अंतर्राष्ट्रीय संबंध
8वीं एडीएमएम-प्लस बैठक
प्रिलिम्स के लिये:एडीएमएम-प्लस, दक्षिण चीन सागर, आसियान मेन्स के लिये:भारत के लिये ADMM प्लस वार्ता की प्रासंगिकता |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के रक्षा मंत्री ने 8वीं आसियान रक्षा मंत्रियों की बैठक (ADMM प्लस) को संबोधित किया।
- ADMM-Plus आसियान और उसके आठ संवाद भागीदारों का एक मंच है।
प्रमुख बिंदु:
सुरक्षा और विवाद समाधान:
- भारत ने राष्ट्रों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के सम्मान के आधार पर इंडो-पैसिफिक में एक खुली और समावेशी व्यवस्था का आह्वान किया।
- यह दक्षिण चीन सागर सहित अंतर्राष्ट्रीय जलमार्गों में नेविगेशन, ओवरफ्लाइट और अबाध वाणिज्य की स्वतंत्रता का समर्थन करता है, भारत को उम्मीद है कि इस आचार संहिता वार्ता (दक्षिण चीन सागर के लिये) से ऐसे परिणाम निकलेंगे जो ‘समुद्र कानून पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय’ (UNCLOS) सहित अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप होंगे।
- हाल ही में आसियान और चीन ने इस कोड पर वार्ता को फिर से शुरू करने में तेज़ी लाने पर सहमति व्यक्त की, जो महामारी के कारण रुकी हुई थी।
- चीन और आसियान ने कथित रूप से बाध्यकारी आचार संहिता पर वर्ष 2013 में बातचीत शुरू की थी।
- बातचीत और अंतर्राष्ट्रीय नियमों एवं कानूनों के पालन के माध्यम से विवादों के शांतिपूर्ण समाधान पर ज़ोर दिया गया।
- अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिये उभरती चुनौतियों का समाधान करने हेतु नई प्रणालियों की आवश्यकता है।
‘एक्ट ईस्ट’ पॉलिसी:
- एक्ट ईस्ट पॉलिसी का प्रमुख उद्देश्य द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और बहुपक्षीय स्तरों पर निरंतर जुड़ाव के माध्यम से आर्थिक सहयोग, सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा देना और हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ रणनीतिक संबंध विकसित करना है।
आतंकवाद:
- आतंकी संगठनों और उनके नेटवर्क को पूरी तरह से बाधित करने के लिये सामूहिक सहयोग का आह्वान किया गया।
- अपराधियों की पहचान करने और उन्हें जवाबदेह ठहराने तथा यह अपेक्षा की गई कि आतंकवाद का समर्थन करने, उसे वित्तपोषित करने एवं आतंकवादियों को शरण देने वालों के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएँ।
- फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) के सदस्य के रूप में भारत आतंकवाद के वित्तपोषण का मुकाबला करने के लिये प्रतिबद्ध है।
- FATF ग्लोबल मनी लॉन्ड्रिंग और टेररिस्ट फाइनेंसिंग वॉचडॉग है।
साइबर सुरक्षा:
- एक बहु-हितधारक दृष्टिकोण का आह्वान किया गया, जो लोकतांत्रिक मूल्यों द्वारा निर्देशित हो तथा एक खुली और समावेशी शासन संरचना हो एवं यह देशों की संप्रभुता के लिये एक सुरक्षित और स्थिर इंटरनेट व्यवस्था से संबंधित हो, जो साइबरस्पेस के भविष्य को तय करेगा।
कोविड-19:
- विश्व स्तर पर उपलब्ध पेटेंट मुक्त टीके, निर्बाध आपूर्ति शृंखला और अधिक वैश्विक चिकित्सा क्षमता कुछ ऐसे प्रयास हैं, जिनका सुझाव भारत ने संयुक्त प्रयास के माध्यम से दिया है।
- दक्षिण अफ्रीका और भारत ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) से कोविड -19 से संबंधित बौद्धिक संपदा (IP) अधिकारों को निलंबित करने का आह्वान किया है ताकि महामारी को नियंत्रित करने के लिये टीकों और नई तकनीक का समान साझाकरण सुनिश्चित किया जा सके।
मानवीय सहायता और आपदा राहत (HADR) संचालन:
- भारत विस्तारित पड़ोस में संकट के समय में तत्काल प्रतिक्रिया देने वाले पहले देशों में से एक है।
- एशियाई तटरक्षक एजेंसियों के प्रमुखों की बैठक (HACGAM) के संस्थापक सदस्य के रूप में भारत समुद्री खोज और बचाव के क्षेत्रों में सहयोग के माध्यम से क्षमता निर्माण को बढ़ाना चाहता है।
- HACGAM एक शीर्ष स्तर का मंच है जो एशियाई क्षेत्र की सभी प्रमुख तटरक्षक एजेंसियों के एकीकरण की सुविधा प्रदान करता है, इसकी स्थापना वर्ष 2004 में हुई थी।
आसियान की केंद्रीयता:
- भारत आसियान के साथ एक गहरा संबंध साझा करता है और क्षेत्रीय शांति एवं स्थिरता में योगदान देने वाले कई क्षेत्रों में अपनी सक्रिय भागीदारी जारी रखता है, विशेष रूप से आसियान के नेतृत्व वाले तंत्र के माध्यम से, जैसे:
- ईस्ट एशिया समिट
- आसियान रीजनल फोरम
- ADMM प्लस
- भारत-आसियान रणनीतिक साझेदारी उनके बीच समृद्ध सांस्कृतिक और सभ्यतागत संबंधों और लोगों-से-लोगों के मध्य सहयोग को बढ़ावा देने के कारण मज़बूत हुई है।
ADMM प्लस:
- वर्ष 2007 में सिंगापुर में दूसरी आसियान रक्षा मंत्रियों की बैठक (एडीएमएम) में एडीएमएम-प्लस की स्थापना के लिये एक प्रस्ताव अपनाया गया।
- पहली ADMM-Plus वार्ता वर्ष 2010 में हनोई, वियतनाम में आयोजित की गई थी।
- ब्रुनेई वर्ष 2021 के लिये ADMM प्लस फोरम का अध्यक्ष है।
- दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रों का संघ (आसियान) एक क्षेत्रीय संगठन है जिसे एशिया-प्रशांत के उत्तर-औपनिवेशिक राज्यों के मध्य बढ़ते तनाव के बीच राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता को बढ़ावा देने के लिये स्थापित किया गया था।
सदस्यता:
- एडीएमएम-प्लस देशों में दस आसियान सदस्य राज्य और आठ अन्य देश शामिल हैं- ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, न्यूज़ीलैंड, कोरिया गणराज्य, रूसी संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका।
उद्देश्य:
- इसका उद्देश्य अधिक संवाद और पारदर्शिता के माध्यम से रक्षा प्रतिष्ठानों के बीच आपसी विश्वास और सहयोग को बढ़ावा देना है।
सहयोग के क्षेत्र:
- समुद्री सुरक्षा, आतंकवाद का मुकाबला, मानवीय सहायता और आपदा राहत, शांति अभियान तथा सैन्य चिकित्सा।
स्रोत-पीआईबी
शासन व्यवस्था
सोने की हॉलमार्किंग को लेकर नए मानदंड
प्रिलिम्स के लियेसोने की हॉलमार्किंग को लेकर नए मानदंड, भारतीय मानक ब्यूरो मेन्स के लियेगोल्ड हॉलमार्किंग की आवश्यकता और महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने सोने के गहनों की हॉलमार्किंग को अनिवार्य कर दिया है, जिसे चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाएगा।
प्रमुख बिंदु
हॉलमार्किंग के बारे में:
- भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standard- BIS) भारत में सोने और चाँदी की हॉलमार्किंग योजना को संचालित करता है, हॉलमार्किंग को "कीमती धातु की वस्तुओं में कीमती धातु की आनुपातिक सामग्री का सटीक निर्धारण और आधिकारिक रिकॉर्डिंग" के रूप में परिभाषित करता है।
- यह कीमती धातु की वस्तुओं की "शुद्धता या सुंदरता की गारंटी" है, जो वर्ष 2000 में शुरू हुई थी।
- भारत में वर्तमान में दो कीमती धातुओं सोना और चाँदी को हॉलमार्किंग के दायरे में लाया गया है।
- BIS प्रमाणित ज्वैलर्स किसी भी BIS मान्यता प्राप्त एसेइंग एंड हॉलमार्किंग सेंटर (Assaying and Hallmarking Centres- A&HC) से अपने आभूषण हॉलमार्क करवा सकते हैं।
- पहले यह ज्वैलर्स के लिये वैकल्पिक था और इस प्रकार केवल 40% सोने के आभूषणों की हॉलमार्किंग हो रही थी।
चरणबद्ध तरीके से कार्यान्वयन:
- पहले चरण में केवल 256 ज़िलों में गोल्ड हॉलमार्किंग सुविधा उपलब्ध होगी और 40 लाख रुपए से अधिक वार्षिक टर्नओवर वाले ज्वैलर्स इसके दायरे में आएंगे।
- आभूषण और वस्तुओं की एक निश्चित श्रेणी को भी हॉलमार्किंग की अनिवार्य आवश्यकता से छूट दी जाएगी।
- अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों हेतु आभूषण, सरकार द्वारा अनुमोदित B2B (बिजनेस-टू-बिजनेस) घरेलू प्रदर्शनियों के लिये आभूषणों को अनिवार्य हॉलमार्किंग से छूट दी जाएगी।
गोल्ड हॉलमार्किंग की आवश्यकता:
- भारत सोने का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। हालाँकि देश में हॉलमार्क वाली ज्वैलरी का स्तर बहुत कम है।
- अनिवार्य हॉलमार्किंग जनता को कम कैरेट (शुद्ध सोने का अंश) से बचाएगी और यह सुनिश्चित करेगी कि सोने के गहने खरीदते समय उपभोक्ताओं को धोखा न हो।
- यह आभूषणों पर अंकित शुद्धता को बनाए रखने में मदद करेगा।
- यह पारदर्शिता लाएगा और उपभोक्ताओं को गुणवत्ता का आश्वासन देगा।
- यह आभूषणों के निर्माण की प्रणाली में विसंगतियों और भ्रष्टाचार को दूर करेगा।
भारतीय मानक ब्यूरो
- BIS वस्तुओं के मानकीकरण, अंकन और गुणवत्ता प्रमाणन जैसी गतिविधियों के सामंजस्यपूर्ण विकास का कार्य भारत का राष्ट्रीय मानक निकाय (National Standard Body of India) करता है।
- मानक तैयार करना: BIS विभिन्न क्षेत्रों के लिये राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप भारतीय मानक तैयार करता है जिन्हें 14 विभागों जैसे- रसायन, खाद्य और कृषि, नागरिक, इलेक्ट्रो-तकनीकी, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी आदि के तहत समूहीकृत किया गया है।
BIS की अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियाँ:
- BIS, अंतर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (International Organization for Standardization- ISO ) का संस्थापक सदस्य है और अंतर्राष्ट्रीय मानकों के विकास में सक्रिय रूप से शामिल है।
- भारत का प्रतिनिधित्व BIS के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय इलेक्ट्रो-तकनीकी आयोग (International Electro-technical Commission- IEC) द्वारा किया जाता है। IEC सभी विद्युत, इलेक्ट्रॉनिक और संबंधित प्रौद्योगिकियों के लिये अंतर्राष्ट्रीय मानकों की तैयारी एवं प्रकाशन हेतु विश्व का अग्रणी संगठन है।
- BIS, विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organisation- WTO) और व्यापार में तकनीकी बाधाओं (Technical Barriers to Trade- TBT) के लिये राष्ट्रीय पूछताछ बिंदु है।
अन्य पहलें:
- BIS SDO मान्यता योजना:
- भारत सरकार के ‘एक राष्ट्र एक मानक’ विज़न के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये BIS ने एक योजना शुरू की जिसके तहत इसे मानक विकास संगठन (Standard Developing Organization- SDO) की मान्यता प्रदान करती है।
- उत्पाद प्रमाणन योजना:
- भारतीय मानकों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये BIS एक उत्पाद प्रमाणन योजना संचालित करता है। किसी उत्पाद पर BIS मानक चिह्न (जिसे ISI चिह्न के रूप में जाना जाता है) की उपस्थिति प्रासंगिक भारतीय मानक के अनुरूप होने का संकेत देती है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
आयुध निर्माणी बोर्ड का निगमीकरण
प्रिलिम्स के लिये:आयुध निर्माणी बोर्ड, आत्मनिर्भर भारत पहल मेन्स के लिये:आयुध निर्माणी बोर्ड के निगमीकरण का महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) के निगमीकरण की योजना को मंज़ूरी दी है।
प्रमुख बिंदु:
नई संरचना:
- देश भर में 41 कारखानों को रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के सात नए उपक्रमों (DPSU) में बदल दिया जाएगा। नवनिर्मित संस्थाएँ सरकार के 100% स्वामित्व में होंगी।
- ये संस्थाएँ उत्पादों के विभिन्न कार्यक्षेत्रों के लिये ज़िम्मेदार होंगी जैसे कि गोला-बारूद और विस्फोटक समूह गोला-बारूद का उत्पादन करेंगे, जबकि एक वाहन समूह रक्षा गतिशीलता और लड़ाकू वाहनों के उत्पादन में संलग्न होगा।
- उत्पादन इकाइयों में सभी OFB कर्मचारियों को केंद्र सरकार के कर्मचारियों के रूप में उनकी सेवा शर्तों में बदलाव किये बिना शुरू में दो वर्ष की अवधि के लिये एक डीम्ड प्रतिनियुक्ति पर नई कॉर्पोरेट संस्थाओं में स्थानांतरित किया जाएगा।
- सेवानिवृत्त और मौजूदा कर्मचारियों की पेंशन देनदारियाँ सरकार द्वारा वहन की जाती रहेंगी।
OFB:
- यह आयुध कारखानों और संबंधित संस्थानों के लिये एक पूर्ण निकाय है तथा वर्तमान में रक्षा मंत्रालय (MoD) का एक अधीनस्थ कार्यालय है।
- पहला भारतीय आयुध कारखाना वर्ष 1712 में डच कंपनी द्वारा गन पाउडर फैक्ट्री, पश्चिम बंगाल के रूप में स्थापित किया गया था।
- यह 41 कारखानों, 9 प्रशिक्षण संस्थानों, 3 क्षेत्रीय विपणन केंद्रों और 5 क्षेत्रीय सुरक्षा नियंत्रकों का समूह है।
- मुख्यालय: कोलकाता
- महत्त्व: न केवल सशस्त्र बलों के लिये बल्कि अर्द्धसैनिक और पुलिस बलों हेतु हथियार, गोला-बारूद और आपूर्ति का एक बड़ा हिस्सा OFB द्वारा संचालित कारखानों से आता है।
- उत्पादन में शामिल हैं: नागरिक और सैन्य-ग्रेड हथियार और गोला-बारूद, विस्फोटक, मिसाइल सिस्टम के लिये प्रणोदक और रसायन, सैन्य वाहन, बख्तरबंद वाहन, ऑप्टिकल उपकरण, पैराशूट, रक्षा उपकरण, सेना के कपड़े और सामान्य भंडार।
निगमीकरण का कारण:
- OFB पर वर्ष 2019 के लिये अपनी रिपोर्ट में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक द्वारा प्रदर्शन मूल्यांकन में कुछ कमियों पर प्रकाश डाला गया है, जो इस संगठन के सामने कठिनाइयाँ पैदा करती हैं।
- ओवरहेड्स (उत्पाद बनाने या सेवा के लिये सीधे तौर पर ज़िम्मेदार नहीं) वर्ष के लिये कुल आवंटित बजट का 33% बाकी रह गया।
- इसमें प्रमुख योगदानकर्त्ता पर्यवेक्षण लागत और अप्रत्यक्ष श्रम लागत हैं।
- विलंबित उत्पादन: आयुध कारखानों ने केवल 49% वस्तुओं के उत्पादन का लक्ष्य हासिल किया।
- आधे से अधिक सामान (52%) निर्माण हेतु खरीदा गया था लेकिन कारखानों द्वारा एक वर्ष के भीतर उपयोग नहीं किया गया था।
- ओवरहेड्स (उत्पाद बनाने या सेवा के लिये सीधे तौर पर ज़िम्मेदार नहीं) वर्ष के लिये कुल आवंटित बजट का 33% बाकी रह गया।
- आत्मनिर्भर भारत पहल में भी OFB के निगमीकरण का प्रावधान किया गया है- 'आयुध आपूर्तिकर्ताओं की स्वायत्तता, जवाबदेही और दक्षता में सुधार'।
नई व्यवस्था का महत्त्व:
- यह पुनर्गठन अक्षम आपूर्ति शृंखलाओं को समाप्त करके OFB की मौजूदा प्रणाली में विभिन्न कमियों को दूर करने में भी मदद करेगा और इन कंपनियों को प्रतिस्पर्द्धी बनने तथा बाज़ार में नए अवसरों का पता लगाने के लिये प्रोत्साहन प्रदान करेगा।
- यह इन कंपनियों को स्वायत्तता के साथ-साथ जवाबदेही और दक्षता में सुधार करने में मदद करेगा।
- इस पुनर्गठन का एक अन्य उद्देश्य आयुध कारखानों को उत्पादक और लाभदायक संपत्तियों में बदलना, उत्पाद शृंखला में उनकी विशेषज्ञता को बढ़ाना, प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ाना और गुणवत्ता और लागत-दक्षता में सुधार करना है।
आशंकाएँ:
- कर्मचारियों की मुख्य आशंकाओं में से एक यह है कि निगमीकरण (स्वामित्व और प्रबंधन सरकार के पास है) अंततः निजीकरण (निजी संस्थाओं को स्वामित्व और प्रबंधन अधिकारों का हस्तांतरण) की ओर ले जाएगा।
- नई कॉर्पोरेट संस्थाएँ रक्षा उत्पादों के प्रतिस्पर्द्धी बाज़ार के माहौल से बचने में सक्षम नहीं होंगी, जिसका एक प्रमुख कारण अस्थिर मांग और आपूर्ति की गतिशीलता है।
- पुनर्गठन के परिणामस्वरूप अधिक स्वायत्तता और निगम पर कम सरकारी नियंत्रण होगा, साथ ही रोज़गार कम होने का डर है।
आगे की राह:
- OFB के निगमीकरण से आयुध कारखानों को एक अत्याधुनिक सुविधा में बदलने की संभावना है, जिससे कामकाज में लचीलापन आएगा और बेहतर निर्णय लेने की क्षमता विकसित होगी।
- इस योजना के लिये एक चिंतनशील रोड-मैप की आवश्यकता है। इससे निगमीकरण के संबंध में आशंकाओं को कम करने में मदद मिल सकती है।
स्रोत- द हिंदू
शासन व्यवस्था
‘चेन्नई-कन्याकुमारी औद्योगिक कॉरिडोर’ के लिये ADB का ऋण
प्रिलिम्स के लियेचेन्नई-कन्याकुमारी औद्योगिक कॉरिडोर, एशियाई विकास बैंक, औद्योगिक गलियारा योजना, पूर्वी तट आर्थिक गलियारा मेन्स के लियेऔद्योगिक गलियारे और उनका महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में एशियाई विकास बैंक (ADB) और भारत सरकार ने ‘तमिलनाडु औद्योगिक कनेक्टिविटी परियोजना’ के लिये 484 मिलियन अमेरिकी डॉलर के ऋण समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं।
- यह ऋण तमिलनाडु राज्य में ‘चेन्नई-कन्याकुमारी औद्योगिक कॉरिडोर’ (CKIC) के अंतर्गत परिवहन कनेक्टिविटी में सुधार और औद्योगिक विकास की सुविधा से संबंधित है।
एशियाई विकास बैंक
- यह 19 दिसंबर, 1966 को स्थापित एक क्षेत्रीय विकास बैंक है। इसका मुख्यालय मनीला, फिलीपींस में स्थित है।
- वर्तमान में इसके 68 सदस्य देश हैं, जिनमें से 49 एशियाई देश हैं। भारत भी इसका सदस्य है।
- इसके पाँच सबसे बड़े शेयरधारकों में जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका (कुल शेयरों का 15.6% हिस्सा), पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (6.4% हिस्सा), भारत (6.3% हिस्सा) और ऑस्ट्रेलिया (5.8% शामिल) हैं।
- इसका उद्देश्य एशिया और प्रशांत क्षेत्र में सामाजिक और आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है।
प्रमुख बिंदु
ऋण समझौता
- यह ऋण परियोजना ‘एशियाई विकास बैंक’ की दीर्घकालिक कॉरपोरेट रणनीति यानी ‘रणनीति-2030’ के अनुरूप है और स्थिरता, जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से लचीलापन और सड़क सुरक्षा से जुड़े तत्त्वों पर ज़ोर देती है।
- ‘रणनीति-2030’ के मुताबिक, ‘एशियाई विकास बैंक’ अत्यधिक गरीबी को मिटाने के अपने प्रयासों के तहत एक समृद्ध, समावेशी, लचीला और सतत् एशिया-प्रशांत सुनिश्चित करने के लिये अपने दृष्टिकोण का विस्तार करेगा।
- ‘चेन्नई-कन्याकुमारी औद्योगिक कॉरिडोर’ भारत के ‘पूर्वी तट आर्थिक गलियारे’ (ECEC) का हिस्सा है।
औद्योगिक गलियारा योजना
- औद्योगिक गलियारा एक आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र है, जो दो प्रमुख आर्थिक केंद्रों को जोड़ने वाले परिवहन गलियारे के चारों ओर बनाया गया है, जहाँ परिवहन गलियारा आर्थिक गतिविधियों के तंत्रिका केंद्र के रूप में कार्य करता है।
- परिवहन गलियारे के अलावा एक औद्योगिक गलियारे में क्षेत्रीय और वैश्विक मांग को पूरा करने वाले औद्योगिक उत्पादन के क्लस्टर और एकसमान रूप से विकसित शहरी केंद्र भी शामिल होते हैं।
- वर्ष 2019 में सरकार ने ‘राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा विकास और कार्यान्वयन ट्रस्ट’ (NICDIT) के माध्यम से कार्यान्वित की जा रही पाँच औद्योगिक गलियारा परियोजनाओं के विकास को मंज़ूरी दी थी।
- NICDIT केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के ‘उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्द्धन विभाग’ (DPIIT) के प्रशासनिक नियंत्रण में एक सर्वोच्च निकाय है।
- पाँच औद्योगिक गलियारा परियोजनाएँ
- दिल्ली-मुंबईऔद्योगिक गलियारा (DMIC)
- अमृतसर-कोलकाता औद्योगिक गलियारा (AKIC)
- चेन्नई-बंगलूरू औद्योगिक गलियारा (CBIC)
- पूर्वी तट आर्थिक गलियारा (ECEC) के साथ विज़ाग चेन्नई औद्योगिक गलियारा
- बंगलूरू-मुंबई औद्योगिक गलियारा (BMIC)
पूर्वी तट आर्थिक गलियारा
- पश्चिम बंगाल से तमिलनाडु तक विस्तृत यह आर्थिक गलियारा समग्र भारत को दक्षिण, दक्षिणपूर्व और पूर्वी एशिया के उत्पादन नेटवर्क से जोड़ता है।
- ‘पूर्वी तट आर्थिक गलियारे’ के विकास में ‘एशियाई विकास बैंक’ भारत सरकार का प्रमुख भागीदार है।
- इसमें पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु को कवर किया गया है। इस कॉरिडोर के विज़ाग-चेन्नई खंड को फेज-1 के रूप में विकसित किया गया है।
- विज़ाग-चेन्नई औद्योगिक गलियारा (VCIC) देश का पहला तटीय आर्थिक गलियारा है।
- यह परियोजना ‘स्वर्णिम चतुर्भुज’ के साथ संरेखित है। यह भारत की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- स्वर्णिम चतुर्भुज भारत की सबसे लंबी सड़क परियोजना है और दुनिया का पाँचवाँ सबसे लंबा राजमार्ग है। यह दिल्ली, मुंबई, कोलकाता एवं चेन्नई को जोड़ता है।
औद्योगिक गलियारों का महत्त्व
- निर्यात के लिये नवीन संभावनाएँ
- औद्योगिक गलियारों से लोजिस्टिक्स की लागत कम होने की संभावना है, जिससे औद्योगिक उत्पादन संरचना की दक्षता में वृद्धि होगी।
- इस तरह की दक्षता उत्पादन की लागत को कम करती है जो भारत में निर्मित उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में प्रतिस्पर्द्धा के लिये और अधिक सक्षम बनाता है।
- रोज़गार अवसर
- यह उद्योगों के विकास के लिये निवेश आकर्षित करेगा, जिससे बाज़ार में अधिक रोज़गार सृजित होने की संभावना है।
- पर्यावरणीय महत्त्व
- सभी राज्यों में औद्योगिक गलियारों के साथ औद्योगिक इकाइयों की स्थापना से किसी एक विशिष्ट स्थान पर उद्योगों के एकत्रण को रोका जा सकेगा। ज्ञात हो कि किसी विशिष्ट स्थान उद्योगों के एकत्रण के कारण उस क्षेत्र के पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जो पर्यावरणीय गिरावट का कारण बनाता है।
- सामाजिक-आर्थिक महत्त्व
- सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से भी औद्योगिक गलियारे काफी महत्त्वपूर्ण हैं, इसके परिणामस्वरूप औद्योगिक टाउनशिप, शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों की स्थापना जैसी सामाजिक कल्याण गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा। ये देश में मानव विकास को और अधिक बढ़ावा देंगे।
स्रोत: पी.आई.बी.
भारतीय अर्थव्यवस्था
सौर ऊर्जा के लिये श्रीलंका को ऋण
प्रिलिम्स के लिये:लाइन ऑफ क्रेडिट, अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन मेन्स के लिये:सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने हेतु भारत और वैश्विक स्तर पर की गईं पहलें |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत ने सौर ऊर्जा क्षेत्र की परियोजनाओं के लिये श्रीलंका को 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर की लाइन ऑफ क्रेडिट (LOC) प्रदान करने के लिये एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। यह LOC की 1.75% ब्याज दर पर 20 वर्षों की अवधि के लिये है।
- इस समझौते पर श्रीलंका सरकार और भारतीय निर्यात-आयात (EXIM) बैंक के बीच हस्ताक्षर किये गए थे।
- EXIM बैंक एक विशिष्ट वित्तीय संस्थान है, जिसका पूर्ण स्वामित्व भारत सरकार के पास है।
लाइन ऑफ क्रेडिट (Line of Credit-LOC):
- लाइन ऑफ क्रेडिट एक प्रकार का ‘सुलभ ऋण’ (Soft Loan) होता है जो एक देश की सरकार द्वारा किसी अन्य देश की सरकार को रियायती ब्याज दरों पर दिया जाता है।
- आमतौर पर LOC इस प्रकार की शर्तों से जुड़ी होती है कि उधार लेने वाला देश उधार देने वाले देश से कुल LOC का निश्चित हिस्सा आयात करेगा। इस प्रकार दोनों देशों को अपने व्यापार और निवेश संबंधों को मज़बूत करने का अवसर मिलता है।
प्रमुख बिंदु:
LOC का महत्त्व:
- यह श्रीलंका में सौर ऊर्जा क्षेत्र की विभिन्न परियोजनाओं जैसे- घरों और सरकारी भवनों के लिये रूफटॉप सोलर फोटो-वोल्टाइक सिस्टम को वित्तपोषित करने में मदद करेगा।
- इनमें से कुछ परियोजनाओं की घोषणा मार्च 2018 में दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) के संस्थापक सम्मेलन के दौरान की गई थी।
- सौर ऊर्जा के वैश्विक सहयोग के लिये भारत की पहल :
- अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA):
- ISA की स्थापना भारत की पहल के बाद हुई थी। इसकी शुरुआत संयुक्त रूप से पेरिस में 30 नवंबर, 2015 को संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन के दौरान COP-21 से पृथक भारत और फ्राँस द्वारा की गई थी।
- ISA की अंतर्राष्ट्रीय संचालन समिति की पाँचवीं बैठक में 121 संभावित सदस्य राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था, जो पूर्ण या आंशिक रूप से कर्क और मकर रेखा के बीच में स्थित हैं।
- 89 देशों ने ISA फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं।
- ISA का विज़न एक सूर्य, एक विश्व, एक ग्रिड (OSOWOG) को सक्षम बनाना है।
- एक सूर्य, एक विश्व, एक ग्रिड (OSOWOG):
- यह वैश्विक सहयोग की सुविधा के लिये एक ढाँचे पर ध्यान केंद्रित करता है, जो परस्पर अक्षय ऊर्जा संसाधनों (मुख्य रूप से सौर ऊर्जा) के वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र जिसे मूल रूप से साझा किया जा सकता है, का निर्माण करता है ।
- अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA):
- भारत में सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये योजनाएँ: हाल ही में भारत ने इटली को पीछे छोड़ते हुए सौर ऊर्जा परिनियोजन में वैश्विक स्तर पर 5वाँ स्थान हासिल किया है।
- राष्ट्रीय सौर मिशन (जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना का एक हिस्सा): इसका उद्देश्य पूरे देश में सौर ऊर्जा की स्थापना के लिये नीतिगत शर्तें बनाकर भारत को सौर ऊर्जा में एक वैश्विक नेता के रूप में स्थापित करना है।
- रूफटॉप सौर योजना: घरों की छत पर सौर पैनल स्थापित कर सौर ऊर्जा उत्पन्न करने हेतु नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ग्रिड से जुड़ी रूफटॉप सौर योजना (द्वितीय चरण) को लागू कर रहा है।
- भारत में उच्च दक्षता वाले सौर पीवी मॉड्यूल के निर्माण को बढ़ावा देने के लिये उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना (PLI)।
- अल्ट्रा मेगा रिन्यूएबल एनर्जी पावर पार्कों के विकास हेतु योजना: यह मौजूदा सोलर पार्क योजना के तहत अल्ट्रा मेगा रिन्यूएबल एनर्जी पावर पार्क (UMREPPs) विकसित करने की एक योजना है।
- किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (KUSUM): इस योजना में ग्रिड से जुड़े अक्षय ऊर्जा विद्युत संयंत्र (0.5 - 2 मेगावाट)/सौर जल पंप/ग्रिड से जुड़े कृषि पंप शामिल हैं।
- राष्ट्रीय पवन-सौर हाइब्रिड नीति, 2018: इस नीति का मुख्य उद्देश्य बड़े ग्रिड से जुड़े पवन-सौर फोटो-वोल्टेइक हाइब्रिड प्रणाली को बढ़ावा देने के लिये एक ढाँचा प्रदान करना है।
- अटल ज्योति योजना (AJAY): इसे सितंबर 2016 में उन राज्यों में सौर स्ट्रीट लाइटिंग (SSL) सिस्टम की स्थापना के लिये लॉन्च किया गया था, जहाँ 50% से कम घरों में ग्रिड विद्युत् उपलब्ध है (जनगणना 2011 के अनुसार)।
- सूर्यमित्र कौशल विकास कार्यक्रम: सौर प्रतिष्ठानों की देखभाल करने हेतु ग्रामीण युवाओं को कौशल प्रशिक्षण प्रदान करना।
स्रोत: द हिंदू
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
डीप ओशन मिशन
प्रिलिम्स के लियेडीप ओशन मिशन मेन्स के लियेडीप ओशन मिशन के विभिन्न घटक, ‘ब्लू इकॉनमी’ संबंधी विभिन्न पहलें |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने ‘डीप ओशन मिशन’ (DOM) पर ‘पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय’ (MoES) के प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी है।
- समुद्र की गहराई का पता लगाने के लिये वर्ष 2018 में ‘डीप ओशन मिशन’ के ब्लूप्रिंट का अनावरण किया गया था। इससे पूर्व ‘पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय’ ने ब्लू इकॉनमी पॉलिसी का मसौदा भी प्रस्तुत किया था।
प्रमुख बिंदु
डीप ओशन मिशन
- पाँच वर्ष की अवधि वाले इस मिशन की अनुमानित लागत 4,077 करोड़ रुपए है और इसे चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाएगा। ‘पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय’ इस बहु-संस्थागत महत्त्वाकांक्षी मिशन को लागू करने वाला नोडल मंत्रालय होगा।
- यह भारत सरकार की ‘ब्लू इकॉनमी’ पहल का समर्थन करने हेतु एक मिशन मोड परियोजना होगी।
- ‘ब्लू इकॉनमी’ का आशय आर्थिक विकास, बेहतर आजीविका, रोज़गार सृजन और महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र के बेहतर स्वास्थ्य हेतु समुद्री संसाधनों के सतत् उपयोग से है।
- ऐसे मिशनों के लिये आवश्यक तकनीक और विशेषज्ञता वर्तमान में केवल पाँच देशों- अमेरिका, रूस, फ्रांँस, जापान और चीन के पास उपलब्ध है।
- भारत ऐसी तकनीक वाला छठा देश होगा।
प्रमुख तत्त्व
- गहरे समुद्र में खनन और मानवयुक्त पनडुब्बी हेतु प्रौद्योगिकी विकास
- तीन लोगों को समुद्र में 6,000 मीटर की गहराई तक ले जाने के लिये वैज्ञानिक सेंसर और उपकरणों के साथ एक मानवयुक्त पनडुब्बी विकसित की जाएगी।
- मध्य हिंद महासागर में पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स के खनन के लिये एक एकीकृत खनन प्रणाली भी विकसित की जाएगी।
- पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स समुद्र तल में मौजूद लोहे, मैंगनीज़, निकल और कोबाल्ट युक्त चट्टानें हैं।
- भविष्य में संयुक्त राष्ट्र के संगठन ‘इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी’ द्वारा जब भी वाणिज्यिक खनन कोड तैयार किया जाएगा ऐसी स्थिति में खनिजों के अन्वेषण अध्ययन से निकट भविष्य में वाणिज्यिक दोहन का मार्ग प्रशस्त होगा।
- महासागर जलवायु परिवर्तन सलाहकार सेवाओं का विकास
- इसके तहत जलवायु परिवर्तनों के भविष्यगत अनुमानों को समझने और उसी के अनुरूप सहायता प्रदान करने वाले अवलोकनों एवं मॉडलों के एक समूह का विकास किया जाएगा।
- गहरे समुद्र में जैव विविधता की खोज एवं संरक्षण के लिये तकनीकी नवाचार
- इसके तहत सूक्ष्म जीवों सहित गहरे समुद्र की वनस्पतियों और जीवों की सर्वेक्षण और गहरे समुद्र में जैव-संसाधनों के सतत् उपयोग संबंधी अध्ययन पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।
- गहरे समुद्र में सर्वेक्षण और अन्वेषण
- इस घटक का प्राथमिक उद्देश्य हिंद महासागर के मध्य-महासागरीय भागों के साथ बहु-धातु हाइड्रोथर्मल सल्फाइड खनिज के संभावित स्थलों का पता लगाना और उनकी पहचान करना है।
- महासागर से ऊर्जा और मीठा पानी
- इसमें अपतटीय ‘महासागर थर्मल ऊर्जा रूपांतरण’ (OTEC) विलवणीकरण संयंत्र हेतु अध्ययन और विस्तृत इंजीनियरिंग डिज़ाइन तैयार करना शामिल है।
- OTEC एक ऐसी तकनीक है, जो ऊर्जा दोहन के लिये सतह से समुद्र के तापमान के अंतर का उपयोग करती है।
- इसमें अपतटीय ‘महासागर थर्मल ऊर्जा रूपांतरण’ (OTEC) विलवणीकरण संयंत्र हेतु अध्ययन और विस्तृत इंजीनियरिंग डिज़ाइन तैयार करना शामिल है।
- महासागर जीवविज्ञान हेतु उन्नत समुद्री स्टेशन
- इस घटक का उद्देश्य महासागरीय जीव विज्ञान और इंजीनियरिंग में मानव क्षमता एवं उद्यम का विकास करना है।
- यह घटक ऑन-साइट बिज़नेस इन्क्यूबेटर सुविधाओं के माध्यम से अनुसंधान को औद्योगिक अनुप्रयोग और उत्पाद विकास में परिवर्तित करेगा।
महत्त्व
- महासागर, विश्व के 70% हिस्से को कवर करते हैं और हमारे जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। महासागरों की गहराई में स्थित लगभग 95 प्रतिशत हिस्सा अभी भी खोजा नहीं जा सका है।
- भारत तीन दिशाओं से महासागरों से घिरा हुआ है और देश की लगभग 30 प्रतिशत आबादी तटीय क्षेत्रों में रहती है, साथ ही महासागर मत्स्य पालन, जलीय कृषि, पर्यटन, आजीविका एवं ‘ब्लू इकॉनमी’ का समर्थन करने वाला एक प्रमुख आर्थिक कारक है।
- भारत की एक अद्वितीय समुद्री स्थिति है। भारत की 7517 किलोमीटर लंबी तटरेखा में 9 तटीय राज्य और 1382 द्वीप मौजूद हैं।
- फरवरी 2019 में घोषित ‘विज़न ऑफ न्यू इंडिया-2030’ ‘ब्लू इकॉनमी’ को विकास के दस प्रमुख आयामों में से एक के रूप में उजागर करता है।
- महासागर भोजन, ऊर्जा, खनिजों, दवाओं, मौसम और जलवायु के भंडार हैं और पृथ्वी पर जीवन के आधार हैं।
- स्थिरता पर महासागरों के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2021-2030 के दशक को सतत् विकास हेतु महासागर विज्ञान के दशक के रूप में घोषित किया है।
‘ब्लू इकॉनमी’ संबंधी अन्य पहलें
- सतत् विकास हेतु ‘ब्लू इकॉनमी’ पर भारत-नॉर्वे टास्क फोर्स:
- दोनों देशों के बीच संयुक्त पहल को विकसित करने और उसका पालन करने हेतु वर्ष 2020 में दोनों देशों द्वारा संयुक्त रूप से इसका उद्घाटन किया गया था।
- सागरमाला परियोजना
- सागरमाला परियोजना बंदरगाहों के आधुनिकीकरण हेतु सूचना प्रौद्योगिकी (IT) सक्षम सेवाओं के व्यापक उपयोग के माध्यम से बंदरगाहों के विकास हेतु एक रणनीतिक पहल है।
- ‘ओ-स्मार्ट’ योजना
- भारत में ओ-स्मार्ट के नाम से एक अम्ब्रेला योजना शुरू की गई है, जिसका उद्देश्य सतत् विकास हेतु महासागरों, समुद्री संसाधनों का विनियमित उपयोग करना है।
- एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन
- यह तटीय और समुद्री संसाधनों के संरक्षण और तटीय समुदायों आदि के लिये आजीविका के अवसरों में सुधार पर केंद्रित है।
- राष्ट्रीय मत्स्य नीति
- भारत में 'ब्लू ग्रोथ इनिशिएटिव' को बढ़ावा देने के लिये एक राष्ट्रीय मत्स्य नीति तैयार की गई है, जो समुद्री और अन्य जलीय संसाधनों के साथ मत्स्य संपदा के सतत् उपयोग पर केंद्रित है।
स्रोत: पी.आई.बी.
जैव विविधता और पर्यावरण
‘चिल्ड्रन एंड डिजिटल डंपसाइट’ : WHO की रिपोर्ट
प्रिलिम्स के लिये:ई-कचरा, चिल्ड्रन एंड डिजिटल डंपसाइट्स रिपोर्ट के बारे में मेन्स के लिये:स्वास्थ्य और पर्यावरण पर ई-कचरे का प्रभाव और भारत में इसका पुनर्नवीनीकरण |
चर्चा में क्यों?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization- WHO) ने अपनी हालिया रिपोर्ट "चिल्ड्रन एंड डिजिटल डंपसाइट्स" (Children and Digital Dumpsites) में उस जोखिम को रेखांकित किया है जिसका सामना अनौपचारिक प्रसंस्करण में काम करने वाले बच्चे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों या ई-कचरे के कारण कर रहे हैं।
- इन ई-कचरे के डंपिंग स्थलों पर कम-से-कम 18 मिलियन बच्चे (पाँच साल से कम उम्र के) और लगभग 12.9 मिलियन महिलाएँ कार्य करती हैं।
- उच्च आय वाले देशों के ई-कचरे को प्रत्येक वर्ष प्रसंस्करण के लिये मध्यम या निम्न आय वाले देशों में डंप कर दिया जाता है।
प्रमुख बिंदु:
ई-कचरे के संदर्भ में:
- ई-वेस्ट (E-Waste) का संदर्भित रूप इलेक्ट्रॉनिक-वेस्ट (Electronic-Waste) है। इस शब्द का प्रयोग पुराने या जो प्रयोग में नहीं हैं ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का वर्णन करने के लिये किया जाता है।
- इसमें मुख्य रूप से ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण शामिल हैं, जो पूरी तरह से या आंशिक रूप से उपभोक्ता या थोक उपभोक्ता द्वारा कचरे के रूप में त्याग दिये जाते हैं और साथ ही निर्माण, नवीनीकरण तथा मरम्मत प्रक्रियाओं से खारिज कर दिये जाते हैं।
- इसमें 1,000 से अधिक कीमती धातुएँ और अन्य पदार्थ जैसे सोना, तांबा, सीसा, पारा, कैडमियम, क्रोमियम, पॉलीब्रोमिनेटेड बाइफिनाइल और पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन शामिल हैं।
ई-कचरे की मात्रा:
- वैश्विक परिदृश्य: ग्लोबल ई-वेस्ट स्टैटिस्टिक्स पार्टनरशिप (Global E-waste Statistics Partnership) के अनुसार उत्पन्न ई-कचरे की मात्रा में विश्व भर में तेज़ी से वृद्धि हो रही है।
- वर्ष 2019 में लगभग 53.6 मिलियन टन ई-कचरा उत्पन्न हुआ था।
- इस ई-कचरे का केवल 17.4% औपचारिक रूप से पुनर्नवीनीकरण किया गया था। जबकि इसके बाकी हिस्से को अनौपचारिक श्रमिकों द्वारा अवैध प्रसंस्करण के लिये निम्न या मध्यम आय वाले देशों में डंप कर दिया गया था।
- इसका प्रमुख कारण स्मार्टफोन और कंप्यूटर की बढ़ती संख्या है।
- भारतीय परिदृश्य:
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के अनुसार भारत ने 2019-20 में 10 लाख टन से अधिक ई-कचरा उत्पन्न किया, जो 2017-18 में उत्पादित ई-कचरे (7 लाख टन) की तुलना में बहुत अधिक है। इसके विपरीत, 2017-18 से ई-कचरा निराकरण क्षमता (7.82 लाख टन) में वृद्धि नहीं की गई है।
- वर्ष 2018 में, पर्यावरण मंत्रालय ने ट्रिब्यूनल को बताया था कि भारत में 95% ई-कचरे का पुनर्नवीनीकरण अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा किया जाता है और स्क्रैप डीलर इसका निपटान से अवैज्ञानिक रूप से (एसिड में जलाकर या घोलकर) करते हैं।
डिजिटल डंपसाइट्स पर कार्य करने का प्रभाव:
- बच्चों पर: ई-कचरे के संपर्क में आने वाले बच्चे छोटे आकार, अपने कम विकसित अंगों और विकास की तीव्र दर के कारण उनमें मौजूद जहरीले केमिकल्स के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं।
- वे अपने आकार की तुलना में अधिक प्रदूषकों को अवशोषित करते हैं। उनका शरीर विषाक्त पदार्थों को झेलने और शरीर से बाहर निकालने में वयस्कों की तुलना में कम सक्षम होता है।
- साथ ही यह बच्चों की सांस लेने की क्षमता और फेफड़ों के कार्यप्रणाली पर भी असर डालता है। यह बच्चों के डीएनए को नुकसान पहुँचा सकता है। इससे थायरॉयड संबंधी विकार और बाद में कैंसर तथा हृदय रोग के खतरे में वृद्धि हो सकती है।
- महिलाओं पर: इस कचरे के संपर्क में आने से न केवल एक गर्भवती महिला बल्कि उसके अजन्मे बच्चे के स्वास्थ्य और विकास पर भी खतरा होता है। इसके कारण बच्चे का समय से पहले जन्म, मृत्यु तथा उसके विकास पर असर पड़ सकता है। साथ ही यह उसके मानसिक विकास, बौद्धिक क्षमता एवं बोलने की क्षमता को भी प्रभावित कर सकता है।
- अन्य पर: ऐसे स्थलों पर काम करने का खतरनाक प्रभाव उन परिवारों और समुदायों पर भी पड़ता है जो इन ई-कचरा डंपसाइट के आस-पास रहते हैं।
ई-कचरे का प्रबंधन (अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन):
- खतरनाक कचरे की सीमा-पार आवाजाही के नियंत्रण पर बेसल कन्वेंशन, 1992:
- मूल रूप से बेसल कन्वेंशन में ई-कचरे का उल्लेख नहीं था लेकिन बाद में इसमें वर्ष 2006 (COP 8) में ई-कचरे के मुद्दों को शामिल किया गया।
- यह सम्मेलन पर्यावरण के अनुकूल प्रबंधन सुनिश्चित करने के साथ-साथ विकासशील देशों में अवैध यातायात की रोकथाम और ई-कचरे के बेहतर प्रबंधन के लिये क्षमता निर्माण में मदद करता है।
- बेसल कन्वेंशन के COP9 में नैरोबी घोषणा को अपनाया गया था। इसका उद्देश्य इलेक्ट्रॉनिक कचरे का पर्यावरण अनुकूल प्रबंधन के लिये अभिनव समाधान तैयार करना है।
भारत में ई-कचरे का प्रबंधन:
- निर्माता:
- सरकार ने ई-कचरा (प्रबंधन) नियम, 2016 लागू किया है जो विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) को लागू करता है।
- विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व एक ऐसी रणनीति है जो किसी उत्पाद के संपूर्ण जीवनकाल के दौरान आई पर्यावरणीय लागत और उसके बाज़ार मूल्य को एकीकृत करने को प्रोत्साहित करती है।
- सरकार ने ई-कचरा (प्रबंधन) नियम, 2016 लागू किया है जो विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) को लागू करता है।
- राज्य सरकार:
- राज्यों को ई-कचरे के निराकरण और पुनर्चक्रण सुविधाओं के लिये औद्योगिक स्थान निर्धारित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है।
- उनसे यह भी अपेक्षा की जाती है कि वे ई-कचरे के निराकरण और पुनर्चक्रण सुविधाओं में लगे श्रमिकों के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा के लिये उपाय करें।
- ई-कचरे का पुनर्चक्रण:
- घरेलू और व्यावसायिक इकाइयों से कचरे को अलग करने, प्रसंस्करण और निपटान के लिये भारत का पहला ई-कचरा क्लिनिक भोपाल, मध्य प्रदेश में स्थापित किया गया है।
आगे की रह:
- भारत में अधिकांशतः ई-कचरे का पुनर्चक्रण असंगठित इकाइयों में द्वारा किया जाता है, जिसमें बड़ी संख्या में जनशक्ति लगी होती है। प्रिंटेड सर्किट बोर्ड (PCBs) से आदिम तरीकों से धातुओं की रिकवरी सबसे हानिकारक कार्य है।
- उचित शिक्षा, जागरूकता और सबसे महत्त्वपूर्ण वैकल्पिक लागत प्रभावी तकनीक प्रदान करने की आवश्यकता है ताकि इससे आजीविका कमाने वालों को बेहतर साधन उपलब्ध कराए जा सकें।
- ई-अपशिष्ट प्रबंधन में भारत के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिये एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है। असंगठित क्षेत्र की इकाइयों के लिये संग्रह, निराकरण, पृथक्करण पर ध्यान केंद्रित करने हतु एक दृष्टिकोण हो सकता है, जबकि संगठित क्षेत्र द्वारा धातु निष्कर्षण, पुनर्चक्रण और निपटान किया जा सकता है।
- असंगठित क्षेत्र में छोटी इकाइयों और संगठित क्षेत्र की बड़ी इकाइयों को एकल मूल्य शृंखला में शामिल करने के लिये एक उपयुक्त तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है।