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भारतीय समाज

धर्मनिरपेक्षता (Secularism)

  • 19 Feb 2020
  • 10 min read

धर्मनिरपेक्षता एक जटिल तथा गत्यात्मक अवधारणा है। इस अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम यूरोप में किया गया।यह एक ऐसी विचारधारा है जिसमें धर्म और धर्म से संबंधित विचारों को इहलोक संबंधित मामलों से जान बूझकर दूर रखा जाता है अर्थात् तटस्थ रखा जाता है। धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा किसी विशेष धर्म को संरक्षण प्रदान करने से रोकती है।

भारत में इसका प्रयोग आज़ादी के बाद अनेक संदर्भो में देखा गया तथा समय-समय पर विभिन्न परिप्रेक्ष्य में इसकी व्याख्या की गई है।

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ:

  • धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य राजनीति या किसी गैर-धार्मिक मामले से धर्म को दूर रखे तथा सरकार धर्म के आधार पर किसी से भी कोई भेदभाव न करे।
  • धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आज़ादी से मानने की छूट देता है।
  • धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान होता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता है।
  • धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में धर्म, व्यक्ति का नितांत निजी मामला है, जिसमे राज्य तब तक हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि विभिन्न धर्मों की मूल धारणाओं में आपस में टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो।

धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में संवैधानिक दृष्टिकोण:

  • भारतीय परिप्रेक्ष्य में संविधान के निर्माण के समय से ही इसमें धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा निहित थी जो सविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद-25 से 28) से स्पष्ट होती है।
  • भारतीय संविधान में पुन: धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करते हुए 42 वें सविधान संशोधन अधिनयम, 1976 द्वारा इसकी प्रस्तावना में ‘पंथ निरपेक्षता’ शब्द को जोड़ा गया।
  • यहाँ पंथनिरपेक्ष का अर्थ है कि भारत सरकार धर्म के मामले में तटस्थ रहेगी। उसका अपना कोई धार्मिक पंथ नही होगा तथा देश में सभी नागरिकों को अपनी इच्छा के अनुसार धार्मिक उपासना का अधिकार होगा। भारत सरकार न तो किसी धार्मिक पंथ का पक्ष लेगी और न ही किसी धार्मिक पंथ का विरोध करेगी।
  • पंथनिरपेक्ष राज्य धर्म के आधार पर किसी नागरिक से भेदभाव न कर प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता है।
  • भारत का संविधान किसी धर्म विशेष से जुड़ा हुआ नहीं है।

धर्मनिरपेक्षता का सकारात्मक पक्ष:

  • धर्मनिरपेक्षता की भावना एक उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है जो ‘सर्वधर्म समभाव’ की भावना से परिचालित है।
  • धर्मनिरपेक्षता सभी को एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य करती है।
  • इसमें किसी भी समुदाय का अन्य समुदायों पर वर्चस्व स्थापित नहीं होता है।
  • यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करती है तथा धर्म को राजनीति से पृथक करने का कार्य करती है।
  • धर्मनिरपेक्षता का लक्ष्य नैतिकता तथा मानव कल्याण को बढ़ावा देना है जो सभी धर्मों का मूल उद्देश्य भी है।

धर्मनिरपेक्षता का नकारात्मक पक्ष:

  • भारतीय परिप्रेक्ष्य में धर्मनिरपेक्षता को लेकर आरोप लगाया जाता है कि यह पश्चिम से आयातित है।अर्थात् इसकी जड़े/ उत्पत्ति ईसाइयत में खोजी जाती हैं।
  • धर्मनिरपेक्षता पर धर्म विरोधी होने का आक्षेप भी लगाया जाता है जो लोगों की धार्मिक पहचान के लिये खतरा उत्पन्न करती है।
  • भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता पर आरोप लगाया जाता है कि राज्य बहुसंख्यकों से प्रभावित होकर अल्पसंख्यकों के मामले में हस्तक्षेप करता है जो अल्पसंख्यकोंं के मन में यह शंका उत्पन्न करता है कि राज्य तुष्टीकरण की नीति को बढ़ावा देता है। ऐसी प्रवृत्तियाँ ही किसी समुदाय में साप्रदायिकता को बढ़ावा देती हैं।
  • धर्मनिरपेक्षता को कभी-कभी अति उत्पीड़नकारी रूप में भी देखा जाता है जो समुदायों/व्यक्तियों की धार्मिक स्वतंत्रता में अत्यधिक हस्तक्षेप करती है।
  • यह वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है।

भारतीय धर्मनिरपेक्षता तथा पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता के बीच अंतर:

भारतीय धर्मनिरपेक्षता तथा पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता के बीच अंतर को निम्नलिखित बिंदुओं से स्पष्ट किया जा सकता है-

  • पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता जहाँ धर्म एवं राज्य के बीच पूर्णत: संबंध विच्छेद पर आधारित है, वहीं भारतीय संदर्भ में यह अंतर-धार्मिक समानता पर आधारित है।
  • पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता का पूर्णत: नकारात्मक एवं अलगाववादी स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, वहीं भारत में यह समग्र रूप से सभी धर्मों का सम्मान करने की संवैधानिक मान्यता पर आधारित है।

धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौतियाँ:

भारत में हमेशा से धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा सार्वजानिक वाद-विवाद और परिचर्चाओं में मौजूद रहा है। एक तरफ जहाँ हर राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्ष होने की घोषणा करता है वही धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में कुछ पेचीदा मामले हमेशा चर्चाओं में बने रहते हैं जो समय-समय पर अनेक प्रकार की चिंताओं के साथ धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौतियाँ उत्पन्न करते रहे जैसे-

  • वर्ष 1984 के दंगों में दिल्ली तथा देश के अन्य हिस्सों में लगभग 2700 से अधिक लोगों का मारा जाना।
  • वर्ष 1990 में हजारों कश्मीरी पंडितों को घाटी से अपना घर छोड़ने के लिये विवश करना।
  • वर्ष 1992-1993 के मुम्बई दंगे।
  • वर्ष 2003 में गुजरात के दंगे जिसमे मुस्लिम समुदाय के लगभग 1000 से अधिक लोग मारे गए।
  • गौहत्या रोकने की आड़ में धार्मिक और नस्लीय हमले।
  • नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) तथा नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न बिल (NRC) के खिलाफ देश भर में उत्पन्न विरोध एवं हिंसा इत्यादि।

उपरोक्त सभी उदाहरणों में किसी-न-किसी रूप में नागरिकों के एक समूह को बुनियादी ज़रूरतों से दूर रखा गया। परिणामस्वरूप भारत में धर्मनिरपेक्षता समय-समय पर धार्मिक कट्टरवाद, उग्रराष्ट्रवाद तथा तुष्टीकरण की नीति के कारण शंकाओं एवं विवादों में घिरी रहती है।

समाधान:

  • चूँकि धर्मनिरपेक्षता सविधान के मूल ढाँचे का अभिन्न अंग है अत:सरकारों को चाहिये कि वे इसका संरक्षण सुनिश्चित करें।
  • एस.आर.बोम्मई बनाम भारत गणराज्य मामलें में वर्ष 1994 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय दिया गया कि अगर धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया गया तो सत्ताधारी दल का धर्म ही देश का धर्म बन जाएगा। अत: राजनीतिक दलों को सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय पर अमल करने की आवश्यकता है।
  • यूनिफार्म सिविल कोड यानी एक समान नागरिक सहिता जो धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करती है, को मज़बूती से लागू करने की आवश्यकता है।
  • किसी भी धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत मामला है। अत: जनप्रतिनिधियों को चाहिये कि वे इसका प्रयोग वोट बैंक के रूप में करने से बचें।

निष्कर्ष:

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भारतीय राज्य का धर्मनिरपेक्ष चरित्र वस्तुतः इसी वजह से बरकरार है कि वह किसी धर्म को राजधर्म के रूप में मान्यता प्रदान नहीं करता है। इस धार्मिक समानता को हासिल करने के लिये राज्य द्वारा अत्यंत परिष्कृत नीति अपनाई है। अपनी इसी नीति के चलते वह स्वयं को पश्चिम से अलग भी कर सकता है तथा जरूरत पड़ने पर उसके साथ संबंध भी स्थापित कर सकता है।

भारतीय राज्यों द्वारा समय -समय पर धार्मिक अत्याचार का विरोध करने तथा राज्य के हित में धर्मनिरपेक्षता के महत्त्व को समझाने के लिये धर्म के साथ निषेधात्मक संबंध भी स्थापित किया गया हैं। यह दृष्टिकोण अस्पृश्यता पर प्रतिबंध, तीन तलाक, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश जैसी कार्रवाइयों में स्पष्ट रूप से झलकता है।

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