उत्तराखंड
उत्तराखंड में 42 वन प्रयोगशालाओं की स्थापना
- 18 Sep 2024
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चर्चा में क्यों?
हाल ही में उत्तराखंड वन विभाग ने वनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की निगरानी के लिये 42 पारिस्थितिक प्रयोगशालाएँ स्थापित की हैं।
प्रमुख बिंदु
- ये प्रयोगशालाएँ रोडोडेंड्रोन और ब्रह्मकमल में शीघ्र पुष्पन तथा उच्च तापमान से प्रभावित लीची की गुणवत्ता जैसे परिवर्तनों पर डेटा एकत्र करेंगी।
- ये 'पारिस्थितिक प्रयोगशालाएँ', जिन्हें 'जीवित प्रयोगशालाएँ' भी कहा जाता है, तराई क्षेत्र से लेकर अल्पाइन घास के मैदानों तक विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में फैली हुई हैं।
- उत्तराखंड में 46 विभिन्न प्रकार के वन हैं, जो वैश्विक जलवायु परिवर्तन अनुसंधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
- उत्तराखंड में इस वर्ष गर्मियों में तापमान 42 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो गया है, जिससे देहरादून की और रामनगर लीची की गुणवत्ता प्रभावित हुई है।
- रोडोडेंड्रोन: रोडोडेंड्रोन लगभग 1,000 प्रजातियों वाले फूलदार पौधों की एक प्रजाति है, जो अपने आकर्षक, चमकीले रंग के फूलों के लिये जाने जाते हैं और सजावटी झाड़ियों या छोटे पेड़ों के रूप में लोकप्रिय हैं।
- भारत में गुलाबी रोडोडेंड्रोन हिमाचल प्रदेश का राज्य पुष्प है तथा रोडोडेंड्रोन आर्बोरियम नागालैंड का राज्य पुष्प और उत्तराखंड का राज्य वृक्ष है।
- स्वास्थ्य लाभ: हृदय, पेचिश, डायरिया, विषहरण, सूजन, बुखार, कब्ज, ब्रोंकाइटिस और अस्थमा से जुड़ी बीमारियों की रोकथाम व उपचार। पत्तियों में प्रभावी एँटीऑक्सीडेंट गतिविधि होती है। नई पत्तियों का उपयोग सिरदर्द को कम करने के लिये किया जाता है। इस पौधे की लकड़ी का उपयोग खुखरी के हैंडल, पैक सैडल, उपहार बॉक्स और गनस्टॉक बनाने के लिये किया जा सकता है।
- ब्रह्मकमल: यह उत्तराखंड का राज्य पुष्प है।
- यह जम्मू और कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश तक हिमालय के अल्पाइन घास के मैदानों में पाया जाता है तथा भूटान, चीन, नेपाल व पाकिस्तान में 3700 से 4600 मीटर की ऊँचाई पर भी पाया जाता है।
- पौधे की जड़ों और पुष्प कलियों का उपयोग ल्यूकोडर्मा, मूत्र संबंधी समस्याओं, हड्डियों के फ्रैक्चर, घाव, हड्डियों में दर्द, खाँसी, सर्दी और पाचन समस्याओं के इलाज के लिये किया जाता है; पूरे पौधे का उपयोग हेमट्यूरिया में पशु चिकित्सा के लिये किया जाता है।
- तवांग में इसके सूखे पाउडर या पेस्ट का उपयोग त्वचा रोगों के लिये किया जाता है और फूलों की कलियों का उपयोग फोड़े के उपचार के लिये किया जाता है।
लीची
- वानस्पतिक वर्गीकरण: लीची सैपिंडेसी से संबंधित है और अपने स्वादिष्ट, रसदार, पारदर्शी बीजपत्र या खाद्य गूदे के लिये जानी जाती है।
- जलवायु संबंधी आवश्यकताएँ: लीची उपोष्णकटिबंधीय जलवायु में पाई जाती है और नम परिस्थितियों को पसंद करती है। यह कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में सबसे अच्छी तरह से बढ़ती है, लगभग 800 मीटर की ऊँचाई तक।
- मृदा की प्राथमिकता: लीची की कृषि के लिये उपयुक्त मृदा गहरी, अच्छी जल निकासी वाली, कार्बनिक पदार्थों से भरपूर दोमट मृदा है।
- तापमान संवेदनशीलता: लीची तापमान के प्रति संवेदनशील है। यह गर्मियों में 40.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान या सर्दियों में शून्य से नीचे के तापमान को सहन नहीं कर पाती है।
- वर्षा का प्रभाव: लंबे समय तक वर्षा, विशेषकर फूल आने के दौरान, परागण में बाधा उत्पन्न कर सकती है तथा फसल पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है।
- भौगोलिक कृषि: भारत में वाणिज्यिक कृषि पारंपरिक रूप से उत्तर में हिमालय की तराई में त्रिपुरा से जम्मू-कश्मीर तक और उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के मैदानी इलाकों तक ही सीमित थी।
- लेकिन बढ़ती मांग और व्यवहार्यता के कारण इसकी कृषि बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों तक फैल गई है।
- भारत के लीची उत्पादन में अकेले बिहार का योगदान लगभग 40% है। बिहार के बाद पश्चिम बंगाल (12%) और झारखंड (10%) का स्थान आता है।
- वैश्विक उत्पादन: भारत पूरे विश्व में लीची का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जो चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। अन्य महत्त्वपूर्ण लीची उत्पादक देशों में थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, मेडागास्कर और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।