डेली न्यूज़ (05 Oct, 2020)



पोक्सो अधिनियम की धारा-29

प्रिलिम्स के लिये 

पोक्सो अधिनियम और उसकी धारा-29

मेन्स के लिये

भारत में बच्चों के विरुद्ध होने वाले अपराधों की स्थिति और उन्हें रोकने में पोक्सो अधिनियम की भूमिका

चर्चा में क्यों?

दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने एक हालिया निर्णय में कहा है कि लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो अधिनियम) की धारा-29 केवल तभी लागू होती है, जब आधिकारिक तौर पर ट्रायल की शुरुआत हो जाए, इस प्रकार आरोपियों के विरुद्ध आरोप तय किये जाने के पश्चात् ही अधिनियम की धारा-29 का प्रयोग किया जा सकता है।

प्रमुख बिंदु

अधिनियम की धारा-29

  • लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो अधिनियम) की धारा-29 के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति को अधिनियम की धारा-3, धारा-5, धारा-7 और धारा-9 के अधीन किसी अपराध को करने अथवा अपराध को करने का प्रयत्न करने के लिये अभियोजित किया गया है तो इस मामले की सुनवाई करने वाला न्यायालय तब तक यह उपधारणा (Presumption) करेगा कि ऐसे व्यक्ति ने वह अपराध किया है अथवा करने का प्रयत्न किया है, जब तक कि यह गलत साबित न हो जाए।

न्यायालय का अवलोकन

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने पाया कि पोक्सो अधिनियम, 2012 के तहत कथित अपराधों के लिये जमानत की याचिका पर सुनवाई करते समय जमानत देने संबंधी सामान्य सिद्धांतों के अलावा कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कारकों को ध्यान में रखना भी आवश्यक है।
  • जस्टिस अनूप जयराम की एक-सदस्यीय पीठ ने उल्लेख किया कि सामान्यतः न्यायिक व्यवस्था में ‘निरपराधता की उपधारणा’ (Presumption of Innocence) के सिद्धांत का पालन किया जाता है, अर्थात् सामान्य स्थिति में यह माना जाता है कि कोई भी अभियुक्त तब तक अपराधी नहीं है जब कि अपराध सिद्ध न हो जाए। जबकि पोक्सो अधिनियम, 2012 की धारा-29 इस सिद्धांत को पूर्णतः परिवर्तित कर देती है।
  • जस्टिस अनूप जयराम की एक-सदस्यीय पीठ ने पूर्व में पोक्सो अधिनियम से संबंधित मामलों में विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा दिये गए निर्णयों का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘कतिपय अपराध के बारे में उपधारणा’ का सिद्धांत (धारा-29) तभी लागू होगा, जब अभियोजन पक्ष द्वारा उपधारणा (Presumption) के निर्माण हेतु सभी बुनियादी तथ्य प्रस्तुत कर दिये जाएंगे।
  • इसके मद्देनज़र दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि धारा-29 केवल तभी लागू होती है, जब अभियुक्त के विरुद्ध ट्रायल की शुरुआत हो जाए और सभी आरोप तय कर दिये जाएँ।
  • इस प्रकार यदि जमानत याचिका आरोप तय करने से पूर्व दायर की जाती है, तो वहाँ धारा-29 का प्रावधान लागू नहीं होगा।
  • साथ ही न्यायालय ने आरोप तय होने के पश्चात् जमानत याचिका पर फैसला लेने के लिये भी कुछ नए मापदंड स्थापित किये हैं। न्यायालय के अनुसार, साक्ष्यों की प्रकृति और गुणवत्ता के अतिरिक्त, अदालत कुछ वास्तविक जीवन संबंधी कारकों पर भी विचार करेगी।
    • इसके अलावा अब जमानत याचिका पर सुनवाई करने वाली अदालत इस बात पर भी विचार करेगी कि क्या पीड़ित के विरुद्ध अपराध दोहराया गया है अथवा नहीं।  

पृष्ठभूमि 

  • असल में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पोक्सो अधिनियम, 2012 के तहत हिरासत में लिये गए एक 24-वर्षीय व्यक्ति की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए इस प्रश्न पर विचार किया जा रहा था कि क्या अधिनियम के अनुच्छेद-29 के तहत ‘कतिपय अपराध के बारे में उपधारणा’ के सिद्धांत को केवल ट्रायल के दौरान लागू किया जाएगा अथवा यह जमानत याचिका के समय भी लागू किया जाएगा।

धारा-29 की आलोचना

  • यद्यपि यह आवश्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया को बच्चों के अनुकूल बनाया जाए, किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि स्वयं को निरपराध सिद्ध करने का पूरा बोझ अभियुक्त पर डाल दिया जाए।
  • भारतीय संविधान में उल्लिखित मौलिक अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि सभी के साथ एक समान व्यवहार किया जाए। समानता का अधिकार न केवल भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है, बल्कि राज्य के मनमाने या तर्कहीन कार्य के खिलाफ भी सुरक्षा प्रदान करता है। 
  • भारत के संविधान का अनुच्छेद-14 कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण को सुनिश्चित करता है।
  • इस प्रकार पोक्सो अधिनियम, 2012 कुछ विशिष्ट लोगों के समूह को ‘निरपराधता की उपधारणा’ (Presumption of Innocence) के सामान्य सिद्धांत से वंचित करके समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।

स्रोत: द हिंदू


पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण

प्रिलिम्स के लिये

पॉलीग्राफ परीक्षण, नार्को परीक्षण, अनुच्छेद 20 (3)

मेन्स के लिये

पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण का नैतिक और संवैधानिक पक्ष

चर्चा में क्यों?

उत्तर प्रदेश सरकार के प्रवक्ता ने हाल ही में स्पष्ट तौर पर कहा है कि हाथरस दुष्कर्म मामले की जाँच के तहत पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण किये जाएंगे।

  • सरकार के अनुसार, इस मामले में शामिल पुलिस अधिकारियों के अलावा सभी अभियुक्तों और पीड़ित पक्ष के सभी लोगों का पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण किया जाएगा।

क्या होता है पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण?

  • पॉलीग्राफ परीक्षण
    • पॉलीग्राफ परीक्षण इस धारणा पर आधारित है कि जब कोई व्यक्ति झूठ बोलता है तो उस स्थिति में उसकी शारीरिक प्रतिक्रियाएँ किसी सामान्य स्थिति में उत्पन्न होने वाली शारीरिक प्रतिक्रियाओं से अलग होती हैं। 
    • इस प्रक्रिया के दौरान कार्डियो-कफ (Cardio-Cuffs) या सेंसिटिव इलेक्ट्रोड (Sensitive Electrodes) जैसे अत्याधुनिक उपकरण व्यक्ति के शरीर से जोड़े जाते हैं और इनके माध्यम से रक्तचाप, स्पंदन, श्वसन, पसीने की ग्रंथि में परिवर्तन और रक्त प्रवाह आदि को मापा जाता है। साथ ही इस दौरान उनसे प्रश्न भी पूछे जाते हैं।
    • इस प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति की प्रत्येक शारीरिक प्रतिक्रिया को कुछ संख्यात्मक मूल्य दिया जाता है, ताकि आकलन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि वह व्यक्ति सच कह रहा है अथवा झूठ बोल रहा है।

पॉलीग्राफ परीक्षण- इतिहास

  • जानकारों का मानना है कि इस प्रकार का पहला परीक्षण 19वीं सदी में इतालवी क्रिमिनोलॉजिस्ट सेसारे लोंब्रोसो द्वारा किया गया था, जिन्होंने पूछताछ के दौरान आपराधिक संदिग्धों के रक्तचाप (Blood Pressure) में बदलाव को मापने के लिये एक मशीन का इस्तेमाल किया था।
  • इसी प्रकार के उपकरण बाद में वर्ष 1914 में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक विलियम मार्स्ट्रन और वर्ष 1921 में कैलिफोर्निया के पुलिस अधिकारी जॉन लार्सन द्वारा भी बनाए गए थे।
  • नार्को परीक्षण
    • पॉलीग्राफ परीक्षण के विपरीत नार्को परीक्षण में व्यक्ति को सोडियम पेंटोथल (Sodium Pentothal) जैसी दवाओं का इंजेक्शन दिया जाता है, जिससे वह व्यक्ति कृत्रिम निद्रावस्था या बेहोश अवस्था में पहुँच जाता है। इस दौरान जिस व्यक्ति पर यह परीक्षण किया जाता है उसकी कल्पनाशक्ति तटस्थ अथवा बेअसर हो जाती है और उससे सही सूचना प्राप्त करने या जानकारी के सही होने की उम्मीद की जाती है।
    • हाल के कुछ वर्षों में जाँच एजेंसियों द्वारा जाँच के दौरान नार्को परीक्षण किया जाता रहा है और अधिकांश लोग इसे संदिग्ध अपराधियों से सही सूचना प्राप्त करने के लिये यातना और ‘थर्ड डिग्री’ के विकल्प के रूप में देखते हैं।
    • हालाँकि इन दोनों ही विधियों में वैज्ञानिक रूप से 100 प्रतिशत सफलता दर प्राप्त नहीं हुई है और चिकित्सा क्षेत्र में भी ये विधियाँ विवादास्पद बनी हुई हैं।

नार्को परीक्षण- इतिहास

  • जानकार मानते हैं कि नार्को शब्द, ग्रीक शब्द 'नार्के ’(जिसका अर्थ बेहोशी अथवा उदासीनता  होता है) से लिया गया है और इसका उपयोग एक नैदानिक ​​और मनोचिकित्सा तकनीक का वर्णन करने के लिये किया जाता है।
  • इस प्रकार के परीक्षण की शुरुआत सर्वप्रथम वर्ष 1922 में हुई थी, जब टेक्सास (अमेरिका) के एक प्रसूति रोग विशेषज्ञ (Obstetrician) रॉबर्ट हाउस ने दो कैदियों के परीक्षण हेतु नशीली दवाओं का प्रयोग किया था।

भारतीय संविधान और पॉलीग्राफ तथा नार्को परीक्षण

  • भारत में पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण से संबंधित कानूनों को समझने के लिये हम संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का विश्लेषण कर सकते हैं। 
    • संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के अनुसार, किसी अपराध के लिये संदिग्ध किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाह बनने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है।
  • इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के मुख्यतः तीन घटक हैं:
    • यह किसी अभियुक्त से संबंधित अधिकार है।
    • यह गवाह बनने की विवशता के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है।
    • यह ऐसी विवशता के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति को स्वयं के खिलाफ सबूत पेश करने पड़ सकते हैं।
  • उल्लेखनीय है कि वर्ष 2010 के ‘सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य’ वाद में सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने निर्णय में कहा था कि अभियुक्त की सहमति के बिना किसी भी प्रकार का ‘लाई डिटेक्टर टेस्ट’ (Lie Detector Test) नहीं किया जा सकता है। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि जो लोग स्वैच्छिक रूप से इस प्रकार के परीक्षण का विकल्प चुनते हैं, उन्हें उनके वकील से मिलने की इजाज़त होनी चाहिये और वकील तथा पुलिस प्रशासन द्वारा उस व्यक्ति को इस प्रकार के परीक्षण के सभी शारीरिक, भावनात्मक और कानूनी निहितार्थ के  बारे समझाया जाना चाहिये। 
    • सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने वर्ष 2000 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रकाशित ‘लाई डिटेक्टर टेस्ट के प्रशासन संबंधी दिशा-निर्देशों’ का सख्ती से पालन करने को कहा था।

लाई डिटेक्टर टेस्ट के प्रशासन संबंधी दिशा-निर्देश

  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा वर्ष 2000 में प्रकाशित ‘लाई डिटेक्टर टेस्ट के प्रशासन संबंधी दिशा-निर्देशों’ के अनुसार, 
    • अभियुक्तों की सहमति के बिना कोई लाई डिटेक्टर टेस्ट नहीं कराया जाना चाहिये। साथ ही अभियुक्त को यह विकल्प दिया जाना चाहिये कि वह परीक्षण करवाना चाहता है अथवा नहीं।
    • यदि अभियुक्त अथवा आरोपी स्वैच्छिक रूप से परीक्षण का चुनाव करता है तो उसे उसके वकील तक पहुँच प्रदान की जानी चाहिये और पुलिस तथा वकील का दायित्त्व है कि वे अभियुक्त को इस तरह के परीक्षण के शारीरिक, भावनात्मक और कानूनी निहितार्थ के बारे में बताएँ।
    • परीक्षण के संबंध में अभियुक्तों की सहमति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज की जानी चाहिये। साथ ही मजिस्ट्रेट के समक्ष सुनवाई के दौरान अभियुक्त का प्रतिनिधित्व विधिवत रूप से एक वकील द्वारा किया जाना चाहिये।
    • परीक्षण के दौरान अभियुक्त द्वारा दिये गए बयान को ‘इकबालिया बयान’ नहीं माना जाएगा और लाई डिटेक्टर टेस्ट को किसी एक स्वतंत्र एजेंसी (जैसे अस्पताल) द्वारा अभियुक्त के वकील की उपस्थिति में किया जाएगा।

अभियुक्त के अतिरिक्त अन्य लोगों का परीक्षण

  • ‘सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य’ वाद में ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि किसी भी व्यक्ति को जबरन इस प्रकार के परीक्षण के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है, चाहे वह आपराधिक मामले की जाँच के संदर्भ में हो अथवा किसी अन्य स्थिति में।
    • इस प्रकार न्यायालय ने अपने निर्णय में परीक्षण के लिये सहमति की आवश्यकता के सिद्धांत के दायरे को अभियुक्त के अतिरिक्त अन्य लोगों जैसे- गवाहों, पीड़ितों और परिवार वालों आदि तक विस्तृत कर दिया था।
  • न्यायालय ने कहा था कि किसी भी व्यक्ति की सहमति के बिना उसे इस प्रकार के परीक्षण के लिये मजबूर करना उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में दखल देने जैसा है। 
    • तीन सदस्यीय पीठ के मुताबिक, यद्यपि महिलाओं के साथ दुष्कर्म संबंधी अपराधों के मामलों में जाँच में तेज़ी लाने की आवश्यकता है, किंतु इसके बावजूद पीड़िता को  जबरन परीक्षण का सामना करने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह मानसिक गोपनीयता (Mental Privacy) में अनुचित हस्तक्षेप होगा।

पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण के हालिया उपयोग

  • अधिकांश मामलों में जाँच एजेंसियाँ ​​आरोपी या संदिग्धों पर किये जाने वाले ऐसे परीक्षणों की अनुमति लेती हैं, किंतु पीड़ितों या गवाहों पर यह परीक्षण शायद ही कभी किया गया हो।
  • कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि जाँच एजेंसियाँ इस तरह की मांग कर सकती हैं कि ये परीक्षण उनकी जाँच में मदद करने के लिये हैं, किंतु इस संबंध में किसी व्यक्ति द्वारा परीक्षणों के लिये दी गई सहमति अथवा इनकार करना उसके निर्दोष होने अथवा अपराधी होने को प्रतिबिंबित नहीं करता है। 
  • बीते वर्ष जुलाई माह में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) ने उत्तर प्रदेश के उन्नाव में दुष्कर्म पीड़िता को मारने वाले ट्रक के ड्राइवर और हेल्पर का इस प्रकार के परीक्षण कराए जाने की मांग की थी।
  • CBI ने ही पंजाब नेशनल बैंक (PNB) के कथित धोखाधड़ी मामले में एक आरोपी के परीक्षण की भी मांग की थी, लेकिन न्यायालय ने अभियुक्त की सहमति न होने की स्थिति में याचिका खारिज कर दी थी।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


न्यू कैलेडोनिया जनमत संग्रह

प्रिलिम्स के लिये:

न्यू कैलेडोनिया, नौमिया समझौता

मेन्स के लिये:

फ्राँसीसी उपनिवेश, प्रशांत महासागर का राजनीतिक शक्ति संतुलन  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दक्षिणी प्रशांत महासागर में अवस्थित फ्राँसीसी उपनिवेश ‘न्यू कैलेडोनिया’ (New Caledonia) में हुए जनमत संग्रह में 53.25% लोगों ने फ्राँस से अलग न होने का समर्थन किया है।

प्रमुख बिंदु:

  • 4  अक्तूबर, 2020 को हुए जनमत संग्रह में कुल 85.6% लोगों ने मतदान किया।
  • गौरतलब है कि इससे पहले वर्ष 2018 में हुए जनमत संग्रह में 56.4% लोगों ने फ्राँस के साथ बने रहने का समर्थन किया था, जबकि 43.6% लोगों ने फ्राँस से अलग एक स्वतंत्र ‘न्यू कैलेडोनिया’ के पक्ष में मतदान किया।
  • यह जनमत संग्रह वर्ष 1998 में स्थानीय संघर्ष को नियंत्रित करने के लिये किये गए ‘नौमिया समझौते’ (Noumea Accord) का हिस्सा है।
  • गौरतलब है कि इससे पहले फ्राँस के उपनिवेश रहे ‘ज़िबूती’ (Djibouti) और ‘वनुआतू’ (Vanuatu) में क्रमशः वर्ष 1977 और वर्ष 1980 में हुए जनमत संग्रह में स्थानीय लोगों ने फ्राँस से अलग होने का समर्थन किया था।

महत्त्व: 

  • इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रति व्यक्ति आय होने के साथ ही न्यू कैलेडोनिया खनिज संसाधनों में भी समृद्ध माना जाता है। एक अनुमान के अनुसार, विश्व में ज्ञात कुल निकल (Nickel) धातु भंडार का लगभग 10%न्यू कैलेडोनिया में मौजूद है।
  • निकल इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण में प्रयोग किया जाने वाला एक महत्त्वपूर्ण घटक है, जिसके कारण फ्राँस द्वारा इस क्षेत्र को  एक रणनीतिक, राजनीतिक और आर्थिक महत्त्व की संपत्ति के रूप में  देखा जाता है।
  • वर्तमान में इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती सक्रियता के बीच यह द्वीप सामरिक दृष्टि से फ्राँस के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
    • गौरतलब है कि न्यू कैलेडोनिया के निर्यात (अधिकांशतः निकल धातु) का एक बड़ा हिस्सा चीन को किया जाता है।    
  • ‘ज़िबूती’ (Djibouti) और ‘वनुआतू’ (Vanuatu) की स्वतंत्रता के बाद फ्राँस के लिये वैश्विक परिदृश्य में अपनी सैन्य तथा सामरिक स्थिति को मज़बूत करने के लिये ‘न्यू कैलेडोनिया’ की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गई है। 

न्यू कैलेडोनिया (New Caledonia): 

  • वर्ष 1774 में ब्रिटिश खोजकर्त्ता जेम्स कुक (James Cook) ने स्कॉटलैंड के लैटिन नाम ‘कैलेडोनिया’ के आधार पर इस द्वीप को न्यू कैलेडोनिया का नाम दिया।
  • वर्ष 1853 में फ्राँस के शासक ‘नेपोलियन तृतीय’ (Emperor Napoleon-III) ने ‘न्यू कैलेडोनिया’ को जीत लिया और कई दशकों तक इसका प्रयोग एक जेल कालोनी (Prison Colony) के रूप में किया जाता रहा।

New-Caledonia

आबादी: 

  • वर्तमान में इस द्वीप पर रहने वाले लोगों की कुल संख्या लगभग 2,70,000 है।
  • इसमें से स्थानीय मूल के ‘कनक’ (Kanak) लोगों की आबादी कुल जनसंख्या का लगभग 39% है, जबकि यूरोपीय मूल के लोगों की आबादी लगभग 27% है।

प्रशासन: 

  • ‘न्यू कैलेडोनिया’, संयुक्त राष्ट्र संघ के 17 'गैर-स्वशासित क्षेत्रों' (Non-Self Governing Territories) में से एक है, जहाँ अभी तक वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया पूरी नहीं की जा सकी है।
    • संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अध्याय-XI के तहत ‘गैर-स्वशासित क्षेत्रों को ऐसे क्षेत्रों/प्रांतों के रूप में परिभाषित किया गया है, जहाँ के लोगों को पूर्ण स्व-शासन का अधिकार नहीं प्राप्त है।
    • न्यू कैलेडोनिया के अतिरिक्त इसके तहत  ब्रिटिश वर्जिन द्वीप समूह, बरमूडा, पश्चिमी सहारा आदि को शामिल किया गया है।
  • ‘न्यू कैलेडोनिया’ में शक्ति साझाकरण के सिद्धांत पर बनी एक कार्यपालिका है, जिसका चुनाव क्षेत्र की काॅन्ग्रेस द्वारा किया जाता है। इस कार्यपालिका में काॅन्ग्रेस के सभी दलों को उनकी सीटों की संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है।
  • कार्यपालिका के चुनाव के बाद इसके सदस्यों में से ही अध्यक्ष का चुनाव किया जाता है। 
  • ‘न्यू कैलेडोनिया’ को अधिकांश मामलों में स्वायत्तता प्राप्त है परंतु रक्षा  जैसे मामलों के लिये यह आज भी फ्राँस पर बहुत अधिक निर्भर करता है।
  • फ्राँस के राष्ट्रपति को ‘न्यू कैलेडोनिया’ के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में माना जाता है।

स्वतंत्रता संघर्ष: 

  • ‘कनक विद्रोह’ (Kanak Revolt): वर्ष 1878 में स्थानीय ‘कनक' लोगों और फ्राँसीसी उपनिवेशवादियों के बीच संघर्ष शुरू हो गया, जिसके बाद स्थानीय लोगों पर फ्राँसीसी दमन और अधिक बढ़ गया। 1980 के दशक के दौरान फ्राँसीसी बलों और कनक अलगाववादियों के बीच संघर्ष जारी रहा।
  • ‘मैटिगनॉन समझौता’ (Matignon Accord): वर्ष 1988 के मैटिगनॉन समझौते के तहत स्थानीय कनक आबादी और यूरोपीय समुदाय के बीच शांति स्थापित करने का प्रयास किया गया। इसके तहत ‘न्यू कैलेडोनिया’ पर फ्राँस के प्रत्यक्ष शासन को समाप्त करने और वर्ष 1998 में स्वतंत्रता के लिये जनमत के आयोजन की बात कही गई।  
  • ‘नौमिया समझौता’ (Noumea Accord): वर्ष 1998 के नौमिया समझौते' के तहत ‘न्यू कैलेडोनिया’ में एक चरणबद्ध तरीके से स्थानीय स्वशासन की स्थापना और सत्ता के हस्तांतरण हेतु रूपरेखा तैयार की गई। इसके साथ ही स्वतंत्रता के लिये वर्ष 1998 में प्रस्तावित जनमत संग्रह को विलंबित कर दिया गया।

आगे की राह: ‘नौमिया समझौते’ (Noumea Accord) के तहत ‘न्यू कैलेडोनिया’ को तीन बार जनमत संग्रह कराने की अनुमति प्राप्त है। ऐसे में यदि स्थानीय विधानसभा के एक-तिहाई सदस्यों द्वारा एक और जनमत संग्रह की मांग की जाती है तो वर्ष 2022 तक तीसरे जनमत संग्रह का आयोजन किया जा सकता है।    

स्रोत: द हिंदू


सेस और लेवी

प्रिलिम्स के लिये:

भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG), संचित निधि, उपकर, अधिभार 

मेन्स के लिये:

सहकारी संघवाद से संबंधित मुद्दे, कैग की भूमिका 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) ने संसद को बताया कि केंद्र ने राजकोषीय वर्ष 2018-19 में सेस/लेवी (Cesses & Levies) से अर्जित 60% आय को संबंधित रिज़र्व फंड में स्थानांतरित कर दिया है और भारत की संचित निधि (CFI) में शेष राशि को बचाए रखा है।

प्रमुख बिंदु

गैर-उपयोगी निधि:

केंद्र ने  वित्त वर्ष 2019 में 35 सेस/लेवी (Cesses & Levies) से 2.75 लाख करोड़ रुपए प्राप्त किये थे। हालाँकि इसने केवल 1.64 लाख करोड़ रुपए स्थानांतरित किये हैं और 1.1 लाख करोड़ रुपए को संचित निधि में जमा किया है।

  • जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर (Cess) के 40,000 करोड़ रुपए संबंधित रिज़र्व फंड में जमा नहीं किये गए।
  • सड़क और अवसंरचना उपकर के 10,157 करोड़ रुपए न तो संबंधित रिज़र्व फंड को हस्तांतरित किये गए और न ही उस प्रयोजन के लिये उपयोग किये गए, जिसके लिये उपकर एकत्र किया गया था।
  • यूनिवर्सल सर्विस लेवी का 2,123 करोड़ रुपए तथा नेशनल मिनरल ट्रस्ट लेवी ( National Mineral Trust levy) के रूप में एकत्र किये गए 79 करोड़ रुपए को संबंधित रिज़र्व फंड में हस्तांतरित नहीं किया गया।
  • सीमा शुल्क पर समाज कल्याण अधिभार आरोपित कर 8,871 करोड़ रुपए एकत्रित किये गए लेकिन इसके लिये कोई समर्पित फंड की परिकल्पना नहीं की गई थी।
  • रिज़र्व फ़ंड के गैर-निर्माण/गैर-संचालन से यह सुनिश्चित करना मुश्किल हो जाता है कि संसद द्वारा निर्धारित विशिष्ट उद्देश्यों के लिये सेस और लेवी का उपयोग किया गया है।
  • इसके अलावा वर्ष 2010-20 के बीच एकत्रित कच्चे तेल पर उपकर का प्रतिनिधित्व करते हुए 1,24,399 करोड़ रुपए, तेल उद्योग विकास बोर्ड (नामित रिज़र्व फंड) को हस्तांतरित नहीं किये गए थे और इसे संचित निधि में रखा गया था।

उपयोग की क्रियाविधि:

  • संगृहीत किये गए उपकर और लेवी को पहले नामित आरक्षित निधि में स्थानांतरित किया     जाता है और संसद द्वारा इच्छित विशिष्ट उद्देश्यों के लिये इसका उपयोग किया जाता है।
  • सेस और अन्य लेवी के साथ केंद्रीय करों के माध्यम से एकत्रित फंड संचित निधि में जमा किये जाते हैं।
  • संचित निधि में कर और अधिभार एक विभाज्य पूल में जमा किये जाते हैं और इसमें से कुल  संग्रहण का 42% राज्यों को दिया जाता है।

भारत की संचित निधि 

इसका प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 266 (1) के तहत किया गया है।

इसमें सम्मिलित हैं:

  • कर के माध्यम से केंद्र को प्राप्त सभी कर राजस्व (आयकर, केंद्रीय उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क और अन्य रसीदें) और सभी गैर-कर राजस्व।
  • सार्वजनिक अधिसूचना, ट्रेज़री बिल (आंतरिक ऋण) और विदेशी सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों (बाहरी ऋण) से केंद्र द्वारा प्राप्त किये गए सभी ऋण।
  • इस निधि से सभी सरकारी व्यय होते हैं (असाधारण मदों को छोड़कर, जो आकस्मिकता निधि या सार्वजनिक खाते से मिलते हैं) और संसद से प्राधिकरण के बिना निधि से कोई राशि नहीं निकाली जा सकती।

उपकर

(Cess)

  • सेस एक करदाता के कर दायित्त्व के ऊपर लगाए गए कर का एक रूप है।
  • उपकर का उपयोग केवल तभी किया जाता है जब लोक कल्याण के लिये विशेष व्यय को पूरा करने की आवश्यकता होती है।
  • सेस सरकार के लिये राजस्व का एक स्थायी स्रोत नहीं है और इसके लिये निर्धारित  उद्देश्य के पूरा होने पर इसे बंद कर दिया जाता है।
  • इसे अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दोनों करों पर लगाया जा सकता है।

स्वच्छ भारत उपकर: इसे वर्ष 2015 में पेश किया गया, भारत की सड़कों, गलियों और बुनियादी ढांचे की स्वच्छता हेतु एक राष्ट्रीय अभियान के लिये 0.5% का स्वच्छ भारत उपकर लगाया गया।

इन्फ्रास्ट्रक्चर सेस: केंद्रीय बजट 2016 में घोषित, इस उपकर को वाहनों के उत्पादन पर लगाया गया था।

अधिभार

  • यह किसी मौजूदा कर में जोड़ा जाता है और वस्तु या सेवा के घोषित मूल्य में शामिल नहीं होता है।
  • यह अतिरिक्त सेवाओं या कमोडिटी मूल्य वृद्धि की लागत को कम करने के लिये लगाया जाता है

स्रोत- द हिंदू


अपर्याप्त प्रतिपूरक वनीकरण

प्रिलिम्स के लिये:

प्रतिपूरक वनीकरण प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण

मेन्स के लिये:

भारत के पर्वतीय राज्यों में अपर्याप्त प्रतिपूरक वनीकरण

चर्चा में क्यों?

एक हालिया अध्ययन में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर ज़िले में बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के विकास के लिये किये गए वन व्यपवर्तन (Forest Diversion) के बदले प्रतिपूरक वनीकरण (Compensatory Afforestation) के तहत केवल 10% पौधे ही लगाए गए। अध्ययन में यह भी पाया गया कि कुछ भूखंडों में लगाये गए पौधों के विकसित होने की दर 3.6% के बराबर थी।

प्रमुख बिंदु:

  • अध्ययन: 
    • यह अध्ययन वर्ष 2012 से वर्ष 2016 के बीच हिमधारा इनवायरमेंट रिसर्च एंड एक्शन कलेक्टिव (Himdhara Environment Research and Action Collective) द्वारा किया गया है। 
    • यह अध्ययन सरकारी आँकड़ों एवं ज़मीनी अनुसंधान पर आधारित है।
  • अध्ययन आधारित आँकड़े:  
    • 31 मार्च, 2014 तक प्रतिपूरक वनीकरण के लिये सीमांकित किया गया कुल क्षेत्र गैर-वन गतिविधियों के लिये 984 हेक्टेयर वन भूमि के बदले में 1930 हेक्टेयर था जिसमें सड़क, पनबिजली परियोजनाएँ, ट्रांसमिशन लाइनें आदि भी शामिल हैं।
    • किन्नौर ज़िले में कुल परिवर्तित वन भूमि में 11598 पेड़ खड़े थे जो 21 पादप प्रजातियों से संबंधित थे। 
    • गिरे हुए अधिकांश पेड़ शंकुधारी थे जिनमें देवदार (3,612) और लुप्तप्राय चिलगोज़ा पाइंस (2743) शामिल थे।
  • वर्ष 2002 और वर्ष 2014 के बीच किन्नौर ज़िले की परियोजनाओं के लिये कैचमेंट एरिया ट्रीटमेंट (Catchment Area Treatment- CAT) प्लान कोष के तहत एकत्र किये गए 162.82 करोड़ रुपए में से 31 मार्च, 2014 तक केवल 36% निधि का खर्च किया गया था।
    • CAT प्लान कोष को पनबिजली परियोजनाओं के लिये शमन उपायों के रूप में चुना जाता है।
  • किन्नौर में 90% से अधिक वन व्यपवर्तन (Forest Diversion) जलविद्युत परियोजनाओं एवं पारेषण लाइनों के विकास के लिये होता है।
    • हिमाचल प्रदेश में देश की 10,000 मेगावाट की जल विद्युत परियोजनाओं की उच्चतम स्थापित क्षमता है और सतलज बेसिन में अवस्थित किन्नौर 53 जलविद्युत परियोजनाओं के साथ इस राज्य का जल विद्युत परियोजना केंद्र है।
  • प्रतिपूरक वनीकरण: प्रतिपूरक वनीकरण प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (Compensatory Afforestation Management and Planning Authority- CAMPA) के नियमों के अनुसार, वन भूमि के प्रत्येक हेक्टेयर के लिये, 'प्रतिपूरक वनीकरण' के लिये भूखंडों के रूप में 'निम्नीकृत' (Degraded) भूमि का दोगुना उपयोग किया जाता है।

प्रतिपूरक वनीकरण प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण

(Compensatory Afforestation Management and Planning Authority- CAMPA):

  • यह निगरानी, तकनीकी सहायता और प्रतिपूरक वनीकरण गतिविधियों के मूल्यांकन के लिये केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (National Advisory Council) के रूप में कार्य करता है।
  • प्रत्येक बार वन भूमि को गैर-वन उद्देश्यों जैसे- खनन या उद्योग के लिये परिवर्तित किया जाता है तो उपयोगकर्त्ता एजेंसी गैर-वन भूमि (या गैर-वन भूमि उपलब्ध नहीं है तो निम्नीकृत वन भूमि के दो गुना क्षेत्र) में वन लगाने के लिये भुगतान करती है।
  • नियमों के अनुसार, क्षतिपूरक वनीकरण कोष (CAF) का 90% धन राज्यों को दिया जाता है जबकि 10% धन केंद्र सरकार अपने पास रखती है।
    • इस धन का उपयोग CAT के लिये किया जाता है जिसके तहत वन प्रबंधन, वन्यजीव संरक्षण और प्रबंधन, संरक्षित क्षेत्रों से गाँवों का स्थानांतरण, मानव-वन्यजीव संघर्ष का प्रबंधन, प्रशिक्षण एवं जागरूकता सृजन, लकड़ी की बचत करने वाले उपकरणों की आपूर्ति एवं संबद्ध गतिविधियाँ शामिल हैं।

चुनौतियाँ:

  • वन विभाग द्वारा लक्ष्य पूरा न कर पाने का कारण है कि प्रतिपूरक वनीकरण के लिये कोई भूमि उपलब्ध नहीं है।
    • किन्नौर ज़िले का एक बड़ा हिस्सा चट्टानी एवं ठंडा रेगिस्तान है जहाँ कुछ भी नहीं उगता है।
    • किन्नौर ज़िले का लगभग 10% हिस्सा पहले से ही वनाच्छादित है और बाकी का उपयोग या तो कृषि के लिये किया जाता है या वहाँ घास के मैदान हैं।
  • वनीकरण के लिये चिन्हित किये गए कई भूखंड वास्तव में घास के मैदान हैं जो ग्रामीणों द्वारा मवेशियों को चराने के लिये उपयोग किये जाते हैं। 
    • कई उदाहरणों के रूप में ग्रामीणों ने वहाँ लगाए गए पौधों को उखाड़ दिया क्योंकि वे नहीं चाहते कि ये चरागाह जंगल में परिवर्तित हो जाए।
  • वनीकरण के लिये सामाजिक-आर्थिक ज़रूरतों पर विचार नहीं किया जाता है और साथ ही वनीकरण की निगरानी भी नहीं होती है।

आगे की राह:

  • प्रतिपूरक वनीकरण के लिये वन विभाग को किन्नौर ज़िले के बजाय अन्य ज़िलों में वृक्षारोपण करना चाहिये।
  • वनों की कटाई के दुष्प्रभावों को समझने के लिये पर्याप्त संसाधनों के साथ समय पर निगरानी करने की आवश्यकता है। 
  • प्रतिपूरक वनीकरण के लिये जन भागीदारी को प्रोत्साहित करना चाहिये जिससे नए पौधे और मौजूदा पेड़ों की बेहतर देखभाल एवं सुरक्षा हो सके।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 


FinCEN और FIU-IND

प्रिलिम्स के लिये:  

वित्तीय अपराध प्रवर्तन नेटवर्क (FinCEN), राउंड ट्रिपिंग, शेल कंपनियाँ, मनी लॉन्डरिंग, संदिग्ध गतिविधि रिपोर्ट (SARs), फाइनेंशियल इंटेलिजेंस यूनिट-इंडिया (FIU-IND)

मेन्स के लिये:

वित्तीय अनियमितताओं को रोकने में वित्तीय अपराध प्रवर्तन नेटवर्क की भूमिका 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, संयुक्त राज्य अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ ट्रेज़री के वित्तीय अपराध प्रवर्तन नेटवर्क (FinCEN) ने बैंकों द्वारा दर्ज की गईं 2100 से अधिक ‘संदिग्ध गतिविधि रिपोर्ट’ (SARs) दर्ज की। FinCEN रिपोर्ट वर्ष 1999 और 2017 के बीच कम से कम 2 ट्रिलियन USD के लेन देन की पहचान करती हैं और बैंकों एवं वित्तीय संस्थानों के अनुपालन अधिकारियों द्वारा मनी लॉन्ड्रिंग या अन्य आपराधिक गतिविधि के संभावित साक्ष्य के रूप में चिह्नित की गई हैं।

प्रमुख बिंदु

FinCEN:

  • इसकी स्थापना वर्ष 1990 में की गई थी। 
  • यह मनी लॉन्ड्रिंग के खिलाफ लड़ाई में अग्रणी वैश्विक नियामक के रूप में कार्य करता है।
  • यह घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय धन शोधन, आतंकवादी वित्तपोषण और अन्य वित्तीय अपराधों का मुकाबला करने के लिये वित्तीय लेन देन के बारे में जानकारी का संग्रह और उसका विश्लेषण करता है।

संदिग्ध गतिविधि रिपोर्ट:

  • SARs, संदिग्ध गतिविधियों की रिपोर्ट करने के लिये बैंकों और वित्तीय संस्थानों द्वारा USA FinCEN को प्रस्तुत किया जाने वाला एक दस्तावेज है।
  • लेन-देन की घटना के 30 दिनों के भीतर आपराधिक धन या ब्लैक मनी का कोई भी रूप; इनसाइडर ट्रेडिंग; संभावित धन शोधन; आतंकी वित्तपोषण; कोई भी लेन-देन जो संदेह पैदा करता है, की जानकारी देनी होती है ।
  • इनका उपयोग अपराध का पता लगाने के लिये किया जाता है, लेकिन कानूनी मामलों को सिद्ध करने के लिये प्रत्यक्ष साक्ष्य के रूप में इनका उपयोग नहीं किया जा सकता है।
  • ये बैंकिंग लेन देन के विवरण होते हैं जो राउंड-ट्रिपिंग, मनी लॉन्ड्रिंग या शेल जैसी संस्थाओं से निपटने का स्पष्ट संकेत देते हैं।
  • FinCEN, SARs को एफबीआई, यूएस इमिग्रेशन और सीमा शुल्क सहित कानून-प्रवर्तन अधिकारियों के साथ शेयर करता है।

महत्त्व:

  • FinCEN रिपोर्ट संवाददाता बैंकिंग मुद्रा से संबंधित खतरों को उजागर करती है।
  • ‘संवाददाता बैंक’ (Correspondent Bank) शब्द एक वित्तीय संस्थान को संदर्भित करता है जो दूसरे को सेवाएँ प्रदान करता है, आमतौर पर दूसरे देशों में।
  • यह एक मध्यस्थ या एजेंट के रूप में कार्य करता है, जो व्यापार स्थानांतरण की सुविधा देता है, व्यापार लेन देन का संचालन करता है, जमा स्वीकार करता है और दूसरे बैंक की ओर से दस्तावेज़ एकत्रित करता है।

भारत की स्थिति :

  • अलग-अलग मामलों में भारतीय एजेंसियों द्वारा जाँच किये जा रहे व्यक्तियों और कंपनियों को FinCEN के SARs के अंतर्गत लाया गया है ।
  • जैसे-2G घोटाले, अगस्ता-वेस्टलैंड घोटाले आदि मामलों में नामित भारतीय संस्थाओं के लेन देन से संबंधित सभी मामलों को FinCEN के साथ सूचीबद्ध किया गया है।

नोट 

  • राउंड ट्रिपिंग से अभिप्राय उस धन से है जो विभिन्न चैनलों के माध्यम से देश के बाहर जाता है और फिर यही धन विदेशी निवेश के रूप में देश में वापस आता है। इसमें ज्यादातर काला धन शामिल है और इसका उपयोग अक्सर स्टॉक प्राइस में हेर-फेर करने के लिये किया जाता है।
  • राउंड ट्रिपिंग अक्सर लेन-देन की एक श्रंखला के माध्यम से की जाती है इसका कोई व्यावसायिक उद्देश्य नहीं होता है जो इसे गार (General Anti-Avoidance Rules-GAAR) के दायरे में लाता हो।
  • यह धन ऑफशोर निधियों में निवेश किया जा सकता है जिसे बदले में भारतीय परिसंपत्तियों में निवेश किया जाता हैं। वहीं ग्लोबल डिपॉज़िटरी रिसिप्ट्स (GDR) एवं पार्टिसिपेटरी नोट्स (P- Notes) जैसे कुछ अन्य मार्ग हैं जिनका उपयोग अतीत में किया गया है।

मनी लॉन्ड्रिंग अवैध रूप से प्राप्त आय की पहचान को छुपाता या प्रच्छन्न करता है ताकि वे वैध स्रोतों से उत्पन्न हुए दिखाई दें। इसके अंतर्गत  मादक पदार्थों की तस्करी, डकैती या जबरन वसूली जैसे अपराध शामिल होते हैं ।

शेल कंपनियाँ आमतौर पर कॉरपोरेट इकाइयाँ होती हैं जिनके पास कोई सक्रिय व्यवसाय संचालन या महत्त्वपूर्ण संपत्ति नहीं होती है। सरकार उन्हें संदेह के साथ देखती है क्योंकि उनमें से कुछ का उपयोग मनी लॉन्ड्रिंग, कर चोरी और अन्य अवैध गतिविधियों के लिये किया जा सकता है।

भारतीय परिदृश्य

  • फाइनेंशियल इंटेलिजेंस यूनिट-इंडिया (FIU-IND), संयुक्त राज्य अमेरिका के FinCEN के समान कार्य करता है।
  • वित्त मंत्रालय के तहत, यह वर्ष 2004 में संदिग्ध वित्तीय लेन देन से संबंधित जानकारी प्राप्त करने, विश्लेषण और प्रसार के लिये नोडल एजेंसी के रूप में स्थापित किया गया था।

एजेंसी निम्नलिखित दस्तावेज प्राप्त करने के लिये अधिकृत है:

  • नकद लेन देन रिपोर्ट (CTR)
  • संदिग्ध लेन देन रिपोर्ट (STRs)
  • क्रॉस बॉर्डर वायर ट्रांसफर रिपोर्ट
  • ये रिपोर्ट हर महीने निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से प्राप्त की जाती हैं।
  • यह प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट, 2002 (PMLA) के तहत होता है।

अनिवार्य

  • भारत के बैंकों को FIU पर मासिक CTR प्रस्तुत करना अनिवार्य है:
  • 10 लाख रुपए या इसके समतुल्य विदेशी मुद्रा से संबंधित सभी लेन देन या एकीकृत रूप से जुड़े लेन-देन की एक श्रंखला जो विदेशी मुद्रा में 10 लाख या इसके बराबर हो।

प्रक्रिया: 

  • FIU द्वारा CTR और STR का विश्लेषण किया जाता है।
  • मनी लॉन्ड्रिंग, कर चोरी और आतंकी वित्तपोषण के संभावित मामलों की जांच के लिये प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय जाँच ब्यूरो और कर प्राधिकरण जैसी एजेंसियों के साथ संदिग्ध लेन देन साझा किये जाते हैं।
  • FIU की वर्ष 2017-2018 की रिपोर्ट बताती है कि उसे 14 लाख STR प्राप्त हुए थे जो पिछले वर्ष दर्ज किये गए STR की संख्या का तीन गुना थे ।

आगे की राह: 

  • SAR ने भारतीय संस्थाओं और व्यक्तियों के कई मामलों में, कथित अनियमितताओं के अपने वित्तीय इतिहास का उल्लेख किया है।
  • भारत में एजेंसियों के किये यह स्पष्ट संदेश है कि वित्तीय धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार के उनके मामलों को FinCEN द्वारा हरी झंडी दिखाई जा रही है।
  • मनी लॉन्ड्रिंग के प्रयासों को ट्रैक करने और उन्हें कम करने के लिये वित्तीय नियामकों के बीच नियमित रूप से सूचनाओं का आदान-प्रदान करने की आवश्यकता है।

स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस


उत्सर्जन वृद्धि में संपन्न देशों की भूमिका

प्रिलिम्स के लिये:

कार्बन बजट, ग्रीन न्यू डील, समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्व

मेन्स के लिये:

कार्बन उत्सर्जन के कारण और इसके दुष्प्रभाव, जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ऑक्सफैम इंटरनेशनल (Oxfam International) और स्टॉकहोम एन्वायरनमेंटल इंस्टीट्यूट (Stockholm Environmental Institute- SEI) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्सर्जन के मामले में विश्व के 1% सबसे अमीर (Richest) लोग 50% सबसे गरीब (Poorest) लोगों से अधिक उत्तरदायी हैं।

प्रमुख बिंदु:  

  • ‘कंफ्रंटिंग कार्बन इनइक्वालिटी’ (Confronting Carbon Inequality) नामक इस रिपोर्ट में वर्ष 1990 से वर्ष 2015 के बीच उत्सर्जन आँकड़ों की समीक्षा की गई।

वर्ष 1990- 2015 के बीच उत्सर्जन संबंधी आँकड़े:

  • रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1990- 2015 के बीच विश्व के सबसे अमीर वर्ग के 1% लोग 15% संचयी उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी रहे, जबकि इसी दौरान विश्व के सबसे गरीब वर्ग के 50% लोग मात्र 7% संचयी उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी थे।
  • इस अवधि में विश्व के 10% सबसे अमीर लोग 31% कार्बन बजट (Carbon Budge) के अवक्षय (Depletion) के लिये उत्तरदायी रहे, जबकि इसमें विश्व के सबसे गरीब वर्ग के 50% लोगों की भूमिका मात्र 4% ही थी।
    • कार्बन बजट वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित कार्बन डाइऑक्साइड की वह मात्रा है,  जिसकी एक समय सीमा के दौरान उत्सर्जन के बाद भी तापमान वृद्धि को एक निश्चित सीमा (2°C) के अंदर रखा जा सकता है।

उत्सर्जन में वृद्धि:  रिपोर्ट के अनुसार, उत्सर्जन वृद्धि में विश्व के 10% सबसे अमीर लोगों की भूमिका 46% रही, जबकि सबसे गरीब वर्ग के 50% लोगों की भूमिका मात्र 6% ही थी।

  • रिपोर्ट के अनुसार, इस उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी विश्व के 10% सबसे अमीर लोगों में से आधे लोग उत्तरी अमेरिका और यूरोपीय संघ (European Union- EU) के देशों से संबंधित हैं। 

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उत्सर्जन वृद्धि में भारत की भूमिका:

  • वर्ष 2018 में दिल्ली स्थित ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट’ (Centre for Science and Environment- CSE) नामक संस्था द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार, एक भारतीय प्रतिवर्ष केवल 1.97 टन कार्बन डाइऑक्साइड (tCO2) उत्सर्जित करता है।
  • जबकि प्रतिवर्ष कनाडा या के एक व्यक्ति द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 16 टन से अधिक बताई गई।
  • इसी तरह भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन यूरोपीय संघ (6.78 tCO2 /प्रति व्यक्ति) और चीन (7.95 tCO2/प्रति व्यक्ति) से बहुत ही कम रहा। 
  • इसके अतिरिक्त वर्ष 2018 में भारत के 10% सबसे अमीर लोगों द्वारा किया गया उत्सर्जन 4.4 tCO2/प्रति व्यक्ति था, जबकि इसी दौरान अमेरिका के 10% सबसे अमीर लोगों के लिये यह आँकड़ा 52.4 tCO2/प्रति व्यक्ति था, जो भारत की तुलना में लगभग 12 गुना अधिक है।   
  • उपरोक्त आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन सबसे कम है।

कारण और चुनौतियाँ: 

  • रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में वैश्विक कार्बन बजट का तेज़ी से ह्रास हो रहा है और इसका प्रयोग समुदायों के लिये एक गरिमापूर्ण और सभ्य जीवन प्रदान करने हेतु नहीं बल्कि अमीरों की खपत का विस्तार के लिये हो रहा है।
    • इसके अनुसार, अमीरों द्वारा उत्सर्जन का सबसे बड़ा हिस्सा उड़ानों और कारों की वजह से है जिसमें निजी जेट, लक्जरी एसयूवी और स्पोर्ट्स कारों का बड़ी संख्या में उपयोग शामिल है।
  • इस रिपोर्ट में नस्ल, वर्ग, लिंग, जाति और उम्र जैसे कारकों के साथ आय असमानता तथा जलवायु संकट के संबंधों को भी स्वीकार किया गया।
    • उदाहरण के लिये लिंग के आधार पर आय में असमानता का अर्थ है कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों को अधिक वेतन प्राप्त हुआ और इसका प्रभाव उनके रहन-सहन, यात्रा और ऐसे ही अन्य खर्चों पर देखने को मिला। 
  • रिपोर्ट के अनुसार, अनावश्यक और विलासिता की वस्तुओं/गतिविधियों के कारण होने वाले उत्सर्जन में कटौती के व्यापक सकारात्मक प्रभाव देखने को मिल सकते हैं परंतु वर्तमान में वैश्विक खपत और उत्पादन मॉडल पूंजीवादी विकास और नव-उदारवाद के सिद्धांतों से प्रेरित है, ऐसे में इस व्यवस्था में पर्यावरण संरक्षण एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। 
  • वर्तमान में पर्यावरण क्षरण की गंभीर चुनौती से निपटने के लिये औद्योगिक क्षेत्र और देशों पर लगाए जाने वाले कार्बन टैक्स और गैर-बाध्यकारी जलवायु प्रतिबद्धताएँ जैसे उपाय अपर्याप्त हैं। 

सुझाव:   

  • रिपोर्ट में व्यक्तिगत कार्रवाई पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित करने के बजाय प्रणालीगत बदलाव की आवश्यकता पर बल दिया गया है। साथ ही ऐसे नए आर्थिक मॉडल को लागू करने की मांग की गई है जो पहले से ही संपन्न लोगों की खपत में अंतहीन वृद्धि पर निर्भर नहीं करता है।
  • रिपोर्ट में विश्व के सबसे अमीर 10% लोगों के उत्सर्जन को कम करने और वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को एक-तिहाई (1/3) करने के लक्ष्य पर ध्यान देने की बात कही गई है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018 में अमेरिका में चर्चा में आई ‘ग्रीन न्यू डील’ (Green New Deal) जैसे व्यापक प्रयास वर्तमान में वैश्विक स्तर पर फैली भारी असमानता और शक्ति असंतुलन के बीच जलवायु संकट के गंभीर दुष्प्रभाव को कम करने में सहायक हो सकते हैं।    
    • ध्यातव्य है कि ‘ग्रीन न्यू डील’ जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये अमेरिका के  हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स (House of Representatives) की प्रतिनिधि ‘अलेक्जेंड्रिया ओकासियो-कोर्टेज़’ (Alexandria Ocasio-Cortez) और मैसाचुसेट्स के सीनेटर एडवर्ड जे मार्के (Edward J. Markey) द्वारा लाया गया एक संसदीय प्रस्ताव है।
    • इसके तहत अमेरिकी सरकार से अर्थव्यवस्था को खनिज तेल से अलग करने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर अंकुश लगाने का आह्वान किया गया।
    • साथ ही इसके तहत नवीकरणीय ऊर्जा उद्योगों में उच्च-भुगतान वाली नई नौकरियों की गारंटी दी गई। यह प्रस्ताव जलवायु परिवर्तन के संकट को कम करने के साथ आर्थिक असमानता और नस्लीय अन्याय जैसी सामाजिक समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है। 
  • वर्ष 2019 में व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (United Nations Conference on Trade and Development- UNCTD) द्वारा भी इसका समर्थन किया गया था और वैश्विक स्तर पर सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश के माध्यम से ‘ग्रीन न्यू डील' की पुनरावृत्ति की मांग की गई थी। 

आगे की राह: 

  • इस रिपोर्ट के आँकड़े जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के संदर्भ में ‘समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्व’ (Common But Differentiated Responsibilities-CBDR) के सिद्धांत का समर्थन करते हैं। 
  • अतः विश्व के विकसित और संपन्न देशों को पर्यावरण के प्रति अपने उत्तरदायित्त्वों को स्वीकार करते हुए जलवायु परिवर्तन से निपटने में बड़ी भूमिका निभानी चाहिये। हाल ही में चीन द्वारा वर्ष 2060 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है जो इस दिशा में एक सकारात्मक पहल है। 
  • कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये समाज के हर वर्ग तक नवीकरणीय ऊर्जा विकल्पों की पहुँच सुनिश्चित करने के प्रयास पर विशेष ज़ोर दिया जाना चाहिये। 

स्रोत: डाउन टू अर्थ


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संबंधी मंत्रिस्तरीय ऑनलाइन गोलमेज सम्मेलन

प्रीलिम्स के लिये

विज्ञान प्रौद्योगिकी संबंधी मंत्रिस्तरीय ऑनलाइन गोलमेज सम्मेलन

मेन्स के लिये

विज्ञान प्रौद्योगिकी संबंधी मंत्रिस्तरीय ऑनलाइन गोलमेज सम्मेलन से संबंधित विषय

चर्चा में क्यों?

3 अक्तूबर 2020 को केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा 17वें वार्षिक विज्ञान प्रौद्योगिकी और समाज (Science Technology and Society) फोरम में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संबंधी मंत्रिस्तरीय ऑनलाइन गोलमेज सम्मेलन (The online Science & Technology Ministerial Roundtable) में भारत द्वारा वैज्ञानिक आँकड़ों को साझा करने पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता को रेखांकित किया गया।

प्रमुख बिंदु: 

  • भारत की राष्ट्रीय डेटा साझाकरण और सुगम्यता नीति (National Data Sharing and Accessibility Policy- INDSAP) और एक खुले सरकारी डेटा पोर्टल से वैज्ञानिक आँकड़ों का साझाकरण बढ़ाया जा सकता है।  
  • भारत में कोरोना वायरस के टीके के उन्नत चरणों के परीक्षण तथा मानवता के एक बड़े हिस्से को टीके की आपूर्ति करने की क्षमता है। 
  • केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अनुसार, वैज्ञानिक डेटा साझा करने को नए एसटीआईपी 2020 में शामिल किये जाने पर विचार किया जा रहा है। तथा इसे वैश्विक साझेदारों के रूप में साझा किया जा रहा है।”

सम्मेलन से संबंधित अन्य बिंदु

  • विज्ञान प्रौद्योगिकी संबंधी मंत्रिस्तरीय ऑनलाइन गोलमेज सम्मेलन का आयोजन 3 अक्तूबर, 2020 को किया गया था और जापान ने इसकी मेजबानी की। सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास सहयोग, सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी और विज्ञान की भूमिका पर विचार-विमर्श किया गया। इसमें दुनिया भर के लगभग 50 देशों के विज्ञान और प्रौद्योगिकी प्रमुखों ने भाग लिया। इसमें COVID-19 से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान करने के लिये विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से उत्पन्न अवसरों का पता लगाया गया।
  • भारत के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव ने इस मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहयोग, सामाजिक विज्ञान और विज्ञान में भारत द्वारा की गई प्रमुख पहलों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि भारत विकास और स्वास्थ्य, जल, ऊर्जा, पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, संचार और प्राकृतिक आपदाओं की चुनौतियों के समाधान के लिये विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को असाधारण महत्व देता है। ”
  • उन्होंने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दुनिया के 40 से अधिक देशों के साथ भारत के सक्रिय सहयोग के बारे में बात की। 
  • केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अनुसार, “भारत सभी प्रमुख बहुपक्षीय और क्षेत्रीय विज्ञान और तकनीक प्लेटफार्मों और ईयू, ब्रिक्स, आसियान, G-20, अफ्रीका पहल, यूएन और ओईसीडी विज्ञान और तकनीक प्लेटफॉर्म के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय मेगा-विज्ञान परियोजनाओं जैसे आईईआरटी, टीएमटी, लीगो का भी हिस्सा है और इसी तरह ‘डिज़ास्टर रिसिलिएंट इन्फ्रास्ट्रक्चर’, अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन आपदाओं और स्वच्छ ऊर्जा के प्रबंधन में भारत की वैश्विक पहल हैं।
  • कोरोनावायरस के टीके का परीक्षण अंतिम चरण में हैं और भारत में लोगों के एक बड़े हिस्से को टीके की आपूर्ति करने की क्षमता है।
  • इस उच्च मंत्रिस्तरीय बैठक में अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, इंडोनेशिया, भारत, इराक, रूस, दक्षिण अफ्रीका और अन्य देशों ने भागीदारी की।
  • इस मंच ने वर्तमान महामारी की स्थिति से लड़ने में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डाला और इस बात पर सहमति व्यक्त की कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में मज़बूत अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, अत्याधुनिक विज्ञान ने वर्तमान संकट को हल करने में और आगामी तैयारी में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भविष्य में ऐसे संकट से निपटने की तैयारी की।

आगे की राह

विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रियों का गोलमेज सम्मेलन हर वर्ष विज्ञान प्रौद्योगिकी और समाज फोरम के साथ आयोजित किया जाता है।  विज्ञान प्रौद्योगिकी और समाज फोरम का उद्देश्य अनौपचारिक आधार पर खुली चर्चा के लिये एक नया तंत्र प्रदान करना और मानव नेटवर्क का निर्माण करना है, जो समय के साथ विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग से उपजी नई प्रकार की समस्याओं का समाधान करेगा।

स्रोत- पीआइबी