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अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का दर्जा
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे पर फैसला सुनाया। यह मामला AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को बहाल करने की मांग करने वाली याचिकाओं से उपजा था, जिसे वर्ष 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था।
मुख्य बिंदु
- न्यायालय ने वर्ष 1967 के संविधान पीठ के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि AMU को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता क्योंकि इसकी स्थापना एक क़ानून द्वारा की गई थी और यह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय था।
- मुख्य टिप्पणियाँ:
- न्यायालय ने कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा निर्मित कोई भी संस्था अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्था कहलाती है, चाहे वह कानूनी रूप से किसी भी रूप में गठित हो।
- ऐसी संस्थाओं का उद्देश्य समुदाय के सांस्कृतिक ताने-बाने को संरक्षित रखना है ।
- अल्पसंख्यक दर्जा इस बात पर निर्भर नहीं करता कि संस्था केवल समुदाय के लिये है, बल्कि मुख्य रूप से उसे लाभ पहुँचाती है।
- न्यायालय ने पाया कि समुदाय द्वारा प्रशासनिक नियंत्रण खोने से संस्था का अल्पसंख्यक चरित्र समाप्त नहीं हो जाता।
- अनुच्छेद 30(1) महत्त्व:
- अनुच्छेद 30(1) अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षिक और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित करने के लिये शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन का अधिकार देता है।
- प्रशासन का अधिकार समुदाय के सदस्यों को संस्था का प्रबंधन करने की आवश्यकता नहीं रखता है, बल्कि यह समुदाय-विशिष्ट शैक्षिक लक्ष्यों को बनाए रखने के लिये संस्था की स्वायत्तता सुनिश्चित करता है।
- अनुच्छेद 30(1) अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षिक और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित करने के लिये शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन का अधिकार देता है।
- AMU मामला:
- 1875 में स्थापित AMU को AMU (संशोधन) अधिनियम, 1981 के माध्यम से संसद द्वारा अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था, लेकिन इस प्रावधान को 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अमान्य कर दिया था।
- सरकार का तर्क:
- केंद्र ने तर्क दिया कि राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के रूप में AMU को उसके राष्ट्रीय चरित्र के कारण अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता ।
- सरकार ने तर्क दिया कि AMU किसी विशेष धर्म या समुदाय तक सीमित नहीं है।
- विश्वविद्यालय का रुख:
- AMU ने कहा कि इसकी स्थापना मूलतः मुस्लिम समुदाय द्वारा अपने सदस्यों को शिक्षा और सशक्तीकरण प्रदान करने के लिये की गई थी।
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पुलिस प्रमुख की नियुक्ति के लिये नए नियम
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य के पुलिस महानिदेशक (DGP) की नियुक्ति के लिये नए नियम बनाए हैं।
मुख्य बिंदु
- उत्तर प्रदेश में DGP नियुक्ति के नए नियम इस प्रकार हैं:
- यूपी कैबिनेट ने पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश चयन एवं नियुक्ति नियमावली, 2024 को मंज़ूरी दे दी।
- DGP का चयन अधिकारी के सेवा रिकॉर्ड, अनुभव और शेष कार्यकाल पर विचार करते हुए एक समिति द्वारा किया जाएगा।
- केवल वे अधिकारी ही इस पद के लिये पात्र हैं जिनकी सेवानिवृत्ति से पहले कम से कम छह महीने की सेवा शेष हो।
- नियुक्त DGP न्यूनतम दो वर्ष तक पद पर रहेंगे।
- चयन समिति में एक सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव, संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) के प्रतिनिधि और अन्य शामिल हैं।
- मौजूदा प्रथा:
- राज्य सरकार को वर्तमान DGP की सेवानिवृत्ति से तीन महीने पहले UPSC को पात्र वरिष्ठ अधिकारियों की सूची भेजनी होगी।
- UPSC सूची की समीक्षा करता है और अंतिम नियुक्ति के लिये तीन उम्मीदवारों की एक सूची राज्य को भेजता है।
- रिक्ति सृजन की तिथि से छह महीने का न्यूनतम कार्यकाल (सेवानिवृत्ति से पहले) वाले अधिकारी ही DGP के रूप में नियुक्ति के लिये पात्र होंगे। एक बार नियुक्त होने के पश्चात, DGP का न्यूनतम कार्यकाल दो वर्ष का होगा।
- नये नियमों का कारण:
- अस्थायी DGP की नियुक्ति को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं के बाद सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना नोटिस के जवाब में ये नियम पेश किए गए थे ।
- याचिकाओं में तर्क दिया गया है कि अस्थायी नियुक्तियां सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का उल्लंघन हैं, जिसका उद्देश्य पुलिस को राजनीतिक प्रभाव से बचाना है।
- यद्यपि 17 राज्यों ने अपने-अपने पुलिस अधिनियम बनाए हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश ने अब तक ऐसा नहीं किया था।
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