भारतीय अर्थव्यवस्था
बैंकिंग क्षेत्र: अवसर और चुनौतियाँ
यह एडिटोरियल 29/12/2023 को ‘हिंदू बिज़नेसलाइन’ में प्रकाशित “Banks are fine, but there are risks” लेख पर आधारित है। इसमें चर्चा की गई है कि भले ही बैंक सुदृढ़ स्थिति में नज़र आते हैं लेकिन राज्य की वित्तीय स्थिति, अत्यधिक गर्म शेयर बाज़ार और अंतर-संबंधित ऋण चिंता का विषय हैं।
प्रिलिम्स के लिये:बैंकिंग क्षेत्र, भारतीय रिज़र्व बैंक, गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ, त्वरित सुधारात्मक कार्रवाइयाँ। मेन्स के लिये: |
लगभग एक दशक तक ‘बैड लोन’ (bad loan) की बढ़ती चुनौतियों से जूझने के बाद हाल के समय में भारत की बैंकिंग प्रणाली में उल्लेखनीय पुनरुत्थान नज़र आया है। नीतिनिर्माताओं के ठोस प्रयासों और बैंकों द्वारा उठाये गए सक्रिय क़दमों की बदौलत बैंकिंग क्षेत्र वर्तमान में अधिक सुरक्षित स्थिति में है।
हालाँकि ऐतिहासिक पैटर्न को ध्यान में रखें तो भारतीय बैंकों के लिये सकारात्मक प्रक्षेपवक्र मौद्रिक नीतियों और भू-राजनीतिक जोखिमों जैसी बाहरी अनिश्चितताओं के प्रभाव के प्रति अभी भी संवेदनशील बना हुआ है।
समय के साथ भारतीय बैंकों का विकास किस प्रकार हुआ?
- पहली पीढ़ी की बैंकिंग (आरंभ से वर्ष 1947 तक):
- स्वतंत्रता से पहले की अवधि में स्वदेशी आंदोलन के कारण कई छोटे एवं स्थानीय बैंकों की स्थापना हुई, जिनमें से अधिकांश को मुख्य रूप से आंतरिक धोखाधड़ी, परस्पर-संबद्ध उधारी और व्यापार एवं बैंकिंग गतिविधियों के एकीकरण के कारण विफलता का सामना करना पड़ा।
- दूसरी पीढ़ी की बैंकिंग (1947-1967):
- भारतीय बैंकों ने संसाधनों के समेकन को सक्षम किया, जो सीमित संख्या में व्यावसायिक परिवारों या समूहों के लिये खुदरा जमा के माध्यम से जुटाए गए और जिसके परिणामस्वरूप कृषि क्षेत्र की ओर ऋण के प्रवाह की अनदेखी हुई।
- तीसरी पीढ़ी की बैंकिंग (1967-1991):
- सरकार ने दो चरणों (वर्ष 1969 और वर्ष 1980) में 20 प्रमुख निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण और वर्ष 1972 में प्राथमिकता क्षेत्रक ऋण की शुरुआत कर उद्योग एवं बैंकों के बीच के संबंध को सफलतापूर्वक भंग कर दिया।
- इन उपायों से ‘क्लास बैंकिंग’ से ‘मास बैंकिंग’ की ओर संक्रमण की राह खुली और ग्रामीण भारत में शाखा नेटवर्क के व्यापक विस्तार, सार्वजनिक जमा की पर्याप्त गतिशीलता और कृषि एवं संबद्ध क्षेत्रों में ऋण प्रवाह की वृद्धि पर अनुकूल प्रभाव पड़ा।
- चौथी पीढ़ी की बैंकिंग (वर्ष 1991-2014):
- इस अवधि के दौरान प्रतिस्पर्द्धा शुरू करने, उत्पादकता में सुधार लाने और दक्षता बढ़ाने के लिये निजी एवं विदेशी बैंकों को नए लाइसेंस जारी करने सहित कई महत्त्वपूर्ण सुधार लागू किये गए।
- इन परिवर्तनों में प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना, विवेकपूर्ण मानदंडों को लागू करना, कार्यात्मक स्वायत्तता के साथ परिचालनात्मक लचीलेपन की पेशकश करना, सर्वोत्तम कॉर्पोरेट प्रशासन अभ्यासों के कार्यान्वयन को प्राथमिकता देना और बेसल मानदंडों (Basel norms) के अनुसार पूंजी आधार को सुदृढ़ करना शामिल रहा।
- वर्तमान मॉडल:
- वर्ष 2014 के बाद से बैंकिंग क्षेत्र ने JAM ट्रिनिटी (जन-धन, आधार और मोबाइल) को अपनाया है और वित्तीय समावेशन की खोज में अंतिम-मील कनेक्टिविटी प्राप्त करने के लिये भुगतान बैंकों (Payments Banks) एवं लघु वित्त बैंकों (SFB) को लाइसेंस प्रदान किया है।
भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की वर्तमान स्थिति क्या है?
- पृष्ठभूमि:
- निकट अतीत में भारतीय ऋणदाताओं को ‘बैड लोन’ की गंभीर स्थिति का सामना करना पड़ा था, जिसके कारण तनावग्रस्त परिसंपत्तियों (stressed assets) में वृद्धि हुई थी। इससे सरकारी स्वामित्व वाले बैंक विशेष रूप से प्रभावित हुए, जिनका सकल NPAs 14.6% तक पहुँच गया था।
- इन चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिये सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक ने 4R रणनीति लागू की: NPAs को पारदर्शी रूप से चिह्नित करना (Recognize NPAs transparently), समाधान एवं वसूली (Resolution and recovery), सार्वजनिक बैंकों का पुनर्पूंजीकरण (Recapitalization of PSBs) और वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र में सुधार (Reforms in the financial ecosystem)।
- लगभग एक दशक तक सरकार की कमज़ोर हालत और बैड लोन के मुद्दों से जूझने के बाद, भारतीय बैंकिंग प्रणाली ने वर्ष 2023 में एक उल्लेखनीय बदलाव का अनुभव किया है।
- लाभप्रदता और परिसंपत्ति गुणवत्ता में सुधार:
- वित्त वर्ष 2013 में भारत में बैंकों का सकल NPA अनुपात गिरकर 4.41% हो गया जो मार्च 2015 के बाद से निम्नतम स्तर है। संचयी रूप से, PSBs ने लाभ में 1 लाख करोड़ रुपए का आँकड़ा पार कर लिया।
- RBI की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार पूंजी-जोखिम-भारित संपत्ति अनुपात (CRAR) 16.8% के सुदृढ़ स्तर पर है, जो अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के लिये एक मज़बूत वित्तीय स्थिति का संकेत देता है।
- यह भारतीय बैंकों के अच्छे वित्तीय स्वास्थ्य को रेखांकित करता है, जो संभावित जोखिमों को अवशोषित करने और वित्तीय प्रणाली में स्थिरता बनाए रखने की उनकी क्षमता को सकारात्मक रूप से प्रतिबिंबित करता है।
- नीति सुधार और वित्तीय अनुशासन:
- पिछले आठ वर्षों में शुरू किये गए विभिन्न सुधार उपाय ऋण अनुशासन, उत्तरदायी उधारी या ऋणदेयता, बेहतर प्रशासन और प्रौद्योगिकी को अपनाने पर केंद्रित हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का आपसी विलय भी NPA को कम करने में सहायक रहा।
- मज़बूत वित्तीय संकेतक:
- बैंक मज़बूत तरलता स्तर प्रदर्शित कर रहे हैं, जिसे ऋण देने के लिये उपलब्ध निधियों के आधार पर मापा जाता है। RBI द्वारा हाल में ‘withdrawal of accommodation’ का मौद्रिक रुख अपनाये जाने के बावजूद भारतीय बैंकों ने न्यूनतम आवश्यकता से कम से कम 20% अधिक तरलता कवरेज अनुपात बनाए रखा है।
- इसके अतिरिक्त, SBI, PNB और यूनियन बैंक सहित विभिन्न प्रमुख बैंकों ने 72% से कम क्रेडिट-डिपॉजिट अनुपात (Credit-Deposit ratios) के साथ ‘higher for longer’ ऋणदेयता की क्षमता प्रदर्शित की है।
भारतीय बैंकिंग क्षेत्र के लिये आगे कौन-सी बाधाएँ मौजूद हैं?
- अवसंरचना और पूंजी निवेश जोखिम:
- आगामी अवसंरचना और पूंजी निवेश के लिये बैंक ऋण, विशेष रूप से राज्य सरकार के निकायों से जुड़े ऋण, राज्य के वित्त में खिंचाव के कारण ‘डिफ़ॉल्ट’ का जोखिम पैदा करते हैं।
- बैंकों को सलाह दी जाती है कि वे अलग-अलग राज्यों के राजकोषीय/वित्तीय आकलन के आधार पर आंतरिक एक्सपोज़र सीमाएँ (internal exposure limits) निर्धारित करें।
- शेयर बाज़ार और खुदरा एक्सपोज़र जोखिम:
- तेज़ी से बदलता शेयर बाज़ार, जो धन सृजन का भ्रम पैदा करता है, खुदरा एक्सपोज़र (retail exposures) के लिये जोखिम प्रस्तुत करता है। सभी क्षेत्रों में बढ़े हुए ‘डीमैट’ खाते और उच्च PE अनुपात इस जोखिम के संकेतक हैं।
- इस उभरते जोखिम से निपटने के लिये खुदरा पोर्टफोलियो पर एकीकृत पर्यवेक्षण और कठोर तनाव परीक्षणों (stress tests) की अनुशंसा की जाती है।
- परस्पर-संबद्ध ऋण और शासन संबंधी चुनौतियाँ:
- परस्पर-संबद्ध ऋण (Interconnected Lending) और ढीले शासन मानदंडों के कारण डिफ़ॉल्ट के संक्रामक हो जाने की संभावना एक प्रमुख चुनौती है।
- केंद्रित जोखिम निगरानी आवश्यक है, इस बात पर बल देते हुए कि विनियमन सुशासन का स्थान नहीं ले सकता।
- पुनःवैश्वीकृत विश्व में SMEs की चुनौतियाँ:
- दुनिया का पुनःवैश्वीकरण (re-globalization) और भू-राजनीतिक बदलाव लघु एवं मध्यम उद्यमों (SMEs) को विशेष रूप से मुक्त व्यापार समझौतों (FTAs) और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं के परिदृश्य में चुनौती दे सकते हैं।
- नकदी प्रवाह में संभावित व्यवधानों को ध्यान में रखते हुए, बैंकों को SMEs के लिये संभावित जोखिमों का सावधानीपूर्वक आकलन करने और इस दिशा में तैयारी करने की आवश्यकता है।
- देनदारियों का बदलता परिदृश्य:
- डिजिटलीकरण और उभरती उपभोग प्रवृत्तियों के साथ देनदारियों (liabilities) का चरित्र बदल रहा है, जिसका असर खुदरा जमा पर पड़ रहा है। उच्च क्रेडिट-डिपॉजिट अनुपात रखने वाले बैंकों को तरलता कवरेज में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
- भारतीय बचत में संरचनात्मक बदलाव के लिये बैंकरों की ओर से सतर्कता एवं विवेक की आवश्यकता है, जहाँ अनुकूल परिस्थितियों के बीच सावधानीपूर्वक निगरानी आवश्यक है।
आगे बढ़ते भारतीय बैंकिंग क्षेत्र को किस प्रकार सुदृढ़ किया जा सकता है?
- बड़े बैंकों का निर्माण:
- नरसिंहम समिति रिपोर्ट (1991) ने भारत के लिये विदेशी बैंकों के अलावा घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति रखने वाले तीन-चार प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों के होने के महत्त्व को रेखांकित किया।
- दूसरे स्तर में अर्थव्यवस्था में व्यापक उपस्थिति वाले विशिष्ट संस्थानों सहित कई मध्यम आकार के बैंक शामिल हो सकते हैं।
- इन सुझावों के अनुरूप, सरकार ने पहले ही कुछ PSBs को समेकित कर दिया है और विकास वित्त संस्थान (DFI) एवं ‘बैड बैंक’ (Bad Bank) जैसी संस्थाओं की स्थापना के लिये उपाय किये हैं।
- नरसिंहम समिति रिपोर्ट (1991) ने भारत के लिये विदेशी बैंकों के अलावा घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति रखने वाले तीन-चार प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों के होने के महत्त्व को रेखांकित किया।
- विभेदित बैंकों के लिये आवश्यकताएँ:
- जबकि सार्वभौमिक बैंकिंग दृष्टिकोण को आमतौर पर पसंद किया गया है, विविध ग्राहकों और उधारकर्ताओं की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अलग-अलग बैंकिंग संस्थाओं की मांग मौजूद है।
- ये विशिष्ट बैंक खुदरा, कृषि और MSMEs जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में वित्तीय पहुँच की सुविधा प्रदान करेंगे।
- इसके अतिरिक्त, प्रस्तावित DFIs या विशिष्ट बैंकों (niche banks) को विशेष संस्थाओं के रूप में स्थापित करने से उन्हें निम्न लागत वाली सार्वजनिक जमा तक पहुँच मिलेगी और बेहतर परिसंपत्ति-देयता प्रबंधन सक्षम होगा।
- जबकि सार्वभौमिक बैंकिंग दृष्टिकोण को आमतौर पर पसंद किया गया है, विविध ग्राहकों और उधारकर्ताओं की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अलग-अलग बैंकिंग संस्थाओं की मांग मौजूद है।
- ब्लॉकचेन बैंकिंग:
- इसकी मदद से उन्नत जोखिम प्रबंधन हासिल किया जा सकता है और नियो-बैंक (neo-banks) के पास डिजिटल वित्तीय समावेशन को आगे बढ़ाने और महत्वाकांक्षी एवं उभरते भारत की बढ़ती वृद्धि का समर्थन करने के लिये इस तकनीक का उपयोग करने का अवसर है।
- भारतीय बैंकिंग के क्षेत्र में ब्लॉकचेन जैसी प्रौद्योगिकियों के कार्यान्वयन में विवेकपूर्ण पर्यवेक्षण को सुगम बनाने और बैंकों पर निगरानी एवं नियंत्रण को अधिक सुव्यवस्थित बनाने की क्षमता है।
- नैतिक खतरे को संबोधित करना:
- अभी तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विफल होने की घटनाएँ कम होती रही हैं, मुख्य रूप से इनमें निहित संप्रभु गारंटी के कारण, जिससे आम लोगों में वृहत भरोसा पैदा होता है। लेकिन PSBs के निजीकरण की जारी प्रकिया इस आश्वासन को चुनौती देती है।
- बैंकिंग सुधारों की आगामी लहर में व्यक्तिगत जमा बीमा में वृद्धि और कुशल व्यवस्थित समाधान तंत्र की आवश्यकता पर बल दिया जाना चाहिये। इसका उद्देश्य नैतिक खतरे एवं प्रणालीगत जोखिमों को कम करना और सार्वजनिक खजाने पर वित्तीय बोझ को कम करना होना चाहिये।
- ESG एकीकरण:
- विशिष्ट बैंकों के लिये एक प्रतिष्ठित स्टॉक एक्सचेंज पर सूचीबद्ध होना और ESG (पर्यावरण, सामाजिक उत्तरदायित्व और शासन) ढाँचे को अपनाना लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। इस दृष्टिकोण का लक्ष्य दीर्घावधि में हितधारकों के लिये मूल्य को संवृद्ध करना है।
- बैंकिंग संस्थानों को उन्नत बनाना:
- भेद्यताओं को दूर करने के लिये, सरकार को विनियामक उपायों को परिष्कृत करना चाहिये, बैंकों को विविध ऋण पोर्टफोलियो विकसित कर सकने में सक्षम बनाना चाहिये, विशिष्ट क्षेत्रों के लिये नियामकों की स्थापना करनी चाहिये और जानबूझकर किये गए डिफ़ॉल्ट से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये अधिक अधिकार प्रदान करना चाहिये।
- कॉर्पोरेट बॉण्ड बाज़ार विकास को सुगम बनाना:
- एक गतिशील वास्तविक अर्थव्यवस्था में एक उत्तरदायी बैंकिंग प्रणाली स्थापित करने के लिये कॉर्पोरेट बॉण्ड बाज़ार के विकास को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, ताकि बैंक-केंद्रित आर्थिक मॉडल से परे आगे बढ़ा जा सके।
- जोखिम प्रबंधन मॉडल को उन्नत बनाना:
- राज्य सरकार के निकायों और अवसंरचना परियोजनाओं को ऋण देने से जुड़े संभावित जोखिमों का आकलन करने के लिये राज्य विशेष के अनुरूप आंतरिक जोखिम मॉडल (बैंक एक्सपोज़र जोखिम सूचकांक के समान) का विकास एवं कार्यान्वयन करें।
- देनदारियों में परिवर्तन को संबोधित करना:
- डिजिटलीकरण और उभरते उपभोग रुझानों से प्रभावित देनदारियों की बदलती प्रकृति को चिह्नित करें। खुदरा जमा में बदलाव के अनुकूल रणनीति विकसित करें (विशेष रूप से टियर 1 और 2 केंद्रों में)।
निष्कर्ष:
बैंकिंग क्षेत्र की वर्तमान सफलता का भले ही हम जश्न मनाएँ, लेकिन जिस समय में हम रह रहे हैं उसकी जटिलताओं एवं अनिश्चितताओं से निपटने के लिये सक्रिय एवं सतर्क रुख अपनाना भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
अभ्यास प्रश्न: निकट अतीत में भारतीय बैंकिंग क्षेत्र के सुदृढ़ प्रदर्शन के बावजूद कुछ जोखिम कारक संभावित चुनौतियाँ पैदा कर रहे हैं। विस्तार से चर्चा कीजिये और उचित उपाय सुझाइये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न
प्रिलिम्स:प्रश्न: 'बैंक बोर्ड ब्यूरो (BBB)' के सन्दर्भ में, निम्नलिखित में कौन-से कथन सही हैं? 1. RBI का गवर्नर BBB का चेयरमैन होता है। नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: B मेन्स:Q. बैंक खाते से वंचित लोगों को संस्थागत वित्त के दायरे में लाने के लिये प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY) आवश्यक है। क्या आप भारतीय समाज के गरीब वर्ग के वित्तीय समावेशन के लिये इससे सहमत हैं? अपने मत की पुष्टि के लिये उचित तर्क दीजिये। (2016) |