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डेली न्यूज़

  • 12 Sep, 2020
  • 66 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

LAC पर तनाव कम करने के लिये 5 सूत्रीय योजना पर सहमति

प्रिलिम्स के लिये:  

वास्तविक नियंत्रण रेखा,  शंघाई सहयोग संगठन

मेन्स के लिये:

भारत-चीन सीमा विवाद

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत और चीन के विदेश मंत्रियों ने ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ (Line of Actual Control- LAC) पर लगभग 4 महीने से चल रहे तनाव को कम करने के लिये एक पाँच-सूत्री योजना को लागू करने पर सहमति व्यक्त की है।

प्रमुख बिंदु:

  • भारत और चीन के विदेश मंत्री ने रूस में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (Shanghai Cooperation Organisation- SCO) की विदेश मंत्रियों की बैठक से अलग एक द्विपक्षीय बैठक में सीमा विवाद पर बातचीत की। 
  • इस बैठक में भारतीय विदेश मंत्री ने स्पष्ट किया कि द्विपक्षीय संबंधों की प्रगति के लिये सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति और स्थिरता बनाए रखना बहुत ही आवश्यक है।  
  • सीमा पर तनाव को कम करने के लिये दोनों पक्षों द्वारा स्वीकृत योजना के पाँच बिंदु निम्नलिखित हैं -
    1. मतभेदों को विवाद न बनने देना:  दोनों मंत्रियों ने इस बात पर सहमति जताई कि दोनों पक्षों को भारत-चीन संबंधों के विकास पर शीर्ष नेताओं के बीच हुई सहमतियों (वुहान और महाबलीपुरम अनौपचारिक शिखर सम्मेलन) से मार्गदर्शन लेना चाहिये जिसमें मतभेदों को विवाद नहीं बनने देना भी शामिल है।
    2. सीमा से सेनाओं को पीछे लाना: दोनों विदेश मंत्रियों ने इस बात पर सहमति जताई कि सीमावर्ती क्षेत्रों में मौजूदा स्थिति किसी भी पक्ष के हित में नहीं है। अतः दोनों पक्षों के सीमा सैनिकों को संवाद जारी रखना चाहिये, साथ ही उन्हें शीघ्र ही पीछे हटना चाहिये और तनाव कम करना चाहिये।
    3. भारत-चीन सीमा प्रोटोकॉल का पालन : दोनों पक्षों को भारत-चीन सीमा मामलों पर सभी मौजूदा समझौतों और प्रोटोकॉल का पालन, सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति और स्थिरता बनाए रखने और ऐसी किसी भी कार्रवाई से बचने पर भी सहमति व्यक्त की गई जो तनाव को आगे बढ़ा सकती है।
    4. संवाद जारी रखना: दोनों पक्षों ने सीमा से जुड़े मुद्दों पर विशेष प्रतिनिधियों (राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीनी विदेश मंत्री वांग यी) के माध्यम से बातचीत जारी रखने पर सहमति व्यक्त की। साथ ही भारत-चीन सीमा मामलों पर ‘परामर्श और समन्वय हेतु कार्य तंत्र’ (Working Mechanism for Consultation and Coordination- WMCC) की बैठकों को जारी रखने पर सहमति व्यक्त की गई।  गौरतलब है कि WMCC की शुरुआत वर्ष 2012 में की गई थी।
    5. परस्पर विश्वास बढ़ाने के लिये नए कदम उठाना: दोनों मंत्रियों ने इस बात पर सहमति जताई कि जैसे ही स्थिति सामान्य होती है, दोनों पक्षों को सीमा क्षेत्रों में शांति और स्थिरता को बढ़ाने के लिये नए विश्वास निर्माण उपायों (Confidence Building Measures) पर कार्य में तेज़ी लानी चाहिये।

भारत सरकार का पक्ष:  

  • इस बैठक में भारतीय विदेश मंत्री ने वर्ष 1976 में दोनों देशों के बीच राजदूत स्तर के संबंधों की बहाली और वर्ष 1981 की सीमा वार्ता के बाद से दोनों देशों के संबंधों की मज़बूती में हुई वृद्धि को रेखांकित किया। 
  • भारतीय विदेश मंत्री ने LAC पर भारी संख्या में चीनी सैनिकों और सैन्य उपकरणों की उपस्थिति पर चिंता व्यक्त की और इसे वर्ष 1993 और वर्ष 1996 के समझौतों का उल्लंघन बताया। 
    • गौरतलब है कि वर्ष 1993 के समझौते के तहत दोनों देशों द्वारा LAC पर सेना की उपस्थिति को कम-से-कम करने और शांति तथा स्थिरता बनाए रखने पर सहमति व्यक्त की गई थी।
    • वर्ष 1996 के समझौते के तहत LAC पर शांति बनाए रखने के अन्य प्रयासों के साथ बड़े हथियारों [जैसे-युद्धक टैंक, इन्फैंट्री लड़ाकू वाहन, बंदूकें (हॉवित्ज़र सहित) 75 मिमी या बड़े कैलिबर, 120 मिमी या बड़े कैलिबर के मोर्टार, सतह से सतह पर मिसाइल, सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलें आदि] को सीमित करने की बात कही गई थी।
  • भारतीय पक्ष ने स्पष्ट किया कि सीमा पर पूर्व के सभी समझौतों के पालन की उम्मीद करता है और सीमा पर यथास्थिति बदलने के किसी भी एकतरफा प्रयास का भारत द्वारा समर्थन नहीं  किया जाएगा।  
  • साथ ही इस बात पर भी ज़ोर दिया गया कि भारतीय सैनिकों द्वारा सीमावर्ती क्षेत्रों में सभी समझौतों और प्रोटोकॉलों का गहराई से पालन किया गया है। 

परिणाम :  

  • दोनों पक्षों के विदेश मंत्रियों की बैठक का उद्देश्य ‘सेनाओं को पीछे लाने के सिद्धांतों और लक्ष्यों' पर सहमति स्थापित करना था, जिसे प्राप्त कर लिया गया है।
  • हालाँकि दोनों पक्षों के बीच शांति और स्थिरता इस बात पर निर्भर करेगी कि सीमा पर दोनों देशों की सेनाएँ कितनी जल्दी अपनी सामान्य चौकियों पर लौटती हैं। 
    • गौरतलब है कि कई स्थानों पर दोनों देशों की सामान्य चौकियों की दूरी लगभग 25-30 किमी है।

चीन के रवैये में बदलाव का कारण: 

  • भारत-चीन सीमा पर हालिया तनाव की स्थिति की शुरुआत के साथ ही ऐसा प्रतीत हो रहा था कि चीन को विश्वास था कि भारत के पास LAC पर चीन के दावों को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
  • चीन का यह मत उसके द्वारा शुरूआती महीनों में सेना को पीछे न ले जाने, उपेक्षापूर्ण कूटनीतिक रवैये और सीमा पर आक्रामकता में वृद्धि से भी स्पष्ट होता है।
  • हालाँकि इस दौरान भारत द्वारा चीन से ‘यथास्थिति’ बनाए रखने की मांग का तब तक कोई प्रभाव नहीं हुआ जबतक भारतीय सेना ने आगे बढ़कर कई महत्वपूर्ण स्थानों पर कब्ज़ा करते हुए चीनी सेना को चुनौती दी।
  • विशेषज्ञों के अनुसार, भारत द्वारा चीनी आक्रामकता का जवाब देने की राजनीतिक इच्छाशक्ति और इसका समर्थन करने की सैन्य क्षमता के प्रदर्शन ने संभवतः चीन को अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने के लिये विवश किया।

चुनौतियाँ:

  • इस बैठक के दौरान दोनों पक्षों ने सीमा पर तनाव कम करने की बात स्वीकार की परंतु किसी भी वक्तव्य में दोनों पक्षों द्वारा सेनाओं को ‘यथास्थिति’ या अप्रैल के तनाव के पहले के स्थान पर लौटने की बात को स्पष्ट नहीं किया गया है।

आगे की राह:

  • पिछले कुछ महीनों में भारत और चीन के बीच बढ़ते तनाव के बीच विदेश मंत्रियों की इस बैठक में हुई बातचीत एक बड़ी उपलब्धि है।
  • हालाँकि चीन द्वारा इससे पहले भी कई बार तनाव को कम करने पर सहमति व्यक्त करने के बाद कोई कार्रवाई नहीं की गई है।
  • LAC के हालिया तनाव के दौरान दोनों देशों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास बढ़ा है जो सीमा पर शांति और स्थिरता के प्रयासों को और अधिक चुनौतीपूर्ण बना देता है।

स्रोत :  द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में संकुचन

प्रिलिम्स के लिये

औद्योगिक उत्पादन सूचकांक

मेन्स के लिये

भारत के विकास के बारे में गणना करने हेतु IIP का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) द्वारा जारी हालिया आँकड़ों के अनुसार, विनिर्माण, खनन, पूंजीगत वस्तुओं और उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं के उत्पादन में गिरावट के कारण जुलाई माह में लगातार पाँचवीं बार औद्योगिक उत्पादन में 10.4 प्रतिशत का संकुचन हुआ है।

प्रमुख बिंदु

  • राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) द्वारा जारी आँकड़े बताते हैं कि अप्रैल-जुलाई की अवधि में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) में बीते वर्ष इसी अवधि की तुलना में संचयी रूप से 29.2 प्रतिशत का संकुचन हुआ, जबकि वर्ष 2019 की अप्रैल-जून तिमाही में इसमें 3.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी। 
  • बीते वर्ष अकेले जुलाई माह में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) में 4.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी।
  • उपभोक्ता गैर-टिकाऊ (Consumer Non-Durables) वस्तुओं को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्रों जैसे- विनिर्माण, खनन, प्राथमिक वस्तुओं और पूंजीगत वस्तुओं आदि पर कोरोना वायरस महामारी और उसके कारण लागू किये गए लॉकडाउन का प्रभाव देखने को मिला है, जबकि केवल उपभोक्ता गैर-टिकाऊ वस्तुओं में 6.7 प्रतिशत की वृद्धि देखने को  मिली। 

कारण

  • सरकार द्वारा कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी के प्रसार को रोकने के लिये लागू किये गए देशव्यापी लॉकडाउन के मद्देनज़र मार्च, 2020 के अंत से ही बड़ी संख्या में औद्योगिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान और संस्थान सही ढंग से संचालित नहीं हो पा रहे हैं।
  • संचालित न होने के कारण सीधा प्रभाव इन संस्थानों और प्रतिष्ठान के उत्पादन पर पड़ा है। 
  • हालाँकि देशव्यापी लॉकडाउन की समाप्ति के बाद से औद्योगिक गतिविधियाँ अब पुनः शुरू हो रही हैं, किंतु हालिया आँकड़ों से पता चलता है कि मई और जून माह में देखी गई तेज़ रिकवरी अब कुछ हद तक सपाट होती जा रही है, इसका मुख्य कारण विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा स्थानीय स्तर पर लागू किये गए लॉकडाउन हो सकते हैं। इन्ही बाधाओं के कारण आर्थिक गतिविधियों की क्रमिक रिकवरी संभव नहीं हो पा रही है।

निहितार्थ

  • औद्योगिक उत्पादन में हो रही गिरावट जुलाई माह के अन्य सभी संकेतकों जैसे रोज़गार और विनिर्माण आदि के अनुरूप ही है।
    • आईएचएस मार्किट इंडिया (IHS Markit India) द्वारा जारी मासिक सर्वेक्षण के अनुसार, जुलाई 2020 में विनिर्माण क्षेत्र के ‘क्रय प्रबंधक सूचकांक’ (Purchasing Manager's Index- PMI) में गिरावट दर्ज की गई थी। जुलाई 2020 में  क्रय प्रबंधक सूचकांक (PMI) 46 अंक पर पहुँच गया था, जबकि जून माह में यह 47.2 अंक पर था।
    • ध्यातव्य है कि इस सूचकांक में 50 से अधिक अंक विस्तार का संकेत देते हैं, जबकि 50 से कम अंक संकुचन का संकेत देते हैं।
  • अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने की प्रक्रिया में कुछ समय लग सकता है, क्योंकि जुलाई और अगस्त माह में भी सभी आर्थिक संकेतक सपाट ही दिखाई दे रहे हैं।
  • वितीय वर्ष 2020-21 की दूसरी तिमाही के पहले माह यानी जुलाई में औद्योगिक उत्पादन में हो रहा संकुचन, वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) संबंधी आँकड़ों को भी प्रभावित करेगा।
    • ध्यातव्य है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में देश की GDP में 23.9 प्रतिशत का संकुचन दर्ज किया गया है।

औद्योगिक उत्पादन सूचकांक

  • यह सूचकांक अर्थव्यवस्था में विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि खनिज खनन, बिजली, विनिर्माण आदि के विकास का विवरण प्रस्तुत करता है।
  • इसके अंतर्गत किसी समीक्षाधीन अवधि, आमतौर पर कोई विशिष्ट माह, के दौरान औद्योगिक उत्पादन और क्षेत्र विशिष्ट के प्रदर्शन को मापा जाता है।
  • इसे सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO), द्वारा मासिक रूप से संकलित और प्रकाशित किया जाता है।
  • इसे अर्थव्यवस्था के विनिर्माण क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक संकेतक माना जाता है।
  • जिस माह के लिये इस सूचकांक की गणना की जा रही है उसकी समाप्ति के बाद सूचकांक संबंधी डेटा के प्रकाशन में छह सप्ताह का अंतराल होता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

घाटे का प्रत्यक्ष मुद्रीकरण

प्रिलिम्स के लिये

राजकोषीय घाटा, प्रत्यक्ष मुद्रीकरण

मेन्स के लिये

एक विकल्प के तौर पर प्रत्यक्ष मुद्रीकरण और उसकी सीमाएँ

चर्चा में क्यों?

कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी के कारण प्रभावित हुई भारतीय अर्थव्यवस्था में राजस्व की कमी केंद्र सरकार को और अधिक उधार लेने के लिये मजबूर कर सकती है, किंतु सरकार के लिये घाटे का मुद्रीकरण (Monetising) करना अंतिम उपाय के तौर पर भी देखा जाएगा।

प्रमुख बिंदु

  • आधिकारिक बयान के अनुसार, मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी छमाही के लिये उधार संबंधी कार्यक्रमों की समीक्षा भारत सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के अधिकारियों द्वारा इस माह के अंत में की जाएगी, वहीं अधिकारियों द्वारा घाटे के प्रत्यक्ष मुद्रीकरण की संभावना पर भी चर्चा की गई है।

अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति

  • तकरीबन चार माह तक देशव्यापी लॉकडाउन के कारण बावजूद भी भारत कोरोना वायरस (COVID-19) संक्रमण के मामले में विश्व में दूसरे स्थान पर बना हुआ है, और इस महामारी तथा लॉकडाउन के परिणामस्वरूप आर्थिक गतिविधियाँ रुक गई हैं, जिससे सरकार के राजस्व को भारी नुकसान का सामना करना पड़ रहा है।
  • हालिया आँकड़ों के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में रिकॉर्ड 23.9 प्रतिशत का संकुचन दर्ज किया गया है, जो कि बीते एक दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे खराब प्रदर्शन है।
  • अर्थव्यवस्था में विकास के लगभग सभी प्रमुख संकेतक गहरे संकुचन की ओर इशारा कर रहे हैं। जहाँ एक ओर मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही के दौरान कोयले के उत्पादन में 15 प्रतिशत का संकुचन दर्ज किया गया, वहीं इसी अवधि के दौरान सीमेंट के उत्पादन और स्टील के उपभोग में क्रमशः 38.3 प्रतिशत और 56.8 प्रतिशत का संकुचन दर्ज किया गया। 
  • इसके अलावा देश में रोज़गार की स्थिति भी अच्छी नहीं है, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार, इस वर्ष अप्रैल-अगस्त माह के दौरान लगभग 21 मिलियन वेतनभोगी कर्मचारियों ने अपनी नौकरी खो दी है।

घाटे का प्रत्यक्ष मुद्रीकरण

  • इस प्रकार की व्यवस्था के अंतर्गत सरकार प्रत्यक्ष तौर पर भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के साथ व्यवहार करती है और उसे सरकारी बाॅॅण्ड्स (Government Bonds) के बदले में नई मुद्रा छापने के लिये कहती है।
    • नई मुद्रा छापने के बदले में RBI को सरकारी बाॅॅण्ड्स प्राप्त होते हैं जो कि RBI की परिसंपत्ति हैं।
  • इस प्रकार सरकार के पास खर्च करने के लिये आवश्यक नकदी आ जाती है, जिसे वह विभिन्न जन कल्याण कार्यक्रमों पर प्रयोग कर सकती है।
  • मौजूदा महामारी के दौर में कई विश्लेषण सरकार के घाटे को पूरा करने के लिये प्रत्यक्ष मुद्रीकरण को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, किंतु सरकार इस विकल्प को सबसे अंतिम उपाय के रूप में ही देखेगी, क्योंकि इसके साथ निहित समस्याएँ सरकार को इसका प्रयोग न करने के लिये मजबूर कर रही हैं।

निहित समस्याएँ

  • सैद्धांतिक तौर पर निजी मांग में गिरावट की स्थिति में घाटे के प्रत्यक्ष मुद्रीकरण की व्यवस्था सरकार को समग्र मांग बढ़ाने का अवसर प्रदान करती है, जिससे इस व्यवस्था से मुद्रास्फीति को बढ़ावा मिलता है। 
  • यद्यपि कुछ हद तक मुद्रास्फीति को अर्थव्यवस्था के लिये सही माना जाता है, किंतु यदि सही ढंग से निगरानी न की जाए तो इस व्यवस्था से अर्थव्यवस्था में उच्च मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
  • इस प्रकार उच्च मुद्रास्फीति और उच्च सार्वजनिक ऋण अर्थव्यवस्था में व्यापक स्तर पर अस्थिरता उत्पन्न कर सकते हैं।
  • प्रायः सरकारी तंत्र को खर्च करने के मामले में अप्रभावी और भ्रष्ट माना जाता है, जिसके कारण सरकार के पास राजस्व होने के बावजूद भी यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि उसका लाभ देश के सभी आम नागरिकों को मिल सकेगा।

निष्कर्ष

महामारी के प्रभाव के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था पर काफी अधिक प्रभाव पड़ा है, और अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्र उत्पादन और राजस्व की भारी कमी का सामना कर रहे हैं, ऐसे में उन्हें अधिक-से-अधिक खर्च करने के लिये मजबूर नहीं किया सकता है, ऐसे में सरकार द्वारा किये जाने वाला निवेश अर्थव्यवस्था के विकास को बढ़ावा देने के लिये एकमात्र साधन प्रतीत होता है, किंतु सरकार के पास इतनी राशि नहीं है कि वह खर्च कर सके, इसलिये प्रत्यक्ष मुद्रीकरण को एक विकल्प के रूप में देखा जा सकता है, हालाँकि इसके साथ निहित समस्याएँ काफी गंभीर हैं और उन पर सही ढंग से विचार करना आवश्यक है। अन्य विकल्पों के तौर पर सरकार अप्रत्यक्ष मुद्रीकरण जैसे ओपन मार्केट ऑपरेशन्स (OMOs) का प्रयोग कर रही है।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

मल्टी-कैप म्यूचुअल फंड्स संबंधी नियमों में परिवर्तन

प्रिलिम्स के लिये

म्यूचुअल फंड, मल्टी-कैप म्यूचुअल फंड्स, SEBI

मेन्स के लिये

SEBI द्वारा परिवर्तित नियम और बाज़ार पर उनका प्रभाव

चर्चा में क्यों?

भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (Securities and Exchange Board of India-SEBI) ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लेते हुए म्यूचुअल फंड्स की मल्टी-कैप स्कीमों (Multi-Cap Schemes) में निवेश की एक सीमा निर्धारित कर दी है।

प्रमुख बिंदु

  • परिवर्तित नियम
    • भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) द्वारा निर्धारित नए नियमों के अनुसार, मल्टी-कैप म्यूचुअल फंड्स स्कीमों को अपनी कुल संपत्ति का तकरीबन 75 प्रतिशत हिस्सा इक्विटी (Equities) और उससे संबंधित अन्य वित्तीय उपकरणों में ही निवेश करना होगा।
    • मौजूदा नियमों के अनुसार, मल्टी-कैप म्यूचुअल फंड्स स्कीमों को अपनी कुल संपत्ति का तकरीबन 65 प्रतिशत हिस्सा इक्विटी (Equities) और इक्विटी से संबंधित अन्य वित्तीय उपकरणों में ही निवेश करना होता है।
    • इसके अलावा SEBI ने यह भी निर्धारित किया है कि इक्विटी और इक्विटी संबंधित अन्य वित्तीय उपकरणों में 75 प्रतिशत का न्यूनतम निवेश किस तरह से किया जाएगा। SEBI के अनुसार, 
      • लार्ज कैप कंपनियों में न्यूनतम निवेश: 25 प्रतिशत
      • मिड कैप कंपनियों में न्यूनतम निवेश: 25 प्रतिशत
      • स्मॉल कैप कंपनियों में न्यूनतम निवेश: 25 प्रतिशत
    • वर्तमान नियमों के अनुसार, मल्टी-कैप म्यूचुअल फंड्स के फंड मैनेजर अपनी पसंद के अनुसार, किसी भी प्रकार की कंपनी (लार्ज कैप, मिड कैप और स्मॉल कैप) में निवेश कर सकते थे।
  • उल्लेखनीय है कि इस वर्ष दिसंबर माह तक एसोसिएशन ऑफ म्यूचुअल फंड्स इन इंडिया (AMFI) द्वारा लार्ज कैप, मिड कैप और स्मॉल कैप कंपनियों की अगली सूची जारी की जाएगी, जिसके एक माह के भीतर म्यूचुअल फंड्स हाउसों को नए नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करना होगा, जिसका अर्थ है कि उन्हें 31 जनवरी, 2021 तक का समय प्रदान किया है।

लार्ज कैप कंपनियाँ: बाज़ार पूंजीकरण के मामले में शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध 1 से 100वें स्थान की कंपनियाँ, लार्ज कैप कंपनियों की श्रेणी में आती हैं। ये कंपनियाँ पूंजी के मामले में भारत की सबसे मज़बूत कंपनियाँ होती हैं और ट्रैक-रिकॉर्ड काफी अच्छा होता है।

मिड कैप कंपनियाँ: बाज़ार पूंजीकरण के मामले में शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध 101 से 250वें स्थान की कंपनियाँ, मिड कैप कंपनियों की श्रेणी में आती हैं। 

स्मॉल कैप कंपनियाँ: बाज़ार पूंजीकरण के मामले में शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध 251वें स्थान के बाद मौजूद सभी कंपनियाँ, मिड कैप कंपनियों की श्रेणी में आती हैं। 

इन परिवर्तनों के कारण

  • इस प्रकार के निर्णय का मुख्य कारण है कि मल्टी-कैप म्यूचुअल फंड्स के अधिकांश फंड मैनेजरों का झुकाव लार्ज कैप कंपनियों की तरह ज़्यादा दिखाई देता है, और वह अपनी संपत्ति का अधिकांश हिस्सा लार्ज कैप कंपनियों में ही निवेश करते हैं।
    • अनुमान के अनुसार, मल्टी-कैप म्यूचुअल फंड्स स्कीमों के प्रबंधन के तहत कुल संपत्ति लगभग 1.50 लाख करोड़ रुपए है, जिसमें से लगभग 65 प्रतिशत हिस्सा लार्ज कैप कंपनियों में, 25 प्रतिशत प्रतिशत हिस्सा मिड कैप कंपनियों और 10 प्रतिशत हिस्सा स्मॉल कैप कंपनियों में निवेश किया गया है। 
  • इस प्रकार भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) अपने नए नियमों के माध्यम से म्यूचुअल फंड के निवेश को लार्ज कैप, मिड कैप और स्मॉल कैप कंपनियों में संतुलित करने का प्रयास कर रहा है।

लार्ज कैप कंपनियों में अत्यधिक निवेश का कारण 

  • इसका मुख्य कारण है कि लार्ज कैप कंपनियाँ एक समय विशिष्ट में काफी अच्छा प्रदर्शन कर रही होती हैं, जिससे निवेशकों को काफी लाभ मिलता है। 
  • वर्तमान समय में अधिकांश फंड मैनेजर बड़ी संख्या में लार्ज कैप कंपनियों में निवेश कर रहे हैं, क्योंकि उनका मानना है कि मौजूदा महामारी के दौरान निवेश को सुरक्षित रखने का एकमात्र उपाय बड़ी और सुरक्षित कंपनियों में निवेश करना है। 

इस निर्णय का प्रभाव

  • यदि किसी भी म्यूचुअल फंड्स हाउस ने लार्ज कैप, मिड कैप और स्मॉल कैप कंपनियों में से प्रत्येक में 25 प्रतिशत से कम अथवा अधिक निवेश किया है तो उन्हें अपने निवेश पोर्टफोलियो को पुनः संतुलित करना होगा, और प्रत्येक में 25-25-25 प्रतिशत निवेश करना होगा। 
  • इसका अर्थ है कि अब फंड मैनेजरों को लार्ज कैप कंपनियों से अपनी हिस्सेदारी बेचनी होगी और मिड कैप और स्मॉल कैप कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी खरीदनी होगी।
  • इस निर्णय से मिड कैप और स्मॉल कैप कंपनियों की स्थिति में सुधार आने की उम्मीद की जा सकती है, इससे मिड कैप और स्मॉल कैप कंपनियों के बाज़ार मूल्य में वृद्धि हो सकती है।
  • हालाँकि इससे निवेशकों को मिलने वाले लाभ में कुछ कमी देखी जा सकती है, क्योंकि इस निर्णय के माध्यम से म्यूचुअल फंड्स हाउसों को अच्छा प्रदर्शन करने वाली लार्ज कैप कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेचनी होगी और मिड कैप और स्मॉल कैप कंपनियों में हिस्सेदारी खरीदनी होगी। 

म्यूचुअल फंड

  • म्यूचुअल फंड एक प्रकार का सामूहिक निवेश होता है। निवेशकों के समूह मिलकर अल्पावधि के निवेश या अन्य प्रतिभूतियों में निवेश करते हैं।
  • म्यूचुअल फंड में एक फंड प्रबंधक होता है, जो इस पैसे को विभिन्न वित्तीय साधनों में निवेश करने के लिये अपने निवेश प्रबंधन कौशल का उपयोग करता है।

मल्टी-कैप म्यूचुअल फंड्स

  • सरल शब्दों में मल्टी-कैप म्यूचुअल फंड्स विविधतापूर्ण इक्विटी फंड होते हैं, जिसके तहत अलग-अलग बाज़ार पूंजीकरण वाली कंपनियों के शेयरों में निवेश किया जाता है।
  • इसके तहत निवेश उद्देश्यों को पूरा करने के लिये अलग-अलग अनुपात में अलग-अलग कंपनियों में निवेश किया जाता है।
  • ध्यातव्य है कि लंबी अवधि में मल्टी-कैप म्यूचुअल फंड्स आमतौर पर अन्य श्रेणियों की तुलना में निवेशकों को बेहतर रिटर्न प्रदान करते हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजनीति

आभासी न्यायालयों को जारी रखने के लिये लॉ पैनल की सिफारिश

प्रिलिम्स के लिये

आभासी न्यायालय, संवैधानिक/वैधानिक प्रावधान 

मेन्स के लिये

COVID-19 और आभासी न्यायालय, आभासी न्यायालयों की सीमाएँ  

चर्चा में क्यों?

कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर विभागीय स्थायी समिति ने सुझाव दिया है कि COVID-19 महामारी के पश्चात् भी आभासी न्यायालय (Virtual Courts) की कार्यवाही को जारी रखने की अनुमति दी जानी चाहिये। समिति का यह भी सुझाव है कि इसे सुविधाजनक बनाने के लिये कानून में आवश्यक बदलाव किये जाने चाहिये।

प्रमुख बिंदु 

  • समिति के अनुसार, न्यायालय ‘एक स्थान से अधिक सेवा है’। अधिवक्ताओं को स्वयं को ‘बदलते समय के साथ ढालना’ चाहिये क्योंकि प्रौद्योगिकी आगामी समय में एक ‘गेम चेंजर’ के रूप में उभरेगी।  
  • आभासी अदालतों के समर्थन में कहा गया कि डिजिटल न्याय सस्ता और तीव्र होने के साथ-साथ स्थानीय और आर्थिक बाधाओं को दूर करने तथा गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की दृष्टि से  महत्त्वपूर्ण है। 
  • सभी पक्षों की सहमति से मामलों की चिह्नित श्रेणियों के लिये महामारी की अवधि के पश्चात् भी आभासी न्यायालय की कार्यवाही जारी रखी जानी चाहिये।
  • यह भी सुझाव दिया गया कि आभासी न्यायिक कार्यवाही को देश भर में स्थित विभिन्न अपीलीय न्यायाधिकरणों, जैसे- TDSAT, IPAB, NCLT आदि में स्थायी रूप से अपनाया जा सकता है, जिसमें  पक्षों/अधिवक्ताओं की व्यक्तिगत उपस्थिति की आवश्यकता नहीं होती है।
  • पैनल ने निष्कर्ष निकाला कि आभासी अदालतों में कुछ कमियाँ हो सकती हैं, लेकिन वे वर्तमान परंपरागत न्याय प्रणाली में प्रगति की सूचक हैं, अतः इन्हें अपनाया जाना चाहिये। 

 आभासी न्यायालय के बारे में 

  • वर्तमान परिदृश्‍य में अभियोक्ता/वादी को अभियोग/वाद को ई-फाइलिंग के माध्‍यम से इलेक्ट्रॉनिक रूप से फाइल करने के लिये सुविधा प्रदान की गई है। कोर्ट फीस या अर्थदंड का भुगतान भी https://vcourts.gov.in के माध्यम से किया जाता है।
  • केस की स्थिति को सेवा वितरण के लिये बनाए गए विभिन्न चैनलों के माध्यम से ऑनलाइन देखा जा सकता हैं।
  • आभासी न्यायालय की अवधारणा का उद्देश्य अदालत में अभियोक्ता/वादी/अधिवक्ता की उपस्थिति को समाप्त करना और मामले का ऑनलाइन अधिनिर्णयन करना है। 

संवैधानिक / वैधानिक प्रावधान 

  • भारत के संविधान के अनुच्छेद 145 (4) में यह प्रावधान है कि खुली अदालत के अलावा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कोई निर्णय नहीं दिया जाएगा। ध्यातव्य है कि यह केवल ‘निर्णय सुनाने के संदर्भ में है, मामले की सुनवाई के संदर्भ में नहीं’।  
  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा- 327 और सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा- 153b में भी आपराधिक और सिविल मामलों में खुली अदालत की सुनवाई का प्रावधान है।

COVID-19 और आभासी न्यायालय

  • देश के सर्वोच्च न्यायालय ने COVID-19 महामारी संकट के दौरान कानूनी और न्याय व्यवस्था का प्रबंधन करने के लिये आभासी न्यायिक कार्यवाही और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग को अपनाने के लिये अपनी सहमति दी थी।
  • माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तर्क दिया गया कि ‘खुले न्यायालयों’ की संवैधानिक शर्तों को पूरा करने के लिये भौतिक रूप से सुनवाई करना आवश्यक नहीं है। खुली अदालतें अपने भौतिक  अस्तित्व में ऐसे समय में आई थी, जब तकनीक उतनी उन्नत अवस्था में नहीं थी।
  • जस्टिस एन. वी. रमाना की अगुवाई में उच्चतम न्यायालय के सात न्यायधीशों की एक समिति ने COVID-19 मामलों में अत्यधिक वृद्धि और इसके खतरनाक परिणामों को देखते हुए आभासी न्यायालय की प्रणाली को जारी रखने का फैसला किया।
  • इस दौरान अधिवक्ताओं ने आभासी स्क्रीन पर घर से ही काम किया तथा महत्त्वपूर्ण मामलों को ऑनलाइन सुना गया। इस दौरान न्यायालय द्वारा मामलों को दायर करने और न्यायिक प्रक्रियाओं के लिये ई-मेल और मैसेजिंग सेवाओं का उपयोग किया गया।

आभासी अदालतों की सीमाएँ  

  • आभासी न्यायालय की कार्यवाही के लिये बुनियादी ढाँचे की कमी एक प्रमुख समस्या है। अधिवक्ताओं का दावा है कि 50 प्रतिशत से अधिक अधिवक्ताओं के पास लैपटॉप या कंप्यूटर नहीं हैं। उन्होंने तर्क दिया है कि यह 'तकनीकी के जानकार अधिवक्ताओं' के अधिक पक्ष में है।
  • खुले न्यायालयों में अधिवक्ताओं के पास न्यायाधीशों की मनोदशा को समझ कर उन्हें समझाने का बेहतर मौका होता है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सुनवाई अधिवक्ताओं के साथ-साथ न्यायाधीशों पर भी एक मनोवैज्ञानिक दबाव डालती है, क्योंकि इसके माध्यम से दर्ज साक्ष्य, जैसे- चेहरे के भाव और मुद्राएँ आदि गैर-मौखिक संकेतों को विकृत किया जा सकता है। 
  • ऑनलाइन कार्यवाही में भाग लेने के लिये इंटरनेट की आवश्यक न्यूनतम गति 2mbps /sec होनी चाहिये और यह गति केवल 4G में उपलब्ध है। TRAI के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2019 तक केवल 436.12 मिलियन उपयोगकर्ताओं के पास ही 4G सेवा की उपलब्धता है। 

आगे की राह 

  • अदालत की सुनवाई में वीडियो कॉन्फ्रेसिंग के माध्यम से आभासी कोर्ट रूम की तकनीक को अपनाना वर्तमान महामारी के संकट के समय में अधिक महत्त्वपूर्ण है। 
  • आभासी कोर्ट रूम की प्रक्रिया को आगे भी जारी रखने के लिये पर्याप्त अवसंरचना का विकास किया जाना चाहिये। न्याय प्रशासन में तकनीकी नवाचारों को एक प्रगतिशील, संरचित और चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाना एक बेहतर विकल्प हो सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

वन क्षेत्रों में अन्वेषण हेतु अनिवार्य शुल्क में छूट

प्रिलिम्स के लिये:

वन सलाहकार समिति, शुद्ध वर्तमान मूल्य (NVP)

मेन्स के लिये:

ऊर्जा सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण की चुनौती से संबंधित प्रश्न 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘वन सलाहकार समिति’ (Forest Advisory Committee- FAC) ने केंद्रीय खान मंत्रालय द्वारा वन्य क्षेत्रों में पूर्वेक्षण तथा अन्वेषण हेतु ‘शुद्ध वर्तमान मूल्य’ (Net Present Value- NVP) शुल्क को माफ किये जाने की मांग को खारिज कर दिया है।

प्रमुख बिंदु:

  • गौरतलब है कि 18 अगस्त, 2020 को केंद्रीय खान मंत्रालय ने वन्य क्षेत्रों में हाइड्रोकार्बन, धातु और गैर-धातु खनिजों के अन्वेषण और पूर्वेक्षण को ‘वन संरक्षण अधिनियम’ (Forest Conservation Act) के दायरे से बाहर रखने की मांग की थी।
  • केंद्रीय खान मंत्रालय ने NVP को अन्वेषण/पूर्वेक्षण गतिविधियों में देरी का एक प्रमुख कारण बताया था।
  • FAC ने NVP को पूरी तरह समाप्त करने की मांग को खारिज कर दिया है परंतु समिति ने ‘केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ को इसमें कुछ छूट देने का सुझाव दिया है।
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2018 में केंद्रीय कोयला मंत्रालय, केंद्रीय खान मंत्रालय और केंद्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने प्राकृतिक संसाधनों की खोज के लिये बोरहोल (Borehole) की खुदाई हेतु फाॅरेस्ट क्लीयरेंस से छूट की मांग की थी।
  • इस मामले में भी वन सलाहकार समिति (Forest Advisory Committee) ने छूट देने से इनकार कर दिया था परंतु समिति ने प्रक्रिया को सरल बनाने पर सहमति व्यक्त की थी।

क्या है शुद्ध वर्तमान मूल्य? 

  • शुद्ध वर्तमान मूल्य से आशय उस मूल्य/निधि के मौद्रिक सन्निकटन से है जो वन के किसी भाग को नष्ट किये जाने के कारण खो दिया जाता है।
  • सरल भाषा में कहें तो NVP किसी वन और उसके पारिस्थितिक तंत्र को अवसंरचना परियोजनाओं के कारण होने वाली क्षति की भरपाई और इसके संरक्षण के प्रयासों के लिये किया जाने वाला अग्रिम भुगतान है। 
  • NVP की गणना के लिये कुछ सूत्र निर्धारित हैं, NVP का निर्धारण वन की अवस्थिति और प्रकृति तथा उस क्षेत्र के लिये प्रस्तावित औद्योगिक उद्यम के प्रकार पर निर्भर करता है।
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 2019 अत्यंत घने वनों के लिये प्रति हेक्टेयर NVP 10,43,000 रुपए था। 
  • उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्ष 2002 में गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिये वन भूमि का उपयोग करने के लिये NVP का भुगतान करना अनिवार्य कर दिया गया और इसमें बहुत ही सीमित छूट की अनुमति है।
  • NVP का विकास उच्चतम न्यायालय के निर्देश के आधार पर आर्थिक विकास संस्थान (Institute of Economic Development) की प्रो. कंचन चोपड़ा की अध्यक्षता में बनी एक समिति द्वारा किया गया था।

केंद्रीय खान मंत्रालय का पक्ष:

  • केंद्रीय खान मंत्रालय के अनुसार, अन्वेषण के लिये चुने गए सभी क्षेत्रों को खदानों में परिवर्तित नहीं किया गया जाता बल्कि इनमें से मात्र 1% पर ही खनन का कार्य प्रारंभ होता है।
  • इसे देखते हुए NVP को एक परिहार्य व्यय के रूप में देखा जाता है, जिसे हटाया जाना चाहिये।
  • ध्यातव्य है कि खनन कंपनियों को अन्वेषण के लिये पट्टे/लीज़ पर दी गई वन भूमि पर NVP का 2-5% राशि जमा करना पड़ता है।

सुझाव:   

  • वन सलाहकार समिति के अनुसार, अन्वेषण से जुड़े कार्यों के लिये NVP को पूरी तरह समाप्त करना संभव नहीं होगा हालाँकि समिति ने ‘केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ को प्रति बोरहोल पर शुल्क लागू करने का सुझाव दिया है।
  • इसके अनुसार, मंत्रालय द्वारा पट्टे पर दी गई कुल वन भूमि के NVP पर शुल्क वसूल करने के स्थान पर कंपनियों पर प्रति बोरहोल के आधार पर शुल्क लागू किया जा सकता है।

अन्य प्रयास:

  • केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा अन्वेषण परियोजनाओं की मंज़ूरी में तेज़ी लाने के लिये अन्वेषण हेतु नक्शों के पैमाने निर्धारित करने में कुछ छूट देने पर भी विचार किया जा रहा है। 
  • गौरतलब है कि वन क्षेत्रों में खनिज या हाइड्रोकार्बन के खनन हेतु 25 या इससे कम अन्वेषण बोरहोल खोदने के लिये पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है।  
  • हालाँकि 25 से अधिक बोरहोल वाली परियोजनाओं के लिये भूकंपीय सर्वेक्षण, पूर्व वन मंज़ूरी, NPV भुगतान आदि की आवश्यकता होती है। 

लाभ:  

  • FAC के इस सुझाव के लागू होने के बाद खनन कंपनियों के लिये वन क्षेत्रों में अन्वेषण की प्रक्रिया आसान हो जाएगी।
  • इसके माध्यम से खनन प्रक्रिया की लागत में कमी आएगी और इस क्षेत्र में निजी कंपनियों को प्रोत्साहित करने में सहायता प्राप्त होगी।

चुनौतियाँ:

  • FAC द्वारा अन्वेषण हेतु NVP भुगतान को पूरी तरह न समाप्त करन एक तार्किक निर्णय है परंतु इस निर्णय से पर्यावरण संरक्षण को लेकर भी प्रश्न उठेंगे। 
  • आमतौर पर खनन प्रक्रिया के लिये बहुत बड़े क्षेत्र की आवश्यकता होती है और इसका प्रभाव क्षेत्र की मानव आबादी के साथ-साथ पारिस्थितिकी तंत्र पर भी पड़ता है।
  • नियमों में अधिक छूट देने से औद्योगिक क्षेत्र द्वारा पर्यावरण दोहन की गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा। 
  • ध्यातव्य है कि इससे पहले केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को असम के ‘डिब्रू-सैखोवा राष्टीय उद्यान’ के पास ‘ऑयल इंडिया लिमिटेड’ (Oil India Limited- OIL) को अन्वेषण बोरहोल खोदने की अनुमति देने के लिये विरोध का सामना करना पड़ा था।
  • असम के तिनसुकिया ज़िले में ‘ऑयल इंडिया लिमिटेड’ (Oil India Limited- OIL) के बागान/बागजान (Baghjan) गैस कुएँ में तेल रिसाव की घटना से क्षेत्र में काफी क्षति हुई थी।

आगे की राह:

  • वर्तमान में देश के विकास और बढती ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिये आयात पर निर्भरता को कम करते हुए देश को ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना बहुत ही आवश्यक है।
  • हालाँकि ऊर्जा स्रोतों के अन्वेषण और खनन को बढ़ावा देने के साथ पर्यावरण संरक्षण को सुनिश्चित करना भी बहुत आवश्यक है।
  • ऊर्जा ज़रूरतों के लिये नवीकरणीय ऊर्जा के विकल्पों को अपनाने के साथ खनन क्षेत्र में भी नवोन्मेष को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।   
  • ‘ऑयल इंडिया लिमिटेड’ के अनुसार, राष्ट्रीय उद्यानों में अन्वेषण के लिये तकनीकी के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाएगा जिससे वनों के अंदर जाकर खुदाई की आवश्यकता नहीं होगी। 

वन सलाहकार समिति (Forest Advisory Committee- FAC):

  • FAC ‘वन (संरक्षण) अधिनयम, 1980 के तहत स्थापित एक संविधिक निकाय है।
  • FAC ‘केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ (Ministry of Environment, Forest and Climate Change-MOEF&CC) के अंतर्गत कार्य करती है।
  • केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के वन महानिदेशक इस समिति के अध्यक्ष होते हैं।
  • यह समिति गैर-वन उपयोगों जैसे-खनन, औद्योगिक परियोजनाओं आदि के लिये वन भूमि के प्रयोग की अनुमति देने और सरकार को वन मंज़ूरी के मुद्दे पर सलाह देने का कार्य करती है

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

ब्रह्मांड में विशालकाय रेडियो आकाशगंगाएँ

प्रिलिम्स के लिये

विशालकाय रेडियो आकाशगंगा, ब्लैक होल  

मेन्स के लिये

GRGs के अध्ययन की उपयोगिता  

चर्चा में क्यों?

ब्रह्मांड में एकल संरचना वाली विशालकाय रेडियो आकाशगंगा (Giant Radio Galaxies-GRGs) पर कार्य करने वाले अनुसंधानकर्ताओं ने GRGs के आज तक के सबसे बड़े नमूने की खोज की है। हाल ही  में ‘खगोल विज्ञान और खगोल भौतिकी’ जर्नल में एक शोध कार्य प्रकाशित हुआ है। 

प्रमुख बिंदु

  • वर्ष 1974 में GRGs की खोज के पश्चात् वर्ष 2016 तक लगभग 300 GRGs के बारे में जानकारी मिल चुकी थी। वर्तमान में लगभग 400 GRGs को खोजा गया है और अब इनकी कुल संख्या 820 के लगभग है। 
  • GRGs की इतने बड़े पैमाने पर वृद्धि और इनके केंद्र में स्थित ब्लैक होल के पीछे उपस्थित कारणों के बारे में अब तक स्पष्ट रूप से कोई जानकारी नहीं मिली है। 
  • अनुसंधानकर्ताओं ने इनकी विशेषताओं की तुलना इनके ब्लैक होल के कुल द्रव्यमान से की है, जिसमें समानता पाई गई। केवल 10 प्रतिशत GRGs ही सघन वातावरण में पाए जाते हैं, जो यह दर्शाता है कि अधिकतर GRGs सघन वातावरण में विद्यमान नहीं हैं। 
  • अनुसंधानकर्ताओं द्वारा इस कार्य में सैकड़ों रेडियो और प्रकाशीय (Optical) चित्रों के माध्यम से विस्तृत विश्लेषण और व्याख्या के पश्चात् उनके परस्पर संबंध का पता लगाने का प्रयास किया गया है।

क्या है GRGs?

  • ब्रह्मांड में अरबों आकाशगंगाएँ हैं और लगभग सभी आकाशगंगाओं के केंद्र में सुपरमैसिव ब्लैक होल विद्यमान हैं। इनमें से कुछ ब्लैक होल सक्रिय हैं। ये ब्लैक हॉल लगभग प्रकाश की गति से यात्रा करने वाले जेट का उत्पादन करते हैं। ये जेट रेडियो प्रकाश या विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम के रेडियो तरंग दैर्ध्य में दिखाई देते हैं।  
  • ऐसी आकाशगंगाएँ जिनमें उच्च गति वाले जेट्स को सक्रिय करने वाले ब्लैक होल होते हैं, रेडियो आकाशगंगा कहलाती हैं।
  • जेट के साथ रेडियो आकाशगंगा का कुल रैखिक विस्तार या आकार प्रकाश में देखी गई आकाशगंगा की तुलना में बहुत बड़ा होता है।  
  • रेडियो आकाशगंगा का एक अंश, विशेष परिस्थितियों में विशाल पैमाने अथवा मेगा-पारसेक पैमाने (लाखों प्रकाश वर्ष, प्रकाश वर्ष=9.46 x 1,015 मीटर) तक वृद्धि करने के पश्चात् विशालकाय रेडियो आकाशगंगा (GRG) कहलाता है।

GRGs के अध्ययन की उपयोगिता 

  • जेट की लंबाई से हमें ब्लैक होल की शक्ति और सक्रियता का पता चलता है। साथ ही इन ब्रह्मांडीय निकायों के वातावरणीय घनत्व के बारे में भी जानकारी मिलती है। इसलिये GRGs का अध्ययन महत्त्वपूर्ण  है।
  • पहली बार GRGs की इतनी बड़ी सूची बनाई गई है। इस सूची का उपयोग करके GRGs की कई संरचनात्मक विशेषताओं का अध्ययन किया गया है। इससे इस तरह के ब्रह्मांडीय निकायों के प्रति समझ में कई गुना अधिक वृद्धि हुई है।
  • ब्रह्मांड में इन विशालकाय रेडियो आकाशगंगा के निर्माण और इनकी संरचना के अध्ययन से  आकाशगंगाओं और अन्य ब्रह्मांडीय निकायों के निर्माण के बारे में भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

ब्लैक होल

  • ब्लैक होल (कृष्ण छिद्र) शब्द का उपयोग सर्वप्रथम अमेरिकी भौतिकविद् जॉन व्हीलर ने 1960 के दशक के मध्य में किया था।
  • ब्लैक होल अंतरिक्ष में उपस्थित ऐसे छिद्र हैं जहाँ गुरुत्वाकर्षण बल इतना अधिक होता है कि यहाँ से प्रकाश का पारगमन नहीं हो पाता। इनसे प्रकाश के बाहर नहीं निकल सकने के कारण हमें ब्लैक होल दिखाई नहीं देते। हालाँकि विशेष उपकरणों से युक्त अंतरिक्ष टेलीस्कोप की मदद से ब्लैक होल की पहचान की जा सकती है।

निष्कर्ष 

GRGs का अध्ययन ब्लैक होल में बड़े पैमाने पर अभिवृद्धि एवं विस्तार, इनके द्वारा भव्य जेट का निर्माण और ब्रह्मांडीय निकायों की उत्पत्ति व संरचना को समझने के संदर्भ में बहुत उपयोगी है। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

UK आंतरिक बाज़ार विधेयक , 2020

प्रिलिम्स के लिये

UK आंतरिक बाज़ार विधेयक, 2020

मेन्स के लिये

UK आंतरिक बाज़ार विधेयक, 2020 से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

यूनाइटेड किंगडम का नया आंतरिक बाज़ार विधेयक (UK Internal Market Bill) यूरोपीय संघ और अंतर्राष्ट्रीय संधियों पर इसके प्रभावों के चलते विवादों में आ गया है।

United-Kingdom

प्रमुख बिंदु

विधेयक के बारे में:

  • इस विधेयक को EU से बाहर निकलने के समय (2020 के ट्रांज़ीशन पीरियड) के बाद UK में "रोज़गार और व्यापार की रक्षा" के लिये तैयार किया गया है।
    • EU से बाहर आने के लिये की गई संधि के तहत, दिसंबर 2020 तक इस ट्रांज़ीशन पीरियड को अंतिम रूप दिया जाना है।
  • यह विधेयक UK सरकार को स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड को वित्तीय सहायता प्रदान करने में सक्षम बनाएगा तथा सरकार को पूर्व में यूरोपीय संघ द्वारा प्रशासित करदाताओं के पैसे को खर्च करने के नए अधिकार भी प्रदान करेगा।
  • यह मंत्रियों को विशेष रूप से व्यापार और राज्य सहायता पर विनियमों को पारित करने का भी अधिकार देगा, भले ही वे आयरिश बैकस्टॉप (जिसे पहले उत्तरी आयरलैंड प्रोटोकॉल के रूप में जाना जाता था) के रूप में पहचाने जाने वाले यूरोपीय संघ के तहत हुए पहले के समझौते के विपरीत हों।
    • आयरिश बैकस्टॉप UK और यूरोपीय संघ के बीच एक मसौदा समझौता है जिसका उद्देश्य UK द्वारा यूरोपीय संघ छोड़ने के बाद आयरलैंड में मज़बूती से सीमा की रोकथाम (सीमा शुल्क अधिकारियों और पुलिस की तैनाती के साथ ऑथराइज़्ड क्रॉसिंग पॉइंट की सीमित संख्या) करना है।
    • संक्रमण अवधि समाप्त होने के बाद उत्तरी आयरलैंड UK की एकमात्र ऐसी ज़मीनी सीमा होगी जो EU से जुड़ती होगी।
  • UK का मानना है कि इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड के बीच सुगम व्यापार के लिये यह विधेयक आवश्यक है, और यह COVID-19 महामारी से उबरने में भी मदद करेगा।

वर्तमान प्रणाली:

  • वर्तमान में UK यूरोपीय एकल बाज़ार का एक हिस्सा है, जिसमें संयुक्त रूप से पूरे महाद्वीप में लागू होने वाले नियमों और मानकों पर सहमति बनी हुई है।
  • ब्रेक्ज़िट के बाद UK इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड में एक संयुक्त और "आंतरिक बाज़ार" की व्यवस्था को जारी रखना चाहता है।
  • ब्रेक्ज़िट के कारण खाद्य और वायु गुणवत्ता तथा पशु कल्याण जैसी चीजों के विषय में नियम और कानून केवल ब्रिटेन में ही बनाए जाने हैं, लेकिन इस बात पर संघर्ष बना हुआ है कि इन नियमों और कानूनों के संदर्भ में अंतिम अधिकार चार देशों में से किसके पास होना चाहिये।

आलोचना:

  • इसे एक स्वतंत्र तीसरे पक्ष के मंच के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन व्यवस्थापित प्रशासन इसे उनके अधिकार क्षेत्र को हथियाए जाने का एक विकल्प मानते हैं।
  • EU की वापसी की संधि (Withdrawal Treaty) के तहत, इंग्लैंड को उत्तरी आयरलैंड के लिये किसी भी व्यवस्था पर ब्रुसेल्स (EU का मुख्यालय) के साथ सहयोग करना होगा, इस तरह के मामलों को वह स्वयं से तय नहीं कर सकता है।
  • स्कॉटलैंड का मानना है कि नया विधेयक इंग्लैंड द्वारा स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड में व्यवस्थापित प्रशासन से सत्ता हथियाने का एक उपाय है।
  • सभी चार देशों को किसी एक देश में निर्धारित मानकों पर वस्तुओं को स्वीकार करना होगा जिसके चलते स्थानीय उत्पादों की गुणवत्ता के नियंत्रण को लेकर आशंका की स्थिति बनी हुई है। यदि इंग्लैंड कोई ऐसे मानक निर्धारित करता है जो बाकी तीनों देशों के लिये व्यावहारिक या लाभदायक साबित नहीं होते है तो इससे तनाव बढ़ेगा ।
    • इसके अलावा, मौजूदा प्रस्तावों के तहत, किसी भी विवाद को आंतरिक बाज़ार के लिये स्थापित किये जाने वाले एक नई व्यवस्था द्वारा सुलझाया जाएगा।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

पैरोल एवं फर्लो के लिये संशोधित दिशा-निर्देश

प्रिलिम्स के लिये

पैरोल एवं फर्लो में अंतर

मेन्स के लिये

COVID-19 के मद्देनज़र कैदियों की रिहाई और सामाजिक सुरक्षा

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय (MHA) ने मॉडल जेल मैनुअल, 2016 (Model Prison Manual, 2016) में पैरोल (Parole) एवं फर्लो (Furlough) से संबंधित दिशा-निर्देशों को संशोधित किया है।

प्रमुख बिंदु:

  • केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों को एक एडवाइज़री जारी करते हुए संशोधित दिशा-निर्देशों का पालन करने के लिये कहा है। जिसमें मंत्रालय ने तर्क दिया है कि ‘पैरोल पर रिहाई एक पूर्ण अधिकार नहीं है यह एक ‘रियायत’ मात्र है अतः राज्यों को अपनी मौजूदा प्रथाओं की समीक्षा करनी चाहिये। 

संशोधित दिशा-निर्देश:   

  • केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों को पैरोल एवं फर्लो (Furlough) पर उन कैदियों को रिहा नहीं करने का आदेश दिया है जिन्हें राज्य या व्यक्तियों की सुरक्षा के लिये खतरा माना जाता है।
    • सजा के एक तरीके के अलावा कारावास का उद्देश्य आपराधिक गतिविधियों से समाज की रक्षा करना भी है इसलिये पैरोल पर रिहाई एक पूर्ण अधिकार नहीं बल्कि एक रियायत मात्र है इसलिये कैदियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने तथा समाज को और अधिक नुकसान से बचाने के बीच एक संतुलन स्थापित किया जाना आवश्यक है।
  • इस प्रकार के पैरोल के लाभ एवं हानि के बारे में राज्यों के पैरोल नियमों की समीक्षा की जाएगी।
  • पैरोल एवं फर्लो (Furlough) को नियमित कार्यक्रम का विषय नहीं माना जा सकता है और अधिकारियों एवं व्यवहार विशेषज्ञों की एक समिति कैदियों विशेष रूप से यौन अपराध एवं हत्या, बाल अपहरण, हिंसा आदि जैसे गंभीर अपराधों के लिये सजा पाने वाले, के संबंध में निर्णय ले सकती है।
  • मनोवैज्ञानिक/अपराधविज्ञानी/सुधारक प्रशासन विशेषज्ञों को समीक्षा बोर्ड या समिति में सदस्य के रूप में शामिल करना जो कैदियों को पैरोल एवं फर्लो (Furlough) की छूट का निर्णय करती है।

पृष्ठभूमि:

  • COVID-19 महामारी के मद्देनज़र जेलों में भीड़भाड़ से बचने के लिये सरकार पर कैदियों को रिहा करने का दबाव है। इससे पहले भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी COVID-19 के प्रकोप के कारण जेलों, सुधार घरों एवं निवारक केंद्रों पर COVID-19 निवारक उपायों पर आदेश जारी किया है।
    • उल्लेखनीय है कि जेल, राज्य सूची का विषय है और सभी राज्यों में कैदियों के अच्छे आचरण के आधार पर पैरोल, फर्लो (Furlough), माफी एवं समय से पहले रिहाई के अपने-अपने नियम हैं।
  • केंद्रीय गृहमंत्रालय के दिशा-निर्देश पैरोल एवं फर्लो (Furlough) पर जारी किये गए कई कैदियों की रिपोर्ट की पृष्ठभूमि में आए हैं जिनमें से कुछ जेल से बाहर अपराधों में लिप्त पाए गए हैं।

पैरोल (Parole):

  • यह एक कैदी को सजा के निलंबन के साथ रिहा करने की व्यवस्था है। इसमें कैदी की रिहाई सशर्त होती है जो आमतौर पर कैदी के व्यवहार पर निर्भर करती है, जिसमें समय-समय पर अधिकारियों को रिपोर्टिंग की आवश्यकता होती है। 
  • पैरोल एक अधिकार नहीं है, इसे एक विशिष्ट कारण के लिये कैदी को दिया जाता है जैसे- परिवार में किसी अपने की मृत्यु या करीबी रिश्तेदार की शादी आदि।
  • इसमें एक कैदी को पैरोल देने से मना भी किया जा सकता है यदि सक्षम प्राधिकारी इस बात से संतुष्ट हो जाता है कि दोषी को रिहा करना समाज के हित में नहीं है।

फर्लो (Furlough):

  • कुछ महत्त्वपूर्ण अंतरों के साथ यह पैरोल के समान है। इसे लंबी अवधि के कारावास के मामलों में दिया जाता है। एक कैदी को दी गई फर्लो (Furlough) की अवधि को उसकी सजा की छूट के रूप में माना जाता है।
  • पैरोल के विपरीत इसे एक कैदी के अधिकार के रूप में देखा जाता है। इसे समय-समय पर बिना किसी कारण के कैदी को दिया जाता है जिससे कैदी परिवार एवं सामाजिक संबंधों को बनाए रखने और जेल में बिताए लंबे समय के बुरे प्रभावों का मुकाबला करने में सक्षम हो सके।
  • यद्यपि पैरोल एवं फर्लो (Furlough) दोनों को कैदी की सुधार प्रक्रिया के रूप में माना जाता है। ये प्रावधान जेल प्रणाली को मानवीय बनाने के उद्देश्य से पेश किये गए थे।
    • पैरोल एवं फर्लो (Furlough) को जेल अधिनियम 1894 (Prisons Act of 1894) के तहत सृजित किया गया है।

आगे की राह: 

  • राज्य अधिकारियों हेतु यह सुनिश्चित करने के लिये उनके दिशा-निर्देशों की समीक्षा करना आवश्यक है कि उन्हें (कैदियों) राहत एवं पुनर्वास प्रदान करने के इरादे से पैरोल, फर्लो (Furlough) और समय से पहले रिहाई आदि के माध्यम से कैदियों को दी जाने वाली सुविधा एवं रियायत का दुरुपयोग न हो सके। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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