भूगोल
चेरापूंजी में वर्षा की मात्रा में गिरावट
चर्चा में क्यों?
हाल के एक अध्ययन में चेरापूंजी (मेघालय) और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पिछले 119 वर्षों के दौरान वर्षा के पैटर्न में घटती हुई प्रवृत्ति देखी गई।
- मेघालय के पूर्वी खासी पहाड़ी ज़िले का मासिनराम गाँव चेरापूंजी को पीछे छोड़कर विश्व का सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान बन गया है। मासिनराम में एक वर्ष में 10,000 मिलीमीटर से अधिक वर्षा होती है।
- चेरापूंजी से मासिनराम की दूरी सड़क मार्ग से लगभग 81 किलोमीटर है, हालाँकि दोनों के बीच सीधी दूरी 15.2 किमी. है।
प्रमुख बिंदु;
वर्षा में कमी:
- वर्ष 1973-2019 की अवधि के दौरान वार्षिक औसत वर्षा में लगभग 0.42 मिमी. प्रति दशक की घटती प्रवृत्ति देखी गई।
- यह सात स्टेशनों (अगरतला, चेरापूंजी, गुवाहाटी, कैलाशहर, पासीघाट, शिलॉन्ग और सिलचर) के साथ सांख्यिकीय रूप से महत्त्वपूर्ण था।
कारण:
- बढ़ता हुआ तापमान:
- हिंद महासागर के तापमान में परिवर्तन का इस क्षेत्र में होने वाली वर्षा पर अधिक प्रभाव पड़ता है।
- जून 2020 में केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पहली जलवायु परिवर्तन आकलन रिपोर्ट में उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर क्षेत्र में समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि को इंगित किया गया था।
- हिंद महासागर के तापमान में परिवर्तन का इस क्षेत्र में होने वाली वर्षा पर अधिक प्रभाव पड़ता है।
- मानवीय हस्तक्षेप में वृद्धि:
- उपग्रह संबंधी आँकड़ों से पता चलता है कि पिछले दो दशकों में पूर्वोत्तर भारत के वानस्पतिक क्षेत्र में कमी आई है, जिसका अर्थ है कि बदलते वर्षा पैटर्न में मानवीय प्रभाव भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- कृषि का पारंपरिक तरीका जिसे झूम खेती (Shifting Cultivation) के रूप में जाना जाता है, का उपयोग अब कम हो गया है और इसे अन्य तरीकों से प्रतिस्थापित किया जा रहा है।
- इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हो रही है। अध्ययन में मुख्य रूप से वर्ष 2006 के बाद वनस्पति आवरण में कमी और कृषि भूमि क्षेत्रों में वृद्धि देखी गई है।
- इस विश्लेषण में प्रतिवर्ष वानस्पतिक क्षेत्र में 104.5 वर्ग किमी. की कमी देखी गई।
- दूसरी ओर, वर्ष 2001-2018 की अवधि के दौरान कृषि क्षेत्र में (182.1 वर्ग किमी. प्रतिवर्ष) और शहरी एवं निर्मित/बिल्ट-अप क्षेत्र (0.3 वर्ग किमी. प्रतिवर्ष) में उल्लेखनीय वृद्धि हुई थी।
- उपग्रह संबंधी आँकड़ों से पता चलता है कि पिछले दो दशकों में पूर्वोत्तर भारत के वानस्पतिक क्षेत्र में कमी आई है, जिसका अर्थ है कि बदलते वर्षा पैटर्न में मानवीय प्रभाव भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
पूर्वोत्तर क्षेत्र के अध्ययन का महत्त्व:
- चूँकि उत्तर-पूर्व भारत का ज़्यादातर क्षेत्र पहाड़ी है और सिंधु-गंगा के मैदानों का विस्तार है, इसलिये यह क्षेत्रीय और वैश्विक जलवायु में बदलाव के लिये अत्यधिक संवेदनशील है।
- यह ध्यान रखना होगा कि जलवायु परिवर्तन के लक्षण चेरापूंजी में कम वर्षा जैसी घटनाओं से ही स्पष्ट होंगे।
- उत्तर-पूर्व भारत, देश के सर्वाधिक वानस्पतिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्त्व करता है और इसमें दुनिया की 18 जैव विविधता वाले हॉटस्पॉट शामिल हैं, जो इसकी हरियाली और जलवायु-परिवर्तन संवेदनशीलता के संदर्भ में इसके महत्त्व को दर्शाते है।
चेरापूंजी और मासिनराम में उच्च वर्षा का कारण:
- चेरापूंजी (ऊँचाई-1313 मीटर) और मासिनराम (ऊँचाई-1401.5 मीटर) मेघालय में पूर्वी खासी पहाड़ियों के दक्षिणी ढलानों पर स्थित है।
- मेघालय एक पहाड़ी राज्य है जिसमें कई घाटियाँ और उच्चभूमि पठार हैं।
- पठारी क्षेत्र में ऊँचाई 150 मीटर से 1,961 मीटर के बीच होती है। इसके मध्य भाग में खासी पहाड़ियाँ हैं, जिनकी ऊँचाई सर्वाधिक है।
- चेरापूंजी-मासिनराम में वर्षा मानसूनी पवनों द्वारा समर्थित पर्वतीय स्थिति के कारण होती है।
- बांग्लादेश के मैदानी क्षेत्रों से गुज़रने वाली एवं बंगाल की खाड़ी से उत्तर की ओर चलने वाली आर्द्र पवनें खासी पहाड़ियों की संकीर्ण घाटियों में प्रवाहित होती हैं, जिनका आरोहण होने के कारण संघनन की प्रक्रिया होती है, इसकी वजह से ढलान की ओर बादलों की उत्पत्ति होती है एवं अंततः वर्षा होती है।
स्थानांतरित कृषि:
- शिफ्टिंग खेती, जिसे स्थानीय रूप से 'झूम खेती' कहा जाता है, यह पूर्वोत्तर भारत के स्वदेशी समुदायों के बीच कृषि की एक व्यापक रूप से प्रचलित प्रणाली है। इस प्रथा को ‘स्लैश-एंड-बर्न’ एग्रीकल्चर के रूप में भी जाना जाता है। क्योंकि किसान इस भूमि को कृषि उद्देश्यों हेतु परिवर्तित करने के लिये जंगलों और वनों को जलाते हैं।
- यह कृषि भूमि को तैयार करने का एक बहुत आसान और तेज़ तरीका है।
- इसमें झाड़ियों और खरपतवारों को आसानी से हटाया जा सकता है। वहीं अपशिष्ट पदार्थों के जलने से खेती के लिये आवश्यक पोषक तत्त्व मिलते हैं।
- यह एक परिवार को भोजन, चारा, ईंधन और आजीविका प्रदान करता है और उनकी पहचान से निकटता से जुड़ा होता है।
- जंगलों और पेड़ों को काटने से मिट्टी का क्षरण होता है और यह नदियों के प्रवाह को भी प्रभावित कर सकता है।
स्रोत- द हिंदू
शासन व्यवस्था
अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस
चर्चा में क्यों?
यूनेस्को (UNESCO) प्रतिवर्ष 21 फरवरी को भाषायी और सांस्कृतिक विविधता तथा बहुभाषावाद के विषय में जागरूकता को बढ़ावा देने के लिये अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (International Mother Language Day) मनाता है।
- अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस, 2021 की थीम ‘शिक्षा और समाज में समावेशन के लिये बहुभाषावाद को प्रोत्साहन’ (Fostering Multilingualism for Inclusion in Education and Society) है। भाषा और बहुभाषावाद से समावेशी विकास तथा सतत् विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goal) को प्राप्त करना आसान हो सकता है।
- विश्व में 7,000 से अधिक भाषाएँ हैं, जिसमें से सिर्फ भारत में ही लगभग 22 आधिकारिक मान्यता प्राप्त भाषाएँ, 1635 मातृभाषाएँ और 234 पहचान योग्य मातृभाषाएँ हैं।
प्रमुख बिंदु
अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के विषय में:
- इसकी घोषणा यूनेस्को द्वारा 17 नवंबर, 1999 को की गई थी और जिसे विश्व द्वारा वर्ष 2000 से मनाया जाने लगा। यह दिन बांग्लादेश द्वारा अपनी मातृभाषा बांग्ला की रक्षा के लिये किये गए लंबे संघर्ष की भी याद दिलाता है।
- 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने का विचार कनाडा में रहने वाले बांग्लादेशी रफीकुल इस्लाम द्वारा सुझाया गया था। इन्होंने बांग्ला भाषा आंदोलन के दौरान ढाका में वर्ष 1952 में हुई हत्याओं को याद करने के लिये उक्त तिथि प्रस्तावित की थी।
- इस पहल का उद्देश्य विश्व के विभिन्न क्षेत्रों की विविध संस्कृति और बौद्धिक विरासत की रक्षा करना तथा मातृभाषाओं का संरक्षण करना एवं उन्हें बढ़ावा देना है।
संबंधित डेटा:
- संयुक्त राष्ट्र (United Nation) के अनुसार, हर दो हफ्ते में एक भाषा गायब हो जाती है और दुनिया एक पूरी सांस्कृतिक तथा बौद्धिक विरासत खो देती है।
- वैश्वीकरण के दौर में बेहतर रोज़गार के अवसरों के लिये विदेशी भाषा सीखने की होड़ मातृभाषाओं के लुप्त होने के पीछे एक प्रमुख कारण है।
- दुनिया में बोली जाने वाली अनुमानित 6000 भाषाओं में से लगभग 43% भाषाएँ लुप्तप्राय हैं।
- वास्तव में केवल कुछ सौ भाषाओं को ही शिक्षा प्रणालियों और सार्वजनिक क्षेत्र में जगह दी गई है। वैश्विक आबादी के लगभग 40% लोगों ने ऐसी भाषा में शिक्षा प्राप्त नहीं की है, जिसे वे बोलते या समझते हैं।
- सिर्फ सौ से कम भाषाओं का उपयोग डिजिटल जगत में किया जाता है।
भाषाओं के संरक्षण के लिये वैश्विक प्रयास:
- संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 और वर्ष 2032 के बीच की अवधि को स्वदेशी भाषाओं के अंतर्राष्ट्रीय दशक (International Decade of Indigenous Languages) के रूप में नामित किया है।
- इसके पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा (United Nations General Assembly) ने वर्ष 2019 को स्वदेशी भाषाओं के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष (International Year of Indigenous Languages) के रूप में घोषित किया था।
- यूनेस्को द्वारा वर्ष 2018 में चांग्शा (Changsha- चीन) में की गई युलु उद्घोषणा (Yuelu Proclamation) भाषायी संसाधनों और विविधता की रक्षा करने के लिये विश्व के देशों तथा क्षेत्रों के प्रयासों के मार्गदर्शन में एक केंद्रीय भूमिका निभाती है।
भारत द्वारा की गई पहलें:
- हाल ही में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Education Policy), 2020 में मातृभाषाओं के विकास पर अधिकतम ध्यान दिया गया है।
- इस नीति में सुझाव दिया गया है कि जहाँ तक संभव हो शिक्षा का माध्यम कम-से-कम कक्षा 5 तक (अधिमानतः 8वीं कक्षा तक और उससे आगे) मातृभाषा/भाषा/क्षेत्रीय भाषा होनी चाहिये।
- मातृभाषा में शिक्षा दिये जाने से यह छात्रों को उनकी पसंद के विषय और भाषा को सशक्त बनाने में मदद करेगा। यह भारत में बहुभाषी समाज के निर्माण, नई भाषाओं को सीखने की क्षमता आदि में भी मदद करेगा।
- विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तकों को क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशन के लिये वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग (Commission for Scientific and Technical Terminology) द्वारा अनुदान प्रदान किया जा रहा है।
- इस आयोग को सभी भारतीय भाषाओं में तकनीकी शब्दावली विकसित करने के लिये वर्ष 1961 में स्थापित किया गया था।
- राष्ट्रीय अनुवाद मिशन ( National Translation Mission- NTM) को मैसूर स्थित केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (Central Institute of Indian Languages- CIIL) के माध्यम से कार्यान्वित किया जा रहा है। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में निर्धारित विभिन्न विषयों की ज़्यादातर पाठ्य पुस्तकों का भारत के संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा है।
- लुप्त हो रही भाषाओं के संरक्षण के लिये "लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा और संरक्षण" (Protection and Preservation of Endangered Languages) योजना।
- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) भी देश में उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों में क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देता और ‘लुप्तप्राय भाषाओं के लिये केंद्रीय विश्वविद्यालयों में केंद्र की स्थापना’ योजना के तहत नौ केंद्रीय विश्वविद्यालयों को सहयोग करता है।
- भारत सरकार की अन्य पहलों में भारत वाणी परियोजना (Bharatavani Project) और भारतीय भाषा विश्वविद्यालय (Bharatiya Bhasha Vishwavidyalaya) को शुरू किया जाना प्रस्तावित है।
- इसके अतिरिक्त उपराष्ट्रपति ने स्थानीय भाषाओं के उपयोग के लिये प्रशासन, अदालती कार्यवाही, उच्च और तकनीकी शिक्षा आदि अन्य क्षेत्रों पर प्रकाश डाला है।
- केरल सरकार ने जनजातीय बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाने के लिये नमथ बसई कार्यक्रम (Namath Basai Programme) चलाया है जो बहुत फायदेमंद साबित हुआ है।
- मातृभाषा की सुरक्षा के लिये गूगल की परियोजना नवलेखा (Navlekha) प्रौद्योगिकी का उपयोग करती है। इस परियोजना का उद्देश्य भारतीय स्थानीय भाषाओं में ऑनलाइन सामग्री की उपलब्धता को बढ़ाना है।
संबंधित संवैधानिक और कानूनी प्रावधान
- संविधान का अनुच्छेद 29 (Article 29- अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण) सभी नागरिकों को अपनी भाषा के संरक्षण का अधिकार देता है और भाषा के आधार पर भेदभाव को रोकता है।
- अनुच्छेद 120 (Article 120- संसद में प्रयोग की जाने वाली भाषा) संसद की कार्यवाहियों के लिये हिंदी या अंग्रेज़ी का उपयोग किया जा सकता है, लेकिन संसद सदस्यों को अपनी मातृभाषा में स्वयं को व्यक्त करने का अधिकार है।
- भारतीय संविधान का भाग XVII (अनुच्छेद 343 से 351) आधिकारिक भाषाओं से संबंधित है।
- अनुच्छेद 350A (Article 350A- प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधा) के अनुसार, देश के प्रत्येक राज्य और प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी का प्रयास होगा कि वह भाषायी अल्पसंख्यक समूहों के बच्चों को शिक्षा के प्राथमिक चरण में मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने के लिये पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान करें।
- अनुच्छेद 350B भाषायी अल्पसंख्यकों के लिये एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान करता है। विशेष अधिकारी को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा, यह भाषायी अल्पसंख्यकों के सुरक्षा उपायों से संबंधित सभी मामलों की जाँच करेगा तथा सीधे राष्ट्रपति को रिपोर्ट सौंपेगा। तत्पश्चात् राष्ट्रपति उस रिपोर्ट को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है या उसे संबंधित राज्य/राज्यों की सरकारों को भेज सकता है।
- आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएँ यथा- असमिया, बांग्ला, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगू, उर्दू, बोडो, संथाली, मैथिली और डोगरी शामिल हैं।
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम (Right to Education Act), 2009 के अनुसार शिक्षा का माध्यम, जहाँ तक व्यावहारिक हो बच्चे की मातृभाषा ही होनी चाहिये।
स्रोत: पी.आई.बी.
भारतीय अर्थव्यवस्था
मीडिया प्लेटफॉर्म बिल: ऑस्ट्रेलिया
चर्चा में क्यों?
दिग्गज टेक कंपनियों द्वारा उनके प्लेटफॉर्म पर मीडिया कंपनियों से समाचार कंटेंट साझा करने के लिये मुआवज़े को लेकर चल रहे विवाद के बीच ऑस्ट्रेलिया ने भारत समेत कनाडा, फ्रांँस और यूनाइटेड किंगडम आदि से दिग्गज टेक कंपनियों जैसे- गूगल और फेसबुक के विरुद्ध एक वैश्विक गठबंधन स्थापित करने हेतु कदम उठाने का आग्रह किया है।
- ऑस्ट्रेलिया द्वारा प्रस्तावित कानून ‘न्यूज़ मीडिया एंड डिजिटल प्लेटफॉर्म्स मैंडेटरी बार्गेनिंग कोड बिल 2020’, ‘गूगल’ और ‘फेसबुक’ जैसी दिग्गज टेक कंपनियों को समाचार कंपनियों के कंटेंट का उपयोग करने के लिये उन्हें क्षतिपूर्ति देना अनिवार्य बनाता है।
- बिल सोशल मीडिया को विनियमित करने के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करेगा।
प्रमुख बिंदु
पृष्ठभूमि
- ऑस्ट्रेलियाई प्रतिस्पर्द्धा एवं उपभोक्ता आयोग (ACCC) ने अपनी वर्ष 2019 की रिपोर्ट में समाचार मीडिया कंपनियों और इंटरनेट प्लेटफाॅर्मों के बीच बुनियादी शक्ति असंतुलन का उल्लेख किया था।
- गूगल और फेसबुक का उल्लेख करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि इन प्लेटफाॅर्मों के पास कई समाचार मीडिया कंपनियों से पर्याप्त सौदेबाज़ी करने शक्ति है।
- रिपोर्ट में कहा गया कि मीडिया विनियमन इन प्लेटफाॅर्मों पर लागू नहीं हो रहे हैं, जबकि ये प्लेटफॉर्म तेज़ी से स्वयं को मीडिया कंपनियों के रूप में परिवर्तित कर रहे हैं।
- इस रिपोर्ट के आधार पर ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने लोकतंत्र में एक मजबूत और स्वतंत्र मीडिया की आवश्यकता को महसूस करते हुए ऑस्ट्रेलियाई प्रतिस्पर्द्धा एवं उपभोक्ता आयोग (ACCC) को इस संबंध में एक मसौदा संहिता प्रस्तुत करने के लिये कहा, जो कि आयोग द्वारा जुलाई 2020 में प्रस्तुत की गई।
- कुछ परिवर्तनों के पश्चात् ट्रेज़री कानून संशोधन (न्यूज़ मीडिया एंड डिजिटल प्लेटफॉर्म्स मैंडेटरी बार्गेनिंग कोड) बिल को दिसंबर 2020 में प्रस्तुत किया गया था।
बिल संबंधित मुख्य विशेषताएँ
- न्यूज़ आउटलेट्स को भुगतान: फेसबुक और गूगल जैसी बड़ी टेक और सोशल मीडिया कंपनियों को स्थानीय समाचार कंपनियों के कंटेंट का प्रयोग करने हेतु उन कंपनियों को भुगतान करना होगा।
- भुगतान करने से संबंधित तंत्र और प्रणाली को लेकर बड़ी टेक और सोशल मीडिया कंपनियों को स्थानीय समाचार कंपनियों के साथ वार्ता करनी होगी।
- मध्यस्थता और अर्थदंड का प्रावधान: यदि कोई समझौता नहीं हो पाता है तो एक मध्यस्थ को मामले का निपटान करने का अधिकार दिया गया है, साथ ही ऐसी स्थिति में भारी जुर्माने का भी प्रावधान है।
संबंधित मुद्दे
- मीडिया उद्योग पहले से ही डिजिटल प्लेटफॉर्म द्वारा दिये जा रहे ट्रैफिक से लाभान्वित हो रहा है और प्रस्तावित नियम इंटरनेट कंपनियों के समक्ष गंभीर ‘वित्तीय एवं परिचालन जोखिम’ उत्पन्न करेंगे।
- पत्रकारिता को लोकतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ माना जाता है। प्रायः यह देखा जाता है कि सोशल मीडिया और टेक कंपनियाँ बिना राजस्व साझा किये उनके कंटेंट का प्रयोग करती हैं, इसके कारण वस्तुतः पारंपरिक मीडिया, विशेष रूप से क्षेत्रीय समाचार पत्रों की भूमिका काफी प्रभावित हुई है।
- समाचार फीड के लिये कंपनियों को भुगतान करना टेक और सोशल मीडिया कंपनियों के लिये एक बड़ा विषय नहीं है, क्योंकि गूगल ने पहले ही फ्रांँस में समाचार प्रकाशनों को भुगतान करने पर सहमति व्यक्त कर दी है।
- गूगल ने हाल ही में ऑनलाइन समाचार कंटेंट के डिजिटल कॉपीराइट भुगतान हेतु फ्रांँस के प्रकाशकों के एक समूह के साथ समझौता किया है।
- ऑस्ट्रेलिया के इस नए कानून में मुख्य तौर पर इस बात को लेकर विरोध है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया कंपनियाँ इस भुगतान प्रक्रिया पर कितना नियंत्रण रख पाएंगी यानी परिचालन संबंधी पहलू जैसे कि समाचार फीड के लिये भुगतान की मात्रा तय करने में उनकी कितनी भूमिका होगी।
- फ्रांँस में भुगतान प्रक्रिया को कॉपीराइट से जोड़ा गया है।
- दूसरी ओर, ऑस्ट्रेलिया का बिल लगभग पूरी तरह से समाचार आउटलेट्स की सौदा करने की शक्ति पर केंद्रित है।
भारत के संदर्भ में
- भारत में अब तक नीति निर्माताओं ने गूगल और फेसबुक जैसी मध्यवर्ती संस्थाओं के प्रभुत्व पर ध्यान केंद्रित किया है, जो कि वर्तमान में ऐसी स्थिति में हैं, जहाँ कोई भी सेवा प्रदाता इन प्लेटफॉर्म्स का उपयोग किये बिना ग्राहकों तक नहीं पहुँच सकता है।
- समाचार मीडिया आउटलेट्स पर इन प्लेटफाॅर्मों के प्रभाव को लेकर भी अभी तक भारत में कोई सार्थक चर्चा शुरू नहीं हो सकी है।
- फिक्की और इर्नस्ट एंड यंग (EY) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में ऑनलाइन समाचार साइटों, पोर्टलों और एग्रीगेटर्स के कुल 300 मिलियन उपयोगकर्त्ता हैं।
- इसमें भारत के 46 प्रतिशत इंटरनेट उपयोगकर्त्ता और 77 प्रतिशत स्मार्टफोन उपयोगकर्त्ता शामिल हैं।
- 282 मिलियन ‘यूनिक विज़िटर्स’ के साथ भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा ऑनलाइन समाचार उपभोक्ता है।
- भारत में वर्ष 2019 में डिजिटल विज्ञापन खर्च वार्षिक आधार पर 24 प्रतिशत बढ़कर 27,900 करोड़ रुपए पहुँच गया है और एक अनुमान के मुताबिक, वर्ष 2022 तक यह बढ़कर 51,340 करोड़ रुपए हो जाएगा।
- भारत में समाचार एग्रीगेटर्स के लिये प्रकाशकों को भुगतान करना अनिवार्य नहीं है।
- समाचार एग्रीगेटर एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म या एक सॉफ्टवेयर डिवाइस हो सकता है, जो प्रकाशन हेतु खबरों और अन्य सूचनाओं को एकत्रित करता है और उन्हें विशिष्ट तरीके से व्यवस्थित करता है।
आगे की राह
- भारत के पास एक विशिष्ट मीडिया बाज़ार मौजूद है, जो कि देश की विविधता के कारण और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिये भारत में मीडिया प्लेटफॉर्म कई भाषाओं में कार्य करते हैं। यद्यपि ऑस्ट्रेलिया का बिल भारत की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो सकता है, हालाँकि भारत के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह ऑस्ट्रेलिया द्वारा निर्धारित फ्रेमवर्क के साथ ही आगे बढ़े।
- सोशल डिजिटल प्लेटफाॅर्मों ने सूचना तक पहुँच की लोकतांत्रिक व्यवस्था का काफी महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। हालाँकि उनके लगातार बढ़ते आकार और राजस्व मॉडल के कारण समाज पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है और कई नवीन चुनौतियाँ जैसे- फेक न्यूज़ और सांप्रदायिक विभाजन आदि की स्थिति उत्पन्न हो गई हैं। आवश्यक है कि सरकार इन चुनौतियों से निपटने के लिये यथासंभव प्रयास करे, ताकि ऐसी चुनौतियों से लोकतंत्र की रक्षा की जा सके।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
भारत की स्वास्थ्य सुविधाओं में WASH की स्थिति
चर्चा में क्यों?
अमेरिका के सेंटर फॉर डिज़ीज़ डायनेमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी ( Center for Disease Dynamics, Economics and Policy- CDDEP) द्वारा हाल ही में किये गए एक शोध में संपूर्ण भारत की स्वास्थ्य सुविधाओं में एक वर्ष तक के लिये पानी, साफ-सफाई और स्वछता (WAter, Sanitation and Hygiene- WASH) सुनिश्चित करने तथा संक्रमण की रोकथाम एवं नियंत्रण से संबंधित कदम उठाने की लागत का अनुमान लगाया गया है।
- CDDEP का उद्देश्य स्वास्थ्य नीति में बेहतर निर्णय लेने हेतु अनुसंधान का उपयोग करना है।
वाॅश (WASH):
- WASH ‘Water, Sanitation and Hygiene का संक्षिप्त रूप है। ये क्षेत्र परस्पर संबंधित हैं।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन की वॉश रणनीति को सदस्य राज्य संकल्प (WHA 64.4) तथा सतत् विकास लक्ष्य-3 (अच्छा स्वास्थ्य और कल्याण) सतत् विकास लक्ष्य-6 (स्वच्छ जल और स्वच्छता) की अनुक्रिया के रूप में विकसित किया गया है।
- यह WHO के 13वें जनरल प्रोग्राम ऑफ वर्क 2019-2023 का एक घटक है जिसका उद्देश्य बेहतर आपातकालीन तैयारियों और प्रतिक्रिया जैसे बहुक्षेत्रीय कार्रवाइयों के माध्यम से तीन बिलियन लोगों तथा यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज़ (UHC) के माध्यम से एक बिलियन लोगों की स्वास्थ्य सुविधा में योगदान करना है।
- यह जुलाई 2010 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाए गए सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता जैसे मानवाधिकारों की प्रगतिशीलता पर भी ज़ोर देता है।
प्रमुख बिंदु:
अध्ययन की आवश्यकता:
- अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल और स्वच्छता सुविधाएंँ: WHO और UNICEF की वर्ष 2019 की संयुक्त वैश्विक आधारभूत रिपोर्ट में बताया गया है कि वैश्विक स्तर पर चार स्वास्थ्य सुविधाओं में से एक में मूलभूत रूप से जल आपूर्ति का अभाव देखा गया, जबकि पाँच में से एक में स्वच्छता सुविधा नहीं थी तथा 42% स्वास्थ्य सुविधाएँ ऐसी थीं जिनमें देखभाल के स्तर पर स्वच्छता सुविधा का अभाव था।
- स्वच्छता का आर्थिक महत्त्व: WHO द्वारा वर्ष 2012 में प्रस्तुत एक रिपोर्ट में यह आकलन किया गया था कि यदि स्वच्छता के क्षेत्र में एक डॉलर का निवेश किया जाता है तो स्वास्थ्य सुविधा लागत में 5.50 डॉलर की कमी आएगी, उत्पादकता में वृद्धि होगी तथा असामयिक मौतों की संख्या में कमी आएगी।
- वाॅश रणनीति के अनुचित कार्यान्वयन का परिणाम:
- स्वास्थ्य सुविधाओं के संदर्भ में WHO के WASH दस्तावेज़ में बताया गया है कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों में अपर्याप्त जल, स्वच्छता एवं साफ सफाई के अभाव के कारण प्रतिवर्ष 8,27,000 लोगों की मृत्यु होती है।
- इसके अलावा बेहतर WASH सुविधाएँ उपलब्ध कराकर प्रत्येक वर्ष पांँच साल से कम उम्र के 2,97,000 बच्चों की मौत को रोका जा सकता है।
अध्ययन का उद्देश्य:
- भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली में माँ और नवजात शिशुओं के मध्य संक्रमण को कम करने के उद्देश्य से WASH लागत-प्रभावशीलता का निर्धारण करना।
अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष:
- लागत अनुमान : भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की WASH स्थिति में सुधार करने तथा इसे एक वर्ष तक बनाए रखने में पूंजीगत लागत के रूप में लगभग 2567 करोड़ रुपए तथा आवर्तक खर्चों हेतु 2095 करोड़ रुपए की आवश्यकता है।
- महंँगा हस्तक्षेप: साफ पानी, लिनेन रिप्रोसेसिंग तथा स्वच्छता।
- कम खर्चीले हस्तक्षेप: हाथों की स्वच्छता, चिकित्सा उपकरणों का पुन: प्रसंस्करण और वातावरणीय सतह की सफाई।
- स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित संक्रमण:
- WASH की अपर्याप्त उपलब्धता तथा संक्रमण की रोकथाम एवं नियंत्रण की कमी के कारण स्वास्थ्य संबंधी संक्रमण हो सकता है।
- प्रेरक कारक: एसिनेटोबैक्टर बाउमानी (Acinetobacter baumannii), एंटरोकोकस फेसेलिस (Enterococcus faecalis), एस्चेरिचिया कोलाई (Escherichia coli), साल्मोनेला टाइफी (Salmonella typhi) , स्ट्रैप्टोकोकस निमोनिया (Streptococcus pneumoniae) जैसे रोगजनकों में एंटीबायोटिक प्रतिरोध विकसित होने के कारण इन्हें स्वास्थ्य संबंधी संक्रमणों के लिये उत्तरदायी पाया गया है।
- स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित सामान्य संक्रमण: इनमें सेंट्रल-लाइन से जुड़े रक्त प्रवाह संक्रमण (CLABSI), मूत्रमार्ग संक्रमण, सर्जरी वाले स्थान पर संक्रमण और निमोनिया के उपचार में प्रयोग होने वाले वेंटीलेटर से संबंधित संक्रमण शामिल हैं।
अध्ययन का महत्त्व:
- उपयुक्त रणनीति अपनाने में सहायक: निष्कर्षों से पता चलता है कि भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली में WASH के अंतराल को संबोधित करना न केवल अन्य राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभियानों की तुलना में संभावना के क्षेत्र के दायरे में है बल्कि इसे रोगाणुरोधी प्रतिरोध जैसी स्वास्थ्य संबंधी प्राथमिकताओं को संबोधित करने हेतु अन्य राष्ट्रीय प्रयासों के साथ भी जोड़ा जा सकता है।
- यह स्थानीय निकायों, राज्य और केंद्र सरकारों से WASH प्रावधान में गुणवत्ता और असमानता के मुद्दों को लगातार हल करने के उद्देश्य से ठोस प्रयास किये जाने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डालता है।
- स्वास्थ्य देखभाल नीति में सुधार: WASH, संक्रमण की रोकथाम और नियंत्रण तथा रोगाणुरोधी प्रतिरोध के मध्य अंतर इस मायने में अनूठा है कि यह नीति निर्माताओं को स्वास्थ्य सुविधाओं में WASH पर हस्तक्षेप के माध्यम से कई अतिव्यापी समस्याओं का समाधान करने का अवसर प्रदान करता है।
स्रोत: द हिंदू
जैव विविधता और पर्यावरण
मेकिंग पीस विद नेचर: UNEP रिपोर्ट
चर्चा में क्यों?
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ( United Nations Environment Programme- UNEP) द्वारा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा (UNEA-5) के पांँचवें सत्र से पहले 'मेकिंग पीस विद नेचर' (Making Peace with Nature) रिपोर्ट जारी की गई है।
- रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि किस प्रकार जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का क्षरण तथा प्रदूषण तीनों स्व-स्फूर्त तौर पर पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली आपात स्थितियों से जुड़े हैं जो वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिये अवांछनीय जोखिम उत्पन्न करते हैं।
प्रमुख बिंदु:
रिपोर्ट से प्राप्त परिणाम:
- ग्रहीयआपातस्थिति
- जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण ग्रीष्मकाल में आर्कटिक महासागर की बर्फ के मुक्त होने की संभावना बढ़ रही है, जिससे सागरीय परिसंचरण (Ocean Circulation) और आर्कटिक पारिस्थितिक तंत्र (Arctic Ecosystems) बाधित हो रहां है।
- जलवायु परिवर्तन के कारण वनाग्नि (Wildfires) और जल तनाव में परिवर्तन आता है तथा कुछ क्षेत्रों में जैव विविधता का नुकसान भूमि क्षरण और सूखे की बारंबारता के साथ जुड़ा है।
- जैव विविधता हानि:
- रिपोर्ट में इस बात का अनुमान लगाया गया है कि अनुमानित 8 मिलियन पौधों और जानवरों की प्रजातियों में से एक मिलियन से अधिक के विलुप्त होने का खतरा बढ़ रहा है।
- कोरल रीफ (Coral Reefs) विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, वार्मिंग के स्तर में 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी इनके द्वारा कुल आच्छादित क्षेत्र को 10-30% तक कम कर सकती है और यदि वार्मिंग का स्तर बढ़कर 2 डिग्री सेल्सियस पर पहुँचता है तो इनके द्वारा कुल आच्छादित क्षेत्र 1% से भी कम होने का अनुमान लगाया गया है, जो खाद्य प्रावधान, पर्यटन और तटीय संरक्षण को जोखिम में डाल सकता है।
- प्रदूषण:
- प्रदूषण के कारण हर साल नौ लाख लोगों की समय से पहले मृत्यु हो जाती है।
- हर वर्ष 400 मिलियन टन तक भारी धातु, विलयन , विषाक्त कीचड़ और अन्य औद्योगिक अपशिष्ट वैश्विक जल में प्रवेश करते समानताएँ:
- मानव की समृद्धि व्यापक असमानताओं की उपज है, जिससे पर्यावरणीय गिरावट का बोझ गरीबों और कमज़ोर वर्ग पर अधिक पड़ता है और आज की युवा एवं भावी पीढ़ियों पर भी इसका भार देखा जाता है।
- आर्थिक विकास में असमानता ने 1.3 बिलियन लोगों को गरीब बना दिया है।
- SDGs पर प्रदर्शन:
- जलवायु में हुए वर्तमान और अनुमानित बदलाव, जैव विविधता की हानि और प्रदूषण ने सतत् विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals- SDGs) को प्राप्त करना और भी अधिक चुनौतीपूर्ण बना दिया है।
- विकास की वर्तमान विधा मानव कल्याण को बनाए रखने हेतु पृथ्वी की परिमित क्षमता को कम करती है।
- विभिन्न लक्ष्यों पर प्रदर्शन:
- पर्यावरणीय क्षति को सीमित करने के मामले में समाज अपनी अधिकांश प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विफल है।
- निश्चित रूप से वैश्विक समाज भूमि क्षरण तटस्थता (Land Degradation Neutrality), आइची लक्ष्य (Aichi Targets) और पेरिस समझौते (Paris Agreement) के लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में आगे नहीं बढ़ रहा है।
- जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण ग्रीष्मकाल में आर्कटिक महासागर की बर्फ के मुक्त होने की संभावना बढ़ रही है, जिससे सागरीय परिसंचरण (Ocean Circulation) और आर्कटिक पारिस्थितिक तंत्र (Arctic Ecosystems) बाधित हो रहां है।
सुझाव
- मानव ज्ञान, सरलता/विदग्धता, प्रौद्योगिकी और सहयोग समाज तथा अर्थव्यवस्थाओं को परिवर्तित कर एक स्थायी भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं।
- जलवायु परिवर्तन की परस्पर प्रकृति, जैव विविधता की हानि, भूमि क्षरण और वायु एवं जल प्रदूषण को देखते हुए यह आवश्यक है कि एकजुट होकर इन समस्याओं से निपटा जाए।
- सरकारों को पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने तथा जलवायु परिवर्तन को सीमित करने हेतु तीव्रता से कार्रवाई करनी होगी।
- आर्थिक और वित्तीय प्रणालियों को स्थिरता प्रदान करने तथा स्थानांतरित करने हेतु नेतृत्व प्रदान किया जा सकता है।
- चक्रीय अर्थव्यवस्था (Circular Economy) की ओर हस्तांतरण, जो कि संसाधनों का पुन: उपयोग करने, उत्सर्जन को कम करने और लाखों लोगों की मौत के लिये उत्तरदायी रसायनों तथा विषाक्त पदार्थों को समाप्त करने के साथ-साथ रोज़गार सृजन में मदद करती है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम:
- 05 जून, 1972 को स्थापित संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP), एक प्रमुख वैश्विक पर्यावरण प्राधिकरण है।
- कार्य: इसका प्राथमिक कार्य वैश्विक पर्यावरण एजेंडा को निर्धारित करना, संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के भीतर सतत् विकास को बढ़ावा देना और वैश्विक पर्यावरण संरक्षण के लिये एक आधिकारिक अधिवक्ता के रूप में कार्य करना है।
- प्रमुख रिपोर्ट्स: उत्सर्जन गैप रिपोर्ट, वैश्विक पर्यावरण आउटलुक, इन्वेस्ट इनटू हेल्थी प्लेनेट रिपोर्ट।
- प्रमुख अभियान: ‘बीट पॉल्यूशन’, ‘UN75’, विश्व पर्यावरण दिवस, वाइल्ड फॉर लाइफ।
- मुख्यालय: नैरोबी (केन्या)।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा:
- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा (The United Nations Environment Assembly- UNEA) संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का प्रशासनिक निकाय है।
- यह पर्यावरण के संदर्भ में निर्णय लेने वाली विश्व की सर्वोच्च स्तरीय निकाय है।
- यह पर्यावरणीय सभा वैश्विक पर्यावरण नीतियों हेतु प्राथमिकताएंँ निर्धारित करने और अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण कानून विकसित करने के लिये द्विवार्षिक रूप से आयोजित की जाती है।
- सतत् विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के दौरान संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा का गठन जून 2012 में किया गया। धातव्य है कि सतत् विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन को RIO + 20 के रूप में भी संदर्भित किया जाता है।
स्रोत: डाउन टू अर्थ
भारतीय अर्थव्यवस्था
निर्णायक भूमि स्वामित्व
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्र ने कई राज्य सरकारों द्वारा मॉडल बिल ऑन कंक्लूसिव लैंड टाइटलिंग (Model Bill on Conclusive Land Titling) पर अपनी प्रतिक्रिया भेजने में विफलता के बाद चेतावनी दी है कि उनके साथ समझौते को सही मान लिया जाएगा। यह विधेयक नीति आयोग (NITI Aayog) द्वारा तैयार किया गया था।
प्रमुख बिंदु
भूमि स्वामित्व:
- यह वैयक्तिक और सरकार द्वारा भूमि तथा संपत्ति के अधिकारों के साथ कुशलता से व्यापार करने के लिये कार्यान्वित कार्यक्रमों का वर्णन करने हेतु इस्तेमाल किया जाने वाला सामान्य शब्द है।
- सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) के अनुसार, एक नागरिक का निजी संपत्ति पर अधिकार एक मानवीय अधिकार है।
भारत में भूमि स्वामित्व की वर्तमान प्रणाली:
- प्रणाली के विषय में:
- भारत वर्तमान में अनुमानित भूमि स्वामित्व प्रणाली का अनुसरण करता है, जिसके अनुसार भूमि रिकॉर्ड को पिछले लेन-देन के विवरण के माध्यम से निर्धारित किया जाता है।
- स्वामित्व:
- इसे वर्तमान कब्ज़े के आधार पर प्रमाणित किया जाता है।
- पंजीकरण:
- भूमि जैसे- उत्तराधिकारी का आँकड़ा, बंधक, पट्टे आदि का पंजीकरण वास्तव में लेन-देन संबंधी पंजीकरण है।
- भूमि के कागज़ात धारण करना सरकार या कानूनी ढाँचे के अंतर्गत मालिकाना हक की गारंटी नहीं देता है।
निर्णायक भूमि स्वामित्व:
- निर्णयात्मक भूमि स्वामित्व के विषय में:
- इस प्रणाली के अंतर्गत भूमि रिकॉर्ड वास्तविक स्वामित्व को निर्दिष्ट करते हैं।
- स्वामित्व:
- स्वामित्व सरकार द्वारा दिया जाता है जो इसकी सत्यता की ज़िम्मेदारी लेती है।
- विवाद निपटान:
- एक बार स्वामित्व दिये जाने के बाद किसी भी अन्य दावेदार को स्वामित्व धारक की जगह सरकार के साथ अपने विवादों को निपटाना होगा।
- मुआवज़ा:
- सरकार विवादों के मामले में दावेदारों को मुआवज़ा दे सकती है, लेकिन स्वामित्व धारक को स्वामित्व खोने का कोई खतरा नहीं होगा।
निर्णायक भूमि स्वामित्व की आवश्यकता और लाभ:
- मुकदमेबाज़ी में कमी:
- निर्णायक प्रणाली की वजह से भूमि से संबंधित मुकदमेबाज़ी काफी कम हो जाएगी।
- भारत में वर्ष 2007 के विश्व बैंक (World Bank) के अध्ययन ‘विकास को बढ़ाने और गरीबी को कम करने के लिये भूमि नीतियाँ’ के अनुसार सभी लंबित अदालती मामलों में से दो-तिहाई मामले भूमि संबंधी हैं।
- नीति आयोग ने अनुमान लगाया है कि भूमि या अचल संपत्ति पर विवादों को हल करने के लिये अदालतों में औसतन 20 साल लग सकते हैं।
- निर्णायक प्रणाली की वजह से भूमि से संबंधित मुकदमेबाज़ी काफी कम हो जाएगी।
- जोखिम में कमी:
- एक बार निर्णायक स्वामित्व मिलने के बाद जो निवेशक व्यावसायिक गतिविधियों के लिये ज़मीन खरीदना चाहते हैं, वे निरंतर जोखिम का सामना किये बिना ऐसा कर पाएंगे। इससे उनके स्वामित्व पर न तो सवाल उठाया जा सकता है और न ही उनका पूरा निवेश बेकार हो सकता है।
- भूमि स्वामित्व वर्तमान में लेन-देन पर आधारित हैं, इसलिये लोगों को लेन-देन के रिकॉर्ड की पूरी शृंखला रखनी पड़ती है और इस शृंखला में किसी भी बिंदु पर विवाद स्वामित्व में अस्पष्टता का कारण बनता है।
- एक बार निर्णायक स्वामित्व मिलने के बाद जो निवेशक व्यावसायिक गतिविधियों के लिये ज़मीन खरीदना चाहते हैं, वे निरंतर जोखिम का सामना किये बिना ऐसा कर पाएंगे। इससे उनके स्वामित्व पर न तो सवाल उठाया जा सकता है और न ही उनका पूरा निवेश बेकार हो सकता है।
- ब्लैक मार्केटिंग में कमी:
- भूमि के लेन-देन में स्वामित्व संबंधी अस्पष्टता के कारण एक ब्लैक मार्केट का निर्माण हो जाता है, जिसकी वजह से सरकार करों से वंचित हो जाती है।
- विकास की गति:
- भूमि विवाद और भूमि स्वामित्व की अस्पष्टता भी बुनियादी ढाँचे के विकास तथा आवास निर्माण में बाधा पैदा उत्पन्न करती है, जिससे इनके निर्माण में देरी होती है। शहरों में नगरीय स्थानीय निकाय संपत्ति करों पर निर्भर होते हैं जिन्हें केवल तभी वसूला जा सकता है जब कोई स्पष्ट स्वामित्व डेटा उपलब्ध हो।
- वर्तमान में अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों में लंबे समय से चल रहे अदालती मामले निवेश के लिये बाधा पैदा करते हैं।
- आसान ऋण सुविधा:
- ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी आवश्यकता और भी अधिक है। कृषि ऋण तक पहुँच भूमि को जमानत (Collateral) के रूप में उपयोग करने की क्षमता पर निर्भर करता है।
- भूमि पर अपने स्वामित्व को साबित करने और बैंकों से औपचारिक ऋण प्राप्त करने में अक्षम होने के कारण छोटे तथा सीमांत किसानों को अक्सर बेईमान साहूकारों की दया पर छोड़ दिया जाता है जिससे वे कर्ज़ के जाल में फँस जाते हैं।
समावेशी भूमि स्वामित्व पर मॉडल विधेयक:
- राज्य सरकारों को शक्ति:
- इस विधेयक से राज्य सरकारों को अचल संपत्तियों के स्वामित्व के पंजीकरण प्रणाली की स्थापना करने, प्रशासन और प्रबंधन के लिये आदेश जारी करने की शक्ति मिलेगी।
- भूमि प्राधिकारी:
- प्रत्येक राज्य सरकार द्वारा भूमि प्राधिकरण की स्थापना की जाएगी। यह प्राधिकरण मौजूदा रिकॉर्ड और दस्तावेज़ों के आधार पर भूमि स्वामित्व की एक मसौदा सूची तैयार करने तथा प्रकाशित करने के लिये एक स्वामित्व पंजीकरण अधिकारी (Title Registration Officer) की नियुक्ति करेगा।
- यह संपत्ति में रुचि रखने वाले सभी संभावित दावेदारों को एक वैध नोटिस जारी करेगा, जिसके बाद इन दावेदारों को एक निर्धारित अवधि के भीतर अपने दावे या आपत्तियाँ दर्ज करनी होंगी।
- यदि विवादित दावे प्राप्त होते हैं तो TRO सभी संबंधित दस्तावेज़ों को सत्यापित करेगा और मामले को हल करने के लिये भूमि विवाद समाधान अधिकारी (Land Dispute Resolution Officer) को संदर्भित कर देगा।
- हालाँकि अदालतों में पूर्व के लंबित विवादों को इस तरह से हल नहीं किया जा सकता है।
- सभी विवादित दावों पर विचार करने और उन्हें हल करने के बाद भूमि प्राधिकरण द्वारा स्वामित्व का रिकॉर्ड प्रकाशित किया जाएगा।
- प्रत्येक राज्य सरकार द्वारा भूमि प्राधिकरण की स्थापना की जाएगी। यह प्राधिकरण मौजूदा रिकॉर्ड और दस्तावेज़ों के आधार पर भूमि स्वामित्व की एक मसौदा सूची तैयार करने तथा प्रकाशित करने के लिये एक स्वामित्व पंजीकरण अधिकारी (Title Registration Officer) की नियुक्ति करेगा।
- भूमि स्वामित्व अपीलीय न्यायाधिकरण:
- इन स्वामित्वों और TRO तथा LDRO के फैसलों को तीन साल की अवधि के बाद भूमि स्वामित्व अपीलीय न्यायाधिकरण (Land Titling Appellate Tribunal) के समक्ष चुनौती दी जा सकती है। इस न्यायाधिकरण को कानून के तहत स्थापित किया जाएगा।
- स्वामित्व के रिकॉर्ड (Record of Title) में प्रविष्टियों को तीन साल की अवधि के बाद स्वामित्व का निर्णायक प्रमाण माना जाएगा।
- उच्च न्यायालय की विशेष पीठ:
- भूमि स्वामित्व अपीलीय न्यायाधिकरण द्वारा पारित आदेशों के खिलाफ अपील से निपटने के लिये उच्च न्यायालय (High Court) की एक विशेष पीठ गठित की जाएगी।
चुनौतियाँ:
- सबसे बड़ी चुनौती यह है कि दशकों से भूमि रिकॉर्ड अपडेट नहीं किये गए हैं, खासकर ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में।
- भूमि रिकॉर्ड अक्सर वर्तमान भूमि मालिक के दादा-दादी के नाम पर होते हैं, जिसमें विरासत का कोई सबूत नहीं होता है।
- अद्यतन रिकॉर्ड पर आधारित न होने के कारण भूमि स्वामित्व का निर्णय करना और भी अधिक समस्याएँ पैदा कर सकता है।
आगे की राह
- सामुदायिक भागीदारी के साथ व्यापक ग्राम-स्तरीय सर्वेक्षण भूमि स्वामित्व प्रक्रिया के लिये काफी महत्त्वपूर्ण है। मौजूदा रिकॉर्ड्स और उपग्रहों के माध्यम से प्राप्त सूचना की तुलना में स्थानीय सर्वेक्षण अधिक विश्वसनीय हो सकता है।
- यह आवश्यक है कि देश में शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों के लिये भूमि रिकॉर्ड की एक एकीकृत प्रणाली स्थापित की जाए, जिसमें कृषि, बुनियादी अवसंरचना, आवासीय और औद्योगिक भूमि आदि व्यापक क्षेत्रों को शामिल किया जाए।