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डेली न्यूज़

  • 25 Sep, 2021
  • 34 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

जलवायु संकेतक और सतत् विकास पर रिपोर्ट: डब्ल्यूएमओ

प्रिलिम्स के लिये:

विश्व मौसम विज्ञान संगठन, संयुक्त राष्ट्र महासभा, सतत् विकास लक्ष्य, अल नीनो, जलवायु संकेतक और सतत् विकास पर रिपोर्ट

मेन्स के लिये:

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव एवं समाधान 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organization- WMO) ने जलवायु संकेतकों और सतत् विकास: अंतर्संबंधों का प्रदर्शन (Climate Indicators and Sustainable Development: Demonstrating the Interconnection) पर एक नई रिपोर्ट प्रकाशित की है।

Sustanable-Development

प्रमुख बिंदु

  • उद्देश्य:
    • सतत् विकास के एजेंडे में योगदान करना और वैश्विक नेताओं को साहसिक जलवायु कार्रवाई करने के लिये प्रेरित करना।
  • महत्त्व:
    • इससे जलवायु परिवर्तन, गरीबी, असमानता और पर्यावरणीय गिरावट, जलवायु तथा अंतर्राष्ट्रीय विकास के बीच संबंधों को समझने में सहायता मिलती है।
    • बढ़ते तापमान के परिणामस्वरूप वैश्विक और क्षेत्रीय परिवर्तन होंगे, जिससे वर्षा के पैटर्न तथा कृषि मौसम में बदलाव आएगा। अल नीनो (El Niño) की घटनाओं की तीव्रता भी अधिक सूखा एवं बाढ़ की स्थिति पैदा कर रही है।
  • कार्बन डाइआक्साइड का बढ़ता संकेंद्रण:
    • संयुक्त राष्ट्र के सभी 17 एसडीजी लक्ष्यों को CO2 की बढ़ती सांद्रता प्रभावित करेगी।
    • मानव गतिविधियों के कारण बढ़ती CO2 सांद्रता वैश्विक जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारक है।
  • एसडीजी पर प्रभाव:
    • अगर बढ़ते CO2  की सांद्रता और वैश्विक तापमान को अनियंत्रित छोड़ दिया जाता है तो इससे एसडीजी 13 के अंतर्गत जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
      • यह वर्ष 2030 तक एसडीजी 13 के अलावा अन्य 16 एसडीजी की उपलब्धि के लिये भी खतरा पैदा कर सकता है।
    • ऐसा इसलिये है क्योंकि अनियंत्रित बढ़ता CO2 उत्सर्जन परोक्ष रूप से शेष छह (तापमान, महासागरीय अम्लीकरण और गर्मी, समुद्री बर्फ की सीमा, ग्लेशियर पिघलना और समुद्र-स्तर में वृद्धि) जलवायु संकेतकों से संबंधित जोखिमों के लिये ज़िम्मेदार होगा।
    • उदाहरण के लिये वातावरण में CO2 की बढ़ती सांद्रता से पोषक तत्त्वों की मात्रा में कमी आएगी, जिससे खाद्य सुरक्षा या एसडीजी संकेतक 2.1.2 प्रभावित होगा।
      • यह गरीबी से निपटने के वैश्विक लक्ष्य (एसडीजी 1) को भी प्रभावित करेगा।
    • पानी में CO2 बढ़ने से समुद्र का अम्लीकरण होगा, यह सीधे तौर पर एसडीजी संकेतक 14.3.1 को प्रभावित करेगा जो समुद्री अम्लता को संबोधित करता है।
    • खाद्य असुरक्षा और आजीविका की हानि दोनों ही संसाधन प्रबंधन से संबंधित संघर्षों को बढ़ावा दे सकते हैं, जिससे क्षेत्रीय शांति तथा स्थिरता को खतरा हो सकता है (एसडीजी 16.1)।
    • बढ़ते तापमान के लिये ज़िम्मेदार चरम घटनाएँ वर्षा पैटर्न और भूजल उपलब्धता को प्रभावित करती हैं, जिसके कारण पानी की कमी का उच्च जोखिम होता है जो सीधे एसडीजी 6 को को प्रभावित करता है।
  • सुझाव:
    • जलवायु जोखिमों को कम करने के लिये डब्ल्यूएमओ ने निम्नलिखित की सिफारिश की है:
      • बेहतर शिक्षा (एसडीजी 4)।
      • वैश्विक भागीदारी (एसडीजी 17)।
      • सतत् खपत (एसडीजी 12)।

WMO-Climate

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

जाति आधारित जनगणना

प्रिलिम्स के लिये:

2021 की जनगणना, आरक्षण, सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना

मेन्स के लिये:

जनगणना तथा SECC के बीच तुलना एवं उनसे संबंधित चिंताएँ 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक हलफनामा/शपथ-पत्र दाखिल कर दावा किया है कि पिछड़े वर्गों की जाति आधारित जनगणना प्रशासनिक रूप से कठिन और दुष्कर है।

  • सरकार का यह अभिकथन महाराष्ट्र राज्य द्वारा 2021 की जनगणना के दौरान राज्य में पिछड़े वर्गों की जाति के आँकड़ों को एकत्र करने के संदर्भ में दाखिल किये गए एक रिट याचिका के प्रत्युत्तर में आया है।

प्रमुख बिंदु

  • जाति आधारित जनगणना के विरुद्ध सरकार का रुख: 
    • अनुपयोगी डेटा : केंद्र ने तर्क दिया कि जब स्वतंत्रता पूर्व अवधि में जातियों की जनगणना की गई थी, तब भी डेटा "पूर्णता और सटीकता" के संबंध में प्रभावित हुआ था। 
      • इसमें कहा गया है कि 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) में दर्ज जाति आधारित आँकड़े/डेटा आधिकारिक उद्देश्यों के लिये ‘अनुपयोगी’ हैं क्योंकि उनमें तकनीकी खामियाँ अधिक हैं।
    • आदर्श नीति उपकरण का न होना: सरकार ने कहा कि जातिवार जनगणना की नीति 1951 में छोड़ दी गई थी।
      • इसके अलावा केंद्र ने स्पष्ट किया कि जनसंख्या जनगणना "आदर्श साधन नहीं है क्योंकि अधिकांश लोग अपनी जाति को छिपाने के उद्देश्य से जनगणना में अपना पंजीकरण नहीं कराते हैं।
      • यह जनगणना की "बुनियादी अखंडता/समग्रता" से समझौता कर सकता है।
    • प्रशासनिक रूप से जटिलतम: इसके अतिरिक्त सरकार ने माना कि 2021 की जनगणना में जातिवार गणना किये जाने में अब काफी देर हो चुकी है।
      • जनगणना की योजना और तैयारी लगभग चार वर्ष पहले शुरू हुई थी तथा जनगणना 2021 की तैयारियाँ लगभग पूरी हो चुकी हैं।
  • SECC के पक्ष में तर्क:
    • जाति-आधारित सकारात्मक कार्रवाई कार्यक्रमों या कल्याणकारी योजनाओं के संरक्षण के लिये सांख्यिकीय औचित्य स्थापित करना उपयोगी होगा।
      • यह तब एक कानूनी अनिवार्यता हो सकती है, जब अदालतें आरक्षण के मौज़ूदा स्तरों का समर्थन करने के लिये 'मात्रात्मक डेटा' की मांग करती हैं।
    • देश में एक व्यापक प्रयास के ज़रिये सभी परिवारों की जातिगत स्थिति की गणना से गरीब परिवारों की पहचान और गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रमों को लागू करने में मदद मिलेगी।

जनगणना, SECC और दोनों में अंतर:

  • जनगणना:
    • भारत में जनगणना की शुरुआत औपनिवेशिक शासन के दौरान वर्ष 1881 में हुई।
    • जनगणना का आयोजन सरकार, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और अन्य लोगों द्वारा भारतीय जनसंख्या से संबंधित आँकड़े  प्राप्त करने, संसाधनों तक पहुँचने, सामाजिक परिवर्तन, परिसीमन से संबंधित आँकड़े आदि का उपयोग करने के लिये किया जाता है।
    • हालाँकि 1940 के दशक की शुरुआत में वर्ष 1941 की जनगणना के लिये भारत के जनगणना आयुक्त ‘डब्ल्यू. डब्ल्यू. एम. यीट्स’ ने कहा था कि जनगणना एक बड़ी, बेहद मज़बूत अवधारणा है लेकिन विशेष जाँच के लिये यह एक अनुपयुक्त साधन है।
  • सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC):
    • वर्ष 1931 के बाद वर्ष 2011 में इसे पहली बार आयोजित किया गया था।
    • SECC का आशय ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में प्रत्येक भारतीय परिवार की निम्नलिखित स्थितियों के बारे में पता करना है-
      • आर्थिक स्थिति पता करना ताकि केंद्र और राज्य के अधिकारियों को वंचित वर्गों के क्रमचयी और संचयी संकेतकों की एक शृंखला प्राप्त करने तथा उन्हें इसमें शामिल करने की अनुमति दी जा सके, जिसका उपयोग प्रत्येक प्राधिकरण द्वारा एक गरीब या वंचित व्यक्ति को परिभाषित करने के लिये किया जा सकता है।
      • इसका अर्थ प्रत्येक व्यक्ति से उसका विशिष्ट जातिगत नाम पूछना है, जिससे सरकार को यह पुनर्मूल्यांकन करने में आसानी हो कि कौन से जाति समूह आर्थिक रूप से सबसे खराब स्थिति में थे और कौन बेहतर थे।
    • SECC में व्यापक स्तर पर ‘असमानताओं के मानचित्रण’ की जानकारी देने की क्षमता है।
  • जनगणना और SECC के बीच अंतर:
    • जनगणना भारतीय आबादी का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करती है, जबकि SECC राज्य द्वारा सहायता के योग्य लाभार्थियों की पहचान करने का एक उपाय/साधन है।
    • चूँकि जनगणना, वर्ष 1948 के जनगणना अधिनियम के अंतर्गत आती है, इसलिये सभी आँकड़ों को गोपनीय माना जाता है, जबकि SECC की वेबसाइट के अनुसार, “SECC में दी गई सभी व्यक्तिगत जानकारी का उपयोग कर सरकारी विभाग परिवारों को लाभ पहुँचाने और/या प्रतिबंधित करने के लिये स्वतंत्र हैं।

आगे की राह:

  • हालाँकि SECC की अपनी बड़ी चिंताएँ हैं, लेकिन जनगणना में एकत्रित डेटा को राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण जैसे अन्य बड़े डेटासेट से जोड़ने और समन्वयित करने से सरकारों को कई सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।
  • इसके अतिरिक्त जनगणना से स्वतंत्र/भिन्न मुद्दे पर जनसंख्या में मौजूद सभी संप्रदायों और उपजातियों को स्थापित करने के लिये राज्य और ज़िला स्तर पर प्रारंभिक सामाजिक-मानवशास्त्रीय अध्ययन किया जा सकता है।
  • जाति आधारित जनगणना एक जातिविहीन समाज के लक्ष्य के साथ बेहतर गठबंधन प्रतिस्थापित नहीं सकती है, लेकिन यह समाज में असमानताओं को दूर करने के साधन के रूप में काम कर सकती है। 

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

प्लांट डिस्कवरी, 2020: बीएसआई

प्रिलिम्स के लिये:

जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण, प्लांट डिस्कवरी, 2020

मेन्स के लिये:

जैव विविधता संरक्षण और चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण (Botanical Survey of India-BSI) ने अपने नए प्रकाशन प्लांट डिस्कवरी (Plant Discoveries), 2020 में देश की वनस्पतियों में 267 नई प्रजातियाँ जोड़ी हैं।

  • इससे पहले जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (United Nations Convention on Biological Diversity) ने वर्ष 2030 तक प्रकृति का प्रबंधन करने के लिये विभिन्न स्रोतों से विकासशील देशों को अतिरिक्त 200 बिलियन अमेरिकी डॉलर देने की मांग की थी।

प्रमुख बिंदु

  • प्लांट डिस्कवरी, 2020 के विषय में:
    • भारत के वनस्पतियों की नई खोज में बीजीय पौधों की 119, कवक की 57, लाइकेन की 44, शैवाल की 21, सूक्ष्मजीवों की 18, ब्रायोफाइट्स की पाँच और फर्न एवं फर्न सहयोगी की तीन प्रजातियाँ शामिल हैं।
      • भारत में पौधों की लगभग 45,000 प्रजातियाँ (विश्व की कुल पौधों की प्रजातियों का लगभग 7%) हैं, जिन्हें पहले ही पहचाना और वर्गीकृत किया जा चुका है।
      • देश के लगभग 28% पौधे स्थानिक हैं।
    • नई खोजों में से कुछ उदाहरण हैं:
      • दार्जिलिंग से बालसम (Balsams) की नौ नई प्रजातियाँ और जंगली केले (मूसा प्रधानी) की एक प्रजाति।
      • कोयंबटूर से जंगली जामुन की एक-एक प्रजाति।
      • ओडिशा की फर्न प्रजाति कंधमाल (Kandhamal)।
  • प्रजातियों का भौगोलिक वितरण:
    • इन प्रजातियों में से पश्चिमी घाट से 22%, पश्चिमी हिमालय से 15%, पूर्वी हिमालय से 14% और पूर्वोत्तर पर्वतमाला से 12% की खोज की गई है।
    • नई प्रजातियों में से 10% की खोज पश्चिमी तट से, 9% की खोज पूर्वी तट से, 4% की खोज पूर्वी घाट और दक्षिण दक्कन एवं 3% की खोज मध्य उच्च भूमि तथा उत्तरी दक्कन से की गई है।
  • खोज का महत्त्व:
    • भारत 'जैविक विविधता पर कन्वेंशन' का हस्ताक्षरकर्त्ता है और पौधों के संरक्षण की वैश्विक रणनीति की दिशा में काम करने के लिये प्रतिबद्ध है।
      • प्रत्येक वर्ष की जाने वाली नई पौधों की खोज को बीएसआई द्वारा संकलित और प्रलेखित किया जाता है, जो भारत की व्यापक प्रलेखन तथा पौधों की विविधता की पहचान की वैश्विक प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिये केंद्रीय भूमिका निभाता है।
      • सीबीडी (जैव विविधता के संरक्षण के लिये कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि) वर्ष 1993 से लागू है।

भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण

  • भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण के विषय में:
    • यह देश के जंगली पौधों के संसाधनों पर टैक्सोनॉमिक और फ्लोरिस्टिक अध्ययन करने के लिये पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEFCC) के तहत एक शीर्ष अनुसंधान संगठन है। इसकी स्थापना वर्ष 1890 में की गई थी।
    • इसके नौ क्षेत्रीय वृत्त देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित हैं। हालाँकि इसका मुख्यालय कोलकाता, पश्चिम बंगाल में स्थित है।
  • कार्य:
    • सामान्य और संरक्षित क्षेत्रों विशेष रूप से हॉटस्पॉट तथा नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र में पादप विविधता की खोज, सूची व प्रलेखन।
    • राष्ट्रीय, राज्य और ज़िला फ्लोरा का प्रकाशन।
    • संकटग्रस्त एवं संरक्षण की आवश्यकता वाले समृद्ध क्षेत्रों की प्रजातियों और लाल सूची वाली प्रजातियों की पहचान करना।
    • वनस्पति उद्यानों में गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजातियों का एक्स-सीटू संरक्षण।
    • पौधों से जुड़े पारंपरिक ज्ञान (एथनो-बॉटनी) का सर्वेक्षण और प्रलेखन।
    • भारतीय पौधों का राष्ट्रीय डेटाबेस विकसित करना, जिसमें हर्बेरियम और जीवित नमूने, वनस्पति चित्र आदि शामिल हैं।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

चिकित्सा उपकरण पार्क योजना

प्रिलिम्स के लिये:

चिकित्सा उपकरण पार्क योजना

मेन्स के लिये:

चिकित्सा उपकरण पार्क योजना और चिकित्सा क्षेत्र से संबंधित मुद्दे  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में रसायन और उर्वरक मंत्रालय ने आत्मनिर्भर भारत के अनुरूप चिकित्सा उपकरण उद्योग का समर्थन करने के लिये "चिकित्सा उपकरण पार्कों को बढ़ावा देने" ("Promotion of Medical Device Parks") की योजना प्रारंभ की है।

प्रमुख बिंदु 

  • चिकित्सा उपकरण उद्योग के बारे में:
    • चिकित्सा उपकरण उद्योग इंजीनियरिंग और चिकित्सा का एक अनूठा मिश्रण है। इसमें मशीनों का निर्माण करना शामिल है जिनका उपयोग जीवन बचाने के लिये किया जाता है।
      • चिकित्सा उपकरणों में सर्जिकल उपकरण, डायग्नोस्टिक उपकरण जैसे- कार्डिएक इमेजिंग, सीटी स्कैन, एक्स-रे, मॉलिक्यूलर इमेजिग, एमआरआई और हाथ से प्रयोग किये जाने वाले उपकरणों सहित लाइफ सपोर्ट इक्विपमेंट जैसे- वेंटिलेटर आदि के साथ-साथ इम्प्लांट्स एवं डिस्पोज़ल तथा अल्ट्रासाउंड इमेजिंग शामिल हैं।
  • उद्देश्य:
    • चिकित्सा उपकरण पार्कों के माध्यम से विश्व स्तरीय सामान्य बुनियादी सुविधाओं के निर्माण द्वारा मानक परीक्षण और बुनियादी सुविधाओं तक आसान पहुँच।
    • चिकित्सा उपकरणों के उत्पादन की लागत को कम करना और घरेलू बाज़ार में चिकित्सा उपकरणों की बेहतर उपलब्धता तथा क्षमता को बढ़ाना।
  • वित्तीय सहायता:
    • योजना का कुल वित्तीय परिव्यय 400 करोड़ रुपए है और योजना का कार्यकाल वित्त वर्ष 2020-2021 से वित्त वर्ष 2024-2025 तक है।
    • चयनित चिकित्सा उपकरण पार्कों के लिये वित्तीय सहायता सामान्य बुनियादी सुविधाओं की परियोजना लागत का 70% होगी।
      • उत्तर-पूर्वी राज्यों और पहाड़ी राज्यों के मामले में यह वित्तीय सहायता परियोजना लागत का 90% होगी।
    • एक चिकित्सा उपकरण पार्क के लिये योजना के तहत अधिकतम सहायता 100 करोड़ रुपए तक होगी।
    • केंद्र सरकार ने हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में पार्कों के निर्माण के लिये सैद्धांतिक मंज़ूरी दे दी है। 
  • भारत में चिकित्सा उपकरण क्षेत्र:
    • भारत में चिकित्सा उपकरण उद्योग 5.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का है, जो 96.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर के भारतीय स्वास्थ्य उद्योग में लगभग 4-5% का योगदान देता है।
    • भारत में चिकित्सा उपकरणों का क्षेत्र अन्य विनिर्माण उद्योग की तुलना में आकार में बहुत छोटा है, हालाँकि भारत दुनिया में चिकित्सा उपकरणों के लिये शीर्ष बीस बाज़ारों में से एक है और जापान, चीन एवं कोरिया के बाद एशिया में चौथा सबसे बड़ा बाज़ार है।
    • भारत वर्तमान में 15 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बाज़ार के 80-90% चिकित्सा उपकरणों का आयात करता है।
      • भारत को उच्च प्रौद्योगिकी चिकित्सा उपकरणों के पाँच सबसे बड़े निर्यातकों में  अमेरिका, जर्मनी, चीन, जापान और सिंगापुर शामिल हैं।
  • संबंधित पहलें:
    • जून 2021 में क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया (QCI) और एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैन्युफैक्चरर्स ऑफ मेडिकल डिवाइसेस (AiMeD) ने चिकित्सा उपकरणों की गुणवत्ता, सुरक्षा एवं प्रभावकारिता का सत्यापन करने के लिये भारतीय चिकित्सा उपकरणों की प्रमाणन (ICMED) 13485 प्लस योजना शुरू की। .
    • चिकित्सा उपकरणों के घरेलू निर्माण को बढ़ावा देने और भारत में भारी निवेश को आकर्षित करने के लिये फार्मास्युटिकल विभाग ने वित्त वर्ष 2021-28 की अवधि हेतु 3,420 करोड़ रुपए के कुल परिव्यय के साथ चिकित्सा उपकरणों के घरेलू निर्माण के लिये एक उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (Production Linked Incentives- PLI)  शुरू किया है।
    • स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने अधिसूचित किया है कि चिकित्सा उपकरण 1 अप्रैल, 2020 से औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम (डी एंड सीए), 1940 की धारा 3 के तहत 'दवाओं' के रूप में जाने जाएंगे।
    • चिकित्सा उपकरण पार्क आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में स्थापित किये गए हैं।
      • वर्ष 2020 में केरल ने तिरुवनंतपुरम में देश के पहले चिकित्सा उपकरण पार्कों में से एक मेडस्पार्क की स्थापना की।
    • भारत सरकार ने 2014 में 'मेक इन इंडिया' अभियान के तहत चिकित्सा उपकरणों को एक सनराइज़ क्षेत्र के रूप में मान्यता दी।

स्रोत: द हिंदू  


जैव विविधता और पर्यावरण

ब्लू फूड

प्रिलिम्स के लिये:

ब्लू फूड

मेन्स के लिये:

ब्लू फूड का महत्त्व और संबंधित मुद्दे 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ब्लू फूड के पर्यावरणीय प्रदर्शन शीर्षक वाली एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जलीय या ब्लू फूड को वर्तमान की तुलना में पर्यावरणीय रूप से अधिक टिकाऊ बनाया जा सकता है।

  • रिपोर्ट ब्लू फूड असेसमेंट (BFA) के हिस्से के रूप में प्रकाशित हुई है।
  • BFA स्वीडन स्थित स्टॉकहोम रेजिलियेंस सेंटर, संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय और गैर-लाभकारी EAT के बीच एक सहयोग मंच है।

प्रमुख बिंदु:

  • ब्लू फूड्स और इसके लाभ:
    • ब्लू फूड जलीय जानवरों, पौधों या शैवाल से प्राप्त भोजन होते हैं जो ताज़े पानी और समुद्री वातावरण में पाए जाते हैं।
    • ब्लू फूड में स्थलीय पशु-स्रोत खाद्य पदार्थों की तुलना में अधिक पोषक तत्त्व पाए जाते हैं।
      • कई ब्लू फूड प्रजातियाँ ओमेगा-3 फैटी एसिड, विटामिन और खनिजों जैसे महत्त्वपूर्ण पोषक तत्वों से भरपूर होती हैं।
    • औसतन एक्वाकल्चर (Aquaculture) में उत्पादित प्रमुख प्रजातियों, जैसे कि तिलापिया, सैल्मन, कैटफ़िश और कार्प में स्थलीय जीवों के मांस की तुलना में कम पर्यावरणीय फुटप्रिंट पाए जाते हैं।
  • रिपोर्ट के बारे में:
    • रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि ब्लू फूड पदार्थ पानी में पाए जाते हैं जो स्वस्थ, न्यायसंगत और टिकाऊ खाद्य प्रणालियों की दिशा में बदलाव हेतु एक आवश्यक भूमिका निभाएंगे।
    • ब्लू फूड के उत्पादन में कम ग्रीनहाउस गैस और पोषक तत्त्व उत्सर्जन (Nutrient Emissions) होता है तथा कम भूमि व पानी की आवश्यकता होती है। 
      • समुद्री और मीठे पानी के मत्स्यन से वहाँ पाए जाने वाले जीवित संसाधनों को हानि होती है। इनमें बेहतर प्रबंधन और अनुकूलन के माध्यम से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने की क्षमता होती है।
    • नवाचार को बढ़ावा देकर मत्स्य प्रबंधन में सुधार के माध्यम से खपत और अधिक बढ़ सकती है तथा कुपोषण पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।
    • ब्लू फूड को बढ़ावा देने से कई सतत् विकास लक्ष्यों (एसडीजी 2 - पोषण और 14 - समुद्री संसाधनों का सतत् उपयोग) को पूरा करने में मदद मिलेगी।

आगे की राह 

  • छोटे पैमाने के मछुआरों के पास वैश्विक समुद्री भोजन प्रणाली का एक बड़ा हिस्सा है जो अविश्वसनीय रूप से विविध है। इसलिये ब्लू फूड सिस्टम के टिकाऊ उत्पादन के लिये छोटे पैमाने के मछुआरों को मज़बूत करने की ज़रूरत है।
  • ब्लू फूड की विशाल विविधता महत्त्वपूर्ण पोषण, सांस्कृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय मूल्य को संदर्भित करती है। इसकी क्षमता को संदर्भित करने के लिये नीति निर्माताओं को निम्नलिखित उपाय करने चाहिए:
    • छोटे उत्पादकों, महिलाओं और अन्य हाशिये के समूहों की भागीदारी सहित बेहतर शासन।
    • प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर प्रबंधन जिस पर ब्लू फूड पदार्थ निर्भर करते हैं।
    • जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलेपन के निर्माण में निवेश।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

सामाजिक जवाबदेही

प्रिलिम्स के लिये:

सामाजिक जवाबदेही 

मेन्स के लिये:

सामाजिक जवाबदेही के सिद्धांत, आवश्यकता और उनका महत्त्व 

चर्चा में क्यों?   

हाल ही में राजस्थान में अगले विधानसभा सत्र में सामाजिक जवाबदेही (Social Accountability) कानून पारित कराने की मांग को लेकर राज्यव्यापी अभियान चलाया गया है।

  • वर्ष 2019 में सरकार द्वारा सामाजिक जवाबदेही विधेयक (Social Accountability Bill) के प्रारूप पर सलाह देने हेतु पूर्व राज्य चुनाव आयुक्त, राम लुभया (Ram Lubhaya) की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था तथा समिति द्वारा वर्ष 2020 में मसौदा प्रस्तुत किया गया था।
  • राजस्थान लोक सेवाओं के प्रदान की गारंटी अधिनियम (Rajasthan Guaranteed Delivery of Public Service Act), 2011 तथा राजस्थान सुनवाई का अधिकार अधिनियम (Rajasthan Right to Hearing Act), 2012 पहले ही लागू हो चुके हैं, लेकिन कुछ प्रमुख मुद्दों के कारण उन्हें निरस्त कर दिया गया।

प्रमुख बिंदु 

  • सामाजिक जवाबदेही:
    • इसे जवाबदेही सुनिश्चित करने की दिशा में एक दृष्टिकोण के रूप में परिभाषित किया गया है जो नागरिकों के आपसी जुड़ाव पर निर्भर करता है अर्थात, जिसमें सामान्य नागरिक और नागरिक समूह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जवाबदेही को तय करने में भाग लेते हैं। 
    • सार्वजनिक क्षेत्र के संदर्भ में सामाजिक जवाबदेही का तात्पर्य उन कार्यों और तंत्रों की एक विस्तृत शृंखला से है जिनका उपयोग नागरिक, समुदाय, स्वतंत्र मीडिया और नागरिक समाज संगठन तथा सार्वजनिक अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने हेतु किया जाता है। 
    • जब उन्हें संस्थागत रूप प्रदान किया जाता है तो सामाजिक जवाबदेही तंत्र की प्रभावशीलता और स्थिरता में सुधार होता है। इसमें दो चीजें शामिल हैं:
      • राज्य को व्यापक जवाबदेही परियोजना में एक 'इच्छुक सहयोगी' (Willing Accomplice) के रूप में अपने स्वयं के ‘आंतरिक’ तंत्र को इस प्रकार प्रस्तुत करने की आवश्यकता होती है जो इसे संरचनात्मक रूप से जवाबदेही हेतु उत्तरदायी बनाता है।
      • राज्य को नागरिक जुड़ाव और भागीदारी को सुविधाजनक बनाने तथा मज़बूत करने हेतु तंत्र को पहचानने व अपनाने की ज़रूरत है।
    • सामाजिक जवाबदेही अभ्यास के घटकों में सूचना का संग्रह, विश्लेषण और प्रसार, जनता का समर्थन जुटाना, परिवर्तन के लिये सिफारिश एवं बातचीत शामिल है।
      • सामाजिक लेखापरीक्षा सामाजिक जवाबदेही और पारदर्शिता का एक उपकरण है।
  • सामाजिक जवाबदेही के प्रमुख सिद्धांत:
    • जानकारी (सूचना)
    • भागीदारी (नागरिकों की भागीदारी)
    • कार्यवाही (समयबद्ध कार्यवाही)
    • सुरक्षा (नागरिकों की सुरक्षा)
    • सुनवाई (नागरिकों को सुनवाई का अधिकार)
    • जनता का मंच (सामूहिक मंच)
    • प्रसार (सूचनाओं का प्रसार)
  • आवश्यकता:
    • ऐसे कई नागरिक हैं जो अपने अधिकारों तक पहुँचने में असमर्थ हैं और उनकी शिकायतों का निवारण समयबद्ध तरीके से किया जाता है, जबकि ‘गलती करने वाले सरकारी अधिकारियों की कोई जवाबदेही नहीं’ होती है।
  • महत्त्व:
    • यह प्रत्येक व्यक्ति को नागरिक के रूप में अधिकार प्रदान करने के लिये सरकारी संस्थानों और अधिकारियों की जवाबदेहिता सुनिश्चित करता है।
    • यह कानून के बारे में जागरूकता बढ़ाता है और अगले विधानसभा सत्र में विधेयक को पारित करने के पक्ष में निरंतर वकालत करता है।
      • शिकायतों के निवारण की व्यवस्था ग्राम पंचायतों से शुरू होगी और इसमें ब्लॉक स्तर पर जन सुनवाई शामिल होगी।
    • यह कुशल प्रशासन, वर्द्धित सेवा वितरण और नागरिक सशक्तीकरण के माध्यम से विकास प्रभावशीलता को बढ़ाने में योगदान दे सकता है।

Social-Accuontability

  • भारत में सामाजिक जवाबदेही प्रथाओं के उदाहरण:
    • भागीदारी योजना और नीति निर्माण (केरल)
    • सहभागी बजट विश्लेषण (गुजरात)
    • सहभागी व्यय ट्रैकिंग प्रणाली (दिल्ली, राजस्थान)
    • नागरिक सर्वेक्षण/नागरिक रिपोर्ट कार्ड (बंगलूरू, महाराष्ट्र)
    • नागरिक घोषणापत्र (आंध्र प्रदेश, कर्नाटक)
    • सामुदायिक स्कोर कार्ड (महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश)

स्रोत: द हिंदू


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