डेली न्यूज़ (16 Dec, 2020)



कोयला आधारित विद्युत क्षेत्र के उत्सर्जन में कमी करना

चर्चा में क्यों?

हाल ही में थिंक-टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट (Centre for Science and Environment- CSE) द्वारा आयोजित एक वेबिनार में विशेषज्ञों ने भारत के कोयला आधारित विद्युत् क्षेत्र के कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) फुट प्रिंट्स को कम करने के उपायों पर चर्चा की।

प्रमुख बिंदु:

भारत में विद्युत् उत्पादन:

  • भारत मुख्य रूप से तीन प्रकार के थर्मल पावर प्लांटों का उपयोग करता है- कोयला, गैस और तरल-ईंधन आधारित।
  • इन संयंत्रों द्वारा उत्पादित बिजली देश के कुल विद्युत् उत्पादन में 62.2% तक का योगदान देती है।

Coal-Based-Power-Sector

सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट

(Centre for Science and Environment- CSE)

  • सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट (CSE) नई दिल्ली स्थित एक गैर-लाभकारी संस्थान है जो भारत में पर्यावरण, विकास के मुद्दों पर थिंक टैंक के रूप में कार्य कर रहा है। इसकी स्थापना वर्ष 1980 में की गई थी
  • इस संस्थान ने वायु और जल प्रदूषण, अपशिष्ट जल प्रबंधन, औद्योगिक प्रदूषण, खाद्य सुरक्षा तथा ऊर्जा संबंधी पर्यावरणीय मुद्दों पर जागरूकता एवं शिक्षा का प्रसार करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। 
  • पर्यावरण शिक्षा और संरक्षण की दिशा में इसके योगदान के कारण वर्ष 2018 में इसे शांति, निशस्त्रीकरण और विकास के लिये इंदिरा गांधी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 

कोयला आधारित विद्युत क्षेत्र में उत्सर्जन:

  • भारत का कोयला आधारित थर्मल पावर क्षेत्र देश में CO2 के सबसे बड़े उत्सर्जकों में से एक है।
  • यह प्रत्येक वर्ष 1.1 गीगा-टन CO2 का उत्सर्जन करता है; यह वैश्विक ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन का 2.5% है, जो कि भारत के GHG उत्सर्जन का एक-तिहाई है और भारत में ईंधन से संबंधित CO2 उत्सर्जन का लगभग 50% है।

उत्सर्जन को कम करने के लिये आवश्यक नीतियाँ:

  • फ्लीट (Fleet) प्रौद्योगिकी और दक्षता में सुधार, नवीकरण और आधुनिकीकरण:
    • भारत में विश्व की 64% क्षमता (132 GW) का सबसे नवीन कोयला आधारित थर्मल प्लांट है।
    • सरकार के नवीकरण और आधुनिकीकरण की नीतियों को इस फ्लीट की दक्षता बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।
  • पूर्व में स्थिति: 
    • वर्ष 2015 तक, भारत में 34 GW से अधिक क्षमता 25 साल से अधिक पुरानी थी, और इसका लगभग 60% भाग अत्यधिक अक्षम था।
    • भारत के नवीकरणीय विद्युत् उत्पादन में वृद्धि के चलते भविष्य में पुराने और अक्षम प्लांटों को बंद करने में मदद मिल सकती है।
  • बायोमास को-फायरिंग (Co-firing) को बढ़ाना:
    • बायोमास को-फायरिंग उच्च दक्षता वाले कोयला बॉयलरों में  ईंधन के एक आंशिक विकल्प के रूप में बायोमास को जोड़ने को संदर्भित करता है।
      • कोयले को जलाने के लिये तैयार किये गए बॉयलरों में कोयले और बायोमास का एक साथ दहन किया जाता है। इस प्रयोजन के लिये मौजूदा कोयला विद्युत् संयंत्र को आंशिक रूप से पुनर्निर्मित किया जाता है।
      • सह-फायरिंग बायोमास को एक कुशल और स्वच्छ तरीके से, और बिजली संयंत्र के GHG उत्सर्जन को कम करने के लिये विद्युत में बदलने का एक विकल्प है।
    • बायोमास को-फायरिंग विश्व स्तर पर स्वीकृत कोल फ्लीट को विघटित (Decarbonise) करने के लिये एक लागत प्रभावी तरीका है।
      • विघटन (Decarbonising ) का अर्थ कार्बन की तीव्रता को कम करना है, अर्थात् प्रति यूनिट उत्सर्जन को कम करना।
    • भारत एक ऐसा देश है, जहाँ आमतौर पर बायोमास को जलाया जाता है, जो आसानी से उपलब्ध एक बहुत ही सरल समाधान का उपयोग करके स्वच्छ कोयले की समस्या को हल करने के प्रति उदासीनता को दर्शाता है।
  • कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS) में निवेश करना : 
    • वैश्विक स्तर पर कार्बन कैप्चर और स्टोरेज के लिये संघर्ष करना पड़ता है तथा भारत की संभावनाएँ कम-से-कम वर्ष 2030 तक धीमी होती दिखाई दे रही हैं।
    • कारोबारियों को CCS की लागत को कम करने के लिये स्वदेशी अनुसंधान और विकास में निवेश करना चाहिये।
  • कोयला परिष्करण/कोल बेनिफिकेशन:
    • कोल बेनिफिकेशन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा कच्चे कोयले की गुणवत्ता में सुधार किया जाता है, यह या तो अप्रासंगिक पदार्थ को कम करके जो कि खनन किये गए कोयले के साथ निकाला जाता है या संबंधित राख या दोनों को कम करके प्राप्त किया जाता है।

उत्सर्जन कम करने हेतु अन्य पहलें:

  • भारत ने 1 अप्रैल, 2020 को भारत स्टेज- IV (BS-IV)  उत्सर्जन मानदंडों के स्थान पर भारत स्टेज-VI (BS-VI) को अपना लिया है, जिसे पहले वर्ष 2024 तक अपनाया जाना था।
  • उजाला (UJALA) योजना के तहत 360 मिलियन से अधिक LED बल्ब वितरित किये गए हैं, जिसके कारण प्रतिवर्ष लगभग 47 बिलियन यूनिट विद्युत की बचत हुई है और प्रतिवर्ष 38 मिलियन टन CO2 की कमी हुई है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन: यह एक भारतीय पहल है जिसकी कल्पना अपनी विशेष ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिये सौर-संसाधन-संपन्न देशों के गठबंधन के रूप में की गई है (कर्क और मकर रेखा के मध्य आंशिक या पूर्ण रूप से अवस्थित सौर ऊर्जा की संभावना वाले देशों)।
  • जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) वर्ष 2008 में शुरू की गई थी, जिसका उद्देश्य जनता के प्रतिनिधियों, सरकार की विभिन्न एजेंसियों, वैज्ञानिकों, उद्योग और समुदायों के मध्य जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न खतरे और उनसे निपटने के उपायों के संबंध में जागरूकता पैदा करना है।

आगे की राह:

  • जलवायु परिवर्तन से सार्थक रूप से निपटने के लिये केवल अक्षय ऊर्जा में वृद्धि करना पर्याप्त नहीं है, कोयला क्षेत्र में GHG उत्सर्जन को कम करने के लिये महत्त्वाकांक्षी योजनाओं को अपनाना भी आवश्यक है।
  • हमें ऊर्जा रूपांतरण की आवश्यकता है जिसके माध्यम से हम स्थानीय और वैश्विक उत्सर्जन में कमी के सह-लाभों को वास्तविक रूप में बदल सकेंगे। चूँकि ऊर्जा की कमी और सामाजिक असमानता स्वीकार्य नहीं इसलिये हमें सभी के लिये ऊर्जा के अधिकार की भी आवश्यकता है।
  • भारत को विविध ऊर्जा विकल्पों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, इसमें कोई संदेह नहीं है कि सौर और पवन ऊर्जा में बहुत अधिक क्षमता होती है, हाइड्रोजन भी भारतीय ऊर्जा संक्रमण काल में एक गेम चेंजर होगा।

स्रो: डाउन टू अर्थ


ब्रिटेन की ब्रेक्ज़िट समय-सीमा पर वार्ता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ब्रिटेन और यूरोपीय संघ (European Union) पोस्ट-ब्रेक्ज़िट व्यापार समझौते (Post-Brexit Trade Agreement) को निर्धारित अवधि यानी 31 दिसंबर, 2020 तक अंतिम रूप नहीं दे पाने की स्थिति में बातचीत को आगे जारी रखने के लिये तैयार हो गए हैं।

  • ब्रिटेन और यूरोपीय संघ द्वारा ब्रेक्ज़िट समझौते (Brexit Agreement) को 11 महीने की तय अवधि (31 दिसम्बर 2020 तक) में अंतिम रूप देना है।
    • इस अवधि के दौरान ब्रिटेन, EU के सीमा शुल्क संघ (Customs Union) और एकल बाजार (Single Market) की गतिविधियों में भाग लेता रहेगा।
    • यह अवधि अचानक होने वाले नुकसान से बचाती है तथा एक सुव्यवस्थित ब्रेक्ज़िट प्रक्रिया द्वारा नागरिकों, व्यवसायों, सार्वजनिक प्रशासन और साथ ही अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों के समक्ष उत्पन्न होने वाली चुनौतियों को कम करती है।

प्रमुख बिंदु

  • पोस्ट-ब्रेक्ज़िट व्यापार समझौते की वार्ता में तीन महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर मतभेद बना हुआ है: लेवल प्लेइंग फील्ड (Level Playing Field- यह सामान्य नियमों और मानकों के लिये एक शब्द है), शासन (Governance) और मत्स्य क्षेत्र (Fisheries)

लेवल प्लेइंग फील्ड:

  • ब्रिटेन और EU के बीच व्यवसायों के लिये ‘लेवल प्लेइंग फील्ड’ और ‘यूरोपीय न्यायालय’ की भूमिका को सुनिश्चित करने के लिये क्या उपाय किये जाने चाहिये?
  • यूरोपीय संघ द्वारा एक ऐसे तंत्र की मांग को लेकर गतिरोध बना हुआ है जो एक नियामक "लेवल प्लेइंग फील्ड" के माध्यम से व्यापार के लिये उचित प्रतिस्पर्द्धा बनाए रखने के साथ ही दोनों पक्षों के बीच शुल्क मुक्त व्यापार को बढ़ावा देगा।
  • ब्रिटेन ने "विकास तंत्र" (Evolution Mechanism) या "तुल्यता तंत्र" (Equivalence Mechanism) को मानने से इनकार कर दिया। यह तंत्र यूरोपीय संघ द्वारा ब्रिटेन को पर्यावरणीय नियम या श्रमिक अधिकार जैसे क्षेत्रों में अपने मानकों को कम करने से रोकता है।
  • ब्रिटेन ने एक ऐसे समझौते को अस्वीकार कर दिया जो उसे भविष्य में यूरोपीय संघ के नियमों से बाँध सकता था।

शासन:

  • ब्रिटेन यूरोपीय संघ के नेताओं के साथ द्विपक्षीय वार्ता के माध्यम से समझौता करना चाहता है।
  • हालाँकि यूरोपीय संघ ने पहले ही यह प्रस्ताव दिया था कि इस तंत्र को यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के अधिकारियों की एक संयुक्त समिति द्वारा प्रशासित किया जाना चाहिये तथा  विवादों के समय मध्यस्थता हेतु पहल तथा वार्ताओं का आयोजन समिति के 27 सदस्य राज्यों के गुट द्वारा किया जाना चाहिये।

मत्स्य क्षेत्र:

  • यूरोपीय संघ के बेड़ों (Vessels) का ध्यान मछली पकड़ने के लिये ब्रिटेन के मत्स्य क्षेत्र पर केंद्रित किया गया है।
  • फ्राँस की इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका है, उसके अनुसार ब्रिटेन, EU को छोड़ने के मानदंडों को पूरा करने में विफल रहा है, अतः फ्राँस को इस क्षेत्र में 10 वर्षों के लिये और बना रहना होगा जो कि ब्रिटेन को मंज़ूर नहीं है।

विफलताओं के बाद संभावनाएँ:

  • EU से अलग होने से संबंधित ब्रिटेन का कोई समझौता नहीं होने की स्थिति में ब्रिटेन तुरंत ही एकल बाज़ार और सीमा शुल्क संघ की व्यवस्था को छोड़ देगा।
  • ऐसी स्थिति में ब्रिटेन को यूरोपीय संघ के संस्थानों और यूरोपीय निकायों जैसे- यूरोपीय न्यायालय, कानून प्रवर्तन निकाय आदि को तुरंत छोड़ना होगा, साथ ही ब्रिटेन को यूरोपीय संघ के बजट में योगदान नहीं देना पड़ेगा।
  • यदि 31 दिसंबर की समय-सीमा से पहले कोई समझौता नहीं होता है (No-Deal Brexit) तो 1 जनवरी से विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organization) के नियमों के आधार पर आगे का व्यापार होगा।
  • एक व्यापार समझौते की स्थिति में प्रशुल्क में वृद्धि, आयातकों और बॉर्डर पर चेकिंग के लिये कागज़ी कार्रवाई तथा ब्रिटेन व EU के बीच वस्तुओं (Goods) के आयात-निर्यात पर लगने वाले करों को WTO के नियमों के तहत लागू किया जाएगा।
  • यूरोप में व्यापार और व्यापार के संचालन पर इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा साथ ही यह ब्रिटेन तथा यूरोपीय संघ के संबंधों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।

आगे की राह

  • ब्रिटेन को मध्यम मार्ग अपनाकर EU को छोड़ना चाहिये ताकि लोग एकाएक लिये गए फैसले से होने वाले नुकसान से बच सकें।
  • यूरोपीय संघ का मानना है कि इसके चलते सदस्य देशों की स्थिति एक साथ मज़बूत होगी और संसाधनों तथा पहलों (Initiatives) की पूलिंग (Pooling) आम लक्ष्यों को प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका है। यहाँ तक कि अगर ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर हो जाता है तो भी EU का विकास एक समूह के रूप में जारी रहेगा। इस बीच दुनिया के अन्य देशों को भू-स्थैतिक, शक्ति-संतुलन और राजनीति के बदलते स्वरुप के अनुसार स्वयं को समायोजित करना होगा।

स्रोत: द हिंदू


12वाँ गृह शिखर सम्मेलन

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 12वें ‘गृह’ (Green Rating for Integrated Habitat Assessment- GRIHA) शिखर सम्मेलन का वर्चुअल आयोजन किया गया।

प्रमुख बिंदु

12वें ‘गृह’ शिखर सम्मेलन के विषय में :

  • विषय-वस्तु/थीम: ‘कायाकल्प करने वाली लचीली आदतें’ (Rejuvenating Resilient Habitats)।
  • उद्देश्य: नवीन प्रौद्योगिकियों और समाधानों पर विचार-विमर्श करने के लिये एक मंच के रूप में काम करना। इस प्रकार यह पूरे समुदाय के लाभ हेतु स्थायी एवं अनुकूल समाधान विकसित करने के लिये एक मज़बूत तंत्र के निर्माण में मदद करेगा।
  • उद्घाटन समारोह: उपराष्ट्रपति ने इस आयोजन के दौरान ‘शाश्वत’ नामक एक पत्रिका और '30 स्टोरीज़ बियॉन्ड बिल्डिंग्स' नामक पुस्तक का विमोचन किया।

एकीकृत आवास मूल्यांकन के लिये ग्रीन रेटिंग (गृह):

ऊर्जा और संसाधन संस्थान

(The Energy and Resources Institute-TERI)

  • ऊर्जा और संसाधन संस्थान (TERI) एक गैर-लाभकारी अनुसंधान संस्थान है, जो भारत और वैश्विक दक्षिण के लिये ऊर्जा, पर्यावरण और सतत् विकास के क्षेत्र में अनुसंधान कार्य करता है।
  • 1974 में स्थापित इस संस्थान को पूर्व में टाटा ऊर्जा अनुसंधान संस्थान के नाम से जाना जाता था तथा वर्ष 2003 में इसका नाम परिवर्तित कर ऊर्जा और संसाधन संस्थान कर दिया गया।
  • उद्देश्य: ग्रीन बिल्डिंग्स के लिये डिज़ाइन तैयार करने तथा इमारतों के 'ग्रीननेस' का मूल्यांकन करने में मदद करना।
  • प्रणाली: 
    • इस प्रणाली को 'नई इमारतों (जो अभी स्थापना के चरण में हैं) के डिज़ाइन में सहायता करने तथा उनके मूल्यांकन के लिये विकसित किया गया है। एक इमारत का मूल्यांकन उसके पूरे जीवन चक्र के पूर्वानुमानित प्रदर्शन के आधार पर किया जाता है। 
  • प्रयुक्त मानक:
    • साइट/स्थल का चयन और योजना
    • संसाधनों का संरक्षण और कुशल उपयोग
    • भवन संचालन और रखरखाव
    • नवाचार की स्थिति
  • लाभ:
    • यह प्रणाली, विभिन्न गतिविधियों एवं प्रक्रियाओं के माध्यम से GHGs (ग्रीनहाउस गैस) उत्सर्जन को कम करने, ऊर्जा की खपत में कमी  तथा प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ने वाले दबाव को कम कर पर्यावरण में सुधार के साथ ही समुदायों को लाभान्वित करती है।

अन्य संबंधित पहलें:

  • ग्लोबल हाउसिंग टेक्नोलॉजी चैलेंज (GHTC)
    • आयोजनकर्त्ता: आवास और शहरी मामलों का मंत्रालय
    • शुरुआत: जनवरी 2019
    • उद्देश्य: आवास निर्माण के क्षेत्र को बदलते प्रतिमानों के अनुसार सक्षम बनाने हेतु सर्वोत्तम उपलब्ध और सिद्ध निर्माण तकनीकों जो कि टिकाऊ, हरित एवं आपदा- रोधी हों, की पहचान करना तथा उन्हें मुख्यधारा से जोड़ना।
  • अफोर्डेबल सस्टेनेबल हाउसिंग एक्सेलेरेटर्स- इंडिया (ASHA- India)
    • इस पहल के माध्यम से संसाधन-कुशल, लचीले और टिकाऊ निर्माण के लिये नवीन सामग्रियों, प्रक्रियाओं एवं प्रौद्योगिकी की पहचान हेतु पाँच इन्क्यूबेशन केंद्र स्थापित किये गए हैं।
  • स्मार्ट सिटीज़ मिशन:
    • यह स्थानीय विकास को सक्षमता और प्रौद्योगिकी की मदद से नागरिकों के लिये बेहतर परिणामों के माध्यम से जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने तथा आर्थिक विकास को गति देने हेतु भारत सरकार के आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय द्वारा शुरू की गई एक अभिनव पहल है।
    • यह शहरों के एकीकृत और व्यापक विकास की दिशा में काम कर रहा है

स्रोत: पी.आई.बी.


विज़न 2035: भारत में जन स्‍वास्‍थ्‍य निगरानी

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नीति आयोग ने ‘विज़न 2035: भारत में जन स्‍वास्‍थ्‍य निगरानी’ नाम से एक श्वेत-पत्र जारी किया है, जिसका उद्देश्य भारत में जन स्वास्थ्य की निगरानी बढ़ाने के लिये एक विज़न दस्तावेज़ प्रस्तुत करना और भारत को इस क्षेत्र में एक अग्रणी स्थान प्राप्त करने में मदद करना है।

  • श्वेत-पत्र एक प्रकार का सूचनात्मक दस्तावेज़ होता है, जो प्रायः किसी कंपनी या गैर-लाभकारी संगठन द्वारा किसी विशिष्ट समाधान, उत्पाद या सेवा की विशेषताओं को बढ़ावा देने अथवा उन्हें रेखांकित करने के उद्देश्य से जारी किया जाता है।

प्रमुख बिंदु

पृष्ठभूमि 

  • नीति आयोग का प्राथमिक उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को रणनीतिक दिशा-निर्देश प्रदान करना है। इसी उद्देश्य के अनुरूप नीति आयोग (हेल्थ वर्टिकल) ने नवंबर 2019 में ‘न्‍यू इंडिया के लिये स्वास्थ्य प्रणाली: बिल्डिंग ब्लॉक्स - सुधार के संभावित तरीकों’ शीर्षक से संकलित चार कार्य-पत्र जारी किये थे।
  • नीति आयोग द्वारा जारी नया श्वेत-पत्र भारत की स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत बनाने की दिशा में अगला कदम है।

श्वेत-पत्र के बारे में

  • यह श्वेत-पत्र नीति आयोग के हेल्थ वर्टिकल और यूनिवर्सिटी ऑफ मैनिटोबा (कनाडा) का एक संयुक्त प्रयास है, जिसमें भारत सरकार, राज्यों की सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के तकनीकी विशेषज्ञों का योगदान शामिल है।
  • यह श्वेत-पत्र त्रिस्‍तरीय (प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक) जन स्‍वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था को आयुष्‍मान भारत में शामिल करते हुए जन स्‍वास्‍थ्‍य निगरानी के लिये भारत का विज़न प्रस्तुत करता है।
  • यह श्वेत-पत्र व्यक्तिगत इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड को निगरानी का आधार बनाकर देश में ‘जन स्‍वास्‍थ्‍य निगरानी’ के लिये एक तरीका प्रस्तुत करता है।

मुख्य विशेषताएँ

  • यह गैर-संचारी रोगों की रोकथाम, पहचान और नियंत्रण से संबंधित प्रयासों को मज़बूती प्रदान करने और स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले आम लोगों और परिवारों के खर्च को कम करने की दिशा में कार्य करेगा।
  • यह एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम (IDSP) के तहत एकीकृत स्वास्थ्य सूचना प्लेटफाॅर्म जैसी पहलों को और आगे बढ़ाएगा।
  • यह दस्तावेज़ राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 और नेशनल डिजिटल हेल्थ ब्लूप्रिंट (NDHB) में उल्लिखित नागरिक-केंद्रित अवधारणा के अनुरूप है।
    • यह आँकड़ों के प्रग्रहण और विश्लेषण के लिये मोबाइल फोन, डिजिटल प्लेटफाॅर्म प्लेटफाॅर्म और पॉइंट ऑफ केयर डिवाइस के उपयोग को प्रोत्साहित करता है।
  • यह जन स्‍वास्‍थ्‍य निगरानी में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाने के लिये नैदानिक प्रतिष्ठान (पंजीकरण और विनियमन) अधिनियम, 2010 जैसी पहलों के संबंध में पूंजीकरण के महत्त्व पर प्रकाश डालता है।
  • यह श्वेत-पत्र नेशनल सेंटर फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) और अन्य सहित शीर्ष संस्थानों के समन्वित प्रयास के महत्त्व को इंगित करता है।

विज़न

  • भारत की जन स्‍वास्‍थ्‍य निगरानी प्रणाली को अधिक प्रतिक्रियाशील और भविष्योन्मुखी बनाकर प्रत्येक स्‍तर पर कार्रवाई के लिये तैयारी करना।
  • फीडबैक तंत्र के साथ नागरिक-अनुकूल जन स्‍वास्‍थ्‍य निगरानी प्रणाली विकसित कर व्यक्ति की निजता और गोपनीयता सुनिश्चित करना।
  • केंद्र और राज्यों के बीच रोग की पहचान, बचाव और नियंत्रण प्रणाली को बेहतर बनाने के लिये डेटा-साझाकरण तंत्र में सुधार करना।
  • अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की जन स्वास्थ्य आपदाओं के प्रबंधन हेतु क्षेत्रीय और वैश्विक नेतृत्त्व प्रदान करना।

जन स्‍वास्‍थ्‍य निगरानी

  • जन स्वास्थ्य निगरानी का आशय सार्वजानिक स्वास्थ्य प्रथाओं के नियोजन, कार्यान्वयन और मूल्यांकन हेतु आवश्यक स्वास्थ्य संबंधी डेटा के व्यवस्थित संग्रहण, विश्लेषण और विवेचन से है। इस तरह यहाँ निगरानी का अभिप्राय ‘कार्रवाई के लिये सूचना’ संग्रहण से है।

चुनौतियाँ

  • डेटा संग्रह और साझाकरण: लगभग सभी स्तरों पर अलग-अलग तरीके से डेटा एकत्र किया जाता है और इनके बीच डेटा-साझाकरण हेतु कोई तंत्र भी नहीं है।
    • उदाहरण के लिये ऐसी कोई भी एकल प्रणाली नहीं है, जहाँ राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम और राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम आदि जैसे लक्षित कार्यक्रमों द्वारा उत्पन्न डेटा को एक साथ एक ही स्थान पर प्राप्त किया जा सके।
  • डेटा की खराब गुणवत्ता: भारतीय स्वास्थ्य क्षेत्र में उत्पन्न डेटा काफी निम्न गुणवत्ता का होता है, जिसके कारण देश की महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य नीतियों से संबंधित मुद्दों का हल खोजने के लिये इस डेटा का उपयोग केवल सीमित स्तर तक ही किया जा सकता है।
  • मानव संसाधन की कमी: मानव संसाधन की कमी भी एक बड़ी चुनौती है। राज्य और ज़िला स्तर पर जन स्वास्थ्य निगरानी प्रणाली में तकरीबन 42 प्रतिशत रिक्तियाँ मौजूद हैं।
    • केंद्रीय निगरानी इकाइयों के अधिकांश पद या तो प्रतिनियुक्ति या फिर अनुबंध के माध्यम से भरे जाते हैं, साथ ही उन्हें कई अधिक अतिरिक्त दायित्त्व भी दे दिये जाते हैं, जिसके कारण वे अपना कार्य सही ढंग से नहीं कर पाते हैं।
  • ‘एपिडेमिक इंटेलिजेंस’ का अभाव: भारत के पास महामारी और इससे संबंधित क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखने वाले सार्वजनिक स्वास्थ्य पेशेवरों की पर्याप्त संख्या मौजूद नहीं है।
    • ‘एपिडेमिक इंटेलिजेंस’ को संभावित स्वास्थ्य खतरों की शीघ्र पहचान, उनके सत्यापन, मूल्यांकन और जाँच से संबंधित सभी गतिविधियों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, ताकि उस संभावित खतरे को नियंत्रित करने के लिये जल्द-से-जल्द सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों की सिफारिश की जा सके।
  • व्यावसायिक स्वास्थ्य निगरानी का अभाव: इस प्रकार की स्वास्थ्य निगरानी लेड विषाक्तता और सिलिकोसिस रोग आदि से संबंधित है। व्यावसायिक स्वास्थ्य निगरानी अभी तक भारत की जन स्वास्थ्य निगरानी प्रणाली में प्रमुख स्थान प्राप्त नहीं कर सकी है।
  • अन्य उभरती चुनौतियाँ: बढ़ता रोगाणुरोधी प्रतिरोध, नए संक्रामक रोग और गैर-संचारी रोगों की बढ़ती दर आदि भारत की जन स्वास्थ्य निगरानी प्रणाली के लिये कुछ अन्य उभरती हुई चुनौतियाँ हैं।
    • रोगाणुरोधी प्रतिरोध (Antimicrobial Resistance) तब उत्पन्न होता है जब बैक्टीरिया और कवक जैसे रोगाणुओं को मारने हेतु निर्मित दवाइयों के विरुद्ध बैक्टीरिया एवं कवक अपनी प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि कर लेते हैं।

सुझाव

  • जन स्वास्थ्य निगरानी गतिविधियों के लिये समर्पित एक कुशल और मज़बूत स्वास्थ्य कार्यबल का निर्माण किया जाए।
  • गैर-संचारी रोगों, प्रजनन और बाल स्वास्थ्य तथा व्यावसायिक एवं पर्यावरणीय स्वास्थ्य आदि का जन स्वास्थ्य निगरानी में एकीकरण किया जाना चाहिये।
  • ‘वन हेल्थ’ मॉडल को अपनाने की आवश्यकता है, जिसमें पर्यावरण स्वास्थ्य, पशु स्वास्थ्य तथा मानव स्वास्थ्य का सामूहिक रूप से संरक्षण किया जाता है। 
  • आधुनिक नैदानिक ​​प्रौद्योगिकियों के साथ भारत की प्रयोगशाला क्षमताओं को मज़बूत किये जाने की आवश्यकता है। 
  • एक ऐसे शासन ढाँचे को स्थापित किये जाने की आवश्यकता है, जो राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर राजनीतिक, नीतिगत, तकनीकी और प्रबंधकीय नेतृत्त्व को सम्मिलित कर सके।
  • गैर-संचारी रोगों की निगरानी और नागरिक-केंद्रित तथा समुदाय-आधारित निगरानी में बढ़ोतरी की जानी चाहिये।
  • ऐसे रोगों को प्राथमिकता दी जा सकती है, जिन्हें सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में उन्मूलन के लिये लक्षित किया जा सकता है।
  • डेटा साझाकरण, प्रग्रहण, विश्लेषण और प्रसारण आदि को व्यवस्थित करने के लिये तंत्र की स्थापना की जानी चाहिये।
  • निगरानी गतिविधि में प्रत्येक स्तर पर नवाचार को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।

आगे की राह

  • तमाम चुनौतियों के बावजूद भारत ने निगरानी प्रणाली को बेहतर बनाने की दिशा में अच्छी प्रगति हासिल की है और नीति आयोग द्वारा जारी इस श्वेत-पत्र के कार्यान्वयन से भारत जन स्वास्थ्य निगरानी के क्षेत्र एक क्षेत्रीय/वैश्विक नेतृत्त्वकर्त्ता के रूप में उभर सकता है।
  • इस विज़न दस्तावेज़ के मूल तत्त्वों में केंद्र तथा राज्यों के बीच परस्पर-निर्भर शासन प्रणाली और एक नया डेटा-साझाकरण तंत्र आदि शामिल हैं। 

स्रोत: पी.आई.बी.


म्युकरमाइकोसिस फंगल संक्रमण

चर्चा में क्यों?

हाल ही में डॉक्टरों को कोविड-19 के कारण लोगों में म्युकरमाइकोसिस (Mucormycosis) नामक फंगल संक्रमण के साक्ष्य मिले है।

  • कोविड-19 के कारण रोगी की प्रतिरक्षा शक्ति कमज़ोर हो जाती है जो उन्हें फंगल संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती है।

मुख्य बिंदु

  • म्युकरमाइकोसिस को ब्लैक फंगस या ज़ाइगोमाइकोसिस (Zygomycosis) के नाम से भी जाना जाता है और यह एक गंभीर लेकिन दुर्लभ फंगल संक्रमण है जो म्युकरमायसिटिस (Mucormycetes) नामक फफूँद (Molds) के कारण होता है।

म्युकरमाइकोसिस के प्रकार:

  • राइनोसेरेब्रल (साइनस और मस्तिष्क) म्युकरमाइकोसिस: यह साइनस (Sinus) में होने वाला एक संक्रमण है जो मस्तिष्क तक फैल सकता है। अनियंत्रित मधुमेह से ग्रसित और किडनी प्रत्यारोपण कराने वाले लोगों में इसके होने की संभावना अधिक होती है।
  • पल्मोनरी (फेफड़ों संबंधी) म्युकरमाइकोसिस: यह कैंसर से पीड़ित लोगों तथा अंग प्रत्यारोपण अथवा स्टेम सेल प्रत्यारोपण कराने वाले लोगों में होने वाले म्युकरमाइकोसिस संक्रमण का सबसे सामान्य प्रकार है।
  • गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल (पाचनतंत्र संबंधी) म्युकरमाइकोसिस: यह वयस्कों की तुलना में छोटे बच्चों (विशेष रूप से 1 माह से कम आयु के अपरिपक्व तथा जन्म के समय कम वज़न वाले शिशुओं) में अधिक होता है। यह ऐसे वयस्कों में भी हो सकता है जिन्होंने एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन किया हो अथवा सर्जरी करवाई हो या ऐसी दवाओं का सेवन किया हो जो कीटाणुओं और बीमारी से लड़ने के लिये शरीर की क्षमता को कम कर देती हैं।
  • क्यूटेनियस (त्वचा संबंधी) म्युकरमाइकोसिस: कवक त्वचा में किसी विच्छेद (सर्जरी या जलने के बाद या अन्य प्रकार के त्वचा संबंधी आघात के कारण होने वाले) के माध्यम  से शरीर में प्रवेश करता है। यह उन लोगों जिनकी प्रतिरक्षा प्रणाली कमज़ोर नहीं है, में भी पाया जाने वाला सबसे सामान्य प्रकार है।
  • डिसेमिनेटेड (प्रसारित) म्युकरमाइकोसिस: इस प्रकार का संक्रमण रक्त प्रवाह के माध्यम से शरीर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में प्रसारित होता है। यद्यपि यह संक्रमण सबसे अधिक मस्तिष्क को प्रभावित करता है लेकिन प्लीहा, हृदय और त्वचा जैसे अन्य भाग भी इससे प्रभावित हो सकते हैं।

संचरण (Transmission):

  • इसका संचरण श्वास, संरोपण (Inoculation) या पर्यावरण में मौजूद बीजाणुओं के अंतर्ग्रहण द्वारा होता है।
  • उदाहरण के लिये बीजाणु श्वास के ज़रिये हवा से शरीर में प्रवेश कर फेफड़ों या साइनस को संक्रमित कर सकते हैं।
    • म्युकरमाइकोसिस का संचार मानव से मानव तथा मानव और पशुओं के बीच नहीं होता है।
  • यह आमतौर पर उन्हीं लोगों को होता है जिन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ होती हैं या जो ऐसी दवाएँ लेते हैं जिनसे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।

लक्षण:

  • इसके सामान्य लक्षणों में चेहरे में एक तरफ सूजन और सुन्नता, सिरदर्द, साँस लेने में कठिनाई, बुखार, पेट में दर्द, मतली आदि शामिल हैं।
  • डिसेमिनेटेड म्युकरमाइकोसिस प्रायः उन लोगों में होता है जो पहले से ही किसी अन्य बीमारी से ग्रसित हैं, ऐसे में यह जानना मुश्किल हो जाता है कि कौन-से लक्षण म्युकरमाइकोसिस से संबंधित हैं। डिसेमिनेटेड संक्रमण से ग्रसित मरीजों में मानसिक स्थिति में बदलाव या कोमा जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

निदान और परीक्षण:

  • स्वास्थ्य देखभाल प्रदाता म्युकरमाइकोसिस का निदान करते समय चिकित्सीय इतिहास, लक्षण, शारीरिक परीक्षणों और प्रयोगशाला परीक्षणों आदि पर विचार करते हैं।
  • संक्रमण का संदेह होने पर स्वास्थ्य देखभाल प्रदाता श्वसन तंत्र से तरल पदार्थ का नमूना एकत्र करते हैं या ऊतक बायोप्सी करते हैं।
    • ऊतक बायोप्सी में म्युकरमाइकोसिस की उपस्थिति का पता लगाने के लिये प्रभावित ऊतक के एक छोटे नमूने का विश्लेषण किया जाता है।

उपचार:

  • म्युकरमाइकोसिस तथा फफूँद जनित अन्य संक्रमणों को रोकने के लिये कवकरोधी दवा (Antifungal Medicine) का इस्तेमाल किया जाना चाहिये।
  • प्रायः म्युकरमाइकोसिस में सर्जरी आवश्यक हो जाती है जिसमें संक्रमित ऊतक को काटकर अलग कर दिया जाता है।

रोकथाम और इलाज:

  • म्युकरमाइकोसिस की रोकथाम के लिये अभी तक कोई टीका विकसित नहीं हुआ है। ऐसे समय में श्वास लेते समय इन कवकीय बीजाणुओं के अंतर्ग्रहण को रोक पाना भी मुश्किल हो जाता है जब ये पर्यावरण में सर्वनिष्ठ हों।
  • जिन लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली कमज़ोर हो गई है वे कुछ तरीकों द्वारा इस संक्रमण के प्रसार को कम कर सकते हैं। 
    • इन उपायों में अत्यधिक धूल वाले क्षेत्रों, जैसे- विनिर्माण अथवा उत्खनन क्षेत्रों से दूर रहना, हरिकेन तथा चक्रवात के बाद जल द्वारा क्षतिग्रस्त हुई इमारतों एवं बाढ़ के पानी के सीधे संपर्क में आने से बचना, साथ ही ऐसी सभी गतिविधियों से दूर रहना जहाँ मिट्टी के साथ संपर्क में आने की संभावना हो।
  • शुरुआत में ही बीमारी की पहचान तथा चिकित्सीय हस्तक्षेप द्वारा आँखों की रोशनी को जाने से रोका जा सकता है और नाक एवं जबड़े को होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है।

म्युकरमायसिटिस (Mucormycetes):

Mucormycetes

  • म्युकरमायसिटिस, कवकों का एक समूह है जो म्युकरमाइकोसिस का कारण बनता है। ये पूरे पर्यावरण में विशेष रूप से मिट्टी और अपक्षयित कार्बनिक पदार्थों जैसे कि- पत्तियों, कम्पोस्ट/खाद के ढेर तथा पशुओं के गोबर आदि में उपस्थित होते हैं।
  • अन्य प्रकार के कवक भी म्युकरमाइकोसिस का कारण बन सकते हैं जो कि वैज्ञानिक गण (Order) म्यूकोरेल्स (Mucorales) से संबंधित होते हैं।
  • म्युकरमाइकोसिस के लिये उत्तरदायी सबसे सामान्य प्रजाति राइज़ोपस (Rhizopus) प्रजाति और म्यूकर (Mucor) हैं।
  • ये हवा की तुलना में मिट्टी में तथा शीत व बसंत ऋतु की तुलना में ग्रीष्मकाल में अधिक प्रचुरता से पाए जाते हैं और उस समय अधिक प्रभावी होते हैं।
  • प्रायः ये कवक लोगों के लिये हानिकारक नहीं होते हैं लेकिन जिन लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली कमज़ोर होती है उन्हें कवकीय बीजाणुओं की उपस्थिति में साँस लेने से संक्रमण का जोखिम होता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में महिलाओं संबंधित डेटा

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS-5) 2019-20 के पहले चरण का डेटा जारी किया गया है, जो भारत में महिलाओं से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर डेटा प्रदान करता है। 

  • NFHS एक बड़े पैमाने पर किया जाने वाला बहु-स्तरीय सर्वेक्षण है जो पूरे भारत में परिवारों के प्रतिनिधि नमूने में किया जाता है।
  • इस सर्वेक्षण के चरण- I में 22 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के आँकड़े जारी किये गए हैं और शेष 14  राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में सर्वेक्षण (चरण- II) का कार्य अभी जारी है।
  • सभी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षणों को भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के नेतृत्त्व में आयोजित किया गया है तथा NFHS के लिये मुंबई स्थित ‘अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान’ नोडल एजेंसी के रूप में कार्य करता है। 

प्रमुख बिंदु:

    कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rates- TFR): 

    • पिछले आधे दशक की समयावधि में अधिकांश भारतीय राज्यों में TFR में गिरावट दर्ज की गई है विशेषकर शहरी महिलाओं में। इसका अर्थ है यह है कि भारत की जनसंख्या में स्थिरता आ रही है।
    • सिक्किम में सबसे कम TFR दर्ज किया गया है, जिसमें प्रति महिला औसतन 1.1  TFR दर्ज किया गया साथ ही बिहार में प्रति महिला औसत TFR 3 दर्ज किया गया।
    • सर्वेक्षण में शामिल 22  में से 19 में, TFR को प्रतिस्थापन स्तर (2.1) से कम पाया गया।
      • TFR 15 से 49 वर्ष की आयु के बीच की प्रजनन आयु के दौरान एक महिला से जन्म लेने वाले अनुमानित बच्चों की औसत संख्या को दर्शाता है। 
      • प्रतिस्थापन स्तर, यह एक ऐसी अवस्था होती है जब जितने बूढ़े लोग मरते हैं उनका खाली स्थान भरने के लिये उतने ही नए बच्चे पैदा हो जाते हैं। कभी-कभी कुछ समाजों को ऋणात्मक संवृद्धि दर की स्थिति से भी गुजरना होता है अर्थात् उनका प्रजनन शक्ति स्तर प्रतिस्थापन दर से नीचा रहता है। कुल प्रजनन दर के इस स्तर से नीचे चले जाने पर जनसंख्या में गिरावट होने लगती है।  

    महिलाओं में एनीमिया:

    • सर्वेक्षण में शामिल 22 में से 13 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में आधे से अधिक बच्चे और महिलाएँ एनीमिया से ग्रस्त पाए गए। 
    • साथ ही NFHS-4 की तुलना में देश के आधे राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में गर्भवती महिलाओं में एनीमिया की वृद्धि देखी गई है। 
    • सभी राज्यों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं में एनीमिया बहुत अधिक है।

    गर्भनिरोध:

    • आंध्र प्रदेश (98%), तेलंगाना (93%), केरल (88%), कर्नाटक (84%), बिहार (78%) और महाराष्ट्र (77%) जैसे राज्यों में महिला नसबंदी गर्भनिरोधक की आधुनिक पद्धति के रूप में  जारी है।
    • साथ ही समग्र गर्भनिरोधक प्रसार दर (CPR) के मामले में देश के ज़्यादातर राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में काफी वृद्धि देखी गई और यह हिमाचल प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल (74%) में सबसे अधिक है।

    बाल विवाह : 

    • देश के कुछ राज्यों में बाल विवाह के मामलों में वृद्धि देखी गई है जिनमें त्रिपुरा (2015-16 के 33.1% से बढ़कर 40.1%), मणिपुर (2015-16 के 13.7% से बढ़कर 16.3%) और असम (2015-16 के 30.8% से बढ़कर 31.8%) प्रमुख हैं।
    • पश्चिम बंगाल (41.6%) और बिहार (40.8%) जैसे राज्यों में वर्तमान समय में भी बाल विवाह की उच्च व्यापकता बनी हुई है।
    • त्रिपुरा, मणिपुर, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और नगालैंड जैसे राज्यों में किशोरावस्था में गर्भधारण के मामलों में वृद्धि देखी गई है।

    घरेलू हिंसा:  

    • आमतौर पर अधिकांश राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में घरेलू हिंसा के मामलों में गिरावट देखने को मिली है।
    • लेकिन पाँच राज्यों (सिक्किम, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, असम और कर्नाटक) में घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि देखी गई है।
    • कर्नाटक में घरेलू हिंसा के मामलों में  सबसे अधिक वृद्धि देखी गई है। NFHS 4 में यहाँ घरेलू हिंसा के 20.6% मामले दर्ज किये गए थे जबकि NFHS-5 में यह आँकड़ा 44.4% हो गया है।
    • इसके अतिरिक्त देश के पाँच राज्यों (असम, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मेघालय और पश्चिम बंगाल) में यौन हिंसा के मामलों में वृद्धि हुई है।

    संस्थागत प्रसव :  

    • 19 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में पाँच में से चार से अधिक महिलाओं के संस्थागत प्रसव के साथ इसमें व्यापक वृद्धि देखने को मिली हुई है।
    • कुल 22 में से 14 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में संस्थागत प्रसव का स्तर 90% से अधिक है।

    सिजेरियन (सी-सेक्शन) प्रसव: 

    • देश के अधिकांश राज्यों में सिजेरियन सेक्शन (सी-सेक्शन) से होने वाले प्रसव की संख्या में वृद्धि हुई है।
      • अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य समुदाय द्वारा सीज़ेरियन सेक्शन के लिये आदर्श दर को 10% से 15% के बीच माना गया है।
    • पिछले पाँच वर्षों में तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों, विशेष रूप से निजी स्वास्थ्य केंद्रों पर सी-सेक्शन प्रसव में अत्यधिक वृद्धि देखी गई है।
      • तेलंगाना और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों में, निजी स्वास्थ्य केंद्रों पर सी-सेक्शन प्रसव के मामलों में 81% और 82% तक वृद्धि देखी गई है।

    जन्म के समय लिंगानुपात (Sex Ratio at Birth-SRB):

    • अधिकांश राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में SRB या तो अपरिवर्तित रहा है या इसमें वृद्धि देखी हुई है।
    • अधिकांश राज्यों में लिंगानुपात सामान्य (952) या उससे अधिक है। 
    • हालाँकि तेलंगाना, हिमाचल प्रदेश, गोवा, दादरा नगर हवेली और दमन तथा दीव में जन्म के समय लिंगानुपात  900 से नीचे है।

    बाल पोषण:

    • बाल पोषण संकेतकों में सभी राज्यों में मिश्रित पैटर्न देखने को मिलता है। जहाँ कई राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में स्थिति में सुधार हुआ है, वहीं कुछ अन्य राज्यों में मामूली गिरावट आई है।
    • देश में बहुत कम समय में स्टंटिंग और वेस्टिंग के मामलों में कोई बड़ा बदलाव होने की संभावना नहीं है।

    वित्तीय समायोजन: 

    • महिलाओं द्वारा संचालित बैंक खातों के संदर्भ में NFHS-4 और NFHS-5 के बीच उल्लेखनीय प्रगति दर्ज की गई है।

    सफाई और स्वच्छ वायु:

    • पिछले चार वर्षों में (वर्ष 2015-16 से वर्ष 2019-20 के बीच) लगभग सभी 22 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में बेहतर स्वच्छता सुविधाओं और खाना पकाने के लिये स्वच्छ ईंधन की उपलब्धता वाले परिवारों की संख्या में वृद्धि हुई है।
    • भारत सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन के माध्यम से अधिक से अधिक घरों को शौचालय की सुविधा प्रदान करने हेतु ठोस प्रयास किये हैं और देश में प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना के माध्यम से घरेलू वातावरण में सुधार किया है।

    आगे की राह: 

    • वर्तमान समय में सेवाओं को सुलभ, सस्ती और सभी के लिये स्वीकार्य बनाने हेतु स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े सभी स्वास्थ्य संस्थानों, शिक्षाविदों और अन्य भागीदारों के माध्यम से एकीकृत एवं समन्वित प्रयासों को बढ़ाया जाना बहुत ही आवश्यक है। 
    • NFHS-5 द्वारा उपलब्ध कराया गया डेटा मौजूदा कार्यक्रमों को मजबूत बनाने और नीतिगत हस्तक्षेप हेतु नई रणनीतियों को विकसित करने के लिये अपेक्षित जानकारी प्रदान करता है, अतः सरकार एवं अधिकारियों को भारत में महिलाओं की स्थिति को और बेहतर बनाने के लिये आवश्कयक कदम उठाने चाहिये।

    स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस