वैश्विक स्वास्थ्य अनुमान 2019
चर्चा में क्यों?
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization-WHO) ने वैश्विक स्वास्थ्य अनुमान (Global Health Estimates) 2019 जारी किया है।
- WHO का वैश्विक स्वास्थ्य अनुमान दुनिया के सभी क्षेत्रों में बीमारियों और चोटों के कारण होने वाली मौतों तथा स्वास्थ्य की हानि का व्यापक व तुलनात्मक मूल्यांकन करता है।
- वैश्विक स्वास्थ्य अनुमान का नवीनतम आँकड़ा वर्ष 2000 से 2019 के बीच की अवधि का है।
- यह अनुमान WHO के टेन थ्रेट्स टू ग्लोबल हेल्थ (Ten Threats to Global Health) रिपोर्ट 2019 के अनुरूप है।
प्रमुख बिंदु
वैश्विक स्वास्थ्य अनुमान 2019 के प्रमुख बिंदु:
- मृत्यु के शीर्ष दस कारण: इसमें इस्केमिक (Ischaemic) हृदय रोग, आघात, चिरकालिक अवरोधी फुप्फुस (Chronic Obstructive Pulmonary) रोग, निचला श्वसन तंत्र संक्रमण (Lower Respiratory Tract Infection), नवजात में होने वाला पीलिया, श्वास नलिका, श्वसन और फेफड़ों का कैंसर, अल्ज़ाइमर रोग और मनोभ्रंश (Dementias), डायरिया, डायबिटीज़ मेलिटस (Mellitus) और किडनी संबंधी रोग शामिल हैं।
- गैर-संचारी रोग: विश्व में शीर्ष 10 में से 7 मौतें इसके कारण होती हैं। इसने वर्ष 2000 की अवधि में मौजूद 10 प्रमुख कारणों में से 4 कारणों की वृद्धि की है।
- हृदय रोग: यह अब सभी कारणों से होने वाली कुल मौतों का 16% हो गया है और हृदय रोग से होने वाली मौतों की संख्या वर्ष 2000 के बाद से 2 मिलियन से अधिक बढ़कर 2019 में लगभग 9 मिलियन हो गई है।
- अल्ज़ाइमर रोग और मनोभ्रंश के अन्य रूप: इस मामले में अमेरिका और यूरोप दोनों सयुंक्त रूप से वर्ष 2019 में तीसरे स्थान पर रहे।
- महिलाओं पर प्रभाव: विश्व स्तर पर अल्ज़ाइमर और मनोभ्रंश के विविध रूपों से लगभग 65% महिलाएँ प्रभावित हैं।
- डायबिटीज़: वर्ष 2000 - 2019 के बीच वैश्विक स्तर पर डायबिटीज़ से होने वाली मौतों में 70% की वृद्धि हुई, जिसमें 80% मौत का आँकड़ा पुरुषों का है।
- पूर्वी भूमध्य सागरीय देशों में मधुमेह से होने वाली मौतें दोगुनी से अधिक हो गई हैं जो WHO द्वारा कवर किये जाने वाले सभी क्षेत्रों में सबसे अधिक वृद्धि को दर्शाता है।
- संचारी रोग: निम्न आय वाले देशों में मृत्यु के शीर्ष 10 कारणों में से 6 का कारण अभी भी संचारी रोग हैं, जिनमें मलेरिया (6वाँ), तपेदिक (8वाँ) और एड्स (9वाँ) शामिल हैं।
- निमोनिया और निचला श्वसन तंत्र संक्रमण: ये संचारी रोगों के सबसे घातक समूह में से एक थे और दोनों ही एक साथ मृत्यु के प्रमुख कारण के रूप में चौथे स्थान पर सूचीबद्ध थे।
- हालाँकि वर्ष 2000 की तुलना में निचला श्वसन तंत्र संक्रमण के करण होने वाली मौतों के मामलों में गिरावट (वैश्विक स्तर पर मौतों की संख्या में लगभग 5 लाख की कमी) देखी गई।
- यह कमी संचारी रोगों से होने वाली मौतों के प्रतिशत में सामान्य वैश्विक गिरावट के अनुरूप है।
- एड्स (AIDS): यह वर्ष 2000 में मृत्यु का 8वाँ प्रमुख कारण था जो 2019 में 19वें स्थान पर पहुँच गया, यह पिछले दो दशकों में इसके संक्रमण को रोकने, वायरस के परीक्षण और इस बीमारी के उपचार के प्रयासों की सफलता को दर्शाता है।
- यह अफ्रीका में मृत्यु का चौथा प्रमुख कारण है, हालाँकि इससे होने वाली मौतों की संख्या में आधे से अधिक की कमी आई है, जो कि अफ्रीका में वर्ष 2000 में 1 मिलियन से अधिक थी परंतु यह आँकड़ा वर्ष 2019 में घटाकर 4,35,000 हो गया है।
- तपेदिक: तपेदिक वर्तमान में विश्व की शीर्ष 10 बीमारियों में शामिल नहीं है। तपेदिक से होने वाली मौतों के मामलों में 30% की गिरावट के साथ यह वर्ष 2000 के 7वें स्थान से गिरकर 2019 में 13वें स्थान पर पहुँच गई।
- हालाँकि अफ्रीका और दक्षिण-पूर्वी एशिया में मृत्यु के शीर्ष 10 कारकों में अभी भी इसका क्रमशः 8वाँ और 5वाँ स्थान है।
- निमोनिया और निचला श्वसन तंत्र संक्रमण: ये संचारी रोगों के सबसे घातक समूह में से एक थे और दोनों ही एक साथ मृत्यु के प्रमुख कारण के रूप में चौथे स्थान पर सूचीबद्ध थे।
- वर्तमान में गैर-संचारी रोग विश्व भर में अधिक मौतों का कारण बन रहे हैं, जबकि संचारी रोगों से होने वाली मौत के आँकड़ों में वैश्विक स्तर पर गिरावट आई है, हालाँकि संचारी रोग अभी भी निम्न और मध्यम आय वाले देशों में एक बड़ी चुनौती बने हुए हैं।
- जीवन प्रत्याशा में वृद्धि: कई अनुमान वर्ष 2019 में दीर्घायु (वर्ष 2000 की तुलना में 6 वर्ष अधिक) की बढ़ती प्रवृत्ति की पुष्टि करते हैं।
- वर्ष 2000 में दीर्घायु का वैश्विक औसत 67 वर्ष था जबकि यह वर्ष 2019 में यह 73 वर्ष देखा गया।
- नए अनुमानों से यह स्पष्ट है कि लोग अधिक वर्षों तक जीवित रह रहे हैं परंतु दिव्यांगता के मामलों में वृद्धि हुई है।
सुझाव:
- वर्तमान में हृदय रोग, कैंसर, मधुमेह और श्वास संबंधी बीमारियों की रोकथाम और उपचार के लिये सामूहिक रूप से और गहनता के साथ वैश्विक स्तर पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।
- सतत् विकास लक्ष्यों के एजेंडे के अनुरूप विश्व के सभी हिस्सों में बीमारियों और चोट (Injury) का उपचार और नियंत्रण सुनिश्चित करना।
- विश्व को गैर-संचारी रोगों की रोकथाम, निदान और उपचार सुनिश्चित करने की दिशा में तेज़ी से कदम बढ़ाने की ज़रूरत है।
- साथ ही वर्तमान में तात्कालिक रूप से प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में भी समान और समग्र रूप से सुधार की आवश्यकता है।
- स्पष्ट है कि मज़बूत प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल वह आधार है जिसके सहारे ही गैर-संचारी रोगों का मुकाबला करने से लेकर वैश्विक महामारी के प्रबंधन तक के प्रयासों को दिशा दी जा सकती है
- समय पर और प्रभावी निर्णय लेने में सहायता के लिये सरकार एवं अन्य हितधारकों द्वारा शीघ्र ही स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े डेटा और सूचना प्रणालियों में निवेश किया जाना चाहिये।
स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार हेतु भारतीय पहल:
- आयुष्मान भारत: यह केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई स्वास्थ्य क्षेत्र की एक प्रमुख योजना है, यह योजना सेवा वितरण के क्षेत्रीय और विभिन्न दृष्टिकोणों से हटकर ज़रूरत-आधारित व्यापक स्वास्थ्य देखभाल सेवा उपलब्ध कराने का प्रयास करती है।
- लक्ष्य: इस योजना को सरकार द्वारा देश में सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के उद्देश्य के साथ शुरू किया गया है।
- पोषण अभियान: इसका उद्देश्य तकनीकी के उपयोग के माध्यम से सेवाओं की आपूर्ति और अन्य आवश्यक हस्तक्षेप सुनिश्चित करना है। साथ ही इसके तहत अलग-अलग निगरानी मापदंडों के अंतर्गत प्राप्त किये जाने वाले विशिष्ट लक्ष्यों को रेखांकित किया गया है।
- राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन: यह एक पूर्ण डिजिटल स्वास्थ्य पारिस्थितिकी तंत्र है। इसे चार प्रमुख विशेषताओं- हेल्थ आईडी, व्यक्तिगत स्वास्थ्य रिकॉर्ड, डिजी डॉक्टर और स्वास्थ्य सुविधा रजिस्ट्री के साथ लॉन्च किया जाएगा।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चरम जलवायु घटनाएँ और भारत
चर्चा में क्यों?
काउंसिल ऑन एनर्जी, एन्वायरनमेंट एंड वाटर (CEEW) द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के 75 प्रतिशत से अधिक ज़िले चक्रवात, बाढ़, सूखा, हीट वेव और कोल्ड वेव जैसी चरम जलवायु घटनाओं के मुख्य हॉटस्पॉट हैं।
- यह रिपोर्ट ‘प्रिपेयरिंग इंडिया फॉर एक्सट्रीम क्लाइमेट इवेंट्स’ के नाम से प्रकाशित की गई है।
- यह पहली बार है जब देश में चरम जलवायु घटनाओं के हॉटस्पॉट का मानचित्रण किया गया है।
- CEEW सभी प्रकार के संसाधनों के उपयोग, पुनरुपयोग और दुरुपयोग को प्रभावित करने वाले सभी विषयों पर अनुसंधान हेतु समर्पित एक स्वतंत्र और गैर-लाभकारी नीति अनुसंधान संस्थान है।
- यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की उत्सर्जन गैप रिपोर्ट, 2020 के बाद जारी की गई है, ज्ञात हो कि संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने अपनी रिपोर्ट में चेताया है कि विश्व मौजूदा सदी में 3°C से अधिक तापमान वृद्धि की ओर बढ़ रहा है।
प्रमुख बिंदु
रिपोर्ट के निष्कर्ष
- बीते दशकों में चरम जलवायु घटनाएँ जैसे- बाढ़ और सूखा आदि की आवृत्ति, तीव्रता और अप्रत्याशितता काफी तेज़ी से बढ़ी हैं।
- जहाँ एक ओर भारत में वर्ष 1970-2005 के बीच 35 वर्षों में 250 चरम जलवायु घटनाएँ दर्ज की गईं, वहीं वर्ष 2005-2020 के बीच मात्र 15 वर्षों में इस तरह की 310 घटनाएँ दर्ज की गईं।
- वर्ष 2005 के बाद से चरम जलवायु घटनाओं में हुई वृद्धि के कारण भारत के 75 प्रतिशत से अधिक ज़िलों को संपत्ति, आजीविका और जीवन के नुकसान के साथ-साथ माइक्रो-क्लाइमेट में होने वाले बदलावों को वहन करना पड़ रहा है।
- यह पैटर्न वैश्विक परिवर्तन को भी प्रदर्शित करता है।
- जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप चरम जलवायु घटनाओं के चलते वर्ष 1999-2018 के बीच विश्व भर में 4,95,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।
- रिपोर्ट के मुताबिक, इस अवधि के दौरान संपूर्ण विश्व में 12000 से अधिक चरम जलवायु घटनाएँ दर्ज की गईं और इसके कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को 3.54 बिलियन अमेरिकी डॉलर (क्रय शक्ति समता या PPP के संदर्भ में) के नुकसान का सामना करना पड़ा।
- मौजूदा भयावह जलवायु परिवर्तन घटनाएँ बीते 100 वर्षों में केवल 0.6 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि का परिणाम हैं, इस तरह यदि भविष्य में तापमान में और अधिक वृद्धि होती है तो हमें इससे भी भयानक घटनाएँ देखने को मिल सकती हैं।
- भारत पहले से ही चरम जलवायु घटनाओं के मामले में वैश्विक स्तर पर 5वाँ सबसे संवेदनशील देश है।
चक्रवात
- आँकड़ों के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि वर्ष 2005 के बाद से चक्रवातों से प्रभावित ज़िलों की वार्षिक औसत संख्या तथा चक्रवातों की आवृत्ति तकरीबन दोगुनी हो गई है।
- बीते एक दशक में पूर्वी तट के लगभग 258 ज़िले चक्रवात से प्रभावित हुए हैं।
- पूर्वी तट में लगातार गर्म होते क्षेत्रीय माइक्रो-क्लाइमेट, भूमि-उपयोग में परिवर्तन और निर्वनीकरण ने चक्रवातों की संख्या में बढ़ोतरी करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
बाढ़
- वर्ष 2000-2009 के बीच भीषण बाढ़ और उससे संबंधित अन्य घटनाओं में तीव्र वृद्धि दर्ज की गई और इस दौरान बाढ़ के कारण तकरीबन 473 ज़िले प्रभावित हुए।
- बाढ़ से संबंधित अन्य घटनाओं जैसे- भूस्खलन, भारी वर्षा, ओलावृष्टि, गरज और बादल फटने आदि घटनाओं में 20 गुना से अधिक की वृद्धि हुई है।
- भूस्खलन, ‘अर्बन हीट लैंड’ और हिमनदों के पिघलने के कारण समुद्र स्तर में हो रही वृद्धि के प्रभावस्वरूप बाढ़ की घटनाओं में भी बढ़ोतरी हो रही है।
- ‘अर्बन हीट लैंड’ वह सघन जनसंख्या वाला नगरीय क्षेत्र होता है, जिसका तापमान उपनगरीय या ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में 2°C अधिक होता है।
- जहाँ एक ओर मानसून के दौरान वर्षा वाले दिनों की संख्या में कमी आई है, वहीं दूसरी ओर चरम वर्षा की घटनाओं में वृद्धि हो रही है, जिससे बाढ़ की घटनाओं में भी बढ़ोतरी हो रही है।
- पिछले एक दशक में भारत के आठ सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित ज़िलों में से छह ज़िले (बारपेटा, दारंग, धेमाजी, गोवालपारा, गोलाघाट और शिवसागर) अकेले असम में स्थित हैं।
सूखा
- रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2005 के बाद सूखा प्रभावित ज़िलों का वार्षिक औसत 13 गुना अधिक बढ़ गया है।
- वर्ष 2005 तक भारत में सूखे से प्रभावित ज़िलों की संख्या मात्र छह थी, जो कि वर्ष 2005 के बाद से बढ़कर 79 हो गई है।
- यद्यपि सूखे के कारण होने वाले जनजीवन के नुकसान में काफी कमी आई है, किंतु इस प्रकार की घटनाओं के चलते कृषि और ग्रामीण आजीविका के क्षेत्र में अनिश्चितता की स्थिति पैदा हो गई है।
- पिछले एक दशक में भारत के सूखा प्रभावित ज़िलों में अहमदनगर, औरंगाबाद (दोनों महाराष्ट्र), अनंतपुर, चित्तूर (दोनों आंध्र प्रदेश), बागलकोट, बीजापुर, चिक्काबल्लापुर, गुलबर्गा, और हासन (सभी कर्नाटक) आदि शामिल हैं।
कमज़ोर मानसून
- विश्लेषण से माइक्रो-तापमान में वृद्धि और मानसून के कमज़ोर होने के संबंध का पता चलता है।
- इस तथ्य की पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि महाराष्ट्र, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को वर्ष 2015 में भीषण गर्मी और कमज़ोर मानसून के कारण पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ा था।
चरम जलवायु घटनाओं के पैटर्न में बदलाव
- इस अध्ययन के दौरान चरम जलवायु घटनाओं के पैटर्न में बदलाव भी पाया गया है, उदाहरण के लिये भारत के 40 प्रतिशत बाढ़-ग्रस्त ज़िलों की स्थिति अब सूखाग्रस्त है, जबकि सूखाग्रस्त ज़िलों के बाढ़-ग्रस्त होने की जानकारी मिल रही है।
- यह बदलाव दो प्रकार से देखा जा रहा है-
- कुछ मामलों में जिन ज़िलों में बाढ़ की आशंका थी, वे अब सूखाग्रस्त हो रहे हैं और जहाँ सूखे की आशंका थी वे अब बाढ़ से प्रभावित हो रहे हैं।
- वहीं भारत के कई ज़िलों को बाढ़ और सूखा दोनों ही घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है। विश्लेषकों के मुताबिक, यह प्रवृत्ति काफी गंभीर है और इस विषय पर आगे अनुसंधान किये जाने की आवश्यकता है।
- भारत के तटीय दक्षिणी राज्यों में सूखे की घटनाएँ काफी तेज़ी से दर्ज की जा रही हैं।
- इसके अलावा बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और तमिलनाडु के कई ज़िलों में बाढ़ और सूखे की स्थिति एक ही मौसम के दौरान दर्ज जा रही है।
सुझाव
- अर्बन हीट स्ट्रेस, जल तनाव और जैव विविधता के नुकसान जैसी महत्त्वपूर्ण सुभेद्यताओं का प्रतिचित्रण करने के लिये एक जलवायु जोखिम एटलस (Develop a Climate Risk Atlas) विकसित किया जाना चाहिये।
- आपात स्थितियों के प्रति व्यवस्थित और निरंतर प्रतिक्रिया सुनिश्चित करने के लिये एक एकीकृत आपातकालीन निगरानी प्रणाली विकसित की जानी चाहिये।
- स्थानीय, क्षेत्रीय, मैक्रो और माइक्रो-क्लाइमैटिक स्तर सहित सभी स्तरों पर जोखिम मूल्यांकन किया जाना चाहिये।
- जोखिम मूल्यांकन प्रक्रिया में सभी हितधारकों की भागीदारी अनिवार्य हो।
- स्थानीय, उप-राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर की योजनाओं में जोखिम मूल्यांकन को एकीकृत किया जाना चाहिये।
माइक्रो-क्लाइमैटिक ज़ोन शिफ्टिंग
- माइक्रो-क्लाइमैटिक ज़ोन का आशय ऐसे क्षेत्र से है, जहाँ का मौसम आस-पास के क्षेत्रों से भिन्न होता है। भारत के अलग-अलग ज़िलों में माइक्रो-क्लाइमैटिक ज़ोन की स्थिति में परिवर्तन आ रहा है।
- माइक्रो-क्लाइमैटिक ज़ोन में बदलाव के कारण संपूर्ण क्षेत्र में व्यवधान पैदा हो सकता है।
- उदाहरण के लिये वार्षिक औसत तापमान में मात्र 2 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के कारण कृषि उत्पादकता में 15-20 प्रतिशत की कमी आ सकती है।
- कारण: इसके कारणों में भूमि उपयोग में बदलाव, निर्वनीकरण, अतिक्रमण के कारण आर्द्रभूमि एवं प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों को होने वाला नुकसान और अर्बन हीट लैंड आदि शामिल हैं।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
सिंधु घाटी सभ्यता का आहार
चर्चा में क्यों?
हाल ही में जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस (Journal of Archaeological Science) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों के आहार में मांस का प्रभुत्व था, जिसमें गोमांस व्यापक रूप में शामिल था।
प्रमुख बिंदु
- सिंधु घाटी सभ्यता के बर्तनों पर पाए गए चर्बी के अवशेषों पर यह शोध किया गया। इनमें सुअरों, मवेशियों, भैंसों, भेड़ों और बकरियों के मांस की अधिकता मिली। प्राचीन उत्तर-पश्चिमी भारत के शहरी और ग्रामीण इलाकों में मिले पुरातन बर्तनों में दूध से बनी कई चीज़ों के अवशेष भी पाए गए। वर्तमान में यह इलाका हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पड़ता है।
- आलमगीरपुर (मेरठ), उत्तर प्रदेश
- हरियाणा:
- मसूदपुर, लोहारीराघो, राखीगढ़ी शहर (हिसार)
- खानक (भिवानी), फरमाना शहर (रोहतक)
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निष्कर्ष:
- अध्ययन में सिंधु घाटी सभ्यता के ग्रामीण और शहरी बस्तियों से पशु उत्पाद जैसे कि सूअर का मांस, मवेशी, भैंस, भेड़ और बकरी के साथ-साथ डेयरी उत्पादों का प्रभुत्व पाया गया है।
- घरेलू पशुओं में मवेशी/भैंस प्रचुर मात्रा में पाई जाती थीं क्योंकि इस समय के प्राप्त कुल जानवरों की हड्डियों में से 50-60% इन्ही के हैं और शेष 10% हड्डियाँ भेड़/बकरी से संबंधित हैं।
- सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त मवेशी की हड्डियों का उच्च अनुपात भोजन के रूप में गोमांस का इस्तेमाल किये जाने की पुष्टि करता है।
- हड़प्पा में 90% मवेशियों को तब तक जीवित रखा जाता था जब तक कि वे तीन या साढ़े तीन साल के नहीं हो जाते थे। मादा का उपयोग डेयरी उत्पादन के लिये किया जाता था, जबकि नर का इस्तेमाल गाड़ी खीचने के लिये किया जाता था।
- सिंधु घाटी सभ्यता में भोजन की आदत पर पहले भी कई अध्ययन हुए हैं लेकिन इन अध्ययनों का मुख्य ध्यान फसलों पर केंद्रित था।
सिंधु घाटी सभ्यता
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समयसीमा:
- हड़प्पाई लिपि का प्रथम उदाहरण लगभग 3000 ई.पू के समय का मिलता है। 2600 ई.पू. तक सिंधु घाटी सभ्यता अपनी परिपक्व अवस्था में प्रवेश कर चुकी थी। सिंधु घाटी सभ्यता के क्रमिक पतन का आरंभ 1800 ई.पू. से माना जाता है,1700 ई.पू. तक आते-आते हड़प्पा सभ्यता के कई शहर समाप्त हो चुके थे।
- हड़प्पा नामक स्थान पर पहली बार यह संस्कृति खोजी गई थी, इसलिये इसका नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया है।
- हड़प्पाई लिपि का प्रथम उदाहरण लगभग 3000 ई.पू के समय का मिलता है। 2600 ई.पू. तक सिंधु घाटी सभ्यता अपनी परिपक्व अवस्था में प्रवेश कर चुकी थी। सिंधु घाटी सभ्यता के क्रमिक पतन का आरंभ 1800 ई.पू. से माना जाता है,1700 ई.पू. तक आते-आते हड़प्पा सभ्यता के कई शहर समाप्त हो चुके थे।
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भौगोलिक विस्तार:
- भौगोलिक रूप से यह सभ्यता पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैली थी।
- इनमें सुत्काग्गोर (बलूचिस्तान में) से पूर्व में आलमगीरपुर (पश्चिमी यूपी) तक तथा उत्तर में मांडू (जम्मू) से दक्षिण में दायमाबाद (अहमदनगर, महाराष्ट्र) तक के क्षेत्र शामिल थे।
- कुछ सिंधु घाटी स्थल अफगानिस्तान में भी पाए गए हैं।
- भौगोलिक रूप से यह सभ्यता पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैली थी।
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महत्त्वपूर्ण स्थल:
- भारत में: कालीबंगा (राजस्थान), लोथल, धोलावीरा, रंगपुर, सुरकोटदा (गुजरात), बनावली (हरियाणा), रोपड़ (पंजाब)।
- पाकिस्तान में: हड़प्पा (रावी नदी के तट पर), मोहनजोदड़ो (सिंध में सिंधु नदी के तट पर), चन्हुदड़ो (सिंध में)।
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कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ:
- सिंधु घाटी के शहरों में परिष्करण और उन्नति का स्तर देखा जा सकता है जो उसके समकालीन अन्य सभ्यताओं में नहीं देखा जाता।
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नगर योजना:
- अधिकांश शहरों का स्वरूप समान था। इसमें दो भाग थे: एक गढ़ और एक निचला शहर जो समाज में पदानुक्रम की उपस्थिति को दर्शाता है।
- अधिकांश नगरों में एक महान स्नानागार था।
- यहाँ से पकी ईंटों से बने 2-मंजिला घर, बंद जल निकासी नालियाँ, अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली, माप के लिये वज़न, खिलौने, बर्तन आदि के भी साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
- इसके अलावा बड़ी संख्या में मुहरों की खोज भी की गई है।
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कृषि:
- यह कपास की खेती करने वाली पहली सभ्यता थी।
- हड़प्पाई लोग बहुत सारे पशु पालते थे, वे भेड़, बकरी और सूअर आदि से परिचित थे।
- यहाँ की प्रमुख फसलें गेहूँ, जौ, कपास, रागी, खजूर और मटर थीं।
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व्यापार तथा वाणिज्य:
- सिंधु सभ्यता के लोगों के जीवन में व्यापार और वाणिज्य का बड़ा महत्त्व था इसकी पुष्टि हड़प्पा, लोथल और मोहनजोदड़ों से हुई है।
- सिंधु और मेसोपोटामिया के मध्य व्यापार उन्नत अवस्था में था।
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धातु उत्पाद:
- इन्हें तांबा, काँसा, टिन और सीसा का ज्ञान था इसके अलावा सोने और चाँदी से भी परिचित थे।
- इन्हें लोहे का ज्ञान नहीं था।
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धार्मिक आस्था:
- मंदिरों या महलों जैसी कोई संरचना नहीं पाई गई है।
- पुरुष और महिला देवताओं की पूजा की जाती थी।
- यहाँ से प्राप्त 'पशुपति शिव की मुहर’ विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस मुहर में एक त्रिमुखी पुरुष को एक चौकी पर पद्मासन मुद्रा में बैठे हुए दिखाया गया है।
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मृद्भांड:
- यहाँ पाए गए मृद्भांड अधिकांशतः लाल अथवा गुलाबी रंग के हैं, इन पर प्राय: काले रंग से अलंकरण किया गया है।
- काँचली मृदा (फायंस) का उपयोग मनकों, चूड़ियों, बालियों और जहाज़ों के निर्माण में किया जाता था।
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कला के रूप:
- मोहनजोदड़ो से 'नर्तकी’ की एक लघु प्रतिमा मिली है, माना जाता है कि यह 4000 वर्ष पुरानी है।
- मोहनजोदड़ो से एक दाढ़ी वाले पुरोहित- राजा की मूर्ति भी मिली है।
- लोथल एक डॉकयार्ड (जहाज़ बनाने का स्थान) था।
- मृतकों को लकड़ी के ताबूतों में दफनाया जाता था।
- सिंधु घाटी लिपि को अभी तक नहीं पढ़ा जा सका है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
अंतर्राष्ट्रीय भारती महोत्सव 2020
चर्चा में क्यों?
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमिलनाडु के वनाविल कल्चरल सेंटर द्वारा वर्चुअल माध्यम से आयोजित अंतर्राष्ट्रीय भारती महोत्सव 2020 को संबोधित किया।
- यह कार्यक्रम तमिल भाषा के कवि और लेखक महाकवि सुब्रह्मण्य भारती की 138वीं जयंती (11 दिसंबर 2020) के उपलक्ष में आयोजित किया गया है।
- इस कार्यक्रम के दौरान विद्वान सीनी विश्वनाथन को वर्ष 2020 के भारती पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
प्रमुख बिंदु:
- सुब्रह्मण्य भारती
- जन्म: सुब्रह्मण्य भारती का जन्म 11 दिसंबर, 1882 को तमिलनाडु के तिरूनेलवेल्ली ज़िले में एट्टियापुरम गाँव (तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी) में हुआ था।
- संक्षिप्त परिचय: वे राष्ट्रवादी काल (1885-1920) के एक उत्कृष्ट भारतीय लेखक थे, जिन्हें आधुनिक तमिल शैली का जनक भी माना जाता है। इन्होंने तमिल साहित्य में एक नए युग का सूत्रपात करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
- सुब्रह्मण्य भारती को ‘महाकवि भारतियार’ के नाम से भी जाना जाता है।
- सामाजिक न्याय के प्रति उनकी दृढ़ भावना ने उन्हें स्वाधीनता के लिये लड़ने हेतु प्रेरित किया।
- राष्ट्रवादी काल के दौरान भागीदारी
- वर्ष 1904 के बाद वे तमिल भाषा के दैनिक समाचार पत्र ‘स्वदेशमित्रन’ में बतौर पत्रकार शामिल हो गए।
- इस दौरान उन्हें तत्कालीन भारत की दयनीय स्थिति और स्वाधीनता के लिये किये जा रहे प्रयासों के बारे में जानने का अवसर प्राप्त हुआ, जिसके बाद वे भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस के अतिवादी हिस्से यानी गरमदल में शामिल हो गए।
- सुब्रह्मण्य भारती ने स्वाधीनता आंदोलन में अपने क्रांतिकारी आगमन की घोषणा करते हुए मई 1906 में ‘इंडिया’ नाम से एक तमिल साप्ताहिक अखबार का प्रकाशन आरंभ किया।
- ज्ञात हो कि यह राजनीतिक कार्टून प्रकाशित करने वाला तमिलनाडु का पहला अखबार था।
- इसके अलावा उन्होंने ‘विजया’ जैसी कुछ अन्य पत्रिकाओं का प्रकाशन और संपादन भी किया।
- उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों में हिस्सा लिया और इस दौरान बिपिन चंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक और सुब्रमण्य अय्यर जैसे कई अन्य अतिवादी नेताओं के साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर वार्ता की।
- भारती ने जब भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस के बनारस अधिवेशन (1905) और सूरत अधिवेशन (1907) में हिस्सा लिया तो काॅन्ग्रेस के कई बड़े और प्रमुख नेता उनसे काफी प्रभावित हुए।
- वर्ष 1908 में इनकी एक क्रांतिकारी रचना ‘स्वदेश गीतांगल’ प्रकाशित हुई।
- वर्ष 1917 की ‘रूसी क्रांति’ को लेकर लिखी गई सुब्रह्मण्य भारती की कविता ‘नया रूस’ (हिंदी अनुवादित) उनके राजनीतिक दर्शन का एक प्रमुख उदाहरण प्रस्तुत करती है।
- उनको अपने क्रांतिकारी स्वभाव के कारण पांडिचेरी (वर्तमान पुद्दुचेरी) जाना पड़ा, जहाँ वे वर्ष 1910 से वर्ष 1919 तक निर्वासन में रहे।
- इस समय तक भारती की राष्ट्रवादी कविताएँ और निबंध काफी लोकप्रिय हो चुके थे।
- वर्ष 1904 के बाद वे तमिल भाषा के दैनिक समाचार पत्र ‘स्वदेशमित्रन’ में बतौर पत्रकार शामिल हो गए।
- महत्त्वपूर्ण कृतियाँ: सुब्रह्मण्य भारती की प्रसिद्ध रचनाओं में शामिल हैं- कन्नम पट्टू (वर्ष 1917- कृष्ण गीत), पांचाली सबतम (वर्ष 1912- पांचाली का स्वर), कुयिल पट्टु (वर्ष 1912- कोयला का गीत) और पुडिया रूस (नया रूस) आदि शामिल हैं।
- मृत्यु: 11 सितंबर, 1921
मौजूदा समय में महत्त्व
- प्रगति को लेकर सुब्रह्मण्य भारती की परिभाषा में महिलाओं को केंद्रीय भूमिका में रखा गया है। उन्होंने लिखा है कि ‘महिलाओं को अपना सर उठाकर, लोगों से नज़र मिलाते हुए चलना चाहिये।’ इससे महिला अधिकारों और लैंगिक समानता के प्रति उनके दृष्टिकोण का पता चलता है।
- सरकार इस दृष्टिकोण से प्रेरित होकर महिला सशक्तीकरण की दिशा में कई महत्त्वपूर्ण कदम उठा रही है।
- वे प्राचीन और आधुनिक मान्यताओं के संतुलित मिश्रण पर विश्वास करते थे, जो कि समाज की प्रगति के लिये वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता को इंगित करता है।
भारती पुरस्कार
- भारती पुरस्कार की स्थापना वर्ष 1994 में वनाविल कल्चरल सेंटर द्वारा की गई थी।
- प्रत्येक वर्ष यह पुरस्कार एक ऐसे व्यक्ति को प्रदान किया जाता है, जिसने सामाजिक प्रासंगिकता के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य करते हुए सुब्रह्मण्य भारती के सपनों को पूरा करने की दिशा में उल्लेखनीय योगदान दिया हो।
स्रोत: पी.आई.बी.
भारत-उज़्बेकिस्तान आभासी शिखर सम्मेलन
चर्चा में क्यों?
हाल ही भारत और उज़्बेकिस्तान के बीच आयोजित एक आभासी शिखर सम्मेलन के दौरान दोनों देशों द्वारा नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा, डिजिटल प्रौद्योगिकी तथा साइबर सुरक्षा जैसे कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने की बात कही गई।
- इस सम्मेलन के दौरान हुए समझौते में अफगानिस्तान में कनेक्टिविटी परियोजनाओं पर सहयोग एवं इसकी शांति प्रक्रिया, ईरान के साथ त्रिपक्षीय बातचीत, आतंकवाद का मुकाबला, आदि जैसे मुद्दों को शामिल किया गया।
प्रमुख बिंदु:
- व्यापार, आर्थिक और निवेश सहयोग:
- इस बैठक के दौरान दोनों देशों ने द्विपक्षीय व्यापार के लिये पारस्परिक रूप से चिह्नित 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रयासों को तेज़ करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की।
- गौरतलब है कि वर्ष 2018 में भारत और उज़्बेकिस्तान का द्विपक्षीय व्यापार लगभग 285 मिलियन अमेरिकी डॉलर का रहा जो, दोनों देशों की क्षमता से बहुत कम है।
- इसके साथ ही दोनों देशों ने अपने अधिकारियों को वर्तमान में चल रहे संयुक्त व्यवहार्यता अध्ययन को शीघ्र ही पूरा करने का निर्देश दिया। गौरतलब है कि यह अध्ययन अधिमान्य व्यापार समझौता की वार्ताओं को दिशा प्रदान करेगा।
- दोनों पक्षों ने शीघ्र ही द्विपक्षीय निवेश संधि पर कार्य करने की बात कही, जो दोनों देशों के बीच व्यापार और आर्थिक सहयोग को मज़बूत करने के साथ निवेश को प्रोत्साहित करने तथा सुरक्षा सुनिश्चित करने में सहायक होगी।
- दोनों पक्षों ने भारत और उज़्बेकिस्तान के मुक्त आर्थिक क्षेत्रों में बेहतर अवसरों की संभावनाओं को स्वीकार किया। जिसमें जिसमें अंदिजान क्षेत्र (सुदूर पूर्वी उज़्बेकिस्तान में फरगना घाटी का पूर्वी भाग) में उज़्बेक-भारतीय मुक्त फार्मास्युटिकल क्षेत्र भी शामिल है।
- उज़्बेकिस्तान ने मेक-इन-इंडिया कार्यक्रम के तहत भारत में निवेश/विनिर्माण के अवसरों का स्वागत किया।
- गौरतलब है कि वर्ष 2018 में भारत और उज़्बेकिस्तान का द्विपक्षीय व्यापार लगभग 285 मिलियन अमेरिकी डॉलर का रहा जो, दोनों देशों की क्षमता से बहुत कम है।
- इस बैठक के दौरान दोनों देशों ने द्विपक्षीय व्यापार के लिये पारस्परिक रूप से चिह्नित 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रयासों को तेज़ करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की।
- विकास सहयोग:
- भारत ने उज़्बेकिस्तान में चार विकासात्मक परियोजनाओं (सड़क निर्माण, सीवरेज उपचार और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में) के लिये 448 मिलियन अमेरिकी डॉलर के लाइन ऑफ क्रेडिट की मंज़ूरी की पुष्टि की है।
-
रक्षा और सुरक्षा:
- दोनों देशों ने फरवरी 2019 में रक्षा सहयोग पर संयुक्त कार्यसमूह की पहली बैठक के आयोजन के बाद से द्विपक्षीय रक्षा सहयोग की बढ़ी हुई गति की सराहना की।
- दोनों पक्षों ने संयुक्त सैन्य अभ्यास "दुस्त्लिक 2019" (Dustlik 2019) के आयोजन का स्वागत किया।
- ‘आतंकवाद निरोध पर उज़्बेकिस्तान-भारत संयुक्त कार्य समूह’ (Uzbekistan-India Joint Working Group on Counter-Terrorism) के ढाँचे के साथ अन्य प्रणालियों के तहत कानून प्रवर्तन एजेंसियों तथा दोनों देशों की विशेष सेवाओं के बीच सहयोग को और मज़बूत करने पर सहमति व्यक्त की।
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असैन्य परमाणु ऊर्जा:
- परमाणु ऊर्जा भागीदारी के लिये भारत के वैश्विक केंद्र (GCNEP)और परमाणु ऊर्जा के विकास एजेंसी, उज़्बेकिस्तान के बीच हुए द्विपक्षीय समझौते का स्वागत किया।
- GCNEP परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) के तत्त्वावधान में छठी अनुसंधान और विकास (R&D) इकाई है,जो इच्छुक देशों और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के सहयोग से क्षमता निर्माण में सहायता करती है।
- परमाणु ऊर्जा भागीदारी के लिये भारत के वैश्विक केंद्र (GCNEP)और परमाणु ऊर्जा के विकास एजेंसी, उज़्बेकिस्तान के बीच हुए द्विपक्षीय समझौते का स्वागत किया।
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संपर्क (Connectivity):
- दोनों पक्षों ने व्यापार और निवेश को बढ़ाने के लिये भारत और उज़्बेकिस्तान के साथ मध्य एशियाई क्षेत्र के बड़े भाग से संपर्क बढ़ाने की प्रतिबद्धता को दोहराया।
- भारत ने चाबहार बंदरगाह के माध्यम से संपर्क को बढ़ावा देने के लिये भारत, ईरान और उज़्बेकिस्तान के बीच त्रिपक्षीय वार्ता आयोजित करने के प्रस्ताव का स्वागत किया।
- भारत ने उज़्बेकिस्तान से ‘अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे’ (INSTC) में शामिल होने पर विचार करने का भी अनुरोध किया, जो बड़े यूरेशियन क्षेत्र में संपर्क के समग्र सुधार को और अधिक मज़बूती प्रदान करेगा।
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संस्कृति, शिक्षा और जन संपर्क:
- भारत ने उज़्बेकिस्तान को ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद’ (ICCR) द्वारा प्रदान की जाने वाली छात्रवृत्ति और ‘भारतीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग’ (ITEC) कार्यक्रम के तहत प्रशिक्षण एवं क्षमता निर्माण के अवसरों में वृद्धि का लाभ लेने के लिये आमंत्रित किया।
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आतंकवाद:
- दोनों पक्षों ने सभी रूपों में आतंकवाद की कड़ी निंदा की और आतंकवादियों के सुरक्षित ठिकाने, नेटवर्क, बुनियादी ढाँचे और फंडिंग चैनलों को नष्ट करते हुए इस खतरे से निपटने के दृढ़ संकल्प की पुष्टि की।
- दोनों पक्षों ने विश्व के सभी देशों द्वारा यह सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता को रेखांकित किया कि उसके क्षेत्र का उपयोग किसी अन्य देशों के खिलाफ आतंकवादी हमले के लिये न किया जाए साथ ही ‘अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक सम्मेलन’ (CCIT) को शीघ्र ही अंतिम रूप दिये जाने की मांग की।
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अफगानिस्तान:
- दोनों पक्षों ने अफगान-नेतृत्त्व, अफगान-स्वामित्त्व और अफगान-नियंत्रित शांति प्रक्रिया के सिद्धांत पर अफगान संघर्ष के निपटारे का आह्वान किया तथा एक ‘एकजुट, संप्रभु और लोकतांत्रिक अफगानिस्तान इस्लामिक गणराज्य’ के समर्थन में मतैक्य व्यक्त किया।
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बहुपक्षवाद से जुड़े सुधार:
- दोनों पक्षों ने वैश्विक शांति और सुरक्षा को बनाए रखने हेतु संयुक्त राष्ट्र द्वारा केंद्रीय भूमिका निभाने की अनिवार्यता की बात दोहराई और साथ ही सुरक्षा परिषद सहित संयुक्त राष्ट्र संरचनाओं के व्यापक सुधार (दोनों श्रेणियों की सदस्यता में विस्तार के साथ) का भी आह्वान किया।
- उज़्बेकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता हेतु भारत की उम्मीदवारी के लिये अपने समर्थन की पुष्टि की और भारत को वर्ष 2021-22 के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के गैर-स्थायी सदस्य के रूप में चुने जाने पर बधाई दी।
- भारत ने उज़्बेकिस्तान के पक्ष को वर्ष 2021-23 की अवधि के लिये संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के चुनाव में सफल होने की बधाई दी।
- दोनों देशों ने ‘शंघाई सहयोग संगठन’ (SCO) में अपने घनिष्ठ सहयोग की सराहना की।
- गौरतलब है कि SCO में शामिल होने के बाद भारत ने नवंबर 2020 में पहली बार SCO राष्ट्राध्यक्षों की परिषद की पहली बैठक की मेज़बानी की।
- भारत ने अफगानिस्तान की भागीदारी के साथ विदेश मंत्रियों के स्तर पर द्वितीय भारत-मध्य एशिया वार्ता के सफल आयोजन में उज़्बेकिस्तान के समर्थन की सराहना की।
- गौरतलब है कि उज़्बेकिस्तान ‘इस्लामिक सहयोग संगठन’ (OIC) का एक सदस्य है, जो संयुक्त राष्ट्र के बाद दूसरा सबसे बड़ा अंतर-सरकारी संगठन है।
- भारत OIC का सदस्य नहीं है, हालाँकि भारत को वर्ष 2019 में OIC के विदेश मंत्री परिषद के 46 वें सत्र में सम्मानित अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था।
-
Covid-19 महामारी:
- दोनों पक्षों ने प्रभावी टीकों और अन्य दवाओं के विकास और वितरण सहित महामारी के खिलाफ लड़ाई जारी रखने के लिये द्विपक्षीय तथा वैश्विक सहयोग को बढ़ाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।.
- उज़्बेकिस्तान ने COVID-19 महामारी से लड़ने में भारत द्वारा उपलब्ध कराई गई सहायता के लिये धन्यवाद दिया तथा भारत ने भी इस संदर्भ में अपनी प्रतिबद्धता को जारी रखने की बात दोहराई।
आगे की राह:
- हाल के वर्षों में विभिन्न द्विपक्षीय यात्राओं के दौरान हुए समझौतों ने भारत और उज़्बेकिस्तान के बीच राजनीति, व्यापार, निवेश, रक्षा, सुरक्षा, आतंकवाद-रोधी, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष, सूचना प्रौद्योगिकी जैसे विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग को मज़बूत किया है साथ ही दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक संबंधों को बढ़ावा मिला है।
- दोनों देशों ने आभासी शिखर सम्मेलन के दौरान हुई सकारात्मक चर्चाओं के लिये एक-दूसरे को धन्यवाद दिया और साथ ही यह विश्वास भी व्यक्त किया कि इस सम्मेलन के दौरान दोनों देशों के बीच स्थापित समझ और समझौते भारत तथा उज़्बेकिस्तान में लोगों की भलाई एवं आपसी समृद्धि के लिये रणनीतिक साझेदारी को और गहरा करेंगे।
स्रोत: द हिंदू
परिसीमन के लिये सुझाव
चर्चा में क्यों?
हाल ही में एक गैर-सरकारी संस्था प्रणब मुखर्जी फाउंडेशन (Pranab Mukherjee Foundation- PMF) ने अगले परिसीमन के लिये सुझाव दिये हैं।
- परिसीमन से तात्पर्य किसी राज्य में विधानसभा और लोकसभा चुनावों के लिये निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं का निर्धारण करना है।
प्रमुख बिंदु:
- सुझाव: अगले परिसीमन में निम्नलिखित प्रक्रिया होनी चाहिये:
- राज्यों की सीमा निर्धारित करने के लिये वर्ष 2031 की जनगणना के अनुसार, एक परिसीमन आयोग का गठन किया जाना चाहिये और जनसंख्या के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश करनी चाहिये।
- परिसीमन आयोग की सिफारिशों को प्रभावी बनाने के लिये राज्यों को छोटे राज्यों में विभाजित कर एक राज्य पुनर्गठन अधिनियम लाया जाना चाहिये।
- वर्तमान परिदृश्य:
- वर्ष 2002 में संविधान के 84वें संशोधन ने वर्ष 2026 के बाद होने वाली पहली जनगणना तक लोकसभा और राज्य विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन पर रोक लगा दी थी।
- वर्तमान सीमाएँ वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर निर्धारित की गई हैं, लोकसभा और राज्य विधानसभा सीटों की संख्या वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर ही स्थिर रही।
- पिछली जनगणना के अनुसार जनसंख्या 50 करोड़ थी, जो 50 वर्षों में 130 करोड़ हो गई है, जिससे देश में राजनीतिक प्रतिनिधित्व में भारी विषमता आई है।
परिसीमन आयोग (Delimitation Commission)
- परिसीमन आयोग को भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और यह भारतीय निर्वाचन आयोग के सहयोग से काम करता है।
- परिसीमन आयोग को सीमा आयोग (Boundary Commission) के नाम से भी जाना जाता है।
- प्रत्येक जनगणना के बाद भारत की संसद द्वारा संविधान के अनुच्छेद-82 के तहत एक परिसीमन अधिनियम लागू किया जाता है
परिसीमन का उद्देश्य:
- परिसीमन का उद्देश्य समय के साथ जनसंख्या में हुए बदलाव के बाद भी सभी नागरिकों के लिये सामान प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना है।
- जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का उचित विभाजन करना ताकि प्रत्येक वर्ग के नागरिकों को प्रतिनिधित्व का समान अवसर प्रदान किया जा सके।
- अनुसूचित वर्ग के लोगों के हितों की रक्षा के लिये आरक्षित सीटों का निर्धारण भी परिसीमन की प्रक्रिया के तहत ही किया जाता है।
परिसीमन आयोग की संरचना:
- परिसीमन आयोग की अध्यक्षता उच्चतम न्यायालय के एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश द्वारा की जाती है।
- इसके अतिरिक्त इस आयोग में निम्नलिखित सदस्य शामिल होते हैं -
- मुख्य निर्वाचन आयुक्त या मुख्य निर्वाचन आयुक्त द्वारा नामित कोई निर्वाचन आयुक्त।
- संबंधित राज्यों के निर्वाचन आयुक्त।
- सहयोगी सदस्य (Associate Members): आयोग परिसीमन प्रक्रिया के क्रियान्वयन के लिये प्रत्येक राज्य से 10 सदस्यों की नियुक्ति कर सकता है, जिनमें से 5 लोकसभा सदस्य तथा 5 संबंधित राज्य की विधानसभा के सदस्य होंगे।
- सहयोगी सदस्यों को लोकसभा स्पीकर तथा संबंधित राज्यों के विधानसभा स्पीकर द्वारा नामित किया जाएगा।
- इसके अतिरिक्त परिसीमन आयोग आवश्यकता पड़ने पर निम्नलिखित अधिकारियों को बुला सकता है:
- भारत का महापंजीयक एवं जनगणना आयुक्त (Registrar General and Census Commissioner of India)।
- भारत का महासर्वेक्षक (The Surveyor General of India)।
- केंद्र अथवा राज्य सरकार से कोई अन्य अधिकारी।
- भौगोलिक सूचना प्रणाली का कोई विशेषज्ञ।
- या कोई अन्य व्यक्ति, जिसकी विशेषज्ञता या जानकारी से परिसीमन की प्रक्रिया में सहायता प्राप्त हो सके।
परिसीमन आयोग के कार्य:
- संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन: परिसीमन आयोग लोकसभा सदस्यों के चुनाव के लिये चुनावी क्षेत्रों की सीमा को निर्धारित करने का कार्य करता है। परिसीमन की प्रक्रिया में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि (राज्य में) लोकसभा सीटों की संख्या और राज्य की जनसंख्या का अनुपात पूरे देश में सभी राज्यों के लिये समान रहे।
- विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन: विधानसभा चुनावों के लिये निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा का निर्धारण परिसीमन आयोग द्वारा किया जाता है। विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के दौरान इस बात का ध्यान रखा जाता है कि राज्य के सभी चुनावी क्षेत्रों में विधानसभा सीटों की संख्या और क्षेत्र की जनसंख्या का अनुपात समान रहे। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि एक विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र सामान्यतया एक से अधिक ज़िलों में विस्तारित न हो।
- अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिये सीटों का आरक्षण: परिसीमन आयोग द्वारा परिसीमन आयोग अधिनियम, 2002 की धारा 9 (1) के तहत निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति समुदायों के लोगों की संख्या के आधार पर आरक्षित सीटों का निर्धारण किया जाता है।
स्रोत: द हिंदू
पेरिस जलवायु समझौते के पाँच वर्ष
चर्चा में क्यों?
12 दिसंबर, 2020 से ग्लासगो, स्कॉटलैंड में शुरू होने वाले जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन से पहले भारत ने पेरिस जलवायु समझौते के लिये अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है।
- क्लाइमेट एंबिशन समिट 2020 पेरिस समझौते की पाँचवीं वर्षगाँठ को चिह्नित करेगा और पेरिस समझौते तथा बहुपक्षीय प्रक्रिया के लिये अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने हेतु सरकारी और गैर-सरकारी नेताओं के लिये एक मंच प्रदान करेगा।
प्रमुख बिंदु:
- उद्देश्य: पेरिस समझौते के तीन स्तंभों- शमन, अनुकूलन और वित्त व्यवस्था हैं, के तहत नई और महत्त्वाकांक्षी प्रतिबद्धताएँ निर्धारित करना।
- व्यापकता: यह शिखर सम्मेलन उन व्यवसायों, शहरों और अन्य गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं को एक सार्थक मंच प्रदान करेगा जो एक साथ जलवायु परिवर्तन से निपटने का प्रयास कर रहे हैं और सरकारों का समर्थन करने एवं उत्सर्जन को कम करने तथा लचीलेपन में वृद्धि के लिये आवश्यक प्रणालीगत परिवर्तन में तेज़ी ला रहे हैं।
- मेज़बान देश: चिली और इटली की साझेदारी में संयुक्त राष्ट्र, यूनाइटेड किंगडम और फ्राँस।
उत्सर्जन का इतिहास:
- हमारे वायुमंडल में सबसे प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली ग्रीनहाउस गैस (GHG) कार्बन डाइऑक्साइड (Co2), जलवायु परिवर्तन को मापने के लिये प्रत्यक्ष स्रोत बन गई है। पृथ्वी के 4.54 बिलियन वर्ष के इतिहास के दौरान इसका स्तर व्यापक रूप से बढ़ा है।
- ऐतिहासिक रूप से कार्बन उत्सर्जन में विकसित देशों का प्रमुख योगदान रहा है।
प्रमुख उत्सर्जनकर्त्ता:
- यह उत्सर्जन संयुक्त राज्य (US) में सबसे अधिक 25%, उसके बाद यूरोपीय संघ (EU) में 22% और चीन में 13% है।
- कार्बन उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी केवल 3% है।
पेरिस जलवायु समझौता:
- कानूनी स्थिति: यह जलवायु परिवर्तन पर कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतर्राष्ट्रीय संधि है।
- अंगीकरण: इसे दिसंबर 2015 में पेरिस में आयोजित COP 21 सम्मेलन के दौरान 196 देशों द्वारा अपनाया गया था।
- लक्ष्य: पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से कम करना और अधिमानतः इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना।
- उद्देश्य: वर्ष 2050 से 2100 के बीच मानव गतिविधियों द्वारा उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को उस स्तर तक लाना ताकि वृक्षों, महासागरों और मृदा द्वारा इसे स्वाभाविक रूप से अवशोषित किया जा सके।
वैश्विक उत्सर्जन की वर्तमान स्थिति:
- पेरिस समझौते के 5 वर्ष बाद सभी राज्यों ने जलवायु परिवर्तन को कम करने और इसके शमन के लिये अपना राष्ट्रीय योगदान प्रस्तुत किया है।
- यह योगदान मौलिक रूप से 2 डिग्री सेल्सियस की सीमा से नीचे पहुँचने के लिये अपर्याप्त हैं और पेरिस समझौते में निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान की सीमा से भी अधिक है।
- भारत के अलावा केवल भूटान, फिलीपींस, कोस्टा रिका, इथियोपिया, मोरक्को और गाम्बिया इस समझौते का अनुपालन कर रहे हैं।
- चीन में GHG उत्सर्जन उच्चतम (30%) है, जबकि अमेरिका उत्सर्जन में 13.5% और यूरोपीय संघ 8.7% का योगदान देते है।
भारत में उत्सर्जन की वर्तमान स्थिति:
- इस वर्ष की शुरुआत में जारी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वास्तव में वैश्विक औसत से 60% कम है।
- वर्ष 2019 में देश में उत्सर्जन 1.4% बढ़ा है, जो पिछले एक दशक के प्रतिवर्ष 3.3% के औसत से बहुत कम है।
भारत द्वारा उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिये किये गए कुछ उपाय:
- भारत स्टेज (बीएस) VI मानदंड: यह वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिये सरकार द्वारा लगाए गए उत्सर्जन नियंत्रण मानक हैं।
- राष्ट्रीय सौर मिशन: यह भारत की केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की एक प्रमुख पहल है जिसका उद्देश्य भारत की ऊर्जा सुरक्षा से संबंधित चुनौती को संबोधित करते हुए पारिस्थितिक रूप से स्थायी विकास को बढ़ावा देना है।
- राष्ट्रीय पवन-सौर हाइब्रिड नीति 2018: इस नीति का मुख्य उद्देश्य पवन तथा सौर संसाधनों, ट्रांसमिशन इंफ्रास्ट्रक्चर और भूमि के कुशल उपयोग के लिये बड़े ग्रिड से जुड़े पवन-सौर पीवी हाइब्रिड सिस्टम को बढ़ावा देने के लिये एक रूपरेखा प्रदान करना है।
- इन सभी पहलों ने भारत को CO2 उत्सर्जन में 164 मिलियन किलोग्राम की कटौती करने में मदद की।
प्रस्तावित लक्ष्य प्राप्त करने में समस्याएँ:
- अधिकांश राष्ट्र वर्ष 2025-2030 के बीच उत्सर्जन को कम करने के लिये अपने राष्ट्रीय योगदान को बहुत देर से प्रस्तुत कर रहे हैं, हालाँकि कई देशों ने हाल के दिनों में शुद्ध शून्य उत्सर्जन/नेट ज़ीरो उत्सर्जन लक्ष्यों की घोषणा की है।
- शुद्ध शून्य उत्सर्जन का तात्पर्य है कि सभी मानव निर्मित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को विभिन्न उपायों के माध्यम से वायुमंडल से हटाया जाना चाहिये, जिससे पृथ्वी के शुद्ध जलवायु संतुलन को कायम रखा जा सके।
- शुद्ध शून्य लक्ष्य विश्वसनीयता, जवाबदेही और निष्पक्षता जाँच के अधीन हैं।
- विश्वसनीयता: राष्ट्रों की योजनाएँ और नीतियाँ दीर्घकालिक शून्य लक्ष्य की प्राप्ति के लिये विश्वसनीय नहीं हैं:
- जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समिति (Inter-governmental Pannel on Climate Change-IPCC) 1.5 डिग्री सेल्सियस रिपोर्ट ने संकेत दिया है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान का लक्ष्य उचित समय-सीमा के भीतर प्राप्त करने के लिये वर्ष 2030 तक वैश्विक CO2 उत्सर्जन को वर्ष 2010 के स्तर की तुलना में 45% तक कम करना है, लेकिन वर्तमान राष्ट्रीय योगदान इस लक्ष्य से काफी दूर दिखाई दे रहे हैं।
- जवाबदेही: कई राष्ट्रों के ‘नेट-ज़ीरो’ उत्सर्जन लक्ष्यों में या तो जवाबदेही का अभाव है या फिर उनकी जवाबदेही काफी सीमित है, जैसे-
- कई देशों ने अपने ‘नेट-ज़ीरो’ उत्सर्जन लक्ष्यों को अभी तक पेरिस समझौते के तहत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) तथा दीर्घकालिक रणनीतियों के अनुरूप नहीं बनाया है।
- पेरिस समझौते के तहत जवाबदेही सीमित है। राज्य अपने स्व-चयनित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये बाध्य नहीं हैं। राष्ट्रों के स्वैच्छिक योगदान की समीक्षा करने के लिये कोई तंत्र नहीं है। राज्यों को केवल अपने लक्ष्यों की निष्पक्षता और महत्त्वाकांक्षा के लिये औचित्य प्रदान करने हेतु कहा जाता है।
- पारदर्शिता ढाँचे में एक मज़बूत समीक्षा कार्य शामिल नहीं है और पेरिस समझौते के अनुपालन हेतु उत्तरदायी समिति बाध्यकारी दायित्वों की एक छोटी सूची के साथ कार्य कर रही है जिसके कारण इसका क्षेत्राधिकार अत्यंत सीमित है।
- न्यायोचितता/न्यायसंगतता: दो पीढ़ियों के बीच और उनके भीतर नेट-ज़ीरो’ उत्सर्जन लक्ष्यों की निष्पक्षता और न्यायोचितता का मुद्दा अपरिहार्य है।
- किसी भी देश के पास यह जाँचने के लिये कोई व्यवस्था नहीं है कि उनके द्वारा ‘नेट-ज़ीरो’ उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारित किये गए हैं और उन्हें प्राप्त करने का मार्ग कितना निष्पक्ष एवं न्यायोचित है अथवा अन्य देशों की तुलना में कोई देश कितना प्रयास कर रहा है तथा उसे कितना प्रयास करना चाहिये।
- विश्वसनीयता: राष्ट्रों की योजनाएँ और नीतियाँ दीर्घकालिक शून्य लक्ष्य की प्राप्ति के लिये विश्वसनीय नहीं हैं:
आगे की राह
- पेरिस समझौते के तहत निर्धारित दीर्घकालिक तापमान लक्ष्य को प्राप्त करने और मध्य-शताब्दी तक जलवायु-तटस्थ विश्व का निर्माण करने के लिये विश्व के सभी देशों को जल्द-से-जल्द ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की चरम सीमा तक पहुँचने का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिये।
- विदित हो कि चीन ने वर्ष 2030 से पूर्व कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जन की चरम सीमा तक पहुँचने और वर्ष 2060 से पहले कार्बन तटस्थता की स्थिति प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
- सतत्/स्थिर जलवायु प्राप्त करने की दिशा में ‘नेट-ज़ीरो’ उत्सर्जन लक्ष्यों को और अधिक विश्वसनीय, ज़वाबदेह तथा न्यायोचित बनाना आवश्यक है। यद्यपि सभी देश अपने ‘नेट-ज़ीरो’ उत्सर्जन लक्ष्यों को प्राप्त करने की स्थिति में नहीं होंगे और न ही उनसे इस संबंध में उम्मीद की जा सकती है, किंतु यह आवश्यक है।
- अल्पकालिक विश्वसनीय प्रतिबद्धताओं के साथ मध्यावधि अकार्बनीकरण (Decarbonise) और विकास की नीति कई देशों के लिये एक बेहतर विकल्प हो सकती है।