शासन व्यवस्था
CrPC की धारा 144
चर्चा में क्यों?
कोविड-19 मामलों की बढ़ती संख्या के कारण गुरुग्राम में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 144 लागू की गई है।
- धारा 144 का प्रयोग प्रायः दूरसंचार सेवाओं को बंद करने और इंटरनेट शटडाउन का आदेश जारी करने के लिये किया जाता रहा है।
प्रमुख बिंदु:
धारा 144:
- यह धारा भारत में किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के मजिस्ट्रेट को एक निर्दिष्ट क्षेत्र में चार या अधिक लोगों के एकत्रित होने पर रोक लगाने के आदेश को पारित करने का अधिकार देती है।
- धारा 144 ज़िला मजिस्ट्रेट, उप-विभागीय मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार द्वारा किसी कार्यकारी मजिस्ट्रेट को हिंसा या उपद्रव की स्थिति में तात्कालिक प्रावधान लागू करने का अधिकार प्रदान करती है।
- यह आदेश किसी व्यक्ति विशिष्ट या आम जनता के विरुद्ध पारित किया जा सकता है।
धारा 144 की विशेषताएँ:
- यह धारा, एक विशिष्ट अधिकार क्षेत्र में किसी भी तरह के हथियार को रखने या उसके आदान-प्रदान पर प्रतिबंध लगाती है। ऐसे कृत्य के लिये अधिकतम तीन वर्ष की सज़ा दी जा सकती है।
- इस धारा के तहत जारी आदेश के मुताबिक, आम जनता के आवागमन पर प्रतिबंध लग जाएगा तथा सभी शैक्षणिक संस्थान भी बंद रहेंगे।
- इसके अलावा इस आदेश के संचालन की अवधि के दौरान किसी भी तरह की जनसभा या रैलियाँ आयोजित करने पर पूर्ण प्रतिबंध होगा।
- कानून प्रवर्तन एजेंसियों को किसी गैर-कानूनी सभा को भंग करने से रोकना दंडनीय अपराध माना जाता है।
- यह धारा अधिकारियों को क्षेत्र में इंटरनेट पहुँच को अवरुद्ध करने यानी इंटरनेट शटडाउन का आदेश देने का अधिकार देती है।
- धारा 144 का अंतिम उद्देश्य उन क्षेत्रों में शांति और व्यवस्था बनाए रखना है, जहाँ आम जनमानस के नियमित जीवन को बाधित करने संबंधी चुनौतियाँ मौजूद हैं।
धारा 144 की अवधि:
- इस धारा के तहत जारी कोई भी आदेश सामान्यतः 2 माह से अधिक समय तक लागू नहीं रह सकता है।
- हालाँकि इस अवधि की समाप्ति के बाद राज्य सरकार के विवेकाधिकार के तहत आदेश की अवधि को दो और माह के लिये बढाया जा सकता है, किंतु इसकी अधिकतम अवधि छह माह से अधिक नहीं हो सकती है।
- एक बार स्थिति सामान्य हो जाने के बाद धारा 144 हटाई जा सकती है।
धारा 144 और कर्फ्यू के बीच अंतर:
- धारा-144 संबंधित क्षेत्र में चार या अधिक लोगों के एकत्रित होने पर रोक लगाती है, जबकि कर्फ्यू के तहत लोगों को एक विशेष अवधि के दौरान घर के अंदर रहने के निर्देश दिये जाते हैं। सरकार यातायात पर भी पूर्ण प्रतिबंध लगा देती है।
- बाज़ार, स्कूल, कॉलेज और कार्यालय कर्फ्यू के तहत बंद रहते हैं और केवल आवश्यक सेवाओं को पूर्व-सूचना पर चलने की अनुमति होती है।
धारा 144 की आलोचना:
- प्रायः आलोचक इस धारा को काफी व्यापक मानते हैं और इसके क्रियान्वयन में ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा अपनी शक्ति के दुरुपयोग की आशंका के कारण इसकी आलोचना की जाती है।
- इस तरह के आदेश के विरुद्ध स्वयं मजिस्ट्रेट को एक ‘संशोधन आवेदन’ दिये जाने से अधिक कुछ नहीं किया जा सकता है।
- इस कानून के अंतर्गत व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, इसलिये भी इस कानून की आलोचना की जाती है। यद्यपि मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायालय जाने का विकल्प सदैव रहता है।
धारा 144 पर न्यायालय की राय:
- वर्ष 1967 में राम मनोहर लोहिया मामले में इस कानून को पुनः न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई, जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया और इस कानून के पक्ष में कहा कि “कोई भी लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता यदि उस देश के किसी एक वर्ग के लोगों को आसानी से लोक व्यवस्था को नुकसान पहुँचाने दिया जाए”।
- एक अन्य हालिया निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस धारा का प्रयोग नागरिकों को शांति से एकत्रित होने के मौलिक अधिकार पर प्रतिबंध लगाने के लिये नहीं किया जा सकता है, इसे किसी भी लोकतांत्रिक अधिकारों की राय या शिकायत की वैध अभिव्यक्ति को रोकने के 'उपकरण' के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
आगे की राह:
- धारा 144 आपात स्थिति से निपटने में मदद करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है, किंतु इसका अनुचित प्रयोग इस संबंध में चिंता उत्पन्न करता है।
- इस धारा को लागू करने से पूर्व मजिस्ट्रेट को जाँच करनी चाहिये और मामले की तात्कालिकता को दर्ज करना चाहिये।
- आकस्मिक स्थितियों से निपटने के लिये विधायिका द्वारा परिपूर्ण शक्तियों के अनुदान और मौलिक अधिकारों के तहत नागरिकों को दी गई व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा अन्य प्रकार की स्वतंत्रताओं की रक्षा करने की आवश्यकता के बीच संतुलन स्थापित किया जाना महत्त्वपूर्ण है।
स्रोत- द हिंदू
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
कोविड-19 संक्रमण की दूसरी लहर: कारण
चर्चा में क्यों?
कोविड-19 संक्रमण की दूसरी लहर ने देश को गंभीर रूप से प्रभावित किया है और इसे संक्रमण की पहली लहर की तुलना में कहीं अधिक विनाशकारी माना जा रहा है।
- दूसरी लहर के दौरान संक्रमण के मामलों में तीव्रता से वृद्धि देखने को मिल रही है।
प्रमुख बिंदु:
नियमों का उल्लंघन:
- जैसे ही संक्रमण के मामलों में कमी आना शुरू हुई, लोगों द्वारा फेस मास्क लगाने, नियमित रूप से हाथ धोने, उचित दूरी बनाने जैसे नियमों की अनदेखी की गई।
- जनवरी, 2021 तक संक्रमण के मामलों के बावजूद लोग व्यापक स्तर पर एकत्रित होने लगे और सामाजिक सभाओं का आयोजन किया जाने लगा।
- सरकार द्वारा नियमों में ढील दी गई तथा उल्लंघन की स्थिति में किसी भी प्रकार का कोई जुर्माना लगाए जाने के प्रावधानों को भी सीमित कर दिया गया। पूरे देश में इसी प्रकार का एक क्रम देखने को मिला, जो कोरोना वायरस की दूसरी और संभवतः अधिक खतरनाक लहर का कारण बना।
सरकार द्वारा नियमों के पालन में ढील:
- मतदान केंद्रों के बाहर लगी लंबी कतारों और सभी दलों की चुनावी रैलियों के दौरान कोविड-19 से संबंधित प्रोटोकॉल और नियम-कानूनों को दरकिनार कर दिया गया, जिससे जनता और ज़मीनी स्तर पर कार्य करने वाले अधिकारियों के मध्य एक भ्रमक संदेश का प्रचार हुआ, जिसने महामारी के विरुद्ध सभी सुरक्षा उपायों को कमज़ोर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
शहरी गतिशीलता:
- भारत में कोविड-19 के 1.2 करोड़ से अधिक मामले दर्ज किये गए हैं, जिसमें महामारी का प्रकोप अधिकांशतः शहरों, विशेष रूप से बड़े शहरों में देखने को मिला है, क्योंकि इन शहरों में अधिक गतिशीलता के कारण वायरस आसानी से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में प्रसारित हो जाता है।
कंटेनमेंट ज़ोन:
- संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान ‘कंटेनमेंट ज़ोन’ के निर्धारण संबंधी नियमों का सख्ती से पालन नहीं किया जा रहा है। शहरों में, सरकार द्वारा अधिकारियों से ‘माइक्रो-कंटेनमेंट’ (Micro-Containment) की अवधारणा को अपनाने के लिये कहा जा रहा है, जिसके तहत प्रायः एक मंजिल या एक घर को ही ‘कंटेनमेंट ज़ोन’ के रूप में परिभाषित किया जाता है।
- इससे पहले, वायरस के प्रसार की संभावना को कम करने हेतु एक पूरे अपार्टमेंट या एक संपूर्ण क्षेत्र को ‘कंटेनमेंट ज़ोन’ घोषित किया जाता था।
उत्परिवर्तन:
- मानव कारकों के अलावा, कोरोना वायरस में हुआ उत्परिवर्तन (Mutation) दूसरी लहर के प्रमुख कारणों में से है। वैज्ञानिकों ने SARS-CoV-2 (कोविड-19 की उत्पत्ति के लिये उत्तरदायी वायरस) के कई उत्परिवर्तित संस्करणों की खोज की है। इनमें हुए कुछ उत्परिवर्तन ‘वैरिएंट्स ऑफ कंसर्न’ (Variants of Concern- VOC) की उत्पत्ति का कारण है।
- भारत में कई राज्यों में VOCs को रिपोर्ट किया गया है, जिसमें दूसरी लहर के दौरान सबसे अधिक प्रभावित राज्य भी शामिल हैं।
- भारत में पहली बार खोजे गए B1.671 वेरिएंट के L452R म्युटेशन को भी बढ़ते हुए संक्रमण मामलों का कारण माना जा रहा है।
‘वेरिएंट ऑफ कंसर्न’ (VOC):
ये वायरस के ऐसे वेरिएंट हैं, जिनके संबंध में संक्रामकता में वृद्धि, अधिक गंभीर संक्रमण (अस्पतालों में भर्ती होने वाले मामलों अथवा मौत की में वृद्धि), पिछले संक्रमण या टीकाकरण के दौरान उत्पन्न एंटीबॉडी के न्यूनीकरण, उपचार या टीके की प्रभावशीलता में कमी या परीक्षण की विफलता से संबंधित प्रमाण मौजूद हैं।
परीक्षण में वृद्धि:
- परीक्षणों की संख्या में हो रही बढ़ोतरी के कारण भी भारत में कोविड -19 महामारी की दूसरी लहर में अधिक मामलें सामने आ रहे हैं।
- सीरो-सर्वेक्षणों (Sero-Surveys) से पता चला है कि भारत में कोरोना वायरस का असल जोखिम प्रयोगशाला परीक्षणों के आधार पर सामने आए संक्रमण के मामलों से कहीं अधिक है।
- पहले लोग कोविड -19 परीक्षण कराने के प्रति कम इच्छुक थे, लेकिन अब कोविड-19 परीक्षण की आसान उपलब्धता, अस्पतालों में रोग-प्रबंधन में सुधार तथा कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम के रोलआउट ने लोगों को परीक्षण कराने के लिये अधिक प्रेरित किया है।
स्पर्शोन्मुख वाहक:
- स्पर्शोन्मुख वाहक (Asymptomatic Carrier) का अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से होता है, जो वायरस से संक्रमित तो हो चुका है, किंतु उसमें रोग से संबंधित कोई भी लक्षण दिखाई नहीं देता है। भारत में 80-85 प्रतिशत लोग स्पर्शोन्मुख वाहक हैं।
अपर्याप्त स्वास्थ्य ढाँचा:
- भारत अपनी स्वास्थ्य देखभाल अवसंरचना को बढ़ाने और तीव्रता के साथ टीकाकरण करने के कार्य में भी विफल रहा।
- उदाहरण: ऑक्सीजन की कमी और अस्पतालों में बेड की कमी।
आगे की राह:
- वायरस के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के दो ही उपाय हैं, जिसमें पहला उपाय स्वयं वायरस से संक्रमण है तथा दूसरा उपाय टीकाकरण है, अत: ऐसे में यह आवश्यक है कि देश भर में टीकाकरण कार्यक्रम को तीव्रता से लागू किया जाए, किंतु ऐसे में परीक्षण भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है।
- दैनिक परीक्षणों की संख्या में वृद्धि किया जाना और उनकी निरंतर निगरानी की जानी भी महत्त्वपूर्ण है।
- सुरक्षा प्रोटोकॉल का नए सिरे से पालन किये जाने की आवश्यकता है। ज़बरन लॉकडाउन की अब आवश्यक नहीं हैं। हालाँकि, मामलों की मैपिंग, वार्ड/ब्लॉक वार संकेतकों की समीक्षा, 24x7 आपातकालीन संचालन केंद्र और सूचनाओं को समय पर साझा करने संबंधी तंत्र विकसित करने के साथ ज़िला स्तर पर एक कार्य योजना बनाए जाने की भी आवश्यकता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
#FOSS4GOV इनोवेशन चैलेंज
चर्चा में क्यों?
हाल ही में इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) ने सरकार में फ्री एंड ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर (FOSS) को प्रचालित करने में तेज़ी लाने के लिये #FOSS4GOV इनोवेशन चैलेंज की घोषणा की है।
प्रमुख बिंदु:
फ्री एंड ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर (FOSS):
- FOSS सॉफ्टवेयर निशुल्क नहीं है।
- शब्द "मुफ्त या फ्री" इंगित करता है कि सॉफ्टवेयर के कॉपीराइट पर कोई रुकावट नहीं है।
- इसका अर्थ है कि सॉफ़्टवेयर का सोर्स कोड सभी के लिये खुला है और कोई भी कोड का उपयोग, अध्ययन और संशोधन करने के लिये स्वतंत्र है।
- यह अन्य लोगों को भी सॉफ्टवेयर (एक समुदाय की तरह) के विकास और सुधार में योगदान करने की अनुमति देता है ।
- इस फ्री एंड ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर को फ्री/लिब्रे ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर (FLOSS) या फ्री/ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर (F/OSS) के रूप में भी जाना जाता है।
- FOSS के उदाहरणों में MySQL, Firefox, Linux आदि शामिल हैं।
- सॉफ्टवेयर की अन्य श्रेणियाँ 'क्लोज़्ड सोर्स सॉफ्टवेयर' है।
- सॉफ्टवेयर जो संपदा या स्वामित्व के साथ जटिल सुरक्षा कोड का उपयोग करता है।
- केवल मूल उपयोगकर्त्ता के पास उस सॉफ्टवेयर को एक्सेस करने, कॉपी करने और बदलने का अधिकार है।
- इसका अभिप्राय यह है कि उपयोगकर्त्ता किसी सॉफ्टवेयर की खरीद नहीं करता है बल्कि केवल इसका उपयोग करने के लिये भुगतान करता है।
चुनौतियाँ:
- ये कार्यक्रम सरकारी प्रौद्योगिकियों (GovTech) के महत्वपूर्ण मुद्दों के समाधान के लिये FOSS समुदाय की नवाचार क्षमता और स्टार्ट-अप्स का उपयोग करेगा।
- इस कार्यक्रम के तहत मंत्रालय ने FOSS इनोवेटर्स, प्रौद्योगिकी उद्यमियों और भारतीय स्टार्ट-अप्स से आह्वान किया कि वे स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि आदि में Govtech के लिये संभावित अनुप्रयोगों के साथ CRM और ERP में इस्तेमाल किये जाने वाले ओपन सोर्स उत्पाद नवाचारों को प्रस्तुत करें।
- CRM का अभिप्राय "ग्राहक संबंध प्रबंधन"(Customer Relationship Management) है।
- ERP का अभिप्राय उद्यम संसाधन योजना (Enterprise Resource Planning) है। यह एक कंप्यूटर सॉफ्टवेयर प्रणाली है जिसका उपयोग संगठन में साझा डाटा भंडारों द्वारा सभी संसाधनों, सूचना और व्यापार संबंधी प्रकार्यों (मुख्य आपूर्ति श्रृंखला, विनिर्माण, सेवाएँ, वित्त) के समन्वय और प्रबंधन हेतु होता है।
- यह GovTech 3.0 का एक प्रमुख घटक है जो FOSS में सुरक्षित और समावेशी मुक्त डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र (ODEs) के निर्माण को बढ़ावा देते है।
- इस चैलेंज में भाग लेने वाले प्रतिभागियों को व्यावसायिक सहायता, पुरस्कार राशि, संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञों द्वारा मेंटरशिप, विचारों को व्यावसायिक तरीके से लागू करने के लिये प्रख्यात संगठनों से संस्थागत सहायता और गवर्नमेंट ई-मार्केटप्लेस (GeM) पर समाधानों को सूचीबद्ध करने के लिये पात्रता दी जाएगी।
महत्त्व:
- भारत में 4G डेटा ग्राहकों की बड़ी संख्या के कारण, फ्री एंड ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर (FOSS) इनोवेशन के लिये भारत एक प्रभावशाली केंद्र बन गया है।
- भारत में 96 फीसदी उपभोक्ता ओपन-सोर्स आधारित मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम (मुख्य रूप से एंड्रॉयड) के माध्यम से डिजिटल दुनिया तक पहुँच बनाते हैं।
- भारत की कुछ बड़ी सरकारी परियोजनाओं (आधार सहित) और कई प्रौद्योगिकी आधारित स्टार्ट-अप्स को भी FOSS की मदद से विकसित किया गया है।
अन्य संबंधित पहल:
- भारत सरकार ने वर्ष 2015 में ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर को अपनाने की दिशा में एक नीति जारी की थी।
- शिक्षा के लिए फ्री एंड ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर (FOSSEE) परियोजना : यह शिक्षण संस्थानों में ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर के उपयोग को बढ़ावा देने वाली परियोजना है। यह निर्देशात्मक सामग्री (स्पोकन ट्यूटोरियल), डॉक्यूमेंटेशन, (टेक्स्ट बुक सामग्री), जागरूकता कार्यक्रम (कॉन्फ्रेंस, ट्रेनिंग वर्कशॉप और इंटर्नशिप) के माध्यम से कराया जाता है।
- सरकार ने आरोग्य सेतु ऐप के एंड्रॉयड वर्ज़न को भी ओपन सोर्स के माध्यम से बनाया है।
GovTech 3.0
- Gov Tech 1.0 आयकर प्रक्रियाओं को ऑनलाइन करने जैसी मैनुअल प्रक्रियाओं के ‘कंप्यूटरीकरण’ का युग था।
- Gov Tech 2.0 तकनीकी विकास को प्रोत्साहित करते हुए एंड-टू-एंड प्रक्रियाओं को डिजिटाइज़ करता था, जैसे- सरकार की ‘ई-ऑफिस’ फ़ाइल प्रबंधन प्रणाली।
- Gov Tech 3.0 मुक्त डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र (ODEs) पर केंद्रित है। यह सरकार को ‘डिजिटल कॉमन्स’ बनाने पर ध्यान केंद्रित करने के लिये प्रोत्साहित करता है।
- यह डिजिटल अवसंरचना बनाकर सरकार को सुविधाओं का आपूर्तिकर्त्ता बनाने की परिकल्पना करता है, जिस पर इनोवेटर्स जनता की भलाई के लिये सहयोग कर सकते हैं। उदाहरण- सार्वजनिक व निज़ी भागीदारी के माध्यम से तैयार किया गया आरोग्य सेतु एप
- मुक्त डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र (ODEs) खुले और सुरक्षित वितरण प्लेटफार्मों के माध्यम से डिजिटल प्रशासन को सक्षम करने के लिये एक राष्ट्रीय रणनीति है, जिसका उद्देश्य नागरिकों, व्यवसायों और सरकार के बीच प्रौद्योगिकी सहयोग को बढ़ाकर सामाजिक क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन लाना है।
- कई पथ-प्रदर्शक ODE भारत में पहले से ही संचालित है: वित्तीय सेवाओं के लिये एकीकृत भुगतान इंटरफेस (UPI); शिक्षकों के लिये नेशनल डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर DIKSHA इत्यादि।
स्रोत- पीआईबी
भारतीय विरासत और संस्कृति
महावीर जयंती
चर्चा में ?
हाल ही में प्रधानमंत्री ने ‘महावीर जयंती' (25 अप्रैल, 2021) के अवसर पर देशवासियों को शुभकामनाएं दीं।
- ‘महावीर जयंती’ जैन समुदाय के सबसे प्रमुख त्योहारों में से एक है।
प्रमुख बिंदु:
महावीर जयंती:
- यह दिवस वर्धमान महावीर के जन्म का प्रतीक है। वर्धमान महावीर जैन समुदाय के 24वें तथा अंतिम तीर्थंकर थे, जिन्हें 23वें तीर्थंकर, पार्श्वनाथ (Parshvanatha) के उत्तराधिकारी के रूप में जाना जाता है।
- जैन ग्रंथों के अनुसार, भगवान महावीर का जन्म चैत्र माह में चंद्र पक्ष के 13वें दिन (तेरस) हुआ था।
- ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार, यह दिन प्रायः मार्च या अप्रैल माह में आता है।
- उत्सव: इस दिन भगवान महावीर की मूर्ति के साथ एक जुलूस यात्रा का आयोजन किया जाता है, जिसे ‘रथ यात्रा’ (Rath Yatra) कहा जाता है। स्तवन या जैन प्रार्थनाओं (Stavans or Jain Prayers) को करते हुए, भगवान की प्रतिमाओं को औपचारिक स्नान कराया जाता है, जिसे ‘अभिषेक’ (Abhishek) कहा जाता है।
भगवान महावीर:
- भगवान महावीर का जन्म 540 ईसा पूर्व में ‘वज्जि साम्राज्य’ में कुंडग्राम के राजा सिद्धार्थ और लिच्छवी राजकुमारी त्रिशला के यहाँ हुआ था। वज्जि संघ आधुनिक बिहार में वैशाली क्षेत्र के अंतर्गत आता है।
- भगवान महावीर ‘इक्ष्वाकु वंश’ (Ikshvaku dynasty) से संबंधित थे।
- बचपन में भगवान महावीर का नाम वर्धमान था, जिसका अर्थ होता है ‘जो बढ़ता है’।
- उन्होंने 30 वर्ष की आयु में सांसारिक जीवन को त्याग दिया और 42 वर्ष की आयु में उन्हें 'कैवल्य' यानी सर्वज्ञान की प्राप्ति हुई।
- महावीर ने अपने शिष्यों को अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (शुद्धता) तथा अपरिग्रह (अनासक्ति) का पालन करने की शिक्षा दी और उनकी शिक्षाओं को ‘जैन आगम’ (Jain Agamas) कहा गया।
- प्राकृत भाषा के प्रयोग के कारण प्रायः आम जनमानस भी महावीर और उनके अनुयायियों की शिक्षाओं एवं उपदेशों को समझने में समर्थ थे।
- महावीर को बिहार में आधुनिक राजगीर के पास पावापुरी नामक स्थान पर 468 ईसा पूर्व में 72 वर्ष की आयु में निर्वाण (जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति) प्राप्त हुआ।
जैन धर्म
- जैन शब्द की उत्पत्ति ‘जिन’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है ‘विजेता’।
- ‘तीर्थंकर’ एक संस्कृत शब्द है, जिसका प्रयोग संसार सागर से पार लगाने वाले ‘तीर्थ’ के प्रवर्तक के लिये किया जाता है।
- जैन धर्म में अहिंसा को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है।
- यह 5 महाव्रतों (5 महान प्रतिज्ञाओं) का प्रचार करता है:
- अहिंसा
- सत्य
- अस्तेय (चोरी न करना)
- अपरिग्रह (अनासक्ति)
- ब्रह्मचर्य (शुद्धता)
- इन 5 शिक्षाओं में, ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचर्य/शुद्धता) को महावीर द्वारा जोड़ा गया था।
- जैन धर्म के तीन रत्नों या त्रिरत्न में शामिल हैं:
- सम्यक दर्शन (सही विश्वास)।
- सम्यक ज्ञान (सही ज्ञान)।
- सम्यक चरित्र (सही आचरण)।
- जैन धर्म अपनी सहायता स्वयं ही करने पर बल देता है।
- इसके अनुसार, कोई देवता या आध्यात्मिक प्राणी नहीं हैं, जो मनुष्य की सहायता करेंगे।
- यह वर्ण व्यवस्था की निंदा नहीं करता है।
- बाद के समय में, यह दो संप्रदायों में विभाजित हो गया:
- स्थलबाहु के नेतृत्व में ‘श्वेतांबर’ (श्वेत-पाद)।
- भद्रबाहु के नेतृत्व में ‘दिगंबर’ (आकाश-मंडल)।
- जैन धर्म में महत्वपूर्ण विचार यह है कि संपूर्ण विश्व सजीव है: यहाँ तक कि पत्थरों, चट्टानों और जल में भी जीवन है।
- जीवित प्राणियों, विशेष रूप से मनुष्यों, जानवरों, पौधों और कीटों के प्रति अहिंसा का भाव जैन दर्शन का केंद्र बिंदु है।
- जैन शिक्षाओं के अनुसार, जन्म और पुनर्जन्म का चक्र कर्मों से निर्धारित होता है।
- कर्म के चक्र से स्वयं और आत्मा की मुक्ति के लिये तपस्या और त्याग की आवश्यकता होती है।
- ‘संथारा’ जैन धर्म का एक अभिन्न हिस्सा है।
- यह आमरण अनशन की एक अनुष्ठान विधि है। श्वेतांबर जैन इसे ‘संथारा’ कहते हैं, जबकि दिगंबर इसे ‘सल्लेखना’ कहते हैं।
स्रोत: पी.आई.बी.
भारतीय अर्थव्यवस्था
वेज़ और मीन्स एडवांस
चर्चा में क्यों?
कोविड-19 की व्यापकता के कारण, भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (UTs) के लिये 51,560 करोड़ रुपए के मौजूदा अंतरिम वेज़ और मीन्स एडवांस (WMA) सीमा को 30 सितंबर, 2021 तक जारी रखने का निर्णय लिया।
प्रमुख बिंदु:
वेज़ और मीन्स एडवांस के बारे में:
- लॉन्च: WMA योजना वर्ष 1997 में शुरू की गई थी।
- उद्देश्य: सरकार की प्राप्तियों और भुगतान के नकदी प्रवाह में अस्थायी बेमेल को दूर करने के लिये।
- विशेषताएँ:
- यदि आवश्यक हो तो सरकार भारतीय रिज़र्व बैंक से तत्काल नकद ले सकते हैं, लेकिन उसे 90 दिनों के अंदर यह राशि लौटानी होगी। इसमें ब्याज मौजूदा रेपो दर पर लिया जाता है ।
- भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 की धारा 17 (5) केंद्रीय बैंक को केंद्र और राज्य सरकारों को उधार देने के लिये अधिकृत करता है , जो उनके देय ( अग्रिम के निर्माण की तारीख से तीन महीने बाद नहीं) के अधीन है।
- रेपो दर वह दर है जिस पर किसी देश का केंद्रीय बैंक (भारत के मामले में भारतीय रिज़र्व बैंक) किसी भी तरह की धनराशि की कमी होने पर वाणिज्यिक बैंकों को अल्पकालिक धन देता है।
- यदि WMA 90 दिनों से अधिक हो जाता है , तो इसे ओवरड्राफ्ट के रूप में माना जाएगा ( ओवरड्राफ्ट पर ब्याज दर रेपो दर से 2 प्रतिशत अधिक है)।
- WMA (केंद्र के लिये) की सीमा सरकार और RBI द्वारा पारस्परिक रूप से और समय-समय पर संशोधित की जाती है।
- एक उच्च सीमा तक सरकार को RBI से (बाज़ार से उधार लिये बिना) ऋण लेने की सुविधा प्रदान करती है।
- यदि आवश्यक हो तो सरकार भारतीय रिज़र्व बैंक से तत्काल नकद ले सकते हैं, लेकिन उसे 90 दिनों के अंदर यह राशि लौटानी होगी। इसमें ब्याज मौजूदा रेपो दर पर लिया जाता है ।
प्रकार:
- वेज़ और मीन्स एडवांस दो प्रकार के होते हैं- सामान्य और विशेष।
- राज्य द्वारा आयोजित सरकारी प्रतिभूतियों के संपार्श्विक के खिलाफ एक विशेष WMA या विशेष आहरण सुविधा प्रदान की जाती है।
- राज्य द्वारा SDF की सीमा समाप्त हो जाने के बाद, यह सामान्य WMA हो जाता है।
- SDF के लिये ब्याज दर रेपो दर से एक प्रतिशत कम है।
- सामान्य WMA के तहत ऋण की संख्या राज्य के वास्तविक राजस्व और पूंजीगत व्यय के तीन साल के औसत पर आधारित है।
महत्त्व:
- कोविड -19 के प्रभाव से राज्यों की नकदी प्रवाह समस्याओं में वृद्धि हुई है, इस प्रकार कई राज्यों को चुनौतियों से निपटने के लिये तत्काल और बड़े वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता है, जिनमें चिकित्सा परीक्षण, स्क्रीनिंग और ज़रूरतमंदों को आय और खाद्य सुरक्षा प्रदान करना शामिल है।
- राज्य सरकार की प्रतिभूतियों (राज्य विकास ऋण) या अल्पकालिक वित्तपोषण के लिये वित्तीय संस्थानों से ऋण लेने के लिये WMA बाज़ारों से अधिक समयावधि के लिये फंड जुटाने का एक विकल्प हो सकता है। WMA फंडिंग बाज़ारों से ऋण लेने की तुलना में बहुत सस्ता है।
अन्य संबंधित निर्णय:
- राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा उपयोग की जाने वाली विशेष आहरण सुविधा (SDF) उनके नीलामी ट्रेज़री बिल (ATBs) समेत भारत सरकार के प्रतिभूतियों में निवेश की मात्रा से जुड़ी रहेगी।
- समेकित सिंकिंग फंड (CSF) और गारंटी रिडेंपशन फंड (GRF) में शुद्ध रूप से वार्षिक आधार पर निवेश में वृद्धि, विशेष आहरण सुविधा का लाभ लेने के लिये पात्र होगा।
नीलामी ट्रेज़री बिल (ATBs)
- ये भारत सरकार द्वारा एक दिनांकित गारंटीकृत भुगतान के साथ एक वचन पत्र के रूप में जारी किये गए मनी मार्केट इंस्ट्रूमेंट्स हैं ।
- इस तरह की प्रणाली के माध्यम से एकत्रित धन का उपयोग आमतौर पर सरकार की अल्पकालिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये किया जाता है, जिससे किसी देश के समग्र राजकोषीय घाटे को कम किया जा सके।
समेकित सिंकिंग फंड (CSF)
- CSF की स्थापना 1999-2000 में RBI द्वारा राज्यों को बाज़ार ऋणों से मुक्त करने के लिये की गई थी।
- प्रारंभ में, 11 राज्यों ने सिकिंग निधि की स्थापना की गई। बाद में, 12वें वित्त आयोग (2005-10) ने सिफारिश की कि सभी राज्यों के पास सभी ऋणों के परिशोधन के लिये धनराशि होनी चाहिये, जिसमें बैंकों से ऋण, राष्ट्रीय लघु बचत निधि (NSSF) के खाते पर देयताएँ आदि शामिल हैं।
- निधि को राज्यों और सार्वजनिक खाते की समेकित निधि से बाहर रखा जाना चाहिये।
- इसका उपयोग ऋण परिशोधन के अलावा किसी अन्य उद्देश्य के लिये नहीं किया जाना चाहिये।
- योजना के अनुसार, राज्य सरकारें प्रत्येक वर्ष कोष में बकाया बाज़ार ऋण का 1-3% योगदान कर सकती हैं।
- इस कोष का संचालन आरबीआई नागपुर के केंद्रीय लेखा अनुभाग द्वारा किया जाता है।
गारंटी रिडेंपशन फंड (GRF)
- केंद्र सरकार द्वारा केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (CPSE), वित्तीय संस्थानों आदि को जब भी ऐसी गारंटी दी जाती है, तो गारंटी से छुटकारा पाने के लिये 1999-2000 से भारत के सार्वजनिक खाते में एक गारंटी रिडम्पशन फंड (GRF) की स्थापना की गई है।
- बजट अनुमानों (BE) में एक वार्षिक प्रावधान के साथ बजटीय विनियोजन के माध्यम से निधि दी जाती है।
- बारहवें वित्त आयोग की सिफारिशों पर पंद्रह राज्यों ने गारंटी रिडम्पशन फंड की स्थापना की है।
- यह निधि सार्वजनिक खाते में राज्यों के समेकित कोष के बाहर रखी गई है और इसका उपयोग ऋण से छुटकारा पाने के अलावा किसी अन्य उद्देश्य के लिये नहीं किया जाना है। यह सुव्यवस्थित राजकोषीय शासन सुनिश्चित करता है।
स्रोत- द हिंदू
कृषि
भू-जल रिक्तीकरण और फसल गहनता
चर्चा में क्यों?
एक हालिया अध्ययन में पाया गया है कि भारत में आने वाले वर्षों में भू-जल की कमी से सर्दियों में होने वाली फसलों की उत्पादकता में काफी कमी आ सकती है।
- शोधकर्त्ताओं ने शीतकालीन फसली क्षेत्रों पर भारत के तीन मुख्य सिंचाई प्रकारों (कुआँ, नलकूप और नहर) का अध्ययन किया है।
- इसके अलावा शोधकर्त्ताओं ने केंद्रीय भू-जल बोर्ड (Central Ground Water Board) से प्राप्त भू-जल आँकड़ों का भी विश्लेषण किया है।
- सर्दियों में उगाए जाने वाली प्रमुख फसलों में- गेहूँ, जौ, मटर, चना और सरसों आदि शामिल हैं।
प्रमुख बिंदु
वर्तमान परिदृश्य:
- भारत में वर्ष 1960 के दशक के बाद से भू-जल पर सिंचाई की निर्भरता के कारण किसानों के खाद्य उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि दर्ज की गई है और इससे किसानों को शुष्क सर्दियों और गर्मियों के मौसम में कृषि का विस्तार करने में भी सहायता मिली है।
- भारत में लगभग 600 मिलियन किसान हैं और यह विश्व में गेहूँ तथा चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
- भारत विश्व की 10% फसलों का उत्पादन करता है और यह विश्व का सबसे बड़ा भू-जल उपभोक्ता भी है, जिससे भारत के अधिकांश हिस्सों में ‘जलभृत’ (Aquifer) तेज़ी से नष्ट हो रहे हैं।
- हरित क्रांति के दौरान नीति-समर्थित वातावरण के कारण उत्तर-पश्चिमी भारत, मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा में चावल की खेती में अत्यधिक वृद्धि हुई, जबकि यहाँ की मिट्टी चावल की खेती के लिये पारिस्थितिक रूप से कम उपयुक्त है।
- इस क्षेत्र में फसलों की सिंचाई के लिये भू-जल का उपयोग किया गया, जिसके परिणामस्वरूप भू-जल में कमी हुई।
अध्ययन के निष्कर्ष:
- भू-जल से संबंधित:
- भू-जल खाद्य सुरक्षा के लिये एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। भारत में सिंचाई की आपूर्ति का लगभग 60% हिस्सा इससे ही पूरा किया जाता है, भू-जल की सिंचाई और घरेलू उपयोग के लिये निरंतर खपत इसकी कमी का कारण बन रहे हैं।
- भारत में भू-जल की कमी से देश भर में खाद्य फसल में 20% तक की कमी हो सकती है और वर्ष 2025 तक लगभग 68% क्षेत्रों में भू-जल की कमी देखी जा सकती है।
- इस अध्ययन में पाया गया कि देश भर के 13% गाँव जहाँ किसान सर्दियों की फसल बोते हैं गंभीर रूप से पानी की कमी से जूझ रहे हैं।
- इस अध्ययन के परिणाम बताते हैं कि ये नुकसान बड़े पैमाने पर उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत में होंगे।
- नहर सिंचाई में हस्तांतरण करने से संबंधित:
- भारत सरकार ने सुझाव दिया है कि भू-जल के स्थान पर नहरों से सिंचाई करके अनुमानित चुनौतियों को दूर किया जा सकता है।
- नहरों को झीलों या नदियों से जोड़कर सिंचाई के लिये उपयुक्त जल प्राप्त किया जा सकता है।
- हालाँकि अभी राष्ट्रीय स्तर पर नहर सिंचाई पर निर्भरता बढ़ने की क्षमता काफी सीमित है।
- इस अध्ययन के अनुसार सिंचाई के लिये नहरों पर पूरी तरह से निर्भरता के बावजूद भारतीय कृषि में भू-जल के अपेक्षित नुकसान की पूर्णतः भरपाई नहीं की जा सकेगी।
- इसके अलावा नलकूप (ट्यूबवेल) सिंचाई की तुलना में नहर सिंचाई कम सर्दियों वाले और वर्षा परिवर्तनशीलता के प्रति अधिक संवेदनशील कृषि क्षेत्रों से जुड़ी हुई है।
- भारत सरकार ने सुझाव दिया है कि भू-जल के स्थान पर नहरों से सिंचाई करके अनुमानित चुनौतियों को दूर किया जा सकता है।
- फसल उत्पादन पर प्रभाव से संबंधित:
- फसल की गहनता में कमी: वर्तमान में भू-जल सिंचाई का उपयोग कर रहे क्षेत्रों में नहर सिंचाई को बढ़ाने से फसल गहनता में राष्ट्रीय स्तर पर 7% और कुछ प्रमुख स्थानों में 24% तक की गिरावट हो सकती है।
- नहर से उन क्षेत्रों को ज़्यादा लाभ होगा, जो इसके पास होंगे तथा इससे दूर स्थित क्षेत्रों को इससे कम लाभ मिलेगा।
- गेहूँ के उत्पादन में कमी: फसल क्षेत्र में होने वाली कमी मुख्य रूप से गेहूँ उत्पादित करने वाले राज्यों में देखने को मिलेगी, जिससे भविष्य में गेहूँ के उत्पादन में काफी कमी आएगी।
- खाद्य सुरक्षा: कम गेहूँ उत्पादन से खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि इससे भारत की लगभग 20% घरेलू कैलोरी माँग पूरी होती है।
- फसल की गहनता में कमी: वर्तमान में भू-जल सिंचाई का उपयोग कर रहे क्षेत्रों में नहर सिंचाई को बढ़ाने से फसल गहनता में राष्ट्रीय स्तर पर 7% और कुछ प्रमुख स्थानों में 24% तक की गिरावट हो सकती है।
फसल गहनता
- यह एक कृषि वर्ष में एक ही खेत से कई फसलों के उत्पादन को संदर्भित करता है। इसे निम्न सूत्र के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है:
- फसल गहनता = सकल फसली क्षेत्र/शुद्ध बोया गया क्षेत्र x 100।
- सकल फसली क्षेत्र: यह एक विशेष वर्ष में एक बार और/या एक से अधिक बार बोए गए कुल क्षेत्र को संदर्भित करता है। इसे कुल फसली क्षेत्र या ‘कुल बोया जाने वाला क्षेत्र’ भी कहा जाता है।
- शुद्ध बोया गया क्षेत्र: यह फसलों और फलोद्यान के साथ कुल बोए गए क्षेत्र को संदर्भित करता है। इसके तहत एक वर्ष में एक से अधिक बार बोया गया क्षेत्र केवल एक बार ही गिना जाता है।
- भारत के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 51% हिस्सा पहले से ही खेती के लिये इस्तेमाल हो रहा है, जबकि वैश्विक स्तर पर यह औसतन 11% है।
- वर्तमान में भारत में फसल गहनता 136% है, जिसमें स्वतंत्रता के बाद से केवल 25% की वृद्धि दर्ज की है। इसके अतिरिक्त वर्षा आधारित शुष्क भूमि, कुल शुद्ध बोए गए क्षेत्र का 65% है।
केंद्रीय भू-जल बोर्ड
- यह जल संसाधन मंत्रालय (जल शक्ति मंत्रालय), भारत सरकार का एक अधीनस्थ कार्यालय है।
- इस अग्रणी राष्ट्रीय अभिकरण को देश के भू-जल संसाधनों के वैज्ञानिक तरीके से प्रबंधन, अन्वेषण, माॅनीटरिंग, आकलन, संवर्द्धन एवं विनियमन का दायित्व सौंपा गया है ।
- वर्ष 1970 में कृषि मंत्रालय के तहत ‘समन्वेषी नलकूप संगठन’ (Exploratory Tubewells Organization) को पुन:नामित कर ‘केंद्रीय भू-जल बोर्ड’ की स्थापना की गई थी। वर्ष 1972 में इसका विलय भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग (Geological Survey of India) के भू-जल खंड के साथ कर दिया गया।
आगे की राह
- पूर्वी भारत में सिंचाई अवसंरचना: बिहार जैसे पूर्वी भारतीय राज्यों में उच्च मानसून वर्षा के साथ पर्याप्त भू-जल संसाधन उपलब्ध हैं, किंतु आवश्यक बुनियादी अवसंरचना की कमी के कारण यहाँ के किसान प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने में सक्षम नहीं हैं।
- पूर्वी भारत में सिंचाई का विस्तार करने और कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिये बेहतर नीतियों की आवश्यकता है।
- इससे उत्तर-पश्चिमी भारतीय राज्यों के दबाव में भी कमी आएगी।
- पानी की बचत करने वाली प्रौद्योगिकियाँ: स्प्रिंकलर, ड्रिप सिंचाई जैसी जल-बचत तकनीकों को अपनाया जा सकता है।
- कम जल आवश्यकता वाली फसलें: कुछ क्षेत्रों में कम जल की माँग करने वाली फसलों को बढ़ावा देकर यहाँ के सीमित भू-जल के अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग करने में मदद मिल सकती है।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय राजनीति
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग
चर्चा में क्यों?
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (National Commission for Minorities- NCM) के अध्यक्ष तथा पाँच अन्य सदस्यों के रिक्त पदों को 31 जुलाई 2021 तक भरने का निर्देश दिया है।
प्रमुख बिंदु
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना:
- वर्ष 1978 में गृह मंत्रालय द्वारा पारित एक संकल्प में अल्पसंख्यक आयोग (Minorities Commission- MC) की स्थापना की परिकल्पना की गई थी।
- वर्ष 1984 में, अल्पसंख्यक आयोग को गृह मंत्रालय से अलग कर दिया गया और इसे नव-निर्मित कल्याण मंत्रालय (Ministry of Welfare) के अधीन रखा गया, जिसने वर्ष 1988 में भाषाई अल्पसंख्यकों को आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया।
- वर्ष 1992 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के अधिनियमन के साथ ही अल्पसंख्यक आयोग एक सांविधिक/वैधानिक (Statutory) निकाय बन गया और इसका नाम बदलकर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) कर दिया गया।
- वर्ष 1993 में, पहले वैधानिक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया और पाँच धार्मिक समुदायों- मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में अधिसूचित किया गया।
- वर्ष 2014 में जैन धर्म मानने वालों को भी अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया गया था।
संरचना:
- NCM में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और पाँच सदस्य होते हैं और इन सभी का चयन अल्पसंख्यक समुदायों में से किया जाता है।
- केंद्र सरकार द्वारा नामित किये जाने वाले इन व्यक्तियों को योग्य, क्षमतावान और सत्यनिष्ठ होना चाहिये।
- कार्यकाल: प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल पद धारण करने की तिथि से तीन वर्ष की अवधि तक होता है।
कार्य:
- संघ और राज्यों के तहत अल्पसंख्यकों के विकास की प्रगति का मूल्यांकन करना;
- संविधान और संघ तथा राज्य के कानूनों में अल्पसंख्यकों को प्रदान किये गए सुरक्षा उपायों की निगरानी करना;
- अल्पसंख्यक समुदाय के हितों की सुरक्षा के लिये नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन हेतु आवश्यक सिफारिशें करना;
- अल्पसंख्यकों को उनके अधिकारों और रक्षोपायों से वंचित करने से संबंधित विनिर्दिष्ट शिकायतों की जाँच पड़ताल करना;
- अल्पसंख्यकों के विरुद्ध किसी भी प्रकार के विभेद के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं का अध्ययन करना/करवाना और इन समस्याओं को दूर करने के लिये सिफारिश करना;
- अल्पसंख्यकों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक विकास से संबंधित विषयों का अध्ययन अनुसंधान और विश्लेषण करना;
- केंद्र अथवा राज्य सरकारों को किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित उपायों को अपनाने का सुझाव देना;
- केंद्र और राज्य सरकारों को अल्पसंख्यकों से संबंधित किसी विषय पर विशिष्टतया कठिनाइयों पर नियतकालिक अथवा विशिष्ट रिपोर्ट प्रदान करना;
- कोई अन्य विषय जो केंद्र सरकार द्वारा उसे निर्दिष्ट किया जाए।
- यह सुनिश्चित करता है कि प्रधानमंत्री का 15 सूत्री कार्यक्रम लागू है और अल्पसंख्यक समुदायों के लिये यह कार्यक्रम वास्तव में काम कर रहा है।
विश्व अल्पसंख्यक अधिकार दिवस:
- प्रत्येक वर्ष 18 दिसंबर को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा विश्व अल्पसंख्यक अधिकार दिवस (World Minorities Rights Day) का आयोजन किया जाता है।
- 18 दिसंबर, 1992 को संयुक्त राष्ट्र ने धार्मिक या भाषायी राष्ट्रीय अथवा जातीय अल्पसंख्यकों से संबंधित व्यक्ति के अधिकारों पर वक्तव्य (Statement) को अपनाया था।
अल्पसंख्यकों से संबंधित संवैधानिक और कानूनी प्रावधान:
- राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम (NCM Act) अल्पसंख्यकों को "केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित एक समुदाय" के रूप में परिभाषित करता है।
- भारत सरकार द्वारा देश में छ: धर्मों मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी (पारसी) और जैन को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित किया है।
- राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान अधिनियम' (NCMEIA), 2004:
- यह अधिनियम सरकार द्वारा अधिसूचित छह धार्मिक समुदायों के आधार पर शैक्षणिक संस्थानों को अल्पसंख्यक का दर्जा प्रदान करता है।
- भारतीय संविधान में "अल्पसंख्यक" शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। हालाँँकि संविधान धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों को मान्यता देता है।
- अनुच्छेद 15 और 16:
- ये अनुच्छेद धर्म, जाति, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव का निषेध करते हैं।
- राज्य के अधीन किसी भी कार्यालय में रोज़गार या नियुक्ति से संबंधित मामलों में नागरिकों को 'अवसर की समानता' का अधिकार है, जिसमे धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव निषेध है।
- अनुच्छेद 25 (1), 26 और 28:
- यह लोगों को अंत:करण की स्वतंत्रता और स्वतंत्र रूप से धर्म का प्रचार, अभ्यास और प्रचार करने का अधिकार प्रदान करता है।
- संबंधित अनुच्छेदों में प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या वर्ग को धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों हेतु धार्मिक संस्थानों को स्थापित करने का अधिकार तथा अपने स्वयं के धार्मिक मामलों का प्रबंधन, संपत्ति का अधिग्रहण और उनके प्रशासन का अधिकार शामिल है।
- राज्य द्वारा पोषित संस्थानों में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक कार्यों में हिस्सा लेने या अनुदान सहायता प्राप्त करने की स्वतंत्रता होगी।
- अनुच्छेद 29:
- यह अनुच्छेद उपबंध करता है कि भारत के राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार होगा।
- अनुच्छेद-29 के तहत प्रदान किये गए अधिकार अल्पसंख्यक तथा बहुसंख्यक दोनों को प्राप्त हैं।
- हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस लेख का दायरा केवल अल्पसंख्यकों तक ही सीमित नहीं है, क्योंकि अनुच्छेद में 'नागरिकों के वर्ग' शब्द के उपयोग में अल्पसंख्यकों के साथ-साथ बहुसंख्यक भी शामिल हैं।
- अनुच्छेद 30:
- धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा, संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।
- अनुच्छेद 30 के तहत संरक्षण केवल अल्पसंख्यकों (धार्मिक या भाषायी) तक ही सीमित है और नागरिकों के किसी भी वर्ग (जैसा कि अनुच्छेद 29 के तहत) तक विस्तारित नहीं किया जा सकता।
- अनुच्छेद 350 B:
- मूल रूप से भारत के संविधान में भाषायी अल्पसंख्यकों के लिये विशेष अधिकारी के संबंध में कोई प्रावधान नहीं किया गया था। इसे 7वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1956 द्वारा संविधान में अनुच्छेद 350B के रूप में जोड़ा गया।
- यह भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त भाषायी अल्पसंख्यकों के लिये एक विशेष अधिकारी का प्रावधान करता है।