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डेली न्यूज़

  • 16 Sep, 2020
  • 61 min read
भारतीय राजव्यवस्था

स्थगन प्रस्ताव: अर्थ और नियम

प्रिलिम्स के लिये

स्थगन प्रस्ताव

मेन्स के लिये

सरकार की कार्यप्रणाली की जाँच में स्थगन प्रस्ताव की भूमिका

चर्चा में क्यों?

काॅॅन्ग्रेस के दो सांसदों ने चीन द्वारा भारत के 10000 से अधिक व्यक्तियों और संगठनों पर निगरानी के मुद्दे पर चर्चा करने के लिये स्थगन प्रस्ताव (Adjournment Motion) नोटिस दिया है। 

प्रमुख बिंदु

  • काॅॅन्ग्रेस सांसद मणिकम टैगोर ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार द्वारा की गई स्वतंत्र जाँच का हवाला देते हुए कहा कि चीन की एक टेक्नोलॉजी कंपनी द्वारा भारत के 10,000 से अधिक लोगों और संगठनों की सक्रिय रूप से निगरानी की जा रही है।
  • इसके अलावा काॅॅन्ग्रेस ने चीन की मंशा का सामना करने के लिये केंद्र सरकार से साइबर सुरक्षा पर भारत के प्रयासों को और अधिक मज़बूत करने का भी आग्रह किया।

स्थगन प्रस्ताव का अर्थ?

  • स्थगन प्रस्ताव का मुख्य उद्देश्य हाल के किसी ऐसे अविलंबनीय लोक महत्त्व के मामले की ओर, जिसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं, सदन का ध्यान आकर्षित करना है।
  • हालाँकि यहाँ यह महत्त्वपूर्ण है कि सदन के किसी सदस्य द्वारा जो भी मामला उठाया जा रहा है वह इतना गंभीर होना चाहिये कि उसका समूचे देश पर और देश की सुरक्षा पर कुप्रभाव पड़ता हो तथा सभा के लिये अपने सामान्य कार्य को रोक कर उस विषय पर तत्काल विचार करना आवश्यक हो।
  • इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्थगन प्रस्ताव का अभिप्राय एक ऐसी प्रक्रिया से है, जिसके स्वीकृत होने पर लोक महत्त्व के किसी निश्चित मामले चर्चा करने के लिये सभा का सामान्य कार्य रोक दिया जाता है।

स्थगन प्रस्ताव से संबंधित नियम

  • आवश्यक है कि संसद में स्थगन प्रस्ताव का विषय प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र सरकार के कार्यकरण से संबंधित होना चाहिये, तथा उसमें स्पष्ट रूप से इस बात का उल्लेख होना चाहिये कि भारत सरकार संविधान और कानून के किस उपबंध के अनुरूप अपने कर्त्तव्यों का पालन करने में सफल नहीं रही है।
    • हालाँकि राज्य सरकार के क्षेत्राधिकार में आने वाले मामलों को स्थगन प्रस्ताव के तहत स्वीकृत नहीं किया जाता है, किंतु किसी राज्य के संवैधानिक घटनाक्रमों और राज्यों के संवेदनशील वर्गों जैसे (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति) आदि से संबंधित मामलों  पर संसद द्वारा इस प्रस्ताव के तहत विचार किया जा सकता है।
  • सदन में स्थगन प्रस्ताव के तहत चर्चा करने के लिये किसी विषय को स्वीकृत करने अथवा अस्वीकृत करने की पूरी शक्ति सदन के पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer) को प्राप्त होती है और किसी मामले को स्वीकृत करने अथवा अस्वीकृत करने का कारण बताना पीठासीन अधिकारी के लिये आवश्यक नहीं है।
  • नियमों के अनुसार, सदन का कोई सदस्य किसी एक बैठक के लिये एक से अधिक स्थगन प्रस्ताव नोटिस नहीं दे सकता है।
  • सत्रावधि के दौरान स्थगन प्रस्ताव की सूचना उस दिन 10.00 बजे से पूर्व दी जानी आवश्यक है, जिस प्रस्ताव को प्रस्तुत करने का विचार है। इस अवधि के बाद प्राप्त सूचना को अगली बैठक के लिये दी गई सूचना के रूप में माना जाएगा।
  • संसद की परंपरा के अनुसार, राष्ट्रपति के अभिभाषण के दिन स्थगन प्रस्ताव को नहीं लिया जाता है और उस दिन प्राप्त सूचनाओं को अगली बैठक के लिये प्राप्त सूचना माना जाता है।

स्थगन प्रस्ताव की स्वीकृति के लिये आवश्यक सिद्धांत

  • इस प्रस्ताव के तहत जिस मामले पर चर्चा की जानी है वह निश्चित होना चाहिये। किसी स्थगन प्रस्ताव को तब तक स्वीकृत नहीं किया जाता जब तक उसके तथ्य निश्चित नहीं होते हैं।
  • स्थगन प्रस्ताव के तहत किसी ऐसे मामले पर चर्चा नही की जा सकती है जो सदन में पहले से चला आ रहा हो अर्थात् वह मामला अविलंबित होना अनिवार्य है।
  • वह मामला लोक महत्त्व का होना चाहिये। वह मामला इतना महत्त्वपूर्ण होना चाहिये कि उसके लिये सदन की आम कार्यवाही रोकी जा सके।
  • इसका संबंध हाल ही में घटी किसी विशेष घटना से होना चाहिये।
  • विषय का संबंध विशेषाधिकार के मामले से नहीं होना चाहिये और इसके तहत न्यायालय में विचाराधीन किसी मामले पर चर्चा नहीं की जा सकती है।
  • मामला ऐसा होना चाहिये जिसके लिये प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से भारत सरकार ज़िम्मेदार हो।

संसद की कार्यवाही को रोकने की शक्ति

  • स्थगन प्रस्ताव का मुख्य उद्देश्य हाल के किसी सार्वजनिक महत्त्व के मामले पर सदन का ध्यान आकर्षित करना होता है, और नियमों के मुताबिक जब प्रस्ताव पर चर्चा हो रही होती है, तो अध्यक्ष के पास सदन को स्थगित करने की शक्ति नहीं होती है।
  • एक बार स्थगन प्रस्ताव पर बहस शुरू होने के बाद सदन के लिये बिना किसी रूकावट के उस प्रस्ताव के निष्कर्ष तक पहुँचना आवश्यक होता है। 
  • इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्थगन प्रस्ताव में संसद की कार्यवाही को स्थगित करने की शक्ति होती है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

इज़राइल-यूएई-बहरीन और अब्राहम एकॉर्ड

प्रिलिम्स के लिये: 

अब्राहम एकॉर्ड, सिक्स डे वॉर

मेन्स के लिये: 

इज़राइल-यूएई शांति समझौता, अब्राहम एकॉर्ड 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में खाड़ी क्षेत्र के दो देशों बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) ने इज़राइल के साथ ‘अब्राहम एकॉर्ड’ (Abraham Accord) पर हस्ताक्षर किये हैं।

प्रमुख बिंदु:  

  •  ‘अब्राहम एकॉर्ड (Abraham Accord) इज़राइल और अरब देशों के बीच पिछले 26 वर्षों में पहला शांति समझौता है। 
    • गौरतलब है कि इससे पहले वर्ष 1994 में इज़राइल और जॉर्डन के बीच शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे।
  • अमेरिकी राष्ट्रपति के अनुसार, यह समझौता पूरे अरब क्षेत्र में व्यापक शांति स्थापना के लिये एक नींव का काम करेगा, हालाँकि इस समझौते में इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष के संदर्भ में कोई बात नहीं की गई है।
  • ध्यातव्य है कि 13 अगस्त, 2020 को इज़राइल-यूएई शांति समझौते की घोषणा के बाद 11 सितंबर को बहरीन-इज़राइल समझौते की घोषणा की गई थी।
  • अमेरिकी राष्ट्रपति ने अन्य अरब देशों के भी इस समझौते में शामिल होने के संकेत दिये हैं।

इज़राइल-संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल-बहरीन शांति समझौता

  • इस समझौते के अनुसार, यूएई और बहरीन द्वारा इज़राइल में अपने दूतावास स्थापित करने के साथ पर्यटन, व्यापार, स्वास्थ्य और सुरक्षा सहित कई क्षेत्रों में आपसी सहयोग को बढ़ावा दिया जाएगा।
  • साथ ही इस समझौते के तहत इज़राइल ने वेस्ट बैंक की बस्तियों को इज़राइल में जोड़ने की अपनी योजना को ‘स्थगित’ कर दिया है।
  • इज़राइल के प्रधानमंत्री के अनुसार, तीनों देशों द्वारा कोरोनावायरस की महामारी से निपटने के लिये सहयोग प्रारंभ कर दिया गया है।
  • अमेरिकी राष्ट्रपति के अनुसार, इस समझौते के माध्यम से पूरी दुनिया के मुसलमानों के लिये इज़राइल में ऐतिहासिक स्थलों का दौरा करने और जेरूसलम में अल-अक्सा मस्जिद (इस्लाम में तीसरा सबसे पवित्र स्थल) में शांतिपूर्वक प्रार्थना करने का रास्ता साफ होगा।  

कारण:

  • इज़राइल के साथ अरब देशों की बढ़ती नज़दीकी का एक बड़ा कारण ईरान से इन देशों की शत्रुता को भी माना जा रहा है।
  • हाल के कुछ वर्षों में खाड़ी देशों और इज़राइल के बीच संबंधों में कुछ सुधार देखने को मिला था, ध्यातव्य है कि इसी माह सऊदी अरब ने यूएई और इज़राइल के बीच विमान सेवाओं को अपने वायु क्षेत्र से होकर जाने की अनुमति दी थी। 
  • इज़राइल तथा अरब देशों के बीच इस समझौते के पीछे अमेरिकी राष्ट्रपति की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण रही है। 

Israel

अरब-इज़राइल विवाद:  

  • वर्ष 1917 में प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन ने ऑटोमन साम्राज्य से फिलिस्तीन को अपने कब्जे में लिया और 2 नवंबर, 1917 की बॅल्फोर घोषणा (Balfour Declaration) के तहत यहूदियों को इस स्थान पर एक ‘राष्ट्रीय घर’ (National Home) देने का वचन दिया। 
  • नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्र संकल्प-181 के तहत फिलिस्तीन को यहूदी और अरब राज्य में विभाजित कर दिया गया तथा जेरूसलम को अंतराष्ट्रीय नियंत्रण में रखा गया।  
  • इस विभाजन में पूर्वी जेरूसलम सहित वेस्ट बैंक का हिस्सा जॉर्डन के पास और गाजापट्टी का क्षेत्र मिस्र (Egypt) के पास चला गया, इसमें इज़राइल की सेना से बचते हुए लगभग 760,000 फिलिस्तीनी शरणार्थियों ने वेस्ट बैंक, गाजापट्टी तथा अन्य अरब देशों में जाकर शरण ली।
  • 14 मई, 1948 को इज़राइल की स्थापना हुई जिसके बाद लगभग 8 महीनों तक इज़राइल और अरब देशों में युद्ध चला।
  • वर्ष 1967 की प्रसिद्ध ‘सिक्स डे वॉर’ (Six-Day War) के दौरान इज़राइल ने जॉर्डन, सीरिया और मिस्र को परास्त कर पूर्वी यरुशलम, वेस्ट बैंक, गाजा पट्टी और गोलन हाइट्स (Golan Heights) पर कब्जा कर लिया।
  • वर्ष 1967 में अरब देशों ने खार्तूम बैठक में ‘तीन नकारात्मक सिद्धांत (Three Nos)’ का प्रस्ताव पेश किया जिसके अंतर्गत ‘इज़राइल के साथ कोई शांति नहीं, इज़राइल के साथ कोई वार्ता नहीं और इज़राइल को किसी प्रकार की मान्यता नहीं’ का प्रावधान किया गया।
    • हालाँकि इस सिद्धांत से हटते हुए वर्ष 1979 में मिस्र ने तथा जॉर्डन ने वर्ष 1994 में इज़राइल के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर लिया था।

प्रभाव: 

  •  अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों को उम्मीद है  कि इस समझौते के माध्यम से एक राजनेता के रूप में ट्रंप की छवि मज़बूत होगी। 
    • गौरतलब है कि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में अब लगभग दो माह से भी कम का समय बचा है और अब तक चुनाव प्रचार में कोरोनावायरस, नस्लभेद और अर्थव्यवस्था से संबंधित मुद्दे ही हावी रहें हैं, जबकि विदेशी नीति की कोई बड़ी भूमिका नहीं रही है।
  • विशेषज्ञों के अनुसार, यह समझौता अरब क्षेत्र में सक्रिय युद्धों को नहीं समाप्त करेगा परंतु यह  दशकों से चल रही शत्रुता के बाद एक व्यापक अरब-इज़राइल मैत्री का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
  • इज़राइल के प्रधानमंत्री ने इस समझौते को नई सुबह की शुरुआत बताया है, यह समझौता इज़राइली प्रधानमंत्री को देश की स्थानीय राजनीति में अपनी छवि मज़बूत करने में सहायता प्रदान कर सकता है।
  • यूएई के विदेश मंत्री ने इस समझौते को क्षेत्र की शांति के लिये महत्त्वपूर्ण बताया है, उनहोंने कहा कि यह समझौता राजनीतिक लाभ की भावना से परे है और शांति के अलावा और कोई भी विकल्प विनाश, गरीबी और मानव पीड़ा को ही बढ़ावा देगा।
  • यह समझौता यूएई को अपनी रूढ़िवादी छवि से बाहर आने में सहायता करेगा। 
  • बहरीन के विदेशमंत्री ने इज़राइल और बहरीन के बीच हुए समझौते को ‘वास्तविक और स्थायी सुरक्षा तथा समृद्धि की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम बताया है।

फिलिस्तीन की प्रतिक्रिया: 

  • फिलिस्तीन ने इस समझौते का विरोध किया है, बहरीन द्वारा इस समझौते की घोषणा के बाद फिलिस्तीनी नेतृत्त्व ने इसे वापस लेने की मांग की थी। इस समझौते के बाद गाजा और वेस्ट बैंक में फिलिस्तीनी कार्यकर्त्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया। 
  • एक सर्वेक्षण के अनुसार, 86% फिलिस्तीनी लोगों ने का मानना है कि यह समझौता इज़राइल के हितों को पूरा करता है फिलिस्तीन के नहीं।

सऊदी अरब की भूमिका : 

  • विशेषज्ञों के अनुसार, सऊदी अरब की सहमति के बगैर बहरीन इस समझौते के लिये आगे नहीं बढ़ सकता।  
  • सऊदी अरब पर इज़राइल के साथ संबंधों को सामान्य करने का दबाव के बावज़ूद वह इस्लाम में सबसे पवित्र स्थल का संरक्षक होने की वजह से वह अभी इस समझौते में शामिल नहीं हो सकता। 
  • हालाँकि बहरीन को इज़राइल के साथ समझौते की अनुमति देकर सऊदी अरब अमेरिकी राष्ट्रपति से अपने अच्छे संबंधों को बनाए रख सकेगा।
    • गौरतलब है कि वर्ष 2011 में बहरीन में उठे जन-विद्रोह को नियंत्रित करने के लिये सऊदी अरब ने कुवैत और यूएई के साथ अपनी सेना भेजी थी।
    • इसके साथ ही वर्ष 2018 में सऊदी अरब ने बहरीन को 10 बिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराई थी।     

भारत पर प्रभाव: 

  • हाल के वर्षों में भारत और खाड़ी के देशों के संबंधों में बहुत सुधार देखने को मिला है, साथ ही इज़राइल के साथ भी रक्षा सहित कई अन्य क्षेत्रों में भारत ने बड़ी साझेदारी की है।  
  • खाड़ी क्षेत्र के देश, ऊर्जा (खनिज तेल) और प्रवासी कामगारों के लिये रोज़गार की दृष्टि से भारत के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं, इस समझौते से क्षेत्र में स्थिरता के प्रयासों को बल मिलेगा जो भारत के लिये एक सकारात्मक संकेत है।   
  •  इस समझौते से  खाड़ी क्षेत्र के देशों में भारत की राजनीतिक पकड़ और अधिक मज़बूत होगी।    

चुनौतियाँ:

  • इस समझौते में फिलिस्तीन समस्या पर कोई बात नहीं की गई, जिससे भविष्य में फिलिस्तीन का संकट और भी बढ़ सकता है।
  • इस समझौते पर इज़राइल में व्यापक समर्थन देखने को मिला है परंतु इज़राइल में ऐसी चिंताएँ बनी हुई हैं कि इस समझौते के परिणामस्वरूप बहरीन और यूएई के लिये अमेरिका से परिष्कृत हथियारों की खरीद संभव हो सकती है, जो क्षेत्र में इज़राइल की सैन्य बढ़त को प्रभावित कर सकता है। 
  • इस बात का भी अनुमान है कि बहरीन और यूएई में इस समझौते को इज़राइल की तरह व्यापक जन-समर्थन नहीं प्राप्त हुआ है, गौतलब है कि दोनों देशों ने इस समझौते के लिये अपने राज्य या सरकार के प्रमुखों को नहीं बल्कि विदेश मंत्रियों को भेजा था।
  • बहरीन के शिया बाहुल्य विपक्षी समूह ने इस समझौते का विरोध किया है, गौरतलब है कि बहरीन में शिया मुस्लिमों की आबादी अधिक है परंतु बहरीन के वर्तमान राजा एक सुन्नी मुसलमान हैं।
  • इस समझौते से अरब देशों के बीच शिया और सुन्नी का मतभेद और अधिक बढ़ सकता है।

आगे की राह:  

  • इस क्षेत्र में स्थायी शांति के लिये शिया और सुन्नी तथा फारसियों (Persian) एवं अरब के बीच संतुलन को बनाए रखना बहुत ही आवश्यक होगा।
  • हाल के वर्षों में अरब देशों में बड़े आर्थिक और राजनीतिक बदलाव देखने को मिले हैं, वर्तमान में क्षेत्र के अधिकाँश देशों ने खनिज तेल और इस्लामिक कट्टरपंथ से हटकर एक आधुनिक तथा प्रगतिशील देश के रूप में स्वयं को प्रकट करने का प्रयास किया है।
  • भारत को इस क्षेत्र के उभरते बाज़ार में अपने हस्तक्षेप को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति में विद्यार्थियों/युवाओं को प्रोत्‍साहन

प्रिलिम्स के लिये 

विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा नवोन्‍मेष नीति-2013, विज्ञान एवं अभियांत्रिकी अनुसंधान बोर्ड, राष्‍ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्‍ठान, निधि प्रयास कार्यक्रम, इंस्पायर कार्यक्रम,  INSPIRE अवार्ड्स-MANAK

मेन्स के लिये

S&T में युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिये कार्यरत विभिन्न संस्थाएँ,  सरकार द्वारा चलाई जा रही अन्य योजनाएँ 

चर्चा में क्यों?

स्‍वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्‍याण, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, और पृथ्‍वी विज्ञान केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने राज्यसभा में एक लिखित जवाब के माध्यम से जानकारी दी कि सरकार की विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति में देश के विद्यार्थियों/युवाओं को प्रोत्साहित करना सम्मिलित है। सरकार देश के युवाओं/विद्यार्थियों को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र में आकर्षित करने हेतु कई प्रोत्साहन योजनाएँ कार्यान्वित कर रही है।

 विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा नवोन्‍मेष नीति-2013 के तीन प्रमुख घटक:

  • समाज के सभी स्‍तरों पर वैज्ञानिक प्रवृत्ति के प्रसार का संवर्द्धन करना।
  • सभी सामाजिक स्‍तरों पर युवाओं में विज्ञान के अनुप्रयोगों संबंधी कौशल का विकास करना।
  • प्रतिभावान एवं तीव्र बुद्धि वाले छात्रों के लिये विज्ञान, अनुसंधान तथा नवोन्‍मेष में जीवनवृत्ति (Carrier) निर्माण को आकर्षक बनाना।

S&T में युवाओं के प्रोत्साहन के लिये कार्यरत विभिन्न संस्थाएँ 

  • विज्ञान एवं अभियांत्रिकी अनुसंधान बोर्ड (Science and Engineering Research Board- SERB) विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science & Technology-DST) के अंतर्गत एक सांविधिक संस्थान है। 
    • यह युवा वैज्ञानिकों के लिये लक्षित राष्‍ट्रीय-पोस्‍ट डॉक्‍टरल अध्‍येतावृत्ति (N-PDF), स्टार्ट-अप अनुसंधान अनुदान (SRG), प्रधानमंत्री डॉक्‍टरल अनुसंधान अध्‍येतावृत्ति, स्‍वर्ण जयंती अध्‍येतावृत्तियाँ आदि कार्यक्रम संचालित कर रहा है। ये योजनाएँ युवा अनुसंधानकर्ताओं की पहचान करने और उन्‍हें विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के अग्रणी क्षेत्रों में प्रशिक्षण एवं अनुसंधान के अवसर उपलब्ध‍ कराने के लिये तैयार की गई हैं। 
  • वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (Council of Scientific & Industrial Research-CSIR) उन युवा विद्यार्थियों को लगभग 4500-5000 ऐसी अध्‍येतावृत्तियाँ प्रतिवर्ष प्रदान करती है जो भविष्‍य में वैज्ञानिक बनने का सपना रखते हैं। CSIR द्वारा प्रदान की जाने वाली कुछ प्रमुख अध्‍येवृत्तियों में (JRF-NET), श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी अध्‍येतावृत्ति, SRF-DIRECT, अनुसंधान सहायकवृत्ति और CSIR-नेहरू विज्ञान पोस्‍ट-डॉक्‍टरल अनुसंधान अध्‍येतावृत्ति (CSIR-NSPDF) आदि हैं। 
    • CSIR विभिन्‍न श्रेणियों, जैसे- केन्द्रित मूलभूत अनुसंधान, अभिनव परियोजनाओं, हरित परियोजनाओं और मिशन परियोजनाओं में अनुसंधान एवं विकास (R&D) के साथ-साथ अंतरण परियेाजना कार्यान्वित कर रही है।
  • जैव प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Bio-technology-DBT) जैव प्रौद्योगिकी और जीवन विज्ञान के क्षेत्रों में स्‍नातक-पूर्व विज्ञान शिक्षा, स्‍नातकोत्तर शिक्षण कार्यक्रम, DBT-‍कनिष्‍ठ अनुसंधान अध्‍येतावृत्ति कार्यक्रम, DBT-अनुसंधान सहायकवृत्ति और DBT-जैव प्रौद्योगिकी उद्योग प्रशिक्षण कार्यक्रम के सुदृढ़ीकरण के लिये स्‍टार कॉलेज योजना सहित जैव प्रौद्योगिकी में मानव संसाधन विकास कार्यक्रम को कार्यान्वित कर रहा है
  • राष्‍ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्‍ठान (National Innovation Foundation-NIF)  विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सतत् नवप्रवर्तन को बढ़ावा देने के लिये द्विवार्षिक राष्‍ट्रीय मूलभूत नवप्रवर्तन एवं उत्‍कृष्‍ट पारंपरिक ज्ञान पुरस्‍कार प्रदान करता है। NIF नवप्रवर्तकों को मूल्‍य संवर्द्धन एवं उद्भवन सहायता उपलब्‍ध कराता है ताकि उनकी प्रौद्योगिकियाँ बाज़ार तक पहुँच सकें। 
    • जैव प्रौद्योगिकी विभाग वंशानुगत एवं आण्विक स्‍तर पर मानव रोगों के कारणों को समझने के लिये वहनीय स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल तथा R&D में सहायता कर रहा है। DBT संक्रामक तथा पुराने रोगों, मानव वंशानुगति एवं जीनोम विश्‍लेषण, मातृ एवं बाल स्‍वास्‍थ्‍य, सार्वजनिक स्‍वास्‍थ्‍य एवं पोषण, टीका अनुसंधान, जैव अभियांत्रि‍की एवं बायो-डिज़ाइन, स्‍टेम कोशिका और पुनरूत्‍पादक औषधि जैसे क्षेत्रों में नवप्रवर्तक चिकित्‍सा अथवा निवारक उपायों के विकास के लिये कार्य कर रहा है। 

सरकार द्वारा चलाई जा रही अन्य योजनाएँ 

  • अभिप्रेरित अनुसंधान के लिये विज्ञान की खोज में नवोन्‍मेष (Innovation in Science Pursuit for Inspired Research-INSPIRE) मेधावी और प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को विज्ञान विषय का अध्‍ययन तथा अनुसंधान और विकास (R&D) में जीवनवृत्ति का विकल्‍प देने की दृष्टि से उन्‍हें आकर्षित, अभिप्र‍ेरित, पोषित तथा प्रशिक्षित करने वाली एक वृहत् योजना है। इस योजना का उद्देश्य गुणवत्तापूर्ण जनशक्ति के निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ कर देश में R&D के क्षेत्र में मानव संसाधन का विकास करना है।
  • विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने वर्ष 2016 में निधि (National Initiative For Developing And Harnessing Innovations-NIDHI) के अंतर्गत ‘युवा एवं आकांक्षी प्रौद्योगिकी उद्यमी प्रोत्‍साहन एवं त्‍वरण’ (प्रयास) नामक नया कार्यक्रम आरंभ किया। इस कार्यक्रम का उद्देश्‍य बड़ी संख्‍या में उन युवा नवप्रवर्तकों को आकर्षित करना है जो समस्‍या समाधान में उत्‍साह एवं क्षमता प्रदर्शित करते हैं। 
  • इंस्पायर पुरस्कार-MANAK (Million Minds Augmenting National Aspirations and Knowledge) योजना DST द्वारा NIF के साथ मिलकर चलाई जा रही है, जिसका उद्देश्य 10-15 वर्ष की आयु और कक्षा 6 से 10 में अध्ययनरत छात्रों को अध्ययन के लिये प्रेरित करना है। योजना का उद्देश्य विज्ञान और सामाजिक अनुप्रयोगों में निहित एक मिलियन मूल विचारों/नवाचारों को लक्षित करना है, जो स्कूली बच्चों के बीच रचनात्मकता और नवीन सोच की संस्कृति को बढ़ावा दे सके। देश भर के सभी मान्‍यता प्राप्‍त विद्यालयों में कक्षा 6 से 10 के लगभग 42,000 युवा छात्र इंस्‍पायर पुरस्‍कार-MANAK प्रति वर्ष प्राप्‍त करते हैं। 

आगे की राह 

अपने तीव्र आर्थिक विकास के साथ भारत को  खाद्य असुरक्षा से लेकर बड़े पैमाने पर जनसंख्या की स्वास्थ्य देखभाल तक कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है जिनके लिये त्वरित और प्रभावी समाधानों की आवश्यकता होगी। इसलिये देश में वैज्ञानिक प्रगति को आगे बढ़ाने के लिये विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र में युवाओं को प्रोत्साहित करना नितांत अपरिहार्य है।

स्रोत: पीआईबी


जैव विविधता और पर्यावरण

लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट-2020

प्रिलिम्स के लिये :

वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर, लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट-2020

मेन्स के लिये:

कशेरुक प्रजातियों की आबादी में गिरावट एवं इसके निहितार्थ

चर्चा में क्यों? 

वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर’ (World Wide Fund for Nature) द्वारा जारी ‘लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट-2020’ (Living Planet Report- 2020) के अनुसार, पिछली आधी शताब्दी में कशेरुक (Vertebrate) प्रजातियों की आबादी में बड़े पैमाने पर गिरावट आई है।

प्रमुख बिंदु:

  • कशेरुक (Vertebrate): 
    • कशेरुक वे जीव-जंतु होते हैं जिनमें रीढ़ या कशेरुक स्तंभ विद्यमान होते हैं। उनमें एक पेशी प्रणाली की भी विशेषता होती है जिसमें मुख्य रूप से द्विपक्षीय रूप से युग्मित द्रव्यमान होता है और एक केंद्रीय तंत्रिका तंत्र जो आंशिक रूप से रीढ़ की हड्डी के भीतर संलग्न होता है।
  • लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट ने कशेरुक प्रजातियों में गिरावट की गणना करने के लिये ‘लिविंग प्लैनेट इंडेक्स’ (Living Planet Index) का उपयोग किया गया है।
    • लिविंग प्लैनेट इंडेक्स’ (Living Planet Index): यह स्थलीय, मीठे पानी एवं समुद्री आवासों में कशेरुक प्रजातियों की जनसंख्या के रुझान के आधार पर दुनिया की जैव विविधता की स्थिति का आकलन करता है।
      • यह ‘इंस्टीट्यूट ऑफ ज़ूलॉजी’ (ज़ूलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन) द्वारा जारी किया जाता है।
      • वर्ष 1826 में स्थापित ‘ज़ूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन’ वन्यजीव संरक्षण के लिये कार्य करने वाला एक ‘इंटरनेशनल कंज़र्वेशन चैरिटी’ है।
  • ‘लिविंग प्लैनेट इंडेक्स’ में वर्ष 1970 से वर्ष 2016 के बीच 4000 से अधिक कशेरुक प्रजातियों के लगभग 21,000 जीवों को ट्रैक करके रिपोर्ट को तैयार किया गया है।

रिपोर्ट से प्राप्त निष्कर्ष:

  • रिपोर्ट में वर्ष 1970 से वर्ष 2016 के बीच वैश्विक कशेरुकी प्रजातियों की आबादी में औसतन 68% की गिरावट का उल्लेख किया गया है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में यह गिरावट 45% है।
    • अमेरिका के उष्णकटिबंधीय उप-भागों के लिये लिविंग प्लैनेट इंडेक्स में 94% की गिरावट दुनिया के किसी भी हिस्से में दर्ज की गई सबसे बड़ी गिरावट है।
  • मीठे जल की प्रजातियों की आबादी में वर्ष 1970 के बाद से औसतन 84% की कमी आई है।
    • मीठे जल की प्रजातियों की आबादी स्थलीय या समुद्री प्रजातियों की तुलना में तेज़ी से कम हो रही है। IUCN के अनुसार, मीठे जल की प्रजातियों में से लगभग एक तिहाई प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है।
    • मीठे जल के आवासों में वन्यजीवों की आबादी में 84% की गिरावट आई है जो विशेष रूप से लैटिन अमेरिका एवं कैरिबियन देशों में प्रति वर्ष 4% की गिरावट के बराबर है।
  • आकार के संदर्भ में मेगाफौना (Megafauna) या बड़ी प्रजातियाँ अधिक असुरक्षित हैं क्योंकि वे गहन मानवजनित खतरों एवं अत्यधिक दोहन के अधीन हैं। उदाहरण- बांध निर्माण से बड़ी मछलियाँ भी प्रभावित होती हैं।
  • वर्ष 1970 के बाद से पारिस्थितिकी पदचिह्न (Ecological Footprint) पृथ्वी की पारिस्थितिकी के पुनरुत्पादन की दर को अधिक है।
    • पारिस्थितिकी पदचिह्न, पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र पर मानवीय मांग का एक मापक है। यह मानव की मांग की तुलना पृथ्वी की पारिस्थितिकी के पुनरुत्पादन क्षमता से करता है। इसका प्रयोग करते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर प्रत्येक व्यक्ति एक निश्चित जीवनशैली का अनुसरण करे तो मानवता की सहायता के लिये पृथ्वी के कितने हिस्से की ज़रूरत होगी। 
  • वर्तमान में मानव की मांग पृथ्वी की पारिस्थितिकी के पुनरुत्पादन की दर की तुलना में 1.56 गुना अधिक है। 

जैव विविधता के लिये खतरा:    

  • आवास की हानि एवं क्षरण: यह पर्यावरण में परिवर्तन को संदर्भित करता है जहाँ एक प्रजाति, प्रमुख निवास स्थान की गुणवत्ता में पूर्णतः गिरावट, विखंडन के बाद भी उसमें निवास करती है। इसके सामान्य कारण हैं- अस्थिर कृषि, लॉगिंग (Logging), परिवहन, नदियों के प्रवाह में परिवर्तन आदि।
  • प्रजातियों का अतिदोहन: प्रत्यक्ष अतिदोहन अरक्षणीय (Unsustainable) शिकार एवं अवैध शिकार या दोहन को संदर्भित करता है। अप्रत्यक्ष अति दोहन तब घटित होता है जब गैर-लक्षित प्रजातियों को अनायास ही मार दिया जाता है उदाहरण के लिये मछली पकड़ने के दौरान अन्य प्रजातियों का जाल में फँसना। 
  • प्रदूषण: प्रदूषण, पर्यावरण में किसी प्रजाति के अस्तित्व को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित कर सकता है। यह खाद्य उपलब्धता या प्रजनन निष्पादन को प्रभावित करके अप्रत्यक्ष रूप से भी किसी प्रजाति को प्रभावित कर सकता है।
  • आक्रामक प्रजातियाँ एवं रोग: आक्रामक प्रजातियाँ स्थान, भोजन तथा अन्य संसाधनों के लिये देशी प्रजातियों के साथ प्रतिस्पर्द्धा कर सकती हैं, वे ऐसे शिकारी हो सकते हैं या बीमारियाँ फैला सकते हैं जो पहले इस पर्यावरण में मौजूद नहीं थीं।
  • जलवायु परिवर्तन: प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अधिकतर अप्रत्यक्ष रूप से होता है। तापमान में परिवर्तन उन संकेतों को उलझा सकता है जो मौसमी घटनाओं जैसे प्रवास एवं प्रजनन को बढ़ावा देते हैं, जिसके कारण ये घटनाएँ गलत समय पर होती हैं। उदाहरण: पक्षियों के प्रवास पैटर्न में बदलाव।

आगे की राह: 

  • नि:संदेह यह सत्य है कि मानवता का अस्तित्व हमारी प्राकृतिक प्रणालियों पर निर्भर करता है, फिर भी हम एक खतरनाक दर से प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं।
  • यह महत्त्वपूर्ण है कि प्रकृति एवं लोगों को ध्यान में रखते हुए जैव-विविधता हानि के वक्र (Curve) को मोड़ने के लिये एक नया वैश्विक समझौता किया जाना चाहिये और राजनीतिक रूप से प्रकृति की प्रासंगिकता बढ़े तथा राज्य एवं गैर-राज्य भागीदारों द्वारा एकजुट होकर आंदोलन को बढ़ावा दिया जाए।
  • वर्ष 2017 में वैज्ञानिकों ने पेरिस जलवायु समझौते के एक भाग के रूप में 'प्रकृति के लिये एक नए वैश्विक समझौते' का प्रस्ताव पेश करते हुए एक लेख प्रकाशित किया। इसने आवास (Habitat) संरक्षण एवं पुनर्स्थापना, राष्ट्रीय और ईको-क्षेत्र पैमाने के आधार पर संरक्षण रणनीतियों को बढ़ावा देने तथा अपनी संप्रभु भूमि की रक्षा के लिये स्थानीय लोगों के सशक्तीकरण के बारे में बात की है।
  • सतत् विकास एवं जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के तहत वर्ष 2030 के एजेंडे को प्राप्त करने के लिये प्राकृतिक प्रणालियों में गिरावट के मद्देनज़र ऐसा समझौता आवश्यक है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


जैव विविधता और पर्यावरण

बंगाल की खाड़ी में फाइटोप्लैंकटन बायोमास की प्रवृत्तियाँ

प्रिलिम्स के लिये 

क्लोरोफिल-ए, फाइटोप्लैंकटन, सुपोषण 

मेन्स के लिये 

अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष 

चर्चा में क्यों? 

अनुसंधानकर्त्ताओं ने बंगाल की खाड़ी में वास्तविक समय में क्लोरोफिल-ए की मात्रा को मापने के तरीके की खोज की है। क्लोरोफिल-ए फाइटोप्लैंकटन कोशिका में पाया जाने वाला एक प्रमुख वर्णक है जो महासागर के कुछ क्षेत्रों में पाया जाता है। यह अनुसंधान ‘इंडियन नेशनल सेंटर फॉर ओशन इनफॉर्मेशन सर्विसेज़’ (Indian National Centre for Ocean Information Services-INCOIS) के वैज्ञानिकों के एक दल द्वारा किया गया।

अनुसंधान के बारे में 

  • वैज्ञानिकों के दल ने बंगाल की खाड़ी के उत्तर-पश्चिमी भाग में क्लोरोफिल-ए की दीर्घकालिक प्रवृत्तियों को नजदीक से अवलोकित किया। अनुसंधानकर्त्ताओं ने क्लोरोफिल-ए में वृद्धि के प्रतिरूप को प्रभावित करने वाले कारकों का भी अध्ययन किया। निष्कर्षों को ‘पर्यावरण विज्ञान और प्रदूषण अनुसंधान’ जर्नल  में प्रकाशित किया गया था। 
  • INCOIS के वैज्ञानिकों ने ‘एक्वा सैटेलाइट’ (Aqua satellite) पर कार्यरत संयुक्त राज्य अमेरिका के नासा (National Aeronautics and Space Administration-NASA) के ‘मॉडरेट रेज़ोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर’ (Moderate Resolution Imaging Spectroradiometer-MODIS) सेंसर से 36 स्पेक्ट्रल बैंड्स में डेटा प्राप्त करते हुए क्लोरोफिल-ए की वृद्धि की प्रवृत्तियों के विश्लेषण के लिये डेटा एकत्रित करना प्रारंभ किया था। 
  • सूओमी नेशनल पोलर परिक्रमा साझेदारी (National Polar orbiting Partnership -NPP) उपग्रह पर परिचालित नासा के VIIRS (Visible Infrared Imaging Radiometer Suite) औ ओशनसैट-2 उपग्रह पर कार्यरत इसरो (Indian Space Research Organisation) के OCM-2 (Ocean Colour Monitor-2) द्वारा अतिरिक्त डेटा प्राप्त किये गए।
  • INCOIS वैज्ञानिकों ने नासा के SeaDAS (Sea-Viewing Wide Field-of-View Data Analysis System) सॉफ्टवेयर का उपयोग करके उपग्रह डेटा को प्रसंस्कृत किया, जिसके द्वारा महासागर में क्लोरोफिल-ए वर्णक की सांद्रता के बारे में जानकारी एकत्रित की गई।
  • बंगाल की खाड़ी के तटीय जल में क्लोरोफिल-ए की सांद्रता के बारे में जानकारी के संदर्भ में नासा के MODIS सेंसर से प्राप्त डेटा अधिक विश्वसनीय और सटीक हैं।

अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष 

  • यह अध्ययन पिछले 16 वर्षों के दौरान प्राप्त इन-सीटू (In-situ) और उपग्रह डेटा पर आधारित था। अध्ययन के दौरान दक्षिण-पश्चिम मानसून के पूर्व के समय में क्लोरोफिल-ए की सांद्रता में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई। 
  • अध्ययन किये गए अन्य पैमानों में कुल निलंबित पदार्थ (Total Suspennded Matters-TSM) और रंगीन विघटित कार्बनिक पदार्थ (Coloured Dissolved Organic Matters-CDOM) थे, जो जल में प्रकाशीय रूप से सक्रिय पदार्थ हैं। 
  • बंगाल की खाड़ी के उत्तर-पश्चिमी भाग के जल में दक्षिण-पश्चिम मानसून अवधि के दौरान TSM और CDOM की मात्रा में अधिकतम स्थानिक परिवर्तनशीलता देखी गई। क्लोरोफिल-ए की सांद्रता निम्न समयावधि के दौरान अधिकतम थी- 
    • दक्षिण-पश्चिम मानसून के पूर्व के समय में आवर्ती फाइटोप्लैंकटन ब्लूम के कारण।  
    • दक्षिण-पश्चिम मानसून के अंतिम समय के दौरान। 
  • अध्ययन में पाया गया कि फाइटोप्लैंकटन के अतिरिक्त क्लोरोफिल-ए की वृद्धि को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों में भौतिक बल, जैसे- जल का ऊपर की ओर बढ़ना, पवनों द्वारा ऊर्ध्वाधर मिश्रण, संवहन और स्थानीय परिसंचरण प्रतिरूप आदि थे। नदी/स्थलीय अपवाह द्वारा विभिन्न स्रोतों से विघटित रासायनिक पदार्थों की आपूर्ति के साथ-साथ इन कारकों ने भी क्लोरोफिल-ए की सांद्रता को प्रभावित किया। 
  • फाइटोप्लैंकटन ब्लूम से क्लोरोफिल-ए की वृद्धि के कारण महासागरीय पर्यावरणीय मापदंडों पर जानकारी महत्त्वपूर्ण हो गई है क्योंकि यह जलवायु परिवर्तन, नदी में जल बहाव की मात्रा और महासागरों में प्रदूषण के प्रभाव की निगरानी के लिये एक आधार के रूप में कार्य करता हैं।
  • इस तरह की प्रवृत्तियों का विश्लेषण महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र की समग्र रूप से बेहतर स्वास्थ्य स्थिति के बारे में जानकारी उपलब्ध करा सकते हैं। सुपोषण (Eutrophication) के कारण फाइटोप्लैंकटन ब्लूम से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँच सकता है।
  • कृषि भूमि से अपवाह के माध्यम से तटीय जल में पोषक तत्वों के एकत्रित होने से फाइटोप्लैंक्टन ब्लूम के कारण समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचता है। जल में ऑक्सीजन के स्तर में कमी से समुद्री जीव, जैसे- मछलियाँ आदि बुरी तरह से प्रभावित होते हैं। 

फाइटोप्लैंकटन के बारे में

  • फाइटोप्लैंकटन समुद्र में पाए जाने वाले सूक्ष्म पौधे हैं। ये महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक संकेतक हैं, जो महासागरों में जीवन को नियंत्रित करते हैं। 
  • फाइटोप्लैंकटन सूर्य के प्रकाश को क्लोरोफिल के माध्यम से रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करने के लिये प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में भाग लेते है। ये कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन का उत्सर्जन करते हैं।
  • सभी फाइटोप्लैंकटन प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में भाग लेते हैं, लेकिन कुछ फाइटोप्लैंकटन अन्य जीवों के उपभोग से भी अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त करते हैं।
  • फाइटोप्लैंकटन मानव द्वारा श्वसन की प्रक्रिया में सम्मिलित आधे से अधिक ऑक्सीजन में योगदान करते हैं। इसके अतरिक्त ये मानव-प्रेरित और निस्सृत कार्बन डाइऑक्साइड (ग्रीनहाउस गैस) को अवशोषित करके जलवायु को नियंत्रित करते हैं। फाइटोप्लैंकटन समुद्री खाद्य शृंखला के आधार के रूप में भी कार्य करते हैं।

आगे की राह 

फाइटोप्लैंकटन की अधिकता के कारण सुपोषण की घटना से सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र में उत्पन्न व्यवधान से निपटने के लिये सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र की सतत् निगरानी शमन प्रणाली तैयार किये जाने की आवश्यकता है। 

स्रोत: डाउन टू अर्थ


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

माउंट एवरेस्ट की ऊँचाई की पुनः गणना

प्रिलिम्स के लिये

माउंट एवरेस्ट, के-2

मेन्स के लिये

माउंट एवरेस्ट की ऊँचाई को पुनः मापने के कारण और इस संदर्भ में किये गए पूर्व प्रयास

चर्चा में क्यों?

विश्व के सबसे ऊँचे पर्वत माउंट एवरेस्ट की ऊँचाई को पुनः मापने के निर्णय के तकरीबन एक वर्ष बाद चीन और नेपाल जल्द ही इस संबंध में अपने आधिकारिक आँकड़े जारी करेंगे।

प्रमुख बिंदु

  • ध्यातव्य है कि चीन और नेपाल ने मिलकर विश्व के सबसे ऊँचे पर्वत को मापने के लिये वर्ष 2019 में एक समझौता ज्ञापन के तहत सहमति व्यक्त की थी, जिसके मुताबिक दोनों देश माउंट एवरेस्ट की ऊँचाई के संबंध में एक साथ अपने निष्कर्षों की घोषणा करेंगे।
    • हालाँकि महामारी के कारण इस प्रकार की घोषणा में काफी देरी हुई है।

पुनः ऊँचाई मापने का कारण

  • माउंट एवरेस्ट की वर्तमान आधिकारिक ऊँचाई 8,848 मीटर है, जिसकी गणना वर्ष 1956 में भारतीय सर्वेक्षण विभाग (Survey of India) की गई थी और अब इस संख्या को व्यापक स्तर पर स्वीकार कर लिया गया है।
  • हालाँकि बीते कुछ वर्षों में विभिन्न टेक्टोनिक गतिविधियों (Tectonic Activity) के कारण इस पर्वत की ऊँचाई में परिवर्तन आने की संभावना व्यक्त की जा रही है। उदाहरण के लिये वर्ष 2015 में नेपाल में 7.8 तीव्रता का भूकंप आया था, कुछ भूवैज्ञानिकों का मानना ​​है कि इस भूकंप के कारण बर्फ की चोटी में कुछ कमी आ सकती है।
  • चर्चा एक अन्य महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि माउंट एवरेस्ट की ऊँचाई को उसकी उच्चतम चट्टान बिंदु के आधार पर मापी जाए अथवा उच्चतम बर्फ बिंदु के आधार पर।
  • वर्षों से नेपाल और चीन के बीच इसी मुद्दे को लेकर असहमति थी, किंतु अंततः इसे वर्ष 2010 में हल कर लिया गया था, जब नेपाल ने चीन के दावे को और चीन ने नेपाल के दावे को स्वीकार कर लिया था।
  • पर्वत की ऊँचाई को पुनः मापने का एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि इसकी गणना अब तक केवल भारतीय, अमेरिकी या यूरोपीय सर्वेक्षणकर्त्ताओं द्वारा की गई है और चीन तथा नेपाल द्वारा किये जा रहे संयुक्त प्रयास दोनों देशों के राष्ट्रीय गौरव का प्रतिनिधित्त्व करेगा।

Mount

ऊँचाई संबंधी नए आँकड़े 

  • दोनों देशों के बीच सहमति बनने के पश्चात् वर्ष 2019 में जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग नेपाल के दौरे पर गए तो दोनों देशों ने एवरेस्ट की ऊँचाई को पुनः मापने और इस संबंध में अपने-अपने निष्कर्षों को एक साथ घोषित करने पर सहमति व्यक्त की थी।
  • गौरतलब है कि नेपाल के सर्वेक्षणकर्त्ताओं के समूह ने बीते वर्ष ही अपना कार्य पूरा कर लिया था, जबकि चीन के सर्वेक्षणकर्त्ताओं ने कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी के बीच मई माह में अपना अभियान पूरा किया था।
  • हालाँकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि उस स्थिति में क्या होगा जब दोनों देश अलग-अलग माप प्रस्तुत करेंगे, क्योंकि दोनों देशों के समूहों ने पर्वत की ऊँचाई की गणना करने के लिये अलग-अलग पद्धतियों का इस्तेमाल किया है, अतः यह संभव है कि दोनों के आँकड़ों में कुछ अंतर हो।
    • चीन इससे पहले भी एवरेस्ट की ऊँचाई की गणना दो बार कर चुका है, जिसमें पहली बार वर्ष 1975 में और दूसरी बार वर्ष 2005 में की गई थी।
    • इस बार चीन के सर्वेक्षणकर्त्ताओं के समूह ने पर्वत की ऊँचाई की गणना करने के लिये चीन के घरेलू बाईडू नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम का प्रयोग किया है।

माउंट एवरेस्ट के बारे में 

  • नेपाल और तिब्बत (चीन का एक स्वायत्त क्षेत्र) के बीच स्थित तकरीबन 8,848 मीटर (29,035 फीट) ऊँचा माउंट एवरेस्ट हिमालय पर्वत श्रृंखला की एक उच्च चोटी है, इसे पृथ्वी का सबसे ऊँचा बिंदु माना जाता है।
  • इसकी वर्तमान आधिकारिक ऊँचाई 8,848 मीटर है, जो कि 'पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर' (Pakistan Occupied Kashmir-PoK) में स्थित विश्व के दूसरे सबसे ऊँचे पर्वत के-2 (K-2) से 200 मीटर अधिक है। ध्यातव्य है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में स्थित के-2 पर्वत की आधिकारिक ऊँचाई 8,611 मीटर है।
  • 19वीं शताब्दी में इस पर्वत का नाम भारत के पूर्व महासर्वेक्षक जॉर्ज एवरेस्ट (George Everest) के नाम पर रखा गया था।
  • इस पर्वत को तिब्बत में चोमोलुंग्मा (Chomolungma) और नेपाल में सागरमाथा (Sagarmatha) के नाम से जाना जाता है।
  • एवरेस्ट पर चढ़ने का सबसे पहला रिकॉर्ड न्यूज़ीलैंड के एक पर्वतारोही एडमंड हिलेरी (Edmund Hillary) और उनके तिब्बती गाइड तेनजिंग नोर्गे (Tenzing Norgay) की नाम है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजव्यवस्था

अपर्याप्त फाॅरेंसिक प्रयोगशालाओं से उत्पन्न समस्याएँ

प्रिलिम्स के लिये :

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, निर्भया फंड

मेन्स के लिये:

पुलिस और न्याय तंत्र से जुड़ी समस्याएँ, पुलिस सुधार  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission- NHRC) के कुछ सदस्यों ने देश में फाॅरेंसिक प्रयोगशालाओं की अपर्याप्त संख्या पर अपनी चिंता व्यक्त की है। 

प्रमुख बिंदु:

  • NHRC के सदस्यों के अनुसार, देश में फाॅरेंसिक प्रयोगशालाओं की एक बड़ी चिंता का विषय है,  यह समस्या साक्ष्यों की जाँच में देरी, न्यायालयों में लंबित मामलों और जेलों में विचाराधीन कैदियों की भारी संख्या का एक बड़ा कारण भी है। 
  • विशेषज्ञों के अनुसार, यदि फाॅरेंसिक साक्ष्यों को सही से एकत्र किया जाए और उन्हें समय पर संरक्षित किया जाए तो आपराधिक मामलों (विशेषकर यौन उत्पीडन से संबंधित) को शीघ्र हल किया जा सकता है।

हथियारों से जुड़ी समस्याएँ: 

  • भारत में उपयोग किये जाने वाले हथियारों (बंदूक के संदर्भ में) में से 70% देशी या कंट्री मेड (Country-Made) हैं और इनके निर्माण में उन विशिष्टताओं का अनुपालन नहीं किया जाता जिससे किसी अपराध की स्थिति में इन हथियारों की पहचान की जा सके।

भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली की चुनौतियाँ: 

  • अप्रैल 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र राज्य में फाॅरेंसिक प्रयोगशालाओं में लगभग 30,000 से अधिक मामले लंबित थे।
  • फाॅरेंसिक प्रयोगशालाओं में कर्मचारियों की कमी भी एक बड़ी समस्या है, सितंबर 2019 तक महाराष्ट्र में विभिन्न फाॅरेंसिक प्रयोगशालाओं के लिये निर्धारित कुल 1,500 पदों में से 733 की नियुक्ति की गई थी।
  • अगस्त 2019 में आगरा (उत्तर प्रदेश) ज़िले में ही विभिन्न न्यायालयों में लगभग  6,000 मामले फाॅरेंसिक रिपोर्ट न मिलने के कारण लंबित थे, इनमें से लगभग 2,600 मामले दो वर्ष से अधिक पुराने थे। 

सरकार के प्रयास:  

  • केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा देश में फाॅरेंसिक प्रयोगशालाओं के नवीनीकरण हेतु राज्य सरकारों के लिये निर्भया फंड (Nirbhaya Fund) से 200 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है।
  • गौरतलब है कि दिसंबर, 2019 में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा ‘विधि विज्ञान सेवा निदेशालय’ (Directorate of Forensic Science Services) के तहत देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित केंद्रीय फाॅरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं (Central Forensic Science Laboratories- CFSL) के नवीनीकरण का निर्णय लिया गया था।
    • ये 6 CFSL चंडीगढ़, हैदराबाद, कोलकाता, भोपाल, पुणे और गुवाहाटी में स्थित हैं।
  • साझा अनुसंधान गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिये फाॅरेंसिक विज्ञान सेवा निदेशालय, नई दिल्ली और गुजरात फाॅरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी के व्यवहार विज्ञान संस्थान [Institute of Behavioural Sciences, Gujarat Forensic Science University (GFSU)] के बीच एक समझौता-ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किये गए हैं।  
  • इन प्रयासों के माध्यम से केंद्र सरकार का उद्देश्य गंभीर और जघन्य अपराधों में अधिक कुशल और वैज्ञानिक जांच की सुविधा को उपलब्ध कराना है।

आगे की राह:  

  • फाॅरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाएँ किसी भी अपराध के मामले में पीड़ित पक्ष को शीघ्र न्याय प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, परंतु वर्तमान में देश में फाॅरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं की कमी न्याय प्रणाली की धीमी गति का एक प्रमुख कारण है।
  • सरकार द्वारा देश में आधुनिक फाॅरेंसिक प्रयोगशालाओं की स्थापना के साथ विशेषज्ञों और अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति से जुड़ी समस्याओं का समाधान करना चाहिये।
  • साथ ही पुलिस कर्मियों को साक्ष्य एकत्र करने और फाॅरेंसिक विज्ञान से जुड़े नए अध्ययनों के संदर्भ में जागरूक करने हेतु समय-समय पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिये।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग

(National Human Rights Commission- NHRC):

  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना ‘मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (Protection of Human Rights Act- PHRA), 1993’ के प्रावधानों के तहत 12 अक्तूबर, 1993 को की गई थी।
  • इसका मुख्यालय दिल्ली में स्थित है।
  • यह आयोग मानवाधिकारों के उल्लंघन और लोकसेवकों द्वारा इनके उल्लंघन की रोकथाम में लापरवाही  की शिकायतों की जाँच के साथ मानवाधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय संधियों का अध्ययन करता है तथा उनके प्रभावी कार्यान्वयन हेतु सरकार को सुझाव देता है।

विधि विज्ञान सेवा निदेशालय

(Directorate of Forensic Science Services- DFSS):

  • विधि विज्ञान सेवा निदेशालय (DFSS) की स्थापना वर्ष 2002 में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा की गई थी।
  • DFSS की स्थापना राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और पुलिस सुधारों के लिये बनी पद्मनाभ समिति की सिफारिशों के आधार पर की गई थी।
  • वर्तमान में DFSS के तहत देश के विभिन्न शहरों में 6 केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाएँ (चंडीगढ़, कोलकाता, हैदराबाद, पुणे, गुवाहाटी और भोपाल में) संचालित होती हैं।
  • इसका उद्देश्य न्याय प्रणाली के लिये उच्च गुणवत्ता और विश्वसनीयता पूर्ण फोरेंसिक सेवाएँ उपलब्ध कराना है।

स्रोत: द हिंदू


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