पी ओवेल मलेरिया
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केरल में मलेरिया के एक प्रकार 'प्लास्मोडियम ओवेल' (Plasmodium Ovale) के लक्षणों की पहचान एक सैनिक में की गई है।
- संभवतः यह सैनिक सूडान में इस रोग से प्रभावित हुआ था जो प्लास्मोडियम ओवेल का स्थानिक क्षेत्र माना जाता है।
प्रमुख बिंदु
प्लास्मोडियम ओवेल के बारे में:
- प्लास्मोडियम ओवेल मलेरिया परजीवी के पाँच प्रकारों में से एक है। इसके अलावा अन्य चार इस प्रकार से हैं- प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम, प्लास्मोडियम विवैक्स-सबसे सामान्य, प्लास्मोडियम मलेरिया और प्लास्मोडियम नॉलेसी।
- इसके लगभग 20% परजीवी कोशिका की तरह अंडाकार होते हैं, इसलिये इसे ओवेल कहा जाता है।
- ये परजीवी व्यक्ति की प्लीहा या यकृत में लंबे समय तक रह सकते हैं।
लक्षण:
- इसके लक्षणों में 48 घंटों तक बुखार, सिरदर्द और मतली की शिकायत शामिल है और शायद ही यह कभी गंभीर बीमारी का कारण बनता है।
पी विवैक्स से समानता:
- पी ओवेल (P Ovale), पी विवैक्स (P Vivax) से बहुत मिलता-जुलता है और दोनों के उपचार का तरीका भी समान है।
- हालाँकि पी विवैक्स और पी ओवेल के बीच भेद करना काफी मुश्किल होता है, लेकिन सावधानीपूर्वक जाँच करने पर इस अंतर का पता लग सकता है।
प्रसार:
- पी ओवेल मलेरिया उष्णकटिबंधीय पश्चिमी अफ्रीका का स्थानिक रोग है। अफ्रीका के बाहर इस रोग के लक्षणों का पाया जाना असामान्य घटना है।
- हालाँकि यह रोग फिलीपींस, इंडोनेशिया और पापुआ न्यू गिनी में भी पाया गया है लेकिन इन क्षेत्रों में इसकी स्थिति अभी भी दुर्लभ मानी जाती है।
भारत में संचरण:
- नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया रिसर्च (National Institute of Malaria Research) के अनुसार, केरल में पाया गया यह पहला मामला है क्योंकि स्थानीय स्तर पर इसका कोई दूसरा मामला दर्ज नहीं हुआ है।
- इससे पहले गुजरात, कोलकाता, ओडिशा और दिल्ली में भी इसके मामले पाए जाने की पुष्टि की गई है। हालाँकि इन सब में स्थानीय स्तर पर संचरण का मामला दर्ज नहीं किया गया है, जिसका अर्थ है कि ये सब लोग किसी और स्थान पर प्रभावित हुए थे।
- वर्ष 2019 में भारत के ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, मेघालय और मध्य प्रदेश राज्यों में पाए गए कुल 1.57 लाख मलेरिया के मामलों में से 1.1 लाख मामले (70%) केवल फाल्सीपेरम मलेरिया के थे।
- हालिया विश्व मलेरिया रिपोर्ट 2020 के अनुसार, भारत में मलेरिया के मामले वर्ष 2000 के 20 मिलियन से घटकर वर्ष 2019 में लगभग 5.6 मिलियन रह गए हैं।
मलेरिया
- यह प्लास्मोडियम परजीवियों (Plasmodium Parasites) के कारण होने वाला मच्छर जनित रोग है।
- प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम के कारण होने वाला मलेरिया सबसे गंभीर माना है और यह जानलेवा भी हो सकता है।
प्लास्मोडियम का जीवन चक्र:
- RBC के टूटने से एक विषाक्त पदार्थ ‘हेमोज़ोइन’ का निर्माण होता है जो हर तीन से चार दिन में ठंड लगने की शिकायत और तेज़ बुखार के लिये ज़िम्मेदार होता है।
- संक्रमित मादा एनाफिलीज मच्छर के काटने से प्लास्मोडियम मानव शरीर में स्पोरोज़ोइट्स (संक्रामक रोग) के रूप में प्रवेश करता है।
- परजीवी शुरू में यकृत कोशिकाओं के भीतर वृद्धि करते हैं और फिर लाल रक्त कोशिकाओं (RBCs) पर हमला करते हैं जिसके परिणामस्वरूप RBC टूटने लगते हैं।
- मादा एनाफिलीज़ मच्छर द्वारा किसी संक्रमित व्यक्ति को काटे जाने से ये परजीवी मच्छर के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और इस प्रकार ऐसे मच्छर के काटने से अन्य लोगों में फैलता है।
- परजीवी उनकी लार ग्रंथियों में जमा होने वाले स्पोरोज़ोइट्स के निर्माण के लिये स्वयं में वृद्धि करते हैं। जब ये मच्छर किसी इंसान को काटते हैं तो स्पोरोज़ोइट्स उस व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं, जिसके कारण ऐसी घटनाओं में वृद्धि होती है।
नोट:
- मलेरिया परजीवी को अपने जीवन चक्र को पूरा करने के लिये दो मेज़बानों (मानव और मच्छर) की आवश्यकता होती है।
- मादा एनाफिलीज़ मच्छर रोगवाहक (Transmitting Agent) भी है।
- विश्व मलेरिया दिवस 25 अप्रैल को मनाया जाता है।
- ध्यातव्य है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) आधिकारिक तौर पर केवल चार बीमारियों (HIV-एड्स, टीबी, मलेरिया और हेपेटाइटिस) के संदर्भ में रोग-विशिष्ट 'विश्व दिवस' मनाता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
3D प्रिंटिंग तकनीक के विकास हेतु नीति
चर्चा में क्यों?
3D प्रिंटिंग तकनीक के उभरते बाज़ार को मद्देनज़र रखते हुए इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) जल्द ही औद्योगिक स्तर पर इस तकनीक को बढ़ावा देने के लिये एक नीति प्रस्तुत करेगा।
प्रमुख बिंदु
3D प्रिंटिंग का अर्थ
- 3D प्रिंटिंग विनिर्माण की एक तकनीक है, जिसके अंतर्गत प्लास्टिक, राल, थर्माप्लास्टिक, धातु, फाइबर या चीनी मिट्टी आदि के माध्यम से किसी वस्तु का प्रोटोटाइप अथवा वर्किंग मॉडल बनाने के लिये कंप्यूटर-एडेड डिज़ाइनिंग (CAD) का उपयोग किया जाता है।
- कंप्यूटर-एडेड डिज़ाइनिंग का आशय किसी डिज़ाइन के निर्माण, संशोधन, विश्लेषण और अनुकूलन आदि के लिये कंप्यूटर का उपयोग करने से है।
- इस तकनीक के अंतर्गत प्रिंट किये जाने वाले मॉडल को पहले सॉफ्टवेयर की सहायता से कंप्यूटर पर डिज़ाइन किया जाता है, जिसके बाद उस डिज़ाइन के आधार पर 3D प्रिंटर को निर्देश दिये जाते हैं।
- इस तकनीक में इस्तेमाल होने वाले प्रिंटर योगात्मक विनिर्माण तकनीक (Additive Manufacturing) पर आधारित होते हैं और इसके अंतर्गत कंपनियाँ विशिष्ट मांग वाली परियोजनाओं के लिये विशिष्ट उत्पाद जैसे- हल्के उपकरण ही बनाती हैं।
- ऐसे उत्पादों के अनुप्रयोग के लिये चिकित्सा और संबद्ध क्षेत्र महत्त्वपूर्ण है।
- 35 प्रतिशत से अधिक बाज़ार हिस्सेदारी के साथ मौजूदा समय में अमेरिका 3D प्रिंटिंग के क्षेत्र में अग्रणी बना हुआ है।
- एशिया में 3D प्रिंटिंग के क्षेत्र में 50 प्रतिशत बाज़ार हिस्सेदारी के साथ चीन का वर्चस्व बना हुआ है, जिसके बाद जापान (30 प्रतिशत) और दक्षिण कोरिया (10 प्रतिशत) का स्थान है।
3D प्रिंटिंग नीति की विशेषताएँ
- यह नीति भारत को 3D विनिर्माण के क्षेत्र में वैश्विक हब के रूप में स्थापित करने हेतु इस क्षेत्र में कार्यरत बड़ी कंपनियों को भारत में आने के लिये प्रोत्साहित करेगी, साथ ही इसके तहत घरेलू उपयोग के लिये प्रिंटिंग सामग्री के आयात को भी हतोत्साहित किया जाएगा।
- उद्देश्य
- 3D प्रिंटिंग अथवा योगात्मक विनिर्माण तकनीक के डिज़ाइन, विकास और तैनाती के लिये अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करने में सहायता करना।
- घरेलू कंपनियों की तकनीकी और आर्थिक बाधाओं को दूर करना ताकि वे 3D प्रिंटिंग के क्षेत्र में अग्रणी देशों जैसे- अमेरिका और चीन की कंपनियों के लिये सहायक सुविधाओं का विकास कर सकें।
- प्रमुख क्षेत्र और अनुप्रयोग
- ऑटो और मोटर स्पेयर पार्ट जैसे- इंजन, लक्जरी वाहनों के आंतरिक और बाहरी हिस्से, या लैंडिंग गियर, जटिल ब्रैकेट और टरबाइन ब्लेड आदि के व्यवसाय में 3D प्रिंटिंग काफी महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती है।
- उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों, प्रिंटेड सर्किट बोर्ड, कपड़े, खिलौने और आभूषणों में भी इस तकनीक के कुछ अनुप्रयोग हो सकते हैं।
- चुनौतियाँ
- मानकों का अभाव: चूँकि 3D प्रिंटिंग तुलनात्मक रूप से काफी नया क्षेत्र है, जिसके कारण इससे संबंधित वैश्विक मानदंडों का अभाव है।
- प्रयोग संबंधी असमंजसता: एक अन्य और महत्त्वपूर्ण चुनौती अलग-अलग उद्योगों और सरकारी मंत्रालयों को अपने संबंधित क्षेत्र में एक नई तकनीक के तौर पर 3D प्रिंटिंग को अपनाने हेतु प्रेरित करना है, क्योंकि यह एक नई तकनीक है और इसे आम लोगों के बीच अपनी जगह बनाने में समय लगेगा।
- रोज़गार में कमी का खतरा: कई जानकार यह कहते हुए इस तकनीक का विरोध करते हैं कि इससे चिकित्सा उपकरण या एयरोस्पेस प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में अत्यधिक कुशल श्रमिकों की नौकरियों पर खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
- उच्च लागत: यद्यपि इस तकनीक में प्रिंटिंग की लागत काफी कम होती है, किंतु एक 3D प्रिंटर बनाने हेतु प्रयोग होने वाले उपकरणों की लागत काफी अधिक होती है। इसके अलावा इस प्रकार के उत्पादों की गुणवत्ता और वारंटी भी एक चिंता का विषय है, जिसके कारण कई कंपनियाँ अपनी मशीनों में 3D प्रिंटिंग उत्पादों के प्रयोग में संकोच करती हैं।
- क्षेत्र विशिष्ट चुनौतियाँ: भारत समेत संपूर्ण विश्व में 3D प्रिंटिंग उत्पादों का सबसे बड़ा उपभोक्ता मोटर वाहन उद्योग है, जो कि वर्तमान में BS-VI उत्सर्जन मानकों और इलेक्ट्रिक वाहनों जैसे बदलावों का सामना कर रहा है। इसकी वजह से नए वाहनों के निर्माण की गति धीमी हो गई है, इसलिये 3D प्रिंटिंग उत्पादों की मांग भी काफी कम हो गई है।
- 3D प्रिंटिंग का संभाव्य बाज़ार
- इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) के अनुमान के मुताबिक, वर्ष 2024 तक 3D प्रिंटिंग या योगात्मक विनिर्माण तकनीक का वैश्विक बाज़ार 34.8 बिलियन डॉलर तक पहुँच जाएगा, जो कि 23.2 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ रहा है।
- यद्यपि इस तकनीक के कारण रोज़गार सृजन की कोई संभावना नहीं है, किंतु यह तकनीक भविष्य की दृष्टि से काफी लाभदायक साबित हो सकती है।
आगे की राह
- निवेश तथा अनुसंधान एवं विकास केंद्रों की कमी जैसे कारक इस तकनीक के विकास में एक बड़ी बाधा के रूप में मौजूद हैं। हालाँकि उपयोगकर्त्ताओं के बीच 3D प्रिंटिंग तकनीक और अनुप्रयोगों की बेहतर समझ इसके उपयोग में अवश्य ही बढ़ोतरी करेगी।
- 3D प्रिंटिंग समाधानों को अपनाने को लेकर भारतीय उपयोगकर्त्ताओं के बीच लगातार जागरूकता बढ़ रही है, जिसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारतीय बाज़ार में इस तकनीक की संभावनाएँ काफी अधिक हैं। इसके अलावा जापान, जर्मनी और अमेरिका जैसे अधिक परिपक्व बाज़ारों की तुलना में भारत में इस तकनीक का विकास किया जाना अभी शेष है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
राज्यों के पूंजीगत व्यय हेतु विशेष सहायता योजना
चर्चा में क्यों?
तमिलनाडु को छोड़कर सभी राज्यों ने “राज्यों के पूंजीगत व्यय हेतु विशेष सहायता योजना” का लाभ उठाया है।
- इस योजना की घोषणा वित्त मंत्रालय ने 'आत्मनिर्भर भारत पैकेज' के तहत की थी।
प्रमुख बिंदु:
- पृष्ठभूमि: केंद्र सरकार ने आत्मनिर्भर भारत पैकेज' के तहत घोषणा की थी कि वह राज्यों के लिये 50 वर्षों हेतु 12,000 करोड़ रुपए के विशेष ब्याज मुक्त ऋण की पेशकश करेगी (विशेष रूप से पूंजीगत व्यय के लिये)।
- उद्देश्य: इस योजना का उद्देश्य उन राज्य सरकारों के पूंजीगत व्यय को बढ़ाना है, जो COVID-19 महामारी के कारण कर राजस्व में हुई कमी की वजह से इस वर्ष कठिन वित्तीय परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं।
- तीन भाग:
- भाग–I में उत्तर पूर्वी क्षेत्र शामिल हैं (निर्धारित राशि 200 करोड़ रुपए)।
- भाग-II अन्य सभी राज्यों के लिये (निर्धारित राशि 7500 करोड़ रुपए)।
- भाग-III के तहत योजना का उद्देश्य राज्यों में विभिन्न नागरिक केंद्रित सुधारों को आगे बढ़ाना है।
- भाग-III के तहत 2000 करोड़ रुपए निर्धारित किये गए हैं।
- यह राशि केवल उन राज्यों के लिये उपलब्ध होगी जो वित्त मंत्रालय द्वारा निर्दिष्ट चार अतिरिक्त सुधारों में से कम-से-कम तीन सुधारों को कार्यान्वित करते हैं।
- ये चार सुधार हैं : एक राष्ट्र एक राशन कार्ड, ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस, शहरी स्थानीय निकाय / उपयोगिता सुधार और बिजली क्षेत्र में सुधार।
- वर्तमान स्थिति:
- वित्त मंत्रालय ने 27 राज्यों के पूंजीगत व्यय प्रस्तावों के तहत 9,879.61 करोड़ रुपए अनुमोदित किये हैं।
- इसमें से पहली किश्त के रूप में 4,939.81 करोड़ रुपए जारी किये गए हैं।
- स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, जल आपूर्ति, सिंचाई, बिजली, परिवहन, शिक्षा, शहरी विकास जैसे विविध क्षेत्रों में पूंजीगत व्यय परियोजनाओं को मंज़ूरी दी गई है।
- वित्त मंत्रालय ने 27 राज्यों के पूंजीगत व्यय प्रस्तावों के तहत 9,879.61 करोड़ रुपए अनुमोदित किये हैं।
पूंजीगत व्यय
- परिभाषा:
- पूंजीगत व्यय मशीनरी, उपकरण, भवन, स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा आदि के विकास पर सरकार द्वारा खर्च किया गया धन है।
- पूंजीगत व्यय पूँजी निवेश के रूप में गैर- आवर्ती प्रकार के व्यय होते हैं।
- इस प्रकार के व्यय में अर्थव्यवस्था की उत्पादक क्षमता में सुधार की उम्मीद होती है।
- पूंजीगत व्यय में निम्न मदें शामिल हैं- निवेश, ऋण भुगतान, ऋण वितरण, शेयरों की खरीद, भूमि, भवन, मशीनों और उपकरणों पर व्यय आदि।
- पूंजीगत व्यय के लाभ:
- पूंजीगत व्यय जो कि परिसंपत्तियों के निर्माण को बढ़ावा देता है, प्रकृति में दीर्घकालिक होते हैं, इसके अलावा उत्पादन हेतु सुविधाओं में सुधार कर और परिचालन दक्षता को बढ़ाकर यह कई वर्षों तक राजस्व उत्पन्न करने की क्षमता प्रदान करता है।
- यह श्रम भागीदारी भी बढ़ाता है, अर्थव्यवस्था को संतुलित करता है और भविष्य में अधिक उत्पादन करने की क्षमता प्रदान करता है।
- राजस्व व्यय से भिन्नता:
- राजस्व व्यय से अभिप्राय सरकार द्वारा एक वित्तीय वर्ष में किये जाने वाले उस अनुमानित व्यय से है जिसके फलस्वरूप न तो परिसंपत्तियों का निर्माण हो और न ही देयताओं में कमी आए।
- राजस्व व्यय आवर्ती प्रकार के होते हैं जो साल-दर साल किये जाते हैं। उदाहरणतः ब्याज अदायगी, सब्सिडी, राज्यों को अनुदान, सरकार द्वारा दी जाने वाली वृद्धावस्था पेंशन, वेतन, छात्रवृति इत्यादि।
स्रोत: PIB
अल-नीनो और सूखा
चर्चा में क्यों?
भारतीय विज्ञान संस्थान (Institute of Science’s- IISc) वायुमंडलीय और महासागरीय विज्ञान केंद्र (Centre for Atmospheric and Oceanic Sciences- CAOS) के एक हालिया अध्ययन के अनुसार, भारतीय उपमहाद्वीप में ग्रीष्मकालीन मानसून के दौरान सूखे का कारण केवल अल-नीनो ही नहीं था।
- अल नीनो बारंबार होने वाली जलवायविक घटना है, जिसके दौरान प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) में पेरू के समीप समुद्री तट गर्म होने लगता है।
- यह जून और सितंबर के मध्य भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून के विफल होने का सामान्य कारण है।
प्रमुख बिंदु:
अध्ययन का निष्कर्ष:
- पिछली सदी में भारतीय ग्रीष्म ऋतु मानसून के दौरान सूखे की कुल घटनाओं में से 43% के लिये उत्तरी अटलांटिक क्षेत्र के वायुमंडलीय विक्षोभों को उत्तरदायी माना जा सकता है।
- भारत में सूखे की ये घटनाएँ उन वर्षों के दौरान घटित हुईं जब अल-नीनो अनुपस्थित था।
सूखे की स्थिति का कारण:
- अगस्त माह के अंत में बारिश में अचानक और तेज़ी से गिरावट (जो उत्तरी अटलांटिक महासागर के मध्य अक्षांश क्षेत्र में वायुमंडलीय विक्षोभों से जुड़ी हुई थी) वायुमंडलीय धाराओं के एक ऐसे पैटर्न का निर्माण कर रही थी जो भारतीय उपमहाद्वीप की ओर बढ़ रही थी तथा भारतीय मानसून को ‘बाधित' कर रही थी।
सूखे के पैटर्न में परिवर्तन:
- अल नीनो वाले वर्षों के दौरान:
- जून के मध्य से ही बारिश में कमी शुरू हो जाती है और यह कमी पूरे देश में देखी जाती है।
- सामान्य वर्ष के दौरान:
- मानसून के दौरान सामान्य बारिश होती है लेकिन अगस्त में अचानक और तेज़ी से गिरावट देखी गई है।
- अगस्त माह के दौरान बारिश में कमी का कारण:
- मध्य अक्षांशों में एक असामान्य वायुमंडलीय विक्षोभ।
- मध्य अक्षांश पृथ्वी पर 23° और 66° उत्तर के बीच स्थित स्थानिक क्षेत्र हैं।
- यह विक्षोभ ऊपरी वायुमंडल की उन पवनों के कारण उत्पन्न होता है जो असामान्य रूप से ठंडे उत्तरी अटलांटिक जल निकायों के ऊपर चक्रवाती परिसंचरण के साथ अंतःक्रिया करते हैं।
- वायुराशियों की परिणामी तरंग जिसे ‘रॉस्बी तरंग’ (Rossby Wave) के नाम से जाना जाता है, उत्तरी अटलांटिक से तिब्बत के पठार की ओर बढ़ती है और अगस्त के मध्य में भारतीय उपमहाद्वीप से टकराती है। ये तरंगें/ बारिश को अवरोधित करती है तथा सूखे जैसी स्थिति को जन्म देती हैं।
- मध्य अक्षांशों में एक असामान्य वायुमंडलीय विक्षोभ।
भारतीय मानसून को प्रभावित करने वाले अन्य वायुमंडलीय परिसंचरण:
हिंद महासागर द्विध्रुव (Indian Ocean Dipole- IOD):
- IOD समुद्री सतह के तापमान का एक अनियमित दोलन है, जिसमें पश्चिमी हिंद महासागर की सतह का तापमान पूर्वी हिंद महासागर की तुलना में क्रमिक रूप से कम एवं अधिक होता रहता है।
- हिंद महासागर द्विधुव (IOD) को भारतीय नीनो भी कहा जाता है।
- सरल शब्दों में कहें तो, पश्चिमी हिंदी महासागर का पूर्वी हिंद महासागर की तुलना में बारी-बारी से गर्म व ठंडा होना ही हिंद महासागर द्विध्रुव कहलाता है।
- हिंद महासागर द्विध्रुव भारतीय मानसून को सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार से प्रभावित करता है।
- हिंद महासागर द्विध्रुव भारतीय मानसून के साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया के ग्रीष्मकालीन मानसून को भी प्रभावित करता है।
हिंद महासागर द्विध्रुव के प्रकारः
- भारतीय मानसून पर प्रभाव के आधार पर IOD के तीन प्रकार हैं।
(i) तटस्थ/ सामान्य हिंद महासागर द्विध्रुव
(ii) नकारात्मक हिंद महासागर द्विध्रुव तथा
(iii) सकारात्मक हिंद महासागर द्विध्रुव
तटस्थ/ सामान्य IOD:
- तटस्थ IOD में पूर्वी हिंद महासागर में ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पश्चिमी तट के पास प्रशांत महासागर से गर्म जल के प्रवाह के कारण पूर्वी हिंद महासागर की समुद्री सतह का तापमान सामान्य से थोड़ा बढ़ जाता है।
- वस्तुतः पूर्वी हिंद महासागर में सामान्य से थोड़ी अधिक वर्षा होती है।
- तटस्थ (Neature) IOD लगभग सामान्य मानसून की तरह होता है।
नकारात्मक IOD:
- जब पूर्वी हिंद महासागर का तापमान पश्चिमी हिंद महासागर की तुलना में सामान्य से बहुत अधिक हो जाता है।
- वस्तुतः लगातार लंबे समय तक प्रशांत महासागर से पूर्वी हिंद महासागर में गर्म जल के प्रवाह के कारण पूर्वी हिंद महासागर के तापमान में अधिक वृद्धि हो जाती है।
सकारात्मक IOD:
- जब पश्चिमी हिंद महासागर पूर्वी हिंद महासागर की तुलना में बहुत अधिक गर्म हो जाता है, तो इसे सकारात्मक IOD कहते हैं।
हिंद महासागर द्विध्रुव के प्रभाव:
- तटस्थ IOD का प्रभाव लगभग नगण्य रहता है।
- इससे पूर्वी हिंद महासागर व ऑस्ट्रेलिया का उत्तर पश्चिमी भाग थोड़ी अधिक (सामान्य से) वर्षा प्राप्त करता है।
- नकारात्मक IOD का प्रभाव भारतीय मानसून पर नकारात्मक पड़ता है।
- इससे भारतीय मानसून कमजोर पड़ जाता है जिससे वर्षा की तीव्रता में कमी आती है।
- ‘हॉर्न ऑफ अफ्रीका’ व पश्चिमी हिंद महासागर में काफी कम वर्षा होती है।
- जबकि इसके विपरीत पूर्वी हिंद महासागर व आस्ट्रेलिया के उत्तर-पश्चिमी भाग में अधिक वर्षा होती है।
- इसके कारण भारत में सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है।
- सकारात्मक IOD का भारतीय मानसून पर (वर्षा पर) सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- इससे भारतीय उपमहाद्वीप व पश्चिमी हिंद महासागर अपेक्षाकृत अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं।
- सकारात्मक IOD में जहाँ भारतीय उपमहाद्वीप व पश्चिमी हिंद महासागर औसत से अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं वहीं उत्तर पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया व पूर्वी हिंद महासागर औसत से कम वर्षा प्राप्त करते हैं।
- इसके कारण आस्ट्रेलिया में सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है।
मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन (Madden-Julian Oscillation- MJO)
- मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन (MJO) एक समुद्री-वायुमंडलीय घटना है जो दुनिया भर में मौसम की गतिविधियों को प्रभावित करती है।
- इसे साप्ताहिक से लेकर मासिक समयावधि तक उष्णकटिबंधीय मौसम में बड़े उतार-चढ़ाव लाने के लिये ज़िम्मेदार माना जाता है।
- मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन (MJO) को भूमध्य रेखा के पास पूर्व की ओर सक्रिय बादलों और वर्षा के प्रमुख घटक या निर्धारक (जैसे मानव शरीर में नाड़ी (Pulse) एक प्रमुख निर्धारक होती है) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो आमतौर पर हर 30 से 60 दिनों में स्वयं की पुनरावृत्ति करती है।
- यह निरंतर प्रवाहित होने वाली घटना है एवं हिंद व प्रशांत महासागरों में सबसे प्रभावशाली है।
- इसलिये MJO हवा, बादल और दबाव की एक प्रचलित प्रणाली है। यह जैसे ही भूमध्य रेखा के चारों ओर घूमती है वर्षा की शुरुआत हो जाती है।
- इस घटना का नामकरण दो वैज्ञानिकों रोलैंड मैडेन और पॉल जूलियन के नाम पर रखा गया था जिन्होंने 1971 में इसकी खोज की थी।
वैश्विक मौसमीं घटनाओं पर MJO का प्रभाव:
- इंडियन ओशन डाईपोल (The Indian Ocean Dipole-IOD), अल-नीनो (El-Nino) और मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन(Madden-julian Oscillation-MJO) सभी महासागरीय और वायुमंडलीय घटनाएँ हैं, जो बड़े पैमाने पर मौसम को प्रभावित करती हैं। इंडियन ओशन डाईपोल केवल हिंद महासागर से संबंधित है, लेकिन अन्य दो वैश्विक स्तर पर मौसम को मध्य अक्षांश तक प्रभावित करती हैं।
- IOD और अल-नीनो अपने पूर्ववर्ती स्थिति में बने हुए हैं, जबकि MJO एक निरंतर प्रवाहित होने वाली भौगोलिक घटना है।
- MJO की यात्रा आठ चरणों से होकर गुज़रती है।
- मानसून के दौरान जब यह हिंद महासागर के ऊपर होता है, तो संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में अच्छी बारिश होती है।
- दूसरी ओर, जब यह एक लंबे चक्र की समयावधि के रूप में होता है और प्रशांत महासागर के ऊपर रहता है तब भारतीय मानसूनी मौसम में कम वर्षा होती है।
- यह उष्णकटिबंध में अत्यधिक परंतु दमित स्वरूप के साथ वर्षा की गतिविधियों को संपादित करता है जो कि भारतीय मानसूनी वर्षा के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है।
स्रोत: टाइम्स ऑफ इंडिया
भारत में वाहन बीमा
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय बीमा सूचना ब्यूरो (IIB) ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की है।
- भारतीय बीमा सूचना ब्यूरो का गठन भारतीय बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI) द्वारा वर्ष 2009 में बीमा उद्योग की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये एक ही मंच के रूप में किया गया था।
प्रमुख बिंदु
बिना बीमा वाले वाहन
- रिपोर्ट के मुताबिक, मार्च 2019 तक सड़कों पर मौजूद कुल वाहनों में से 57 प्रतिशत वाहन बीमाकृत नहीं थे, जबकि मार्च 2018 में ऐसे वाहनों की संख्या 54 प्रतिशत थी।
- बिना बीमा वाले अधिकांश वाहन (लगभग 66 प्रतिशत) दोपहिया वाहन हैं।
- मोटर वाहन अधिनियम 2019 के अनुसार, सभी वाहनों का तृतीय-पक्ष वाहन बीमा पॉलिसी के साथ बीमा होना अनिवार्य है।
- तृतीय-पक्ष वाहन बीमा असल में दायित्त्व बीमा का ही एक रूप होता है, जिसे बीमाधारक (प्राथमिक-पक्ष) द्वारा बीमाकर्त्ता (द्वितीय-पक्ष) से किसी अन्य व्यक्ति (तृतीय-पक्ष) के कानूनी दावों के विरुद्ध सुरक्षा के लिये खरीदा जाता है।
कारण
- सड़क सुरक्षा संबंधी नियमों का सही ढंग से पालन न होने, बीमाकर्त्ताओं द्वारा फॉलो-अप में कमी और तृतीय-पक्ष बीमा पॉलिसी कवर की बढ़ती लागत के परिणामस्वरूप अधिकांश लोग अपनी मोटर बीमा पॉलिसी का नवीनीकरण नहीं करवाते हैं।
चिंताएँ
- भारतीय सड़कों पर लगभग 13.2 करोड़ वाहन बिना तृतीय-पक्ष बीमा पॉलिसी कवर के चल रहे हैं, ऐसे में यदि इन वाहनों से भविष्य में कोई दुर्घटना होती है तो पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा नहीं मिल सकेगा, क्योंकि प्रायः वाहन के मालिकों के पास क्षतिपूर्ति प्रदान करने के लिये सीमित साधन होते हैं और बीमा पॉलिसी ऐसी कोई एक बीमा कंपनी नहीं होगी, जिस पर देयता को लगाया जा सके।
- सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय द्वारा वर्ष 2019 में भारत में सड़क दुर्घटनाओं पर जारी वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार,
- सड़क दुर्घटनाएँ
- रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सड़क दुर्घटना के कारण प्रतिवर्ष लगभग 1.5 लाख लोगों की मृत्यु होती है।
- वर्ष 2010-2018 की अवधि में सड़क दुर्घटनाओं और साथ ही दुर्घटना से संबंधित होने में पिछले दशकों की तुलना में कमी दर्ज की गई, जबकि इसी अवधि में वाहनों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि दर्ज की गई।
- वर्ष 2017 की तुलना में वर्ष 2018 में सड़क दुर्घटनाओं की गंभीरता (प्रति 100 दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या) में 0.6 प्रतिशत वृद्धि हुई।
- प्रमुख कारण
- रिपोर्ट के मुताबिक, ओवर-स्पीडिंग सड़क दुर्घटनाओं का सबसे प्रमुख कारण रहा। सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले कुल लोगों में से 64.4 प्रतिशत लोगों की मृत्यु ओवर-स्पीडिंग के कारण हुई।
- वर्ष 2018 में कुल दुर्घटनाओं में दोपहिया वाहनों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा (35.2 प्रतिशत) रही।
- आम लोगों द्वारा सड़क सुरक्षा संबंधी नियमों का पालन न करने से बीमा कंपनियों को काफी नुकसान होता है, क्योंकि इससे बीमा दावे का अनुपात बढ़ जाता है और कंपनियों को नुकसान होता है। कई अवसरों पर न्यायाधिकरणों ने बीमाकर्त्ताओं को मुआवजे के लिये उत्तरदायी ठहराया है।
संबंधित वैश्विक पहलें
- सड़क सुरक्षा पर ब्रासीलिया घोषणा (वर्ष 2015)
- ब्रासीलिया घोषणा पर ब्राज़ील में आयोजित सड़क सुरक्षा हेतु द्वितीय वैश्विक उच्च-स्तरीय सम्मेलन में हस्ताक्षर किये गए थे। सड़क सुरक्षा हेतु पहला वैश्विक उच्च-स्तरीय सम्मेलन वर्ष 2009 में रूस में आयोजित किया गया था।
- ब्रासीलिया घोषणा के माध्यम से सभी देशों ने वर्ष 2030 तक सतत् विकास लक्ष्य 3.6 यानी कि वैश्विक ट्रैफिक से होने वाली मौतों की संख्या को आधा करने की योजना बनाई है।
- संयुक्त राष्ट्र (UN) ने वर्ष 2010-2020 को सड़क सुरक्षा के लिये कार्रवाई का दशक घोषित किया है।
आगे की राह
- भारत विश्व के सबसे बड़े ऑटो बाज़ारों में से एक है, जहाँ प्रतिवर्ष 20 मिलियन से अधिक वाहनों की बिक्री होती है। भारत उन देशों में से भी एक है, जहाँ सबसे अधिक सड़क दुर्घटनाएँ और मौतें होती हैं। ऐसी स्थिति में यह बहुत जोखिमपूर्ण और खतरनाक है कि देश में सड़कों पर चलने वाले आधे से अधिक वाहन बीमाकृत नहीं है।
- यद्यपि बीमा के माध्यम से सड़कों पर होने वाली दुर्घटनाओं को तो नहीं रोका जा सकता, किंतु यह दुर्घटना के कारण होने वाले नुकसान को अवश्य ही कम कर सकता है।
- बीमा की अवधारणा तथा इसके महत्त्व आदि से संबंधित विषयों पर जागरूकता फैलाने और वित्तीय साक्षरता में सुधार करने की आवश्यकता है।
- नियामकों को तीन अन्य पहलुओं पर सतर्क होने की आवश्यकता है:
- यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि कम आय वाले लोगों को बीमा कवर के लाभ से वंचित न रह जाएँ, क्योंकि ये आबादी का बड़ा हिस्सा हैं और उन्हें सुरक्षा की सबसे अधिक आवश्यकता है।
- इस बात पर ज़ोर दिया जाना चाहिये कि बीमा कंपनियाँ बिचौलियों को दरकिनार करते हुए बीमा उत्पादों की सीधी खरीद के लिए एक सरल ऑनलाइन प्रक्रिया की सुविधा प्रदान करें।
- यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि कंपनियाँ ज़्यादा मूल्य न लें या कवर में छिपी हुई लागत न जोड़ें।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज़ के लिये लैंसेट सिटिज़न्स कमीशन
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत में दस वर्षों की अवधि में सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज़ (Universal Health Coverage) और प्रत्येक नागरिक के लिये गुणवत्तापूर्ण एवं किफायती स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने हेतु रूपरेखा तैयार करने के उद्देश्य से लैंसेट सिटिज़न्स कमीशन (Lancet Citizens’ Commission) के साथ मिलकर एक पैनल का गठन किया गया है।
मुख्य बिंदु
भारत की स्वास्थ्य प्रणाली पर लैंसेट सिटिज़न्स कमीशन:
- प्रतिभागी: यह दुनिया की प्रमुख स्वास्थ्य पत्रिका द लैंसेट, लक्ष्मी मित्तल एंड फैमिली साउथ एशिया इंस्टीट्यूट और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के सहयोग से शुरू की गई अपनी तरह की एक पहली देशव्यापी पहल थी।
- उद्देश्य: सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज़ (UHC) के कार्यान्वयन में सार्वजनिक सहभागिता सुनिश्चित करने हेतु एक नागरिक रूपरेखा विकसित करना।
- मिशन:
- भारत में आगामी दशक में सभी हितधारकों के साथ मिलकर UHC को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करना।
- भारत में अनुकूल स्वास्थ्य प्रणाली को साकार करने हेतु एक रोडमैप तैयार करना जो सभी नागरिकों के लिये व्यापक, जवाबदेह, सुलभ, समावेशी एवं सस्ती गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवा प्रदान करे।
- पूरे भारत से ज़मीनी स्तर का सर्वेक्षण, सार्वजनिक परामर्श और ऑनलाइन चर्चा के माध्यम से संपूर्ण जानकारी एकत्रित करना।
- सभी क्षेत्रों में संवाद एवं ज्ञान को साझा करने के लिये शैक्षिक संस्थानों, नागरिक समाज और अन्य हितधारकों के साथ मिलकर सहभागिता विकसित करना।
- फोकस: यह पूरी तरह से भारत की स्वास्थ्य प्रणाली के निर्माण अथवा संरचना पर केंद्रित होगा।
- सिद्धांत: आयोग को चार सिद्धांतों द्वारा निर्देशित किया जाएगा:
- UHC के तहत सभी स्वास्थ्य चिंताओं को कवर किया जाए।
- रोकथाम और दीर्घकालिक देखभाल पर प्रमुखता से ध्यान दिया जाए।
- सभी स्वास्थ्य लागतों के लिये वित्तीय सुरक्षा प्रदान की जाए।
- एक ऐसी स्वास्थ्य प्रणाली की आकांक्षा जो सभी को समान गुणवत्ता का लाभ दे सके।
सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज़:
- UHC का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों और समुदायों तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच बिना वित्तीय कठिनाई की हो सके। इसमें स्वास्थ्य संवर्द्धन, रोकथाम, उपचार, पुनर्वास और उपशामक देखभाल से आवश्यक और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं की पूरी श्रृंखला शामिल है।
- UHC का लक्ष्य: सभी के लिये समान गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवा संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals 3) में सबसे महत्त्वपूर्ण है।
UHC के लाभ:
- यह उन सभी सेवाओं का उपयोग करने में सक्षम बनाता है जो बीमारी और मृत्यु के सबसे महत्त्वपूर्ण कारणों में से एक हैं। इसके अलावा UHC यह सुनिश्चित करता है कि लोगों को मिलने वाली स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता अच्छी रहे।
- यह लोगों पर पड़ने वाले स्वास्थ्य सेवाओं के वित्तीय भार को कम करता है और लोगों को गरीबी की स्थिति में जाने के जोखिम को कम करता है क्योंकि अप्रत्याशित बीमारी से स्वयं के जीवन की रक्षा करने के लिये कभी-कभी अपनी जीवन भर की बचत को लगा देना पड़ता है या संपत्ति को बेचना पड़ता है अथवा उधार लेना पड़ता है। इन परिस्थितियों के कारण इनका भविष्य खराब होने के साथ ही इनके बच्चों का भी भविष्य भी प्रभावित होता है।
अन्य संबंधित पहल:
- आयुष्मान भारत:
- यह एक प्रमुख पहल है जो सेवा वितरण के क्षेत्रीय और खंडित दृष्टिकोण की जगह एक व्यापक आवश्यकता-आधारित स्वास्थ्य देखभाल सेवा वितरित पर केंद्रित है।
- इसकी शुरुआत सरकार द्वारा देश में सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से की गई है।
- पोषण अभियान: इसे राष्ट्रीय पोषण मिशन के रूप में भी जाना जाता है, यह बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं हेतु पोषण परिणामों में सुधार करने के लिये भारत सरकार का प्रमुख कार्यक्रम है।
आगे की राह
- सरकारी वित्तपोषित कार्यक्रमों के माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि वित्तीय बाधाओं के कारण लोगों की आवश्यक सेवाओं तक पहुँच प्रभावित न हो। UHC के विकास से गरीब और निकट-गरीबों को पूरी लागत का कवरेज़ मिलना चाहिये जबकि अन्य नियोक्ता वित्तपोषित योजनाओं या निजी तौर पर खरीदे गए बीमा के माध्यम से अपनी स्वास्थ सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकते हैं।
- कम समय में लोगों की क्षमता निर्माण की चुनौती को सार्वजनिक-निजी भागीदारी (Public-Private Partnerships) के माध्यम से पूरा करने की आवश्यकता है, जिससे ई-लर्निंग मॉडल को विकसित करने तथा अपनाने का एक और अवसर मिल सके।
- एक समावेशी UHC मॉडल के लिये स्वास्थ्य सेवाओं की लागत, गुणवत्ता और पहुँच के बीच एक समझौताकारी समन्वय को कायम रखना महत्त्वपूर्ण है। अभिनव साझेदारी के साथ रोगियों, दाताओं और प्रदाताओं को संरेखित करने वाला एक सहयोगी दृष्टिकोण जोखिमों तथा प्रतिकूल प्रभावों को कम करने, मज़बूत सामाजिक प्रतिफल प्रदान करने तथा समावेशी UHC लक्ष्यों की प्राप्ति का प्रयास करेगा।