भारतीय राजनीति
न्यायिक समीक्षा
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने सेंट्रल विस्टा परियोजना (Central Vista project) को ऐसी विशिष्ट परियोजना मानने से इनकार कर दिया जिसके लिये बृहत्तर या व्यापक न्यायिक समीक्षा की आवश्यकता हो।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायालय की भूमिका विधि की वैधता और सरकारी कार्यों सहित संवैधानिकता की जाँच करने तक सीमित है। विकास का अधिकार एक बुनियादी मानव अधिकार है और राज्य के किसी भी अंग से विकास की प्रक्रिया में तब तक बाधक बनने की आशंका नहीं होती है जब तक कि सरकार कानून के अनुसार कार्य करती है।
- नई दिल्ली की सेंट्रल विस्टा परियोजना में राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, उत्तर और दक्षिण ब्लॉक, इंडिया गेट, राष्ट्रीय अभिलेखागार शामिल हैं।
- भारतीय संविधान में न्यायिक समीक्षा को अमेरिकी संविधान की तर्ज पर अपनाया गया है।
प्रमुख बिंदु:
न्यायिक समीक्षा:
- न्यायिक समीक्षा विधायी अधिनियमों तथा कार्यपालिका के आदेशों की संवैधानिकता की जाँच करने हेतु न्यायपालिका की शक्ति है जो केंद्र एवं राज्य सरकारों पर लागू होती है।
- कानून की अवधारणा:
- विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया: इसका अर्थ है कि विधायिका या संबंधित निकाय द्वारा अधिनियमित कानून तभी मान्य होता है जब सही प्रक्रिया का पालन किया गया हो।
- कानून की उचित प्रक्रिया: यह सिद्धांत न केवल इस आधार पर मामले की जाँच करता है कि कोई कानून किसी व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित तो नहीं करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि कानून उचित और न्यायपूर्ण हो।
- भारत में विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता है।
- न्यायिक समीक्षा के दो महत्त्वपूर्ण कार्य हैं, जैसे- सरकारी कार्रवाई को वैध बनाना और सरकार द्वारा किये गए किसी भी अनुचित कृत्य के खिलाफ संविधान का संरक्षण करना।
- न्यायिक समीक्षा को संविधान की मूल संरचना (इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण केस 1975) माना जाता है।
- न्यायिक समीक्षा को भारतीय न्यायपालिका के व्याख्याकार और पर्यवेक्षक की भूमिका में देखा जाता है।
- स्वतः संज्ञान के मामले और लोक हित याचिका (PIL), लोकस स्टैंडी (Locus Standi) के सिद्धांत को विराम देने के साथ ही न्यायपालिका को कई सार्वजनिक मुद्दों में हस्तक्षेप करने की अनुमति दी गई है, उस स्थिति में भी जब पीड़ित पक्ष द्वारा कोई शिकायत नहीं की गई हो।
न्यायिक समीक्षा के प्रकार:
- विधायी कार्यों की समीक्षा:
- इस समीक्षा का तात्पर्य यह सुनिश्चित करना है कि विधायिका द्वारा पारित कानून के मामले में संविधान के प्रावधानों का अनुपालन किया गया है।
- प्रशासनिक कार्रवाई की समीक्षा:
- यह प्रशासनिक एजेंसियों पर उनकी शक्तियों निर्वहन करते समय उनपर संवैधानिक अनुशासन लागू करने के लिये एक उपकरण है।
- न्यायिक निर्णयों की समीक्षा:
- इस समीक्षा का उपयोग न्यायपालिका द्वारा पिछले निर्णयों में किसी भी प्रकार का बदलाव करने या उसे सही करने के लिये किया जाता है।
न्यायिक समीक्षा का महत्त्व:
- यह संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखने के लिये आवश्यक है।
- विधायिका और कार्यपालिका द्वारा सत्ता के संभावित दुरुपयोग की जाँच करने के लिये आवश्यक है।
- यह लोगों के अधिकारों की रक्षा करता है।
- यह संघीय संतुलन बनाए रखता है।
- यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक है।
- यह अधिकारियों के अत्याचार को रोकता है।
न्यायिक समीक्षा से संबंधित मुद्दे:
- यह सरकार के कामकाज को सीमित करती है।
- जब यह किसी मौजूदा कानून को अधिभावी/रद्द (Overrides) करता है तो यह संविधान द्वारा स्थापित शक्तियों की सीमा का उल्लंघन है।
- भारत में शक्तियों के बजाय कार्यों का पृथक्करण किया गया है।
- शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा का कड़ाई से पालन नहीं किया जाता है। हालाँकि जाँच और संतुलन (Checks and Balances) की व्यवस्था इस तरह से की गई है कि न्यायपालिका के पास विधायिका द्वारा पारित किसी भी असंवैधानिक कानून को रद्द करने की शक्ति है।
- न्यायाधीशों द्वारा किसी मामले में लिया गया निर्णय अन्य मामलों के लिये मानक बन जाता है, हालाँकि अन्य मामलों में परिस्थितियाँ अलग हो सकती हैं।
- न्यायिक समीक्षा व्यापक पैमाने पर आम जनता को नुकसान पहुँचा सकती है, क्योंकि किसी कानून के विरुद्ध दिया गया निर्णय व्यक्तिगत उद्देश्यों से प्रभावित हो सकता है।
- न्यायालय के बार-बार हस्तक्षेप करने से सरकार की ईमानदारी, गुणवत्ता और दक्षता पर लोगों का विश्वास कम हो सकता है।
न्यायिक समीक्षा संबंधी संवैधानिक प्रावधान
- किसी भी कानून को अमान्य घोषित करने के लिये न्यायालयों को सशक्त बनाने संबंधी संविधान में कोई भी प्रत्यक्ष अथवा विशिष्ट प्रावधान नहीं है, लेकिन संविधान के तहत सरकार के प्रत्येक अंग पर कुछ निश्चित सीमाएँ लागू की गई हैं, जिसके उल्लंघन से कानून शून्य हो जाता है।
- न्यायालय को यह तय करने का कार्य सौंपा गया है कि संविधान के तहत निर्धारित सीमा का उल्लंघन किया गया है अथवा नहीं है।
- न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया का समर्थन करने संबंधी कुछ विशिष्ट प्रावधान
- अनुच्छेद 372 (1): यह अनुच्छेद भारतीय संविधान के लागू होने से पूर्व बनाए गए किसी कानून की न्यायिक समीक्षा से संबंधित प्रावधान करता है।
- अनुच्छेद 13: यह अनुच्छेद घोषणा करता है कि कोई भी कानून जो मौलिक अधिकारों से संबंधित किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है, मान्य नहीं होगा।
- अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों का रक्षक एवं गारंटीकर्त्ता की भूमिका प्रदान करते हैं।
- अनुच्छेद 251 और अनुच्छेद 254 में कहा गया है कि संघ और राज्य कानूनों के बीच असंगतता के मामले में राज्य कानून शून्य हो जाएगा।
- अनुच्छेद 246 (3) राज्य सूची से संबंधित मामलों पर राज्य विधायिका की अनन्य शक्तियों को सुनिश्चित करता है।
- अनुच्छेद 245 संसद एवं राज्य विधायिकाओं द्वारा निर्मित कानूनों की क्षेत्रीय सीमा तय करने से संबंधित है।
- अनुच्छेद 131-136 में सर्वोच्च न्यायालय को व्यक्तियों तथा राज्यों के बीच, राज्यों तथा संघ के बीच विवादों में निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की गई है।
- अनुच्छेद 137 सर्वोच्च न्यायालय को उसके द्वारा सुनाए गए किसी भी निर्णय या आदेश की समीक्षा करने हेतु एक विशेष शक्ति प्रदान करता है।
आगे की राह
- न्यायिक समीक्षा की शक्ति के साथ ही न्यायालय मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं।
- मौजूदा दौर में राज्य के बढ़ते कार्यों के साथ-साथ प्रशासनिक निर्णय लेने और उन्हें निष्पादित करने की प्रक्रिया में न्यायिक हस्तक्षेप भी बढ़ रहा है।
- जब न्यायपालिका न्यायिक सक्रियता के नाम पर संविधान द्वारा निर्धारित शक्तियों की अनदेखी करती है तो यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका संविधान में निर्धारित शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा का उल्लंघन कर रही है।
- कानून बनाना विधायिका का कार्य है, जबकि कानूनों को सही ढंग से लागू करना कार्यपालिका का उत्तरदायित्व है। इस तरह न्यायपालिका के पास केवल संवैधानिक/कानूनी व्याख्या का कार्य शेष रह जाता है। सरकार के इन अंगों के बीच स्पष्ट संतुलन ही संवैधानिक मूल्यों को बचाए रखने में मददगार हो सकता है।
भारतीय विरासत और संस्कृति
बसवकल्याण में ‘अनुभव मंडप’: कर्नाटक
चर्चा में क्यों?
कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने बसवकल्याण में ‘न्यू अनुभव मंडप’ की आधारशिला रखी है, ज्ञात हो कि यह वह स्थान है जहाँ 12वीं शताब्दी के कवि-दार्शनिक बसवेश्वरा ने अपने जीवन का अधिकांश समय बिताया था।
प्रमुख बिंदु
न्यू अनुभव मंडप
- यह 7.5 एकड़ भूखंड में बनी छह मंज़िल की संरचना होगी, जो कि बसवेश्वरा के दर्शन के विभिन्न सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करेगी।
- यह 12वीं शताब्दी में बसवेश्वरा द्वारा बसवकल्याण में स्थापित ‘अनुभव मंडप’ (जिसे प्रायः विश्व की पहली संसद के रूप में संदर्भित किया जाता है) को प्रदर्शित करेगी। विदित हो कि बसवेश्वरा द्वारा स्थापित ‘अनुभव मंडप’ में विभिन्न दार्शनिकों और समाज सुधारकों द्वारा वाद-विवाद किया जाता था।
- इसका निर्माण वास्तुकला की कल्याण चालुक्य शैली में किया जाएगा।
- कल्याण चालुक्य, मध्ययुगीन काल के प्राचीन कर्नाटक इतिहास का एक अभिन्न अंग है। कल्याण चालुक्य शासकों ने अपने पूर्वर्ती शासकों की तरह ही मंदिरों का निर्माण करवाया और नृत्य तथा संगीत कलाओं का संरक्षण किया।
- 770 स्तंभों द्वारा समर्थित इस भव्य संरचना में 770 लोगों के बैठने की क्षमता वाला एक सभागार भी बनाया जाएगा।
- ऐसा माना जाता है कि 770 शरणों (बसवेश्वरा के अनुयायी) ने 12वीं शताब्दी में ‘वचन’ सुधारवादी आंदोलन का नेतृत्त्व किया था।
- इसके शीर्ष पर एक विशाल शिवलिंग स्थापित किया जाएगा।
- इस परियोजना में अत्याधुनिक रोबोट प्रणाली, ओपन-एयर थिएटर, आधुनिक जल संरक्षण प्रणाली, पुस्तकालय, अनुसंधान केंद्र, प्रार्थना हॉल और योग केंद्र आदि की भी परिकल्पना की गई है।
बसवेश्वर
संक्षिप्त परिचय
- गुरु बसवेश्वरा (1134-1168) एक भारतीय दार्शनिक, समाज सुधारक व नेतृत्त्वकर्त्ता थे, जिन्होंने जातिविहीन समाज बनाने का प्रयास किया और जाति तथा धार्मिक भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष किया।
- बासवन्ना जयंती, एक वार्षिक कार्यक्रम है, जिसे संत बासवन्ना (भगवान बसवेश्वर) के जन्म के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।
- गुरु बसवेश्वर का जन्म 1131 ईसवी में बागेवाड़ी (कर्नाटक के अविभाजित बीजापुर ज़िले में) नामक स्थान पर हुआ था।
- गुरु बसवेश्वरा को लिंगायत संप्रदाय का संस्थापक भी माना जाता है।
दर्शन
- गुरु बसवेश्वरा द्वारा प्रतिपादित दर्शन अरिवु (सत्य ज्ञान), आचार (सही आचरण), और अनुभव (दिव्य अनुभव) के सिद्धांतों पर आधारित था, जिसने 12वीं शताब्दी में सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक क्रांति ला दी थी।
- वे संभवतः वर्ष 1154 में ‘कल्याण’ (वर्तमान में ‘बसवकल्याण’) चले गए और वहाँ 12-13 वर्ष के लंबी अवधि तक निवास के दौरान उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कार्य किये।
- उन्हीं के प्रयासों के कारण धर्म के दरवाज़े जाति, पंथ या लिंग के आधार पर भेदभाव किये बिना सभी के लिये खोल दिये गए।
- उन्होंने ‘अनुभव मंडप’ की स्थापना की, जो कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा के लिये सामान्य मंच था।
- इस प्रकार इसे भारत की पहली संसद माना जाता है, जहाँ ‘शरणों’ ने एक साथ बैठकर एक लोकतांत्रिक ढाँचे में समाजवादी सिद्धांतों पर चर्चा की।
- उन्होंने दो अन्य महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक सिद्धांत दिये-
- कायका (ईश्वरीय कार्य): इस सिद्धांत के अनुसार, समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पसंद का कार्य पूरी ईमानदारी के साथ करना चाहिये।
- दसोहा (समान वितरण)
- समान कार्य के लिये समान आय होनी चाहिये।
- कामगार (कायकाजीवी) अपनी मेहनत की कमाई से आसानी से जीवनयापन कर सकते हैं। उन्हें भविष्य के लिये धन या संपत्ति को संरक्षित नहीं करना चाहिये, बल्कि अधिशेष धन का उपयोग समाज तथा गरीबों के कल्याण के लिये करना चाहिये।
‘वचन’ सुधार आंदोलन
- 12वीं शताब्दी में बसवेश्वरा के नेतृत्व में हुए ‘वचन’ (कविता) आंदोलन का मुख्य उद्देश्य सभी का कल्याण करना था।
- इस आंदोलन ने तत्कालीन समय के मौजूदा सामाजिक परिवेश में वर्ग, जाति और कुछ हद तक लैंगिक मुद्दों को संबोधित करने का प्रयास किया।
स्रोत: द हिंदू
जैव विविधता और पर्यावरण
सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जन मानक
चर्चा में क्यों?
हाल ही में विद्युत मंत्रालय ने कोयला संचालित बिजली संयंत्रों हेतु नए उत्सर्जन मानदंडों को अपनाने की समयसीमा को बढ़ाने का प्रस्ताव रखा है, मंत्रालय का तर्क है कि ‘अव्यवहार्य समय अवधि’ (Unworkable Time Schedule) के कारण विद्युत की अधिक खपत होगी तथा विद्युत दरों में वृद्धि होगी।
प्रमुख बिंदु
पृष्ठभूमि
- भारत द्वारा शुरू में थर्मल पावर प्लांटों के लिये वर्ष 2017 की समयसीमा निर्धारित की गई थी ताकि विषाक्त सल्फर डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कटौती हेतु फ्ल्यू गैस डिसल्फराइज़ेशन (Flue Gas Desulphurization- FGD) इकाइयों को स्थापित करने में उत्सर्जन मानकों का पालन किया जा सके।
- इसे बाद में वर्ष 2022 में समाप्त होने वाले विभिन्न क्षेत्रों के लिये अलग-अलग समयसीमा में परिवर्तित कर दिया गया था।
फ्ल्यू गैस डिसल्फराइज़ेशन (FED):
- फ्ल्यू गैस डिसल्फराइज़ेशन, सल्फर डाइऑक्साइड (Sulfur Dioxide) को हटाने की प्रक्रिया है। सल्फर डाइऑक्साइड का रासयनिक सूत्र SO2है ।
- इसके माध्यम से गैसीय प्रदूषकों को हटाने का प्रयास किया जाता है। जैसे कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से उत्सर्जित गैस, दहन भट्टियों, बॉयलरों और अन्य औद्योगिक प्रक्रियाओं में उत्पन्न SO2 गैस को हटाना।
विद्युत मंत्रालय का प्रस्ताव:
- विद्युत मंत्रालय द्वारा एक "ग्रेडेड एक्शन प्लान" का प्रस्ताव दिया गया, जिसमें संयंत्रों की स्थिति के अनुसार प्रदूषित क्षेत्रों को श्रेणीबद्ध किया जाएगा, इसमें क्षेत्र-1 गंभीर रूप से प्रदूषित और क्षेत्र 5 सबसे कम प्रदूषित क्षेत्र को प्रदर्शित करता है।
- इसने एक "ग्रेडेड एक्शन प्लान" प्रस्तावित किया है, जिसमें ऐसे क्षेत्र जहांँ संयंत्र स्थित हैं, को प्रदूषण की गंभीरता के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा।
- क्षेत्र -1 के तहत वर्गीकृत थर्मल पावर स्टेशनों के उत्सर्जन पर सख्त नियंत्रण रखने की आवश्यकता होगी।
- क्षेत्र-2 में शामिल संयंत्रों को एक वर्ष बाद क्षेत्र-1 में शामिल किया जा सकता है।
- वर्तमान में क्षेत्र-3, 4 और 5 के तहत स्थित बिजली संयंत्रों के लिये किसी भी प्रकार के नियमन की आवश्यकता नहीं है।
- मंत्रालय के अनुसार, यह लक्ष्य पूरे देश में एक समान परिवेश की वायु गुणवत्ता बनाए रखने के लिये होना चाहिये, न कि ताप-विद्युत संयंत्रों के लिये समान उत्सर्जन मानदंड विकसित करने के लिये।
- यह देश के विभिन्न, अपेक्षाकृत स्वच्छ क्षेत्रों में विद्युत कीमत में तत्काल वृद्धि को रोकने में सहायक हो सकता है और विद्युत उपभोक्ताओं के अनावश्यक बोझ को कम कर सकता है।
सल्फर डाइऑक्साइड प्रदूषण
- स्रोत:
- वातावरण में SO2 का सबसे बड़ा स्रोत विद्युत संयंत्रों और अन्य औद्योगिक गतिविधियों में जीवाश्म ईंधन का दहन है।
- SO2 उत्सर्जन के छोटे स्रोतों में अयस्कों से धातु निष्कर्षण जैसी औद्योगिक प्रक्रियाएँ, प्राकृतिक स्रोत जैसे- ज्वालामुखी विस्फोट, इंजन, जहाज़ और अन्य वाहन तथा भारी उपकारणों में उच्च सल्फर ईंधन सामग्री का प्रयोग शामिल है।
- प्रभाव: SO2 स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों को प्रभावित कर सकती है।
- SO2 का उत्सर्जन हवा में SO2की उच्च सांद्रता के कारण होता है, सामान्यत: यह सल्फर के अन्य ऑक्साइड (SOx) का निर्माण करती है। (SOx) वातावरण में अन्य यौगिकों के साथ प्रतिक्रिया कर छोटे कणों का निर्माण कर सकती है। ये कणकीय पदार्थ (Particulate Matter- PM) प्रदूषण को बढ़ाने में सहायक हैं।
- SO2 के अल्पकालिक जोखिम मानव श्वसन प्रणाली को नुकसान पहुंँचा सकते हैं और साँस लेने में कठिनाई उत्पन्न कर सकते हैं। विशेषकर बच्चे SO2 के इन प्रभावों के प्रति संवेदनशील होते हैं।
- छोटे प्रदूषक कण फेफड़ों में प्रवेश कर स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं।
- SO2 के अल्पकालिक जोखिम मानव श्वसन प्रणाली को नुकसान पहुंँचा सकते हैं और साँस लेने में कठिनाई उत्पन्न कर सकते हैं। विशेषकर बच्चे SO2 के इन प्रभावों के प्रति संवेदनशील होते हैं।
- भारत का मामला:
- भारत द्वारा सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जन के मामले में ग्रीनपीस इंडिया और सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (Centre for Research on Energy and Clean Air) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में वर्ष 2018 की तुलना में लगभग 6% की गिरावट (चार वर्षों में सबसे अधिक) दर्ज की गई है।
- फिर भी भारत इस दौरान SO2 का सबसे बड़ा उत्सर्जक बना रहा।
- वर्ष 2015 में कोयला आधारित बिजली स्टेशनों के लिये पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change) ने SO2 उत्सर्जन सीमा निर्धारित करने की शुरुआत की।
- वायु गुणवत्ता उप-सूचकांक को अल्पकालिक अवधि (24 घंटे तक) के लिये व्यापक राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानक निर्धारित करने हेतु आठ प्रदूषकों (PM10, PM2.5, NO2, SO2, CO, O3, NH3 तथा Pb) के आधार पर विकसित किया गया है।
- भारत द्वारा सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जन के मामले में ग्रीनपीस इंडिया और सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (Centre for Research on Energy and Clean Air) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में वर्ष 2018 की तुलना में लगभग 6% की गिरावट (चार वर्षों में सबसे अधिक) दर्ज की गई है।
स्रोत: द हिंदू
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
भारत द्वारा श्रीलंका की मदद
चर्चा में क्यों?
भारत द्वारा वित्तपोषित एक निःशुल्क एम्बुलेंस सेवा श्रीलंका में कोविड-19 के खिलाफ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
प्रमुख बिंदु:
पृष्ठभूमि:
- भारत ने सुवा सेरिया (अच्छे स्वास्थ्य के लिये वाहन या यात्रा) सेवा के लिये 7.56 मिलियन अमेरिकी डॉलर का अनुदान प्रदान किया है। सुवा सेरिया की शुरुआत वर्ष 2016 में पायलट आधार पर की गई थी तथा बाद में भारत से प्राप्त अतिरिक्त अनुदान के साथ इसका विस्तार पूरे देश में किया गया।
- श्रीलंका के क्षमता निर्माण में भी भारत ने मदद की है।
- क्षमता निर्माण के तहत श्रीलंका के आपातकालीन चिकित्सा तकनीशियनों हेतु प्रशिक्षण एवं पुनश्चर्या कार्यक्रमों (Training and Refresher Programmes) की व्यवस्था की गई जिसने आगे चलकर स्थानीय आबादी के लिये रोज़गार का सृजन किया।
- लगभग 400 मिलियन अमेरिकी डॉलर के अनुदान के साथ 60,000 से अधिक घरों की आवासीय परियोजना के बाद यह श्रीलंका के लिये भारत की दूसरी सबसे बड़ी अनुदान परियोजना है।
भारत-श्रीलंका संबंध:
श्रीलंका का भू राजनीतिक महत्त्व:
- हिंद महासागर क्षेत्र में श्रीलंका की स्थिति कई प्रमुख शक्तियों के लिये रणनीतिक भू- राजनीतिक प्रासंगिकता की रही है।
- चीन ग्वादर (पाकिस्तान), चटगाँव (बांग्लादेश), क्युक फलू (म्याँमार) और हम्बनटोटा (श्रीलंका) में हिंद महासागर के साथ-साथ तथा इसके दक्षिण में आधुनिक बंदरगाहों का निर्माण कर रहा है। इस प्रकार चीन की स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स की रणनीति श्रीलंका के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- चीन की ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ (String of Pearls) की रणनीति का उद्देश्य हिंद महासागर में प्रभुत्व स्थापित करने के लिये भारत को घेरना है।
- श्रीलंका में सामरिक दृष्टि से कई महत्त्वपूर्ण बंदरगाह स्थित हैं।
- चीन ग्वादर (पाकिस्तान), चटगाँव (बांग्लादेश), क्युक फलू (म्याँमार) और हम्बनटोटा (श्रीलंका) में हिंद महासागर के साथ-साथ तथा इसके दक्षिण में आधुनिक बंदरगाहों का निर्माण कर रहा है। इस प्रकार चीन की स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स की रणनीति श्रीलंका के लिये महत्त्वपूर्ण है।
राजनीतिक संबंध:
- भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने कोविड-19 महामारी से बुरी तरह प्रभावित श्रीलंका में विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने और देश की वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये उसे 400 मिलियन डॉलर की मुद्रा विनिमय सुविधा प्रदान करने हेतु एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं।
- नियमित अंतराल पर दोनों देशों के नेताओं की यात्राओं के चलते दोनों देशों के बीच राजनैतिक संबंध मज़बूत हुए हैं।
- भारत और श्रीलंका सार्क (SAARC) और बिम्सटेक (BIMSTEC) के सदस्य हैं और सार्क देशों में भारत का व्यापार श्रीलंका के साथ सबसे अधिक है।
- दोनों देशों की सेनाओं के बीच संयुक्त सैन्य अभ्यास ‘मित्र शक्ति’ (Mitra Shakti) और संयुक्त नौसैनिक अभ्यास ‘स्लिनेक्स’ (SLINEX) का आयोजन किया जाता है।
वाणिज्यिक संबंध
- सार्क (SAARC) देशों के बीच श्रीलंका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। साथ ही भारत विश्व स्तर पर श्रीलंका का सबसे बड़ा व्यापार भागीदार है।
- वर्ष 2015-17 के बीच श्रीलंका में भारत का निर्यात तकरीबन 5.3 बिलियन डॉलर का था, जबकि श्रीलंका से भारत का आयात लगभग 743 मिलियन डॉलर का था।
- मार्च 2000 में लागू हुए भारत-श्रीलंका मुक्त व्यापार समझौते के बाद दोनों देशों के बीच व्यापार में काफी तेज़ी से बढ़ोतरी देखने को मिली है।
सांस्कृतिक और शैक्षिक संबंध
- कोलंबो में स्थित भारतीय सांस्कृतिक केंद्र सक्रिय रूप से भारतीय संगीत, नृत्य, हिंदी और योग की कक्षाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति के बारे में जागरूकता बढ़ाता है। प्रतिवर्ष दोनों देशों के सांस्कृतिक समूहों द्वारा एक-दूसरे के देश में यात्राएँ की जाती हैं।
- इसके अलावा दिसंबर 1998 में एक अंतर-सरकारी पहल के रूप में भारत-श्रीलंका फाउंडेशन की स्थापना की गई थी जिसका उद्देश्य दोनों देशों के नागरिकों के मध्य वैज्ञानिक, तकनीकी, शैक्षिक और सांस्कृतिक सहयोग तथा दोनों देशों की युवा पीढ़ी के बीच संपर्क को बढ़ाना है।
- भारतीय मूल के कई लोग जिसमें सिंधी, बोराह, गुजराती, मेमन, पारसी, मलयाली और तेलुगू भाषी व्यक्ति शामिल हैं, अधिकांशतः विभाजन के बाद श्रीलंका में ही बस गए और वहाँ विभिन्न व्यापारिक क्षेत्रों में कार्यरत हैं।
- अप्रैल 2019 में भारत और श्रीलंका ने ड्रग तथा मानव तस्करी का मुकाबला करने के लिये समझौता किया।
विवाद और संघर्ष
चीन की चुनौती
- श्रीलंका ने रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण हंबनटोटा बंदरगाह को 99 वर्ष की लीज़ पर चीन को सौंप दिया है। अनुमान के मुताबिक, श्रीलंका का यह बंदरगाह चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा।
- चीन ने श्रीलंका को हथियारों की आपूर्ति के साथ-साथ उसके आर्थिक और सामाजिक विकास के लिये भारी ऋण भी प्रदान किया है।
- दोनों देशों ने सिविल परमाणु सहयोग समझौते पर भी हस्ताक्षर किये हैं, जो किसी भी देश के साथ श्रीलंका की पहली परमाणु साझेदारी है।
मछुआरों का मुद्दा
- दोनों देशों के क्षेत्रीय जल, विशेष रूप से पाक जलडमरूमध्य और मन्नार की खाड़ी में निकटता को देखते हुए मछुआरों के भटकने की घटनाएँ काफी आम हैं।
- अक्सर खाली हाथ लौटने के बजाय मछुआरे अपनी जान जोखिम डालकर श्रीलंका के क्षेत्र में चले जाते हैं, इसके कारण श्रीलंकाई नौसेना द्वारा या तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है या उनके जाल को नष्ट कर दिया जाता है।
- ज्ञात हो कि मछुआरों के मुद्दे का स्थायी हल खोजने के लिये हाल ही में मत्स्य पालन पर भारत-श्रीलंका संयुक्त कार्य समूह (Joint Working Group- JWG) की चौथी बैठक वर्चुअल माध्यम में आयोजित की गई, जिसमें भारत की ओर से कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय तथा श्रीलंका की ओर से मत्स्य एवं जलीय संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा हिस्सा लिया गया।
स्रोत: द हिंदू
सामाजिक न्याय
वायु प्रदूषण और गर्भावस्था का नुकसान: लैंसेट रिपोर्ट
चर्चा में क्यों?
हाल के एक अध्ययन के अनुसार, खराब वायु गुणवत्ता भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में गर्भावस्था के नुकसान यानी प्रेगनेंसी लॉस (Pregnancy Loss) के मामलों से प्रत्यक्ष तौर पर संबंद्ध है।
- यह संपूर्ण क्षेत्र में गर्भावस्था के नुकसान पर वायु प्रदूषण के प्रभाव का अनुमान लगाने वाला अपनी तरह का पहला अध्ययन है।
प्रमुख बिंदु
अध्ययन
- इस अध्ययन के अध्ययनकर्त्ताओं द्वारा यह जाँचने के लिये एक मॉडल बनाया गया कि PM2.5 का जोखिम गर्भावस्था के नुकसान के जोखिम को किस प्रकार बढ़ाता है। इस मॉडल के तहत मातृ आयु, तापमान तथा आर्द्रता, मौसमी भिन्नता और गर्भावस्था के नुकसान में दीर्घकालिक रुझानों के समायोजन के बाद PM2.5 में प्रत्येक 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की बढ़ोतरी के कारण गर्भावस्था पर पड़ने वाले जोखिम की गणना की गई।
- अध्ययन के अनुसार, PM2.5 में प्रत्येक 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की बढ़ोतरी के कारण गर्भावस्था के नुकसान की संभावना 3 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
- शहरी क्षेत्रों की माताओं की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों की माताओं या वे जिनकी गर्भावस्था के दौरान आयु अधिक हो, में जोखिम की संभावना अधिक पाई गई।
- क्षेत्र विशिष्ट रिपोर्ट
- गर्भावस्था के नुकसान के कुल मामलों में से 77 प्रतिशत भारत में, 12 प्रतिशत पाकिस्तान में और 11 प्रतिशत बांग्लादेश में दर्ज किये गए थे।
- सीमाएँ
- यह अध्ययन प्राकृतिक गर्भावस्था के नुकसान और गर्भपात के बीच अंतर करने में असमर्थ था, जिसके कारण यह संभव है कि प्राकृतिक गर्भावस्था के नुकसान पर वायु प्रदूषण के प्रभाव को कम करके आँका गया हो।
- कई बार गर्भावस्था से जुड़ी भ्रांतियों और डर के कारण इसके मामले ही दर्ज नहीं होते हैं, जिसके कारण आँकड़ों की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाया जा सकता है।
वायु प्रदुषण
- वायु प्रदूषण हवा में किसी भी भौतिक, रासायनिक या जैविक परिवर्तन को संदर्भित करता है। इसका आशय हानिकारक गैसों, धूल और धुएँ आदि के कारण हवा के संदूषण से है, जो कि पौधों, जानवरों और मनुष्यों को प्रभावित करता है।
वायु प्रदूषक: प्रदूषक वे पदार्थ होते हैं जो प्रदूषण का कारण बनते हैं।
- प्राथमिक: वे प्रदूषक जो प्रत्यक्ष तौर पर वायु प्रदूषण का कारण बनते हैं या किसी विशिष्ट स्रोत से सीधे उत्सर्जित होते हैं, उन्हें प्राथमिक प्रदूषक कहा जाता है। उदाहरण- कणिक तत्त्वों, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और सल्फर ऑक्साइड आदि।
- द्वितीयक: प्राथमिक प्रदूषकों की परस्पर क्रिया और प्रतिक्रिया द्वारा निर्मित प्रदूषकों को द्वितीयक प्रदूषक के रूप में जाना जाता है। उदाहरण- ओज़ोन और माध्यमिक कार्बनिक एरोसोल आदि।
वायु प्रदूषक के कारण
- खाना बनाने, ऊर्जा और घरों में प्रकाश करने आदि उद्देश्यों हेतु जीवाश्म ईंधन और लकड़ी आदि जलाना।
- उद्योगों से निकालने वाला धुआँ, जिसमें बिजली उत्पादन करने वाले कोयला-आधारित संयंत्र और डीज़ल जनरेटर संयंत्र भी शामिल हैं।
- परिवहन क्षेत्र, विशेष रूप से डीज़ल इंजन वाले वाहन।
- कृषि, जिसमें पशुधन, जो मीथेन और अमोनिया का उत्पादन करता है, धान, जिससे मीथेन का उत्पादन होता है और कृषि अपशिष्ट को जलाना आदि शामिल हैं।
- खुले में अपशिष्ट को जलाना।
मानव स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण का प्रभाव
- स्वास्थ्य प्रभाव संस्थान (HEI) द्वारा जारी ‘स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2020’ (SoGA 2020) रिपोर्ट के अनुसार-
- PM2.5 और PM10 के उच्च स्तर के कारण 1,16,000 से अधिक भारतीय शिशुओं की मृत्यु हुई।
- इनमें से आधे से अधिक मौतें PM2.5 से जुड़ी थीं, जबकि अन्य ‘इंडोर प्रदूषण’ जैसे- खाना पकाने के लिये कोयला, लकड़ी और गोबर आदि के उपयोग से होने वाले प्रदूषण से जुड़ी हुई थीं।
- लैंसेट प्लेनेटरी हेल्थ जर्नल द्वारा प्रकाशित ‘2017 ग्लोबल बर्डन ऑफ डिज़ीज़’ रिपोर्ट की मानें तो-
- भारत, जहाँ वैश्विक आबादी का तकरीबन 18 प्रतिशत हिस्सा निवास करता है, में वैश्विक स्तर पर वायु प्रदूषण के कारण होने वाली कुल असामयिक मौतों में से 26 प्रतिशत मौतों के मामले दर्ज किये जाते हैं।
- वर्ष 2017 में भारत में प्रत्येक आठ मौतों में से एक मौत के लिये वायु प्रदूषण प्रत्यक्ष तौर पर उत्तरदायी था और अब वायु प्रदूषण देश में धूम्रपान से भी अधिक लोगों की जान लेता है।
- घरेलू वायु प्रदूषण के कारण प्रतिवर्ष लगभग 3.8 मिलियन लोगों की असामयिक मृत्यु होती है।
- वायु गुणवत्ता अब एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या बन गई है, क्योंकि प्रदूषक काफी तीव्र गति से लोगों के फेफड़ों को प्रभावित करते हैं और रक्त को शुद्ध करने की फेफड़ों की क्षमता कम हो जाती है, जिससे व्यक्ति की शारीरिक वृद्धि, मानसिक क्षमता और विशेष रूप से बच्चों, गर्भवती महिलाओं तथा बुजुर्ग लोगों की कार्यक्षमता प्रभावित होती है।
- वायु प्रदूषण के कारण बच्चों में प्रायः जन्म के समय कम वज़न, अस्थमा, कैंसर, मोटापा, फेफड़ों की समस्या और ऑटिज़्म की समस्या देखी जाती है।
वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये भारतीय पहल:
- राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) और आसपास के क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग: यह वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिये राज्य सरकारों के प्रयासों का समन्वय करता है और इस क्षेत्र के लिये वायु गुणवत्ता के मापदंडों को निर्धारित करेगा।
- भारत स्टेज (BS) VI मानदंड: ये वायु प्रदूषण पर नज़र रखने के लिये सरकार द्वारा निर्धारित उत्सर्जन नियंत्रण मानक हैं।
- मॉनीटरिंग एयर क्वालिटी के लिये डैशबोर्ड: यह एक राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम (NAMP) आधारित डैशबोर्ड है, जिसका निर्माण केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के राष्ट्रीय परिवेश वायु गुणवत्ता निगरानी (NAAQM) नेटवर्क के आँकड़ों के आधार पर किया गया है जो वर्ष 1984-85 में शुरू किया गया था और इसमें 344 शहर/कस्बे, 29 राज्य, 6 केंद्रशासित राज्य शामिल हैं ।
- राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम: वर्ष 2019 में शुरू किया गया यह 102 शहरों के लिये एक व्यापक अखिल भारतीय वायु प्रदूषण उन्मूलन योजना है।
- राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI): यह उन स्वास्थ्य प्रभावों पर केंद्रित है जो प्रदूषित वायु में साँस लेने के कुछ घंटों या दिनों के भीतर प्रदर्शित होते हैं।
- राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानक: ये वायु (रोकथाम और प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के तहत केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा अधिसूचित विभिन्न प्रदूषक तत्त्वों के संदर्भ में परिवेशी वायु गुणवत्ता के मानक हैं।
- ब्रीद: यह नीति आयोग द्वारा वायु प्रदूषण के मुकाबले के लिये 15 पॉइंट एक्शन प्लान है।
- प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (PMUY): इसका उद्देश्य गरीब घरों में स्वच्छ खाना पकाने के लिये ईंधन उपलब्ध कराना और जीवन स्तर में गुणात्मक वृद्धि लाना है।
अंतर्राष्ट्रीय पहलें:
- जलवायु और स्वच्छ वायु संघ (CCAC):
- इसकी शुरुआत वर्ष 2019 में हुई थी।
- CCAC विश्व के 65 देशों (भारत सहित), 17 अंतर-सरकारी संगठनों, 55 व्यावसायिक संगठनों, वैज्ञानिक संस्थाओं और कई नागरिक समाज संगठनों की एक स्वैच्छिक साझेदारी है।
- इस संघ का प्राथमिक उद्देश्य मीथेन, ब्लैक कार्बन और हाइड्रो फ्लोरोकार्बन जैसे पर्यावरणीय प्रदूषकों को कम करना है।
- CCAC की 11 प्रमुख पहलें (Initiatives) हैं जो जागरूकता बढ़ाने, संसाधनों को एकत्रित करने और प्रमुख क्षेत्रों में परिवर्तनकारी कार्यों का नेतृत्व करने के लिये कार्य कर रही हैं।
- संयुक्त राष्ट्र स्वच्छ वायु पहल: यह राष्ट्रीय और स्थानीय सरकारों से वायु की गुणवत्ता के स्तर को प्राप्त करने के लिये प्रतिबद्ध है जो नागरिकों के लिये सुरक्षित है तथा इसका कार्य वर्ष 2030 तक जलवायु परिवर्तन एवं वायु प्रदूषण नीतियों को संरेखित करना है।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की 4 स्तंभ रणनीति: WHO ने वायु प्रदूषण के प्रतिकूल स्वास्थ्य प्रभावों के समाधान के लिये एक संकल्प (वर्ष 2015) को अपनाया।
PM (पर्टिकुलेट मैटर) 2.5
- PM2.5 (पर्टिकुलेट मैटर) 2.5 माइक्रोमीटर से कम व्यास का एक वायुमंडलीय कण होता है, जो कि मानव बाल के व्यास का लगभग 3 प्रतिशत होता है।
- यह श्वसन संबंधी समस्याओं का कारण बन सकता है और हमारे देखने की क्षमता को भी प्रभावित करता है। साथ ही यह डायबिटीज़ का भी एक कारण होता है।
- यह इतना छोटा होता है कि इसे केवल इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप की मदद से ही देखा जा सकता है।
- सभी प्रकार की दहन गतिविधियाँ (मोटर वाहन, बिजली संयंत्र, लकड़ी जलाना आदि) और कुछ औद्योगिक प्रक्रियाएँ इन कणों का मुख्य स्रोत होती हैं।
आगे की राह
- वायु प्रदूषण का तत्काल समाधान खोजने और स्वास्थ्य प्रणालियों को जल्द-से-जल्द मज़बूत करने की आवश्यकता है। ज्ञात हो कि विश्व भर में कोरोना वायरस के कारण लागू किये गए लॉकडाउन से वायु प्रदूषण से अल्पावधि राहत देखने को मिली थी, हालाँकि इस समस्या को स्थायी रूप से अभी भी हल किया जाना शेष है।
- साथ ही वायु प्रदूषण पर जन-जागरूकता बढ़ाने की भी आवश्यकता है। वायु प्रदूषण को कम करने के लिये आम लोगों को शिक्षित और सूचित किया जा सकता है। सार्वजनिक व्यवहार को बदलने में मदद के लिये मेट्रो, बसों, होर्डिंग और रेडियो के माध्यम से सार्वजनिक स्वास्थ्य संदेश प्रसारित किये जा सकते हैं।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
सामाजिक न्याय
लॉन्गिटूडिनल एजिंग स्टडीज ऑफ इंडिया
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (Ministry of Health & Family Welfare) ने वर्चुअल प्लेटफॉर्म से लॉन्गिटूडिनल एजिंग स्टडीज ऑफ इंडिया (Longitudinal Ageing Study of India- LASI) वेव-1 रिपोर्ट जारी की।
प्रमुख बिंदु:
LASI के विषय में:
- यह भारत में उम्रदराज हो रही आबादी के स्वास्थ्य, आर्थिक तथा सामाजिक निर्धारकों और परिणामों की वैज्ञानिक जाँच का व्यापक राष्ट्रीय सर्वेक्षण है। इसे वर्ष 2016 में मान्यता प्रदान की गई थी।
- यह भारत का पहला और विश्व का सबसे बड़ा सर्वेक्षण है जो सामाजिक, स्वास्थ्य तथा आर्थिक खुशहाली के पैमानों पर वृद्ध आबादी के लिये नीतियाँ और कार्यक्रम बनाने के उद्देश्य से लॉन्गिटूडिनल डाटाबेस प्रदान करता है।
सर्वेक्षण में शामिल एजेंसियाँ:
- स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के वृद्धजनों हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रम (National Programme for Health Care of Elderly) में हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, यूनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया, संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (United Nations Population Fund- UNFPA) तथा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजिंग के सहयोग से मुंबई स्थित इंटरनेशलन इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज (IIPS) के माध्यम से यह सर्वेक्षण किया गया।
सर्वेक्षण का दायरा:
- LASI, वेव-1 में 45 वर्ष तथा उससे ऊपर के 72,250 व्यक्तियों और उनके जीवनसाथी के बेसलाइन सैंपल को कवर किया गया है। इसमें 60 वर्ष और उससे ऊपर की उम्र के 31,464 व्यक्ति तथा 75 वर्ष और उससे ऊपर की आयु के 6,749 व्यक्ति शामिल हैं। ये सैंपल सिक्किम को छोड़कर सभी राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों से लिये गए।
प्रक्रिया:
- इस सर्वेक्षण में परिवार तथा सामाजिक नेटवर्क, आय, परिसंपत्ति तथा उपयोग पर सूचना के साथ स्वास्थ्य तथा बायोमार्कर पर विस्तृत डाटा एकत्रित किया गया है।
- चिकित्सा क्षेत्र में जैवसूचक/बायोमार्कर एक प्रमुख आणविक या कोशिकीय घटनाएँ हैं जो किसी विशिष्ट पर्यावरणीय आवरण को स्वास्थ्य के लक्षणों से जोड़ते हैं। पर्यावरणीय रसायनों के संपर्क में आने, पुरानी मानव बीमारियों के विकास और रोग के लिये बढ़ते खतरे के बीच उप-समूहों की पहचान करने में जैवसूचक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
निष्कर्ष:
- वर्ष 2011 की जनगणना में 60+आबादी भारत की आबादी का 8.6 प्रतिशत थी यानी 103 मिलियन वृद्ध लोग थे।
- 3 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से वर्ष 2050 में वृद्धिजनों की आबादी बढ़कर 319 मिलियन हो जाएगी।
- 75 प्रतिशत वृद्धजन किसी न किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित होते हैं। 40 प्रतिशत वृद्धजन किसी न किसी दिव्यांगता से ग्रसित हैं और 20 प्रतिशत वृद्धजन मानसिक रोगों से ग्रसित हैं।
- स्व-रिपोर्टिंग के आधार पर 45 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों में निदान किये गए हृदय तथा रक्तवाहिकाओं संबंधी रोगों (CardioVascular Diseases (CVDs) की व्यापकता 28% है।
- राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र के लोगों में बहु-रुग्णता की स्थिति (Multi-Morbidity Conditions) का प्रसार केरल (52%), चंडीगढ़ (41%), लक्षद्वीप (40%), गोवा (39%) और अंडमान तथा निकोबार द्वीप (38%) में अधिक है। एकल रुग्णता तथा बहु-रुग्णता की स्थिति की व्यापकता उम्र के साथ बढ़ती जाती है।
सर्वेक्षण का महत्त्व:
- LASI से प्राप्त साक्ष्यों का उपयोग वृद्धजनों के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रम को मज़बूत एवं व्यापक बनाने में किया जाएगा और इससे वृद्धजनों की आबादी के लिये प्रतिरोधी तथा स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाने में मदद मिलेगी।
- कोविड-19 महामारी के प्रकाश में यह अध्ययन और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि बुजुर्गों तथा एक से अधिक बिमारियों से ग्रसित व्यक्तियों को इस बीमारी का खतरा सबसे अधिक है।
राष्ट्रीय वृद्धजन स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रम (NPHCE)
(National Programme for Health Care of Elderly)
- कार्यक्रम के विषय में:
- बुजुर्गों के प्रतिबंधित खर्चों जैसे कि सेवानिवृत्ति के बाद आय में कमी तथा आश्रित बुजुर्ग महिलाओं के लिये स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने इस कार्यक्रम की शुरुआत की है।
- विज़न:
- वृद्धजनों के लिये सुलभ, सस्ती और उच्च गुणवत्ता वाली दीर्घकालिक, व्यापक तथा समर्पित देखभाल सेवाएँ प्रदान करना।
- वृद्धजनों के लिये एक नया "स्थापत्य/आर्किटेक्चर" बनाना।
- "वृद्धजनों के समाज" हेतु सक्षम वातावरण बनाने के लिए ढाँचा तैयार करना।
- सक्रिय और स्वस्थ वृद्धावस्था की अवधारणा को बढ़ावा देना।
- वित्तपोषण:
- ज़िला स्तर तक की गतिविधियों के लिये केंद्र सरकार द्वारा कुल बजट का 75% और राज्य सरकार बजट का 25% योगदान किया जाता है।
- पात्र लाभार्थी:
- देश में सभी 60 वर्ष से अधिक आयु के वृद्ध।
- लाभ के प्रकार:
- राज्य स्वास्थ्य वितरण प्रणाली के माध्यम से बुजुर्गों के लिये विशेष रूप से निशुल्क, विशिष्ट स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएँ।
स्रोत: पी.आई.बी.
भारतीय अर्थव्यवस्था
भुगतान अवसंरचना विकास कोष (PIDF)
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India- RBI) ने भुगतान अवसंरचना विकास कोष (Payment Infrastructure Development Fund- PIDF) योजना के संचालन की घोषणा की है।
प्रमुख बिंदु
उद्देश्य:
- देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करने के साथ ही टियर-3 से टियर-6 शहरों (केंद्रों) में भुगतान स्वीकृति अवसंरचना का विकास करना।
समयावधि:
- इस कोष का संचालन 1 जनवरी, 2021 से तीन वर्षों की अवधि के लिये किया जाएगा तथा इसे आगे दो और वर्षों के लिये बढ़ाया जा सकता है।
प्रबंधन:
- PIDF के प्रबंधन के लिये भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के डिप्टी गवर्नर बीपी कानूनगो की अध्यक्षता में एक सलाहकार परिषद (AC) का गठन किया गया है।
वित्त का आवंटन:
- वर्तमान में PIDF की कुल निधि 345 करोड़ रुपए है जिसमें RBI का योगदान 250 करोड़ रुपए तथा देश के प्रमुख अधिकृत कार्ड नेटवर्क का योगदान 95 करोड़ रुपए है। अधिकृत कार्ड नेटवर्क द्वारा कुल 100 करोड़ रुपए का योगदान किया जाएगा।
- इस कोष के अलावा PIDF को कार्ड नेटवर्क और कार्ड जारी करने वाले बैंकों से वार्षिक योगदान भी प्राप्त होगा।
- उदाहरण के लिये कार्ड नेटवर्क को प्रति रुपए हस्तांतरण पर 0.01 पैसे का योगदान करना होगा।
- कार्ड नेटवर्क की भूमिका व्यापारियों और कार्ड जारी करने वालों जैसे- मास्टर कार्ड, वीज़ा आदि के मध्य लेन-देन को सुविधाजनक बनाना है।
कार्यान्वयन:
- इसका उद्देश्य ऐसे व्यापारियों को लक्षित करना होगा जिन्हें अभी तक टर्मिनलाइज (ऐसे व्यापारी जिनके पास भुगतान स्वीकृति हेतु कोई डिवाइस उपलब्ध नहीं है) नहीं किया गया है।
- परिवहन और आतिथ्य, सरकारी भुगतान, ईंधन पंप, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की दुकानों, स्वास्थ्य सेवा और किराना दुकान जैसी सेवाओं में लगे व्यापारियों को इसमें शामिल किया जा सकता है, विशेषकर लक्षित भौगोलिक क्षेत्रों में।
- वित्त का उपयोग भुगतान अवसंरचना को अभिनियोजित करने के लिये बैंकों और गैर-बैंकों को सब्सिडी देने हेतु किया जाएगा, जो विशिष्ट लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये प्रासंगिक होगा।
- सलाहकार परिषद विभिन्न क्षेत्रों और स्थानों में बैंकों तथा गैर-बैंकों के अधिग्रहण के लक्ष्य के आधार पर आवंटन के लिये एक पारदर्शी तंत्र तैयार करेगी।
- लक्ष्य के कार्यान्वयन की निगरानी RBI द्वारा भारतीय रिज़र्व बैंक एसोसिएशन (IBA) और पेमेंट्स काउंसिल ऑफ इंडिया (PCI) की सहायता से की जाएगी।
- अधिग्राही बैंक (अधिग्राहक अथवा व्यापारी बैंक भी) किसी व्यापारी या व्यवसाय की ओर से डेबिट और क्रेडिट कार्ड के माध्यम से लेन-देन करने वाले वित्तीय संस्थान हैं।
- मल्टीपल पेमेंट एक्सेप्टेंस डिवाइसेस और इन्फ्रास्ट्रक्चर सपोर्टिंग कार्ड पेमेंट्स जैसे प्वाइंट ऑफ सेल, मोबाइल पॉइंट ऑफ सेल, जनरल पैकेट रेडियो सर्विस (GPRS), पब्लिक स्विच्ड टेलीफोन नेटवर्क (PSTN) तथा क्यूआर कोड- आधारित भुगतान योजना के तहत वित्तपोषित होंगे।
ब्रेकअप ऑफ सब्सिडी:
- भौतिक रूप से स्थापित PoS मशीन की लागत का 30%-50% और डिजिटल PoS के लिये 50%-75% तक की सब्सिडी दी जाएगी।
- सब्सिडी को अर्द्धवार्षिक आधार पर प्रदान किया जाएगा।
जवाबदेहिता:
- सब्सिडी के अधिग्रहणकर्ता लक्ष्यों की प्राप्ति होने पर RBI को त्रैमासिक रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे।
अन्य संबंधित कदम:
- PIDF की स्थापना ‘भारत में भुगतान एवं निपटान प्रणाली: विज़न 2019-2021’ दस्तावेज़ द्वारा प्रस्तावित उपायों के अनुरूप है।
- भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India-RBI) ने देश में डिजिटल/कैशलेस भुगतान की स्थिति के अध्ययन हेतु एक समग्र डिजिटल भुगतान सूचकांक (Digital Payments Index-DPI) तैयार किया है।