विश्व इतिहास
प्रथम विश्व युद्ध
- 01 Jan 2021
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परिचय
- 28 जुलाई, 1914 से 11 नवंबर, 1918 तक चले प्रथम विश्व युद्ध (WW I) को ‘महान युद्ध’ के नाम से भी जाना जाता है।
- WW I मुख्य शक्तियों और मित्र देशों के मध्य लड़ा गया था।
- मित्र देशों में फ्राँस, रूस और ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली देश शामिल थे। वर्ष 1917 के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका भी (मित्र देशों की ओर से) युद्ध में शामिल हो गया था।
- केंद्रीय शक्तियों में शामिल प्रमुख देशों में जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, ऑटोमन साम्राज्य और बुल्गारिया आदि देश थे।
युद्ध के कारण
विश्व को WW I की ओर धकेलने वाले कारकों में कोई एक घटना या एक कारण प्रमुख नहीं था, बल्कि ऐसे बहुत से कारण थे जिनके सिलसिलेवार प्रकटन ने समस्त विश्व को इस भयानक त्रासदी को झेलने के लिये विवश कर दिया।
- जर्मनी की नई अंतर्राष्ट्रीय विस्तारवादी नीति: वर्ष 1890 में जर्मनी के नए सम्राट विल्हेम द्वितीय ने एक अंतर्राष्ट्रीय नीति शुरू की, जिसने जर्मनी को विश्व शक्ति के रूप में परिवर्तित करने के प्रयास किये। इसी का परिणाम रहा कि विश्व के अन्य देशों ने जर्मनी को एक उभरते हुए खतरे के रूप में देखा जिसके चलते अंतर्राष्ट्रीय स्थिति अस्थिर हो गई।
- परस्पर रक्षा सहयोग (Mutual Defense Alliances): संपूर्ण यूरोपियन राष्ट्रों ने आपसी सहयोग के लिये रक्षा समझौते और संधियाँ कर ली। इन संधियों का सीधा सा अर्थ था कि यदि यूरोप के किसी एक राष्ट्र पर शत्रु राष्ट्र की ओर से हमला होता है तो उक्त राष्ट्र की रक्षा हेतु सहयोगी राष्ट्रों को सहायता के लिये आगे आना होगा।
- त्रिपक्षीय संधि (Triple Alliance), वर्ष 1882 की यह संधि जर्मनी को ऑस्ट्रिया-हंगरी और इटली से जोड़ती है।
- त्रिपक्षीय सौहार्द (Triple Entente), यह ब्रिटेन, फ्राँस और रूस से संबद्ध था, जो वर्ष 1907 तक समाप्त हो गया।
- इस प्रकार यूरोप में दो प्रतिद्वंद्वी समूह बन गए।
चित्र: युद्ध की शुरुआत में बने सहयोगी समूह
- साम्राज्यवाद (Imperialism): प्रथम विश्व युद्ध से पहले अफ्रीका और एशिया के कुछ हिस्से कच्चे माल की उपलब्धता के कारण यूरोपीय देशों के बीच विवाद का विषय बने हुए थे। जब जर्मनी और इटली इस उपनिवेशवादी दौड़ में शामिल हुए तो उनके विस्तार के लिये बहुत कम संभावना बची। इसका परिणाम यह हुआ कि इन देशों ने उपनिवेशवादी विस्तार की एक नई नीति अपनाई। यह नीति थी दूसरे राष्ट्रों के उपनिवेशों पर बलपूर्वक अधिकार कर अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया जाए। बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा और अधिक साम्राज्यों की इच्छा के कारण यूरोपीय देशों के मध्य टकराव में वृद्धि हुई जिसने समस्त विश्व को प्रथम विश्व युद्ध में धकेलने में मदद की।
- इसी प्रकार मोरक्को तथा बोस्निया संकट ने भी इंग्लैंड एवं जर्मनी के बीच प्रतिस्पर्द्धा को और बढ़ावा दिया।
- अपने प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि करने के उद्देश्य से जर्मनी ने जब बर्लिन-बगदाद रेल मार्ग योजना बनाई तो इंग्लैंड के साथ-साथ फ्राँस और रूस ने इसका विरोध किया, जिसके चलते इनके बीच कटुता मेंऔर अधिक वृद्धि हुई।
- सैन्यवाद (Militarism): 20वीं सदी में प्रवेश करते ही विश्व में हथियारों की दौड़ शुरू हो गई थी। वर्ष 1914 तक जर्मनी में सैन्य निर्माण में सबसे अधिक वृद्धि हुई। ग्रेट ब्रिटेन और जर्मनी दोनों ने इस समयावधि में अपनी नौ-सेनाओं में काफी वृद्धि की। सैन्यवाद की दिशा में हुई इस वृद्धि ने युद्ध में शामिल देशों को और आगे बढ़ने में मदद की।
- वर्ष 1911 में आंग्ल जर्मन नाविक प्रतिस्पर्द्धा के परिणामस्वरूप 'अगादिर का संकट' उत्पन्न हो गया। हालाँकि इसे सुलझाने का प्रयास किया गया परंतु यह प्रयास सफल नहीं हो सका। वर्ष 1912 में जर्मनी में एक विशाल जहाज़ 'इम्प रेटर' का निर्माण किया गया जो उस समय का सबसे बड़ा जहाज़ था। इससे इंग्लैंड और जर्मनी के मध्य वैमनस्य एवं प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि हुई।
- राष्ट्रवाद (Nationalism): जर्मनी और इटली का एकीकरण भी राष्ट्रवाद के आधार पर ही किया गया था। बाल्कन क्षेत्र में राष्ट्रवाद की भावना अधिक प्रबल थी। चूँकि उस समय बाल्कन प्रदेश तुर्की साम्राज्य के अंतर्गत आता था, अतः जब तुर्की साम्राज्य कमज़ोर पड़ने लगा तो इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने स्वतंत्रता की मांग शुरू कर दी।
- बोस्निया और हर्जेगोविना में रहने वाले स्लाविक लोग ऑस्ट्रिया-हंगरी का हिस्सा नहीं बना रहना चाहते थे, बल्कि वे सर्बिया में शामिल होना चाहते थे और बहुत हद तक उनकी इसी इच्छा के परिणामस्वरूप प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हुई। इस तरह राष्ट्रवाद युद्ध का कारण बना।
- रूस का मानना था कि स्लाव यदि ऑस्ट्रिया-हंगरी एवं तुर्की से स्वतंत्र हो जाता है तो वह उसके प्रभाव में आ जाएगा, यही कारण रहा कि रूस ने अखिल स्लाव अथवा सर्वस्लाववाद आंदोलन को बल दिया। स्पष्ट है कि इससे रूस और ऑस्ट्रिया–हंगरी के मध्य संबंधों में कटुता आई।
- इसी तरह के और भी बहुत से उदाहरण रहे जिन्होंने राष्ट्रवाद की भावना को उग्र बनाते हुए संबंधों को तनावपूर्ण स्थिति में ला खड़ा किया। ऐसा ही एक उदाहरण है सर्वजर्मन आंदोलन।
- किसी प्रभावशाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था का अभाव
- प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व ऐसी कोई संस्था मौजूद नहीं थी जो साम्राज्यवाद, सैन्यवाद और उग्र राष्ट्रवाद पर नियंत्रण कर विभिन्न राष्ट्रों के बीच संबंधों को सहज बनाने में सहायता कर सके। उस समय विश्व का लगभग प्रत्येक राष्ट्र अपनी मनमानी कर रहा था जिसके चलते यूरोप की राजनीति में एक प्रकार की अराजक स्थिति बन गई।
- तत्कालीन कारण ‘आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड (Archduke Franz Ferdinand) की हत्या’: जून 1914 में जब ऑस्ट्रिया-हंगरी के सिंहासन के उत्तराधिकारी आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड बोस्निया में साराजेवो का दौरा कर रहे थे, तब उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। एक सर्बियाई व्यक्ति जिसका यह सोचना था कि ऑस्ट्रिया के बजाय सर्बिया को बोस्निया पर नियंत्रण करना चाहिये, ने आर्कड्यूक की हत्या कर दी। इससे सारा यूरोप सकते में आ गया। ऑस्ट्रिया ने इस घटना के लिये सर्बिया को उत्तरदायी माना। ऑस्ट्रिया ने सर्बिया को चेतावनी दी कि वह 48 घंटे के अंदर इस घटना के संदर्भ में अपनी स्थिति स्पष्ट कर अपराधियों का दमन करे। लेकिन सर्बिया ने ऑस्ट्रिया की मांग को ठुकरा दिया। परिणामस्वरूप 28 जुलाई, 1914 को ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। देखते-ही-देखते विश्व के अन्य राष्ट्र भी अपने-अपने गुटों के समर्थन में उतर आए और युद्ध विकराल होता चला गया। नतीजतन:
- इस युद्ध में रूस भी शामिल हो गया क्योंकि उसने सर्बिया के साथ संधि कर रखी थी।
- इसके बाद जर्मनी ने रूस के साथ युद्ध की घोषणा कर दी क्योंकि जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी के मध्य संधि हुई थी।
- इसके बाद ब्रिटेन ने जर्मनी के साथ युद्ध की घोषणा कर दी क्योंकि जर्मनी ने तटस्थ बेल्जियम पर आक्रमण कर दिया था, जबकि ब्रिटेन ने बेल्जियम और फ्राँस दोनों देशों की रक्षा के लिये समझौते किये हुए थे।
- युद्ध के दौरान हुए कुछ प्रमुख युद्धों में मार्ने का प्रथम युद्ध, सोम्मे का युद्ध, टैनबर्ग का युद्ध, गैलीपोली का युद्ध और वर्दुन का युद्ध आदि शामिल थे।
युद्ध के चरण
- यूरोप, अफ्रीका और एशिया में कई मोर्चों पर संघर्ष शुरू हुआ। इसके दो मुख्य परिदृश्य थे जिसमें एक था पश्चिमी मोर्चा; जहाँ जर्मनों ने ब्रिटेन, फ्राँस और वर्ष 1917 के बाद अमेरिकियों के साथ संघर्ष किया। दूसरा मोर्चा पूर्वी मोर्चा था जिसमें रूसियों ने जर्मनी और ऑस्ट्रो-हंगेरियन सेनाओं के खिलाफ युद्ध लड़ा।
- वर्ष 1914 में थोड़े समय के लिये जर्मनी को युद्ध में बढ़त हासिल हुई, उसके बाद पश्चिमी मोर्चा स्थिर हो गया और एक लंबा तथा क्रूर युद्ध शुरू हो गया। इस बीच पूर्वी मोर्चे पर जर्मनी की स्थिति मज़बूत हो गई लेकिन निर्णायक रूप से ऐसा नहीं हुआ।
- वर्ष 1917 में दो घटनाएँ घटित हुईं जिन्होंने संपूर्ण युद्ध का रुख ही बदल दिया। सर्वप्रथम जहाँ एक ओर संयुक्त राज्य अमेरिका मित्र राष्ट्रों के बेड़े में शामिल हो गया, वहीं दूसरी ओर रूसी क्रांति के बाद रूस युद्ध से बाहर हो गया और उसने एक अलग शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये।
- अंत में वर्ष 1918 में जर्मन आक्रमण के बाद मित्र देशों के पलटवार ने जर्मन सेना को निर्णायक वापसी हेतु मजबूर कर दिया। अक्तूबर-नवंबर 1918 में क्रमशः तुर्की और ऑस्ट्रिया ने आत्मसमर्पण कर दिया, जिससे जर्मनी अकेला पड़ गया। युद्ध में पराजय और आर्थिक संकट के कारण जर्मनी में विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो गई तथा जर्मन सम्राट कैज़र विलियम द्वितीय को गद्दी त्यागनी पड़ी। इसके बाद जर्मनी में वेमर गणतंत्र की स्थापना हुई, साथ ही नई सरकार ने 11 नवंबर, 1918 को युद्धविराम के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किये और यह प्रलयंकारी प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो गया।
युद्ध के लिये उत्तरदायी कौन था?
- युद्ध में सम्मिलित कोई भी देश युद्ध के लिये स्वयं को उत्तरदायी नहीं मानता था बल्कि वे यह दावा करते थे कि उन्होंने शांति व्यवस्था बनाए रखने की चेष्टा की लेकिन शत्रु राष्ट्र की नीतियों के कारण युद्ध हुआ। हालाँकि वर्साय संधि की एक धारा में जर्मनी और उसके सहयोगी राष्ट्रों को युद्ध के लिये उत्तरदायी माना गया किंतु यह मित्र राष्ट्रों का एक पक्षीय निर्णय था।
- वस्तुतः प्रथम विश्व युद्ध के लिये सभी राष्ट्र उत्तरदायी थे, सिर्फ जर्मनी ही इसके लिये जवाबदेह नहीं था। सर्बिया ने ऑस्ट्रिया की जायज़ मांगों को अस्वीकार कर युद्ध आरंभ करवा दिया तथा ऑस्ट्रिया द्वारा युद्ध की घोषणा किये जाने से रूस सैनिक कार्रवाई करने के लिये बाध्य हुआ।
- सर्बिया की समस्या को कूटनीतिक स्तर पर हल करने के बजाय रूस ने इसका समाधान सैनिक कार्यवाही द्वारा करने का निर्णय लिया। जर्मनी की मजबूरी यह थी कि वह अपने मित्र राष्ट्र ऑस्ट्रिया का साथ नहीं छोड़ सकता था, इसलिये रूस द्वारा सैनिक कार्यवाही आरंभ होने पर जर्मनी भी सैन्य कार्रवाई हेतु बाध्य हुआ।
- इंग्लैंड ने भी युद्ध की स्थिति को टालने के लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाया। उसने अपने सहयोगी राष्ट्रों को भी युद्ध से अलग रहने की सलाह नहीं दी, फलतः दोनों गुटों के राष्ट्र युद्ध में सम्मिलित होते गए और एक छोटा युद्ध विश्व युद्ध में परिणत हो गया।
इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के लिये सभी राष्ट्र उत्तरदायी थे, इसके लिये किसी एक राष्ट्र को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।
युद्ध के परिणाम
- आर्थिक परिणाम: प्रथम विश्व युद्ध में भाग लेने वाले देशों का बहुत अधिक धन खर्च हुआ। जर्मनी और ग्रेट ब्रिटेन ने अपनी अर्थव्यवस्था से प्राप्त धन का लगभग 60% हिस्सा युद्ध में खर्च किया। देशों को करों को बढ़ाना पड़ा और अपने नागरिकों से धन भी उधार लेना पड़ा। उन्होंने हथियार खरीदने तथा युद्ध के लिये आवश्यक अन्य चीजों हेतु भी अपार धन व्यय किया। इस स्थिति ने युद्ध के बाद मुद्रास्फीति को जन्म दिया।
- राजनीतिक परिणाम: प्रथम विश्व युद्ध ने चार राजतंत्रों को समाप्त कर दिया। रूस के सीज़र निकोलस द्वितीय, जर्मनी के कैसर विल्हेम, ऑस्ट्रिया के सम्राट चार्ल्स और ओटोमन साम्राज्य के सुल्तान को पद छोड़ना पड़ा।
- प्रथम विश्व युद्ध के बाद विश्व मानचित्र में परिवर्तन आया, साम्राज्यों के विघटन के साथ ही पोलैंड ,चेकोस्लोवाकिया, युगोस्लाविया जैसे नए राष्ट्रों का उदय हुआ।
- ऑस्ट्रिया, जर्मनी, फ्राँस और रूस की सीमाएँ बदल गईं।
- बाल्टिक साम्राज्य, रूसी साम्राज्य से स्वतंत्र कर दिये गए।
- एशियाई और अफ्रीकी उपनिवेशों पर मित्र राष्ट्रों का अधिकार होने से वहाँ भी परिस्थिति बदली। इसी प्रकार जापान को भी अनेक नए क्षेत्र प्राप्त हुए। इराक को ब्रिटिश एवं सीरिया को फ्राँसीसी संरक्षण में रख दिया गया।
- फिलिस्तीन, इंग्लैंड को दे दिया गया।
- सामाजिक परिणाम: विश्व युद्ध ने समाज को पूरी तरह से बदल दिया। जन्म दर में गिरावट आई क्योंकि लाखों युवा मारे गए (आठ मिलियन लोग मारे गए), लाखों घायल हो गए तथा कई अन्य विधवा और अनाथ हो गए। नागरिकों ने अपनी ज़मीन खो दी और अन्य देशों की ओर प्रवास किया।
- महिलाओं की भूमिका में भी परिवर्तन आ गया। उन्होंने कारखानों और दफ्तरों में पुरुषों का स्थान लिया।
- उन्होंने कारखानों और कार्यालयों में पुरुषों की जगह लेने में एक प्रमुख भूमिका निभाई। कई देशों ने युद्ध समाप्त होने के बाद महिलाओं को अधिक अधिकार दिये जिसमें वोट देने का अधिकार भी शामिल था।
- उच्च वर्गों ने समाज में अपनी अग्रणी भूमिका खो दी। युवा, मध्यम और निम्न वर्ग के पुरुषों तथा महिलाओं ने युद्ध के बाद अपने देश के पुनर्गठन की मांग की।
- वर्सेल्स/वर्साय की संधि (Treaty of Versailles): 28 जून, 1919 को वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर के साथ प्रथम विश्व युद्ध आधिकारिक रूप से समाप्त हो गया। वर्साय की संधि दुनिया को दूसरे युद्ध में जाने से रोकने का प्रयास थी।
वर्सेल्स/वर्साय की संधि के कुछ प्रमुख बिंदु
यह संधि अलग-अलग खंडों में विभाजित थीं, जिनके अंदर कई धाराएँ शामिल थीं।
- प्रादेशिक खंड:
- फ्राँस ने अल्सास और लोरेन को वापस पा लिया।
- यूपेन और माल्देमी बेल्जियम के हाथों में चले गए।
- पूर्वी क्षेत्रों को पोलैंड ने नष्ट कर दिया था जिससे पूर्वी प्रुशिया क्षेत्रीय रूप से अलग-थलग पड़ गया था।
- डेंटिग और मेमेल, पूर्व बाल्टिक जर्मन शहरों को मुक्त शहर घोषित किया गया था।
- डेनमार्क ने उत्तरी श्लेस्विग-होल्स्टीन पर कब्ज़ा कर लिया।
- जर्मनी ने अपने सभी उपनिवेश खो दिये और विजेता देशों ने उन्हें वापस ले लिया।
- सैन्य खंड:
- जर्मन नौसेना पर कठोर प्रतिबंध।
- सेना की संख्या में नाटकीय कमी (केवल 100,000 सैनिकों की अनुमति तथा टैंक, विमान और भारी तोपखाने रखना निषेध किया गया।)
- राइनलैंड क्षेत्र का विसैन्यीकरण।
- युद्ध सुधार:
- इस संधि ने जर्मनी और उसके उन सहयोगियों को कुल 'हानि और क्षति' के लिये ज़िम्मेदार ठहराया, जो कि मित्र राष्ट्रों द्वारा पीड़ित थे और इसके परिणामस्वरूप उन्हें युद्ध के पुनर्मूल्यांकन के लिये मजबूर किया गया था।
अन्य संधियाँ
- न्यूली की संधि (Newly Treaty) बुल्गारिया के साथ हस्ताक्षरित
- छोटे बाल्कन देशों को बहुत अधिक क्षेत्रीय नुकसान हुआ तथा बुल्गारिया के अनेक क्षेत्र यूनान, युगोस्लाविया और रोमानिया को दे दिया गया।
- सेवर्स की संधि (Sevres Treaty) तुर्की के साथ हस्ताक्षरित
- सेवर्स की संधि बेहद कठिन थी और इसने तुर्की के राष्ट्रीय विद्रोह का नेतृत्व किया। इसके अंतर्गत ओटोमन साम्राज्य विखंडित कर दिया गया तथा इसके अनेक क्षेत्र यूनान और इटली को दे दिये गए। फ्राँस को सीरिया तथा पैलेस्तीन, इराक और ट्रांसजॉर्डन को ब्रिटिश मैंडेट के अंतर्गत कर दिया गया।
हालाँकि युद्ध के कारण कई अन्य महत्त्वपूर्ण सामाजिक और वैचारिक परिवर्तन भी देखे गए।
- अमेरिका, जिसने अपने क्षेत्र में संघर्ष का अनुभव किये बिना युद्ध जीत लिया था, पहली विश्व शक्ति बन गया।
- युद्ध में पुरुषों के संलग्न होने के कारण महिलाएँ कार्यबल में शामिल हुईं, जो महिलाओं के अधिकारों के लिये एक बड़ा कदम था।
- युद्ध के दौरान चरम राष्ट्रवाद का अनुभव किया गया, जिसने कम्युनिस्ट क्रांति का डर पैदा किया तथा कुछ देशों के मध्यम वर्ग की आबादी को चरम अधिकारों की मांग की ओर बढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया। इसने फासीवादी आंदोलनों के प्रति आकर्षण भी पैदा किया।
- राष्ट्र संघ का गठन: राष्ट्र संघ प्रथम विश्व युद्ध के बाद विकसित एक अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक समूह था, जिसका गठन देशों के बीच विवादों को सुलझाने के लिये किया गया।
WW I और भारत
भारत के लिये प्रथम विश्वयुद्ध का महत्त्व
- चूँकि इस युद्ध में ब्रिटेन भी शामिल था और उन दिनों भारत पर ब्रिटेन का शासन था, अतः इस कारण हमारे सैनिकों को इस युद्ध में शामिल होना पड़ा।
- इसके अतिरिक्त उस समय भारतीय राष्ट्रवाद के प्रभुत्व का दौर था, राष्ट्रवादी यह मानते थे कि युद्ध में ब्रिटेन को सहयोग देने के परिणामस्वरूप अंग्रेजों द्वारा भारतीय निवासियों के प्रति उदारता बरती जाएगी और उन्हें अधिक संवैधानिक अधिकार प्राप्त होंगे।
- इस युद्ध के बाद वापस लौटे सैनिकों ने जनता का मनोबल बढ़ाया।
- दरअसल, भारत ने लोकतंत्र की प्राप्ति के वादे के तहत इस विश्व युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन किया था लेकिन युद्ध के तुरंत बाद अंग्रेज़ों ने रौलेट एक्ट पारित कर दिया। इसके परिणामस्वरूप भारतीयों में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति असंतोष का भाव जागा और उनमें राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ जिसके चलते जल्द ही असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई।
- इस युद्ध के बाद यूएसएसआर के गठन के साथ ही भारत में भी साम्यवाद का प्रसार (सीपीआई के गठन) हुआ और परिणामतः स्वतंत्रता संग्राम पर समाजवादी प्रभाव देखने को मिला।
प्रथम विश्व युद्ध में शामिल होने का कारण
- भारतीय सैनिकों ने युद्ध के मैदान में बहादुरी के साथ लड़कर अपने कबीले या जाति को सम्मान दिलाने के कार्य को अपने कर्तव्य के रूप में देखा।
- एक भारतीय पैदल सैनिक का मासिक वेतन उस समय महज़ 11 रुपए था, लेकिन युद्ध में भाग लेने से अर्जित अतिरिक्त आय किसान परिवार के लिये एक अच्छा विकल्प थी, इसलिये युद्ध में शामिल होने का एक उद्देश्य धन की प्राप्ति को माना जा सकता है।
- अक्सर विभिन्न पत्रों में उल्लेख मिलता है कि भारतीय सैनिकों ने सम्राट जॉर्ज पंचम के प्रति व्यक्तिगत कर्त्तव्य की भावना से प्रेरित होकर इस युद्ध में हिस्सा लिया था।
- गौरतलब है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और देश का सामाजिक-आर्थिक विकास एक-दूसरे से अलग नहीं है बल्कि यह सह-संबंधित है। प्रथम विश्व युद्ध ने भारत को वैश्विक घटनाओं और इसके विभिन्न प्रभावों से जोड़ने का कार्य किया। इसके विभिन्न प्रभाव निम्नानुसार हैं -
राजनीतिक प्रभाव
- युद्ध की समाप्ति के बाद भारत में पंजाबी सैनिकों की वापसी ने उस प्रांत में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ राजनीतिक गतिविधियों को भी उत्तेजित किया जिसने आगे चलकर व्यापक विरोध प्रदर्शनों का रूप ले लिया। उल्लेखनीय है कि युद्ध के बाद पंजाब में राष्ट्रवाद का बड़े पैमाने पर प्रसार हेतु सैनिकों का एक बड़ा भाग सक्रिय हो गया।
- जब 1919 का मोंटग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार 'गृह शासन की अपेक्षाओं को पूरा करने में असफल रहा तो भारत में राष्ट्रवाद और सामूहिक नागरिक अवज्ञा का उदय हुआ।
- युद्ध हेतु सैनिकों की ज़बरन भर्ती से उत्पन्न आक्रोश ने राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने की पृष्ठभूमि तैयार की।
सामाजिक प्रभाव
- युद्ध के तमाम नकारात्मक प्रभावों के वाबजूद वर्ष 1911 और 1921 के बीच भर्ती हुए सैनिक समुदायों की साक्षरता दर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। युद्ध के मैदान में पुरुषों की उपयोगिता की धारणा का उन दिनों महत्त्व होने के कारण सैनिकों ने अपने विदेशी अभियानों हेतु पढ़ना-लिखना सीखा।
- युद्ध में भाग लेने वाले विशेष समुदायों का सम्मान समाज में बढ़ गया।
- इसके अतिरिक्त गैर-लड़ाकों की भी बड़ी संख्या में भारत से भर्ती की गई, जैसे कि नर्स, डॉक्टर इत्यादि। अतः इस युद्ध के दौरान महिलाओं के कार्य-क्षेत्र का भी विस्तार हुआ और उन्हें सामाजिक महत्त्व भी प्राप्त हुआ।
- हालाँकि भारतीय समाज को ऐसी परिस्थितियों में आवश्यक सेवाओं से वंचित कर दिया गया जहाँ पहले से ही एस प्रकार की सेवाओं/कौशल (नर्स, डॉक्टर) का अभाव था।
आर्थिक प्रभाव
- ब्रिटेन में भारतीय सामानों की मांग में तेज़ी से वृद्धि हुई क्योंकि ब्रिटेन में उत्पादन क्षमता पर युद्ध के कारण बुरा प्रभाव पड़ा था।
- हालाँकि युद्ध के कारण शिपिंग लेन में व्यवधान उत्पन्न हुआ लेकिन इसका यह अर्थ था कि भारतीय उद्योगों को ब्रिटेन और जर्मनी से पूर्व में आयात किये गए इनपुट की कमी की वजह से असुविधा का सामना करना पड़ा था। अतः अतिरिक्त मांग के साथ-साथ आपूर्ति की बाधाएँ भी मौजूद थीं।
- युद्ध का एक और परिणाम मुद्रास्फीति के रूप में सामने आया। वर्ष 1914 के बाद छह वर्षों में औद्योगिक कीमतें लगभग दोगुनी हो गईं और तेज़ी से बढ़ती कीमतों ने भारतीय उद्योगों को लाभ पहुँचाया।
- कृषि उत्पादों की कीमत औद्योगिक कीमतों की तुलना में धीमी गति से बढ़ी। अगले कुछ दशकों में विशेष रूप से महामंदी (Great Depression) के दौरान वैश्विक वस्तुओं की कीमतों में गिरावट की प्रवृत्ति जारी रही।
- खाद्य आपूर्ति, विशेष रूप से अनाज की मांग में वृद्धि से खाद्य मुद्रास्फीति में भी भारी वृद्धि हुई। यूरोपीय बाज़ार को नुकसान के कारण जूट जैसे नकदी फसलों के निर्यात को भी भारी नुकसान पहुँचा।
- उल्लेखनीय है कि इस बीच सैनिकों की मांग में वृद्धि के चलते भारत में जूट उत्पादन में संलग्न मज़दूरों की संख्या में कमी हुई और बंगाल के जूट मिलों के उत्पादन को भी हानि पहुँची जिसके लिये मुआवज़ा दिया गया परिणामतः आय असमानता में वृद्धि हुई।
- वहीं, कपास जैसे घरेलू विनिर्माण क्षेत्रों में ब्रिटिश उत्पादों में आई गिरावट से लाभ भी हुआ जो कि युद्ध पूर्व बाज़ार पर हावी था।
- ब्रिटेन में ब्रिटिश निवेश को पुनः शुरू किया गया, जिससे भारतीय पूंजी के लिये अवसर सृजित हुए।
हालाँकि यह "सभी युद्धों को समाप्त करने के लिये एक युद्ध" के विचार के विपरीत निकला। वर्सेटाइल की संधि के माध्यम से जर्मनी की आर्थिक बर्बादी और राजनीतिक अपमान को सुनिश्चित किया गया जो कि द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में परिणत हुआ।