लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 25 May, 2021
  • 56 min read
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

हवाना सिंड्रोम

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दो अमेरिकी अधिकारियों में हवाना सिंड्रोम से जुड़ी एक रहस्यमय बीमारी के लक्षण दिखाई दिये हैं।

  • वर्ष 2020 की  राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (National Academies of Sciences) की एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका ने निर्देशित माइक्रोवेव विकिरण (Directed Microwave Radiation) को हवाना सिंड्रोम’ (Havana Syndrome) का संभावित कारण माना गया।
  • इस सिंड्रोम की बढ़ती संख्या को एक सामूहिक मनोवैज्ञानिक बीमारी (MPI) माना जा रहा है।

मास साइकोजेनिक इलनेस (Mass Psychogenic Illness)

  • जब एक समूह के लोग एक ही समय में बीमार महसूस करना शुरू कर देते हैं, भले ही उनके बीमार होने का कोई शारीरिक या पर्यावरणीय कारण न हो तो उसे मास साइकोजेनिक इलनेस या सामूहिक मनोवैज्ञानिक बीमारी कहा जाता है। वे सोचते हैं कि वे रोगाणु या विष (ज़हर) जैसी किसी खतरनाक चीज़ के संपर्क में आ गए हैं।

राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (NAS)

  • यह संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थापित एक गैर-लाभकारी, सरकारी संगठन है।
  • वर्ष 1863 में कॉन्ग्रेस के एक अधिनियम के परिणामस्वरूप NAS की स्थापना हुई थी, जिसे अब्राहम लिंकन द्वारा अनुमोदित किया गया था।
  • यह संगठन सरकार को विज्ञान और प्रौद्योगिकी परियोजनाओं के संबंध में अपनी रिपोर्ट पेश करता है।

प्रमुख बिंदु

परिचय:

  • 2016 के उत्तरार्द्ध में हवाना (क्यूबा) में तैनात संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ राजनयिकों और उनके कर्मचारियों ने कुछ सामान्य लक्षणों की सूचना दी थी।
  • उन सभी ने कुछ अजीब सी आवाज़ें सुनने और अजीब शारीरिक संवेदनाओं का अनुभव करने के बाद इस बीमारी को महसूस किया।
  • अमेरिका ने क्यूबा पर "ध्वनि हमला" (Sonic Attacks) करने का आरोप लगाया था लेकिन क्यूबा ने इस बीमारी या सिंड्रोम के बारे में किसी भी तरह की जानकारी होने से इनकार कर दिया।
  • तब से कई निकाय और संस्थान हवाना सिंड्रोम के कारणों पर शोध कर रहे हैं और इन संस्थाओं ने अब तक कई संभावित कारकों की खोज की है।
  • इस बीमारी के लक्षणों में मिचली, तीव्र सिरदर्द, थकान, चक्कर आना, नींद की समस्या आदि शामिल हैं।
    • उनमें से कुछ  लोग जो अत्यधिक प्रभावित हुए थे, उन्हें वेस्टिबुलर प्रसंस्करण (Vestibular Processing) और संज्ञानात्मक (Cognitive) समस्याओं जैसी चिरकालिक मुद्दों का सामना करना पड़ा।

माइक्रोवेव हथियार (Microwave Weapon):

  • प्रत्यक्ष ऊर्जा हथियार (DEW):
    • माइक्रोवेव हथियार एक प्रकार के प्रत्यक्ष ऊर्जा हथियार होते हैं, जो अपने लक्ष्य को अत्यधिक केंद्रित ऊर्जा रूपों जैसे- ध्वनि, लेज़र या माइक्रोवेव आदि  द्वारा लक्षित करते हैं।
    • इसमें उच्च-आवृत्ति के विद्युत चुंबकीय विकिरण द्वारा मानव शरीर में संवेदना पैदा की जाती है।
      • विद्युत चुंबकीय विकिरण (माइक्रोवेव) भोजन में पानी के अणुओं को उत्तेजित करता है और उनका कंपन गर्मी पैदा करती है जो व्यक्ति को चक्कर आना और मतली का अनुभव कराती है। 
  • माइक्रोवेव हथियार वाले देश:
    • ऐसा माना जाता है कि एक से अधिक देशों ने मानव और इलेक्ट्रॉनिक दोनों प्रणालियों को लक्षित करने के लिये इन हथियारों को विकसित किया है।
    • चीन ने पहली बार वर्ष 2014 में एक एयर शो में पॉली डब्ल्यू.बी.–1 (Poly WB-1) नामक “माइक्रोवेव हथियार” का प्रदर्शन किया था।
    • संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी ‘एक्टिव डेनियल सिस्टम’ (Active Denial System) नामक 'प्रोटोटाइप माइक्रोवेव हथियार' विकसित किया है जो कि पहला गैर-घातक, निर्देशित-ऊर्जा, काउंटर-कार्मिक प्रणाली है, जिसमें  वर्तमान में गैर-घातक हथियारों की तुलना में अधिक विस्तारित क्षमता विद्यमान है।
  • निर्देशित ऊर्जा हथियारों के लिये भारत की योजना:
    • हाल ही में रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) ने उच्च-ऊर्जा लेज़र और माइक्रोवेव का उपयोग करके निर्देशित ऊर्जा हथियार (DEW) विकसित करने की योजना की घोषणा की है।
    • भारत के अन्य देशों (विशेष रूप से चीन) के साथ बिगड़ते सुरक्षा संबंधों के संदर्भ में निर्देशित ऊर्जा हथियार के विकास को  अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
  • चिंताएँ:
    • इस प्रकार के हथियार देशों की चिंता का कारण बन रहें है, क्योंकि ये मशीनों और इंसानों दोनों को प्रभावित कर सकते हैं।
    • ये हथियार मानव शरीर पर बिना किसी निशान के दीर्घकालिक नुकसान पहुँचा सकते हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

भारत में डेटा संरक्षण

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्रालय (Ministry of Electronics and IT) ने व्हाट्सएप को नोटिस भेजकर अपनी गोपनीयता नीति के एक विवादास्पद अपडेट को वापस लेने के लिये कहा है जो भारतीयों के डेटा संरक्षण हेतु खतरा हो सकता है।

Data-Protection

प्रमुख बिंदु

विवाद के विषय में:

  • व्हाट्सएप की नई प्राइवेसी पॉलिसी के अनुसार इसके उपयोगकर्त्ता फेसबुक के साथ व्हाट्सएप को डेटा (जैसे लोकेशन और नंबर) शेयर करने से नहीं रोक पाएंगे। इसे रोकने के लिये इन्हें अपने अकाउंट को पूरी तरह से बंद करना होगा।
    • इस प्रकार के नए अपडेट को फेसबुक पर विज्ञापनों को वैयक्तिकृत करने के साथ-साथ इसके प्लेटफॉर्म पर होने वाले व्यावसायिक इंटरैक्शन को आसान बनाने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
  • सरकार के अनुसार, व्हाट्सएप की यह नई नीति यूरोप में इसके उपयोगकर्त्ताओं की तुलना में भारतीय उपयोगकर्त्ताओं के साथ भेदभाव करती है।
    • यूरोप में व्हाट्सएप उपयोगकर्त्ता यूरोपीय संघ (EU) में लागू सामान्य डेटा संरक्षण विनियमन (General Data Protection Regulation) नामक कानूनों के कारण इस नई नीति से बच सकते हैं। इस विनियमन से वे अपने डेटा को फेसबुक के साथ शेयर करने से मना कर सकते हैं। 

डेटा संरक्षण का अर्थ:

  • डेटा सुरक्षा भ्रष्टाचार, समझौता या नुकसान से महत्त्वपूर्ण जानकारियों की सुरक्षा की प्रक्रिया है।
    • डेटा सूचना का एक बड़ा संग्रह है जो कंप्यूटर या नेटवर्क पर संग्रहीत होता है।
  • डेटा सुरक्षा का महत्त्व बढ़ता जा रहा है क्योंकि नई और संग्रहीत डेटा की मात्रा तेज़ी से बढ़ती जा रही है।

आवश्यकता:

  • इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (Internet and Mobile Association of India) की डिजिटल इन इंडिया रिपोर्ट, 2019 के अनुसार लगभग 504 मिलियन सक्रिय वेब उपयोगकर्त्ता हैं और भारत का ऑनलाइन बाज़ार चीन के बाद दूसरे स्थान पर है।
  • व्यक्तियों और उनकी ऑनलाइन खरीदारी आदतों के बारे में जानकारी लाभ का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गया है। यह निजता के हनन का एक संभावित तरीका भी है क्योंकि यह अत्यंत व्यक्तिगत पहलुओं को प्रकट कर सकता है।
    • इसे कंपनियाँ, सरकारें और राजनीतिक दल महत्त्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि ये इसका उपयोग लोगों ऑनलाइन विज्ञापन देने के लिये कर सकते हैं।

विश्व में डेटा सुरक्षा के लिये कानून:

  • यूरोपीय संघ: जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (GDPR) का प्राथमिक उद्देश्य व्यक्तियों को उनके व्यक्तिगत डेटा पर नियंत्रण प्रदान करना है।
  • अमेरिका: इसके पास डिजिटल प्राइवेसी के मामलों से निपटने के लिये क्षेत्रीय कानून हैं जैसे- यूएस प्राइवेसी एक्ट, 1974, ग्राम्म-लीच-ब्लिले एक्ट (Gramm-Leach-Bliley Act) आदि।

भारत में पहल:

  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000:
    • यह कंप्यूटर सिस्टम से डेटा के संबंध में कुछ उल्लंघनों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। इसमें कंप्यूटर, कंप्यूटर सिस्टम और उसमें संग्रहीत डेटा के अनधिकृत उपयोग को रोकने के प्रावधान हैं।
  • व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2019:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2017 में के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ मामले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना, जिसके बाद केंद्र सरकार ने डेटा संरक्षण के अनुशासन में कानून का प्रस्ताव करने के लिये न्यायमूर्ति बी. एन. श्रीकृष्ण समिति की नियुक्ति की थी।
    • इस समिति ने व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2018 के रूप में अपनी रिपोर्ट और मसौदा सरकार को सौंपा।
    • संसद ने वर्ष 2019 में फिर से संशोधित किया और नए बिल को व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक (Personal Data Protection Bill), 2019 नाम दिया है।
      • इस विधेयक का उद्देश्य व्यक्तिगत डेटा से संबंधित व्यक्तियों की गोपनीयता की सुरक्षा करना और उक्त उद्देश्यों तथा किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत डेटा से संबंधित मामलों के लिये भारतीय डेटा संरक्षण प्राधिकरण (Data Protection Authority of India) की स्थापना करना है।

व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक 2019 से संबंधित चिंताएँ:

  • यह दो तरफा तलवार की तरह है। जहाँ यह भारतीयों के व्यक्तिगत डेटा को मूल अधिकारों के साथ सशक्त बनाकर उनकी रक्षा करता है, वहीं दूसरी ओर यह केंद्र सरकार को ऐसी छूट देता है जो व्यक्तिगत डेटा को संसाधित करने के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
    • डेटा सिद्धांतों की अस्पष्टता के कारण सरकार ज़रूरत पड़ने पर संवेदनशील व्यक्तिगत डेटा को भी संसाधित (Process) कर सकती है।

आगे की राह

  • इस डिजिटल युग में डेटा एक मूल्यवान संसाधन है जिसे अनियंत्रित नहीं छोड़ा जाना चाहिये। इस संदर्भ में भारत को एक मज़बूत डेटा संरक्षण व्यवस्था बनानी चाहिये।
  • अब समय आ गया है कि व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2019 में आवश्यक परिवर्तन किये जाएँ, जो उपयोगकर्त्ता की गोपनीयता पर ज़ोर देने के साथ उपयोगकर्त्ता अधिकारों पर केंद्रित हो। इन अधिकारों को लागू करने के लिये एक गोपनीयता आयोग की स्थापना करनी होगी।
  • सरकार को सूचना के अधिकार को मज़बूत करते हुए नागरिकों की निजता का भी सम्मान करना होगा। इसके अतिरिक्त पिछले दो-से तीन वर्षों में हुई तकनीकी विकास की भी इस संदर्भ में आवश्यकता है कि इनमें डेटा को सुरक्षित करने की क्षमता है।

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

शुद्ध शून्य उत्सर्जन: आईईए

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (International Energy Agency’s- IEA) द्वारा शुद्ध शून्य उत्सर्जन (Net Zero Emissions - NZE) हेतु  'नेट ज़ीरो बाय 2050'  (Net Zero by 2050) नाम से अपना रोडमैप जारी किया गया है।

  • यह विश्व का पहला व्यापक ऊर्जा रोडमैप है जिसे नवंबर 2021 में जलवायु परिवर्तन पर  स्कॉटलैंड के ग्लासगो में संपन्न होने वाले संयुक्त राष्ट्र के कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ कोप-26 सम्मेलन में अपनाया जाएगा।
  • ‘शुद्ध शून्य उत्सर्जन' का तात्पर्य उत्पादित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और वातावरण से निकाले गए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मध्य एक समग्र संतुलन स्थापित करना है।

 प्रमुख बिंदु: 

 आवश्यकता:

  • यदि अभी भी देशों द्वारा जलवायु संबंधी  प्रतिबद्धताओं जिसमें वर्ष 2050 तक कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन को ‘शुद्ध शून्य उत्सर्जन' तक लाना तथा वैश्विक तापन को 1.5 °C तक सीमित करना शामिल है को पूरी तरह से हासिल कर लिया जाए तो उसके बाद भी वे वैश्विक ऊर्जा लक्ष्य को प्राप्त करने से काफी पीछे होगी ।

रोडमैप का उद्देश्य:

  • प्रभाव की जांँच करना:
    • घोषित ‘शुद्ध शून्य उत्सर्जन’ लक्ष्यों के प्रभावों की जांच करना तथा ऊर्जा क्षेत्र में  उनके महत्त्व को बताना।
  • नया ऊर्जा मार्ग:
    • वर्ष 2050 तक विश्व स्तर पर NZE प्राप्त करने की दिशा में नया ऊर्जा-क्षेत्र मार्ग (Energy-Sector Pathway ) विकसित करना।
  • सरकारों को सिफारिशें:
    • निकट अवधि में कार्य करने हेतु सरकारों के लिये प्रमुख नीतिगत सिफारिशों को निर्धारित करना,अन्य सतत् विकास लक्ष्यों तक पहुँचने की दृष्टि से शुद्ध-शून्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये एक दीर्घकालिक एजेंडा निर्धारित करना।

अनुसरण किये जाने वाले सिद्धांत:

  • प्रौद्योगिकी तटस्थता:
    • प्रौद्योगिकी तटस्थता, लागत, तकनीकी तैयारी, देश और बाजार की स्थितियांँ तथा व्यापक सामाजिक विशेषताओं  के साथ व्यापार की स्थिति ।
      • प्रौद्योगिकी तटस्थता को सामान्यत सूचना या डेटा के रूप में शामिल ज्ञान पर निर्भरता के बिना, विकास, अधिग्रहण, उपयोग या व्यवसायीकरण हेतु अपनी आवश्यकताओं के लिये सबसे उपयुक्त तथा  उचित प्रौद्योगिकी चुनने के लिये  व्यक्तियों और संगठनों की स्वतंत्रता के रूप में वर्णित किया जाता है।
  • सार्वभौमिक सहयोग:
    • सार्वभौमिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, जिसमें सभी देश न्यायसंगत पारगमन (Just Transition) दृष्टिकोण से तथा जहांँ उन्नत अर्थव्यवस्थाएंँ नेतृत्व करती हैं, निवल शून्य में योगदान करते हो।
  • अस्थिरता को कम करना:
    • जहांँ भी संभव हो  क्षेत्र में एक व्यवस्थित पारगमन या ट्रांज़िशन हो जो ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करे तथा ऊर्जा बाजारों में अस्थिरता को कम  करती हो।   

रोडमैप द्वारा निर्धारित महत्त्वपूर्ण कदम: वर्ष 2050 तक वैश्विक लक्ष्य को शून्य उत्सर्जन तक ले जाने हेतु 400 से अधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय शामिल हैं, इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

  • जीवाश्म ईंधन:
    • नई जीवाश्म ईंधन आपूर्ति परियोजनाओं में कोई निवेश नहीं किया जाएगा तथा नए निर्बाध कोयला संयंत्रों हेतु निवेश से संबंधित कोई और अंतिम  निर्णय नहीं लिया जाएगा ।
  • वाहन बिक्री:
    • वर्ष 2035 तक नई आंतरिक दहन इंजन वाली कारों की बिक्री पर  प्रतिबंध।
  • विद्युत उत्पादन:
    • वर्ष 2040 तक वैश्विक बिजली क्षेत्र को शुद्ध-शून्य उत्सर्जन तक पहुंँचना।
    • रोडमैप में वर्ष 2030 तक सौर ऊर्जा के वार्षिक परिवर्द्धन या वृद्धि को 630 गीगावाट तक पहुंँचने और पवन ऊर्जा के 390 गीगावाट तक पहुंँचने का आह्वान किया गया है।
      • यह 2020 में निर्धारित किये गए रिकॉर्ड स्तर का चार गुना है।
    • वर्ष 2050 तक वैश्विक बिजली उत्पादन को बढ़ाने हेतु रोडमैप में निम्नलिखित सुझाव दिये गए हैं:
      • 714% अधिक नवीकरणीय ऊर्जा।
      • 104% अधिक परमाणु ऊर्जा।
      • 93% कम कोयला ( कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS) के साथ सभी शेष कोयला)।
      • 85% कम प्राकृतिक गैस (CCS के साथ 73%)।

महत्त्व:

  • यह रोडमैप ऊर्जा और उद्योग क्षेत्रों से ग्रीनहाउस गैस (GreenHouse Gas- GHG) उत्सर्जन को कम करने में आदर्श और वास्तविकता के मध्य मौजूदा अंतर को कम करने वाला माना जा रहा है।

आलोचना:

  • सिद्धांत को ज़रअंदाज करना:
    • IEA ने 'जलवायु न्याय' के सिद्धांत की अनदेखी करते हुए महत्त्वपूर्ण उत्सर्जकों (Historical Emitters) पर विचार नहीं किया।
    • विकसित देशों को GHG उत्सर्जन की कीमत पर औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) से लाभ हुआ, जिसने जलवायु परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
      • विकसित देशों के पास डीकार्बोनाइज़ करने हेतु अर्थव्यवस्थाएंँ विद्यमान हैं, जिससे गरीब और विकासशील देशों को स्वच्छ ऊर्जा विकल्पों पर चुनाव करने के लिये वित्तपोषण और नवाचार को व्यवस्थित करने का विकल्प मिल जाता है।
  • विनियमों की आवश्यकता:
    • संभावित रूप से ऊर्जा की कम खपत हेतु व्यवहार परिवर्तन पर अधिक निर्भर होने की आवश्यकता है।
    • अर्थव्यवस्थाओं में रचनात्मक सामाजिक परिवर्तन को सकारात्मक रूप से प्रेरित करने हेतु  उन्हें  विनियमित करना आवश्यक होगा।

अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA):

  • अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी वर्ष 1974 में पेरिस (फ्राँस) में स्थापित एक स्वायत्त अंतर-सरकारी संगठन है।
  • IEA मुख्य रूप से ऊर्जा नीतियों पर ध्यान केंद्रित करती है, जिसमें आर्थिक विकास, ऊर्जा सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण आदि शामिल हैं। इन नीतियों को 3 E’s of IEA के रूप में भी जाना जाता है।
  • भारत मार्च 2017 में IEA का एसोसिएट सदस्य बना था, हालाँकि भारत इससे पूर्व से ही संगठन के साथ कार्य कर रहा था।
    • हाल ही में,भारत ने वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा, स्थिरता में सहयोग को मज़बूत करने हेतु  IEA के साथ एक रणनीतिक साझेदारी समझौता किया है।
  • IEA द्वारा  प्रतिवर्ष विश्व ऊर्जा आउटलुक रिपोर्ट जारी की जाती है।
  • IEA का इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी क्लीन कोल सेंटर, कोयले को सतत् विकास लक्ष्यों के अनुकूल ऊर्जा का स्वच्छ स्रोत बनाने पर स्वतंत्र जानकारी और विश्लेषण प्रदान करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहा है।

आगे की राह: 

  •  विश्व को 30 वर्षों के भीतर ऊर्जा क्षेत्र को लागत प्रभावी तरीके से बदलने हेतु एक कठिन कार्य का सामना करना पड़ेगा, भले ही विश्व अर्थव्यवस्था का आकार दोगुने से अधिक हो और वैश्विक जनसंख्या में 2 अरब लोगों की वृद्धि क्यों  न हो।
  • वर्ष 2050 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य को प्राप्त करना कुछ प्रमुख आवश्यकता  अंतरिम कदमों पर  निर्भर करता है, जैसे- हाइड्रोजन और नवीकरणीय ऊर्जा को सस्ती करना और वर्ष 2030 तक हरित ऊर्जा को सभी के लिये सुलभ बनाना।

 स्रोत: डाउन टू अर्थ


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

ज़ेब्राफिश और मानव अंतरिक्षयानों में उसका महत्त्व

चर्चा में क्यों?

ज़ेब्राफिश के संबंध में एक नए शोध ने प्रदर्शित किया है कि ‘प्रेरित हाइबरनेशन’ (टॉरपोर) अंतरिक्ष उड़ान के दौरान अंतरिक्ष के तत्त्वों विशेष रूप से विकिरण से मनुष्यों की रक्षा कैसे कर सकता है।

प्रमुख बिंदु:

अध्ययन:

  • शोधकर्त्ताओं ने ज़ेब्राफिश को विकिरण की उपस्थिति में रखकर यह देखा कि मंगल पर छह महीने की यात्रा पर क्या अनुभव होगा।
    • उन्होंने ऑक्सीडेटिव तनाव (एंटीऑक्सीडेंट और फ्री रेडिकल के बीच असंतुलन), डीएनए क्षति, ‘स्ट्रेस हार्मोन सिग्नलिंग’ तथा कोशिका-विभाजन चक्र में परिवर्तन के लक्षण देखे।
  • शोधकर्त्ताओं ने फिर ज़ेब्राफिश के दूसरे समूह में ‘टॉरपोर’ को प्रेरित किया जिन्हें विकिरण की उतनी ही मात्रा में रखा गया।
    • परिणामों से पता चला कि टॉरपोर ने ज़ेब्राफिश के भीतर चयापचय दर को कम कर दिया और विकिरण के हानिकारक प्रभावों से रक्षा करते हुए ‘रेडियो प्रोटेक्टिव’ प्रभाव पैदा किया।
    • टॉरपोर, हाइबरनेशन तथा ‘सस्पेंडेड एनीमेशन’ का एक संक्षिप्त रूप है। यह आमतौर पर एक दिन से भी कम समय तक रहता है। जब एक जानवर का चयापचय, दिल की धड़कन, श्वास और शरीर का तापमान बहुत कम हो जाता है।

ज़ेब्राफिश:

वैज्ञानिक नाम: डेनियो रेरियो

परिवेश:

  • यह एक छोटी (2-3 सेंटीमीटर लंबी) मीठे पानी की मछली है जो उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाई जाती है। यह मछली दक्षिण एशिया के इंडो-गंगा के मैदानों की मूल निवासी है जहाँ वे ज़्यादातर धान के खेतों में और यहाँ तक कि स्थिर जल स्रोतों और नदियों में भी पाई जाती हैं।
  • उन्हें IUCN की रेड लिस्ट में कम संकटग्रस्त प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

जैव चिकित्सा अनुसंधान में प्रयोग:

  • मस्तिष्क, हृदय, आँख, रीढ़ की हड्डी सहित इसके लगभग सभी अंगों की पर्याप्त पुनर्जनन क्षमता के कारण उनका उपयोग कशेरुकीय विकास, आनुवंशिकी और अन्य बीमारियों का अध्ययन करने के लिये किया जाता है।
  • ज़ेब्राफिश में मनुष्यों के समान आनुवंशिक संरचना (लगभग 70%) होती है।
  • एक कशेरुकीय के रूप में ज़ेब्राफिश में मनुष्यों के समान ही प्रमुख अंग और ऊतक होते हैं। उनकी मांसपेशियां, रक्त, गुर्दे और आँखें मानव प्रणालियों के साथ कई विशेषताएँ साझा करती हैं।

अध्ययन की आवश्यकता:

  • हाल की तकनीकी प्रगति ने अंतरिक्ष यात्रा को और अधिक सुलभ बना दिया है। हालाँकि लंबी अवधि की अंतरिक्ष यात्रा मानव स्वास्थ्य के लिये अविश्वसनीय रूप से हानिकारक है।

महत्त्व:

  • अध्ययन यह समझने में मदद कर सकता है कि हाइबरनेशन का एक रूप जिसे प्रेरित टॉरपोर (कम चयापचय गतिविधि की स्थिति) के रूप में जाना जाता है, रेडियो-सुरक्षात्मक प्रभाव प्रदान कर सकता है।
    • हाइबरनेशन कई प्रजातियों में पाई जाने वाली एक शारीरिक स्थिति है।
    • यह उन्हें भोजन की कमी और कम पर्यावरणीय तापमान जैसी कठोर परिस्थितियों से बचाता है।
  • इसलिये हाइबरनेशन को दोहराने से अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष उड़ान की कठोर परिस्थितियों से बचाया जा सकता है, जिसमें विकिरण जोखिम, हड्डी और मांसपेशियों की बर्बादी, उम्र बढ़ने और संवहनी समस्याओं जैसी चुनौतियाँ शामिल हैं।
  • यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी न केवल स्वास्थ्य कारणों से हाइबरनेटिंग के अंतरिक्ष यात्रियों पर प्रभावों के संबंध में अनुसंधान कर रही है, यह अंतरिक्ष यात्रा के लिये आवश्यक उपभोग्य सामग्रियों की मात्रा भी कम कर सकती है और अंतरिक्षयान के द्रव्यमान को एक-तिहाई तक कम करने की अनुमति दे सकती है।

अंतरिक्ष यात्रा की चुनौतियाँ:

विकिरण:

  • कोई भी अंतरिक्ष उड़ान पृथ्वी के सुरक्षात्मक चुंबकीय क्षेत्र के बाहर होती है, जहाँ अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशनों की तुलना में विकिरण बहुत अधिक होता है। (अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पृथ्वी के सुरक्षात्मक वातावरण के भीतर है फिर भी विकिरण पृथ्वी की तुलना में 10 गुना अधिक है।)
  • विकिरण जोखिम कैंसर के जोखिम को बढ़ाता है, केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को नुकसान पहुँचाता है, संज्ञानात्मक कार्य को बदल सकता है, मोटर फ़ंक्शन को कम कर सकता है और व्यवहार में त्वरित परिवर्तन कर सकता है।

अलगाव की स्थिति:

  • लंबे समय तक एक छोटी सी जगह में अंतरिक्ष यात्रियों के बीच व्यवहार संबंधी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
  • नींद की कमी, सर्कैडियन डिसिंक्रनाइज़ेशन और काम का अधिभार इस मुद्दे को और अधिक जटिल बनाता है जो प्रतिकूल स्वास्थ्य परिणाम पैदा कर सकता है।

पृथ्वी से दूरी:

  • जैसे-जैसे पृथ्वी से अंतरिक्ष उड़ान की दूरी बढ़ती है, संचार में भी दूरी बढ़ती जाती है। उदाहरण के लिये,मंगल की अंतरिक्ष यात्रा के मामले में संचार में 20 मिनट की देरी होगी।

गुरुत्वाकर्षण:

  • अलग-अलग ग्रहों में अलग-अलग गुरुत्वाकर्षण प्रभाव होता है, उदाहरण के लिये, अंतरिक्ष यात्रियों को मंगल पर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के तीन/आठवें हिस्से में रहने और काम करने की आवश्यकता होगी। इसके अतिरिक्त यात्रा के दौरान खोजकर्त्ता पूर्ण भारहीनता का अनुभव करेंगे।
  • समस्या तब और अधिक जटिल हो जाती है जब अंतरिक्ष यात्री एक गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से दूसरे में संक्रमण करते हैं।

प्रतिकूल/बंद वातावरण:

  • नासा को ज्ञात हुआ है कि अंतरिक्षयान के अंदर का पारिस्थितिकी तंत्र अंतरिक्ष यात्री के रोजमर्रा के जीवन में एक बड़ी भूमिका निभाता है। सूक्ष्मजीव अंतरिक्ष में अपनी विशेषताओं को बदल सकते हैं और आपके शरीर पर स्वाभाविक रूप से रहने वाले सूक्ष्मजीव अंतरिक्ष स्टेशन जैसे बंद आवासों में एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में अधिक आसानी से स्थानांतरित हो जाते हैं।

स्रोत- डाउन टू अर्थ


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

चीन के 17+1 से लिथुआनिया का इस्तीफा

चर्चा में क्यों?

हाल ही में लिथुआनिया ने मध्य और पूर्वी यूरोप के साथ चीन के 17+1 सहयोग मंच (17+1 Cooperation Forum) को "विभाजनकारी" कहकर छोड़ दिया, जिसके बाद इसका स्वरूप अब 16+1 हो गया है।

  • लिथुआनिया ने (बाल्टिक देश) अन्य यूरोपीय संघ (European Union) के सदस्यों से "चीन के साथ अधिक प्रभावी 27+1 दृष्टिकोण (27+1 Approach) अपनाने तथा संवाद जारी रखने’ का भी आग्रह किया है।

प्रमुख बिंदु

17+1 के विषय में:

  • गठन:
    • 17+1 (चीन और मध्य तथा पूर्वी यूरोप के देश) पहल चीन के नेतृत्व वाला एक प्रारूप है, जिसकी स्थापना वर्ष 2012 में बुडापेस्ट में बीजिंग एवं मध्य व पूर्वी यूरोप (Central and Eastern Europe- CEE) के सदस्य देशों के बीच सीईई क्षेत्र में निवेश और व्यापार पर सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से की गई थी।
  • सदस्य देश:
    • इस पहल में यूरोपीय संघ के  बारह सदस्य राज्य और पाँच बाल्कन राज्य (अल्बानिया, बोस्निया, हर्जेगोविना, बुल्गारिया, क्रोएशिया, चेक गणराज्य, एस्टोनिया, ग्रीस, हंगरी, लातविया, लिथुआनिया, मैसेडोनिया, मोंटेनेग्रो, पोलैंड, रोमानिया, सर्बिया, स्लोवाकिया और स्लोवेनिया) शामिल हैं।
  • लक्ष्य और उद्देश्य:
    • यह सदस्य राज्यों में पुलों, मोटरमार्गों, रेलवे लाइनों और बंदरगाहों के आधुनिकीकरण जैसी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं पर केंद्रित है।
    • इस मंच को चीन की बेल्ट एंड रोड पहल (Belt and Road initiative- BRI) के विस्तार के रूप में देखा जाता है।
      • भारत ने लगातार बीआरआई का विरोध किया है क्योंकि इसका एक प्रमुख हिस्सा पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर (PoK) से होकर गुज़रता है।

घटते संबंधों की पृष्ठभूमि:

  • 17+1 पहल पर चीन का पक्ष:
    • चीन का कहना है कि उसका उद्देश्य इस पहल के माध्यम से पश्चिमी यूरोपीय राज्यों की तुलना में कम विकसित यूरोपीय देशों के साथ अपने संबंधों को सुधारना है।
    • चीन और सीईई देशों के बीच व्यापार संबंध साधारण बने रहें, क्योंकि इसकी स्थापना के बाद से सीईई देशों का व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है।
  • बढ़ती दूरी:
    • वास्तविक निवेश की कमी का हवाला देते हुए 17+1 पहल के नौवें शिखर सम्मेलन को छोड़ने के चेक गणराज्य के राष्ट्रपति के फैसले ने बीजिंग और प्राग के बीच मतभेदों को प्रदर्शित किया था।
    • कुछ सीईई देशों ने वर्ष 2020 में बीआरआई कार्यक्रम में भाग लेने से इनकार कर दिया।
  • हुआवेई संतुलन:
    • कुछ सीईई देशों ने चीन के 5जी नेटवर्क विस्तार पर प्रतिबंध लगाने के लिये अमेरिका के साथ एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किये।

बाल्टिक देश

Estonia

  • बाल्टिक देशों में यूरोप का उत्तर-पूर्वी क्षेत्र और बाल्टिक सागर के पूर्वी किनारे पर स्थित देश एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया शामिल हैं।
  • बाल्टिक देश पश्चिम और उत्तर में बाल्टिक सागर (Baltic Sea) से घिरे हुए हैं जिसके नाम पर क्षेत्र का नाम रखा गया है।
  • बाल्टिक क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध नहीं है। हालाँकि एस्टोनिया खनिज तेल उत्पादक है लेकिन इस क्षेत्र में खनिज और ऊर्जा संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा आयात किया जाता है।
  • भारत और बाल्टिक देशों के बीच ऐतिहासिक संपर्क और भाषायी मूल की समानता (Common linguistic Roots) विद्यमान हैं। बाल्टिक देशों की अत्याधुनिक तकनीक और नवाचार परिवेश भारत के विशाल बाज़ार और इन तकनीकी आवश्यकता के पूरक हैं।

बाल्कन देश

The-Balkans

  • इस भौगोलिक शब्द का उपयोग दस संप्रभु राज्यों (अल्बानिया, बोस्निया, हर्जेगोविना, बुल्गारिया, क्रोएशिया, कोसोवो, मैसेडोनिया, मोंटेनेग्रो, रोमानिया, सर्बिया और स्लोवेनिया) के लिये किया जाता है।
  • इस क्षेत्र का नाम बाल्कन पर्वत पर पड़ा है जो दक्षिणी यूरोप में स्थित है।
  • इस क्षेत्र की अधिकांश आबादी दक्षिण स्लावों की है।
  • इस क्षेत्र में एक बहुत ही विविध जातीय-भाषायी परिदृश्य है। बल्गेरियाई, मैसेडोनियन और स्लोवेनियाई अपनी-अपनी स्लाव भाषा बोलते हैं, जबकि सर्बिया, क्रोएशिया, बोस्निया, हर्जेगोविना तथा मोंटेनेग्रो के स्लाव सभी सर्बो-क्रोएशियाई बोलियाँ बोलते हैं।

स्रोत: द हिंदू


महत्त्वपूर्ण संस्थान

भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (Competition Commission of India- CCI) का 12वाँ वार्षिक दिवस (20 मई को) मनाया गया।

प्रमुख बिंदू

आयोग के बारे में:

  •  सांविधिक निकाय: 
    • भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग एक सांविधिक निकाय है जो प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम, 2002 के उद्देश्यों को लागू करने के लिये ज़िम्मेदार है।
    • CCI की स्थापना केंद्र सरकार द्वारा 14 अक्तूबर, 2003 को की गई थी, लेकिन इसने 20 मई, 2009 से पूरी तरह से कार्य करना शुरू किया।
  • CCI की संरचना: 
    • प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम के अनुसार, आयोग में एक अध्यक्ष और छह सदस्य होते हैं जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है।

CCI का गठन:

  • CCI की स्थापना प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम, 2002 के प्रावधानों के तहत की गई थी:
    • प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम, 2007 को प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम, 2002 में संशोधन के बाद अधिनियमित किया गया था, जिसके कारण CCI और प्रतिस्पर्द्धा अपीलीय अधिकरण की स्थापना हुई।

CCI की भूमिका और कार्य:

  • प्रतिस्पर्द्धा पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले अभ्यासों को समाप्त करना, प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देना और उसे जारी रखना, उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करना तथा भारतीय बाज़ारों में व्यापार की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना।
  • भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु निम्नलिखित उपाय करता है:
    • उपभोक्ता कल्याण: उपभोक्ताओं के लाभ और कल्याण के लिये बाज़ारों को कार्यसक्षम बनाना।
    • अर्थव्यवस्था के तीव्र तथा समावेशी विकास एवं वृद्धि के लिये देश की आर्थिक गतिविधियों में निष्पक्ष और स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा सुनिश्चित करना।
    • आर्थिक संसाधनों के कुशलतम उपयोग के उद्देश्य से प्रतिस्पर्द्धा नीतियों को लागू करना।
    • क्षेत्रीय नियामकों के साथ प्रभावी संबंधों व अंतःक्रियाओं का विकास व संपोषण ताकि प्रतिस्पर्द्धा कानून के साथ क्षेत्रीय विनियामक कानूनों का बेहतर संरेखण/तालमेल सुनिश्चित हो सके।
    • प्रतिस्पर्धा के पक्ष में समर्थन को प्रभावी रूप से आगे बढ़ाना और सभी हितधारकों के बीच प्रतिस्पर्द्धा के लाभों को लेकर सूचना का प्रसार करना ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा की संस्कृति का विकास तथा संपोषण किया जा सके।

CCI की आवश्यकता:

  • मुक्त उद्यम को बढ़ावा देने के लिये: आर्थिक स्वतंत्रता और हमारे मुक्त उद्यम प्रणाली के संरक्षण के लिये प्रतिस्पर्द्धा महत्त्वपूर्ण है।
  • बाज़ार को विकृतियों से बचाने के लिये: प्रतिस्पर्द्धा कानून की आवश्यकता इसलिये उत्पन्न हुई क्योंकि बाज़ार विफलताओं एवं विकृतियों का शिकार हो सकता है और अपनी प्रधान स्थिति के दुरुपयोग जैसे प्रतिस्पर्द्धा विरोधी गतिविधियों का सहारा ले सकते हैं जो आर्थिक दक्षता और उपभोक्ता कल्याण पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
  • घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देने के लिये: ऐसे युग में जहाँ अर्थव्यवस्थाएँ बंद अर्थव्यवस्थाओं से खुली अर्थव्यवस्थाओं में परिणत हो रही हैं, घरेलू उद्योगों की निरंतर व्यवहार्यता सुनिश्चित करने के लिये एक प्रभावी प्रतिस्पर्द्धा आयोग का होना आवश्यक है जो संतुलन को बनाए रखते हुए उद्यमों को प्रतिस्पर्द्धा के लाभों का अवसर प्रदान करती है।

स्रोत: पीआईबी


कृषि

खरीफ रणनीति-2021

चर्चा में क्यों?

कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिये ‘खरीफ रणनीति-2021’ तैयार की है।

खरीफ सीज़न

  • इस सीज़न फसलें जून से जुलाई माह तक बोई जाती हैं और कटाई सितंबर-अक्तूबर माह के बीच की जाती है।
  • फसलें: इसके तहत चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, अरहर, मूँग, उड़द, कपास, जूट, मूँगफली और सोयाबीन आदि शामिल हैं।
  • राज्य: असम, पश्चिम बंगाल, ओडिशा के तटीय क्षेत्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र।

प्रमुख बिंदु

खरीफ रणनीति-2021

  • इस रणनीति के तहत खरीफ सत्र-2021 के लिये किसानों को मिनी किट के रूप में बीजों की अधिक उपज वाली किस्मों के मुफ्त वितरण की महत्त्वाकांक्षी योजना शामिल है।
  • राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (तेल बीज और पाम ऑयल) के तहत सोयाबीन और मूँगफली के लिये क्षेत्र और उत्पादकता वृद्धि दोनों के लिये रणनीति तैयार की गई है।
  • इस रणनीति के माध्यम से तिलहन के अंतर्गत अतिरिक्त 6.37 लाख हेक्टेयर क्षेत्र लाया जाएगा और साथ ही 120.26 लाख क्विंटल तिलहन और 24.36 लाख टन खाद्य तेल के उत्पादन का अनुमान है।

तिलहन से संबंधित बुनियादी जानकारी

  • तिलहन फसलें, भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण कारक हैं, जो कि फसलों में अनाज के बाद दूसरे स्थान पर हैं।
    •  1990 के दशक की शुरुआत में ‘पीली क्रांति’ के माध्यम से प्राप्त तिलहन क्षेत्र में आत्मनिर्भरता लंबी अवधि तक नहीं टिक सकी थी।
  • तिलहन की फसलें मुख्य रूप से उनसे वनस्पति तेल प्राप्त करने के उद्देश्य से उगाई जाती हैं। उनमें तेल की मात्रा 20 प्रतिशत (सोयाबीन) से लेकर 40 प्रतिशत (सूरजमुखी और कैनोला) तक होती है।
  • अनुकूल पर्यावरणीय परिस्थितियों के कारण भारत बड़ी मात्रा में तिलहन का उत्पादन करने में सक्षम है।
    • अरंडी के बीज, तिल, रेपसीड, मूँगफली, सरसों, सोयाबीन, अलसी, नाइजर बीज, सूरजमुखी और कुसुम कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण तिलहन फसल हैं, जिनका उत्पादन भारत में किया जाता है।
  • तिलहन के उत्पादन में भारत का विश्व में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है।
    • चीन के बाद भारत मूँगफली का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है और चीन तथा कनाडा के बाद रेपसीड के उत्पादन में तीसरे स्थान पर है।
  • भारत में प्रमुख तिलहन उत्पादक क्षेत्रों में शामिल हैं: राजस्थान, गुजरात, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (तिलहन और पाम ऑयल) 

  • उद्देश्य
    • तिलहन और पाम ऑयल के उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि करके खाद्य तेलों की उपलब्धता बढ़ाना और खाद्य तेलों के आयात को कम करना।
  • NFSM के तहत NMOOP का विलय
    • तिलहन और पाम ऑयल पर राष्ट्रीय मिशन (NMOOP) को वर्ष 2014-15 में शुरू किया गया था और यह वर्ष 2017-18 तक जारी रहा।
    • वर्ष 2018-19 से NMOOP को NFSM के तहत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (तिलहन और पाम ऑयल) के रूप में लागू किया जा रहा है, जिसके तहत NFSM-तिलहन, NFSM-पाम ऑयल और NFSM-ट्री बोर्न तिलहन आदि उप-घटक के रूप में शामिल हैं।
  • बहुआयामी नीति
    • किस्मों के प्रतिस्थापन पर ध्यान देने के साथ ‘बीज प्रतिस्थापन अनुपात’ (SRR) में बढ़ोतरी करना।
      • बीज प्रतिस्थापन अनुपात (SRR) का आशय कृषि से व्युत्पन्न पारंपरिक बीज की तुलना में प्रमाणित/गुणवत्तापूर्ण बीजों के साथ बोए गए कुल फसल वाले क्षेत्र के प्रतिशत से होता है। 
    • पानी की बचत करने वाले उपकरणों (स्प्रिंकलर/रेन गन), ज़ीरो टिलेज, इंटर-क्रॉपिंग, रिले क्रॉपिंग, सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के रणनीतिक अनुप्रयोग और मिट्टी में सुधार करने वाली जलवायु लचीला प्रौद्योगिकियों को अपनाकर उत्पादकता में सुधार करना। 
    • कम उपज वाले खाद्यान्नों के विविधीकरण के माध्यम से क्षेत्र का विस्तार करना।
    • क्षमता निर्माण।
    • बेहतर कृषि पद्धतियों को अपनाने के लिये क्लस्टर प्रदर्शनों का समर्थन करना।
    • गुणवत्ता वाले बीजों की अधिक उपलब्धता के लिये क्षेत्रीय दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित करते हुए 36 तिलहन केंद्रों का निर्माण।
    • खेत और ग्राम स्तर पर कटाई उपरांत प्रबंधन।
    • किसान उत्पादक संगठनों का गठन।
  • वित्तपोषण पैटर्न
    • केंद्र और राज्य सरकारों के बीच लागत साझा करने का पैटर्न, सामान्य श्रेणी के राज्यों के लिये 60:40 और उत्तर पूर्वी तथा हिमालयी राज्यों के लिये 90:10 के अनुपात में है।
    • कुछ हस्तक्षेपों जैसे- राज्य और केंद्रीय बीज उत्पादक एजेंसियों दोनों द्वारा ब्रीडर बीजों की खरीद और किसानों को बीज मिनीकिट की आपूर्ति आदि के लिये भारत सरकार द्वारा 100% वित्तपोषण प्रदान किया जाएगा।

स्रोत: पी.आई.बी.


जैव विविधता और पर्यावरण

कोप-28

चर्चा में क्यों? 

संयुक्त अरब अमीरात ने वर्ष 2023 में अबू धाबी में ‘संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन' (United Nations Framework Convention on Climate Change- UNFCCC) के कोप-28 (COP-28) की मेज़बानी करने की पेशकश की घोषणा की है।

  • COP26 को वर्ष 2020 में स्थगित कर दिया गया जो नवंबर 2021 में ब्रिटेन के ग्लासगो में होगा।

प्रमुख बिंदु: 

UNFCCC के बारे में:

  • वर्ष 1992 में पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में ‘संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन' (United Nations Framework Convention on Climate Change- UNFCCC) पर हस्ताक्षर  किये गए, जिसे पृथ्वी शिखर सम्मेलन (Earth Summit), रियो शिखर सम्मेलन या रियो सम्मेलन के रूप में भी जाना जाता है।
    • भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल है जिसने जलवायु परिवर्तन (UNFCCC), जैव विविधता (जैविक विविधता पर सम्मेलन) और भूमि (संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम कन्‍वेंशन) पर तीनों रियो सम्मेलनों के COP की मेज़बानी की है।
  • 21 मार्च, 1994 से UNFCCC लागू हुआ और 197 देशों द्वारा इसकी पुष्टि की गई।
  •  यह वर्ष 2015 के पेरिस समझौते की मूल संधि (Parent Treaty) है। UNFCCC वर्ष 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) की मूल संधि भी है।
  • UNFCCC सचिवालय (यूएन क्लाइमेट चेंज) संयुक्त राष्ट्र की एक इकाई है जो जलवायु परिवर्तन के खतरे पर वैश्विक प्रतिक्रिया का समर्थन करती है। 

 उद्देश्य:

  • वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता को एक स्तर पर स्थिर करना जिससे  एक समय-सीमा के भीतर खतरनाक नतीजों को रोका जा सके ताकि पारिस्थितिक तंत्र को स्वाभाविक रूप से अनुकूलित कर सतत् विकास के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।

कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (COP)

  • यह UNFCCC सम्मेलन का सर्वोच्च निकाय है।
  • प्रत्येक वर्ष COP की बैठक सम्पन्न होती  है, COP की पहली बैठक मार्च 1995 में जर्मनी के बर्लिन में आयोजित की गई थी।
  • यदि कोई पार्टी सत्र की मेज़बानी करने की पेशकश नहीं करती है तो COP का आयोजन बॉन, जर्मनी में (सचिवालय) में किया जाता है। 
  • COP अध्यक्ष का कार्यकाल सामान्यतः पांँच संयुक्त राष्ट्र क्षेत्रीय समूहों के मध्य निर्धारित किया जाता  है जिनमें - अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका और कैरिबियन, मध्य और पूर्वी यूरोप तथा पश्चिमी यूरोप शामिल हैं।
  • COP का अध्यक्ष आमतौर पर अपने देश का पर्यावरण मंत्री होता है। जिसे COP सत्र के उद्घाटन के तुरंत बाद चुना जाता है।

महत्त्वपूर्ण परिणामों के साथ COPs

वर्ष 1995: COP1 (बर्लिन, जर्मनी)

वर्ष 1997: COP 3 (क्योटो प्रोटोकॉल)

  • यह कानूनी रूप से विकसित देशों को उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों हेतु बाध्य करता है।

वर्ष 2002: COP 8 (नई दिल्ली, भारत) दिल्ली घोषणा।

  • सबसे गरीब देशों की विकास आवश्यकताओं और जलवायु परिवर्तन को  कम करने  हेतु प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करता है।

वर्ष 2007: COP 13 (बाली, इंडोनेशिया)

  • पार्टियों ने बाली रोडमैप और बाली कार्ययोजना पर सहमति व्यक्त की, जिसने वर्ष 2012 के बाद के परिणाम की ओर तीव्रता  प्रदान की। इस योजना में पाँच मुख्य श्रेणियांँ- साझा दृष्टि, शमन, अनुकूलन, प्रौद्योगिकी और वित्तपोषण शामिल हैं।

वर्ष 2010: COP 16 (कैनकन)

  • कैनकन समझौतों के परिणामस्वरूप, जलवायु परिवर्तन से निपटने में विकासशील देशों की सहायता हेतु सरकारों द्वारा एक व्यापक पैकेज प्रस्तुत किया गया।
  • हरित जलवायु कोष, प्रौद्योगिकी तंत्र और कैनकन अनुकूलन ढांँचे की स्थापना की गई।

 वर्ष 2011: COP17 (डरबन)

  • सरकारें 2015 तक वर्ष 2020 से आगे की अवधि हेतु एक नए सार्वभौमिक जलवायु परिवर्तन समझौते के लिये प्रतिबद्ध हैं (जिसके परिणामस्वरूप 2015 का पेरिस समझौता हुआ)।

वर्ष 2015: COP 21 (पेरिस)

  • वैश्विक तापमान को पूर्व-औद्योगिक समय से 2.0oC से नीचे रखना तथा   और अधिक सीमित (1.5oC तक) करने का प्रयास करना।
  • इसके लिए अमीर देशों को वर्ष 2020 के बाद भी सालाना 100 अरब डॉलर की फंडिंग प्रतिज्ञा बनाए रखने की आवश्यकता है।

वर्ष 2016: COP22 (माराकेश)

  • पेरिस समझौते की नियम पुस्तिका लिखने की दिशा में आगे बढ़ना।
  • जलवायु कार्रवाई हेतु माराकेश साझेदारी की शुरुआत की।

2017: COP23, बॉन (जर्मनी)

  • देशों द्वारा इस बारे में बातचीत करना जारी रखा गया कि समझौता 2020 से कैसे कार्य करेगा।
  • डोनाल्ड ट्रम्प ने इस वर्ष की शुरुआत में पेरिस समझौते से हटने के अपने इरादे की घोषणा की।
  • यह एक छोटे द्वीपीय विकासशील राज्य द्वारा आयोजित किया जाने वाला पहला COP था, जिसमें फिजी ने राष्ट्रपति पद संभाला था।

वर्ष 2018: COP24,  काटोवाइस (पोलैंड)

  • इसके तहत वर्ष 2015 के पेरिस समझौते को लागू करने के लिये एक ‘नियम पुस्तिका’ को अंतिम रूप दिया गया था।
  • नियम पुस्तिका में जलवायु वित्तपोषण सुविधाएँ और राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) के अनुसार की जाने वाली कार्रवाइयाँ शामिल हैं।

वर्ष 2019: COP25,  मैड्रिड (स्पेन)

  • इसे मैड्रिड (स्पेन) में आयोजित किया गया था।
  • इस दौरान बढ़ती जलवायु तात्कालिकता के संबंध में कोई ठोस योजना मौजूद नहीं थी।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2