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संयुक्त राष्ट्र की सार्वभौमिक सामयिक समीक्षा: एक अवलोकन

  • 27 Sep 2017
  • 15 min read

संदर्भ
हाल ही में भारत ने जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में 250 सिफारिशों में से 152 को स्वीकार कर लिया तथा शेष सिफारिशों को नोट कर लिया है। विदित हो कि ये सिफारिशें संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद सार्वभौमिक सामयिक समीक्षा (UN Human Rights Council Universal Periodic Review) में की गई थीं। इस लेख में हम यह देखेंगे कि ये सिफारिशें क्यों की गईं, किसके द्वारा की गईं और इनका औचित्य क्या है?

क्या है सार्वभौमिक सामयिक समीक्षा (Universal Periodic Review-UPR) ?

  • सार्वभौमिक सामयिक समीक्षा यानी यूपीआर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (एचआरसी) द्वारा स्थापित की गई एक प्रक्रिया है, जिसके तहत सार्वभौमिक मानवाधिकारों को बहाल करने के संबंध में 193 सदस्य देशों में से प्रत्येक के प्रदर्शन का समय-समय पर आकलन लिया जाता है।
  • संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2006 में एचआरसी की स्थापना की गई। दरअसल, एचआरसी के गठन से पहले जो व्यवस्था मौजूद थी उसमें अमेरिका जैसे शक्तिशाली देशों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के मोर्चे पर अपने मित्र देशों को बचा लिया जाता था। उदाहरण के लिये अमेरिका मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में इज़राइल को बचाता आ रहा था।
  • इन परिस्थितियों में अन्य देशों ने संयुक्त राष्ट्र में आपत्ति दर्ज़ कराई, तत्पश्चात् वर्ष 2006 में एचआरसी की स्थापना की गई। यूपीआर के तहत प्रत्येक देश एक-दूसरी देश के मानवाधिकारों के उल्लंघन से संबंधित आँकड़ों पर विचार करते हुए एक-दूसरी के लिये सिफारिशें कर सकते हैं।
  • गौरतलब है कि पहली यूपीआर वर्ष 2008 में हुई थी, दूसरी वर्ष 2012 में और तीसरी यूपीआर के संबंध में हम अभी चर्चा कर रहे हैं, जो कि अभी जारी है।

तीसरी यूपीआर से संबंधित महत्त्वपूर्ण बातें

  • इस वर्ष जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में 1 मई से 12 की अवधि के दौरान अन्य देशों के साथ भारत में मानवाधिकारों की रक्षा और इस संबंध में की गई प्रगति का आकलन किया गया।
  • यहाँ अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया, जिसमें विदेश मंत्रालय, गृह मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय सहित कुछ अन्य मंत्रालयों के अधिकारी शामिल थे।
  • विश्व समुदाय ने मानव अधिकारों को सुनिश्चित करने हेतु भारत को 250 सिफारिशों पर अमल करने को कहा। भारत की ओर से कहा गया कि वह ‘टॉर्चर के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन’ को मंज़ूरी देगा।

वर्तमान घटनाक्रम

  • मई 2017 के बाद 21 सितम्बर को भारत ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के समक्ष उपस्थिति दर्ज़ कराई और कहा कि 250 सिफारिशों में से 152 को उसने स्वीकार कर लिया तथा शेष को विचार के लिये नोट कर लिया है।
  • उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र की प्रक्रिया सिफारिशों को "अस्वीकार" करने की अनुमति नहीं देती है, इसलिये भारत ने कहा कि उसने इन्हें "नोट" कर लिया है। दरअसल, नोट करने का सीधा सा मतलब यही है कि भारत ने इन्हें "अस्वीकार" कर दिया है और विशेषज्ञों की मानें तो यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को शोभा नहीं देता है।
  • हालाँकि बाद में भारत ने सफाई देते हुए कहा है कि वह इन सिफारिशों को गंभीरता से ले रहा है और दो दशक से लम्बित पड़े हुए ‘संयुक्त राष्ट्र के टॉर्चर के विरुद्ध कन्वेंशन’ को अपनाने के लिये प्रतिबद्ध है।

यूपीआर में सिफारिशें तय करने की प्रक्रिया क्या है?

  • किसी देश में मानवाधिकारों की रक्षा और इस संबंध में की गई उसकी प्रगति के आकलन की प्रक्रिया अंतिम समीक्षा से एक वर्ष पहले ही शुरू हो जाती है।
  • पिछली समीक्षा, एनजीओ रिपोर्ट, मीडिया वाद-विवाद और विभिन्न संयुक्त राष्ट्र समितियों (उदाहरण के लिये महिलाओं के प्रति भेदभाव के सभी स्वरूपों के उन्मूलन पर कन्वेंशन) की रिपोर्ट के आधार पर सभी देश एक-दूसरी से सवाल-जवाब करते हैं।
  • चूँकि सभी देश एक-दूसरी के लिये सिफारिशें तय कर सकते हैं, अतः इन्हें जज के रूप में चयनित तीन देशों के पास भेज दिया जाता है। ये तीन देश जिस देश की समीक्षा की जाने वाली है उसके लिये प्रतिवेदक का कार्य करते हैं।
  • यह समीक्षा साढ़े तीन घंटे तक चलती है, सवाल पूछने वाले प्रत्येक देश को समीक्षा प्रक्रिया का सामना कर रहे देश से प्रश्न पूछने के लिये 90 सेकंड का समय दिया जाता है। तदोपरान्त उस देश के लिये सिफारिशें तय की जाती हैं और उस देश की युपीआर रिपोर्ट तैयार की जाती है।

किन मोर्चों पर सफल रहा है भारत?

  • भारत ने 2012 की समीक्षा के बाद कुछ अच्छे कदम उठाए हैं। दिल्ली में हुए एक क्रूर सामूहिक बलात्कार और हत्या से उपजे आक्रोश के बाद, सरकार ने यौन उत्पीड़न से निपटने के लिये आपराधिक न्याय अनुक्रिया को मज़बूत करने के लिये अपने आपराधिक कानूनों में संशोधन किया।
  • भारत ने अधिकारों की रक्षा  समेत बाल यौन उत्पीड़न मामलों पर मुकदमा चलाने और सर पर मैला ढोने की अपमानजनक और अमानवीय प्रथा को खत्म करने  के लिये नए कानून बनाए हैं।
  • दलित और आदिवासी समुदायों की सुरक्षा के लिये कानूनों में संशोधन किया गया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (एएफएसपीए), जिसका उपयोग आंतरिक संघर्ष को हल करने के लिये सेना तैनात करने में किया जाता है, जैसे कानूनों के तहत सुरक्षाबलों को मिली दण्ड मुक्ति (अभयदान) के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया है।
  • अदालत ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को तीसरी लिंग के रूप में भी मान्यता दी और अपने पहले के फैसले जिसमें समलैंगिकता को अपराध बताने वाले एक भेदभावपूर्ण औपनिवेशिक कानून को बरक़रार रखा गया था, की समीक्षा का आदेश दिया है।
  • राष्ट्रीय महिला आयोग ने सरकारी मानसिक आरोग्यशालाओं में मानसिक और बौद्धिक विकलांगता से ग्रस्त महिलाओं की स्थिति पर पहला अध्ययन किया।

किन मोर्चों पर है सुधार की ज़रूरत?

  • वर्ष 2012 के दूसरी यूपीआर समीक्षा के बाद जहाँ भारत ने कुछ महत्त्वपूर्ण सुधार किये हैं, वहीं यूपीआर से जुडी कई महत्त्वपूर्ण सिफारिशों को लागू करने में विफल भी रहा है।
  • विदित हो कि भारत सरकार ने अत्याचार और अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या सज़ा और इसके वैकल्पिक प्रोटोकॉल पर हुए कन्वेंशन की पुष्टि के लिये यूपीआर सिफारिश लागू नहीं की है।
  • साथ ही यह ज़बरन गुमशुदगी से सभी व्यक्तियों के संरक्षण के लिये अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन की मंज़ूरी के लिये सिफारिश लागू करने में भी विफल रहा है। 2008 में पहली यूपीआर में ये दोनों सिफारिशें की गई थीं। इसके आठ साल बाद,  भारत का प्रस्तावित उत्पीड़न रोकथाम विधेयक संसद में अभी भी लंबित पड़ा हुआ है।
  • कई भारतीय कानूनों के कारण दुर्व्यवहारों में संलिप्त सरकारी अधिकारियों पर मुकदमा चलाना बेहद मुश्किल हो गया है, जिससे  दण्ड मुक्ति की संस्कृति को बढ़ावा मिल रहा है।
  • अफ्स्पा (एएफएसपीए) के अंतर्गत आंतरिक संघर्ष वाले क्षेत्रों में तैनात सैन्य कर्मियों को अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान की जाती है। मुकदमा चलाने की अनुमति शायद ही कभी दी जाती है, भले ही जाँच में मानवाधिकारों के उल्लंघन के पुख्ता सबूत पाए गए हों।
  • संयुक्त राष्ट्र के विशेष संवाददाता ने मई 2015 में गैर-न्यायिक या निरंकुश हत्याओं पर रिपोर्ट पेश की थी और इस बात पर खेद  व्यक्त किया गया था कि भारत ने अफ्स्पा (एएफएसपीए) को निरस्त नहीं किया या उसमें कम-से-कम में ज़रूरी संशोधन नहीं किया है।

आगे की राह

  • भारत को चाहिये कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुशंसित पुलिस सुधार लागू करे और पुलिस दुर्व्यवहार के मामलों से निपटने के लिये शिकायत तंत्र की स्थापना करे। लंबित पड़े अत्याचार निवारण विधेयक को लागू करे, लेकिन इसके पहले यह सुनिश्चित करे कि यह अत्याचार के खिलाफ कन्वेंशन के अनुरूप हो। कानून में कोई ऐसा प्रावधान नहीं शामिल किया जाना चाहिये जो अधिकारियों को अभियोजन से प्रभावी सुरक्षा प्रदान करे।
  • मानवाधिकार रक्षकों के उत्पीड़न को रोके और एफसीआरए में संशोधन करे, ताकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संगठन बनाने के अधिकारों में हस्तक्षेप न करे और सिविल सोसायटी संगठनों की संरक्षित शांतिपूर्ण गतिविधियों को दबाने में इसका दुरुपयोग न हो।
  • देशद्रोह कानून को निरस्त करे और अंतरिम व्यवस्था के रूप में राज्य सरकारों को यह निर्देश दे कि इस कानून लागू करते समय सुप्रीम कोर्ट के कड़े नियमों का पालन करें।
  • दलितों, आदिवासी समूहों, धार्मिक अल्पसंख्यकों और अन्य वंचित समुदायों के खिलाफ दुर्व्यवहार को खत्म करने के लिये तत्काल कदम उठाए, उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये कानून और सरकारी नीतियों को लागू करने के लिये ठोस योजनाएँ बनाए और वैसे विकास कार्यक्रमों की निगरानी करे जिनके लाभ लक्षित समूहों तक नहीं पहुँच पाए हैं।
  • सर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने की अपनी वचनबद्धता को पूरा करे और वह इस प्रथा को ख़त्म करने के लिये मौजूदा निगरानी तंत्र को चुस्त–दुरुस्त करे।
  • एलजीबीटी समूह के अधिकारों की रक्षा करे। भारत को चाहिये कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377, जो कि वयस्कों के बीच सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को अपराध मानती है, को खत्म करे।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2016 को ट्रांसजेंडर समुदायों के साथ परामर्श के बाद इसे अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून और भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुरूप बनाने के लिये संशोधित करे।

निष्कर्ष

  • मनुष्य होने नाते मिलने वाला प्रत्येक अधिकार मानवाधिकार की श्रेणी में आता है। द्वितीय विश्व युद्ध में लोगों के अधिकारों का अत्यधिक हनन हुआ था। ऐसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानव के अधिकारों के संरक्षण के उद्देश्य से 10 दिसंबर 1948 को सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा-पत्र को आधिकारिक मान्यता प्रदान की थी।
  • भारत का संविधान भी देश के सभी नागरिकों को बराबरी और सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार प्रदान करता है। देश के सभी नागरिकों को एक समान मानता है और उन्हें एक समान अधिकार प्रदान करता है। साथ ही साथ मानवों के अधिकारों के संरक्षण के लिये समय-समय पर सख्त कदम भी उठाता रहा है।
  • ‘सार्वभौमिक सामयिक समीक्षा’ यानी यूपीआर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (एचआरसी) द्वारा स्थापित वह प्रक्रिया है जो मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने में हमें आगे की राह बताता है तो साथ ही साथ उल्लंघन के मामलों में आइना भी दिखाता है। हालाँकि भारत ने इस संबंध में उल्लेखनीय प्रगति की है, लेकिन अभी भी हमें एक लम्बा रास्ता तय करना है।
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