विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
गगनयान मिशन
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री द्वारा यह जानकारी दी गई है कि मानव अंतरिक्षयान गगनयान को दूसरे मानव रहित मिशन जिसे वर्ष 2022-23 में लॉन्च किया जाना है, के बाद लॉन्च किया जाएगा।
- शुरुआत में 10,000 करोड़ रुपए की लागत वाले गगनयान मिशन के लक्ष्य के तहत वर्ष 2022 तक (इसी वर्ष भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होंगे) तीन सदस्यीय दल को पाँच से सात दिनों के लिये अंतरिक्ष में भेजने की परिकल्पना की गई थी।
- उल्लेखनीय है कि पहले मानवरहित मिशन को दिसंबर 2021 तक अंतरिक्ष में भेजने की योजना बनाई गई है।
- कोविड-19 प्रेरित लॉकडाउन के कारण इस मिशन में देरी हुई है।
प्रमुख बिंदु
- गगनयान मिशन के विषय में:
- गगनयान भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (Indian Space Research Organisation- ISRO) का एक मिशन है।
- इस मिशन के तहत:
- तीन अंतरिक्ष मिशनों को कक्षा में भेजा जाएगा।
- इन तीन मिशनों में से 2 मानवरहित होंगे, जबकि एक मानव युक्त मिशन होगा।
- मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम, जिसे ऑर्बिटल मॉड्यूल कहा जाता है, में एक महिला सहित तीन भारतीय अंतरिक्ष यात्री होंगे।
- यह मिशन 5-7 दिनों के लिये पृथ्वी से 300-400 किमी. की ऊँचाई पर निम्न भू-कक्षा में पृथ्वी का चक्कर लगाएगा।
- पेलोड:
- पेलोड में शामिल होंगे:
- क्रू मॉड्यूल- मानव को ले जाने वाला अंतरिक्षयान।
- सर्विस मॉड्यूल- दो तरल प्रणोदक इंजनों द्वारा संचालित।
- यह आपातकालीन निकास और आपातकालीन मिशन अबोर्ट व्यवस्था से लैस होगा।
- पेलोड में शामिल होंगे:
- प्रमोचन:
- गगनयान के प्रमोचन हेतु तीन चरणों वाले GSLV Mk III का उपयोग किया जाएगा जो भारी उपग्रहों के प्रमोचन में सक्षम है। उल्लेखनीय है कि GSLV Mk III को प्रमोचन वाहन मार्क-3 (Launch Vehicle Mark-3 or LVM 3) भी कहा जाता है।
- रूस में प्रशिक्षण:
- जून 2019 में इसरो के मानव अंतरिक्ष उड़ान केंद्र तथा रूस सरकार के स्वामित्व वाली Glavkosmos ने भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों के प्रशिक्षण हेतु एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किये, जिसमें उम्मीदवारों के चयन में रूस का समर्थन, चयनित यात्रियों का चिकित्सीय परीक्षण तथा अंतरिक्ष प्रशिक्षण शामिल हैं।
- अंतरिक्ष यात्री के रूप में चयनित उम्मीदवार सोयुज़ (Soyuz) मानव युक्त अंतरिक्षयान की प्रणालियों का विस्तार से अध्ययन करेंगे, साथ ही Il-76MDK विमान में अल्पकालिक भारहीनता मोड में प्रशिक्षित होंगे।
- सोयुज़ एक रूसी अंतरिक्षयान है जो लोगों को अंतरिक्ष स्टेशन पर ले जाने तथा वापस लाने और अन्य सामग्रियों की आपूर्ति का कार्य करता है।
- Il-76MDK एक सैन्य परिवहन विमान है जिसे विशेष रूप से प्रशिक्षु अंतरिक्ष यात्रियों और अंतरिक्ष पर्यटकों की परवलयिक उड़ानों के लिये डिज़ाइन किया गया है।
- महत्त्व:
- यह देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के स्तर को बढ़ाने तथा युवाओं को प्रेरित करने में मदद करेगा।
- गगनयान मिशन में विभिन्न एजेंसियों, प्रयोगशालाओं, उद्योगों और विभागों को शामिल किया जाएगा।
- यह औद्योगिक विकास में सुधार करने में मदद करेगा।
- सरकार ने अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी भागीदारी को बढ़ाने हेतु किये जा रहे सुधारों के क्रम में हाल ही में एक नए संगठन IN-SPACe के गठन की घोषणा की है।
- यह सामाजिक लाभों के लिये प्रौद्योगिकी के विकास में मदद करेगा।
- यह अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने में मदद करेगा।
- कई देशों के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (International Space Station-ISS) पर्याप्त नहीं हो सकता है क्योंकि क्षेत्रीय पारिस्थितिक तंत्र को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है, अतः गगनयान मिशन क्षेत्रीय ज़रूरतों- खाद्य, जल एवं ऊर्जा सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करेगा।
- यह देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के स्तर को बढ़ाने तथा युवाओं को प्रेरित करने में मदद करेगा।
- भारत की अन्य आगामी परियोजनाएँ:
- चंद्रयान- 3 मिशन: भारत ने एक नए चंद्र मिशन चंद्रयान-3 की योजना बनाई है जिसे वर्ष 2021 में लॉन्च किये जाने की संभावना है।
- शुक्रयान मिशन (Shukrayaan Mission): इसरो शुक्र ग्रह हेतु भी एक मिशन की योजना बना रहा है, जिसे अस्थायी रूप से शुक्रयान नाम दिया गया है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
राजद्रोह कानून
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने एक राजनीतिक नेता और छह वरिष्ठ पत्रकारों को उनके खिलाफ दर्ज राजद्रोह के कई मामलो में गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान किया है।
प्रमुख बिंदु:
- राजद्रोह कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
- राजद्रोह कानून को 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड में अधिनियमित किया गया था, उस समय विधि निर्माताओं का मानना था कि सरकार के प्रति अच्छी राय रखने वाले विचारों को ही केवल अस्तित्व में या सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होना चाहिये, क्योंकि गलत राय सरकार और राजशाही दोनों के लिये नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकती थी।
- इस कानून का मसौदा मूल रूप से वर्ष 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, लेकिन वर्ष 1860 में भारतीय दंड सहिता (Indian Penal Code- IPC) लागू करने के दौरान इस कानून को IPC में शामिल नहीं किया गया।
- सर जेम्स स्टीफन को वर्ष 1870 में स्वतंत्रता सेनानियों के विचारों का दमन करने के लिये एक विशिष्ट कानून की आवश्यकता महसूस हुई। अतः उन्होंने धारा 124A को भारतीय दंड संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1870 के अंतर्गत IPC में शामिल किया।
- यह उस समय उत्पन्न किसी भी प्रकार के असंतोष को दबाने हेतु लागू कई कठोर/सख्त कानूनों में से एक था।
- वर्तमान में राजद्रोह कानून की स्थिति: भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के तहत राजद्रोह एक अपराध है।
राजद्रोह से जुड़े चर्चित मुद्दे
- महारानी बनाम बाल गंगाधर तिलक- 1897
शायद इतिहास में राजद्रोह के सबसे प्रसिद्ध मामले औपनिवेशिक शासन के खिलाफ हमारे देश के स्वतंत्रता सेनानियों के ही रहे हैं। भारत की स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक बाल गंगाधर तिलक पर दो बार राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। सर्वप्रथम वर्ष 1897 में जब उनके एक भाषण ने कथित तौर पर अन्य लोगों को हिंसक व्यवहार के लिये उकसाया और जिसके परिणामस्वरूप दो ब्रिटिश अधिकारियों की मौत हो गई। इसके बाद वर्ष 1909 में जब उन्होंने अपने अखबार केसरी में एक सरकार विरोधी लेख लिखा।
- केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य- 1962
यह मामला स्वतंत्र भारत की किसी अदालत में राजद्रोह का पहला मुकदमा था। इस मामले में पहली बार देश में राजद्रोह के कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई और मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने देश और देश की सरकार के मध्य के अंतर को भी स्पष्ट किया। बिहार में फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदार नाथ सिंह पर तत्कालीन सत्ताधारी सरकार की निंदा करने और क्रांति का आह्वान करने हेतु भाषण देने का आरोप लगाया गया था। इस मामले में अदालत ने स्पष्ट कहा था कि किसी भी परिस्थिति में सरकार की आलोचना करना राजद्रोह के तहत नहीं गिना जाएगा।
- असीम त्रिवेदी बनाम महाराष्ट्र राज्य- 2012
विवादास्पद राजनीतिक कार्टूनिस्ट और कार्यकर्त्ता, असीम त्रिवेदी जो अपने भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान (कार्टून्स अगेंस्ट करप्शन) के लिये सबसे ज़्यादा जाने जाते हैं, को वर्ष 2010 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उनके कई सहयोगियों का मानना था कि असीम त्रिवेदी पर राजद्रोह का आरोप भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान के कारण ही लगाया गया है।
- वर्तमान में राजद्रोह कानून की स्थिति: भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के तहत राजद्रोह एक अपराध है।
- धारा 124A IPC:
- भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के अनुसार, राजद्रोह एक प्रकार का अपराध है। इस कानून में राजद्रोह के अंतर्गत भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में घृणा या अवमानना या उत्तेजना पैदा करने के प्रयत्न को शामिल किया जाता है।
- विद्रोह में वैमनस्य और शत्रुता की सभी भावनाएँ शामिल होती हैं। हालाँकि इस खंड के तहत घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किये बिना की गई टिप्पणियों को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है।
- राजद्रोह के लिये दंड:
- राजद्रोह गैर-जमानती अपराध है। राजद्रोह के अपराध में तीन वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा हो सकती है और इसके साथ ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
- इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी करने से रोका जा सकता है।
- आरोपित व्यक्ति को पासपोर्ट के बिना रहना होगा, साथ ही आवश्यकता पड़ने पर उसे अदालत में पेश होना ज़रूरी है।
- धारा 124A IPC:
- राजद्रोह कानून पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 1950 में बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य और रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य मामलों में दिये गए अपने निर्णयों में देशद्रोह पर प्रकाश डाला गया था।
- इस मामले में न्यायालय ने माना कि वे कानून जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इस आधार पर प्रतिबंधित करते हैं कि उनके कारण सार्वजनिक व्यवस्था बाधित हो सकती है, असंवैधानिक होंगे।
- न्यायालय ने माना कि सार्वजनिक व्यवस्था को भंग करने का अर्थ राज्य की नींव को खतरे में डालने या विधि द्वारा स्थापित सत्ता को चुनौती देना होगा।
- इस प्रकार इन निर्णयों ने प्रथम संविधान संशोधन का आधार निर्मित किया, जहांँ अनुच्छेद 19(2) को ‘सार्वजनिक व्यवस्था के हित में’ प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से दोबारा संशोधित किया गया था।
- सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1962 में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में धारा 124A की संवैधानिकता पर अपना निर्णय दिया।
- इसने देशद्रोह की संवैधानिकता को बरकरार रखा, लेकिन इसे अव्यवस्था पैदा करने का इरादा, कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी तथा हिंसा के लिये उकसाने की गतिविधियों तक सीमित कर दिया।
- देशद्रोह की परिभाषा से सरकार की आलोचना करने वाले "प्रभावशाली भाषणों" (Very Strong Speech) या ‘असरदार शब्दों’ (Vigorous Words) को बाहर कर दिया गया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1995 में बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में उन नारेबाज़ी की घटनाओं को देशद्रोह की श्रेणी से बाहर कर दिया, जिनके विरुद्ध सार्वजनिक प्रतिक्रिया न व्यक्त की गई हो।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 1950 में बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य और रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य मामलों में दिये गए अपने निर्णयों में देशद्रोह पर प्रकाश डाला गया था।
- धारा 124A के समर्थन में तर्क:
- IPC की धारा 124A राष्ट्र विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों से निपटने में उपयोगी है।
- यह धारा लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाती है। विदित है कि कानून द्वारा स्थापित सरकार का स्थायी अस्तित्व राज्य की स्थिरता की एक अनिवार्य शर्त है।
- यदि न्यायालय की अवमानना के लिये दंडात्मक कार्रवाई सही है तो फिर सरकार की अवमानना करने पर भी दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिये।
- आज विभिन्न राज्य माओवादी विद्रोह का सामना कर रहे हैं, अतः इनसे निपटने के लिये यह कानून आवश्यक है।
- ऐसे में धारा 124A का उपयोग केवल कुछ मामलों में गलत बताकर इसे समाप्त करना सही नहीं होगा।
- धारा 124A के विरुद्ध तर्क:
- धारा 124A औपनिवेशिक विरासत का अवशेष है जो एक लोकतांत्रिक देश में अनुपयुक्त है। यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी में बाधा डालता है।
- एक जीवंत लोकतंत्र में सरकार से असहमति और इसकी आलोचना परिपक्व सार्वजनिक बहस के आवश्यक तत्त्व हैं। इन्हें देशद्रोह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये।
- लोकतंत्र में प्रश्न करने, आलोचना करने और शासकों को बदलने का अधिकार इसका आधारभूत तत्त्व है।
- अंग्रेज़ों ने स्वयं ही अपने देश में भारतीयों पर अत्याचार करने के लिये बनाए इस कानून को खत्म कर दिया है। अतः भारत में इस कानून को बनाए रखने का पर्याप्त कारण नहीं है।
- धारा 124A के तहत इस्तेमाल किये जाने वाले शब्द जैसे कि 'असंतोष' (Disaffection) अस्पष्ट हैं, जाँच करने वाले अधिकारी अपनी सुविधा के अनुसार इनकी व्याख्या कर सकते हैं।
- राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिये आईपीसी और गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (Unlawful Activities Prevention Act), 2019 के अनुसार, "सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करना या सरकार को हिंसा तथा अवैध तरीकों से उखाड़ फेंकने की कोशिश करना" पर्याप्त कारण हैं। इसके लिये धारा 124A की कोई आवश्यकता नहीं है।
- राजद्रोह कानून का दुरुपयोग राजनीतिक उपकरण के रूप में किया जा रहा है। इस धारा के कार्यान्वयन में विस्तृत और केंद्रित निर्णय अंतनिहित होता है, जिसके कारण इसका दुरुपयोग होता है।
- भारत ने वर्ष 1979 में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय नियम (ICCPR) की पुष्टि की है, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिये मान्यता प्राप्त मानकों को निर्धारित करता है। अतः देशद्रोह का मनमाना आरोप भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के विरुद्ध है।
आगे की राह
- भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का एक अनिवार्य घटक है। अतः उन अभिव्यक्तियों या विचारों जो कि सरकार की नीति के अनुरूप नहीं है, को देश विरोधी नहीं माना जाना चाहिये।
- धारा 124A का दुरुपयोग भाषण की स्वतंत्रता को रोकने के एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने केदार नाथ मामले में कहा कि इस कानून के तहत लगाए गए अभियोग के दुरुपयोग की जाँच की जा सकती है। अतः इस धारा की आवश्यकता को बदले हुए तथ्यों और परिस्थितियों में पुनः जाँचने की ज़रूरत है।
- सर्वोच्च न्यायपालिका को अपनी पर्यवेक्षी शक्तियों का उपयोग भाषण की स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों को सुनिश्चित करने और पुलिस को संवेदनशील बनाने के लिये करना चाहिये।
- देशद्रोह की परिभाषा को सीमित किया जाना चाहिये, जिसमें भारत की क्षेत्रीय अखंडता के साथ-साथ देश की संप्रभुता से संबंधित मुद्दे भी शामिल हों।
- ‘देशद्रोह’ शब्द को परिभाषित करना बेहद जटिल कार्य है, अतः इसे सावधानी के साथ लागू करने की ज़रूरत है। यह एक तोप की तरह है जिसे चूहे को शूट करने के लिये इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये, लेकिन तोपों को एक निवारक के रूप में शस्त्रागार में होना भी चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
शासन व्यवस्था
UAPA अधिनियम के तहत दोषसिद्धि की निम्न दर
चर्चा में क्यों?
हाल ही में गृह मंत्रालय द्वारा राज्यसभा में प्रस्तुत किये गए आंँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016-2019 के मध्य गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत केवल 2.2% मामलों में ही न्यायालय में दोषसिद्ध हुए हैं।
मंत्रालय ने ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ (National Crime Records Bureau- NCRB) द्वारा संकलित ‘भारत में अपराध 2019’ ( Crime in India 2019) रिपोर्ट के आंँकड़ों का उद्धरण प्रस्तुत किया है।
प्रमुख बिंदु:
- अधिनियम:
- UAPA को मूलतः वर्ष 1967 में पारित किया गया था। यह आतंकवादी एवं विध्वंसकारी गतिविधियाँ निरोधक कानून- टाडा (वर्ष 1995 में व्यपगत) और आतंकवाद निरोधक अधिनियम- पोटा (वर्ष 2004 में निरस्त) का विकसित या उन्नत रूप है।
- मुख्य प्रावधान:
- वर्ष 2004 तक "गैर-कानूनी" गतिविधियों को क्षत्रीय अलगाव और अलगाव या विघटन से संबंधित कार्यों के लिये संदर्भित किया जाता था। वर्ष 2004 के संशोधन के बाद "आतंकवादी अधिनियम" को अपराधों की श्रेणी में शामिल किया गया।
- यह अधिनियम केंद्र सरकार को पूर्ण शक्ति प्रदान करता है, जिसके द्वारा यदि केंद्र किसी गतिविधि को गैर-कानूनी घोषित करता है तो वह आधिकारिक राजपत्र के माध्यम से इसकी घोषणा कर सकता है।
- UAPA के तहत जांँच एजेंसी गिरफ्तारी के बाद अधिकतम 180 दिनों के अंदर चार्जशीट दायर कर सकती है और अदालत को सूचित करने के बाद इस अवधि को और बढ़ाया जा सकता है।
- इसे भारतीय और विदेशी दोनों पर आरोपित किया जा सकता है। यह अधिनियम विदेशी और भारतीय दोनों ही अपराधियों पर समान रूप से लागू होता है।
- इसमें मृत्युदंड और आजीवन कारावास को उच्चतम दंड माना गया है।
- वर्ष 2019 में संशोधन:
- अगस्त 2019 में संसद ने गैर-कानूनी गतिविधियांँ (रोकथाम) संशोधन विधेयक, 2019 (Unlawful Activities (Prevention) Amendment Bill, 2019) को स्पष्ट किया और कहा कि इस अधिनियम के तहत उस व्यक्ति को
- आतंकवादी के रूप में चिह्नित किया जाए जो या तो आतंकवाद से संबंधित गतिविधियों में हिस्सा लेता है या आतंकवाद हेतु पृष्ठभूमि या आधार निर्मित करता है, आतंकवाद को बढ़ावा देता है या अन्यथा आतंकवाद में शामिल होता है।
- पहले से ही "आतंकवादी संगठन" के रूप में नामित संगठनों हेतु इस प्रकार के प्रावधान कानून के भाग 4 और 6 में मौजूद हैं।
- यह अधिनियम, राष्ट्रीय जांँच एजेंसी (National Investigation Agency- NIA) के महानिदेशक को उक्त एजेंसी द्वारा मामले की जांँच करने के दौरान संपत्ति की ज़ब्ती या कुर्की का अधिकार देता है।
- यह अधिनियम राज्य में DSP या ACP या उससे ऊपर के रैंक के अधिकारी द्वारा की जाने वाली जाँच के अलावा आतंकवाद के मामलों की जाँच करने के लिये NIA के इंस्पेक्टर या उससे ऊपर के रैंक के अधिकारी को अधिकार देता है।
- UAPA से संबंधित मुद्दे:
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन: यह अधिनियम राज्य को उन व्यक्तियों को हिरासत में लेने और गिरफ्तार करने के असीमित अधिकार प्रदान करता है जो आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त पाए जाते हैं। इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के विपरीत यह अधिनयम राज्य को अधिक शक्ति प्रदान करता है।
- असहमति के अधिकार पर अप्रत्यक्ष प्रतिबंध: असहमति का अधिकार स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है, अत: अनुच्छेद 19 (2) के अलावा इसे किसी भी परिस्थिति में समाप्त नहीं किया जा सकता है।
- UAPA, 2019 आतंकवाद को रोकने के लिये असहमति के अधिकार पर अप्रत्यक्ष प्रतिबंध लगाने हेतु सत्तारूढ़ सरकार को सशक्त बनाता है, जो एक विकासशील लोकतांत्रिक समाज के लिये हानिकारक है।
- संघवाद को समाप्त करना: कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह अधिनयम संघीय ढांँचे की भावना के विपरीत है क्योंकि यह आतंकवाद के मामलों में राज्य पुलिस के अधिकार की उपेक्षा करता है, यह देखते हुए कि 'पुलिस' भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत राज्य सूची का विषय है।
आगे की राह:
- दुरुपयोग को रोकना: आतंकवाद निस्संदेह एक बड़ा खतरा है जिसे समाप्त करने के लिये कड़े आतंकवाद विरोधी कानूनों की आवश्यकता है लेकिन यह तभी संभव है जब UAPA के प्रावधानों का पूर्ण रूप से पालन किया जाए।
- मौलिक स्वतंत्रता और राज्य के हित के बीच संतुलन बनाए रखना: सुरक्षा प्रदान करने के लिये व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राज्य के दायित्व के मध्य संतुलन स्थापित करना एक दुविधा का कार्य है। अत: व्यावसायिक ईमानदारी सुनिश्चित करना, निष्पक्षता के सिद्धांत का पालन करना और किसी भी गलत कार्य से बचाव करना अधिकारियों पर निर्भर करता है।
- न्यायिक समीक्षा: कथित दुरुपयोग के मामलों की सावधानी पूर्वक जांँच करने में न्यायपालिका की अहम भूमिका होती है। न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के माध्यम से कानून के तहत मध्यस्थता और विषय की जाँच होनी चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय अर्थव्यवस्था
बैंकों का निजीकरण
चर्चा में क्यों?
केंद्रीय बजट 2021 के तहत आगामी वित्तीय 2021-22 में दो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और एक सामान्य बीमा कंपनी के निजीकरण की घोषणा की गई है।
- वर्ष 1969 में सरकारी स्वामित्व वाले बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 51 वर्ष बाद उठाया जा रहा कदम, भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भूमिका को और अधिक महत्त्वपूर्ण बना देगा।
- वर्तमान में भारत में 22 निजी बैंक और 10 छोटे वित्त बैंक हैं।
प्रमुख बिंदु
- पृष्ठभूमि
- केंद्र सरकार ने वर्ष 1969 में देश के 14 सबसे बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने का निर्णय लिया था, इस निर्णय का उद्देश्य बैंकिंग क्षेत्र को तत्कालीन सरकार के समाजवादी दृष्टिकोण के साथ संरेखित करना था।
- भारतीय स्टेट बैंक (SBI) का वर्ष 1955 में और देश के बीमा क्षेत्र का वर्ष 1956 में राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था।
- पिछले 20 वर्षों में विभिन्न सरकारें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के विरुद्ध रही हैं। वर्ष 2015 में सरकार ने निजीकरण का सुझाव प्रस्तुत किया था, हालाँकि भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के तत्कालीन गवर्नर इस विचार के पक्ष में नहीं थे।
- बैंकों द्वारा पूर्ण स्वामित्व वाली एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी (बैड बैंक) की स्थापना के साथ निजीकरण के वर्तमान प्रयास वित्तीय क्षेत्र में चुनौतियों से निपटने के लिये बाज़ार आधारित समाधान खोजने के दृष्टिकोण का नेतृत्त्व करते हैं।
- केंद्र सरकार ने वर्ष 1969 में देश के 14 सबसे बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने का निर्णय लिया था, इस निर्णय का उद्देश्य बैंकिंग क्षेत्र को तत्कालीन सरकार के समाजवादी दृष्टिकोण के साथ संरेखित करना था।
- निजीकरण का कारण
- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की खराब वित्तीय स्थिति:
- केंद्र सरकार द्वारा वर्षों तक पूंजीगत निवेश और शासन व्यवस्था में सुधार किये जाने के बाद भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की वित्तीय स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाया है।
- इनमें से कई सार्वजानिक बैंकों की तनावग्रस्त संपत्तियाँ निजी बैंकों की तुलना में काफी अधिक हैं और साथ ही उनकी लाभप्रदता, बाज़ार पूंजीकरण और लाभांश भुगतान रिकॉर्ड भी अच्छा नहीं है।
- दीर्घकालिक परियोजना का हिस्सा
- दो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण से एक दीर्घकालिक परियोजना की शुरुआत होगी, जिसके तहत भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में कुछ चुनिंदा सार्वजनिक बैंकों की परिकल्पना की गई है। यह कार्य या तो मज़बूत बैंकों को समेकित करके या फिर बैंकों का निजीकरण कर किया जाएगा।
- सरकार की प्रारंभिक योजना चार बैंकों के निजीकरण की थी। पहले दो बैंकों के सफल निजीकरण के बाद सरकार आने वाले वित्तीय वर्षों में अन्य दो या तीन बैंकों के विनिवेश पर ज़ोर दे सकती है।
- यह निर्णय सरकार, जो कि बैंकों में सबसे बड़ी हिस्सेदार है, को बैंकों को वर्ष-प्रतिवर्ष वित्तीय सहायता प्रदान करने के दायित्व से मुक्त करेगा।
- बीते कुछ वर्षों में सरकार द्वारा उठाए गए कदमों के परिणामस्वरूप अब सरकार के पास केवल 12 सार्वजनिक बैंक मौजूद हैं, जिनकी संख्या पूर्व में कुल 28 थी।
- दो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण से एक दीर्घकालिक परियोजना की शुरुआत होगी, जिसके तहत भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में कुछ चुनिंदा सार्वजनिक बैंकों की परिकल्पना की गई है। यह कार्य या तो मज़बूत बैंकों को समेकित करके या फिर बैंकों का निजीकरण कर किया जाएगा।
- बैंकों को मज़बूती प्रदान करना
- सरकार बड़े बैंकों को और अधिक मज़बूत बनाने का प्रयास कर रही है तथा साथ ही निजीकरण के माध्यम से बैंकों की संख्या में भी कमी की जा रही है।
- अलग-अलग समितियों की सिफारिशें
- कई समितियों ने सार्वजनिक बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी को 51 प्रतिशत तक सीमित करने का प्रस्ताव रखा है:
- नरसिम्हन समिति ने हिस्सेदारी को 33 प्रतिशत तक सीमित करने की बात की थी।
- पी.जे. नायक समिति ने हिस्सेदारी को 50 प्रतिशत से कम करने का सुझाव दिया था।
- RBI के एक कार्यकारी समूह ने हाल ही में बैंकिंग क्षेत्र में बड़े व्यावसायिक घरानों के प्रवेश का सुझाव दिया है।
- कई समितियों ने सार्वजनिक बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी को 51 प्रतिशत तक सीमित करने का प्रस्ताव रखा है:
- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की खराब वित्तीय स्थिति:
- बैंकों का चुनाव
- जिन दो बैंकों का निजीकरण किया जाना है, उनका चयन एक पूर्व निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से होगा, जिसमें नीति आयोग द्वारा बैंकों की सिफारिश की जाएगी और विनिवेश पर सचिवों के एक समूह और फिर वैकल्पिक तंत्र (मंत्रियों के समूह) द्वारा विचार जाएगा।
- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से संबंधित समस्याएँ
- गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPAs) की उच्च मात्रा
- सरकार द्वारा विलय और इक्विटी इंजेक्शन के कई प्रयासों के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रदर्शन में पिछले कुछ वर्षों में सुधार देखा गया है। हालाँकि निजी बैंकों की तुलना में सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों के पास गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPAs) की मात्रा काफी अधिक है, किंतु बीते कुछ समय से इस मात्रा में गिरावट आनी शुरू हो गई है।
- कोरोना महामारी का प्रभाव
- कोरोना वायरस महामारी से संबंधित विनियामक छूट हटाए जाने के बाद बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPAs) में बढ़ोतरी होने की उम्मीद की जा रही है।
- RBI की हालिया वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार, सभी वाणिज्यिक बैंकों का सकल NPA अनुपात सितंबर 2020 में 7.5 प्रतिशत से बढ़कर सितंबर 2021 तक 13.5 प्रतिशत हो सकता है।
- इसका अर्थ होगा कि सरकार को फिर से सार्वजनिक क्षेत्र के कमज़ोर बैंकों में इक्विटी को इंजेक्ट करने की आवश्यकता होगी।
- गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPAs) की उच्च मात्रा
- निजी क्षेत्र के बैंकों का प्रदर्शन
- बाज़ार हिस्सेदारी में बढ़ोतरी
- बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋण में निजी बैंकों की हिस्सेदारी वर्ष 2015 में 21.26 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2020 में 36 प्रतिशत हो गई है, जबकि इसी अवधि में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हिस्सेदारी 74.28 प्रतिशत से गिरकर 59.8 प्रतिशत पर पहुँच गई है।
- बेहतर उत्पाद और सेवा
- रिज़र्व बैंक ने वर्ष 1990 के दशक में निजी बैंकों को बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति दी थी, तब से बैंकिंग प्रणाली में प्रतिस्पर्द्धा काफी तेज़ हो गई है। निजी बैंकों ने नए उत्पादों, प्रौद्योगिकी और बेहतर सेवाओं के माध्यम से बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी का विस्तार किया है तथा शेयर बाज़ार में भी बेहतर स्थान हासिल किया है।
- HDFC बैंक (1994 में स्थापित) का बाज़ार पूंजीकरण तकरीबन 8.80 लाख करोड़ रुपए है, जबकि SBI का 3.50 लाख करोड़ रुपए है।
- बाज़ार हिस्सेदारी में बढ़ोतरी
- निजी क्षेत्रों से संबंधित समस्याएँ
- औद्योगिक ऋण और निवेश निगम (ICICI) बैंक के प्रबंध संचालक (MD) और मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO) को कथित रूप से संदिग्ध ऋण देने के लिये बर्खास्त कर दिया गया।
- ‘यस बैंक’ के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO) को रिज़र्व बैंक द्वारा एक्सटेंशन नहीं दिया गया था और अब उन्हें विभिन्न एजेंसियों की जाँच का सामना करना पड़ रहा है।
- ‘लक्ष्मी विलास बैंक’ को परिचालन संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा और हाल ही में उसका DBS बैंक ऑफ सिंगापुर में विलय हो गया।
- NPA रिकॉर्डिंग में कमी
- रिज़र्व बैंक ने वर्ष 2015 में जब बैंकों की परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा का आदेश दिया था, तो ‘यस बैंक’ सहित निजी क्षेत्र के कई अन्य बैंकों के NPA की रिपोर्टिंग में कमी देखने को मिली थी।
आगे की राह
- सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों के शासन और प्रबंधन में सुधार के लिये पी.जे. नायक समिति की सिफारिशों को लागू किये जाने की आवश्यकता है।
- बिना सही ढंग से विचार किये निजीकरण की दिशा में आगे बढ़ने से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को जीवन बीमा निगम (LIC) जैसा निगम का स्वरूप दिया जा सकता है। सरकारी स्वामित्व को बनाए रखते हुए सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों को अधिक स्वायत्तता दी जानी चाहिये।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
धन्यवाद प्रस्ताव
चर्चा में क्यों?
हाल ही में प्रधानमंत्री ने लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव को लेकर हुई चर्चा का जवाब दिया।
प्रमुख बिंदु
- राष्ट्रपति का संबोधन:
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 87 में राष्ट्रपति के लिये विशेष संबोधन का प्रावधान किया गया है। इसमें ऐसी दो स्थितियों का उल्लेख किया गया है जिनके तहत राष्ट्रपति द्वारा विशेष रूप से संसद के दोनों सदनों को संबोधित किया जाएगा।
- प्रत्येक आम चुनाव के पहले सत्र एवं वित्तीय वर्ष के पहले सत्र में।
- प्रत्येक वर्ष के पहले सत्र की शुरुआत में।
- राष्ट्रपति को सत्र आहूत करने के कारणों के बारे में संसद को सूचित करना होता है।
- इस तरह के संबोधन को 'विशेष संबोधन' कहा जाता है और यह एक वार्षिक विशेषता भी है।
- इस प्रकार राष्ट्रपति द्वारा संसद के दोनों सदनों को एक साथ संबोधित किये जाने तक अन्य कोई कार्यवाही नहीं की जाती है।
- अनुच्छेद 87 में राष्ट्रपति के लिये विशेष संबोधन का प्रावधान किया गया है। इसमें ऐसी दो स्थितियों का उल्लेख किया गया है जिनके तहत राष्ट्रपति द्वारा विशेष रूप से संसद के दोनों सदनों को संबोधित किया जाएगा।
- संयुक्त सत्र के बारे में:
- इस संबोधन के लिये संसद के दोनों सदनों को एक साथ इकट्ठा होना आवश्यक है।
- हालाँकि वर्ष के पहले सत्र की शुरुआत में यदि लोकसभा अस्तित्व में नहीं है या इसे भंग कर दिया गया है, तो भी राज्यसभा की बैठक होती है और राज्यसभा राष्ट्रपति के अभिभाषण के बिना भी अपना सत्र आयोजित कर सकती है।
- लोकसभा के प्रत्येक आम चुनाव के बाद पहले सत्र के मामले में सदस्यों के शपथ लेने तथा अध्यक्ष के चुनाव के पश्चात् राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों को एक साथ संबोधित करता है।
- राष्ट्रपति के संबोधन का विषय:
- राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार की नीति का विवरण होता है, इसलिये अभिभाषण का प्रारूप सरकार द्वारा तैयार किया जाता है।
- यह संबोधन पिछले वर्ष के दौरान सरकार की विभिन्न गतिविधियों और उपलब्धियों की समीक्षा होती है तथा उन नीतियों, परियोजनाओं एवं कार्यक्रमों को निर्धारित किया जाता है जिन्हें सरकार महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों के संबंध में आगे बढ़ाने की इच्छा रखती है।
- संवैधानिक प्रावधान:
- धन्यवाद प्रस्ताव द्वारा संबोधन पर चर्चा:
- पृष्ठभूमि:
- राष्ट्रपति का यह संबोधन ‘ब्रिटेन के राजा के भाषण’ के समान होता है, दोनों सदनों में इस पर चर्चा होती है, इसे ही ‘धन्यवाद प्रस्ताव’ कहा जाता है।
- संवैधानिक प्रावधान:
- संविधान के अनुच्छेद 87 (2) के अनुसार, राष्ट्रपति के अभिभाषण में निर्दिष्ट मामलों पर चर्चा के लिये लोकसभा और राज्यसभा के प्रक्रिया नियमों के तहत प्रावधान किया गया है।
- राज्य सभा के प्रक्रिया तथा कार्य- संचालन विषयक नियमों के नियम 15 के तहत राष्ट्रपति के अभिभाषण में संदर्भित मामलों पर चर्चा एक सदस्य द्वारा प्रस्तुत किये गए धन्यवाद प्रस्ताव- जिस पर एक अन्य सदस्य द्वारा सहमति व्यक्त की जाती है, के साथ शुरू होती है।
- धन्यवाद प्रस्ताव को आगे बढाने तथा इस पर सहमति व्यक्त करने वाले सदस्यों का चयन प्रधानमंत्री द्वारा किया जाता है और इस तरह के प्रस्ताव का नोटिस संसदीय कार्य मंत्रालय के माध्यम से प्राप्त होता है।
- प्रक्रिया:
- यह संसद के सदस्यों को चर्चा और वाद-विवाद के मुद्दे उठाने तथा त्रुटियों और कमियों हेतु सरकार एवं प्रशासन की आलोचना करने का अवसर उपलब्ध कराता है।
- आमतौर पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के लिये तीन दिन का समय दिया जाता है।
- यदि किसी भी संशोधन को आगे रखा जाता है और उसे स्वीकार किया जाता है, तो संशोधित रूप में धन्यवाद प्रस्ताव को अपनाया जाता है।
- संशोधन, संबोधन में निहित मामलों के साथ-साथ उन मामलों को भी संदर्भित कर सकता है, जो सदस्य की राय में संबोधन का उल्लेख करने में विफल रहा है।
- बहस के बाद प्रस्ताव को मत विभाजन के लिये रखा जाता है।
- पृष्ठभूमि:
- धन्यवाद प्रस्ताव का महत्त्व:
- धन्यवाद प्रस्ताव को सदन में पारित किया जाना चाहिये। अन्यथा यह सरकार की हार के समान है। लोकसभा सरकार के प्रति विश्वास की कमी का प्रस्ताव निम्नलिखित तरीके से ला सकती है:
- धन विधेयक को अस्वीकार कर।
- निंदा प्रस्ताव या स्थगन प्रस्ताव पारित कर।
- आवश्यक मुद्दे पर सरकार को हराकर।
- कटौती प्रस्ताव पारित कर।
- धन्यवाद प्रस्ताव को सदन में पारित किया जाना चाहिये। अन्यथा यह सरकार की हार के समान है। लोकसभा सरकार के प्रति विश्वास की कमी का प्रस्ताव निम्नलिखित तरीके से ला सकती है:
जैव विविधता और पर्यावरण
हिंदू-कुश और काराकोरम शृंखला पर जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट
चर्चा में क्यों?
'भारतीय क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का आकलन’ (Assessment of Climate Change over the Indian Region) रिपोर्ट के अनुसार, हाल के दशकों में हिंदू-कुश हिमालयी पर्वत शृंखलाओं की चोटियों पर बर्फबारी की घटनाएँ बढ़ी हैं, जिसने इस क्षेत्र के ग्लेशियरों को सिकुड़ने से बचा लिया है।
- हाल ही में अलकनंदा नदी में आई भारी बाढ़ का कारण संभवतः ग्लेशियर विस्फोट को माना गया, जिसने हाल के दशकों में ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) के कारण उच्च गति से पिघल रहे ग्लेशियर के मुद्दे को उजागर किया है। हालाँकि यह रिपोर्ट हिंदुकुश हिमालय की एक विपरीत तस्वीर को इंगित करती है।
- पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (Ministry of Earth Sciences- MoES) द्वारा भारतीय क्षेत्र रिपोर्ट (Indian Region Report) के आधार पर जलवायु परिवर्तन पर आकलन प्रकाशित किया गया है। यह आने वाली शताब्दी में उपमहाद्वीप पर पड़ने वाले ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को लेकर भारत का पहला राष्ट्रीय पूर्वानुमान है।
हिंदू-कुश हिमालय (HKH) क्षेत्र
- HKH क्षेत्र अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत, किर्गिज़स्तान, मंगोलिया, म्यांँमार, नेपाल, पाकिस्तान, ताज़िकिस्तान और उज़्बेकिस्तान तक फैला हुआ है।
- यह लगभग 5 मिलियन वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ क्षेत्र है जो एक बड़ी और सांस्कृतिक रूप से विविध आबादी का प्रतिनिधित्व करता है।
- इसे तीसरे ध्रुव की संज्ञा दी जाती है (उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के बाद), जिसका जलवायु पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव देखा जाता है।
- इस क्षेत्र में विशाल क्रायोस्फेरिक ज़ोन (जमा पानी का हिस्सा) अवस्थित है जो विश्व में ध्रुवीय क्षेत्र के बाहर बर्फ का सबसे विशाल भंडार है।
प्रमुख बिंदु:
- रिपोर्ट के महत्त्वपूर्ण पहलू:
- हाल के दशकों में हिंदू-कुश और काराकोरम हिमालय के कई क्षेत्रों में बर्फबारी में गिरावट और ग्लेशियरों के पीछे हटने की प्रवृत्ति का अनुभव किया गया है।
- इसके विपरीत उच्च-ऊंँचाई वाले काराकोरम हिमालय क्षेत्र में सर्दियों के समय उच्च हिमपात देखा गया है जिसने इस क्षेत्र के ग्लेशियरों को सिकुड़ने से बचा लिया है।
- काराकोरम एशिया के केंद्र में स्थित एक जटिल पर्वत शृंखला का हिस्सा है, जिसमें पश्चिम में हिंदू-कुश, उत्तर-पश्चिम में पामीर, उत्तर-पूर्व में कुनलुन पर्वत और दक्षिण-पूर्व में हिमालय अवस्थित है।
- इसके विपरीत उच्च-ऊंँचाई वाले काराकोरम हिमालय क्षेत्र में सर्दियों के समय उच्च हिमपात देखा गया है जिसने इस क्षेत्र के ग्लेशियरों को सिकुड़ने से बचा लिया है।
- यहांँ तक कि जब अधिक ऊंँचाई वाले काराकोरम हिमालय पर सर्दियों में बर्फबारी की घटनाएँ बढ़ रही हैं, तो हिंदूकुश काराकोरम क्षेत्र की संपूर्ण जलवायु अन्य मौसमों की तुलना में सर्दियों के मौसम में ग्लोबल वार्मिग की उच्च दर देखी जा रही थी।
- हाल के दशकों में हिंदू-कुश और काराकोरम हिमालय के कई क्षेत्रों में बर्फबारी में गिरावट और ग्लेशियरों के पीछे हटने की प्रवृत्ति का अनुभव किया गया है।
- कारण:
- हिमालय का तीव्र गति से गर्म होना:
- उष्णकटिबंधीय और बहिरुष्ण-कटिबंधीय मौसम प्रणाली ( Tropical and Extratropical Weather Systems) के कारण हिमालयी क्षेत्र में मौसमी परिवर्तन के बारे में जानना काफी जटिल है।
- वर्ष 1951-2018 के मध्य हिमालय शेष भारतीय भू-भाग की तुलना में अधिक तीव्र गति से गर्म हुआ।
- इसके अलावा इस क्षेत्र के गर्म होने की दर (वार्मिंग) वैश्विक औसत तापमान से अधिक है।
- ग्लोबल वार्मिंग:
- वर्ष 1951 से 2014 के दौरान दशकीय तापन/वार्मिंग की दर 1.3 डिग्री सेल्सियस थी। वर्ष 1900 से 1950 के दौरान जब ग्लोबल वार्मिग के बारे में अधिक स्पष्ट नहीं था तब इसमें 0.16 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी गई।
- हिमालय का तीव्र गति से गर्म होना:
- प्रभाव:
- वार्षिक औसत सतह तापमान में वृद्धि:
- रिपोर्ट में वर्ष 2040-2069 के दौरान 2.2 डिग्री सेल्सियस वार्षिक औसत तापमान में वृद्धि का अनुमान लगाया गया है और पुनः इसी दर के साथ वर्ष 2070-2099 के दौरान इसमें 3.3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी।
- अत्यधिक वर्षण:
- वार्मिंग के कारण इस क्षेत्र में वर्षण की मात्रा में वृद्धि होने की उम्मीद है। हिंदू-कुश और काराकोरम क्षेत्र में अधिकतम पांँच-दिवसीय वर्षण की घटनाओं के साथ उल्लेखनीय वृद्धि होने का अनुमान है।
- वार्षिक औसत सतह तापमान में वृद्धि:
- महत्त्व:
- मानसून चालक: हिंदू-कुश और काराकोरम पर्वत शृंखला, तिब्बत के पठार के साथ भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून के मुख्य चालक हैं।
- जीवन-यापन का साधन: ये पर्वत शृंखलाएँ एशिया की 10 प्रमुख नदी प्रणालियों के स्रोत हैं, जो महाद्वीप के 1.3 अरब लोगों को पीने के पानी, सिंचाई और बिजली आपूर्ति की सुविधा उपलब्ध कराती है।
- सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जो कि भारत की प्रमुख नदियाँ है, बर्फ के पिघलने के कारण पुनः जल से भर जाती हैं ।
- उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के बाद हिंदू-कुश और काराकोरम पर्वत शृंखलाएँ तिब्बत पठार के साथ मीठे पानी की आपूर्ति के सबसे बड़े स्रोत हैं।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस