भूगोल
दक्षिण अटलांटिक विसंगति
प्रीलिम्स के लिये:दक्षिण अटलांटिक विसंगति, वान एलन रेडिएशन बेल्ट, चुंबकीय विसंगति मेन्स के लिये:पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
'यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी' (European Space Agency- ESA) के 'स्वॉर्म' (Swarm) उपग्रहों द्वारा प्राप्त आँकड़ों के अध्ययन से दक्षिण अटलांटिक क्षेत्र के ऊपर ‘चुंबकीय विसंगति’ (Magnetic Anomaly) का पता चला है। चुंबकीय विसंगति पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में स्थानिक भिन्नता को बताता है।
प्रमुख बिंदु:
- चुंबकीय विसंगति को 'दक्षिण अटलांटिक विसंगति' (South Atlantic Anomaly- SAA) के रूप में भी जाना जाता है।
- 'दक्षिण अटलांटिक विसंगति' का विस्तार दक्षिण अमेरिका से दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका तक है।
- वर्ष 1970 के बाद से चुंबकीय विसंगति के आकार में लगातार वृद्धि देखी गई है तथा यह 20 किमी. प्रतिवर्ष की गति से पश्चिम की ओर बढ़ रही है।
दक्षिण अटलांटिक विसंगति (South Atlantic Anomaly- SAA):
- ‘दक्षिण अटलांटिक विसंगति’ अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के बीच के क्षेत्र में पृथ्वी के भू-चुंबकीय क्षेत्र के व्यवहार को संदर्भित करता है।
- दक्षिण अटलांटिक विसंगति पृथ्वी के निकटस्थ उस क्षेत्र को बताता है जहाँ पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र, सामान्य चुंबकीय क्षेत्र की तुलना में कमज़ोर पाया गया है।
दक्षिण अटलांटिक विसंगति का कारण:
- दक्षिण अटलांटिक विसंगति (SAA) एक ऐसा क्षेत्र है जहां पृथ्वी की ‘वान एलन रेडियशन बेल्ट' (Van Allen Radiation Belt) पृथ्वी की सतह के निकटतम आ जाती है।
- दक्षिण अटलांटिक विसंगति क्षेत्र में 'वान एलन रेडियशन बेल्ट' की ऊँचाई सामान्य से 200 किमी. तक कम हो गई है। इससे इस क्षेत्र में ऊर्जावान कणों का प्रवाह बढ़ जाता है।
वान एलन रेडिएशन बेल्ट (Van Allen Radiation Belt):
- किसी भी ग्रह के चुंबकीय क्षेत्र के कारण ग्रह के चारों तरफ आवेशित एवं ऊर्जावान कणों की एक ‘रेडिएशन बेल्ट’ (Radiation Belt) पाई जाती है।
- ‘वान एलन रेडिएशन बेल्ट’ पृथ्वी के चारों ओर विकिरण बेल्ट को संदर्भित करता है।
- इन बेल्टों की खोज वर्ष 1958 में डॉ. जेम्स वान एलन तथा उनकी टीम द्वारा की गई थी। डॉ. जेम्स वान एलन के नाम पर ही पृथ्वी के रेडिएशन बेल्ट को ‘वान एलन रेडिएशन बेल्ट’ कहा जाता है।
- बृहस्पति, शनि जैसे ग्रहों के भी समान रेडिएशन बेल्ट पाई जाती है।
- ये बेल्ट पृथ्वी के मैग्नेटोस्फीयर के आंतरिक भाग में पाई जाती है।
वान एलन रेडिएशन बेल्ट का निर्माण:
- ऐसा माना जाता है कि रेडिएशन बेल्ट के मुख्य घटकों का निर्माण सौर पवन तथा कॉस्मिक विकिरणों से होता हैं। पृथ्वी के दो रेडिएशन बेल्ट हैं। एक ‘आंतरिक वान एलन रेडिएशन बेल्ट’ और दूसरा ‘बाहरी रेडिएशन बेल्ट’।
- आंतरिक रेडिएशन बेल्ट:
- आंतरिक बेल्ट पृथ्वी की सतह से 1000 किमी. से 6000 किमी. की ऊँचाई तक विस्तृत है।
- आंतरिक बेल्ट में प्रोटॉन तथा इलेक्ट्रॉनों का एक संयोजन होता है।
- बाह्य रेडिएशन बेल्ट:
- बाह्य बेल्ट पृथ्वी सतह से 15,000 किमी. से 25,000 किमी. तक विस्तृत है।
- बाह्य विकिरण बेल्ट में मुख्यत: ऊर्जावान तथा आवेशित इलेक्ट्रॉन पाए जाते हैं।
चुंबकीय क्षेत्र के कमज़ोर होने का कारण:
- विगत 200 वर्षों में पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में औसतन 9% की कमी हुई है। पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में सबसे अधिक कमी SAA क्षेत्र में देखने को मिली है।
- विगत 50 वर्षों में SAA के क्षेत्र में विस्तार हुआ है तथा यह लगातार पश्चिम की ओर बढ़ गया है।
SAA का प्रभाव:
- ‘मैग्नेटिक शील्ड’ (Magnetic Shield) चुंबकीय ध्रुव के स्थान को निर्धारित करने में मदद करता है। SAA प्रभाव के कारण पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुव को फिर से निर्धारित करने की आवश्यकता हो सकती है।
- ‘मैग्नेटिक शील्ड’ (Magnetic Shield) अवांछित विकिरण को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, अत: SAA के कारण चुंबकीय विकिरण प्रभाव में वृद्धि हो सकती है।
- यह वैश्विक उपग्रह एवं दूरसंचार प्रणाली को प्रभावित कर सकता है, स्मार्टफोन में मैपिंग एवं नेविगेशन प्रणाली भी इससे प्रभावित हो सकती है।
- SAA के कारण पक्षियों का अंतर्राष्ट्रीय प्रवास प्रभावित हो सकता है। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि पक्षी तथा जानवरों का मौसमी प्रवास पृथ्वी के बाह्य वायुमंडल में परिवर्तन से प्रभावित होता है।
निष्कर्ष:
- दक्षिण अटलांटिक विसंगति के बारे में भी वैज्ञानिक समझ अपर्याप्त है, अत: भविष्य में इसका क्या प्रभाव होगा यह अभी अज्ञात है, लेकिन विभिन्न शोधों के अनुसार भविष्य में पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र प्रभावित हो सकता है। इसलिये संचार व्यवस्था में आवश्यक सुरक्षा उपायों को अपनाना चाहिये ताकि संचार व्यवस्था विकरण प्रभावों से न्यूनतम प्रभावित हो।
स्रोत: इकोनॉमिक्स टाइम्स
शासन व्यवस्था
भारतीय श्रम कानून और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन
प्रीलिम्स के लियेअंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, श्रम कानूनों के प्रकार मेन्स के लियेश्रम कानूनों में बदलावों का प्रभाव, श्रम सुधारों की आवश्यकता |
चर्चा में क्यों?
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organisation-ILO) ने भारत में श्रम कानूनों की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस संबंध में राज्यों को स्पष्ट संदेश देने का आग्रह किया है।
प्रमुख बिंदु
- गौरतलब है कि हाल ही में देश के 10 केंद्रीय श्रमिक संघों ने पत्र के माध्यम से देश में श्रम कानूनों के निलंबन के मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के समक्ष उठाया था और साथ ही इस विषय पर ILO के हस्तक्षेप की मांग की थी।
- ILO की यह प्रतिक्रिया ऐसे समय में आई है, जब उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे कुछ अन्य राज्यों ने आर्थिक तथा औद्योगिक प्रगति का हवाला देते हुए आगामी 2-3 वर्षों के लिये बड़ी संख्या में श्रम कानूनों को निलंबित कर दिया है।
श्रम कानूनों का अर्थ और भारत में श्रम कानून
- श्रम कानूनों का अभिप्राय कानून के उस खंड से होता है, जो रोज़गार, पारिश्रमिक, कार्य की शर्तों, श्रम संघों और औद्योगिक संबंधों जैसे मामलों पर लागू होते हैं।
- श्रमिक, समाज के विशिष्ट समूह होते हैं। इस कारण श्रमिकों के लिये बनाए गए विधान, सामाजिक विधान की एक अलग श्रेणी में आते हैं।
- ‘श्रम’ भारतीय संविधान के अंतर्गत समवर्ती सूची (Concurrent List) का एक विषय है। राज्य विधानमंडल श्रम कानूनों को लागू कर सकते हैं, किंतु उन्हें केंद्र सरकार की मंज़ूरी की आवश्यकता होगी।
- अनुमान के अनुसार, देश में श्रम से संबंधित 200 से अधिक राज्य कानून हैं और 50 केंद्रीय कानून हैं, हालाँकि इसके बावजूद देश में ‘श्रम कानूनों’ की कोई निर्धारित परिभाषा नहीं है।
- सामान्य तौर पर भारतीय श्रम कानूनों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता है- (1) कार्य स्थिति से संबंधित श्रम कानून (2) मज़दूरी और पारिश्रमिक से संबंधित श्रम कानून (3) सामाजिक सुरक्षा से संबंधित श्रम कानून (4) रोज़गार सुरक्षा एवं औद्योगिक संबंध से संबंधित श्रम कानून।
भारतीय श्रम कानूनों की आलोचना
- विशेषज्ञ भारतीय श्रम कानूनों को आमतौर पर ‘अनम्य’ (Inflexible) के रूप में परिभाषित करते हैं।
- उदाहरण के लिये कुछ आलोचक तर्क देते हैं कि भारतीय श्रम कानूनों के कारण ही कुछ कंपनियाँ (जिनमें 100 से अधिक श्रमिक कार्यरत होते हैं) नए श्रमिकों को रोज़गार देने से हिचकिचाती हैं, क्योंकि फिर उन्हें श्रमिकों को काम से हटाने के लिये सरकार की मंज़ूरी की आवश्यकता होती है।
- आँकड़े दर्शाते हैं कि श्रम कानूनों की ‘अनम्यता’ के कारण ही देश के संगठित क्षेत्र में भी औपचारिक अनुबंध के बिना श्रमिकों को रोज़गार देने की संस्कृति बढ़ती जा रही है।
- इसके कारण एक ओर तो संगठन के विकास में बाधा आती है तो दूसरी श्रमिकों को भी रोज़गार सुरक्षा प्राप्त नहीं होती है।
- श्रम कानूनों की आलोचना करते हुए यह भी तर्क दिया जाता है कि देश में इस प्रकार के कानूनों की संख्या काफी अधिक है, जिसके कारण अक्सर अनावश्यक जटिलता उत्पन्न होती है और इन कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
- इस प्रकार यदि भारत में श्रम कानूनों की संख्या कम होगी और उन्हें आसानी से लागू किया जा सकेगा, तो कंपनियाँ बाज़ार के अनुरूप विस्तार कर सकेंगी और औपचारिक अनुबंध करने में सक्षम होंगी, जिसके परिणामस्वरूप श्रमिकों को बेहतर वेतन और सामाजिक सुरक्षा का लाभ प्राप्त हो सकेगा।
श्रम कानूनों में हुए हालिया परिवर्तन
- COVID-19 महामारी के बीच, उत्पादन और मांग में कमी होने के कारण देश के अधिकांश उद्योग गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं, जिसके कारण केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के लिये अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाना काफी चुनौतीपूर्ण बन गया है।
- उद्योगों की इस तनावपूर्ण स्थिति को संबोधित करने के लिये उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे कुछ अन्य राज्यों ने अपने-अपने श्रम कानूनों में व्यापाक बदलाव किये हैं और उन्हें कुछ समय के लिये निलंबित कर दिया है।
- उत्तर प्रदेश सरकार ने अगले तीन वर्षों के लिये कुछ प्रमुख श्रम कानूनों को छोड़कर लगभग 35 श्रम कानूनों के प्रावधानों से व्यवसायों को छूट देने वाले अध्यादेश को मंज़ूरी दे दी है।
- हालाँकि, बंधुआ मज़दूरी, बच्चों व महिलाओं के नियोजन संबधित श्रम अधिनियम और वेतन संदाय अधिनियम से संबंधित कानूनों में कोई छूट नहीं दी जाएगी।
- इसी प्रकार मध्य प्रदेश सरकार ने भी अगले 1000 दिनों के लिये कई श्रम कानूनों को निलंबित कर दिया है।
- मध्यप्रदेश द्वारा किये गए बदलावों के अनुसार, नियोक्ता अपने कर्मचारियों की सहमति से कारखानों में कार्य की अवधि 8 से 12 घंटे तक बढ़ा सकते हैं। सप्ताह में ओवरटाइम की अवधि अधिकतम 72 घंटे तक सुनिश्चित की जाएगी।
- वहीं श्रम कानूनों के उल्लंघन के मामले में नियोक्ता को दंड से भी छूट प्रदान की गई है।
श्रम कानूनों में बदलाव की आलोचना
- विभिन्न श्रम संघों ने उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश सरकारों द्वारा लिये गए निर्णय की आलोचना की है और चेतावनी दी है कि यदि इन निर्णयों को क्रियान्वित किया जाता है तो श्रम कानूनों के मामले में भारत तकरीबन 100 वर्ष पीछे चला जाएगा।
- विभिन्न विशेषज्ञों ने राज्य सरकारों के इन निर्णयों को श्रमिकों के ‘शोषण हेतु एक सक्षम वातावरण निर्मित करने’ के कदम के रूप में परिभाषित किया है।
- श्रम कानूनों का निलंबन राज्यों में श्रमिकों के लिये गुलाम जैसी परिस्थितियों को जन्म देगा, जो कि स्पष्ट रूप से श्रमिकों के मानवाधिकार का उल्लंघन है।
- विभिन्न ट्रेड यूनियनों ने राज्य सरकार के इस निर्णय को ‘श्रमिक वर्ग पर गुलामी की स्थिति लागू करने के लिये एक क्रूर कदम’ करार दिया है।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन और श्रम कानून
- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध एक विशिष्ट एजेंसी है, जिसकी स्थापना वर्ष 1919 में की गई थी।
- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना मुख्य तौर पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मानवाधिकारों एवं श्रमिक अधिकारों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी।
- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का आधार त्रिपक्षीय सिद्धांत है, जिसके तहत संगठन के भीतर आयोजित होने वाली वार्ताओं में सरकारों, श्रमिक संघों के प्रतिनिधियों और सदस्य राष्ट्रों के नियोक्ताओं को एक मंच पर लाया जाता है।
- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटनाओं जैसे- महामंदी आदि में श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
स्रोत: द हिंदू
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
G-7 समिट
प्रीलिम्स के लियेG-7 में शामिल देश मेन्स के लियेG-7 का महत्त्व व चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से 46वें G-7 शिखर सम्मेलन की मेज़बानी करने की घोषणा की।
प्रमुख बिंदु:
मूल रूप से, G-7 शिखर सम्मेलन की वार्षिक बैठक 10-12 जून, 2020 को संयुक्त राज्य अमेरिका के कैंप डेविड (Camp David) में आयोजित होने वाली थी।
G-7 में शामिल देश:
- G-7 फ्राँस, जर्मनी, इटली, यूनाइटेड किंगडम, जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा जैसे देशों का एक समूह है।
- यह एक अंतर सरकारी संगठन है जिसका गठन वर्ष 1975 में हुआ था।
- वैश्विक आर्थिक शासन, अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा और ऊर्जा नीति जैसे सामान्य हित के मुद्दों पर चर्चा करने के लिये यह समूह वार्षिक बैठक करता है।
- वर्ष 1997 में रूस के इस समूह में शामिल होने के बाद कई वर्षों तक G-7 को 'G- 8' के रूप में जाना जाता था।
- वर्ष 2014 में यूक्रेन के क्रीमिया क्षेत्र के सैन्य अधिग्रहण के बाद रूस को सदस्य के रूप में इस समूह से निष्कासित किये जाने के बाद समूह को फिर से G-7 कहा जाने लगा।
शिखर सम्मेलन में भागीदारी
- इसके शिखर सम्मेलन का आयोजन प्रतिवर्ष किया जाता है और समूह के सदस्यों द्वारा इसकी मेज़बानी बारी-बारी से की जाती है। मेज़बान देश न केवल G-7 की अध्यक्षता करता है, बल्कि उस वर्ष के कार्य-विषय/एजेंडा का भी निर्धारण करता है।
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मेज़बान देश द्वारा वैश्विक नेताओं को शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिये विशेष आमंत्रण दिया जाता है। चीन, भारत, मेक्सिको और ब्राज़ील जैसे देशों ने विभिन्न अवसरों पर इसके शिखर सम्मेलनों में भाग लिया है।
- G-7 के शिखर सम्मेलन में यूरोपीय संघ, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के नेताओं को भी आमंत्रित किया जाता है।
चुनौतियाँ
- आंतरिक रूप से G-7 में असहमति के कई उदाहरण हैं, जैसे कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अन्य सदस्यों के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका का टकराव।
- आलोचकों का मत है कि G-7 की छोटी और अपेक्षाकृत समरूप सदस्यता सामूहिक निर्णयन को तो बढ़ावा देती है, लेकिन इसमें प्रायः उन निर्णयों को अंतिम परिणाम तक पहुँचाने की इच्छाशक्ति का अभाव होता है और साथ ही इसकी सदस्यता से महत्त्वपूर्ण उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को वंचित रखना इसकी एक बड़ी कमी है।
- G-20 (जो भारत, चीन, ब्राज़ील जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है) के उभार ने G-7 जैसे पश्चिमी देशों के वर्चस्व वाले समूह को चुनौती दी है।
भारत और G-7 समूह
- 45वें G-7 शिखर सम्मेलन की मेज़बानी फ्राँस ने अगस्त 2019 में नौवेल्ले-एक्विटेन के बियारित्ज़ (Biarritz in Nouvelle-Aquitaine) में की।
- फ्रांस के राष्ट्रपति ने लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को बढ़ावा देने और महत्तवपूर्ण क्षेत्रीय प्रभाव रखने वाले चार भागीदार देशों (ऑस्ट्रेलिया, चिली, भारत और दक्षिण अफ्रीका); पाँच अफ्रीकी भागीदारों (बुर्किना फासो, सेनेगल, रवांडा एवं दक्षिण अफ्रीका और अफ्रीकी संघ आयोग (AUC) के अध्यक्ष) तथा नागरिक समाज के प्रतिनिधियों को इस सम्मेलन में आमंत्रित किया था।
- G-7 के शिखर सम्मेलन में भारत की उपस्थिति से प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में भारत का बढ़ता महत्व चिह्नित होता है।
आगे की राह
- G-7 को आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, व्यापार और विभिन्न देशों के बीच आंतरिक संघर्ष जैसे प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान देना चाहिये।
- एक मंच के रूप में इसे गरीबी और बीमारियों के उन्मूलन जैसे वैश्विक चिंताओं के समाधान को प्रतिबिंबित करना चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
जैव विविधता और पर्यावरण
विश्व डुगोंग दिवस
प्रीलिम्स के लिये:डुगोंग या समुद्री गाय मेन्स के लिये:वन्य जीव संरक्षण |
चर्चा में क्यों?
प्रतिवर्ष 28 मई को 'विश्व डुगोंग दिवस' मनाया जाता है। डुगोंग; जिसे समुद्री गाय के रूप में जाना जाता है, को भारतीय जल क्षेत्र में संरक्षण प्रयासों की कमी के कारण संकट का सामना करना पड़ रहा है।
प्रमुख बिंदु:
- डुगोंग को वर्तमान में समुद्री कछुए (Sea Turtles), समुद्री घोड़े (Sea Horse), समुद्री खीरे (Cucumbers) के समान संकट का सामना करना पड रहा है।
- डुगोंग को भारत में ‘वन्य (जीवन) संरक्षण अधिनियम’ (Wild Life Protection Act)- 1972 की अनुसूची (I) के तहत संरक्षित किया गया है।
डुगोंग का भारत में वितरण:
- वर्ष 2013 में 'भारतीय प्राणी सर्वेक्षण' (Zoological Survey of India- ZSI) द्वारा किये गए सर्वेक्षण के अनुसार, भारतीय तटीय क्षेत्र में केवल 250 डुगोंग बचे थे।
- भारत में ये केवल मन्नार की खाड़ी, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह तथा कच्छ की खाड़ी क्षेत्र में पाए जाते हैं।
- डुगोंग एकमात्र शाकाहारी स्तनधारी है जो अपने जीवन के लिये पूरी तरह समुद्र पर निर्भर रहता है। यह कुल 37 देशों; जिनमें उष्णकटिबंधीय, उपोष्णकटिबंधीय तटीय और द्वीपीय देश शामिल हैं, में पाया जाता है।
- डुगोंग, समुद्री पारिस्थितिक तंत्र का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। यदि डुगोंग की संख्या में कमी होती है तो संपूर्ण खाद्य श्रृंखलाएँ इससे प्रभावित होंगी।
डुगोंग के समक्ष चुनौतियाँ:
- डुगोंग स्तनधारी समुद्री प्रजाति है। मादा डुगोंग एक शिशु को 12-14 महीने के गर्भ धारण के बाद जन्म देती है तथा प्रत्येक शिशु के मध्य 3-7 वर्षों का न्यूनतम अंतराल होता है। अर्थात् इसकी संख्या में बहुत धीमी गति से वृद्धि होती है।
- डुगोंग अपने भोजन के लिये मुख्यत: समुद्री घास पर पर निर्भर रहता है तथा एक दिन में 40 किलोग्राम तक समुद्री घास खा लेता है। समुद्री वाहनों के कारण समुद्री घास में लगातार कमी हो रही है, जो डुगोंग की घटती संख्या के पीछे सबसे प्रमुख कारण है।
- तमिलनाडु, गुजरात और अंडमान में मछुआरों द्वारा डुगोंग का मांस 1,000 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेचा जाता था तथा लोगों का मानना था कि इस मांस का सेवन करने से शरीर का तापमान संतुलित रहता है।
- वर्तमान में निम्नलिखित मानव गतिविधियों के कारण डुगोंग को संकट का सामना करना पड रहा है:
- आवास का विनाश;
- व्यापक जल प्रदूषण;
- बड़े पैमाने पर मत्स्यन गतिविधियाँ;
- जहाज़ों की आवाजाही;
- अवैध शिकार में लगातार वृद्धि का होना;
- अनियोजित पर्यटन।
संरक्षण के प्रयास:
- 'भारतीय वन्यजीव संस्थान' (Wildlife Institute of India- WII) के जागरूकता अभियान के बाद से डुगोंग के शिकार में कमी देखी गई है।
- WII द्वारा तमिलनाडु, गुजरात और अंडमान के समुद्र तटीय गाँवों में स्थानीय मछुआरों के बीच डुगोंग संरक्षण के लिये जागरूकता शिविरों का आयोजन किया जाता है।
- 15-22 फरवरी, 2020 तक गुजरात की राजधानी गांधीनगर में ‘वन्यजीवों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण’ (Conservation of Migratory Species of Wild Animals-CMS) की शीर्ष निर्णय निर्मात्री निकाय ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़’ (Conference of the Parties- COP) के 13वें सत्र का आयोजन किया गया।
- भारत सरकार वर्ष 1983 से CMS का हस्ताक्षरकर्त्ता देश है। भारत ने साइबेरियन क्रेन (वर्ष 1998), मरीन टर्टल ( वर्ष 2007), डुगोंग (वर्ष 2008) और रैप्टर (वर्ष 2016) के संरक्षण और प्रबंधन पर CMS के साथ गैर- बाध्यकारी कानूनी समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किये हैं।
आगे की राह:
- ऑस्ट्रेलिया में उचित संरक्षण के कारण डुगोंग की संख्या 85,000 से अधिक हो गई है। अत: केवल उचित संरक्षण उपायों के माध्यम से ही डुगोंग को विलुप्त होने से बचाया जा सकता है।
स्रोत: डाउन टू अर्थ
भारतीय अर्थव्यवस्था
गूगल के खिलाफ अविश्वास मामले में शिकायत
प्रीलिम्स के लिये:भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग मेन्स के लिये:ई-कॉमर्स और डिजिटल अर्थव्यवस्था से जुड़ी चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (The Competition Commission of India- CCI) गूगल के खिलाफ एक शिकायत की जाँच कर रहा है, जिसके तहत गूगल पर आरोप लगाया गया है कि वह देश में अपने मोबाइल भुगतान एप को गलत तरीके से बढ़ावा देने के लिये बाज़ार में अपनी मज़बूत स्थिति का दुरुपयोग कर रहा है।
प्रमुख बिंदु:
- इस शिकायत में आरोप लगाया गया है कि गूगल अपने एप स्टोर (App Store) में ‘गूगल पे एप’ (Google Pay App) को अधिक प्रमुखता से दिखाता है, जो इसे अन्य प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के एप की तुलना में अनुचित बढ़त/लाभ प्रदान करता है।
- शिकायत में आरोप लगाया गया है कि गूगल के इस व्यवहार से उपभोक्ताओं को नुकसान हो रहा है।
- गूगल के खिलाफ यह शिकायत फरवरी 2020 में दायर की गई थी परंतु अभी तक CCI ने शिकायतकर्त्ता की पहचान गोपनीय रखी है।
- CCI द्वारा गूगल को इस मामले के बारे में सूचित कर दिया गया है, हालाँकि गूगल ने अभी तक इस मामले में अपना पक्ष नहीं रखा है।
गूगल पे (Google Pay):
- यह गूगल द्वारा निर्मित एक मोबाइल भुगतान एप (Mobile Payment App) है।
- यह एप उपभोक्ताओं को एक बैंक से दूसरे बैंक में धनराशि भेजने और बिल जमा करने जैसी सुविधाएँ प्रदान करता है।
- भारतीय डिजिटल पेमेंट बाज़ार में इसका मुकाबला सॉफ्टबैंक समर्थित पेटीएम (PayTM) और वाॅलमार्ट के फोनपे (PhonePe) जैसे एप से है।
जाँच की प्रक्रिया:
- वर्तमान में CCI के शीर्ष अधिकारियों द्वारा गूगल पर लगे इन आरोपों की समीक्षा की जा रही है, सामान्यतः ऐसे मामलों में दूसरे पक्ष (इस मामले में गूगल) को CCI के समक्ष अपना पक्ष रखने के लिये बुलाया जाएगा और उसके पश्चात आगे की कर्रवाई की जाएगी।
- आरोपों की समीक्षा के बाद CCI इसकी व्यापक जाँच हेतु मामले को किसी जाँच इकाई को दे सकती है अथवा इसे रद्द भी किया जा सकता है।
गूगल पर अविश्वास के मामले:
- भारत में गूगल के खिलाफ अविश्वास का यह तीसरा बड़ा मामला है।
- वर्ष 2018 में CCI ने गूगल पर ‘ऑनलाइन सर्च में पक्षपात’ करने के मामले में 136 करोड़ रुपए का ज़ुर्माना लगाया था।
- हालाँकि गूगल ने इस फैसले के खिलाफ अपील की है जिसपर अभी फैसला आना बाकी है।
- पिछले वर्ष CCI ने गूगल पर एक अन्य मामले में जाँच प्रारंभ की थी, जिसके तहत लगाए गए आरोपों के अनुसार, गूगल मोबाइल निर्माता कंपनियों द्वारा एंड्रॉइड मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम (Android Mobile Operating System) के वैकल्पिक संस्करणों को चुनने की क्षमता को कम करने के लिये बाज़ार में अपनी मज़बूत स्थिति का प्रयोग करता है।
भारतीय डिजिटल भुगतान बाज़ार:
- पिछले कुछ वर्षों में देश में मोबाइल और अन्य तकनीकी के विकास के साथ डिजिटल भुगतान में भारी वृद्धि देखने को मिली है।
- वर्ष 2019 में भारत का डिजिटल भुगतान बाज़ार लगभग 64.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था।
- एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2023 तक भारत का डिजिटल भुगतान बाज़ार 20.2% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (Compound Annual Growth Rate-CAGR) की बढ़त के साथ लगभग 135.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाएगा।
- साथ ही इसी दौरान वैश्विक स्तर पर भी भारतीय डिजिटल भुगतान बाज़ार की हिस्सेदारी 1.56% (वर्ष 2019) से बढ़कर 2.02% (वर्ष 2023) तक पहुँच जाएगी।
- सितंबर 2019 में गूगल द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, भारत में गूगल के डिजिटल भुगतान एप पर सक्रिय उपभोक्ताओं की संख्या लगभग 670 लाख प्रतिमाह तक पहुँच गई थी।
चुनौतियाँ:
- पिछले कुछ वर्षों में तकनीकी विकास और इंटरनेट के विस्तार का प्रभाव अन्य क्षेत्रों के साथ मुद्रा विनिमय और बाज़ार पर भी देखने को मिला है।
- तकनीकी विकास जहाँ बाज़ारों को जोड़ने और व्यापार के नए अवसरों की खोज में सहायक रहा है, वहीं समय के साथ नियमों में अपेक्षित बदलाव और पारदर्शिता के अभाव में नियामकों की चुनौतियों में वृद्धि हुई है।
- वर्तमान में डिजिटल तकनीकी क्षेत्र की कंपनियाँ विदेशी निवेश का एक बड़ा स्रोत हैं ऐसे में नियमों में सख्ती से देश में विदेशी कंपनियों द्वारा किया जाने वाला निवेश प्रभावित हो सकता है।
आगे की राह:
- इंटरनेट और ई-व्यापार से जुड़ी चुनौतियों को देखते हुए CCI द्वारा प्रस्तुत ‘मार्केट स्टडी ऑन ई-कॉमर्स इन इंडिया’ (Market Study on E-commerce in India) नामक रिपोर्ट में कंपनियों द्वारा पारदर्शिता को बढ़ाने और स्व-नियामक प्रावधानों में वृद्धि किये जाने पर बल दिया था।
- पक्षपात के मामलों में वृद्धि को देखते हुए ‘राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण’ (National Company Law Appellate Tribunal-NCLAT) द्वारा भी इस बात को दोहराया गया कि कि बड़ी कम्पनियाँ अपने हितों की रक्षा के लिये सकारात्मक प्रतिस्पर्द्धा के नियमों की अनदेखी नहीं कर सकती हैं।
भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग
(The Competition Commission of India- CCI):
- भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग एक सांविधिक निकाय (Statutory Body) है।
- भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग के कुल सदस्यों की संख्या 7 (एक अध्यक्ष और 6 अन्य सदस्य) निर्धारित की गई है।
- भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग के सभी सदस्यों की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है।
भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग के कार्य:
- कानून और नियमों के सफल क्रियान्वयन तथा परस्पर समन्वय के माध्यम से सकारात्मक प्रतिस्पर्द्धा और नवाचार को बढ़ावा देना।
- उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा और आर्थिक विकास को बढ़ावा देना।
- उपभोगताओं, औद्योगिक क्षेत्र, सरकार और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के बीच समन्वय को बढ़ावा देना।
- अपने कार्यों में व्यावसायिकता और पारदर्शिता रखना तथा न-जागरूकता को बढ़ावा देना।
स्रोत: द हिंदू
जैव विविधता और पर्यावरण
केरल में चारु मुसेल का प्रसार
प्रीलिम्स के लिये:चारु मुसेल, अष्टमुडी झील मेन्स के लिये:केरल में चारु मुसेल के प्रसार से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
मूल रूप से दक्षिण और मध्य अमेरिकी तटों पर पाए जाने वाले आक्रमणशील ‘चारु मुसेल’ (Charru Mussel) का केरल में बहुत तेज़ी से प्रसार हो रहा है, जो एक चिंता का विषय बना हुआ है।
प्रमुख बिंदु:
- गौरतलब है कि इस प्रजाति के पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव के साक्ष्य मौजूद नहीं हैं लेकिन फ्लोरिडा में इसके द्वारा विद्युत ऊर्जा संयंत्र प्रणाली को प्रभावित कर आर्थिक नुकसान पहुँचाने के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
- एक हालिया सर्वेक्षण में कडिनमकुलम, परावुर, एडवा-नादायरा, अष्टमुडी, कायमकुलम इत्यादि स्थानों पर चारु मुसेल काफी अधिक संख्या में पाए गए हैं।
- कोल्लम ज़िले में स्थित अष्टमुडी झील चारु मुसेल से अत्यधिक प्रभावित है। यहाँ प्रति वर्ग किलोमीटर में इनकी संख्या 11384 है।
- वर्ष 2018-2019 के बीच अष्टमुडी झील में चारु मुसेल की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई थी।
- ‘एक्वेटिक बॉयोलॉज़ी एंड फिशरीज़’ (Aquatic Biology and Fisheries) पत्रिका में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार, वर्ष 2017 में चक्रवात ओखी (Ockhi) के कारण चारु मुसेल का तेज़ी से प्रसार हुआ है।
- संभावना यह भी जताई जा रही है कि चारु मुसेल समुद्री जहाजों से चिपक कर भारतीय तटों पर आए हैं।
चारु मुसेल (Charru Mussel):
- चारु मुसेल को ‘मायटेला चर्रुअना’ (Mytella Charruana) के रूप में भी जाना जाता है।
- चारु मुसेल छोटे और पतले कवच का होता है जिसकी कवच की सतह पर पसलियाँ नहीं होती हैं।
- कवच का बाहरी हिस्सा हल्के हरे तथा काले रंग का होता है, जबकि कवच की आंतरिक सतह बैंगनी रंग की होती है।
- आमतौर पर इसकी लंबाई 20-25 mm होती है, जबकि अब तक इसकी अधिकतम लंबाई 48.7 mm दर्ज की गई है।
- वर्ष 1986 में पहली बार फ्लोरिडा में पाए गए चारु मुसेल वर्तमान में मध्य फ्लोरिडा से मध्य जॉर्जिया के तटों तक पाए जाते हैं।
- यह अत्यधिक खारे जल में रह सकते हैं परंतु कम तापमान में इनकी सहनशीलता सीमित होती है।
अष्टमुडी झील (Ashtamudi Lake):
- ‘अष्टमुडी झील’ केरल के कोल्लम ज़िले में स्थित है। इसका आकार आठ-भुजाओं वाला है।
- झील का पारिस्थितिकी तंत्र अनूठा है और यह भारत के महत्त्वपूर्ण आर्द्रभूमि क्षेत्रों में से एक है। यह झील रामसर (Ramsar) स्थल भी है।
- अष्टमुडी झील केरल की दूसरी सबसे बड़ी एस्चुरीन प्रणाली (Estuarine System) है। ‘एस्चुरीन प्रणाली’ नदी का वह जलमग्न मुहाना होती है जहाँ स्थल से आने वाले जल और सागरीय खारे जल का मिलन होता है तथा ज्वारीय लहरें क्रियाशील रहती हैं।
आगे की राह:
- अष्टमुडी झील में लगभग 3000 लोग मत्स्य पालन का कार्य करते हैं। ऐसी स्थिति में चारु मुसेल की संख्या में वृद्धि की वज़ह से लोगों के सामने जीवन-यापन की समस्या उत्पन्न हो सकती है। अतः इस गंभीर समस्या का समाधान शीघ्रता से किया जाना चाहिये।
- भारत के अन्य भागों में ‘चारु मुसेल’ की उपस्थिति की पहचान शीघ्रता से की जानी चाहिये।
- एक समिति का गठन कर समग्र आर्थिक नुकसान और जैव विविधता पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन किया जाना चाहिये।
- समुद्री आक्रामक प्रजातियों पर अध्ययन को बढ़ावा देने के साथ ही लोगों को जागरूक किया जाना चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय अर्थव्यवस्था
सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट
प्रीलिम्स के लिये:सकल घरेलू उत्पाद, रेटिंग एजेंसी मेन्स के लिये:सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में विभिन्न रेटिंग एजेंसियों द्वारा जारी रिपोर्टों के अनुसार, देशभर में लॉकडाउन के कारण वित्तीय वर्ष (2020-21) में भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का अनुमान है।
प्रमुख बिंदु:
- उल्लेखनीय है कि रेटिंग एजेंसी ‘क्रिसिल’ (Crisil) और ‘स्टेट बैंक ऑफ इंडिया’ (State Bank of India-SBI) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, वित्तीय वर्ष (2020-21) में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product-GDP) में क्रमशः 5% (क्रिसिल) और 6.8% (स्टेट बैंक ऑफ इंडिया) की गिरावट होगी।
- ‘स्टेट बैंक ऑफ इंडिया’ के अनुसार, वर्तमान वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में 40% की गिरावट की आशंका है।
- उन राज्यों में भी आर्थिक गतिविधियाँ लंबे समय तक प्रभावित रह सकती हैं, जहाँ COVID-19 के मामले ज़्यादा हैं।
- ध्यातव्य है कि भारत में मानसून के कारण केवल तीन बार वित्तीय वर्ष 1957-58, 1965-66 और 1979-80 में मंदी आई थी। इस दौरान खेती पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के कारण अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा प्रभावित हुआ था। वर्तमान में ‘सकल घरेलू उत्पाद’ में कृषि का योगदान 17% है।
- लॉकडाउन के कारण उत्पन्न परिस्थितियों में अर्थव्यवस्था को मज़बूती प्रदान करने में कृषि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है बशर्ते मानसून साथ दे।
अन्य बिंदु:
- मार्च 2020 में औद्योगिक उत्पादन में 16%, अप्रैल 2020 के दौरान निर्यात में 60.3%, दूरसंचार क्षेत्र में नए ग्राहकों की संख्या में 35% और रेल के जरिये माल ढुलाई में 35% की गिरावट दर्ज की गई है।
क्रिसिल का अनुमान:
- मानसून सामान्य रहने की स्थिति में कृषि क्षेत्र में 2.5% की वृद्धि का अनुमान है।
- देशभर में लॉकडाउन के कारण गैर-कृषि जीडीपी में 6% की गिरावट का अनुमान है।
- अन्य देशों में लॉकडाउन लागू होने से भारत के निर्यात क्षेत्र प्रभावित होंगे।
- भारत में अगले तीन वित्तीय वर्षों तक ‘सकल घरेलू उत्पाद’ में वृद्धि दर 7-8% हासिल करना मुश्किल होगा।
- क्रिसिल के अनुसार, वर्तमान वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में 25% की गिरावट का अनुमान है।
फिच का अनुमान:
- फिच के अनुसार, वर्तमान वित्तीय वर्ष (2020-21) में भारतीय अर्थव्यवस्था में 5% की गिरावट का अनुमान है।
- ध्यातव्य है कि इससे पहले फिच ने वित्तीय वर्ष 2020-21 हेतु 0.8% वृद्धि का अनुमान लगाया था।
गिरावट के कारण:
- देशभर में लॉकडाउन की अवधि बढ़ने के कारण आर्थिक गतिविधियाँ बुरी तरह से प्रभावित हुई हैं।
- दुनिया में काफी सख्त लॉकडाउनों में से एक भारत में लागू किया गया था।
- वर्तमान वित्तीय वर्ष में अप्रैल माह का प्रदर्शन सबसे ख़राब था।
- शिक्षा, यात्रा और पर्यटन क्षेत्र को प्रतिबंधित करना भी अर्थव्यवस्था की गिरावट के प्रमुख कारणों में से एक हैं।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
विविध
Rapid Fire (करेंट अफेयर्स): 28 मई, 2020
WHO फाउंडेशन
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization-WHO) के महानिदेशक टेड्रोस अदनोम घेब्रेयसस (Tedros Adhanom Ghebreyesus) ने महामारी के दौर में वित्तीय चुनौतियों से निपटने के लिये WHO फाउंडेशन (WHO Foundation) नाम से एक स्वतंत्र संस्था के निर्माण की घोषणा की है। इस स्वतंत्र संस्था के निर्माण का प्रमुख उद्देश्य आम जनता समेत वित्त के गैर-परंपरागत स्रोतों से वित्त एकत्रित करना है। यह संस्था ‘गैर-परंपरागत स्रोतों से धन एकत्रित कर वैश्विक स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के प्रयासों का समर्थन करेगी।’ यह संस्था कानूनी तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) से अलग है। इस संस्था का लक्ष्य WHO के योगदानकर्त्ताओं के आधार को और अधिक व्यापक बनाना है और वित्तपोषण कार्यक्रम को अधिक स्थाई बनाना है। इस संस्था का मुख्यालय जिनेवा (Geneva) में स्थित है। यह संस्था विशेष तौर पर वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य ज़रूरतों को पूरा करने और स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत बनाने का कार्य करेगी। WHO एक अंतर-सरकारी संगठन है, जो अपने सदस्य राष्ट्रों के स्वास्थ्य मंत्रालयों के सहयोग से कार्य करता है। WHO वैश्विक स्वास्थ्य मामलों पर नेतृत्त्व प्रदान करते हुए स्वास्थ्य अनुसंधान संबंधी एजेंडा को आकार देता है तथा विभिन्न मानदंड एवं मानक निर्धारित करता है। इसकी स्थापना 7 अप्रैल, 1948 को की गई थी।
पंडित जवाहर लाल नेहरू
27 मई, 2020 को प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की 56वीं पुण्यतिथि के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रद्धांजलि अर्पित की। पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर, 1889 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में हुआ था। भारत से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे इंग्लैंड चले गए और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद वर्ष 1912 में वे भारत लौटे और राजनीति से जुड़ गए। वर्ष 1912 में उन्होंने एक प्रतिनिधि के रूप में बांकीपुर सम्मेलन में भाग लिया एवं वर्ष 1919 में इलाहाबाद के होम रूल लीग के सचिव बने। पंडित जवाहर लाल नेहरू सितंबर 1923 में अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस कमेटी के महासचिव बने। वर्ष 1929 में पंडित नेहरू भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन के लाहौर सत्र के अध्यक्ष चुने गए जिसका मुख्य लक्ष्य देश के लिये पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना था। उन्हें वर्ष 1930-35 के दौरान नमक सत्याग्रह एवं कई अन्य आंदोलनों के कारण कई बार जेल जाना पड़ा। नेहरू जी सर्वप्रथम वर्ष 1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए और गांधी जी से काफी अधिक प्रभावित हुए। नेहरु जी बच्चों से काफी अधिक प्रेम करते थे, जिसके कारण देश भर में प्रत्येक वर्ष नेहरू जी के जन्म दिवस (14 नवंबर) को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। चीन से युद्ध के बाद नेहरू जी के स्वास्थ्य में गिरावट आने लगी और 27 मई, 1964 को उनकी मृत्यु हो गई।
कोविद कथा
हाल ही में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science & Technology-DST) के तहत राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद (National Council for Science & Technology Communication-NCSTC) ने COVID-19 महामारी के संदर्भ में जन जागरूकता फैलाने के लिये ‘कोविद कथा’ के नाम से सभी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने वाली लोकप्रिय मल्टीमीडिया गाइड का हिंदी संस्करण जारी किया है। इसका अंग्रेज़ी संस्करण पहले ही इस महीने की शुरुआत में जारी किया जा चुका है। ‘कोविद कथा’ के हिंदी संस्करण से देश की हिंदी पट्टी के लोग भी इस महामारी से संबंधित जानकारी प्राप्त कर लाभांवित हो सकेंगे। इस मल्टीमीडिया गाइड में वैज्ञानिक संदेश और स्वास्थ्य अवधारणाओं को साधारण तरीके से समझाने का प्रयास किया गया है, साथ ही इसमें विज्ञान कार्टून (साइंटून्स-Scientoons) और हास्य का भी प्रयोग किया गया है। हिंदी के अतिरिक्त कोविद कथा का देश की अन्य भाषाओं जैसे- तमिल, बांग्ला और असमिया आदि में भी अनुवाद किया जा रहा है। मल्टीमीडिया तकनीकों और डिजिटल प्लेटफार्मों का उपयोग करके, COVID-19 के संबंध में सामान्य जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) के तहत ‘राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद’ ने लोगों को उपयुक्त ज्ञान एवं विश्वास के साथ महामारी को समझने तथा उससे निपटने में सहायता प्रदान करने के लिये इस मल्टीमीडिया गाइड को प्रस्तुत किया है।
आर्मी कमांडर्स कॉन्फ्रेंस
कुछ समय पूर्व अप्रैल 2020 में आयोजित होने वाली आर्मी कमांडर्स कॉन्फ्रेंस (Army Commanders' Conference) को COVID-19 महामारी के कारण स्थगित कर दिया गया था। अब इस सम्मेलन का आयोजन दो चरणों में किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि आर्मी कमांडर्स कॉन्फ्रेंस एक शीर्ष स्तर का आयोजन है, जिसे वर्ष में दो बार आयोजित किया जाता है। इस दौरान अवधारणाओं के स्तर पर विचार-विमर्श किया जाता है और महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों के साथ इसका समापन होता है। इस सम्मेलन का पहला चरण 27 से 29 मई, 2020 तक और दूसरा चरण जून 2020 के अंतिम सप्ताह में आयोजित किया जाएगा। इस सम्मेलन के दौरान भारतीय सेना का शीर्ष स्तर का नेतृत्त्व मौजूदा उभरती सुरक्षा एवं प्रशासनिक चुनौतियों पर विचार-विमर्श करेगा और भारतीय सेना के लिये भविष्य की रूपरेखा तय करेगा। इस सम्मेलन के पहले चरण में लॉजिस्टिक्स एवं मानव संसाधन से जुड़े अध्ययनों सहित परिचालन तथा प्रशासनिक मुद्दों से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की जाएगी।