डेली न्यूज़ (24 Sep, 2021)



भारत के सीवेज उपचार संयंत्रों की क्षमता

प्रिलिम्स के लिये:

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, ‘खुले में शौच-मुक्त’ (ODF) का दर्जा

मेन्स के लिये: 

भारत में सीवेज उपचार संयंत्र और उनके पुन: उपयोग की क्षमता एवं संबंधित चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?

‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ (CPCB) की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, भारत में ‘सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट’ (STPs) प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले एक-तिहाई से अधिक सीवेज अपशिष्ट का उपचार करने में सक्षम हैं।

प्रमुख बिंदु

  • रिपोर्ट संबंधी मुख्य बिंदु:
    • STPs की स्थापित क्षमता:
      • भारत ने 72,368 एमएलडी (प्रतिदिन मिलियन लीटर) अपशिष्ट का उत्पादन किया, जबकि देश में ‘सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट’ की स्थापित क्षमता 31,841 एमएलडी (43.9%) थी।
      • देश की कुल स्थापित उपचार क्षमता के 60% हिस्से को 5 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों- महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और कर्नाटक द्वारा कवर किया जाता हैं।
      • अरुणाचल प्रदेश, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप, मणिपुर, मेघालय और नगालैंड ने सीवेज उपचार संयंत्र स्थापित नहीं किये हैं।
      • वास्तव में उपचारित कुल सीवेज के मामले में चंडीगढ़ पहले स्थान पर है।
    • उपचारित सीवेज का पुन: उपयोग:
      • उपचारित सीवेज का पुन:उपयोग हरियाणा में सबसे अधिक होता है, जिसके बाद पुद्दुचेरी, दिल्ली और चंडीगढ़ का स्थान है।
        • इसे कई राज्य सरकारों की नीति नियोजन में अधिक महत्त्व नहीं दिया गया है।
      • उपचारित सीवेज के पानी को बागवानी, सिंचाई, धुलाई गतिविधियों (सड़क, वाहन और ट्रेन), अग्निशमन, औद्योगिक शीतलन तथा शौचालय फ्लशिंग के लिये पुन: उपयोग किया जा सकता है।
      • यह पानी की मांग के लिये नदियों, तालाबों, झीलों और भू-जल स्रोतों पर दबाव को कम कर सकता है।
  • चिंताएँ
    • अपशिष्ट उत्पादन में वृद्धि:
      • ‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ के अनुमान के मुताबिक, 2051 तक अपशिष्ट उत्पादन बढ़कर 1,20,000 एमएलडी से अधिक हो जाएगा।
    • उपचार क्षमता में अंतराल:
      • उपचार क्षमता में अंतराल स्थानीय स्तर पर काफी बढ़ गया है, क्योंकि ‘सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट’ (STPs) बड़े शहरों में केंद्रित होते हैं और ‘कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट’ (CETPs) राज्यों में असमान रूप से वितरित होते हैं।
    • आर्थिक चुनौतियाँ
      • ‘आधुनिक अपशिष्ट जल उपचार संयंत्र’ (WTPs) पूंजी-गहन होते हैं और इसके लिये सेंसर, इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) तथा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) आधारित ट्रैकर्स जैसी नवीन तकनीक के उपयोग की आवश्यकता होती है।
      • अप्रत्याशित राजस्व के साथ मशीनरी और उपकरणों में उच्च अग्रिम पूंजी आवश्यकता निजी क्षेत्र के निवेश को रोकते हुए इसे एक उच्च जोखिम वाला क्षेत्र बनाती है।
  • संबंधित सरकारी प्रयास
    • उपरोक्त चुनौतियों को स्वीकार करते हुए भारत सरकार ने हाल ही में घोषित स्वच्छ भारत मिशन 2.0 (SBM 2.0) के तहत ठोस अपशिष्ट, कीचड़ और ग्रे-वाटर प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया।
    • ‘खुले में शौच-मुक्त’ (ODF) का दर्जा हासिल करने पर निरंतर ध्यान केंद्रित करने के बाद आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय (MoHUA) ने मई 2020 में शहरों के लिये ओडीएफ+, ओडीएफ++ एवं वाटर+ का स्टेटस हासिल करने हेतु विस्तृत मानदंड विकसित किये।

आगे की राह

  • भारत में अपशिष्ट जल उपचार तकरीबन 4 बिलियन अमेरिकी डॉलर का उद्योग है, जो प्रतिवर्ष 10-12% की दर से बढ़ रहा है।
  • महामारी के बाद की अर्थव्यवस्था में केंद्र और राज्य सरकारों को उपचारित जल के उपयोग के लिये बाज़ार विकसित करने हेतु साझेदारी में काम करना चाहिये।
  • भारत के लिये आर्थिक विकास की उच्च दर प्राप्त करना सीधे तौर पर जल के सतत् उपयोग से जुड़ा हुआ है, विशेष रूप से पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग के मामले में क्योंकि यह भविष्य की शहरी योजना और नीति के लिये महत्त्वपूर्ण होगी।
  • अपशिष्ट जल ऊर्जा, पोषक तत्त्वों और जैविक एवं जैविक-खनिज उर्वरक जैसे अन्य उपयोगी उप-उत्पादों का एक लागत प्रभावी और सतत् स्रोत हो सकता है।
    • अपशिष्ट जल से ऐसे संसाधन प्राप्त करना मानव और पर्यावरणीय स्वास्थ्य के अलावा खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन शमन पर प्रभाव डालता है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


रक्षा औद्योगिक गलियारा

प्रिलिम्स के लिये:

मेक इन इंडिया, रक्षा औद्योगिक गलियारा, ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस

मेन्स के लिये:

रक्षा औद्योगिक गलियारा : महत्त्व एवं विशेषताएँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रधानमंत्री ने प्रस्तावित उत्तर प्रदेश रक्षा औद्योगिक गलियारे के अलीगढ़ नोड के प्रदर्शनी मॉडल का अवलोकन किया।

  • इसकी घोषणा प्रधानमंत्री ने वर्ष 2018 में लखनऊ में यूपी इन्वेस्टर्स समिट के उद्घाटन के दौरान की थी।
  • सरकार ने तमिलनाडु में एक और रक्षा औद्योगिक गलियारा स्थापित किया है।

Defence-Industrial-Corridor

प्रमुख बिंदु

  • उत्तर प्रदेश रक्षा औद्योगिक गलियारा:
    • यह एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना है जिसका उद्देश्य भारतीय एयरोस्पेस और रक्षा क्षेत्र की विदेशी निर्भरता को कम करना है।
    • इसमें 6 नोड्स होंगे- अलीगढ़, आगरा, कानपुर, चित्रकूट, झाँसी और लखनऊ।
    • उत्तर प्रदेश एक्सप्रेसवे औद्योगिक विकास प्राधिकरण (UPEIDA) को राज्य की विभिन्न एजेंसियों के साथ मिलकर इस परियोजना को निष्पादित करने के लिये नोडल एजेंसी बनाया गया था।
    • इस कॉरिडोर/गलियारे का उद्देश्य राज्य को सबसे बड़े और उन्नत रक्षा विनिर्माण केंद्रों में से एक के रूप में स्थापित करना एवं विश्व मानचित्र पर लाना है।
  • विशेषताएँ:
    • निवेश मित्र के माध्यम से रक्षा और एयरोस्पेस (D&A) निर्माण इकाइयों को सिंगल विंडो अनुमोदन और मंज़ूरी देना।
      • राज्य में ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस (Ease Of Doing Business) को सरल बनाने के लिये उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा निवेश मित्र पोर्टल शुरू किया गया है।
    • रोज़गार स्थितियों को आसान या लचीला बनाने के उद्देश्य से रक्षा और एयरोस्पेस (D&A) उद्योग के लिये लेबर परमिट।
    • प्रोत्साहन और सब्सिडी की आसान प्रतिपूर्ति के साथ-साथ सरल प्रक्रियाएँ और युक्तिसंगत नियामक व्यवस्था।
    • सुनिश्चित जल आपूर्ति और निर्बाध बिजली।
    • 4-लेन हैवी-ड्यूटी हाईवे के साथ कनेक्टिविटी।
  • रक्षा गलियारे के लिये उत्तर प्रदेश को चुनने का कारण:
    • उत्तर प्रदेश भारत का चौथा सबसे बड़ा राज्य है और देश के भीतर तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
    • 200 मिलियन से अधिक की आबादी के साथ उत्तर प्रदेश में उपलब्ध श्रम बल की संख्या सबसे अधिक है और यह भारत के शीर्ष पाँच विनिर्माण राज्यों में से एक है।
    • राज्य देश में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) की संख्या के मामले में भी पहले स्थान पर है तथा ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस (EoDB) में दूसरे स्थान पर है।

रक्षा  गलियारा (Defence Corridor)

  • परिचय:
    • रक्षा गलियारा एक मार्ग या पथ को संदर्भित करता है जिसका उपयोग सार्वजनिक क्षेत्र, निजी क्षेत्र और एमएसएमई द्वारा रक्षा उपकरणों के घरेलू उत्पादन के साथ-साथ रक्षा बलों हेतु उपकरण/परिचालन क्षमता को बढ़ाने के लिये किया जाता है।
  • महत्त्व:
    • इससे रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने और 'मेक इन इंडिया' को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी, जिससे हमारा आयात कम होगा और अन्य देशों के लिये इन वस्तुओं के निर्यात को बढ़ावा मिलेगा।
    • यह प्रौद्योगिकियों के सहक्रियात्मक विकास के माध्यम से रक्षा विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र को प्रोत्साहन प्रदान करेगा, एमएसएमई और स्टार्ट-अप सहित निजी घरेलू निर्माताओं के विकास को बढ़ावा देगा।
  • चुनौतियाँ:
    • रक्षा क्षेत्र में तकनीकी विकास:
      • प्रौद्योगिकी के विकास में पहली चुनौती उन्नत इलेक्ट्रॉनिक्स सामग्री की है, जो सभी कार्यक्षेत्रों में उर्ध्वाधर कटौती को प्रदर्शित करती है।
      • दूसरी चुनौती सामग्री विज्ञान की सापेक्ष अपरिपक्वता है जिसमें हल्की और मज़बूत कृत्रिम सामग्री का उपयोग किया जाता है।
    • उद्योग की अपेक्षाओं को पूरा करना:
      • उद्योग की अपेक्षाओं को पूरा करना, जो न केवल ठिकानों को स्थापित करने या स्थानांतरित करने के लिये अपने प्रस्तावों की तेज़ी से मंज़ूरी चाहते हैं, बल्कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों (SEZ) में कर लाभ, तीव्र निर्णयन आदि कोई अन्य कर लाभ भी सरकार के लिये एक चुनौती है।
    • प्राइवेट प्लेयर्स की कम या सीमित भागीदारी: 
      • सार्वजनिक क्षेत्र में ऑर्डर्स की अधिकता या संकेंद्रण है शायद ही किसी आर्डर को वास्तव में प्राइवेट प्लेयर्स के लिये संरक्षित किया जाता है।
    • मानवीय संसाधन:
      • प्रतिभाशाली मानव संसाधनों की अनुपलब्धता भी प्रमुख मुद्दों में से एक है।

तमिलनाडु रक्षा औद्योगिक गलियारा 

  • इसमें चेन्नई, होसुर, सलेम, कोयंबटूर और तिरुचिरापल्ली शामिल हैं। यह नई रक्षा उत्पादन सुविधाओं का निर्माण करेगा और आवश्यक परीक्षण एवं प्रमाणन सुविधाओं, निर्यात सुविधा केंद्रों, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण सुविधा आदि को बढ़ावा देगा।
    • इस कॉरिडोर का उद्घाटन वर्ष 2019 में हुआ था।

Tamil-Nadu

आगे की राह 

  • इसकी सफलता उद्योगों की समस्याओं का समाधान करने, निवेश आकर्षित करने, रोज़गार सृजन, समकालीन तकनीकों का निर्माण, विनिर्माण क्षेत्र के विकास में सहायता करने और भारत को आत्मनिर्भर बनाने में 'मेक इन इंडिया' की सफलता में निहित है।
  • सही बुनियादी ढांँचा, एक जीवंत आपूर्ति शृंखला नेटवर्क, कौशल विकास, पूंजी और व्यवहार्य परियोजनाओं को स्थापित करने हेतु राष्ट्रीय एवं वैश्विक निवेशकों की भागीदारी को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
  • मौजूदा क्षमता, आवश्यकताओं, प्रौद्योगिकी, पूंजी और बुनियादी ढांँचे के विकास को ध्यान में रखते हुए अल्पकालिक, मध्यम अवधि और दीर्घकालिक रोडमैप की पहचान करने की आवश्यकता है। यह अपने आस-पास के सहायक पारिस्थितिक तंत्र के साथ समूहों के विकास में भी मदद करने में सक्षम होगा।

स्रोत: द हिंदू 


आर्कटिक सागर की बर्फ में कमी

प्रिलिम्स के लिये:

आर्कटिक समुद्र, लास्ट आइस एरिया, कार्बन डाइऑक्साइड 

मेन्स के लिये:

आर्कटिक बर्फ के पिघलने का कारण और प्रभाव 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में आर्कटिक समुद्र की बर्फ पिघलकर 4.72 मिलियन वर्ग मील की न्यूनतम सीमा तक पहुंँच गई है। यह अब तक रिकॉर्ड आर्कटिक समुद्री बर्फ का 12वांँ सबसे कम स्तर है, अभी तक वर्ष 2012 में बर्फ के पिघलने का न्यूनतम रिकॉर्ड दर्ज़ है।

  • सितंबर माह समुद्री बर्फ के पिघलने और आर्कटिक समुद्री बर्फ के न्यूनतम स्तर तक पहुँचने को चिह्नित करता है, जिसका अर्थ है कि इस समय उत्तरी गोलार्द्ध महासागर के ऊपर समुद्री बर्फ वर्ष के सबसे न्यूनतम स्तर पर होती है।
  • ग्रीनलैंड के उत्तर में आर्कटिक की बर्फ में स्थित 'लास्ट आइस एरिया' (Last Ice Area- LIA) भी वैज्ञानिकों की अपेक्षा से कहीं अधिक पिघलने लगा है।

प्रमुख बिंदु 

  • मानव गतिविधियों के चलते कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में 1980 के दशक से समुद्री बर्फ का आवरण पिघलकर लगभग आधा हो गया है।
  • अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) के अनुसार, हाल के वर्षों में आर्कटिक समुद्री बर्फ का वार्षिक औसत स्तर वर्ष 1850 के बाद सबसे कम है और यह पिछले 1,000 वर्षों में गर्मियों के अंत में सबसे कम स्तर पर है।
    • इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आर्कटिक में व्यावहारिक रूप से सितंबर 2050 से पहले कम-से-कम एक बार समुद्री बर्फ मुक्त होने की संभावना है।
  • बर्फ के पिघलने के इस चरण में सी आइस पैक (Sea Ice Pack) सबसे कमज़ोर होता है और किसी निश्चित  दिन या सप्ताह की मौसम की स्थिति के प्रति अत्यधिक प्रतिक्रियाशील होता है। इसमें सूक्ष्म परिवर्तनों का बड़ा प्रभाव हो सकता है।
  • बर्फ के तेज़ी से पिघलने का कारण:
    • अल्बेडो फीडबैक लूप:
      • बर्फ, भूमि या पानी की सतहों की तुलना में अधिक परावर्तक (उच्च एल्बिडो) होती है, यह आर्कटिक के पूरे ग्रह की तुलना में लगभग तीन गुना तेज़ी से गर्म होने के कई कारणों में से एक है।
        • इसलिये जैसे-जैसे वैश्विक बर्फ का आवरण घटता जाता है, पृथ्वी की सतह की परावर्तनशीलता कम होती जाती है, अधिक आने वाली सौर विकिरण सतह द्वारा अवशोषित होने के कारण सतह और अधिक गर्म होती है।
    • अंधेरी/गहरी समुद्र सतह:
      • आर्कटिक की चमकीली बर्फ गहरे खुले समुद्र में परिवर्तित हो रही है जिससे सूर्य विकिरण की कम मात्रा अंतरिक्ष में वापस परावर्तित होती है तथा अतिरिक्त ताप उत्पन्न होने के कारण बर्फ पिघलती है। 
    •  वामावर्त बर्फ परिसंचरण:
      • साइबेरिया से आर्कटिक में प्रवेश करने वाले चक्रवातों ने वामावर्त हवाओं और बर्फ के बहाव की क्रिया को उत्पन्न की है।
      • यह पैटर्न आमतौर पर ग्रीनलैंड के पूर्व में फ्रैम स्ट्रेट के माध्यम से आर्कटिक से बाहर निकलने वाली समुद्री बर्फ की मात्रा को कम करता है। इसने ग्रीनलैंड सागर में गर्मी के समय कम समुद्री बर्फ की स्थिति को रिकॉर्ड करने में योगदान दिया।
    • निम्न दबाव प्रणाली:
      • निम्न दबाव प्रणाली आर्कटिक के ऊपर बादल निर्माण की प्रक्रिया को बढ़ाती है। 
      • बादल आमतौर पर सौर विकिरण जिससे समुद्री बर्फ पिघलती है, को रोकने का कार्य करते हैं लेकिन ये सतह के अंदर विद्यमान ऊष्मा को भी रोकने का कार्य करते हैं जिससे समुद्री बर्फ के पिघलने पर इनका मिला-जुला/मिश्रित प्रभाव होता है।
  • आर्कटिक बर्फ के पिघलने का प्रभाव:
    • वैश्विक जलवायु परिवर्तन:
      • आर्कटिक और अंटार्कटिक विश्व के रेफ्रिजरेटर की तरह काम करते हैं। ये विश्व के अन्य हिस्सों में अवशोषित गर्मी के सापेक्ष एक संतुलन प्रदान करते हैं। बर्फ का क्षरण और समुद्री जल का गर्म होना समुद्र स्तर, लवणता स्तर, समुद्री धाराओं और वर्षा पैटर्न को प्रभावित करेगा।    
    • तटीय समुदायों के लिये खतरा: 
      • वर्तमान में औसत वैश्विक समुद्री जल स्तर वर्ष 1900 की तुलना में 7 से 8 इंच बढ़ चुका है और यह स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है।
      • बढ़ता समुद्री जल स्तर तटीय बाढ़ और तूफान के मामलों में तीव्रता लाते हुए तटीय शहरों एवं छोटे द्वीपीय देशों के समक्ष अस्तित्व खोने का खतरा उत्पन्न करता है।
    • खाद्य सुरक्षा:
      • हिमनदों के क्षेत्रफल में गिरावट के कारण ध्रुवीय चक्रवात, लू की तीव्रता और मौसम की अनिश्चितता में वृद्धि के कारण फसलों को काफी नुकसान पहुँच रहा है, जिस पर वैश्विक खाद्य प्रणालियाँ निर्भर हैं। 
    • मीथेन गैस संरक्षित करने के नुकसान:
      • आर्कटिक क्षेत्र में पर्माफ्रॉस्ट के नीचे बड़ी मात्रा में मीथेन गैस संरक्षित है जो कि ग्रीनहाउस गैस होने के साथ ही जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारकों में से एक है। 
      • जितनी जल्दी आर्कटिक बर्फ के क्षेत्रफल में कमी होगी, उतनी ही तेज़ी से पर्माफ्रॉस्ट भी पिघलेगा और यह दुष्चक्र जलवायु को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा।  
    • जैव विविधता के लिये खतरा: 
      • आर्कटिक की बर्फ का पिघलना इस क्षेत्र की जीवंत जैव विविधता के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न करता है। 

आगे की राह

  • आर्कटिक वैश्विक जलवायु प्रणाली का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटक है। ठीक वैसे ही जैसे अमेज़न के जंगल दुनिया के फेफड़े हैं, आर्कटिक हमारे लिये संचालन तंत्र की तरह है जो हर क्षेत्र में वैश्विक जलवायु को संतुलन प्रदान करता है। इसलिये यह मानवता के हित में है कि आर्कटिक में पिघल रही बर्फ को एक गंभीर वैश्विक मुद्दा मानते हुए इससे निपटने के लिये मिलकर कार्य किया जाए।
  • इतनी उच्च दर पर समुद्री-बर्फ का नुकसान पृथ्वी पर सभी प्रकार के जीवन के लिये चिंता का विषय है। इस प्रकार मानवशास्त्रीय गतिविधियों और पर्यावरण की वहन क्षमता के बीच संतुलन बनाए रखना सबसे महत्त्वपूर्ण है, इसके लिये उचित कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


पेटेंट (संशोधन) नियम, 2021

प्रिलिम्स के लिये:

बौद्धिक संपदा, पेटेंट (संशोधन) नियम, 2021

मेन्स के लिये:

बौद्धिक संपदा से संबंधित मुद्दे, भारत में पेटेंट व्यवस्था

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्र सरकार ने पेटेंट (संशोधन) नियम, 2021 प्रस्तुत किया है, जिसने शैक्षणिक संस्थानों के लिये पेटेंट दाखिल करने और अभियोजन हेतु शुल्क में 80% की कमी की है।

  • इसका उद्देश्य नवाचार और नई प्रौद्योगिकियों के विकास को बढ़ावा देना है।

प्रमुख बिंदु:

  • संदर्भ:
    • पेटेंट:
      • पेटेंट बौद्धिक संपदा के संरक्षण का एक रूप है। यह किसी आविष्कार के लिये दिया गया एक विशेष अधिकार है, जो एक उत्पाद या प्रक्रिया के समान है, यह सामान्य रूप से कुछ करने का एक नया तरीका प्रदान करता है या किसी समस्या का एक नया तकनीकी समाधान प्रदान करता है।
      • पेटेंट प्राप्त करने के लिये पेटेंट आवेदन में आविष्कार के बारे में तकनीकी जानकारी जनता के सामने प्रकट की जानी चाहिये।
    • एक आविष्कार के लिये पेटेंट योग्यता मानदंड:
      • यह नवीन या सबसे भिन्न (Novel) होना चाहिये।
      • यह एक आविष्कारशील कदम होना चाहिये (तकनीकी उन्नति)।
      • औद्योगिक अनुप्रयोग में सक्षम हो।
    • पेटेंट की अवधि:
      • भारत में प्रत्येक पेटेंट की अवधि पेटेंट आवेदन दाखिल करने की तारीख से बीस वर्ष है, चाहे वह अनंतिम या पूर्ण विनिर्देश के साथ दायर किया गया हो।
    • पेटेंट अधिनियम, 1970: भारत में पेटेंट प्रणाली के लिये यह प्रमुख कानून वर्ष 1972 में लागू हुआ। इसने भारतीय पेटेंट और डिज़ाइन अधिनियम 1911 का स्थान लिया है।
      • अधिनियम को पेटेंट (संशोधन) अधिनियम, 2005 द्वारा संशोधित किया गया था, जिसमें उत्पाद पेटेंट को खाद्य, दवाओं, रसायनों तथा सूक्ष्मजीवों सहित प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में विस्तारित किया गया था।
      • संशोधन के बाद विशिष्ट विपणन अधिकारों (EMRs) से संबंधित प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया है और अनिवार्य लाइसेंस प्रदान करने हेतु एक प्रावधान प्रस्तुत किया गया है।
      • अनुदान-पूर्व और अनुदान-पश्चात विरोध से संबंधित प्रावधान भी प्रस्तुत किये गए हैं।
  • पेटेंट (संशोधन) नियम, 2021:
    • शैक्षणिक संस्थानों के लिये पेटेंट शुल्क में कमी:
      • विभिन्न शोध गतिविधियों में संलग्न शैक्षणिक संस्थान, जहाँ प्रोफेसर/शिक्षक व छात्र कई ऐसी नई प्रौद्योगिकियाँ विकसित करते हैं जिन्हें उनके व्यावसायीकरण की सुविधा हेतु पेटेंट कराने की आवश्यकता होती है।
      • पेटेंट के लिये आवेदन करते समय नवोन्मेषकों को इन पेटेंटों को उन संस्थानों के नाम पर लागू करना पड़ता है, जो बड़े आवेदकों के लिये उस शुल्क का भुगतान करते हैं जो बहुत अधिक है और इस प्रकार यह प्रक्रिया निरुत्साहित करने का  काम करती है।
      • इस संबंध में देश के नवाचार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले शिक्षण संस्थानों की और अधिक भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिये पेटेंट नियम, 2003 के तहत विभिन्न अधिनियमों के संबंध में उनके द्वारा देय आधिकारिक शुल्क को पेटेंट (संशोधन) नियम, 2021  के माध्यम से घटा  दिया गया है।  
      • पेटेंट फाइलिंग और अभियोजन के लिये 80% कम शुल्क से संबंधित लाभों को सभी शैक्षणिक संस्थानों तक भी बढ़ाया गया है।
        • पूर्व में यह लाभ सरकार के स्वामित्व वाले सभी मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थानों के लिये उपलब्ध था।
    • त्वरित परीक्षा प्रणाली का विस्तार: 
      • सबसे तीव्र गति से स्वीकृत होने वाला पेटेंट वह है जिसे इस तरह के अनुरोध को दाखिल करने के 41 दिनों के भीतर प्रदान किया गया हो। त्वरित परीक्षा प्रणाली की यह सुविधा प्रारंभ में स्टार्टअप्स द्वारा दायर पेटेंट आवेदनों के लिये प्रदान की गई थी।
      • अब इसे पेटेंट आवेदकों की 8 अन्य श्रेणियों तक बढ़ा दिया गया है:
        • लघु और मध्यम उद्यम (SME), महिला आवेदक, सरकारी विभाग, केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा स्थापित संस्थान, सरकारी कंपनी, सरकार द्वारा पूर्ण या पर्याप्त रूप से वित्तपोषित संस्थान और पेटेंट प्रॉसिक्यूशन हाइवे के तहत आवेदकों को।
          • पेटेंट प्रॉसिक्यूशन हाइवे (Patent Prosecution Highway- PPH) कुछ पेटेंट कार्यालयों के बीच सूचना साझा करके त्वरित पेटेंट अभियोजन प्रक्रिया प्रदान करने के लिये पहल का एक हिस्सा हैं।

नोट:

  • एवरग्रीनिंग पेटेंट: यह एक कॉर्पोरेट, कानूनी, व्यावसायिक और तकनीकी रणनीति है, जिसे एक ऐसे अधिकार क्षेत्र में दी गई पेटेंट की अवधि को विस्तृत करने / बढ़ाने के लिये उपयोग किया जाता  है, जिसकी अवधि समाप्त होने वाली है ताकि नए पेटेंट निर्मित कर उनसे रॉयल्टी बरकरार रखी जा सके।
    • भारतीय पेटेंट अधिनियम 1970 (2005 में संशोधित) की धारा 3 (d) एक ज्ञात पदार्थ के नए रूपों को शामिल करने वाले आविष्कारों को पेटेंट देने की अनुमति नहीं देती है, जब तक कि यह प्रभावकारिता के संबंध में गुणों में महत्त्वपूर्ण रूप से भिन्न न हो।
    • इसका आशय यह है कि भारतीय पेटेंट अधिनियम एवरग्रीनिंग पेटेंट के निर्माण की अनुमति नहीं देता है।
  • अनिवार्य लाइसेंसिंग (CL) : इसमें सरकार द्वारा पेटेंट-स्वामी की सहमति के बिना, पेटेंट किये गए आविष्कार के उपयोग, निर्माण, आयात या बिक्री करने के लिये संस्थाओं को अनुमति प्रदान की जाती है।  भारत में पेटेंट अधिनियम अनिवार्य लाइसेंसिंग (CL) से संबंधित है।
    • डब्ल्यूटीओ के ट्रिप्स (IPR) समझौते के तहत अनिवार्य लाइसेंस की अनुमति है, लेकिन उसके लिये 'राष्ट्रीय आपात स्थिति, अन्य चरम परिस्थितियों और प्रतिस्पर्द्धा-विरोधी प्रथाओं' जैसी शर्तें को पूरा करना पड़ता है।

स्रोत: पीआईबी


स्टेबलकॉइन

प्रिलिम्स के लिये:

स्टेबलकॉइन

मेन्स के लिये:

क्रिप्टोकरेंसी का महत्त्व और उपयोगिता तथा इससे संबंधित चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?

वित्तीय सुरक्षा पर टीथर और अन्य ‘स्टेबलकॉइन’ के खतरों की जाँच हेतु अमेरिका एक औपचारिक समीक्षा शुरू करने पर विचार कर रहा है।

  • ‘टीथर’ वर्ष 2014 में बनाया गया पहला ‘स्टेबलकॉइन’ था।

प्रमुख बिंदु

  • ‘स्टेबलकॉइन’ के विषय में
    • ‘स्टेबलकॉइन’ एक प्रकार की क्रिप्टोकरेंसी है, जो आमतौर पर मौजूदा सरकार द्वारा समर्थित मुद्रा से संबद्ध होती है।
      • क्रिप्टोकरेंसी, नेटवर्क आधारित डिजिटल संपत्ति का ही एक रूप है, जिसे बड़ी संख्या में कंप्यूटरों के माध्यम से वितरित किया जाता है।
    • ‘स्टेबलकॉइन’ में आरक्षित संपत्ति का एक रिज़र्व मौजूद होता है, आमतौर पर अल्पकालिक प्रतिभूतियाँ जैसे कि नकद, सरकारी ऋण या वाणिज्यिक पत्र आदि।
    • ‘स्टेबलकॉइन’ काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि वे लोगों को बिटकॉइन जैसे निवेश के रूप में कार्य करने वाली क्रिप्टोकरेंसी में अधिक निर्बाध रूप से लेन-देन करने की अनुमति देते हैं।
    • वे पुरानी दुनिया की मुद्रा और नई दुनिया की क्रिप्टो के बीच एक सेतु के रूप में होने के साथ ही पूरी तरह से सुरक्षित होल्डिंग्स की तरह काम करते हैं।
  • प्रकार:
    • फिएट-संपार्श्विक ‘स्टेबलकॉइन’:
      • ये 1:1 के अनुपात में अमेरिकी डॉलर, यूरो या पौंड जैसे फिएट मनी द्वारा समर्थित हैं।
      • उदाहरण: टीथर, जेमिनी डॉलर और ट्रूएसडी।
    • अन्य संपत्तियों द्वारा समर्थित ‘स्टेबलकॉइन’:
      • कुछ ‘स्टेबलकॉइन, कई अन्य संपत्तियों (वाणिज्यिक कागज़ात, बाॅण्ड, अचल संपत्ति, कीमती धातु आदि) की एक बास्केट द्वारा समर्थित हैं।
      • कमोडिटी और कीमती धातु की कीमतों में उतार-चढ़ाव के अधीन इन स्थिर सिक्कों के मूल्य में समय के साथ उतार-चढ़ाव हो सकता है।
      • उदाहरण: ‘डिजीक्स गोल्ड’- सोने द्वारा समर्थित।
    • क्रिप्टो-संपार्श्विक स्टेबलकॉइन: 
      • क्रिप्टो-संपार्श्विक स्टेबलकॉइन अपने समूहों की तुलना में अधिक विकेंद्रीकृत हैं और क्रिप्टोकरेंसी द्वारा समर्थित हैं।
      • फ्लिपसाइड (Flipside) मूल्य अस्थिरता और मूल्य अस्थिरता के जोखिम को दूर करने के लिये ये स्टेबलकॉइन अति-संपार्श्विक (Over-Collateralised) हैं।
      • उदाहरण: डाई (Dai)।
    • गैर-संपार्श्विक स्टेबलकॉइन:
      • इन स्टेबलकॉइन को कोई समर्थन प्राप्त नहीं है और सही अर्थों में ये विकेंद्रीकृत हैं तथा गैर-संपार्श्विक स्टेबलकॉइन की आपूर्ति एल्गोरिदम द्वारा नियंत्रित होती है।
      • उदाहरण: आधार (Basis)।
  • चिंताएँ:
    • अल्पकालिक ऋण से संबंधित:
      • कई स्टेबलकॉइन अल्पकालिक ऋण के प्रकारों द्वारा समर्थित होते हैं जो कि तरलता की अवधि में प्रवण होते हैं, जिसका अर्थ है कि मुसीबत के समय में व्यापार करना कठिन या असंभव हो सकता है।
    • सभी स्टेबलकॉइन स्टेबल नहीं होते:
      • सभी स्टेबलकॉइन वास्तव में 100% मूल्य-स्थिर नहीं होते हैं। उनका मूल्य उनकी अंतर्निहित संपत्ति पर निर्भर करता है।
    • परिसंपत्ति संक्रमण जोखिम:
      • स्टेबलकॉइन आरक्षित होल्डिंग्स के परिसमापन से जुड़े संभावित परिसंपत्ति संक्रमण जोखिम उत्पन्न करते हैं।
        • संक्रमण (Contagion) का अर्थ है कि आर्थिक संकट का एक बाज़ार या क्षेत्र से दूसरे में फैलना और यह घरेलू या अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर हो सकता है।
      • जोखिम मुख्य रूप से संपार्श्विक स्टेबलकॉइन से जुड़े होते हैं जो आकार, तरलता और उनकी परिसंपत्ति होल्डिंग्स के जोखिम के साथ-साथ ऑपरेटर की पारदर्शिता तथा शासन के आधार पर भिन्न हो सकते हैं।
    • वित्तीय स्थिरता के लिये जोखिम:
      • स्टेबलकॉइन में वित्तीय सेवाओं के प्रावधान की दक्षता बढ़ाने की क्षमता है, अगर उन्हें एक महत्त्वपूर्ण पैमाने पर अपनाया जाता है तो ये वित्तीय स्थिरता के समक्ष जोखिम भी उत्पन्न कर सकते हैं।
    • उत्तरदायित्व की कमी:
      • इनमें पारदर्शिता का अभाव होता है अर्थात् इनका ऑडिट सभी के द्वारा नहीं किया जा सकता है और इनका संचालन गैर-बैंक वित्तीय मध्यस्थों की तरह होता है जो पारंपरिक वाणिज्यिक बैंकों के समान सेवाएंँ प्रदान करते हैं, लेकिन सामान्य बैंकिंग विनियमन के बाहर।
    • नियामक चुनौती:
      • विविध अर्थव्यवस्थाओं, क्षेत्राधिकारों, कानूनी प्रणालियों व आर्थिक विकास और ज़रूरतों के विभिन्न स्तरों में नियामक प्रयासों का अंतर्राष्ट्रीय समन्वय इनके नियमन में एक और चुनौती है।
      • वैश्विक स्तर पर स्टेबलकॉइन के लिये अभी तक एक समान नियामक दृष्टिकोण नहीं है। 

आगे की राह 

  • स्टेबलकॉइन की एक समान श्रेणी नहीं होती है लेकिन फिर भी ये विभिन्न क्रिप्टो उपकरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कानूनी, तकनीकी, कार्यात्मक और आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रूप से भिन्न हो सकते हैं।
  • इसलिये जोखिमों को सीमित करने और नवाचारों को सुलभ माहौल प्रदान करने हेतु, स्टेबलकॉइन मुद्रा उद्योग को नियामकों के साथ मिलकर एक ढांँचा तैयार करना चाहिये जो इस नवजात उद्योग को अतिविनियमन (Overregulation) से बचाने में मदद कर सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 


लद्दाख निवासी प्रमाण-पत्र आदेश 2021

प्रिलिम्स के लिये:

अनुच्छेद 370, अनुच्छेद 35A

मेन्स के लिये:

लद्दाख निवासी प्रमाण-पत्र आदेश 2021 का महत्त्व 

चर्चा में क्यों?   

हाल ही में लद्दाख प्रशासन ने केवल क्षेत्र के स्थायी निवास प्रमाण-पत्र धारकों (Permanent Resident Certificate holders) को ही निवासी प्रमाण-पत्र (Resident Certificate) जारी करने का निर्णय लिया है।

  • यह जम्मू-कश्मीर के निवासी प्रमाण-पत्र के विपरीत है जिसमें नए अधिवास कानून (New Domicile Laws) बाहरी लोगों को नौकरी, ज़मीन और अन्य सुविधाओं हेतु आवेदन करने की अनुमति देते हैं।
  • इससे पहले जब भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35A जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख में लागू था तब लद्दाख सहित तत्कालीन जम्मू-कश्मीर राज्य में सभी नौकरियांँ विशेष रूप से राज्य के स्थायी निवासियों के लिये आरक्षित थीं।

प्रमुख बिंदु 

  • निवासी प्रमाण-पत्र के बारे में:
    • कोई भी व्यक्ति जिसके पास लेह और कारगिल ज़िलों में सक्षम प्राधिकारी (तहसीलदार) द्वारा जारी स्थायी निवासी प्रमाण-पत्र ( Permanent Resident Certificate- PRC) है या उन व्यक्तियों की श्रेणी से संबंधित है जो PRC जारी करने के लिये पात्र हैं, वे निवासी प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के पात्र होंगे।
    • प्रशासन ने सभी पदों पर सरकारी सेवाओं में प्रवेश के लिये ऊपरी आयु सीमा भी बढ़ा दी है।
      • आयु सीमा में छूट एक बार ही मिलेगी जो दो वर्ष तक लागू रहेगी।
  • उद्देश्य:
    • लद्दाख के प्रशासन के किसी विभाग या सेवा की स्थापना पर सभी अराजपत्रित पदों पर नियुक्ति के उद्देश्य से केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख के निवासी को अस्थायी रूप से परिभाषित करना है।
  • स्थायी निवास प्रमाण-पत्र (PRC):
    • PRC के बारे में:
      • यह एक प्रकार का अधिवास प्रमाण-पत्र है जो लोगों को सरकारी नौकरियों में अधिवास से संबंधित कोटा का लाभ उठाने और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश पाने में मदद करता है।
        • भारत में PRC अरुणाचल प्रदेश, असम, मिज़ोरम, मेघालय, त्रिपुरा और मणिपुर जैसे राज्यों द्वारा जारी किया जाता है।
    • प्रयोजन:
      • यह एक कानूनी दस्तावेज़ है जो निवास के प्रमाण के रूप में कार्य करता है और इस प्रकार जहांँ भी निवास के प्रमाण की आवश्यकता होती है वहांँ जमा किया जा सकता है।
    • उपयोग:
      • विशेष रूप से सरकारी नौकरियों तथा विशिष्ट कोटे के तहत शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश हेतु स्थानीय वरीयता प्राप्त करने के लिये।
      • संबंधित राज्य में राशन कार्ड प्राप्त करने और चुनाव में वोट डालने के लिये।
      • राज्य की विभिन्न योजनाओं का लाभ लेने हेतु या राज्य द्वारा दी जाने वाली छात्रवृत्ति का दावा करने के लिये।

स्रोत: द हिंदू