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  • 14 Oct, 2024
  • 31 min read
शासन व्यवस्था

सूचना के अधिकार का सुदृढ़ीकरण

यह संपादकीय 14/10/2024 को द हिंदू में प्रकाशित “Scuttling people’s right to information” पर आधारित है। संपादकीय में RTI अधिनियम को व्यवस्थित रूप से कमज़ोर करने की बात कही गई है, जिसमें सरकार की निष्क्रियता, पक्षपातपूर्ण नियुक्तियाँ और हाल ही में हुए विधायी परिवर्तनों को मुख्य मुद्दा बताया गया है। यह पारदर्शिता और जवाबदेही को बनाए रखने के लिये इन चुनौतियों का समाधान करने की आवश्यकता पर बल देता है।

प्रिलिम्स के लिये:

सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम-2005, डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम- 2023, आपातकालीन अवधि, उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राज नारायण (1975), सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम, केंद्रीय सूचना आयोग, व्हिसलब्लोअर संरक्षण अधिनियम, सामान्य सेवा केंद्र   

मेन्स के लिये:

भारत में सूचना के अधिकार का विकास, RTI की प्रभावशीलता को कमज़ोर करने वाले मुद्दे। 

सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम, 2005 पिछले दो दशकों से भारत में पारदर्शिता और जवाबदेही की आधारशिला रहा है। इसने नागरिकों को भ्रष्टाचार को उजागर करने और सत्ता को उत्तरदायी ठहराने का अधिकार दिया है, जिसमें बुनियादी अधिकारों के वितरण में अनियमितताओं को उजागर करने से लेकर चुनावी बॉण्ड जैसी अपारदर्शी योजनाओं के पीछे की सच्चाई को उजागर करना शामिल है। हालाँकि, RTI अधिनियम की प्रभावशीलता को विभिन्न तरीकों से व्यवस्थित रूप से कमज़ोर किया जा रहा है। 

सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में विलंब के कारण आयोग निष्क्रिय हो गए हैं, जिससे अपीलों का लंबित मामला बढ़ता जा रहा है। अधिकारियों की नियुक्ति में सेवानिवृत्त अधिकारियों या राजनीतिक प्रभाव वाले लोगों को प्राथमिकता दी जाती है, जिसके कारण वे कानून को सख्ती से लागू करने में अनिच्छुक रहते हैं। RTI अधिनियम में संशोधन और डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम- 2023 में प्रावधानों सहित हाल के विधायी परिवर्तनों ने कानून की शक्ति को और कमज़ोर कर दिया है। जैसा कि हम इस ऐतिहासिक कानून के 20वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, RTI अधिनियम में निहित पारदर्शिता और जवाबदेही की भावना को बनाए रखने के लिये इन चुनौतियों का समाधान करना आवश्यक है।  

भारत में सूचना का अधिकार किस प्रकार विकसित हुआ है?

  • (वर्ष 1975-1977)- पारदर्शिता आंदोलन के बीज: आपातकालीन अवधि के दौरान, नागरिक स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया गया था, जिससे सरकार की जवाबदेही की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया। 
    • भारतीय लोकतंत्र में इस अवधि ने कार्यकर्त्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच सूचना के अधिकार के संदर्भ में चर्चा को जन्म दिया। 
    • हालाँकि इस समय कोई ठोस विधायी कदम नहीं उठाए गए, लेकिन आपातकाल के अनुभव ने भविष्य में पारदर्शिता संबंधी पहलों के लिये आधार तैयार किया, क्योंकि नागरिकों को सरकार की अपारदर्शीता जैसे खतरों का आभास हो गया था।
  • वर्ष 1975- सूचना के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राज नारायण (1975) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के हिस्से के रूप में सूचना के अधिकार को मान्यता दी।
    • एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि पारदर्शी सरकार का सिद्धांत अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत स्पष्ट वाक् और अभिव्यक्ति के अधिकार में निहित जानकारी प्राप्त करने के अधिकार से उत्पन्न हुआ है। 
      • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकारी सूचना का प्रकटन आदर्श होना चाहिये तथा गोपनीयता अपवादस्वरूप होनी चाहिये।
  • वर्ष 1990- मज़दूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) आंदोलन: राजस्थान में स्थापित MKSS ने स्थानीय सरकारी रिकॉर्ड तक पहुँच पर ध्यान केंद्रित करते हुए सूचना के अधिकार के लिये ज़मीनी स्तर पर अभियान शुरू किया। 
    • उनकी अभिनव “जन सुनवाई” ने सार्वजनिक कार्यों में भ्रष्टाचार को उजागर किया और पारदर्शिता के लिये समर्थन को प्रेरित किया। 
    • इस आंदोलन ने भ्रष्टाचार से लड़ने में सूचना की शक्ति को प्रदर्शित किया और यह पूरे भारत में RTI समर्थन के लिये एक आदर्श बन गया।
  • वर्ष 1997-2001-राज्य स्तरीय RTI कानून: तमिलनाडु (वर्ष 1997) गोवा (वर्ष 1997), राजस्थान (वर्ष 2000), कर्नाटक (वर्ष 2000), दिल्ली (वर्ष 2001) सहित कई राज्यों ने अपने स्वयं के RTI कानून बनाए।
    • ये राज्य-स्तरीय पहल राष्ट्रीय कानून के अग्रदूत के रूप में कार्य करती हैं तथा कार्यान्वयन में मूल्यवान अनुभव प्रदान करती हैं। 
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 2002 में महाराष्ट्र का RTI अधिनियम विशेष रूप से सुदृढ़ था जो अन्य राज्यों के लिये एक आदर्श बन गया। 
    • इन राज्य कानूनों की प्रभावशीलता अलग-अलग थी, लेकिन इनसे समग्र भारत में पारदर्शिता कानून के लिये जनता की बढ़ती मांग प्रदर्शित हुई।
  • वर्ष 2002- सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम: केंद्र सरकार ने सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया, लेकिन इसे कभी अधिसूचित नहीं किया गया और इस प्रकार यह कभी लागू नहीं हुआ। 
    • इस अधिनियम की आलोचना इसके कमज़ोर प्रावधानों और अनेक छूटों के कारण की गई। 
    • इस अधिनियम की विफलता ने एक अधिक व्यापक और नागरिक-अनुकूल कानून की आवश्यकता को उजागर किया। 
    • नागरिक समाज संगठन एक सुदृढ़ राष्ट्रीय RTI कानून के लिये दबाव बनाते रहे तथा सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम की कमियों का हवाला देते हुए अधिक सख्त प्रावधानों की मांग करते रहे।
  • वर्ष 2005- सूचना का अधिकार अधिनियम का अधिनियमन: RTI अधिनियम संसद द्वारा पारित किया गया और अक्तूबर, 2005 में लागू हुआ। 
    • इसमें सरकारी सूचनाओं के लिये नागरिकों के अनुरोधों के अनुसार समय पर प्रतिक्रिया देने का आदेश दिया गया, केंद्रीय और राज्य स्तर पर सूचना आयोगों की स्थापना की गई तथा अनुपालन न करने पर दंड का प्रावधान भी किया गया। 
    • इस अधिनियम के अंतर्गत सरकार के सभी स्तर शामिल थे तथा इसमें सरकार द्वारा वित्तपोषित निजी निकाय भी शामिल थे। 
    • इस ऐतिहासिक कानून को उस समय विश्व के सबसे प्रगतिशील पारदर्शिता कानूनों में से एक माना गया था।
  • वर्ष 2006-2010- प्रारंभिक कार्यान्वयन और प्रभाव प्रारंभिक वर्षों में RTI आवेदनों में वृद्धि देखी गई, नागरिकों ने भ्रष्टाचार को उजागर करने तथा जवाबदेही की मांग करने के लिये अधिनियम का उपयोग किया।
    • उल्लेखनीय खुलासों में आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला और 2G स्पेक्ट्रम आवंटन में अनियमितताएँ शामिल थीं। 
    • हालाँकि सूचना आयोगों में लंबित मामलों और नौकरशाही के प्रतिरोध जैसी चुनौतियाँ भी स्पष्ट हो गईं।
  • वर्ष 2011-2019-न्यायिक हस्तक्षेप और विस्तार: सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों ने RTI अधिनियम को और सुदृढ़ किया। 
    • वर्ष 2013 में, इसने आदेश दिया कि राजनीतिक दलों को RTI अधिनियम के तहत सार्वजनिक प्राधिकरण माना जाना चाहिये, हालाँकि इस निर्णय को कार्यान्वयन में प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। 
      • हालाँकि वर्ष 2011 में शेहला मसूद जैसी प्रमुख RTI कार्यकर्त्ता की हत्या ने सूचना मांगने वालों के सामने बढ़ते खतरों को उजागर कर दिया।
    • वर्ष 2019 में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) का कार्यालय सूचना के अधिकार (RTI) अधिनियम के तहत एक ‘सार्वजनिक प्राधिकरण’ है।
  • सूचना का अधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2019: इस संशोधन ने मुख्य सूचना आयुक्त (CIC) और सूचना आयुक्तों (IC) के पूर्व 5-वर्षीय कार्यकाल को केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित 3-वर्ष के कार्यकाल से प्रतिस्थापित कर दिया। 
    • इसने केंद्र सरकार को उनके वेतन का निर्धारण करने की भी अनुमति दे दी तथा उनकी नियुक्ति के बाद पूर्व सरकारी सेवा के लिये पेंशन कटौती को भी हटा दिया।
  • वर्ष 2023 में संशोधन: डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम की धारा 44(3) ने सभी व्यक्तिगत सूचनाओं को RTI प्रकटन से छूट दे दी है और इसके मोचन (प्रकाशन) की अनुमति देने वाले पिछले अपवादों को हटा दिया है।

RTI अधिनियम की प्रभावशीलता को किस प्रकार कम किया जा रहा है?

  • कम कर्मचारी और निष्क्रिय सूचना आयोग: कई राज्य सूचना आयोग या तो काम नहीं कर रहे हैं या उनमें कर्मचारियों की भारी कमी है, जिसके कारण अपीलों और शिकायतों का भारी बोझ बढ़ गया है। 
    • सतर्क नागरिक संगठन की रिपोर्ट (2023-24) के अनुसार, पिछले वर्ष 29 में से 7 सूचना आयोग अलग-अलग अवधि के लिये निष्क्रिय रहे।
      • झारखंड का आयोग 4 वर्षों से निष्क्रिय है, जबकि त्रिपुरा और तेलंगाना क्रमशः 3 वर्षों तथा डेढ़ वर्षों से निष्क्रिय हैं। 
    • केंद्रीय सूचना आयोग में 11 में से 8 पद रिक्त हैं। कर्मचारियों की भारी कमी के कारण पूरे भारत में 4 लाख से भी अधिक अपीलें और शिकायतें लंबित हैं। छत्तीसगढ़ और बिहार जैसे कुछ राज्यों में वर्ष 2029 तक नई अपीलों का निपटान होने की उम्मीद नहीं है।
  • संशोधनों के माध्यम से अधिनियम को जानबूझकर कमज़ोर किया गया: हाल के विधायी परिवर्तनों ने RTI अधिनियम की शक्तियों को काफी कमज़ोर कर दिया है। 
    • वर्ष 2019 के संशोधन ने केंद्र सरकार को सभी सूचना आयुक्तों के कार्यकाल, वेतन और सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों को निर्धारित करने का अधिकार दिया, जिससे संभवतः उनकी स्वायत्तता से समझौता हो सकता है। 
    • हाल ही में डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023 ने RTI अधिनियम की धारा 8(1)(J) में संशोधन करके सभी व्यक्तिगत सूचनाओं को प्रकटन से छूट दे दी है तथा पूर्ववर्ती प्रावधान जो व्यापक सार्वजनिक हित होने पर प्रकटन की अनुमति देता था, को हटा दिया है। 
    • इन संशोधनों ने प्राधिकारियों के लिये व्यक्तिगत गोपनीयता संबंधी चिंताओं का हवाला देते हुए सूचना अनुरोधों को अस्वीकार करना आसान बना दिया है, भले ही प्रकटन में अनिवार्य सार्वजनिक हित हो।
  • गैर-अनुपालन के लिये दंड का अभाव: सूचना आयोग RTI अधिनियम का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों पर दंड लगाने में विफल हो रहे हैं, जिससे दण्ड से मुक्ति की संस्कृति बनती जा रही है। 
    • सतर्क नागरिक संगठन की रिपोर्ट से पता चलता है कि आयोगों ने 95% मामलों में ज़ुर्माना नहीं लगाया, जहाँ ज़ुर्माना लगाया जा सकता था। 
    • गैर-अनुपालन के लिये परिणामों की यह कमी सार्वजनिक सूचना अधिकारियों को कानून तोड़ने के लिये प्रोत्साहित करती है, जिसके परिणामस्वरूप आवेदन अधूरे रह जाते हैं, प्रतिक्रिया धीमी हो जाती है या अनुचित तरीके से आवेदन अस्वीकृत कर दिये जाते हैं।
    • एक सख्त दंड प्रणाली का अभाव समय और सटीक सूचना प्रकटन सुनिश्चित करने में अधिनियम की प्रभावशीलता को कमज़ोर करता है।
  • सूचना आयोगों में राजनीतिक नियुक्तियाँ और विविधतापूर्ण पृष्ठभूमि का अभाव: आलोचकों का तर्क है कि सूचना आयोगों में नियुक्त अधिकांश व्यक्ति या तो सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी होते हैं या राजनीतिक संपर्क वाले व्यक्ति होते हैं, जिससे आयोगों की स्वतंत्रता/पारदर्शिता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 
    • अपने राजनीतिक सहयोगियों या पूर्व सहकर्मियों को बचाने की प्रवृत्ति के कारण, आयुक्त विविधतापूर्ण पृष्ठभूमि की कमी के परिणामस्वरूप पारदर्शिता नियम के उल्लंघन के खिलाफ कार्रवाई करने में अनिच्छुक हो सकते हैं।
    • शिक्षा जगत, नागरिक समाज या पत्रकारिता जैसे विविध पृष्ठभूमियों से प्रतिनिधित्व का अभाव, सूचना अनुरोधों, विशेष रूप से राजनीतिक रूप से संवेदनशील अनुरोधों पर नए दृष्टिकोण लाने और सख्ती से जाँच करने की आयोगों की क्षमता को सीमित करता है।
      • इसके अलावा, एक हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्ष 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम पारित होने के बाद से देश भर में सूचना आयुक्तों में से केवल 9% महिलाएँ हैं।
  • RTI कार्यकर्त्ताओं के विरुद्ध धमकियाँ और हिंसा: RTI कार्यकर्त्ताओं के लिये खतरनाक माहौल अधिनियम की प्रभावशीलता को गंभीर रूप से बाधित करता है। 
    • ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया के अनुसार, RTI अधिनियम का उपयोग करने के कारण लगभग 100 लोगों को घातक नुकसान पहुँचाया गया है तथा हज़ारों लोगों पर हमला किया गया है, धमकी दी गई है या उन्हें झूठे मामलों का सामना करना पड़ा है। 
    • इस मुद्दे को हल करने के लिये वर्ष 2014 में पारित व्हिसल-ब्लोअर संरक्षण अधिनियम, सरकार द्वारा आवश्यक नियम बनाने में विफलता के कारण अब तक क्रियान्वित नहीं किया जा सका है। 
    • भय के इस माहौल के कारण, कई नागरिक RTI आवेदन दाखिल करने या अपील करने से कतराते हैं, विशेषकर जब वे शक्तिशाली हितों से जुड़े संवेदनशील मामलों से निपटते हैं। परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार और कुप्रशासन को उजागर करने में अधिनियम की क्षमता सीमित हो जाती है।   
  • प्रकटन से छूट संबंधी प्रावधानों का बढ़ता प्रयोग: सार्वजनिक प्राधिकरण सूचना साझाकरण को रोकने के लिये RTI अधिनियम के अंतर्गत प्रकटन से छूट संबंधी प्रावधानों का तेज़ी से प्रयोग कर रहे हैं। 
    • व्यक्तिगत सूचना प्रकटन से छूट के दायरे का विस्तार करने वाला हालिया संशोधन इसका प्रमुख उदाहरण है। 
    • इसके अतिरिक्त, अधिकारी प्रायः सूचना के अनुरोधों को अस्वीकार करने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित धारा 8(1)(A) या वाणिज्यिक गोपनीयता से संबंधित धारा 8(1)(D) का हवाला देते हैं।
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 2023 में सरकार ने इन छूटों का हवाला देते हुए पीएम केयर्स फंड के संदर्भ में विवरण देने से इनकार कर दिया। प्रकटन से छूट के प्रावधानों की उदार व्याख्या की यह प्रवृत्ति उस पारदर्शिता को बहुत हद तक कम कर रही है जिसे प्रोत्साहन देने के लिये अधिनियम बनाया गया था।
  • तकनीकी चुनौतियाँ और डिजिटल डिवाइड/विभेद: यद्यपि डिजिटलीकरण ने कुछ मायनों में सूचना तक पहुँच में सुधार किया है, लेकिन इसने नई बाधाएँ भी उत्पन्न की हैं। 
    • कई सरकारी वेबसाइटों का प्रबंधन ठीक से नहीं किया गया है, उनमें पुरानी या अधूरी जानकारी है। 
    • ऑनलाइन RTI दाखिल करने की प्रक्रिया में वे लोग शामिल नहीं हो पाए हैं जिनके पास डिजिटल साक्षरता या इंटरनेट कनेक्शन का अभाव है।
    • IAMAI-कान्तार अध्ययन का अनुमान है कि वर्ष 2023 तक लगभग 665 मिलियन भारतीयों, या देश की 45% आबादी के पास इंटरनेट कनेक्शन नहीं था।
    • यह डिजिटल डिवाइड सूचना असमानता का एक नया रूप उत्पन्न कर रहा है, जो सूचना तक सार्वभौमिक पहुँच के अधिनियम के लक्ष्य के विपरीत है।

RTI की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं? 

  • नियुक्ति प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित और त्वरित करना: केंद्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के लिये पारदर्शी एवं समयबद्ध प्रक्रिया को लागू करने की आवश्यकता है। 
    • विविध और योग्य नियुक्तियाँ सुनिश्चित करने के लिये एक स्वतंत्र चयन समिति की स्थापना करने की आवश्यकता है जिसमें विपक्षी सदस्य, नागरिक समाज के प्रतिनिधि एवं विधि विशेषज्ञ शामिल हों।
    • यह अनिवार्य है कि रिक्तियों की एक निर्दिष्ट समय-सीमा के भीतर भर्ती की जाए, संभवतः पद रिक्त होने से 30 दिन पूर्व। 
    • इस उपाय से आयोगों में कर्मचारियों की कमी के वर्तमान संकट का समाधान होगा तथा नियुक्ति प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप कम होगा।
  • डिजिटल अवसंरचना और पहुँच को बढ़ाना: सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों में RTI आवेदनों पर नज़र रखने और प्रसंस्करण समय को कम करने के लिये आवेदनों को कुशलतापूर्वक वर्गीकृत एवं उनका प्रबंधन करने के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता को एकीकृत करने की आवश्यकता है।
    • डिजिटल डिवाइड को कम करने के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में RTI कियोस्क (Kiosk) स्थापित करने तथा सामान्य सेवा केंद्रों का प्रयोग करते हुए मोबाइल RTI सेवाएँ प्रदान करने की आवश्यकता है।
    • इस डिजिटल परिवर्तन से पहुँच में सुधार होगा, प्रसंस्करण समय कम होगा तथा RTI आवेदनों की निगरानी के लिये अधिक पारदर्शी तंत्र स्थापित होगी।
  • दंड प्रावधानों और प्रवर्तन को मज़बूत बनाना: RTI अधिनियम में संशोधन करके उन अधिकारियों के लिये अनिवार्य दंड का प्रावधान किया जाना चाहिये जो बिना किसी उचित कारण के जानबूझकर सूचना देने से इनकार करते हैं या इसमें विलंब करते हैं।
    • व्यक्तिगत जवाबदेही की एक प्रणाली लागू की जानी चाहिये, ताकि बार-बार उल्लंघन से अधिकारी के सेवा रिकॉर्ड और पदोन्नति की संभावनाएँ भी प्रभावित हो सकें। 
    • RTI अधिनियम के गंभीर उल्लंघनों की जाँच और मुकदमा चलाने के लिये सूचना आयोगों के भीतर एक स्वतंत्र प्रवर्तन शाखा की स्थापना की जाने की आवश्यकता है।
    • इन उपायों से गैर-अनुपालन के विरुद्ध अधिक सख्त नियंत्रण सुनिश्चित होगा तथा सार्वजनिक प्राधिकरणों में पारदर्शिता की संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा।
  • RTI कार्यकर्त्ताओं के लिये व्यापक सुरक्षा लागू करना: RTI कार्यकर्त्ताओं की सुरक्षा के लिये दृढ़ प्रावधानों के साथ व्हिसल-ब्लोअर संरक्षण अधिनियम को लागू किया जाना चाहिये।
    • धमकी या उत्पीड़न का सामना करने वाले RTI उपयोगकर्त्ताओं के लिये एक समर्पित हेल्पलाइन और त्वरित प्रतिक्रिया प्रणाली स्थापित किया जाना चाहिये।
    • RTI कार्यकर्त्ताओं पर हमलों के मामलों से निपटने के लिये राज्य स्तर पर एक विशेष जाँच इकाई का गठन किये जाने की आवश्यकता है, ताकि त्वरित और निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित हो सके। 
    • RTI उपयोगकर्त्ताओं को नुकसान पहुँचाने या उन्हें धमकाने के दोषी पाए जाने वालों के लिये अनुकरणीय दंड के प्रावधान किया जाना चाहिये। ये कदम RTI कार्यकर्त्ताओं की सुरक्षा के संदर्भ में बढ़ती चिंताओं को दूर करेंगे और अधिक नागरिकों को बिना किसी भय के अधिनियम का उपयोग करने के लिये प्रोत्साहित करेंगे।
  • अनिवार्य सक्रिय प्रकटन और ओपन डेटा पहल: RTI अधिनियम की धारा 4(1)(B) का विस्तार कर सख्ती से इसे लागू किये जाने की आवश्यकता है जो सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा सूचना के सक्रिय प्रकटन को अनिवार्य बनाता है। 
    • 'डिफॉल्ट रूप से ओपन' नीति लागू किये जाने चाहिये, जहाँ सभी गैर-संवेदनशील सरकारी डेटा स्वचालित रूप से मशीन-पठनीय प्रारूप में सार्वजनिक कर दिये जाएँ। 
    • सक्रिय प्रकटन मानदंडों का पालन करने में विफल रहने वाले सार्वजनिक प्राधिकरणों के लिये दंड का प्रावधान किये जाने की आवश्यकता है। इस दृष्टिकोण से व्यक्तिगत RTI आवेदनों की आवश्यकता कम हो जाएगी और शासन में खुलेपन की संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा।
  • नियमित प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण: जन सूचना अधिकारियों (PIO) और प्रथम अपीलीय प्राधिकारियों के लिये RTI अधिनियम के प्रावधानों, हालिया न्यायिक घोषणाओं तथा सर्वोत्तम क्रियान्वयन पर अनिवार्य, नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करने की आवश्यकता है।
    • ज्ञान और क्षमता के उच्च मानक को सुनिश्चित करने के लिये PIO हेतु प्रमाणन कार्यक्रम विकसित किया जाना चाहिये। 
    • युवाओं में जागरूकता पैदा करने के लिये स्कूलों और कॉलेजों में आरटीआई साक्षरता कार्यक्रम शुरू की जानी चाहिये। नागरिकों, विशेष रूप से ग्रामीण और हाशिये के समुदायों के लिये RTI अधिनियम का प्रभावी ढंग से उपयोग करने के लिये समय-समय पर कार्यशालाएँ आयोजित की जानी चाहिये। 
      • इन पहलों से RTI प्रतिक्रियाओं की गुणवत्ता में सुधार आएगा तथा नागरिकों को अधिनियम का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग करने में सहायता मिलेगी।
  • प्रकटन से छूट संबंधी प्रावधानों को संशोधित और स्पष्ट करना: दुरुपयोग और अत्यधिक व्यापक व्याख्याओं को रोकने के लिये RTI अधिनियम की धारा 8 में प्रकटन से छूट संबंधी प्रावधानों की समीक्षा कर उनमें सख्ती लाने की आवश्यकता है।
    • प्रकटन से छूट प्राप्त करने के लिये अनिवार्य 'हानिकारक परीक्षण' लागू किया जाए, जिसके तहत प्राधिकारियों को प्रकटन से होने वाली विशिष्ट, पर्याप्त हानि को प्रदर्शित करने की आवश्यकता होगी।
    • 'व्यापक सार्वजनिक हित' अधिरोहित खंड के अनुप्रयोग पर स्पष्ट दिशा-निर्देश स्थापित की जानी चाहिये।
    • वर्गीकृत दस्तावेज़ों की समय-समय पर समीक्षा का आदेश देना चाहिये ताकि ऐसी जानकारी को गोपनीयता से मुक्त किया जा सके जिसे अब संरक्षण की आवश्यकता नहीं है। 
      • इन संशोधनों से प्रकटन से छूट के मनमाने उपयोग को सीमित किया जा सकेगा तथा पारदर्शिता की भावना को बनाए रखा जा सकेगा।
  • RTI विभागों और अधिकारियों के प्रदर्शन मूल्यांकन से जोड़ने की आवश्यकता है। 
    • सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों की वार्षिक रिपोर्ट में RTI निष्पादन को शामिल करना अनिवार्य किया जाए।
    • शासन प्रक्रियाओं और सार्वजनिक सेवा वितरण में प्रणालीगत सुधारों को आगे बढ़ाने के लिये RTI अनुप्रयोगों से प्राप्त अंतर्दृष्टि का उपयोग किया जाना चाहिये। 
      • इस एकीकरण से पारदर्शिता के लिये संस्थागत प्रोत्साहन उत्पन्न होगा तथा शासन में निरंतर सुधार के लिये RTI को एक उपकरण के रूप में उपयोग किया जा सकेगा।

निष्कर्ष: 

चूँकि हम आरटीआई अधिनियम की 20वीं वर्षगाँठ मनाने जा रहे हैं, इसलिये पारदर्शिता और जवाबदेही की भावना को बनाए रखने के लिये इसके सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करना महत्त्वपूर्ण है। आरटीआई अधिनियम की प्रभावशीलता को केवल तत्काल सुधारों और भारत में सूचना के अधिकार को लेकर सामूहिक प्रतिबद्धता के माध्यम से बनाए रखा जा सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

Q. भारत में शासन और जवाबदेही पर सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के प्रभाव पर चर्चा कीजिये। आपके विचार में, हाल के वर्षों में आरटीआई फ्रेमवर्क के सामने कौन-सी प्रमुख चुनौतियाँ हैं और इसकी प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिये इन चुनौतियों का समाधान किस प्रकार किया जा सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

Q. सूचना का अधिकार अधिनियम केवल नागरिकों के सशक्तीकरण के संदर्भ में नहीं है, यह अनिवार्य रूप से जवाबदेही की अवधारणा को पुनः परिभाषित करता है।” चर्चा कीजिये। (2018)


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