रहा है। किसी मान्यता प्राप्त दल (राष्ट्रीय या राज्य) के मामले में उम्मीदवार के पास एक प्रस्तावक का होना आवश्यक है।
- गैर-मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के प्रस्तावक :
- गैर-मान्यता प्राप्त दलों द्वारा खड़े किये गए उम्मीदवारों और निर्दलीय उम्मीदवारों के लिये दस प्रस्तावकों का होना आवश्यक है। एक उम्मीदवार अलग-अलग प्रस्तावकों के समर्थन के साथ अधिकतम चार नामांकन पत्र दाखिल कर सकता है। इसका उद्देश्य किसी उम्मीदवार के नामांकन की स्वीकृति को अधिकतम संभव बनाना है, जहाँ चार में से कोई एक भी व्यवस्थित होने के लिये स्वीकृत हो जाए।
- नामांकन पत्रों की संवीक्षा:
- RPA की धारा 36 रिटर्निंग ऑफिसर (RO) द्वारा नामांकन पत्रों की संवीक्षा के संबंध में कानून निर्दिष्ट करती है। इसमें यह प्रावधान है कि RO किसी ऐसी त्रुटि के लिये किसी भी नामांकन पत्र को अस्वीकार नहीं करेगा जो सारवान प्रकृति की नहीं है।
- हालाँकि, यह निर्दिष्ट करता है कि उम्मीदवार या प्रस्तावक के हस्ताक्षर का असली नहीं होना अस्वीकृति का आधार है।
- RPA की धारा 36 रिटर्निंग ऑफिसर (RO) द्वारा नामांकन पत्रों की संवीक्षा के संबंध में कानून निर्दिष्ट करती है। इसमें यह प्रावधान है कि RO किसी ऐसी त्रुटि के लिये किसी भी नामांकन पत्र को अस्वीकार नहीं करेगा जो सारवान प्रकृति की नहीं है।
उम्मीदवारों के निर्विरोध निर्वाचन से संबद्ध विभिन्न मुद्दे
- ‘नोटा’ (NOTA) मतदाताओं के लिये चिंताएँ:
- सवाल उठाया जा रहा है कि यह प्रक्रिया मतदाताओं को नोटा (None of the Above- NOTA) विकल्प का प्रयोग करने की अनुमति नहीं देती है। नोटा का विकल्प मूल रूप से कानून में प्रदान नहीं किया गया था, लेकिन राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों को इस बारे में ‘प्रबुद्ध’ करने के लिये कि कुछ मतदाता उनके बारे में क्या राय रखते हैं, न्यायालय के निर्देशों पर इसे शामिल किया गया।
- यदि यह कहा जाए कि नोटा किसी भी तरह से निर्वाचन प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करता है तो नोटा के विकल्प में विश्वास करने वाले मतदाताओं को यह सुनना अपमानजनक लग सकता है। हालाँकि अफ़सोस की बात यह है कि राजनीतिक दलों पर इसका किसी भी प्रकार का कोई प्रभाव पड़ता नज़र नहीं आता।
- इस प्रकार, राजनीतिक संस्कृति को प्रभावित करने के लिये एक प्रगतिशील सुधार के रूप में जिसकी कल्पना की गई थी, वह व्यवस्था में इस स्थिति में आ गया है कि इसकी वैधता कमज़ोर हो गई है।
- मतदाताओं की प्रासंगिकता को कम आँकना:
- निर्विरोध निर्वाचन एक अर्थ में ‘निर्वाचक’ (जिसे RPA में “किसी निर्वाचन क्षेत्र में वह व्यक्ति जिसका नाम उस निर्वाचन क्षेत्र के लिये तत्समय प्रवृत्त निर्वाचक नामावली में प्रविष्ट है और अधिनियम में वर्णित निरर्हताओं में से किसी के अध्यधीन नहीं है” के रूप में परिभाषित किया गया है) को अपना प्रतिनिधि चुनने की प्रक्रिया से पूरी तरह अपवर्जित कर देता है।
- जिस व्यक्ति को निर्वाचक का एक भी मत प्राप्त नहीं हुआ, वह संसद में संपूर्ण निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधि के रूप में बैठेगा। यह ऐसा द्वंद्व है जो वर्तमान निर्वाचन प्रक्रिया से उत्पन्न होता है। इसे व्यावहारिक बनाने के लिये डिज़ाइन किया गया है, भले ही यह पूरी तरह से समुचित न लगे। मत के लिये जब तक अलग-अलग पक्षों की मांग नहीं होगी, तब तक मतदाताओं की पसंद परिकल्पित ही होगी, क्योंकि उनके पास पसंद के लिये विकल्प ही नहीं होगा।
- निर्विरोध निर्वाचन एक अर्थ में ‘निर्वाचक’ (जिसे RPA में “किसी निर्वाचन क्षेत्र में वह व्यक्ति जिसका नाम उस निर्वाचन क्षेत्र के लिये तत्समय प्रवृत्त निर्वाचक नामावली में प्रविष्ट है और अधिनियम में वर्णित निरर्हताओं में से किसी के अध्यधीन नहीं है” के रूप में परिभाषित किया गया है) को अपना प्रतिनिधि चुनने की प्रक्रिया से पूरी तरह अपवर्जित कर देता है।
- चरम स्थिति की कल्पना:
- एक चरम स्थिति में, 543 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में सभी उम्मीदवार (भले ही उनकी संख्या 10,000 हो और वे विभिन्न राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करते हों या या स्वतंत्र उम्मीदवार हों) प्रणाली के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं और प्रक्रिया का अनुपालन करते हुए लेकिन लोकतंत्र की भावना को गंभीर रूप से आघात पहुँचाते हुए एक बिलियन मतदाताओं को उनके सांविधिक अधिकार से वंचित कर सकते हैं।
- यह तर्क दिया जा सकता है कि मतदाता तब भी अपने अधिकारों से वंचित हो सकते हैं जब चुनाव लड़ने के लिये कोई उम्मीदवार ही न हो। लोकतांत्रिक प्रक्रिया तभी पूर्ण होती है जब प्रतियोगियों और मतदाताओं के बीच हित मौजूद हों। मत देने के लिये मत मांगे जाने की शर्त लागू होती है।
- लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 65 के तहत अस्पष्ट प्रावधान:
- प्रणाली को चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के पक्ष में देखा जाता है क्योंकि RPA प्रावधान करता है कि मतदान के पूर्ण बहिष्कार को प्रत्येक उम्मीदवार द्वारा शून्य मत प्राप्त करने के रूप में देखा जाएगा और यह धारा 65 के दायरे में होगा जो ‘मत बराबर होने’ से संबंधित है।
- धारा 65 में कहा गया है कि: “यदि मतों की गणना के समाप्त होने के पश्चात् यह पाता चलता है कि किन्हीं अभ्यर्थियों के बीच मत बराबर हैं, और मतों में से एक मत जोड़ दिए जाने से उन अभ्यर्थियों में से कोई निर्वाचित घोषित किये जाने के लिये हक़दार हो जाएगा, तो रिटर्निंग ऑफिसर उन अभ्यर्थियों के बीच लॉट या लॉटरी द्वारा तत्क्षण विनिश्चय करेगा और ऐसे अग्रसर होगा मानो जिस अभ्यर्थी के हक़ में लॉट निकली है उसे अतिरिक्त मत प्राप्त हो गया है।”
- निर्विरोध निर्वाचन लोगों के प्रतिनिधि के चयन में लोगों की भागीदारी के बिना लोगों की इच्छा को प्रणाली की व्यावहारिक सुगमता से प्रतिस्थापित कर देता है। जहाँ लोकतंत्र को “जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिये सरकार” के रूप में परिभाषित किया जाता है, यह अपरिहार्य स्थिति है।
- प्रणाली को चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के पक्ष में देखा जाता है क्योंकि RPA प्रावधान करता है कि मतदान के पूर्ण बहिष्कार को प्रत्येक उम्मीदवार द्वारा शून्य मत प्राप्त करने के रूप में देखा जाएगा और यह धारा 65 के दायरे में होगा जो ‘मत बराबर होने’ से संबंधित है।
नामांकन पत्रों की अस्वीकृति के विरुद्ध उपलब्ध विभिन्न उपाय:
- निर्वाचन न्यायाधिकरण विकल्पों की खोज:
- RPA 1951 ऐसे विवादों को सुलझाने के लिये निर्वाचन न्यायाधिकरण (Election Tribunal) की स्थापना करता है। अधिनियम की धारा 100 किसी उम्मीदवार के निर्वाचन को निरस्त घोषित करने के आधार की रूपरेखा निर्दिष्ट करती है। निर्वाचन न्यायाधिकरण के निर्णय से असंतुष्ट पक्ष उच्च न्यायालय और अंततः सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णयों के माध्यम से चुनावी विवादों के संबंध में महत्त्वपूर्ण दृष्टांत स्थापित किये हैं।
- RPA 1951 के साथ पठित अनुच्छेद 329 का आश्रय लेना:
- RPA 1951 के साथ पठित संविधान के अनुच्छेद 329 (b) में प्रावधान है कि संबंधित उच्च न्यायालय के समक्ष निर्वाचन याचिका को छोड़कर किसी भी प्रकार से निर्वाचन पर सवाल नहीं उठाया जाएगा। जिन आधारों पर ऐसी निर्वाचन याचिका दायर की जा सकती है, उनमें से एक नामांकन पत्रों की अनुचित अस्वीकृति है।
- सूरत के नवीन मामले में उपलब्ध कानूनी उपाय गुजरात उच्च न्यायालय में निर्वाचन याचिका दायर करना है। RPA में यह प्रावधान है कि उच्च न्यायालय छह माह के भीतर ऐसे विचारण पूरी कर लेने का प्रयास करेंगे, हालाँकि अतीत में प्रायः इसका पालन नहीं किया गया है। निर्वाचन याचिकाओं का शीघ्र निस्तारण सही दिशा में एक कदम होगा।
- RPA 1951 के साथ पठित संविधान के अनुच्छेद 329 (b) में प्रावधान है कि संबंधित उच्च न्यायालय के समक्ष निर्वाचन याचिका को छोड़कर किसी भी प्रकार से निर्वाचन पर सवाल नहीं उठाया जाएगा। जिन आधारों पर ऐसी निर्वाचन याचिका दायर की जा सकती है, उनमें से एक नामांकन पत्रों की अनुचित अस्वीकृति है।
नोट
अनुच्छेद 329 – निर्वाचन संबंधी मामलों में न्यायालयों के हस्तक्षेप का वर्जन:
- इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी—
- अनुच्छेद 327 या अनुच्छेद 328 के अधीन बनाई गई या बनाई जाने के लिये तात्पर्यित किसी ऐसी विधि की विधिमान्यता, जो निर्वाचन-क्षेत्रों के परिसीमन या ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों को स्थानों के आवंटन से संबंधित है, किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं की जाएगी ।
- संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन के लिये कोई निर्वाचन ऐसी निर्वाचन अर्जी पर ही प्रश्नगत किया जाएगा, जो ऐसे प्राधिकारी को और ऐसी रीति से प्रस्तुत की गई है जिसका समुचित विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन उपबंध किया जाए, अन्यथा नहीं।
निर्वाचन याचिका का विचारण – RPA 1951 की धारा 86:
- उच्च न्यायालय को निर्वाचन अर्जी उपस्थापित किये जाने के पश्चात् यथाशीघ्र उसे उस न्यायाधीश को या उन न्यायाधीशों में से एक को निर्दिष्ट किया जाएगा जो निर्वाचन अर्जियों के विचारण के लिये मुख्य न्यायाधीश द्वारा धारा 80A की उपधारा (2) के अधीन समनुदिष्ट किया गया है या किये गए हैं।
- निर्वाचन अर्जी का विचारण, जहाँ तक कि वह विचारण के बारे में न्याय के हितों से संगत रहते हुए साध्य हो उसकी समाप्ति तक दिन प्रतिदिन चालू रहेगा, जब तक उच्च न्यायालय उन कारणों से जो अभिलिखित किये जाएँगे यह निष्कर्ष न निकाले कि विचारण को आगामी दिन से परे स्थगित करना आवश्यक है।
- प्रत्येक निर्वाचन याचिका पर यथासंभव शीघ्रता से विचारित की जाएगी और उस तिथि से, जिसको निर्वाचन अर्जी उच्च न्यायालय को विचारण के लिये उपस्थापित की गई है, छह माह के भीतर विचारण को पूर्ण करने का प्रयास किया जाएगा।
- सर्वोच्च न्यायालय के पास जाना:
- पीड़ित पक्ष उच्च न्यायालय के आदेश के 30 दिनों के भीतर सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है:
- जगन नाथ बनाम जसवंत सिंह (1954) मामले में निर्वाचन विवादों पर एक महत्त्वपूर्ण निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने स्थापित किया कि यह साबित करने का भार याचिकाकर्ता पर है कि किसी उम्मीदवार का निर्वाचन भ्रष्ट आचरण से उल्लेखनीय रूप से प्रभावित हुआ है। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि निर्वाचन याचिका का दायरा RPA 1951 की धारा 100 में उल्लिखित आधार तक ही सीमित है।
- मोहिंदर सिंह गिल बनाम मुख्य निर्वाचन आयुक्त (1978) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि निर्वाचन निष्पक्ष रूप से आयोजित किये जाने चाहिये और इस सिद्धांत का कोई भी उल्लंघन निर्वाचन को रद्द कर देगा। न्यायालय ने यह भी पुष्टि की कि निर्वाचन न्यायाधिकरण भ्रष्ट आचरण के आरोपों की जाँच कर सकता है, भले ही निर्वाचन याचिका में यह मांग स्पष्ट रूप से नहीं की गई हो।
- पीड़ित पक्ष उच्च न्यायालय के आदेश के 30 दिनों के भीतर सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है:
- ‘फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट-सिस्टम’ (FPTPS) में संशोधन:
- RPA 1951 में पहली बार नामांकन दाखिल करने वाले किसी भी उम्मीदवार के न होने पर दूसरी अधिसूचना जारी करने का प्रावधान है, लेकिन उसके बाद पुनः इसे दोहराए जाने पर यह मूक है। हालाँकि, इसके पास एक समाधान यह है लोगों को पूरी तरह से अपवर्जित किया जाए, यदि लोग निर्वाचन से दूर रहते हैं और ‘नोटा’ के विकल्प से वंचित हैं, क्योंकि नोटा का लोकतांत्रिक अभ्यास में कोई महत्त्व नहीं है।
- उम्मीदवार इस प्रक्रिया को रद्द कर सकते हैं लेकिन लोग सामूहिक रूप से ऐसा नहीं कर सकते। विजयी उम्मीदवारों की घोषणा के लिये मतों का न्यूनतम प्रतिशत लागू कर फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट-सिस्टम में संशोधन करने पर विचार किया जाना चाहिये।
- इसी प्रकार, यदि कोई उम्मीदवार दूसरी बार भी निर्वाचन के लिये स्वयं को पेश नहीं करता है तो उस सीट को मनोनीत की श्रेणी में स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिये, जहाँ भारत के राष्ट्रपति सरकार से परामर्श किये बिना निर्धारित योग्यता के अनुसार किसी व्यक्ति को मनोनीत कर सकते हैं।
- RPA 1951 में पहली बार नामांकन दाखिल करने वाले किसी भी उम्मीदवार के न होने पर दूसरी अधिसूचना जारी करने का प्रावधान है, लेकिन उसके बाद पुनः इसे दोहराए जाने पर यह मूक है। हालाँकि, इसके पास एक समाधान यह है लोगों को पूरी तरह से अपवर्जित किया जाए, यदि लोग निर्वाचन से दूर रहते हैं और ‘नोटा’ के विकल्प से वंचित हैं, क्योंकि नोटा का लोकतांत्रिक अभ्यास में कोई महत्त्व नहीं है।
निष्कर्ष:
भारत में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनावी प्रक्रिया सुनिश्चित करना लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखने के लिये महत्त्वपूर्ण है, लेकिन जब उम्मीदवारों को निर्विरोध निर्वाचित किये जाने से इस लक्ष्य से समझौता हो जाता है। भारत व्यापक कानूनी ढाँचे, सुदृढ़ संस्थानों और सक्रिय नागरिक भागीदारी के माध्यम से ऐसे निर्वाचनों की दिशा में प्रयास कर सकता है जो कदाचार एवं हेरफेर से मुक्त हों। चुनावी प्रक्रिया की अखंडता को बनाए रखने में सहयोग करना राजनीतिक दलों, चुनावी अधिकारियों और न्यायपालिका सहित सभी हितधारकों के लिये अनिवार्य है। भारत निष्पक्षता, पारदर्शिता और जवाबदेही के मूल्यों को बरकरार रखते हुए अपनी लोकतांत्रिक नींव को सुदृढ़ कर सकता है तथा यह सुनिश्चित कर सकता है कि लोगों की इच्छा एवं अभिव्यक्ति शासन की आधारशिला बनी रहे।
अभ्यास प्रश्न: भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन सुनिश्चित करने में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के महत्त्व की चर्चा कीजिये। यह समय के साथ किस प्रकार विकसित हुआ है?
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं ? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. आदर्श आचार-संहिता के उद्भव के आलोक में, भारत के निर्वाचन आयोग की भूमिका का विवेचन कीजिये। (2022) प्रश्न. भारत में लोकतंत्र की गुणता को बढ़ाने के लिये भारत निर्वाचन आयोग ने वर्ष 2016 में चुनावी सुधारों का प्रस्ताव दिया है। सुझाए गए सुधार क्या हैं और लोकतंत्र को सफल बनाने में वे किस सीमा तक महत्त्वपूर्ण हैं? (2017) |