भारतीय राजव्यवस्था
लैंगिक अंतराल और न्यायपालिका में संवेदीकरण
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के महान्यायवादी के.के. वेणुगोपाल ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल एक लिखित सुझाव में न्यायपालिका के सदस्यों के बीच लिंग संवेदीकरण को बढ़ाने की आवश्यकता पर विशेष ज़ोर दिया है।
- उन्होंने उच्चतर न्यायपालिका में लंबे समय से महिला न्यायाधीशों की संख्या में बनी हुई कमी को भी रेखांकित किया।
प्रमुख बिंदु:
- पृष्ठभूमि:
- उच्चतम न्यायालय ने यौन अपराधियों के लिये ज़मानत की शर्तें निर्धारित करते हुए महान्यायवादी और अन्य लोगों से पीड़ितों के प्रति लिंग संवेदनशीलता में सुधार के तरीकों पर अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करने को कहा था।
- गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय की पीठ ने ऐसे यौन अपराध के अपराधी जो आगे चलकर पीड़ितों का और अधिक उत्पीड़न करते हैं, के लिये न्यायालयों द्वारा जमानत की शर्तों के निर्धारण के संदर्भ में विचार आमंत्रित किये थे।
- हाल ही में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यौन अपराध के आरोपी एक व्यक्ति को जमानत की शर्त के रूप में पीड़ित से राखी बंधवाने की बात कही थी।
- न्यायपालिका में लैंगिक अंतराल पर डेटा:
- वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में मात्र दो महिला न्यायाधीश है, जबकि उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश के पद के लिये 34 सीटें आरक्षित हैं, इसके अलावा भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर आज तक किसी भी महिला न्यायाधीश को नियुक्त नहीं किया गया है।
- देश के उच्चतम न्यायालय और सभी उच्च न्यायालयों में निर्धारित 1,113 की क्षमता के विपरीत केवल 80 महिला न्यायाधीश ही कार्यरत हैं।
- इन 80 महिला न्यायाधीशों में से उच्चतम न्यायालय में मात्र 2 और अन्य देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में कार्यरत हैं, यह संख्या कुल न्यायाधीशों का मात्र 7.2% ही है।
- देश के 26 न्यायालयों (उच्च न्यायालय सहित) के डेटा के अध्ययन से पता चलता है कि देश में सबसे अधिक महिला न्यायाधीशों की संख्या हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालय (कुल 85 न्यायाधीशों में से 11 महिला न्यायाधीश) में है, इसके बाद मद्रास उच्च न्यायालय दूसरे स्थान पर है जहाँ कुल 75 में से 9 महिला न्यायाधीश हैं। दिल्ली और महाराष्ट्र उच्च न्यायालय में 8-8 महिला न्यायाधीश हैं।
- मणिपुर, मेघालय, पटना, त्रिपुरा, तेलंगाना, और उत्तराखंड उच्च न्यायालय में कोई भी महिला न्यायाधीश कार्यरत नहीं है।
- वर्तमान में न्यायाधिकरणों या निचली अदालतों में महिला न्यायाधीशों की संख्या का आँकड़ा एकत्र करने के लिये कोई भी केंद्रीय प्रणाली नहीं है।
- वरिष्ठ अधिवक्ताओं के मामले में वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में कुल 403 पुरुष वरिष्ठ अधिवक्ताओं की तुलना में केवल 17 महिलाएँ ही हैं।
- इसी प्रकार दिल्ली उच्च न्यायालय में 229 पुरुषों के मुकाबले केवल 8 वरिष्ठ महिला अधिवक्ता और बॉम्बे उच्च न्यायालय में 157 पुरुषों के मुकाबले केवल 6 वरिष्ठ महिला अधिवक्ता हैं।
- न्यायपालिका में महिला प्रतिनिधित्त्व का महत्त्व:
- वर्ष 2030 का सतत् विकास एजेंडा और सतत् विकास लक्ष्य (विशेष रूप से लक्ष्य-5 और 16) लैंगिक समानता और न्यायपालिका जैसे सार्वजनिक संस्थानों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की वैश्विक ज़िम्मेदारी को रेखांकित करते हैं।
- महिला न्यायाधीशों के लिये समानता प्राप्त करना न केवल इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह महिलाओं का अधिकार है बल्कि यह और अधिक न्यायसंगत कानून व्यवस्था की स्थापना के लिये भी आवश्यक है। महिला न्यायाधीश न्यायपालिका को मज़बूत बनाने के साथ-साथ न्याय प्रणाली के प्रति जनता के विश्वास को बनाए रखने में सहायता करती हैं।
- न्यायपालिका महिलाओं न्यायाधीशों का प्रवेश न्यायाप्रणाली को और अधिक पारदर्शी, समावेशी तथा लोगों (जिनके जीवन को वे प्रभावित करते हैं) के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।
- महिला न्यायाधीश न्यायालयों की वैधता में वृद्धि करती हैं, साथ ही एक सशक्त संदेश भी देती है कि न्यायालय न्याय का सहारा लेने वालों के लिये सुलभ और हमेशा खुले हैं।
- महिला न्यायाधीश अपने न्यायिक कार्यों में उन अनुभवों को लाती हैं जो इसे और अधिक व्यापक तथा सहानुभूति पूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।
- महिलाओं की उपस्थिति से अधिनिर्णयन में अधिक व्यापकता आती है, क्योंकि महिला न्यायाधीश ऐसे विचार सामने लाती हैं, जिस पर उनकी अनुपस्थिति में ध्यान नहीं दिया गया होता और इस प्रकार चर्चा का दायरा बढ़ जाता है, जो गैर-विचारशील या अनुचित निर्णयों की संभावनाओं को रोकता है।
- इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए कि कैसे कानून और नियम लैंगिक रूढ़ियों पर आधारित हो सकते हैं, या वे महिलाओं और पुरुषों पर कैसे अलग-अलग प्रभाव डाल सकते हैं, एक लैंगिक परिप्रेक्ष्य, अधिनिर्णयन की निष्पक्षता को बढ़ाता है, जो अंततः पुरुषों और महिलाओं दोनों को लाभान्वित करता है।
- सुझाव
- न्यायालयों को यह स्पष्ट करना चाहिये कि इस तरह की टिप्पणी (मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का मुद्दा) पूर्णतः अस्वीकार्य है और यह पीड़ित तथा संपूर्ण समाज को व्यापक पैमाने पर नुकसान पहुँचा सकती है।
- आवश्यक है कि न्यायालयों द्वारा जारी किये जाने वाले आदेश कुछ निश्चित न्यायिक मानकों के अनुरूप हों, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है कि भविष्य में इस प्रकार की टिप्पणियाँ न की जाएँ।
- सर्वोच्च न्यायालय को निचली अदालतों और न्यायाधिकरणों में महिला न्यायाधीशों के आँकड़ों के संग्रह से संबंधित दिशा-निर्देश देने चाहिये, साथ ही विभिन्न उच्च न्यायालयों में भी वरिष्ठ अधिवक्ताओं से संबंधित डेटा भी एकत्र किया जाना चाहिये।
- न्यायपालिका के सभी स्तरों पर महिलाओं का अधिक-से-अधिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना चाहिये, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय भी शामिल है और यदि संभव हो तो इस पहल की शुरुआत भी सर्वोच्च न्यायालय से ही की जानी चाहिये।
- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों के साथ परामर्श के बाद नियुक्त किया जाता है, जो वरिष्ठ हों अथवा जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा आवश्यक समझा जाए।
- अन्य न्यायाधीशों को राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के ऐसे अन्य न्यायाधीशों के साथ परामर्श के बाद नियुक्त किया जाता है, जो वरिष्ठ हों अथवा जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा आवश्यक समझा जाए। ध्यातव्य है कि CJI के अलावा अन्य किसी भी न्यायाधीश की नियुक्ति हेतु राष्ट्रपति के लिये CJI के साथ परामर्श करना बाध्यकारी है।
- आवश्यक है कि न्यायपालिका में सभी आवश्यक पदों पर महिलाओं के कम-से-कम 50 प्रतिशत प्रतिनिधित्त्व के लक्ष्य को प्राप्त किया जाए, साथ ही सभी अधिवक्ताओं को लिंग संवेदीकरण के विषय पर प्रशिक्षित करना आवश्यक है।
- रुढ़िवादी और पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण वाले न्यायाधीशों को यौन हिंसा के मामलों से निपटने के लिये लिंग संवेदीकरण के विषय पर प्रशिक्षित किया जाना आवश्यक है, ताकि वे ऐसे मामलों में महिलाओं के प्रति संवेदनशील हो सकें।
आगे की राह
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का आदेश और इसी तरह के अन्य उदाहरण यह स्पष्ट करते हैं कि न्यायालयों को तत्काल हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है। महिलाओं के प्रतिनिधित्व में सुधार का महत्त्वपूर्ण निर्णय न्यायपालिका का है और यौन हिंसा से जुड़े मामलों में अधिक संतुलित एवं सशक्त दृष्टिकोण की ओर एक लंबा रास्ता तय करना है।
- एक न्यायालय के लंबे समय से स्थापित जनसांख्यिकी को बदलने से संस्थान को एक नई रोशनी में विचार करने के लिये और अधिक उत्तरदायी बनाया जा सकता है तथा संभावित रूप से आगे आधुनिकीकरण एवं सुधार की ओर अग्रसर हो सकता है। चूँकि न्यायालय की संरचना अधिक विविध हो जाती है, इसलिये इसकी प्रथागत प्रथाएँ कम होती जाती हैं, फलस्वरूप पुराने तरीके जो अक्सर व्यवहार के अस्थिर संहिता या केवल जड़ता पर आधारित होते हैं, अब पर्याप्त नहीं हैं।
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
झारखंड में तंबाकू पर प्रतिबंध
चर्चा में क्यों?
हाल ही में झारखंड सरकार ने एक आदेश द्वारा राज्य सरकार के सभी कर्मचारियों के लिये किसी भी प्रकार के तंबाकू उत्पाद के उपभोग पर प्रतिबंध लगा दिया है।
प्रमुख बिंदु
- अध्यादेश के माध्यम से राज्य सरकार ने कर्मचारियों के लिये तंबाकू के सेवन से परहेज संबंधी एक शपथ पत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य बना दिया है।
- ज्ञात हो कि धूम्रपान और धुआँ रहित तम्बाकू उत्पादों में सिगरेट, बीड़ी, खैनी, गुटखा, पान मसाला, जर्दा या सुपारी के साथ-साथ हुक्का, ई-सिगरेट आदि को भी शामिल किया जाएगा।
- यह निर्णय राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम की एक बैठक में लिया गया है, जिसका उद्देश्य सिगरेट एवं अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम, (COTPA) 2003 के प्रावधानों को सही ढंग से लागू करना है।
- यह आदेश 1 अप्रैल, 2021 से लागू किया जाएगा।
- आदेश के उल्लंघन के मामले में दंड के प्रावधान पर कोई स्पष्टता नहीं है।
- सरकार कर्मचारियों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिये पंचायत स्तर के संस्थानों में भी लोगों को जागरूक करने हेतु तंबाकू नियंत्रण पर चर्चा आयोजित करेगी।
- ज़िला परिषदों, पंचायत समितियों और ग्राम पंचायतों को प्रत्येक ग्राम सभा की बैठक में तंबाकू नियंत्रण पर चर्चा आयोजित करने को कहा गया है।
- राज्य में प्रतिबंधित तंबाकू उत्पादों के प्रवेश को रोकने के लिये पुलिस को चेकपोस्टों पर सतर्कता बढ़ाने का भी आदेश दिया गया है।
- इससे पहले भी अप्रैल 2020 में झारखंड सरकार ने कोविड-19 संक्रमण में वृद्धि की संभावना को देखते हुए सार्वजनिक स्थानों और ऑनलाइन प्लेटफाॅर्मों पर तंबाकू उत्पादों की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया था।
भारत में तंबाकू नियंत्रण
- अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन:
- भारत ने वर्ष 2004 में WHO फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल (WHO Framework Convention on Tobacco Control) की रुपरेखा के तहत समझौते की पुष्टि की थी।
- सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम, 2003:
- इसके द्वारा वर्ष 1975 के सिगरेट एक्ट को बदला गया जो काफी हद तक वैधानिक चेतावनियों तक ही सीमित था और इसमें गैर-सिगरेट उत्पादों को शामिल नहीं किया गया था।
- वर्ष 2003 के अधिनियम के माध्यम से सिगार, बीड़ी, पाइप तंबाकू, हुक्का, चबाने वाला तंबाकू, पान मसाला और गुटखा को भी इसमें शामिल किया गया।
- राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम, 2008:
- उद्देश्य: तंबाकू की खपत को नियंत्रित करना और तंबाकू से होने वाली मौतों को कम करना।
- कार्यान्वयन: इस कार्यक्रम को तीन स्तरीय संरचना (i) केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण प्रकोष्ठ (ii) राज्य स्तर पर राज्य तंबाकू नियंत्रण प्रकोष्ठ और (iii) ज़िला स्तर पर ज़िला तंबाकू नियंत्रण प्रकोष्ठ के माध्यम से कार्यान्वित किया जाता है।
- सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद (पैकेजिंग और लेबलिंग) संशोधन नियम, 2020:
- यह संशोधन सभी तंबाकू उत्पादों पर चित्रित चेतावनियों के साथ निर्दिष्ट स्वास्थ्य चेतावनियों का नया सेट प्रदान करता है।
- एम-सेसेशन (mCessation) कार्यक्रम:
- यह तंबाकू को प्रतिबंधित करने के लिये मोबाइल प्रौद्योगिकी पर आधारित एक पहल है।
- भारत ने वर्ष 2016 में सरकार की ‘डिजिटल इंडिया’ पहल के हिस्से के रूप में टेक्स्ट संदेशों (Text Messages) का उपयोग कर एम-सेसेशन (mCessation) कार्यक्रम शुरू किया था।
- प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण अधिनियम, 1981:
- यह अधिनियम धूम्रपान को वायु प्रदूषक के रूप में मानता है।
- केबल टेलीविज़न नेटवर्क संशोधन अधिनियम, 2000:
- यह भारत में तंबाकू और शराब से संबंधित विज्ञापनों के प्रसारण पर प्रतिबंध लगाता है।
- भारत सरकार ने खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 के तहत विनियम जारी किये हैं, जिनमें यह निर्धारित किया गया है कि तंबाकू या निकोटीन का उपयोग खाद्य उत्पादों में नहीं किया जा सकता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
सामाजिक न्याय
विश्व मलेरिया रिपोर्ट 2020
चर्चा में क्यों?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation- WHO) ने हाल ही में विश्व मलेरिया रिपोर्ट (WMR) 2020 जारी की है।
- यह रिपोर्ट वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर मलेरिया से संबंधित आँकड़ों एवं रुझानों पर व्यापक अपडेट प्रदान करती है जिसमें इस बीमारी के रोकथाम, निदान, उपचार, उन्मूलन और निगरानी संबंधी जानकारियों को शामिल किया जाता है।
- रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि भारत ने मलेरिया के मामलों में कमी लाने के काम में प्रभावी प्रगति की है।
प्रमुख बिंदु
- वैश्विक विश्लेषण:
- विश्व स्तर पर मलेरिया के लगभग 229 मिलियन मामले प्रतिवर्ष सामने आते हैं, यह एक वार्षिक अनुमान है जो पिछले चार वर्षों में लगभग अपरिवर्तित रहा है।
- वर्ष 2019 में मलेरिया के कारण 4,0,9000 लोगों की मृत्यु हुई जबकि वर्ष 2018 यह आँकड़ा 4,11000 था।
- रिपोर्ट के अनुसार, मलेरिया के सर्वाधिक मामले 11 देशों- बुर्किना फासो, कैमरून, लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो, घाना, भारत, माली, मोज़ाम्बिक, नाइजर, नाइजीरिया, युगांडा और तंज़ानिया में दर्ज किये गए। ये देश कुल अनुमानित वैश्विक मामलों के 70 प्रतिशत तथा मलेरिया के कारण होने वाली कुल अनुमानित मौतों में से 71 प्रतिशत के लिये उत्तरदायी थे।
- दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों ने विशेष रूप से मलेरिया के मामलों तथा इसके कारण होने वाली मौतों में क्रमशः 73% और 74% की कमी के साथ रोग को नियंत्रित करने के मामले में मज़बूत प्रगति की है।
- विश्व स्तर पर मलेरिया के लगभग 229 मिलियन मामले प्रतिवर्ष सामने आते हैं, यह एक वार्षिक अनुमान है जो पिछले चार वर्षों में लगभग अपरिवर्तित रहा है।
- भारतीय विश्लेषण:
- भारत एकमात्र उच्च स्थानिक देश है जिसने वर्ष 2018 की तुलना में वर्ष 2019 में 17.6% की गिरावट दर्ज की है।
- वार्षिक परजीवी घटना अर्थात् API (प्रति 1000 जनसंख्या पर नए संक्रमण की संख्या) वर्ष 2018 की तुलना में वर्ष 2019 में 18.4% कम हो गई।
- भारत ने वर्ष 2012 से API को एक से कम बनाए रखा है।
- भारत ने मलेरिया के क्षेत्रवार मामलों में सबसे बडी गिरावट लाने में भी योगदान किया है यह 20 मिलियन से घटकर लगभग 6 मिलियन पर आ गई है।
- वर्ष 2000 से 2019 के बीच मलेरिया के मामलों में 71.8 प्रतिशत और मृत्यु के मामलों में 73.9 प्रतिशत की गिरावट आई है।
- भारत ने वर्ष 2000 और 2019 के बीच मलेरिया के रोगियों की संख्या में 83.34 प्रतिशत की कमी और इस रोग से होने वाली मौतों के मामलों में 92 प्रतिशत की गिरावट लाने में सफलता हासिल की है तथा इस प्रकार सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों (Millennium Development Goals -MDGs) में से छठे लक्ष्य (वर्ष 2000 से 2019 के बीच मलेरिया के मामलों में 50-75 प्रतिशत की गिरावट लाना) को हासिल कर लिया है।
- भारत ने मलेरिया के मामलों में 83.34% और वर्ष 2000 से 2019 के मध्य मलेरिया मृत्यु दर में 92% की कमी हासिल की, जिससे MDG 6 लक्ष्य की प्राप्ति हुई।
- MDG 6 का उद्देश्य HIV/AIDS, मलेरिया और अन्य रोगों से निपटना है, जिनका ग्रामीण विकास, कृषि उत्पादकता और खाद्य तथा पोषण सुरक्षा पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
- सतत विकास लक्ष्यों को MDG के स्थान पर लागू किया गया है।
- MDG 6 का उद्देश्य HIV/AIDS, मलेरिया और अन्य रोगों से निपटना है, जिनका ग्रामीण विकास, कृषि उत्पादकता और खाद्य तथा पोषण सुरक्षा पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
- ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, मेघालय और मध्य प्रदेश (उच्च स्थानिक राज्य) राज्यों में वर्ष 2019 में लगभग 45.47% मलेरिया के मामले दर्ज किये गए हैं।
- इन राज्यों में मलेरिया से 63.64% मौतें भी हुईं।
- पिछले दो दशकों के आँकड़े और रुझान स्पष्ट रूप से मलेरिया में भारी गिरावट को दर्शाते हैं, अतः कहा जा सकता है की वर्ष 2030 तक मलेरिया उन्मूलन का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
- मलेरिया पर अंकुश लगाने के प्रयास
- भारत में मलेरिया उन्मूलन प्रयास वर्ष 2015 में शुरू हुए थे और वर्ष 2016 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के नेशनल फ्रेमवर्क फॉर मलेरिया एलिमिनेशन (NFME) की शुरुआत के बाद इनमें और अधिक तेज़ी आई।
- NFME मलेरिया के लिये WHO की मलेरिया के लिये वैश्विक तकनीकी रणनीति 2016–2030 (GTS) के अनुरूप है। ज्ञात हो कि वैश्विक तकनीकी रणनीति WHO के वैश्विक मलेरिया कार्यक्रम (GMP) का मार्गदर्शन करता है, जो मलेरिया को नियंत्रित करने और समाप्त करने के लिये WHO के वैश्विक प्रयासों के समन्वय समन्वय हेतु उत्तरदायी है।
- जुलाई 2017 में मलेरिया उन्मूलन के लिये एक राष्ट्रीय रणनीतिक योजना (वर्ष 2017 से वर्ष 2022) की शुरुआत की, जिसमें आगामी पाँच वर्ष के लिये रणनीति तैयार की गई।
- इसके तहत मलेरिया के प्रसार के आधार पर देश के विभिन्न हिस्सों में वर्षवार उन्मूलन लक्ष्य प्रदान किया जाता है।
- जुलाई 2019 में भारत के चार राज्यों (पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) में ‘हाई बर्डन टू हाई इम्पैक्ट’ (HBHI) पहल का कार्यान्वयन शुरू किया गया था।
- वर्ष 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और आरबीएम पार्टनरशिप (RBM Partnership) ने मलेरिया को समाप्त करने के लिये भारत समेत 11 देशों में ‘हाई बर्डन टू हाई इम्पैक्ट’ (HBHI) पहल की शुरुआत की थी।
- बीते दो वर्ष में इस पहल के काफी अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं और मलेरिया के मामलों में कुल 18 प्रतिशत तथा मलेरिया के कारण होने वाली मौतों के मामले में 20 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है।
- भारत सरकार द्वारा सूक्ष्मदर्शी यंत्र उपलब्ध कराने के लिये किये गए प्रयासों तथा काफी लंबे समय तक टिकी रहने वाली कीटनाशक युक्त मच्छरदानियों (Long Lasting Insecticidal Nets- LLINs) के वितरण के कारण पूर्वोत्तर के 7 राज्यों, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश और ओडिशा जैसे मलेरिया से बहुत अधिक प्रभावित राज्यों में इस बीमारी के प्रसार में पर्याप्त कमी लाई जा सकी है।
- LLIN ऐसी मच्छरदानियाँ है जिन्हें नायलोन के धागों में कीटनाशक दवा सिंथेटिक पायरेथ्राइड को मिश्रित कर बनाया जाता है। कीटनाशकयुक्त मच्छरदानी में उपयोग किये गए कीटनाशक 3 वर्षों तक और 20 बार धुलाई करने तक प्रभावी रहते हैं।
- लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर LLINs का इस्तेमाल शुरू किये जाने के बाद मलेरिया के मामलों में देश भर में भारी गिरावट आई है।
- भारत में मलेरिया उन्मूलन प्रयास वर्ष 2015 में शुरू हुए थे और वर्ष 2016 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के नेशनल फ्रेमवर्क फॉर मलेरिया एलिमिनेशन (NFME) की शुरुआत के बाद इनमें और अधिक तेज़ी आई।
स्रोत: पी.आई.बी.
शासन व्यवस्था
मातृभाषा में तकनीकी शिक्षा
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने छात्रों को अपनी मातृभाषा में तकनीकी शिक्षा प्रदान करने हेतु रोडमैप तैयार करने के लिये एक कार्य दल (Task Force) का गठन किया है।
प्रमुख बिंदु:
- कार्य दल-
- अध्यक्षता: इसकी स्थापना सचिव, उच्च शिक्षा, अमित खरे की अध्यक्षता में की जाएगी।
- उद्देश्य: इसका उद्देश्य प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण- छात्र अपनी मातृभाषा में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों जैसे- चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कानून आदि में आगे बढ़ सकें, को प्राप्त करना है।
- यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 का हिस्सा है जो कक्षा 8 तक क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने और पाठ्यक्रम को एक ऐसी भाषा में तैयार करने पर केंद्रित है कि वह छात्र के लिये सहज हो।
- कार्य: यह विभिन्न हितधारकों द्वारा दिये गए सुझावों को ध्यान में रखेगा और एक माह में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा।
- क्षेत्रीय भाषाओं में तकनीकी शिक्षा प्रदान करने का कारण
- रचनात्मकता को बढ़ाना: यह देखा गया है कि मानव मस्तिष्क उस भाषा में सहजता से ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होता है जिसमें वह बचपन से सोच-विचार का आदी होता है।
- जब छात्रों को क्षेत्रीय भाषाओं में समझाया जाता है, विशेषकर मातृभाषा में तो वे विचारों की अभिव्यक्ति या उसे सरलता से ग्रहण कर लेते हैं।
- कई देशों द्वारा अभ्यासरत: विश्व के कई देशों में कक्षाओं में शिक्षण कार्य विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में किया जाता है, चाहे वह फ्राँस, जर्मनी, रूस या चीन जैसे देश हों, जहाँ 300 से अधिक भाषाएँ और बोलियाँ हैं।
- समावेशी बनाना: यह सामाजिक समावेशिता, साक्षरता दर में सुधार, गरीबी में कमी और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में मदद करेगा। समावेशी विकास के लिये भाषा एक उत्प्रेरक का कार्य कर सकती है। मौजूदा भाषायी बाधाओं को हटाने से समावेशी शासन के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद मिलेगी।
- रचनात्मकता को बढ़ाना: यह देखा गया है कि मानव मस्तिष्क उस भाषा में सहजता से ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम होता है जिसमें वह बचपन से सोच-विचार का आदी होता है।
- मुद्दे: क्षेत्रीय भाषाओं में तकनीकी शिक्षा प्रदान करने के लिये शिक्षकों को ऑडियो ट्रांसलेशन टूल्स से तकनीकी सहायता के अलावा अंग्रेज़ी, पाठ्यपुस्तकों और क्षेत्रीय भाषाओं में संदर्भ सामग्री के साथ-साथ शाब्दिक माध्यम में कुशल होने की आवश्यकता होगी।
- क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिये सरकार की पहलें
- हाल ही में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा को बढ़ावा देने हेतु एक मुख्य पहल है।
- वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग (Commission for Scientific and Technical Terminology-CSTT) क्षेत्रीय भाषाओं में विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तकों के प्रकाशन को बढ़ावा देने हेतु प्रकाशन अनुदान प्रदान कर रहा है।
- इसकी स्थापना वर्ष 1961 में सभी भारतीय भाषाओं में तकनीकी शब्दावली विकसित करने के लिये की गई थी।
- केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (Central Institute of Indian Languages- CIIL), मैसूर के माध्यम से राष्ट्रीय अनुवाद मिशन (National Translation Mission- NTM) का क्रियान्वयन किया जा रहा है, जिसके तहत विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में निर्धारित विभिन्न विषयों की पाठ्य पुस्तकों का आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा है।
- CIIL की स्थापना वर्ष 1969 में शिक्षा मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के तहत की गई थी।
- भारत सरकार द्वारा लुप्तप्राय भाषाओं के संरक्षण को बढ़ावा देने के लिये 'लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा और संरक्षण के लिये योजना' (SPPEL) का कार्यान्वयन किया जा रहा है।
- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) देश में उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों में क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने का प्रयास करता है और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में लुप्तप्राय भाषाओं हेतु केंद्र की स्थापना से संबंधित योजना के तहत कुल नौ केंद्रीय विश्वविद्यालयों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
- हाल ही में केरल राज्य सरकार द्वारा शुरू किये गए ‘नमथ बसई’ कार्यक्रम ने राज्य के जनजातीय बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने हेतु मातृभाषाओं को अपनाने में सहायता प्रदान कर महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
- वैश्विक प्रयास
- वर्ष 2018 में चीन के चांग्शा (Changsha) शहर में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन- यूनेस्को (UNESCO) की ‘युएलु घोषणा’ (Yuelu Proclamation) ने अल्पसंख्यक भाषाओं और विविधता की रक्षा के लिये दुनिया भर के देशों का मार्गदर्शन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2019 को ‘स्वदेशी भाषाओं के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में घोषित किया था।
- इसका उद्देश्य राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वदेशी भाषाओं का संरक्षण, उनका समर्थन करना और उन्हें बढ़ावा देना है।
स्थानीय भाषाओं की रक्षा हेतु संवैधानिक और कानूनी अधिकार
- अनुच्छेद 29 (अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण) यह उपबंध करता है कि भारत के राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों को अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार होगा।
- अनुच्छेद 120 (संसद में प्रयोग की जाने वाली भाषा) संसदीय कार्यवाही हेतु हिंदी या अंग्रेज़ी भाषा के उपयोग का प्रावधान करता है, लेकिन साथ ही संसद सदस्यों को अपनी मातृभाषा में अभिव्यक्ति का अधिकार प्रदान करता है।
- भारतीय संविधान का भाग XVII, अनुच्छेद 343 से 351 तक आधिकारिक भाषाओं से संबंधित है।
- अनुच्छेद 350A (प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधा): इसके मुताबिक प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषायी अल्पसंख्यकों के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेंगे।
- अनुच्छेद 350B (भाषायी अल्पसंख्यकों के लिये विशेष अधिकारी): भारत के राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अधीन भाषायी अल्पसंख्यकों के लिये उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करने और इस संबंध में रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की जाएगी। राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत करेगा और संबंधित राज्यों की सरकारों को भिजवाएगा।
- अनुच्छेद 351 (हिंदी भाषा के विकास के लिये निदेश) केंद्र सरकार को हिंदी भाषा के विकास के लिये निर्देश जारी करने की शक्ति देता है।
- भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 आधिकारिक भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है: असमिया, उड़िया, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, गुजराती, डोगरी, तमिल, तेलुगू, नेपाली, पंजाबी, बांग्ला, बोडो, मणिपुरी, मराठी, मलयालम, मैथिली, संथाली, संस्कृत, सिंधी और हिंदी।
- शिक्षा के अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 के मुताबिक जहाँ तक संभव हो शिक्षा का माध्यम बच्चे की मातृभाषा होनी चाहिये।
आगे की राह
- दुनिया भर के विभिन्न देशों ने अपनी मातृभाषा को सफलतापूर्वक अंग्रेज़ी के साथ प्रतिस्थापित कर दिया है, और वे विश्व-स्तरीय वैज्ञानिकों, शोधकर्त्ताओं, अनुसंधानकर्त्ताओं और विचारकों को तैयार करने में सक्षम हैं। भाषा की बाधा केवल तभी तक रहती है जब तक कि संबंधित भाषा का प्रयोग करने वाले लोगों को उस भाषा में ज्ञान के सृजन हेतु उचित प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है, अतः आवश्यक है कि सरकार द्वारा स्थानीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने के लिये उन भाषाओं में मूल वैज्ञानिक लेखों और पुस्तकों के प्रकाशन को प्रोत्साहित किया जाए।
- साथ ही कई अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि यदि बच्चों को छोटी उम्र में ही सिखाया जाए तो वे कई सारी भाषाएँ सीख सकते हैं। इस तरह अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान को नज़रअंदाज किये बिना भी क्षेत्रीय भाषाओं में बच्चों को उच्च-स्तरीय ज्ञान प्रदान किया जा सकता है। यह याद रखना महत्त्वपूर्ण है कि अंग्रेज़ी ऐसी एकमात्र भाषा नहीं है, बल्कि यह उन भाषाओं में से एक है, जो कि बच्चों को विश्व में भागीदार बनने और उसका अनुभव करने में मदद कर सकती है।
स्रोत: पी.आई.बी.
शासन व्यवस्था
मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करने हेतु पहलें
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्र सरकार ने सीवर लाइनों और सेप्टिक टैंकों की मैनुअल सफाई की खतरनाक प्रथा को समाप्त करने और मशीनीकृत सफाई को बढ़ावा देने के लिये दो प्रमुख पहलों की घोषणा की है।
- केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा सीवर लाइनों और सेप्टिक टैंकों की मशीनीकृत सफाई को अनिवार्य बनाने के लिये कानून में संशोधन की घोषणा की गई है, वहीं आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने सफाई मित्र सुरक्षा चैलेंज की शुरुआत की है।
प्रमुख बिंदु
- कानून में संशोधन: घोषणा के मुताबिक, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की राष्ट्रीय कार्ययोजना के हिस्से के रूप में ‘हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास (संशोधन) विधेयक, 2020’ को प्रस्तुत किया जाएगा।
- इस राष्ट्रीय कार्ययोजना का उद्देश्य मौजूदा सीवेज सिस्टम को आधुनिक बनाना; सेप्टिक टैंक की मशीनीकृत सफाई के लिये मैला और सेप्टेज प्रबंधन प्रणाली की स्थापना करना, मैले का परिवहन और उपचार; नगरपालिकाओं को अत्याधुनिक तकनीक प्रदान करना और मोबाइल हेल्पलाइन के साथ स्वच्छता प्रतिक्रिया इकाइयों की स्थापना करना है।
- विधेयक के प्रमुख प्रावधान
- मशीनीकृत सफाई: प्रस्तावित विधेयक में सीवर लाइनों और सेप्टिक टैंकों की मशीनीकृत सफाई को अनिवार्य करने का प्रावधान किया गया है, साथ ही विधेयक के तहत इस कार्य में शामिल कर्मियों को बेहतर सुरक्षा प्रदान करने और किसी भी दुर्घटना की स्थिति में मुआवज़ा प्रदान करने की बात भी कही गई है।
- दंड: इस विधेयक में जुर्माने की राशि और कारावास की अवधि को बढ़ाकर हाथ से मैला ढोने (मैनुअल स्कैवेंजिंग) की कुप्रथा पर रोक लगाने वाले कानून को और अधिक कठोर बनाने का प्रस्ताव किया गया है।
- वर्तमान में किसी भी व्यक्ति को सीवर लाइनों और सेप्टिक टैंकों की सफाई के खतरनाक काम में बिना अनिवार्य सुरक्षा उपकरणों के शामिल करने पर पाँच वर्ष तक का कारावास या 5 लाख रुपए तक का जुर्माना अथवा दोनों सज़ा का प्रावधान है।
- कोष: विधेयक के तहत सीवर लाइनों और सेप्टिक टैंकों की मशीनीकृत सफाई के लिये आवश्यक उपकरणों की खरीद हेतु ठेकेदारों या नगरपालिकाओं को पैसा देने के बजाय सीधे श्रमिकों को धन मुहैया कराने का निर्णय लिया गया है।
- सफाई मित्र सुरक्षा चैलेंज
- लॉन्च: सफाई मित्र सुरक्षा चैलेंज का शुभारंभ 19 नवंबर, 2020 को विश्व शौचालय दिवस के अवसर पर देश भर के 243 प्रमुख शहरों में किया गया है।
- उद्देश्य: सीवरों और सेप्टिक टैंकों की मैनुअल सफाई की प्रथा को समाप्त करना और मशीनीकृत सफाई को बढ़ावा देना।
- पात्रता: राज्यों की राजधानियाँ, शहरी स्थानीय निकाय और सभी स्मार्ट सिटीज़ इस चैलेंज में हिस्सा लेने के लिये पात्र होंगे।
- पुरस्कार: शहरों को तीन उप-श्रेणियों में सम्मानित किया जाएगा। ये हैं- 10 लाख से अधिक की आबादी वाले शहर, 3 लाख से 10 लाख तक की आबादी वाले शहर और 3 लाख तक की आबादी वाले शहर। तीनों उप-श्रेणियों में सभी विजेताओं को कुल 52 लाख रुपए तक की राशि प्रदान की जाएगी।
‘मैनुअल स्कैवेंजिंग’ का अर्थ
- परिभाषा: मैनुअल स्कैवेंजिंग का आशय किसी व्यक्ति द्वारा बिना सुरक्षा उपकरणों के अपने हाथों से मानवीय अपशिष्ट (Human Excreta) की सफाई करने या ऐसे अपशिष्टों को सर पर ढोने अथवा नालियों, सीवर लाइनों और सेप्टिक टैंकों की सफाई करने की प्रथा से है।
- चिंताएँ
- राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग (NCSK) के अनुसार, बीते 10 वर्षों में सीवर लाइन और सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए देश भर में कुल 631 लोगों की मौत हो गई।
- वर्ष 2019 में ऐसे सबसे अधिक सफाई कर्मचारियों की मौत हुई थी, जिनकी संख्या बीते पाँच वर्ष में सबसे अधिक है।
- वर्ष 2018 की तुलना में वर्ष 2019 में मैनुअल स्कैवेंजिंग के कारण होने वाली मौतों में 61 प्रतिशत की वृद्धि देखने को मिली थी।
- सीवेज लाइन और सेप्टिक टैंक की सफाई के लिये मशीनीकृत प्रणालियों की शुरुआत के बावजूद इस प्रक्रिया में अभी भी मानवीय हस्तक्षेप जारी है।
- वर्ष 2018 में एकत्र किये गए आँकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में कुल 29,923 लोग मैनुअल स्कैवेंजिंग के कार्य में शामिल हैं, जो कि भारत के किसी भी अन्य राज्य से सबसे अधिक है।
- राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग (NCSK) के अनुसार, बीते 10 वर्षों में सीवर लाइन और सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए देश भर में कुल 631 लोगों की मौत हो गई।
मैनुअल स्कैवेंजिंग की व्यापकता का कारण
- उदासीन मनोवृत्ति: कई अध्ययनों में राज्य सरकारों द्वारा इस कुप्रथा को समाप्त कर पाने में असफलता को स्वीकार न करना और इसमें सुधार के प्रयासों की कमी को एक बड़ी समस्या बताया है।
- आउट सोर्सिंग: कई बार स्थानीय निकाय द्वारा सीवर की सफाई का कार्य निजी ठेकेदारों को सौंप दिया जाता है। इनमें से अधिकांश निजी ठेकेदार सफाई कर्मियों की सुरक्षा और स्वच्छता का सही ढंग से ध्यान नहीं रखते हैं।
- प्रायः यह देखा जाता है कि ऐसे निजी ठेकेदारों के साथ कार्य करने वाले सफाई कर्मियों के साथ किसी भी प्रकार की दुर्घटना की स्थिति में ये ठेकेदार पीड़ित के साथ किसी भी प्रकार के संबंध से इनकार कर देते हैं।
- सामाजिक कारण: इस प्रकार की प्रथा अक्सर जाति और वर्ग से प्रेरित होती है।
- यह भारत की जाति व्यवस्था से भी जुड़ी है, जहाँ तथाकथित निचली जातियों से इस प्रकार के काम की उम्मीद की जाती है।
- कानून द्वारा मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त कर दिया गया है, हालाँकि इसके साथ जुड़े भेदभाव और जातिगत पहचान को अभी भी समाप्त किया जाना शेष है।
संबंधित पहलें
- ‘हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013’ में अस्वच्छ शौचालयों के निर्माण एवं रखरखाव तथा किसी भी व्यक्ति को मैनुअल स्कैवेंजिंग के कार्य में संलग्न करने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया गया है।
- इसके तहत नगरपालिका द्वारा हाथ से मैला ढोने वाले लोगों की पहचान और उनके पुनर्वास की व्यवस्था करने का भी उपाय किया गया है।
- वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश के माध्यम से सरकार को यह निर्देश दिया था कि वह वर्ष 1993 के बाद से मैनुअल स्कैवेंजिंग कार्य करने के दौरान मरने वाले सभी लोगों की पहचान करे और उनके परिवार को 10 लाख रुपए का मुआवज़ा प्रदान करे।
- वर्ष 1993 में भारत सरकार द्वारा ‘मैनुअल स्कैवेंजर्स के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम’ लागू किया गया, जिसके माध्यम से देश में हाथ से मैला ढोने की प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया गया तथा इसे संज्ञेय अपराध मानते हुए ऐसे मामलों में एक वर्ष तक के कारावास और जुर्माने का प्रावधान किया गया है।
- यह अधिनियम देश में शुष्क शौचालयों के निर्माण को भी प्रतिबंधित करता है।
- वर्ष 1989 के अत्याचार निवारण अधिनियम ने भी सफाई कर्मचारियों के लिये काफी महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, ज्ञात हो कि भारत में सफाई कर्मचारियों के रूप में कार्य करने वाले 90 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति (SC) से हैं।
- संविधान का अनुच्छेद 21 भारत के प्रत्येक नागरिक को गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार प्रदान करता है।
आगे की राह
- पहचान और प्रत्यक्ष हस्तक्षेप: सफाई कर्मियों को किसी भी प्रकार की सुविधा प्रदान करने से पूर्व यह आवश्यक कि उनकी सही ढंग से पहचान की जाए। सही गणना के बिना लोगों को लक्षित करना काफी मुश्किल होगा।
- स्थानीय प्रशासन को सशक्त बनाना: 15वें वित्त आयोग द्वारा स्वच्छ भारत मिशन को सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप में चिह्नित किये जाने और स्मार्ट सिटीज़ तथा शहरी विकास के लिये उपलब्ध धन मैनुअल स्कैवेंजिंग की समस्या को हल करने के लिये एक मज़बूत अवसर प्रदान करता है।
- सामाजिक जागरूकता: मैनुअल स्कैवेंजिंग से जुड़े सामाजिक पहलुओं से निपटने से पहले यह स्वीकार किया जाना चाहिये कि आज भी यह कुप्रथा जाति और वर्ण व्यवस्था से जुड़ी हुई है, साथ ही इसके पीछे के कारकों को समझना भी आवश्यक है।
- सख्त कानून की आवश्यकता: यदि सरकार द्वारा किसी कानून के माध्यम से राज्य एजेंसियों के लिये मशीनीकृत उपकरण और स्वच्छता सेवाएँ प्रदान करना अनिवार्य बना दिया जाता है, तो ऐसी स्थिति में श्रमिकों के अधिकारों की अनदेखी करना और भी मुश्किल हो जाएगा।