भारतीय अर्थव्यवस्था
भारत में सहकारी आंदोलन
- 28 Jul 2021
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भारत में सहकारिता
परिभाषा:
- अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता गठबंधन (International Cooperative Alliance- ICA), सहकारिता (Cooperative) को "संयुक्त स्वामित्व वाले और लोकतांत्रिक रूप से नियंत्रित उद्यम के माध्यम से अपनी आम आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक जरूरतों एवं आकांक्षाओं को पूरा करने के लिये स्वेच्छा से एकजुट व्यक्तियों के स्वायत्त संघ" के रूप में परिभाषित करता है।
संवैधानिक प्रावधान:
- संविधान (97वाँ संशोधन) अधिनियम, 2011 द्वारा भारत में काम कर रही सहकारी समितियों के संबंध में भाग IXA (नगरपालिका) के ठीक बाद एक नया भाग IXB जोड़ा गया।
- संविधान के भाग III के अंतर्गत अनुच्छेद 19(1)(c) में "संघ और संगठन" के बाद "सहकारिता" शब्द जोड़ा गया था।
- यह सहकारी समितियाँ बनाने के अधिकार को मौलिक अधिकार (Fundamental Right) का दर्जा प्रदान करता है।
- राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों (Directive Principles of State Policy- भाग IV) में "सहकारी समितियों के प्रचार" के संबंध में एक नया अनुच्छेद 43B जोड़ा गया था।
- संविधान के भाग III के अंतर्गत अनुच्छेद 19(1)(c) में "संघ और संगठन" के बाद "सहकारिता" शब्द जोड़ा गया था।
भारत में सहकारी आंदोलन की उत्पत्ति:
- आंदोलन का कारण: भारत में सहकारी आंदोलन का जन्म 19वीं शताब्दी की अंतिम तिमाही में व्याप्त संकट और उथल-पुथल से हुआ था।
- औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) ने ग्रामोद्योगों को खत्म कर दिया जिससे लोग कृषि करने के लिये मजबूर हुए और यह रोज़गार एवं आजीविका का एकमात्र साधन थी।
- परिणामी उप-विभाजन और जोतों के विखंडन ने कृषि को गैर-लाभकारी बना दिया था।
- अन्य कारक जैसे- भू-राजस्व संग्रह की कठोरता, वर्षा की अनिश्चितता, कम फसल उत्पादन आदि ने किसानों को साहूकारों के पास जाने के लिये मजबूर किया।
- साहूकारों ने या तो फसल को औने-पौने दाम पर खरीदकर या बहुत अधिक ब्याज दर वसूल कर पैसे उधार दिये।
- इन सभी कारकों ने एक वैकल्पिक माध्यम से सस्ते ऋण के प्रावधान की आवश्यकता पर बल दिया।
- भारत में अनौपचारिक सहकारिता: भारत के कई हिस्सों में कानून पारित होने से औपचारिक सहकारी ढाँचे के अस्तित्व में आने के परिणामस्वरूप पहले भी सहयोग और सहकारी गतिविधियों की अवधारणा प्रचलित थी।
- उनमें से कुछ को देवराय या वानराय, चिट फंड, कुरी, भिशी, फड़ आदि नामों से जाना जाता था।
- मद्रास प्रेसीडेंसी में 'निधि' या पारस्परिक-ऋण संघों को संगठित किया गया था।
- पंजाब में सह-साझेदारों के लाभ के लिये गाँव की सामान्य भूमि को नियंत्रित करने हेतु वर्ष 1891 में सहकारी तर्ज पर एक सोसायटी शुरू की गई थी।
- ये सभी प्रयास विशुद्ध रूप से स्वैच्छिक और गैर-सरकारी थे।
- इस दिशा में पहला आधिकारिक कदम तब उठाया गया जब सर विलियम वेडरबर्न (Sir William Wedderburn) ने दक्कन के विद्रोह के बाद ग्रामीण ऋणग्रस्तता के विरुद्ध उपाय के रूप में कृषि बैंकों की स्थापना का प्रस्ताव दिया।
- उनमें से कुछ को देवराय या वानराय, चिट फंड, कुरी, भिशी, फड़ आदि नामों से जाना जाता था।
स्वतंत्रता पूर्व के सहकारी आंदोलन
सहकारी आंदोलन का प्रारंभिक चरण (1904-11)
भारत में पहला सहकारी अधिनियम:
- भारतीय अकाल आयोग (वर्ष 1901) ने सरकार को भारत में सहकारी समितियों की शुरुआत को लेकर रिपोर्ट करने हेतु सर एडवर्ड लॉ (Sir Edward Law) की अध्यक्षता में एक समिति गठित करने के लिये प्रेरित किया।
- वर्ष 1903 में समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तथा वर्ष 1904 में पहला सहकारी ऋण समिति अधिनियम (Cooperative Credit Societies Act) पारित किया गया।
- अधिनियम की मुख्य विशेषताएंँ:
- एक ही गाँव या कस्बे में रहने वाले या एक ही वर्ग या जनजाति से संबंधित कोई भी दस व्यक्ति सहकारी ऋण समिति का निर्माण कर सकते हैं।
- कुल सदस्यता (80%) के बहुमत के आधार पर समाजों को ग्रामीण और शहरी या कृषक या गैर-कृषक के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
- ग्रामीण समाज को लाभ वितरित करने की अनुमति नहीं थी, लेकिन शहरी समाजों के मामले में शुद्ध लाभ का 25% आरक्षित निधि में दिये जाने के बाद लाभ वितरित किया जा सकता था।
- अधिनियम की कमियांँ:
- इस अधिनियम ने गैर-ऋण समितियों को कोई कानूनी सुरक्षा प्रदान नहीं की।
- इसने कृषि कार्यों के वित्तपोषण हेतु शहरी बचत जुटाने का भी कोई प्रावधान नहीं किया था।
- शहरी और ग्रामीण में समाजों का वर्गीकरण मनमाना, अवैज्ञानिक और अत्यधिक असुविधाजनक पाया गया।
- 1904 के अधिनियम के कई प्रावधान आंदोलन के आगे प्रसार में बाधक बने।
सहकारी आंदोलन का संशोधन चरण (वर्ष 1912-1918)
वर्ष 1912 का सहकारी समिति अधिनियम:
- इस चरण में सहकारी समिति अधिनियम, 1912 अधिनियमित कर वर्ष 1904 अधिनियम के दोषों को दूर किया गया।
- मुख्य विशेषताएंँ:
- किसी भी समाज, ऋणदाता या किसी अन्य को पंजीकृत किया जा सकता है, जिसका उद्देश्य अपने सदस्यों के आर्थिक हितों को बढ़ावा देना हो।
- सेंट्रल बैंक या यूनियन जैसे एक संघीय समाज को पंजीकृत किया जा सकता है।
- ऐसे समाज में किसी भी सदस्य के पास कुल शेयर पूंजी के 1/5 भाग से अधिक या 1,000 रुपए से अधिक के शेयर नहीं हो सकते हैं।
- समितियों को अनिवार्य पंजीकरण और आयकर एवं स्टाम्प शुल्क के भुगतान से छूट दी गई थी।
मैक्लेगन समिति:
- वर्ष 1915 में सर एडवर्ड मैक्लेगन की अध्यक्षता में एक समिति को इस बात का अध्ययन और रिपोर्ट करने के लिये नियुक्त किया गया था कि क्या सहकारी आंदोलन सामाजिक और आर्थिक रूप से मज़बूत आगे बढ़ रहा था या नहीं।
- समिति ने पाया कि निरक्षरता और जनता में अज्ञानता, धन का दुरुपयोग, बड़े पैमाने पर भाई-भतीजावाद तथा ऋण देने में अत्यधिक देरी सहकारी आंदोलन के कुछ स्पष्ट दोष थे।
- समिति द्वारा दिये गए सुझाव:
- सभी सदस्यों को सहकारी सिद्धांतों से अवगत कराया जाना चाहिये।
- ऋण लेने की मुख्य कसौटी ईमानदारी होनी चाहिये।
- समिति की गतिविधियाँ केवल सदस्यों तक ही सीमित होनी चाहिये।
- अग्रिम ऋण देने से पहले आवेदनों की सावधानीपूर्वक जांँच की जानी चाहिये और ऋणों के प्रभावी उपयोग हेतु सावधानीपूर्वक अनुवर्ती कार्रवाई की जानी चाहिये।
- एक सदस्य को केवल एक ही वोट का सख्ती से पालन करना चाहिये।
- इन सिफारिशों को निम्नलिखित कारणों से व्यवहार में नहीं लाया जा सका:
सहकारी आंदोलन का विस्तार चरण (1919-29)
- मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार:
- वर्ष 1919 के मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के माध्यम से सहकारिता एक प्रांतीय विषय बन गई जिसने आंदोलन को और गति दी।
- सहकारी आंदोलन को सफल बनाने के लिये विभिन्न राज्यों ने अपने-अपने अधिनियम पारित किये।
- इस अवधि के दौरान सहकारी समितियों की सदस्यता में काफी वृद्धि हुई।
- आर्थिक मंदी: वर्ष 1929 में महान आर्थिक मंदी देखी गई।
- कृषि जिंसों की कीमतों में उल्लेखनीय गिरावट आई।
- अन्य आर्थिक संकटों के साथ बेरोज़गारी बढ़ी।
- कृषक, समितियों का ऋण नहीं चुका सकते थे।
- अधिक बकाया राशि अप्रत्याशित रूप से बढ़ी और सहकारी समितियों की स्थिति खराब हो गई।
सहकारी समितियों के पुनर्गठन का चरण (1930-1946)
समितियों का गठन:
- सहकारी समितियों के पुनर्गठन की संभावनाओं की जाँच के लिये मद्रास, बॉम्बे, त्रावणकोर, मैसूर, ग्वालियर और पंजाब में विभिन्न समितियों का गठन किया गया ।
- वर्ष 1937 में कॉन्ग्रेस मंत्रालय कई राज्यों में सत्ता में आया और इसने सहकारिता आंदोलन के प्रसार में रुचि को पुनर्जीवित किया।
द्वितीय विश्व युद्ध की भूमिका:
- द्वितीय विश्व युद्ध द्वारा निर्मित असामान्य परिस्थितियों ने सहकारी आंदोलन में दूरगामी विकास किया।
- कृषि वस्तुओं की कीमतें बढ़ने लगीं, ग्रामीण किसानों को अतिरिक्त आर्थिक लाभ हुआ और गैर-ऋण समितियों जैसे- विपणन, उत्पादन और उपभोक्ता समाजों में तेज़ी से वृद्धि हुई।
- वर्ष 1945 में अखिल भारतीय सहकारी योजना समिति ने भी सहकारी आंदोलन के विकास को गति दी।
सहकारी समितियों के संबंध में गांधीवादी समाजवादी दर्शन:
- समाजवादी समाज के निर्माण में सहयोग: गांधीजी के अनुसार, समाजवादी समाज के निर्माण और सत्ता के पूर्ण विकेंद्रीकरण के लिये सहयोग आवश्यक था।
- उनका मत था कि सहयोग लोगों को सशक्त बनाने के महत्त्वपूर्ण साधनों में से एक है।
- फीनिक्स आश्रम: महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में 'फीनिक्स आश्रम' की स्थापना एक समाजवादी पद्धति में सहकारी संस्था के रूप में की थी।
- इसका उद्देश्य प्रत्येक सदस्य को दी गई तीन एकड़ भूमि पर खेती करना और अनुपस्थित भूस्वामियों के एक नए वर्ग के उद्भव को रोकना था।
- टॉल्स्टॉय फार्म: उन्होंने इस अवधि के दौरान दक्षिण अफ्रीकी स्वतंत्रता संग्राम से प्रभावित परिवारों के लिये पुनर्वास सहकारी बस्ती के रूप में टॉल्स्टॉय फार्म की स्थापना की।
- टॉल्स्टॉय के समाजवादी दर्शन में उनका पूरा विश्वास था।
- किसानों हेतु सहकारिता: दक्षिण अफ्रीका से लौटने पर गांधीजी ने भारत के ग्रामीण इलाकों का दौरा किया और अतिरिक्त कराधान, अवैध वसूली आदि से पीड़ित भारतीय किसानों का दिवालियापन और संकट को महसूस किया।
- उन्होंने देखा कि किसानों के बीच सहयोग की अत्यधिक आवश्यकता है।
- कृषि उत्पाद जैसे- कपास, चीनी, तिलहन, गेहूँ आदि पर आधारित कोई भी उद्योग सहकारी आधार पर होना चाहिये ताकि उत्पादक अपने उत्पादन का सर्वोत्तम मूल्य प्राप्त कर सकें।
स्वतंत्रता के पश्चात् सहकारी आंदोलन
मिश्रित अर्थव्यवस्था का भाग:
- स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना के लिये नियोजित आर्थिक विकास के दृष्टिकोण को अपनाया, जिसमें तीन क्षेत्र शामिल थे, अर्थात् सार्वजनिक, निजी और सहकारी क्षेत्र।
- सहकारी समितियों को सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच संतुलन कारक की भूमिका निभाने की कल्पना की गई थी।
FYPs का भाग:
- स्वतंत्रता के बाद सहकारिता पंचवर्षीय योजनाओं (FYPs) का एक अभिन्न अंग बन गई।
- पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सहकारिता को लोकतंत्र के तीन स्तंभों में से एक माना, अन्य दो पंचायत और स्कूल थे।
सहकारिता की राष्ट्रीय नीति:
- 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद (NDC) ने सहकारी समितियों तथा कर्मियों के प्रशिक्षण और सहकारी विपणन समितियों की स्थापना के लिये एक राष्ट्रीय नीति की सिफारिश की थी।
- भारत सरकार ने 2002 में सहकारिता पर एक राष्ट्रीय नीति की घोषणा की।
एनसीडीसी की स्थापना:
- राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एनसीडीसी) को एक सांविधिक निगम के रूप में राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम अधिनियम, 1962 के तहत स्थापित किया गया था।
सहकारिता के लिये गठित समितियाँ:
- 1954 में ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति ने सभी स्तरों पर सहकारी समितियों में राज्य की भागीदारी की सिफारिश की।
- एस.टी. राजा समिति को भारत सरकार द्वारा सहकारी कानून में संशोधन का सुझाव देने के लिये नियुक्त किया गया था।
- समिति ने सहायता प्राप्त सहकारी समितियों के प्रबंधन पर राज्य की भागीदारी तथा सरकार द्वारा नामित व्यक्तियों की नियुक्ति के लिये एक मॉडल अधिनियम तैयार किया।
- समिति ने सहायता प्राप्त सहकारी समितियों के प्रबंधन पर राज्य की भागीदारी तथा सरकार द्वारा नामित व्यक्तियों की नियुक्ति के लिये एक मॉडल अधिनियम तैयार किया।
भारत में सफल सहकारी समितियाँ:
- कृषि और संबद्ध क्षेत्र: राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (NCDC), भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (NAFED), भारतीय किसान उर्वरक सहकारी लिमिटेड (IFFCO), AMUL और सहकारी ग्रामीण विकास ट्रस्ट (CORDET)।
- बैंकिंग क्षेत्र: पंजाब और महाराष्ट्र सहकारी (पीएमसी) बैंक, भारत सहकारी बैंक तथा सारस्वत सहकारी बैंक।
सहकारी क्षेत्र के समक्ष मुद्दे:
- अत्यधिक सहकारी विधान: भारत में सहकारी समितियाँ विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करती हैं। सहकारिता भारत के संविधान और राज्य सहकारी कानूनों के तहत एक राज्य का विषय है तथा उनका कार्यान्वयन काफी भिन्न है।
- गैर-ज़िम्मेदारी और गैर-जवाबदेही: शासन व्यवस्था में अत्यधिक अपर्याप्तता, जिनमें बोर्ड की भूमिका और जिम्मेदारियाँ भी शामिल हैं।
- बोर्ड के लोगों को कई असुविधाओं के मामले में जवाबदेह नहीं ठहराया जाता है।
- मान्यता का अभाव: नीति निर्माताओं और जनता दोनों के बीच सहकारी समितियों को आर्थिक संस्थानों के रूप में मान्यता का सामान्य अभाव।
- सक्षम पेशेवरों को आकर्षित करने और बनाए रखने में असमर्थता।
- पूंजी निर्माण की कमी: पूंजी निर्माण के लिये प्रयासों की कमी विशेष रूप से सदस्य इक्विटी और सदस्य हिस्सेदारी बढ़ाने से संबंधित है।
- जागरूकता की कमी: लोगों को सहकारी संस्थाओं के आंदोलन, नियमों और विनियमों के उद्देश्यों के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं है।
निष्कर्ष
- सहकारी समितियों की सामूहिकता को बढ़ावा देने और देश के सामाजिक पूंजी आधार को संरक्षित करने में एक अग्रणी भूमिका है।
- सामूहिकता और लोकतंत्र की भावना को बनाए रखने के लिये सहकारिता सबसे अच्छा माध्यम है।
- सहकारी समितियों जैसे सामाजिक संगठनों के एक बड़े नेटवर्क की उपस्थिति, सामाजिक पूंजी के निर्माण और उपयोग में सहायक होगी तथा 'जितनी अधिक सामाजिक पूंजी होगी, विकास की संभावना उतनी ही अधिक होगी'।