डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर जो कि बाबासाहेब अंबेडकर (Babasaheb Ambedkar) के नाम से लोकप्रिय थे भारतीय संविधान के मुख्य निर्माताओं में से एक थे।
डॉ. अंबेडकर एक प्रसिद्ध राजनीतिक नेता, दार्शनिक, लेखक, अर्थशास्त्री, न्यायविद्, बहु-भाषाविद्, धर्म दर्शन के विद्वान और एक समाज सुधारक थे, जिन्होंने भारत में अस्पृश्यता और सामाजिक असमानता के उन्मूलन के लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया।
उनका जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश में हिंदू महार जाति (Hindu Mahar Caste) में हुआ था। उन्हें समाज में हर तरफ से भारी भेदभाव का सामना करना पड़ा क्योंकि महार जाति को उच्च वर्ग द्वारा "अछूत" के रूप में देखा जाता था।
भारतीय संविधान के मुख्य निर्माता
बाबासाहेब अंबेडकर की कानूनी विशेषज्ञता और विभिन्न देशों के संविधान का ज्ञान संविधान के निर्माण में बहुत मददगार साबित हुआ। वह संविधान सभा की मसौदा समिति के अध्यक्ष बने और उन्होंने भारतीय संविधान को तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इसके अलावा उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान मौलिक अधिकारों, मज़बूत केंद्र सरकार और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के क्षेत्र में था।
अनुच्छेद 32 का उद्देश्य मूल अधिकारों के संरक्षण हेतु गारंटी, प्रभावी, सुलभ और संक्षेप उपचारों की व्यवस्था से है। डॉ. अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद बताते हुए कहा था कि इसके बिना संविधान अर्थहीन है, यह संविधान की आत्मा और हृदय है।
उन्होंने एक मज़बूत केंद्र सरकार का समर्थन किया। उन्हें डर था कि स्थानीय और प्रांतीय स्तर पर जातिवाद अधिक शक्तिशाली है तथा इस स्तर पर सरकार उच्च जाति के दबाव में निम्न जाति के हितों की रक्षा नहीं कर सकती है। क्योंकि राष्ट्रीय सरकार इन दबावों से कम प्रभावित होती है, इसलिये वह निचली जाति का संरक्षण सुनिश्चित करेगी।
उन्हें यह भी डर था कि अल्पसंख्यक जो कि राष्ट्र का सबसे कमज़ोर समूह है, राजनीतिक अल्पसंख्यकों में परिवर्तित हो सकता है। इसलिये 'वन मैन वन वोट' का लोकतांत्रिक शासन पर्याप्त नहीं है और अल्पसंख्यक को सत्ता में हिस्सेदारी की गारंटी दी जानी चाहिये। वह 'मेजरिटेरियनिज़्म सिंड्रोम' (Majoritarianism Syndrome) के खिलाफ थे और उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिये संविधान में कई सुरक्षा उपाय सुनिश्चित किये।
भारतीय संविधान विश्व का सबसे अधिक व्यापक और विशाल संविधान है क्योंकि इसमें विभिन्न प्रशासनिक विवरणों को शामिल किया गया है। बाबासाहेब ने इसका बचाव करते हुए कहा कि हमने पारंपरिक समाज में एक लोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना बनाई है। यदि सभी विवरण शामिल नहीं होंगे तो भविष्य में नेता तकनीकी रूप से संविधान का दुरुपयोग कर सकते हैं। इसलिये ऐसे सुरक्षा उपाय आवश्यक हैं। इससे पता चलता है कि वह जानते थे कि संविधान लागू होने के बाद भारत को किन व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।
संवैधानिक नैतिकता
बाबासाहेब अंबेडकर के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक नैतिकता का अर्थ विभिन्न लोगों के परस्पर विरोधी हितों और प्रशासनिक सहयोग के बीच प्रभावी समन्वय होगा।
उनके अनुसार, भारत को जहाँ समाज में जाति, धर्म, भाषा और अन्य कारकों के आधार पर विभाजित किया गया है, एक सामान्य नैतिक विस्तार की आवश्यकता है तथा संविधान उस विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
लोकतंत्र
उन्हें लोकतंत्र पर पूरा भरोसा था। उनका मानना था कि जो तानाशाही त्वरित परिणाम दे सकती है वह सरकार का मान्य रूप नहीं हो सकती है। लोकतंत्र श्रेष्ठ है क्योंकि यह स्वतंत्रता में अभिवृद्धि करता है। उन्होंने लोकतंत्र के संसदीय स्वरूप का समर्थन किया, जो कि अन्य देशों के मार्गदर्शकों के साथ संरेखित होता है।
उन्होंने 'लोकतंत्र को जीवन पद्धति’ के रूप में महत्त्व दिया, अर्थात् लोकतंत्र का महत्त्व केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में भी है।
इसके लिये लोकतंत्र को समाज की सामाजिक परिस्थितियों में व्यापक बदलाव लाना होगा, अन्यथा राजनीतिक लोकतंत्र यानी 'एक आदमी, एक वोट' की विचारधारा गायब हो जाएगी। केवल एक लोकतांत्रिक समाज में ही लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना से उत्पन्न हो सकती है, इसलिये जब तक भारतीय समाज में जाति की बाधाएँ मौजूद रहेंगी, वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो सकती। इसलिये उन्होंने लोकतंत्र और सामाजिक लोकतंत्र सुनिश्चित करने के लिये लोकतंत्र के आधार के रूप में बंधुत्व और समानता की भावना पर ध्यान केंद्रित किया।
सामाजिक आयाम के साथ-साथ अंबेडकर ने आर्थिक आयाम पर भी ध्यान केंद्रित किया। वे उदारवाद और संसदीय लोकतंत्र से प्रभावित थे तथा उन्होंने इसे भी सीमित पाया। उनके अनुसार, संसदीय लोकतंत्र ने सामाजिक और आर्थिक असमानता को नज़रअंदाज किया। यह केवल स्वतंत्रता पर केंद्रित होती है, जबकि लोकतंत्र में स्वतंत्रता और समानता दोनों की व्यवस्था सुनिश्चित करना ज़रुरी है।
समाज सुधार
बाबा साहेब ने अपना जीवन समाज से छूआछूत व अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिये समर्पित कर दिया था। उनका मानना था कि अस्पृश्यता को हटाए बिना राष्ट्र की प्रगति नहीं हो सकती है, जिसका अर्थ है समग्रता में जाति व्यवस्था का उन्मूलन। उन्होंने हिंदू दार्शनिक परंपराओं का अध्ययन किया और उनका महत्त्वपूर्ण मूल्यांकन किया।
उनके लिये अस्पृश्यता पूरे हिंदू समाज की गुलामी (Slavery) है जबकि अछूतों को हिंदू जातियों द्वारा गुलाम बनाया जाता है, हिंदू जाति स्वयं धार्मिक मूर्तियों की गुलामी में रहते हैं। इसलिये अछूतों की मुक्ति पूरे हिंदू समाज को मुक्ति की ओर ले जाती है।
सामाजिक सुधार की प्राथमिकता:
उनका मानना था कि सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने के बाद ही आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों को हल किया जाना चाहिये।
यह विचार कि आर्थिक प्रगति सामाजिक न्याय को जन्म देगी, यह जातिवाद के रूप में हिंदुओं की मानसिक गुलामी की अभिव्यक्ति है। इसलिये सामाजिक सुधार के लिये जातिवाद को समाप्त करना आवश्यक है।
सामाजिक सुधारों में परिवार सुधार और धार्मिक सुधार को शामिल किया गया। पारिवारिक सुधारों में बाल विवाह जैसी प्रथाओं को हटाना शामिल था। यह महिलाओं के सशक्तीकरण का पुरज़ोर समर्थन करता है। यह महिलाओं के लिये संपत्ति के अधिकारों का समर्थन करता है जिसे उन्होंने हिंदू कोड बिल के माध्यम से हल किया था।
जाति:
जाति व्यवस्था ने हिंदू समाज को स्थिर बना दिया है जो बाहरी लोगों के साथ एकीकरण में बाधा पैदा करता है। जाति व्यवस्था निम्न जातियों की समृद्धि के मार्ग में बाधक है जिसके कारण नैतिक पतन हुआ। इस प्रकार अस्पृश्यता को समाप्त करने की लड़ाई मानव अधिकारों और न्याय के लिये लड़ाई बन जाती है।
तथ्य पत्र
वर्ष 1923 में उन्होंने 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा (आउटकास्ट्स वेलफेयर एसोसिएशन)’ की स्थापना की, जो दलितों के बीच शिक्षा और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिये समर्पित थी।
वर्ष 1930 के कालाराम मंदिर आंदोलन में अंबेडकर ने कालाराम मंदिर के बाहर विरोध प्रदर्शन किया, क्योंकि दलितों को इस मंदिर परिसर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था। इसने भारत में दलित आंदोलन को शुरू करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
डॉ. अंबेडकर ने हर बार लंदन में तीनों गोलमेज़ सम्मेलनों (1930-32) में भाग लिया और सशक्त रूप से 'अछूत' के हित में अपने विचार व्यक्त किये।
वर्ष 1932 में उन्होंने महात्मा गांधी के साथ पूना समझौते (Poona Pact) पर हस्ताक्षर किये, जिसके परिणामस्वरूप वंचित वर्गों के लिये अलग निर्वाचक मंडल (सांप्रदायिक पंचाट) के विचार को त्याग दिया गया। हालाँकि दलित वर्गों के लिये आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 147 तथा केंद्रीय विधानमंडल में कुल सीटों का 18% कर दी गई।
वर्ष 1936 में बाबासाहेब अंबेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी (Independent Labour Party) की स्थापना की।
वर्ष 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने बड़ी संख्या में नाज़ीवाद को हराने के लिये भारतीयों को सेना में शामिल होने का आह्वान किया।
14 अक्तूबर, 1956 को उन्होंने अपने कई अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया। उसी वर्ष उन्होंने अपना अंतिम लेखन कार्य 'बुद्ध एंड हिज़ धर्म' (Buddha and His Dharma) पूरा किया।
वर्ष 1990 में डॉ. बी. आर. अंबेडकर को भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
14 अप्रैल, 1990 से 14 अप्रैल, 1991 की अवधि को बाबासाहेब की याद में 'सामाजिक न्याय के वर्ष' के रूप में मनाया गया।
भारत सरकार द्वारा डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय (Ministry of Social Justice and Empowerment) के तत्त्वावधान में 24 मार्च, 1992 को सोसायटी पंजीकरण अधिनियम (Societies Registration Act), 1860 के तहत एक पंजीकृत सोसायटी के रूप में स्थापित किया गया था।
फाउंडेशन का मुख्य उद्देश्य बाबासाहेब डॉ. बी.आर. अंबेडकर की विचारधारा और संदेश को भारत के साथ-साथ विदेशों में भी जनता तक पहुँचाने के लिये कार्यक्रमों और गतिविधियों के कार्यान्वयन की देखरेख करना है।
डॉ. अंबेडकर की कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियाँ: समाचार पत्र मूकनायक (1920), एनिहिलेशन ऑफ कास्ट (1936), द अनटचेबल्स (1948), बुद्ध ऑर कार्ल मार्क्स (1956) इत्यादि।
अस्पृश्यता को दूर करने के लिये अपनाए गए तरीके
उनके मन को प्रभावित करने वाले मलिनता संबंधी मिथक को हटाकर अछूतों में आत्मसम्मान पैदा करना।
शिक्षा:
बाबासाहेब के लिये ज्ञान मुक्ति का एक मार्ग है। अछूतों के पतन का एक कारण यह था कि उन्हें शिक्षा के लाभों से वंचित रखा गया था। उन्होंने निचली जातियों की शिक्षा के लिये पर्याप्त प्रयास नहीं करने के लिये अंग्रेज़ों की आलोचना की। उन्होंने छात्रों के बीच स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को स्थापित करने के लिये धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर जोर दिया।
आर्थिक प्रगति:
वह चाहते थे कि अछूत लोग ग्रामीण समुदाय और पारंपरिक नौकरियों के बंधन से मुक्त हों। वह चाहते थे कि अछूत लोग नए कौशल प्राप्त करें और एक नया व्यवसाय शुरू करें तथा औद्योगीकरण का लाभ उठाने के लिये शहरों की ओर रुख करें। उन्होंने गाँवों को 'स्थानीयता का एक सिंक, अज्ञानता, संकीर्णता और सांप्रदायिकता का एक खंड' के रूप में वर्णित किया।
राजनीतिक ताकत:
वह चाहते थे कि अछूत खुद को राजनीतिक रूप से संगठित करें। राजनीतिक शक्ति के साथ अछूत अपनी रक्षा, सुरक्षा और मुक्ति संबंधी नीतियों को पेश करने में सक्षम होंगे।
रूपांतरण:
जब उन्होंने महसूस किया कि हिंदू धर्म अपने तौर-तरीकों को सुधारने में सक्षम नहीं है, तो उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया और अपने अनुयायियों को भी बौद्ध धर्म अपनाने को कहा। उनके लिये बौद्ध धर्म मानवतावाद पर आधारित था और समानता एवं बंधुत्व की भावना में विश्वास करता था।
"मैं अपने जन्म के धर्म को अस्वीकार करते हुए पुनर्जन्म लेता हूँ। मैं उस धर्म का त्याग करता हूँ जो मानवता के विकास के लिए रुकावट पैदा करता है और जो मुझे एक नीच के रूप में मानता है।”
इसलिये सामाजिक स्तर पर शिक्षा, भौतिक स्तर पर आजीविका के नए साधन, राजनीतिक स्तर पर राजनीतिक संगठन और आध्यात्मिक स्तर पर आत्म-विश्वास और रुपांतरण ने अस्पृश्यता को समाप्त करने का एक समग्र कार्यक्रम तैयार किया।
वर्तमान समय में अंबेडकर की प्रासंगिकता
भारत में जाति आधारित असमानता अभी भी कायम है, जबकि दलितों ने आरक्षण के माध्यम से एक राजनीतिक पहचान हासिल कर ली है और अपने स्वयं के राजनीतिक दलों का गठन किया है, किंतु सामाजिक आयामों (स्वास्थ्य और शिक्षा) तथा आर्थिक आयामों का अभी भी अभाव है।
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और राजनीति के सांप्रदायिकरण का उदय हुआ है। यह आवश्यक है कि संवैधानिक नैतिकता की अंबेडकर की दृष्टि को भारतीय संविधान में स्थायी क्षति से बचाने के लिये धार्मिक नैतिकता का समर्थन किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
इतिहासकार आर.सी. गुहा के अनुसार, डॉ. बी.आर. अंबेडकर अधिकांश विपरीत परिस्थितियों में भी सफलता का अनूठा उदाहरण हैं। आज भारत जातिवाद, सांप्रदायिकता, अलगाववाद, लैंगिग असमानता आदि जैसी कई सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है। हमें अपने भीतर अंबेडकर की भावना को खोजने की ज़रूरत है, ताकि हम इन चुनौतियों से खुद को बाहर निकाल सकें।